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भारत में वामपंथी उग्रवाद का प्रसार
1.0 प्रस्तावना
1947 के बाद से भारत ने जिन विविध उग्रवादी आंदोलनों का सामना किया है, उनमें से 1960 के दशक के बाद का नक्सलवादी आंदोलन सबसे कठिन और निर्बाध रहा है। इसकी उत्पत्ति 1960 के दशक के सीपीआई (एमएल) के गठन और नक्सलबाड़ी उठाव के साथ जोड़ी जा सकती है, जिसके बाद से नक्सलवादियों ने देश के विभिन्न हिस्सों से कार्रवाइयां करना शुरू कर दिया। हालांकि नक्सलवाद एक वास्तविक खतरे के रूप में तब उभरा जब पीपुल्स वार ग्रुप और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर जैसे सशस्त्र समूहों ने 2004 में एक दूसरे के साथ हाथ मिला लिए और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) - सीपीआई (एम) - का गठन किया, ताकि भारतीय राज्य के विरुद्ध लड़ा जा सके। नक्सलियों का लोकतंत्र में विश्वास नहीं है, और वास्तव में वे संसद को ‘‘अर्थहीन‘‘ मानते हैं। जबकि वे राज्य और उसकी सशस्त्र सेनाओं को अपना ‘शत्रु‘ मानते हैं, वही नक्सल आंदोलन अपने सदस्यों को हथियार उठाने और शत्रु को निर्णायक रूप से पराजित करने का आव्हान करता है। इस आंदोलन का मानना है कि राज्य केवल कुलीन वर्ग का प्रतिनिधि है, और यह समाज के निचले तबके के हितों को पूरा करने की दिशा में काम नहीं करता है।
2.0 नक्सलबाड़ी
भारत में वामपंथी उग्रवाद की जडें वामपंथी/साम्यवादी राजनीतिक आंदोलनों, श्रमिकों और कृषकों के उपद्रवों, क्रान्तिकारी समाजों और भारत में औपनिवेशिक शासन के विभिन्न चरणों के दौरान हुए आदिवासी और जनजातीय विद्रोहों में खोजी जा सकती हैं। हालांकि ये आंदोलन अपने घोषित उद्देश्यों तक पहुँचने में असफल रहे हैं, फिर भी उन्होंने वंचित तबके के लोगों में जो क्रान्तिकारी जोश भर दिया था, और जो जन-समूह इकठ्ठा करने में सफलता प्राप्त की, वह स्वतंत्रता के बाद के काल में भी जारी रही। इन आंदोलनों ने दिखा दिया है कि संसाधन-विहीन और अशिक्षित लोगों को भी एक दुर्जेय शक्ति के रूप में संगठित किया जा सकता है।
विदेशी शासन के चंगुल से भारत की स्वतंत्रता ने देश के भूमिहीनों, आदिवासियों, और अन्य पिछडे़ और दलित वर्गों के लोगों में एक अपार आशा जगाई थी। जनता के कुछ वर्गों को यह समझने में अधिक समय नहीं लगा कि शायद स्वतंत्रता ने उनके लिए कुछ भी नया नहीं लाया है, और लगभग सारी स्थितियां उसी तरह की रही हैं, जैसी वे पहले थीं। कई अन्य को यह भी प्रतीत हुआ कि भविष्य में भी किसी प्रकार के परिवर्तन की कोई उम्मीद नहीं थी। चुनावी राजनीति पर भूस्वामियों का वर्चस्व था, और जिन भूमि सुधारों के वादे किये गए थे वे भी अपेक्षित भावना से नहीं किये जा रहे थे। पुरानी शोषणकारी व्यवस्था एक नए अवतार में जारी रखी गई थी। इस सब का परिणाम यह हुआ कि सामान्य जनता का मोहभंग हो गया। उन्हें पुराने वामपंथी नेताओं और क्रांतिकारियों की ये भविष्यवाणियां याद आने लगीं जिनमें उन्होंने कहा था कि ब्रिटिश शासन से भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता का अर्थ केवल यह होगा कि शोषण करने वाले बदल जायेंगे और सामाजिक-आर्थिक संरचना वैसी ही बनी रहेगी, और इस शोषण को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए एक सशस्त्र क्रांति की आवश्यकता होगी।
बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर के कट्टरपंथियों ने पार्टी नेतृत्व पर ‘‘संशोधनवादी‘‘ होने का आरोप लगाया, क्योंकि उन्होंने संसदीय लोकतंत्र को अपना लिया था। पार्टी के भीतर बढ़ते असंतोष का परिणाम अंततः सीपीआई के विभाजन में हुआ। नई गठित पार्टी, अर्थात भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (एम) ने 1967 में बंगाल और केरल में संयुक्त मोर्चा सरकारों में भागीदारी भी की थी। परंतु ज़मीनी हकीकत के तौर पर इससे कुछ खास हासिल नहीं हो सका।
नक्सलबाड़ी घटना को उस चिंगारी के रूप में देखा जा सकता है, जिसने एक मूल रूप से कृषकों के राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक आंदोलन को एक सशस्त्र संघर्ष में परिवर्तित कर दिया। यह घटना चारु मजुमदार, जांगल संथाल और कनु सान्याल जैसे कट्टरपंथी कम्युनिस्ट नेताओं द्वारा चलाये गए भूमिगत प्रयासों का परिणाम थी, जिन्होंने भूमिहीन किसानों को इस बात के लिए संगठित करने में सफलता पायी थी कि वे जमींदारों के स्वामित्व वाली भूमि पर जबरन कब्जा कर लें, जिन्हें वे ‘‘वर्ग के शत्रु‘‘ कहते थे। हालांकि कुछ लोगों का विचार है कि यह घटना वर्षों की वैचारिक और रणनीतिक तैयारी का परिणाम थी, और जब यह घटना घटी उसी समय सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से राज्य की सत्ता अपने हाथ में लेने का विषय कट्टरपंथी कम्युनिस्ट नेताओं की विषयसूची पर पहले से ही था। यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि 1917 की सोवियत क्रांति और 1949 में चीन में साम्यवादी राज्य की निर्मिति - जो दोनों क्रूर शक्ति द्वारा हासिल किये गए थे - कहीं न कहीं भारत में इस आंदोलन के कर्ताधर्ताओं के लिए निश्चित तौर पर बडे़ प्रेरक रहे होंगे।
सीपीआई (एम) पार्टी के अंदरूनी मतभेदों में सामंजस्य स्थापित करने के उद्देश्य से 1967 में कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की अखिल भारतीय समन्वय समिति (एआईसीसीसीआर) का गठन हुआ। यह असफल हुआ, और कट्टरपंथी नेताओं को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। अतः 22 अप्रैल 1969 को उन्होंने एक नई पार्टी का गठन किया जिसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) अर्थात सीपीआई (एमएल) कहा गया। चारु मजूमदार नई गठित पार्टी की केंद्रीय आयोजन समिति के सचिव बने। रेडियो पीकिंग ने 2 जुलाई 1969 को सीपीआई (एमएल) के गठन को स्वीकृत किया। पार्टी क्रांति की प्राप्ति के लिए माओवादी विचारधारा का अनुसरण करने वाली थी। [ यह तथ्य काफी रोचक है कि जबकि मुख्य भूमि चीन (पीआरसी) माओ की विचारधारा को पीछे छोड़ कर एक नए पूंजीवादी कार्यक्षेत्र में आगे बढ़ गया था, फिर भी भारतीय नक्सलवादी उसी मत और विचारधारा से जुड़ें हैं।]
पहले संघर्ष की चिंगारी तब सुलगी जब एक बंटाईदार, बिगुल किसान, की एक स्थानीय जोतदार के सशस्त्र समर्थकों ने पिटाई कर दी। इसके बाद हिंसक झड़पें शुरू हो गईं। किसान समिति की सशस्त्र इकाइयों द्वारा भूमि पर जबरन कब्जा और अनाज छीन लेने की घटना भी हुई। जमींदारों और उनके गिरोहों द्वारा किये गए किसी भी तरह के विरोध को कुचल दिया गया, और कुछ लोग मारे भी गए। मई के अंत तक, स्थिति किसानों के सशस्त्र उठाव की हो गई। सीपीआई नेता, जो अब सत्ता में थे, उन्होंने शुरुआत में आंदोलन के नेताओं को शांत करने का प्रयास किया, किंतु इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। पश्चिम बंगाल के तत्कालीन गृहमंत्री ज्योति बसु ने पुलिस को हस्तक्षेप करने का आदेश दिया। 23 मई को किसानों ने प्रति आक्रमण किया जिसमें झारुगाँव में एक पुलिस निरीक्षक मारा गया। 25 मई को नक्सलबाड़ी में पुलिस अनियंत्रित हो गई, जिसमें उन्होंने नौ महिलाओं और बच्चों को मार दिया। जून में संघर्ष, विशेष रूप से नक्सलबाड़ी, खरीबाड़ी, और फंसीदेवा क्षेत्रों में और अधिक तीव्र हो गया। जोतदारों के घरों पर हमले करके उनसे हथियार और गोलाबारूद छीन लिया गया। लोक न्यायालयों की स्थापना की गई, और निर्णय दे दिए गए। गांव में यह उठाव जुलाई तक जारी रहा। किसानों के समर्थन में चाय बागान कर्मियों ने कई बार काम बंद किया। बाद में, 19 जुलाई को क्षेत्र में बडे़ पैमाने पर अर्धसैनिक बलों को तैनात कर दिया गया। निर्मम घेराबंदी और तलाशी अभियान के दौरान सैकड़ों लोगों के साथ मारपीट की गई और एक हजार से अधिक लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। जांगल संथाल जैसे कुछ नेताओं की गिरतारी हुई, चारु मजूमदार जैसे कुछ नेता भूमिगत हो गए, जबकि त्रिबेनी कानू, अली गोरखा माझी और तिलका माझी जैसे कई नेता ‘शहीद’ हो गए। कुछ हफ्तों बाद, चारु मजूमदार ने लिखा ‘‘भारत में सैकडों नक्सलबाड़ियां सुलग रही हैं। नक्सलबाड़ी मरा नहीं है, और यह कभी नहीं मरेगा।‘‘
हालांकि ‘‘नक्सलबाड़ी उठाव‘‘ असफल रहा, इसने भारत में हिंसक एलडब्लूई आंदोलन की शुरुआत कर दी, और ‘‘नक्सलवाद‘‘ और ‘‘नक्सलवादी‘‘ जैसे शब्दों का जन्म हुआ। एक नेता के नाम के साथ नहीं, बल्कि एक गांव के नाम के साथ राजनीतिक क्रांति की पहचान इतिहास की एक अनोखी घटना है। इसके बाद, अस्सी के दशक में यह पुनः जीवित हुआ, इसने अपना आधार बनाना जारी रखा, और तब से निरंतर इसका विस्तार हो रहा है।
3.0 पीपल्स वार ग्रुप (पीडब्लूजी)
पीपुल्स वार ग्रुप का गठन राज्य के सबसे प्रभावी नक्सलवादी नेताओं में से एक, और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी-लेनिनवादी (सीपीआई-एमएल) की तत्कालीन केंद्रीय संगठन समिति के सदस्य कोंडापल्ली सीतारामैया द्वारा 22 अप्रैल 1980 को दक्षिण भारतीय राज्य आंध्र प्रदेश में किया गया। पीडब्लूजी की गतिविधियां आंध्र प्रदेश के उत्तरी तेलंगाना क्षेत्र के करीमनगर जिले में शुरू हुईं, और बाद में ये राज्य के अन्य भागों, और अन्य राज्यों में भी फैल गईं।
पीडब्लूजी की विचारधारा चीनी नेता माओ त्से तुंग के संगठित किसान विद्रोह के सिद्धांत से प्रेरित है। यह संसदीय लोकतंत्र को अस्वीकार करती है, और इनका विश्वास है कि राजनीतिक सत्ता पर कब्जा गुरिल्ला युद्ध पर आधारित दीर्घकालिक सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है। यह रणनीति इस बात पर जोर देती है कि ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रों में अपना आधार मजबूत किया जाये और उन्हें पहले गुरिल्ला क्षेत्रों में, और बाद में स्वतंत्र क्षेत्रों में परिवर्तित कर दिया जाये। साथ ही साथ क्षेत्रवार कब्जे करके शहरों को घेर लिया जाये। इनका अंतिम उद्देश्य ‘‘जनता की लड़ाई‘‘ के माध्यम से ‘‘जनता की सरकार‘‘ स्थापित करने का है। संक्षेप में, जैसा कि पीडब्लूजी का दावा है, उनका उद्देश्य एक नई लोकतांत्रिक क्रांति (एनडीआर) का सूत्रपात करना है।
पीडब्लूजी अपने संगठन की राजनीतिक और सैन्य शाखाओं के बीच स्पष्ट भेद करता है। पीडब्लूजी के राजनीतिक संगठनात्मक पदानुक्रम में शीर्ष पर केंद्रीय समिति होती है, फिर क्षेत्रीय विभाग, आंचलिक या राज्य समितियां, जिला स्तरीय या मंडल समितियां, और दस्ता क्षेत्रीय समितियां होती हैं। इसकी सैन्य शाखा में केंद्रीय सैन्य आयोग (सीएमसी), जिसकी अध्यक्षता महासचिव गणपति सबसे शीर्ष पर रह कर करता है। और प्रत्येक स्तर पर, राजनीतिक समितियों के सामानांतर सैन्य आयोग होते हैं। सबसे नीचे ग्राम सुरक्षा दस्ते होते हैं, जिनमें गांव के काफी लोग शामिल रहते हैं, जिन्हे जनता रक्षक योद्धाओं के रूप में संगठित किया जाता है। इन्हें छोटे हथियार चलाने का प्राथमिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। राजनीतिक स्तर पर, ग्राम शासन समिति एक दर्पण समिति के रूप में कार्य करती है।
इस संगठन का मुख्य लड़ाकू दल पलटन होता है, जिसमें 25 से 30 उच्च प्रशिक्षित गुरिल्ला लड़ाके होते हैं, जिन्हें वर्गों और उप-वर्गों में संगठित किया जाता है। पलटन दो प्रकार की होती है - सैन्य पलटन और सुरक्षा पलटन। संगठन अपनी पलटनों को सैन्य पलटन और सुरक्षा पलटन के रूप में गठित करता है और उन्हें गुरिल्ला क्षेत्रों में तैनात करता है। 5 से 7 काडर से सुसज्जित दलम, या सशस्त्र टुकड़ी दोयम-लड़ाकू इकाई होती है। टुकड़ी में सदस्यों की संख्या उसके प्रकार के अनुसार बदलती रहती है। अधिकांशतः यह एक स्थानीय गुरिल्ला टुकडी (एलजीएस) के रूप में होती है, और कुछ क्षेत्रों में यह केंद्रीय गुर्रिल्ला टुकडी (सीजीएस) के रूप में कार्य करती है।
पीडब्लूजी के लडाकू दल का गठन जन गुर्रिल्ला सेना (पीजीए) के रूप में किया जाता है। इसका अपना एक ध्वज और प्रतीक चिन्ह भी है। पीजीए का गठन दिसंबर 2000 में किया गया था। पीडब्लूजी के अग्नि आयुध पर अनुमान दर्शाते हैं कि इस समूह के पास लगभग 60 अत्यंत गतिशील और प्रेरित टुकड़ियां हैं, जिनमें प्रत्येक में 40 सदस्य हैं। लगभग 125 गांवों में वे सामानांतर प्रशासन चलाते हैं। पुलिस के अनुमानों के अनुसार, पीडब्लूजी के पास लगभग 1000 से 1050 भूमिगत काडर हैं। इसके अतिरिक्त, संगठन के पास लगभग 5,000 जमीनी कार्यकर्ता हैं।
पीडब्लूजी के पास विद्यार्थियों, युवाओं, औद्योगिक कामगारों, खदान श्रमिकों, खेती मजदूरों, महिलाओं, कवियों, लेखकों और सांस्कृतिक कलाकारों के मोर्चा संगठनों की एक श्रृंखला भी है।
4.0 माओवादी विस्तार
माओवाद से संबंधित मौतों की संख्या में हुई नाटकीय गिरावट के पीछे कुछ ‘‘परदे के पीछे‘‘ की घटनाएँ थीं, जिन्होंने पर्याप्त संकेत दिए हैं कि माओवादी निश्चित रूप से अपनी कार्यशील शक्ति को मजबूत करने की दिशा में काम कर रहे हैं। सुरक्षा बलों की विशाल तैनाती के कारण, ऐसा लग सकता है कि माओवादी उनके पारंपरिक समर्थन आधारों में कमजोर हो गए हैं, परंतु माओवादी दल कई अनछुए परंतु रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थानों में घुसपैठ कर रहे हैं।
आज की स्थिति में, सीपीआई (माओवादी) ने ‘‘क्षेत्रीय ब्यूरो‘‘ के रूप में एक मजबूत संगठनात्मक संरचना तैयार कर ली है। इन ‘‘क्षेत्रीय ब्यूरो‘‘ को आगे समन्वित राजनीतिक और सैन्य लामबंदी के लिए विशेष क्षेत्रों और राज्य स्तरीय क्षेत्रधिकारों में उपविभजित किया गया है। रिपोर्टों के अनुसार, देश में कम से कम पांच क्षेत्रीय ब्यूरो, तेरह राज्य समितियां, दो विशेष क्षेत्र समितियां और तीन विशेष आंचलिक समितियां कार्यरत हैं। (स्वतंत्र स्रोतों से प्राप्त जानकारी)
इसके ‘‘ऊपरी असम प्रमुख समिति‘‘ (यूएएलसी) के गठन के साथ ही सीपीआई (माओवादी) की ‘‘उत्तर की ओर देखो‘‘ नीति को विशेष बल मिला है। हालांकि असम को अभी एक प्राणघातक आक्रमण देखना बाकी है, फिर भी ऐसी खबरें आ रही हैं कि ऊपरी असम तिनसुखिया, गोलाघाट, धेमाजी, डिब्रुगढ़, सिवसागर, लखीमपुर, जोरहाट, और दिबांग घाटी जैसे जिलों के 22 पुलिस स्टेशनों के अंतर्गत माओवादी संगठनात्मक गतिविधियाँ देखी जा रही हैं। यहाँ तक कि असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने भी प्रधानमंत्री से निवेदन किया है कि अधिकांशतः ऊपरी असम के सात जिलों को एकीकृत कार्य योजना की सूची में शामिल किया जाये। (इंडियन एक्सप्रेस, 20 अप्रैल 2012)
सीपीआई (माओवादी) ने अन्य समूहों के साथ ही उत्तरपूर्व के दो प्रमुख विद्रोही गुटों, क्रांतिकारी पीपुल्स फ्रंट (आरपीएफ) और मणिपुर की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के साथ भाईचारे के संबंध स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली है। अक्टूबर 2008 में, सीपीआई (माओवादी) ने पीएलए के साथ एक संयुक्त बयान जारी किया था, जिसमें दोनों ने ‘’आपसी समझ और दोस्ती को मजबूत करने‘‘ और ‘‘समान शत्रु को उखाड़ फैंकने के लिए मिलकर खडे़ रहने‘‘ की बात दोहराई है। हालांकि खुफिया एजेंसियों का दावा है कि दोनों के बीच के रिश्ते 2006 में मजबूत हुए हैं। तब से, पीएलए माओवादियों को म्यांमार के रास्ते चीन से हथियार और संचार उपकरण प्राप्त करने में सहायता प्रदान कर रहा है। हाल ही में पीएलए-सीपीआई (माओवादी) सांठगांठ का मामला 21 मई 2012 को राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा दायर पूरक आरोपपत्र में भी उजागर हुआ है।
महत्वपूर्ण यह है कि कांग्लेईपाक कम्युनिस्ट पार्टी (केसीपी) के एक गुट ने अपना नाम बदल कर मणिपुर की माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी रख लिया है। सीपीआई (माओवादी) इस पर लंबे समय से काम कर रही थी, परंतु ताजा स्थिति के अनुसार, असम-अरुणाचल सीमा अब माओवादी गतिविधि के एक अन्य मंच के रूप में उभर रही है। एक अन्य उत्तर- पूर्वी राज्य नागालैंड में भी 2011 के दौरान हलकी माओवादी गतिविधि देखी गई है, और स्वतंत्र सूत्र अब राज्य के कम से कम एक जिले को माओवाद पीड़ित घोषित कर रहे हैं। हथियार और गोलाबारूद हासिल करने के लिए माओवादियों के एनएससीएन-आईएम नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (इसाक-मुइवह), जैसे उग्रवादी संगठनों के साथ संबंध भी खुफिया ब्यूरो की नजरों में आये हैं। (पंडिता, 2011)
पिछले कुछ वर्षों के दौरान यह भी देखा गया है कि माओवादी गुजरात और महाराष्ट्र के अनछुए क्षेत्रों को जोड़कर एक ‘‘गोल्डन कॉरिडोर कमेटी‘‘ के गठन के अपने लंबे समय से चले आ रहे अजेंडे़ को भी मूर्त रूप दे रहे हैं। यह गोल्डन कॉरिडोर कमेटी मुंबई, नासिक, सूरत और वड़ोदरा जैसे वाणिज्यिक केन्द्रों को जोड़ने के लिए पुणे से अहमदाबाद तक फैली हुई है। इसके अतिरिक्त, लाल उग्रवादियों ने अपने आंदोलन को महाराष्ट्र के नागपुर, वर्धा, भंडारा और यवतमाल जिलों तक विस्तारित करने की योजना बनाई है। 2011 से, सीपीआई (माओवादी) का जोर दक्षिणी राज्यों में अपने पुनर्रूत्थान के कार्यक्रम पर रहा है, व इसे गृह राज्यमंत्री श्री जितेंद्र सिंह ने संसद में भी स्वीकार किया था।
हालांकि खबरें यह भी आ रही थीं कि माओवादियों ने मलयालियों के एक समूह का गठन किया है और वे केरल तमिलनाडु सीमा पर नीलांबुर-गुडल्लुर क्षेत्र में सक्रिय हैं, परंतु फिर भी पीएलजीए में मलयालियों की उपस्थिति की पुष्टि नहीं हो पायी है। खुफिया सूत्रों से मिली जानकारी दर्शाती है कि माओवादी कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के त्रिकोणीय जंक्शन पर अपने ठिकाने स्थापित करने के लिए विशेष प्रयास कर रहे हैं।
तेलंगाना के राजनीति में घिरने के बाद, यह क्षेत्र एक बार फिर से माओवादियों और सीपीआई (माओवादी) के निशाने पर आ गया है। उत्तर तेलंगाना विशेष आंचलिक समिति अब नक्सल आंदोलन को इस क्षेत्र में फिर से पुनः जीवित करने के लिए जोर लगा रही है। हाल के दिनों में आदिलाबाद, खम्मम, करीमनगर, और वारंगल के वनीय क्षेत्रों में सीपीआई (माओवादी) की सशस्त्र टुकड़ियों की उल्लेखनीय गतिविधियों ने इन आशंकाओं की पुष्टि कर दी है कि माओवादियों ने उन इलाकों में फिर से एक बार अपने पैर जमाने के प्रयास तेज कर दिए हैं, जिन्होंने बीते वर्षों के दौरान सघन क्रन्तिकारी गतिविधियों का अनुभव किया था।
माओवादियों की मध्य भारत में पुनर्रूत्थान की योजना को हाल ही में तब काफी बल मिला जब सीपीआई (माओवादी) ने उत्तर गढ़चिरौली गोंदिया बालाघाट आंचलिक समिति का गठन कर लिया, जिसमें मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के गढ़चिरौली, गोंदिया और बालाघाट के रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्र शामिल हैं। गढ़चिरौली आरंभ से ही सीपीआई (माओवादी) का गढ़ रहा है, अतः वरिष्ठ माओवादी नेता पहाड़ सिंह के नेतृत्व में बना यह नया गुट इस क्षेत्र के अन्य क्षेत्रों में अपनी विस्तारवादी योजना को लागू करना चाहता है।
2012 में माओवाद से ग्रस्त ओडिशा छत्तीसगढ़ सीमा क्षेत्र ने भी छत्तीसगढ-ओडिशा सीमा समिति (सीओबी) के गठन का अनुभव किया, जिसके पहले सचिव के रूप में माओवादी नेता मल्ला राजा रेड्डी की नियुक्ति की गई। इस समिति को छत्तीसगढ़ के सुकमा-दरभा पठार के पूर्वी भागों और दोनों राज्यों की सीमा पर ओड़िशा के जंगली भागों में सीपीआई (माओवादी) गतिविधियों की निगरानी करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है, और महासमुंद-बरगढ़-बोलांगीर अंचल को सीधे इसके क्षेत्राधिकार के अधीन रखा गया है। छत्तीसगढ़ और ओड़िशा के माओवादियों के पारंपरिक ठिकानों पर सुरक्षा बलों की व्यापक तैनाती के मद्देनजर, सीओबी के गठन से ऐसा प्रतीत होता है कि माओवादियों को अबूझमाड़ की रेखा में एक और ठिकाना बनाने में काफी सहायता मिलेगी।
हाल के वर्षों में, उत्तर भारत के कई राज्य बडे़ पैमाने पर माओवादी गतिविधियों का सामना कर रहे हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार, सीपीआई (माओवादी) उत्तरीय क्षेत्रीय ब्यूरो (एनआरबी) को दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और उत्तर बिहार, उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड के क्षेत्रों में चल रही माओवादी गतिविधियों की निगरानी करने की जिम्मेदारी दी गई है। हाल ही में सीपीआई (माओवादी) की बडी कार्ययोजना तब जगजाहिर हुई जब सीपीआई (माओवादी) के कई वरिष्ठ नेताओं को गिरतार किया गया, जिनमें इसकी केंद्रीय समिति के सदस्य बलराज उर्फ बी आर उर्फ अरविंद, एनआरबी के प्रमुख और बंशीधर उर्फ चिंतन दा शामिल थे। (फ्रंटलाइन, 2010)
दिल्ली का माओवादी संबंध हमेशा से निजी चर्चाओं का विषय रहा है, किंतु 20 सितंबर 2009 को पोलित ब्यूरो सदस्य कोबड घांड़ी की गिरफ्तारी ने माओवादियों की नई दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए बनाई गई कार्य-योजना का पर्दाफाश कर दिया। उपलब्ध जानकारी के अनुसार, दिल्ली में अब एक छह सदस्यीय सीपीआई (माओवादी) समिति है, जो पिछले 4-5 वर्षों से दिल्ली में माओवादी गतिविधियों का संचालन कर रही है। 2005 से ही जींद, कैथल, कुरुक्षेत्र, यमुनानगर, हिसार, रोहतक और सोनीपत जैसे दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों से माओवादी गतिविधियों की खबरें लगातार आ रही थीं। जून 2009 में, हरियाणा पुलिस ने आठ महत्वपूर्ण माओवादी नेताओं की गिरफ्तारी का दावा किया था, जिनमें सीपीआई (माओवादी) का हरियाणा राज्य सचिव प्रदीप कुमार भी शामिल था। राज्य पुलिस ने यह भी दावा किया कि माओवादियों ने राज्य में कई मोर्चा संगठन बना लिए हैं, जैसे शिवालिक जनसंघर्ष मंच, लाल सलाम, जागरूक छत्तर मोर्चा, क्रन्तिकारी मजदूर किसान यूनियन, जन अधिकारी सुरक्षा समिति। (रामन्ना, 2010 और 2011)
5.0 भारत सरकार का दृष्टिकोण
5.1 ‘‘दिलों और मनों‘‘ को जीतने का अभियान
भारत का आतंरिक मंत्रालय, गृह मंत्रालय, एलडब्लूई से मुकाबला करने के लिए दो तरफा दृष्टिकोण का प्रचार करता है - सुरक्षा बलों की कार्रवाई के साथ-साथ उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों का तेज गति से विकास। इस दृष्टिकोण की जो आलोचना की जाती है वह यह है कि यह उग्रवादियों का सफाया करने, और आदिवासी क्षेत्रों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों और खनन कंपनियों द्वारा शोषण के लिए साफ करने के लिये बनाया गया एक आवरण मात्र है। उग्रवादी नेताओं का मानना है कि यह केवल शासन की विफलताओं से ध्यान हटाने का एक प्रयास है। कई मंत्रियों और आधिकारिक रूप से नियुक्त समितियों ने एक धारणीय विकास अभियान के माध्यम से उन आदिवासी लोगों का ‘‘दिल और मन‘‘ जीतने की आवश्यकता को रेखांकित किया है, जो उग्रवादियों को बुनियादी ताकत और स्थानीय समर्थन प्रदान करते हैं।
सरकार ने 2010 में शुरू की गई एकीकृत कार्य योजना (आईएपी) के माध्यम से इन क्षेत्रों के लोगों तक पहुँचने का प्रयास किया। इस योजना का उद्देश्य है 82 एलडब्लूई प्रभावित जिलों का विकास। ग्रामीण रोजगार को बढाने, सड़क अधोसंरचना, विद्यालयों, अस्पतालों का निर्माण करने, और गरीब जनसंख्या तक रियायती दरों पर खाद्य सामग्री पहुंचाने के प्रयास के रूप में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सक्रिय बनाने के लिए अतिरिक्त योजनाएं भी हैं। आदिवासी क्षेत्रों में नई औद्योगिक इकाइयां लगाने और खनन गतिविधियों के लिए भूमि अधिग्रहण कानूनों में सुधार करने के प्रयास भी किये जा रहे हैं। जनजातीय जनसंख्या के वनाधिकारों को संरक्षण प्रदान करने, और विभिन्न राज्यों में भूमि सुधार लागू करने के लिए भी कानून बनाये गए हैं। हालांकि इन सभी कानूनों का प्रभावी क्रियान्वयन सरकार के समक्ष एक महत्वपूर्ण चुनौती है, जो नौकरशाही की निष्क्रियता, राजनीतिक अदूरदर्शिता और उग्रवादियों द्वारा प्रस्तुत की गई चुनौतियों से प्रभावित है।
उग्रवादी हिंसा इन सभी विकास प्रयासों के क्रियान्वयन की दृष्टि से एक बड़ी बाधा है। सीपीआई (माओवादी) ने असममित युद्ध के एक भाग के रूप में विद्यालयों, स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के कार्यालयों, सडकों, और मोबाइल फोन टॉवरों को नष्ट कर दिया है, ताकि राज्य सरकार की एजेंसियों को अपने मजबूत गढ़ वाले क्षेत्रों में घुसपैठ करने से रोका जा सके। हालांकि उनकी इन गतिविधियों ने राज्य सरकारों को उग्रवाद-पीड़ित क्षेत्रों को आर्थिक सहायता प्रदान करने से प्रतिबंधित नहीं किया है। इन 82 सबसे अधिक प्रभावित जिलों के लिए पिछले चार वित्त वर्षों की वार्षिक बजट आवंटन राशि 10 बिलियन रुपये (1000 करोड़) रही है। ‘‘दिलों और मनों‘‘ को जीतने, और विकास योजनाओं को निशाना बनाने वाले उग्रवादियों द्वारा प्रस्तुत की गई चुनौती का सामना करने की इस लड़ाई में विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से एक ‘‘सफाई करो, पकड़े रहो और विकास करो‘‘ रणनीति को अपनाया गया है, जिसमें अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग स्तर की सफलता प्राप्त हुई है। हालांकि इस तेजी से बढ़ती युद्ध अर्थव्यवस्था में सरकार द्वारा दी गई राशि का वह अनुपात जो राजनीतिक-नौकरशाही-ठेकेदार गठबंधन द्वारा बीच में ही निकाल लिया गया है, काफी बड़ा बना हुआ है।
5.2 बल प्रयोग
बल-उन्मुख दृष्टिकोण को पूरी तरह से राज्य के विकासवादी दृष्टिकोण से मिले अपर्याप्त लाभों से ही नहीं जोड़ा जाना चाहिए। हालांकि इसने निश्चित रूप से धारणीय विकास की एक पूर्वशर्त के रूप में उग्रवादियों की कुंठित हिंसा की संभाव्यता की आवश्यकता में योगदान अवश्य दिया है। सीपीआई (माओवादी) के सरकार से सहानुभूति रखने वाले सुरक्षा बलों, पुलिस के मुखबिरों और सामान्य नागरिकों को लक्ष्य बना कर किये गए हिंसा के निरंतर और योजनाबद्ध अभियान चलाने की क्षमता ने सुरक्षा बल संचालित मॉडल की प्रबलता को न्यायोचित सिद्ध कर दिया है। चूंकि भारत को पंजाब, मिज़ोरम, त्रिपुरा और आंध्र प्रदेश में सफलता सुरक्षा बल-संचालित मॉडल के माध्यम से ही प्राप्त हुई है, अतः इस मॉडल के शासकीय और रणनीतिक क्षेत्रों में कई उत्साही समर्थक हैं। संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा बल बटालियनों की तैनाती हमेशा से मुक्त क्षेत्रों पर नियंत्रण प्राप्त करने की दृष्टि से एक सुविधाजनक रणनीति रही है। दूसरी ओर, विकास मॉडल को थकाऊ, महंगा, और उग्रवादी हिंसा द्वारा नष्ट किये जाने के संभाव्य माना जाता है।
सीपीआई (माओवादी) के विरुद्ध अपनाये गए असंख्य सैन्य उपायों की श्रृंखला में बहु-अंगी गतिविधियाँ (ऑपरेशन ग्रीन हंट), स्थानीय क्षेत्र गतिविधियाँ, (झारखंड में ऑपरेशन एनाकोंडा और मानसून, और छत्तीसगढ में ऑपरेशन माद, किलम और पोदकु), नागरिक निगरानी समूहों का उपयोग (झारखंड में सैंड्रा और छत्तीसगढ़ में अब भंग सलवा जुडूम) और उग्रवादी नेताओं को निशाना बनाने वाली गुप्त खुफिया गतिविधियाँ शामिल हैं। भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार, मई 2013 तक प्रभावित राज्यों में केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल की 532 कंपनियां तैनात की गई हैं ताकि राज्य पुलिस बलों के साथ मिलकर संयुक्त अभियान चलाया जा सके।
इस प्रत्येक गतिविधि से हासिल उपलब्धि में कई बार नाकामयाबी भी हाथ लगी है। परिणामी विषम लड़ाई में सीपीआई (माओवादी) द्वारा क्रियान्वित कुछ घात कार्रवाइयों में सुरक्षा बलों ने अपने जवान और हथियार खोये हैं। 2010 में, इस संगठन ने छत्तीसगढ़ के ताड़मेटला क्षेत्र में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की एक पूरी कंपनी को मार दिया था। क्षेत्र की अपर्याप्त जानकारी और मानव खुफिया तंत्र के अभाव का परिणाम मुठभेडों के दौरान नागरिक हताहतों की सबसे भीषण घटनाओं के रूप में हुआ है, जिसने वर्तमान आदिवासी जनसंख्या के अलगाव को और भी अधिक बढ़ा दिया है। केंद्रीय और राज्य पुलिस के बीच समन्वय के अभाव ने इस समूची कार्रवाई को और भी कम प्रभावी बना दिया है। और इसमें से सबसे बुरा यह है कि विभिन्न भारतीय राज्यों द्वारा अपनाए गए भिन्न-भिन्न, दृष्टिकोणों और उग्रवादियों की प्रतिक्रियों का मुकाबला करने की भिन्न तीव्रता का परिणाम यह हुआ है कि उग्रवादियों का गुब्बारा फूलता गया, जिसने माओवादियों को देश के विभिन्न गैर शासित ठिकानों पर अपने लिए सुरक्षित क्षेत्र स्थापित करने का मौका दे दिया है।
इसी समय, राज्य पुलिस और अर्धसैनिक बलों के आधुनिकीकरण के निरंतर प्रयासों के बीच प्रत्येक सुरक्षा बल उन्मुख रणनीति ने कुछ ठोस सफलताएं भी हासिल की हैं। बडे़ पैमाने पर गिरफ्तारियों, मुठभेडों में मारे जाने, और आत्मसमर्पण के कारण सीपीआई (माओवादी) ने बड़ी संख्या में अपने काडर खो दिए हैं, ये ऐसे तथ्य हैं जिन्हें सरकारी मशीनरी के दावों और संगठन द्वारा प्रकाशित साहित्य ने भी स्वीकार किया है। सरकारी आंकडों के अनुसार, 2003 और 2012 के दौरान 1707 उग्रवादी मारे गए हैं। और 2010 और 2012 के बीच अन्य 6849 को गिरफ्तार किया गया, और 1100 ने आत्मसमर्पण किया है।
सुरक्षा बलों द्वारा झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और छत्तीसगढ के कुछ सीपीआई (माओवादी) गढों को साफ करने के बाद, उग्रवादियों के प्रभाव वाला क्षेत्र भी सिकुड़ गया है। 2011 में, केंद्रीय रिजर्व पुलिस दल के प्रमुख ने दावा किया था कि उनके बलों ने ऐसा लगभग 5000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र मुक्त करा लिया है, जो पहले माओवादियों के नियंत्रण में था। पुलिस स्टेशन, जो पहले उग्रवादियों के लिए आसान लक्ष्य हुआ करते थे, उन्हें, उनकी सुरक्षा के लिए उपलब्ध संसाधनों के कौशल्यपूर्ण क्रियान्वयन के बाद अभेद्य किलों के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है, जिसके कारण सीपीआई माओवादियों की ‘‘हथियारों के लिए हमले‘‘ की रणनीति में भी काफी कमी आई है। इसका व्यापक प्रभाव उग्रवादियों की सुरक्षा बलों और आम नागरिकों को घायल करने और उन्हें हताहत करने की क्षमता से भी देखा जा सकता है। 2012 में, आम नागरिकों और सुरक्षा बलों की हताहतों की संख्या क्रमशः 301 और 114 तक कम हुई, जो 2010 में क्रमशः 720 और 285 थी। इसी अवधि के दौरान हिंसक घटनाओं की संख्या में भी 2213 से 1412 तक की गिरावट आई।
माओवादी अपनी कई स्व निर्मित कमियों के कारण भी प्रभावित हुए। तेज गति के विस्तार ने संगठन में बड़ी संख्या में अपर्याप्त प्रेरणा वाले सदस्यों के प्रवेश की संख्या को बढ़ा दिया। झारखंड और बिहार जैसे राज्यों में जाति के आधार पर उत्परिवर्तन ने आपसी संघर्ष के दौर की शुरुआत की। राज्य की एजेंसियों ने असंतुष्ट गुटों को अपनी ओर कर लिया और उन्हें सीपीआई माओवादियों के विरुद्ध अनाधिकारिक भागीदार बना लिया। साथ ही, मीडिया में प्रसिद्धी की चाह ने भी कई सीपीआई माओवादी नेताओं को सुरक्षा बलों के निशाने पर ला दिया, जो अंततः उनके नाश का कारण बना।
5.3 छत्तीसगढ़ हमला
भारत के सबसे बुरे उग्रवाद प्रभावित राज्य छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में, 25 मई 2013 को सीपीआई माओवादियों ने एक सुनियोजित हमला किया, जिसका लक्ष्य वाहनों का वह काफिला था जिसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राजनेता और कार्यकर्ता यात्रा कर रहे थे। 350 माओवादियों के एक गुट ने, जिसमें पुरुष, महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे, काफिले को रोकने के लिए सुधारित विस्फोटक उपकरणों का विस्फोट किया, सुरक्षा बलों पर नियंत्रण किया और राजनेताओं को चुन-चुन कर मारना शुरू किया। मारे गए नेताओं में विवादित सलवा जुडूम सतर्कता कार्यक्रम नेता महेंद्र कर्मा, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की छत्तीसगढ़ इकाई के नेता और उनके पुत्र शामिल थे। इस हमले में मृतकों की संख्या 30 थी, जबकि माओवादियों की ओर से कोई हताहत नहीं हुआ। एक पूर्व केंद्रीय मंत्री, जो इस हमले में घायल हुए थे, उनका भी 11 जून को दिल्ली के एक अस्पताल में निधन हुआ।
हालांकि काफिले पर किये गए हमले से सीपीआई माओवादियों को कोई महत्वपूर्ण सैन्य सफलता नहीं मिली थी। नेताओं की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार सुरक्षा बलों, जिनमें अधिकांश कुछ नेताओं के व्यक्तिगत सुरक्षा रक्षक थे, के पास या तो गोलियां समाप्त हो गईं, या संख्या की दृष्टि से अधिक हमलावरों ने उनपर नियंत्रण प्राप्त कर लिया था। ना ही इस हमले से माओवादियों के राज्य की सत्ता प्राप्त करने के उद्देश्य की दिशा में कोई प्रगति हुई थी। यह हमला चिन्हित माओवादी गढ़ में किया गया था, और इसने माओवादियों के प्रभाव क्षेत्र के बाहर तक पहुँचने की क्षमता के ऐसे किसी दुस्साहस का भी प्रदर्शन नहीं किया था।
हालांकि प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने इस हिंसा का ‘‘हमारे देश की लोकतांत्रिक नींव पर सामने से हमला’’ के रूप में वर्णन किया था, और राज्य के हाल के महीनों में उग्रवादियों की तुलना में अधिक सफलता प्राप्त करने के अतिरंजित दावे पर भी प्रश्न उठाया था। क्या जमीनी परिस्थितियों के आधिकारिक आशावादी आकलन ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं को ऐसा साहस करने के लिए प्रोत्साहित किया था, इसकी भी जांच हुई। हमले से दो महीने पहले केंद्रीय गृह सचिव ने संसदीय समिति को बताया था, ‘‘छत्तीसगढ़ और झारखंड में अब स्थिति एकदम उलटी है, और अब हम नक्सल गुटों का पीछा कर रहे हैं।‘‘ हमले से एक महीने पहले, खुफिया ब्यूरो (आईबी) के एक आतंरिक मूल्यांकन में स्पष्ट रूप से कहा गया था, ‘‘यदि वर्तमान गति को अगले कुछ महीनों तक निरंतरता से बनाये रखा जाये, तो यह स्थिति को सुरक्षा बलों के पक्ष में निर्णायक रूप से झुका देगी।‘‘
5.4 कॉइन (COIN) रणनीति पर पुनर्विचार
25 मई की छत्तीसगढ़ की हिंसक घटना ना तो माओवादियों द्वारा की गई मानव हत्या की सबसे जघन्य घटना थी, और ना ही या राजनीतिक नेताओं पर किया गया पहला हमला था। हालांकि यह पहली बार हुआ था की एक इकलौती घटना में माओवादी बड़ी संख्या में महत्वपूर्ण राजनेताओं की हत्या करने में सफल हुए थे। इस घटना ने व्यापक स्तर पर मीडिया की सुर्खियां बटोरीं। उम्मीद के अनुसार, प्रतिक्रिया में उग्रवादियों के विरुद्ध तुरंत दंड़ात्मक कार्रवाई करने की मांग की गई। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने उग्रवादियों के साथ शांति वार्ता की संभावना को सिरे से नकार दिया और उग्रवादियों का पीछा और आक्रामकता से करने के संकल्प को दोहराया। तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव आर के सिंह ने कॉइन (उग्रवाद विरोधी) कार्रवाई को और अधिक तीव्र करने की संभावना व्यक्त की। तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने माओवादियों के विरुद्ध राज्य और केंद्रीय बलों द्वारा ‘‘संयुक्त अभियान‘‘ का आश्वासन दिया।
इस हमले ने उग्रवाद की प्र.ति के बारे में प्रमुख सरकारी पदाधिकारियों की घोषित धारणाओं में कुछ ध्यान देने योग्य बदलाव भी किये। तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश, जो लंबे समय से माओवादियों के विरुद्ध राजनीतिक-विकासवादी दृष्टिकोण के पैरोकार रहे हैं, उन्होंने इस हमले का वर्णन ‘‘प्रलयंकारी‘‘ और इसे अंजाम देने वालों का वर्णन ‘‘आतंकवादी‘‘ के रूप में किया। तत्कालीन गृहमंत्री शिंदे ने इस बदलाव को निम्न शब्दों में वर्णित किया, ‘‘अभी तक हम सोच रहे थे कि यह (हिंसा) आंदोलन का एक अन्य प्रकार होगा।‘ परंतु 2010 की घटना में (ताडमेटला नरसंहार, जिसमें 76 सुरक्षा कर्मी मारे गए थे) और 25 मई की घटना में (कांग्रेस के काफिले पर हमला) हमनें देख लिया है कि यह आतंकवाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।‘‘ उन्होंने आगे कहा ’’यह घटना (25 मई की घटना) आतंकवाद से भी बड़ी है।‘‘ हालांकि विचारों के अभिसरण के बीच, असहमति के कुछ स्वर बने रहे।
मुख्य रूप से इस प्रकार के शब्दाडंबरपूर्ण सरकारी दावों के अलावा 25 मई के उग्रवादी हमले ने विद्यमान कॉइन रणनीति को फिर से कायम करने की संभावना बढा दी। इस समस्या के बारे में दलगत राजनीति से ऊपर उठकर एलडब्लूई के बारे में नीति बनाने के लिए एक राष्ट्रीय आम सहमति बनाने की आवश्यकता के परिणामस्वरूप 10 जून को एक सर्वदलीय बैठक बुलाई गई। इस बैठक का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री ने उग्रवादियों के विरुद्ध राज्य की रक्षात्मक और आक्रामक क्षमताओं को ‘‘ठीक करने और मजबूत बनाने‘‘ की आवश्यकता को रेखांकित किया। ‘‘इस खतरे को स्थाई रूप से जड़ से उखाड फेंकने के लिए‘‘ शुरू किये गए उपायों को बताने से इंकार करते हुए उन्होंने देश को आश्वस्त किया कि ‘‘इस मामले में उनकी सरकार कमजोर साबित नहीं होगी।‘‘ बैठक के अंत में पारित प्रस्ताव में राज्य और केंद्र सरकारों से मांग की गई कि ‘‘माओवादियों के प्रभाव वाले क्षेत्रों को मुक्त कराने के लिए निरंतर कार्रवाई और प्रभावी शासन और तेज गति के विकास के उद्देश्यों की दोहरी रणनीति का पालन किया जाये।‘‘ सभी राजनीतिक दलों ने यह भी संकल्प लिया कि ष्इस विषय पर वे एकजुट रहेंगे और एकीकृत उद्देश्य और इच्छाशक्ति भावना के साथ एक ही स्वर में बात और काम करेंगे।‘‘
नई रणनीति के अंतर्निहित विषय और इनकी दिशा अटकलों का विषय बना हुआ है। हालांकि इसके कुछ प्रमुख मापदंडों का निष्कर्ष नौकरशाहों और मंत्रियों के वक्तव्यों से निकाला जा सकता है। जबकि सीपीआई माओवादियों के विरुद्ध कार्रवाई में भारतीय सेना की भागीदारी के विरोध में अधिकांश लोगों की राय कायम है, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि सुरक्षा बलों द्वारा इनकी सफाई तक सरकार उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों के विकास की नीति को त्यागने को तैयार है। विकास योजनाओं को उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में लागू करने में आने वाली कठिनाइयों को रेखांकित करते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने 2013 में पत्रकारों को बताया था ‘‘बस्तर (छत्तीसगढ़) में आप किस विकास का प्रयास कर सकते हैं यदि लोग वहां प्रवेश ही नहीं कर सकते हैं?‘‘ तत्कालीन गृह सचिव आर.के. सिंह ने भी जोड़ा कि विकास कार्यों के पूर्व सुरक्षा कार्रवाई होना आवश्यक है, ये दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते। बल-उन्मुख नीति के कठोर होने का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि नई दिल्ली ने सभी राज्यों को सीपीआई माओवादियों के विरुद्ध एक एकीकृत राष्ट्रीय रणनीति अपनाने के लिए बाध्य किया है, जिसमें केंद्रीय पुलिस बलों की तैनाती का उपयोग एक संतुलन उपकरण के रूप में किया जाना है। उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में केंद्रीय बालों की इष्टतम तैनाती को सुनिश्चित करने के लिए नई दिल्ली केंद्रीय बलों में 27000 रिक्तियों की पूर्ती करने पर भी विचार कर रही है।
5.5 सीखा गया सबक
ऐसा प्रतीत होता है कि नई रणनीति बल के अनुपातहीन उपयोग को शामिल करना चाहती है। यह 2010 में विद्यमान मानसिकता की ओर वापस जाने का संकेत है। 2012 के प्रारंभिक महीनों में शुरू किये गए ऑपरेशन ग्रीन हंट (ओजीएच), जिसमें केंद्रीय सुरक्षा बलों की 70 बटालियनें, और इतनी ही संख्या में राज्य पुलिस बल शामिल किये गए थे, से उम्मीद थी कि यह उग्रवादियों द्वारा पेश की गई सैन्य चुनौती को शक्ति के निर्णायक प्रदर्शन के माध्यम से तीव्रता से काबू में कर लेगा। कुछ ही महीनों के अंदर सुरक्षा बलों को कई झटके लगे, जिसके परिणामस्वरूप इस कार्रवाई को स्थगित करना पड़ा। लोक प्रशासन की सुस्त प्रतिक्रिया ओजीएच और बाद में किये गए केंद्रित क्षेत्र कार्रवाइयों में सुशासन और विकास की खाई (रोको और विकास करो घटक) को पाटने में असफल रहा।
नई रणनीति से एक वास्तविक परिवर्तन हासिल किया जा सकता है या नहीं यह अभी अस्पष्ट है। कुछ दृढ़-संकल्प राज्यों के लिए शायद यह अभी भी संभव हो सकता है कि वे कुछ बडे़ माओवादी नेताओं को प्रभावहीन बना दें, और इस आंदोलन को प्राणघातक झटका दें। हालांकि जब तक राज्य अल्पविकास और सुशासन के अभाव के निर्वात को भरने की इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं करते, तब तक माओवादी किसी ना किसी रूप में वापस आने का अवसर प्राप्त कर ही लेंगे।
देश पर उग्रवादी अधिग्रहण का कथित उद्देश्य हमेशा से अवास्तविक रहा है। एक व्यापक रणनीति और एक सुसंगत राष्ट्रीय नीति के बिना, जो उग्रवादियों की शक्ति को जड़ से उखाड़ सके, विद्यमान बढी हुई तत्परता की स्थिति के साथ भी, सरकार के मुक्त क्षेत्रों को वापस प्राप्त करने के उद्देश्य बेकार हो जायेंगे।
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