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भारत में नये राज्य
1.0 प्रस्तावना
भारत में छोटे राज्यों के सिद्धांत पर राय में बहुत भिन्नता है। कुछ लोगों का तर्क है कि राज्यों का पुनर्गठन प्रशासनिक सुविधा के आधार पर किया जाना चाहिए, चूंकि भारत के अनेक राज्यों की आबादी एक ठेठ यूरोपीय देश की आबादी से भी अधिक होती है, प्रशासनिक सुगमता एवं एकरूपता हेतु बड़े राज्यों का छोटे राज्यों में बांट दिया जाना बेहतर होगा। ऐसे नये बने राज्यों का एक लाभ यह भी होगा कि वे विकास तेजी से बढ़़ायेंगे एवं जनता का सशक्तिकरण भी करेगें। जब हम नये बने राज्यों का प्रदर्शन जांचते हैंं, तो एक मिश्रित चित्र उभरता है। आज पूरे भारत भर में लगभग 30 नये राज्यों हेतु अलग-अलग स्तर पर मांगे उठ रही हैं।
2.0 झारखंड
झारखंड की निर्मिति को छोटा नागपुर और संथाल परगना के जनजातीय लोगों की एक महान उपलब्धि माना जाता है, जो 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही स्वतंत्र राज्य के लिए आंदोलन कर रहे थे। वास्तव में, झारखंड की मांग पहली बार 1929 में की गई थी। इस राज्य में दक्षिण बिहार के 18 जिले शामिल हैं। झारखंड बिहार के कुल 1,74,083 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के 79,638 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को व्याप्त करता है।
झारखंड़ प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण है। इसे समृद्ध लौह अयस्क, एलुमिना की प्रचुर मात्रा और कोयले इत्यादि के लिए जाना जाता है। बिहार राज्य के तहत, जैसा कि आरोप लगाया जाता है, झारखंड के लोगों को इन संसाधनों के लाभों से वंचित रखा जाता था, और खनन से प्राप्त राजस्व का उपयोग केवल बिहारी जनसंख्या के लोगों को लाभ प्रदान करने के लिए किया जाता था। इन संसाधनों से प्राप्त राजस्व का केंद्रीकरण अधिकांश रूप से केवल बिहार की बेहतरी (और भ्रष्ट राजनीतिज्ञों द्वारा) के लिए किया जाता था, और आज जिसे झारखंड कहा जाता है, उस क्षेत्र को व्यापक रूप से उपेक्षित रखा जाता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात के 50 वर्षों के दौरान बिहारी लोग झारखंडी लोगों पर वर्चस्व बनाये रखते थे।
झारखंड आंदोलन की शुरुआत 1921 में स्थापित छोटानागपुर उन्नति समाज (सीयूएस) की संगठनात्मक गतिविधियों से, और बाद में 1939 में स्थापित आदिवासी महासभा के कारण हुई। सीयूएस ने 1928 में साइमन कमीशन के सम्मुख एक ज्ञापन प्रस्तुत किया था जिसमें स्वतंत्र झारखंड राज्य की मांग की गई थी। ईसाई आदिवासियों के संगठन सीयूएस की पुनर्रचना गैर ईसाई आदिवासियों को इसमें शामिल करके की गई थी, और 1939 में मेजर जयपाल सिंह के नेतृत्व में इसे आदिवासी महासभा का नाम दिया गया था। शुरुआत में आदिवासी महासभा ने राजनीति को दूसरे दर्जे की भूमिका दी थी, और इसका सारा ध्यान आर्थिक विषयों पर केंद्रित था। जल्द ही उसे एहसास हो गया कि आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए राजनीतिक समाधान आवश्यक है। 1949 में रांची में हुए सम्मेलन के दौरान आदिवासी महासभा का नामांतरण झारखंड पार्टी के रूप में किया गया। झारखंड पार्टी ने अपना पहला बिहार विधानसभा का चुनाव 1952 में लड़ा, और 35 सीटें जीत कर यह दूसरी सबसे बडी पार्टी के रूप में उभरी।
झारखंड पार्टी के नेता के रूप में जयपाल सिंह ने 1954 में क्षेत्र के सामाजिक पिछडे़पन और आर्थिक वंचितता के मद्देनजर संसद में एक अलग झारखंड राज्य की मांग रखी। आंदोलन की प्रारंभिक मांग दक्षिण बिहार के छोटानागपुर और संथाल परगना क्षेत्र के 16 जिलों के समावेश से एक स्वतंत्र राज्य की निर्मिति की थी। झारखंड पार्टी ने यह भी मांग की थी कि प्रस्तावित नए राज्य में पडोसी पश्चिम बंगाल राज्य के तीन सन्निहित जनजाति बहुल जिलों, ओडिशा राज्य के चार जिलों और मध्यप्रदेश के तीन जिलों को भी समाविष्ट किया जाय। हालांकि पश्चिम बंगाल, ओडिशा और मध्यप्रदेश राज्यों ने अपने किसी भी क्षेत्र को अलग करने से इंकार कर दिया था।
1955 में, झारखंड पार्टी ने राज्य पुनर्गठन आयोग के समक्ष एक ज्ञापन प्रस्तुत किया, जिसमें स्वतंत्र राज्य की मांग दोहराई गई थी। आयोग ने इस आधार पर उनकी मांग को खारिज कर दिया था कि झारखंड पार्टी को छोटनागपुर और संथाल परगना क्षेत्रों में बहुमत प्राप्त नहीं था, और जनजातीय जनसंख्या संबंधित क्षेत्र की कुल जनसंख्या की केवल एक-तिहाई थी, और वह भी अनेक भाषाई समूहों में विभाजित थी।
झारखंड आंदोलन को राष्ट्रीय मुख्यधारा की राजनीति से जोड़ने का पहला संकेत तब मिला जब शिबू सोरेन ने कांग्रेस पार्टी के साथ चुनावी समझौता किया। इंदिरा गांधी ने झारखंड में जेएमएम द्वारा पेश की गई चुनौती को कम करने के उद्देश्य से इसके कम वैचारिक चालित शाखा को चुनावी राजनीति में घसीट लिया। 1980 के चुनावों में कांग्रेस के साथ सीटों के बंटवारे के ऐवज में सोरेन को आश्वासन दिया गया था कि आपातकाल के दौरान ‘भूमिगत’ रहते हुए उनके द्वारा चलाई गई गतिविधियों के लिए अभियोजन से उन्हें प्रतिरक्षा प्रदान की जायेगी। हालांकि 1980 में जेएमएम की चुनावी सफलता के बावजूद, जब उसने 11 सीटें जीती थीं, ए.के. रॉय और बिनोद बिहारी महतो जैसे अधिक वामपंथी जेएमएम नेताओं ने इस समझौते का मजबूती से विरोध किया। 1984 में पहली बार जेएमएम का आधिकारिक रूप से तब विभाजन हुआ, जब महतो ने सोरेन पर कांग्रेस द्वारा खरीदे जाने का आरोप लगा कर ‘वास्तविक‘ जेएमएम नामक एक अलग गुट बना लिया।
1970 के दशक के अंतिम वर्षों में बिहार की जनता सरकार के तहत झारखंड के जनसंघी नेताओं ने राज्य के दर्जे पर चर्चा शुरू की। परंतु वास्तव में 1980 में जेएमएम के चुनावी राजनीति में उभरने के बाद, और एजेएसयू और जेसीसी जैसी नई आंदोलनकारी राजनीति के बाद ही राज्य का दर्जा हासिल करने को कृत-संकल्पित रूप से अपनाया जा सका।
झारखंडी पहचान के लिए किये गए जन आंदोलनों के लगभग आधी सदी के बाद 15 नवंबर 2000 को झारखंड राज्य की निर्मिति हुई, जिसे वंचित सामाजिक समूहों ने राजनीतिक संसाधनों में वृद्धि करने और नीति प्रक्रिया को अपने पक्ष में प्रभावित करने के लिए व्यक्त किया। यह देश का 28 वां राज्य है। झारखंडी पहचान और स्वायत्तता की मांग केवल इस क्षेत्र की जनजातीय संस्कृति की विशिष्टता के आधार पर ही नहीं की गई थी, बल्कि यह उस सरकारी नीति की विफलता का परिणाम था जिसके चलते इस क्षेत्र के आदिवासी और गैर आदिवासी लोगों को सामाजिक आर्थिक विकास की मुख्यधारा से नहीं जोड़ा जा सका था।
2.1 झारखंड आंदोलन की समय-सारिणी
1929-साइमन कमीशन के समक्ष एक ज्ञापन पेश किया गया जिसमें झारखंड़ की एक स्वतंत्र राज्य के रूप में मांग की गई थी
1936-ओडिसा को स्वतंत्र राज्य के रूप में निर्मित किया गया
1947-28 दिसंबर को अखिलभारतीय झारखंड पार्टी की स्थापना हुई
1951 -झारखंड पार्टी को विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल के रूप में चुनाव में विजय प्राप्त हुई
1969-शिबू सोरेन द्वारा सोनत संथाल समाज की स्थापना की गई
1971-ए.के. रॉय ने स्वतंत्र झारखंड राज्य की मांग के लिए मार्क्सवादी एम.सी.सी. की स्थापना की।
1973-झारखंड पार्टी के प्रमुख के रूप में एन ई होरो ने 12 मार्च को प्रधानमंत्री के समक्ष स्वतंत्र झारखंड राज्य की निर्मिति के लिए ज्ञापन दिया
1977-झारखंड पार्टी ने स्वतंत्र झारखंड के लिए प्रस्ताव पारित किया जिसमें प्रस्तावित राज्य में केवल छोटानागपुर और संथाल परगना ही शामिल नहीं थे बल्कि इसमें बंगाल, ओडिसा और मध्यप्रदेश जैसे पडोसी राज्यों के क्षेत्रों को भी शामिल किया गया था
1978-21 मई को अखिल भारतीय झारखंड पार्टी का अधिवेशन हुआ
1978-9 जून को बिरसा (मुंडा) स्मरणोत्सव दिवस के रूप में मनाया जाने लगा
1980-झारखंड क्रांति दल की स्थापना
1986-25 सितंबर को अखिल झारखंड विद्यार्थी परिषद ने पहले झारखंड बंद का आव्हान किया, यह महान सफल बंद था
1987-स्वतंत्रता दिवस के बहिष्कार का आव्हान किया गया। भारत के गृहमंत्री ने बिहार सरकार को छोटानागपुर और संथाल परगना क्षेत्रों के सभी जिलों का विस्तृत विवरण देने का निर्देश दिया
1989-ए.जे.एस.यू. द्वारा 72 घंटे की सफल आर्थिक नाकाबंदी आयोजित की गई
1989-झारखंड मुक्ति मोर्चा द्वारा 6 दिन की आर्थिक नाकाबंदी की गई। यह भी पूर्णतः सफल रही
1994-6 जनवरी को लालू प्रसाद यादव ने रांची में घोषणा की कि झारखंड विकास स्वायत्त परिषद विधेयक बजट अधिवेशन के दौरान पारित कर दिया जायेगा
1995-झारखंड क्षेत्रीय स्वायत्त परिषद (जेएएसी) का गठन किया गया, जिसमें संथाल परगना और छोटानागपुर के 18 जिले शामिल थे और शिबू सोरेन को इसका अध्यक्ष नामित किया गया
1997 -बिहार सरकार ने झारखंड स्वायत्त परिषद के चुनाव कराने के लिए 24 करोड रुपये मंजूर किये
1997-शिबू सोरेन ने लालू प्रसाद यादव की अल्पमत सरकार को इस शर्त पर समर्थन दिया कि वे स्वतंत्र झारखंड राज्य की निर्मिति करेंगे
वर्ष 2000 - बिहार राज्य से अलग करके झारखंड को एक स्वतंत्र राज्य बनाने का विधेयक लोकसभा में ध्वनिमत से पारित हुआ, जबकि
एन.डी.ए. गठबंधन के दो समर्थक दलों ने इसका पुरजोर विरोध किया, और विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल और सी.पी.आई.-एम ने इसे संसदीय समिति को सौंपने की मांग की। क्षेत्र के लोगों की लंबे समय से जारी उम्मीद पूरी हुई। सारे झारखंड क्षेत्र में हर्षोल्लास और उत्सव का वातावरण है, और समारोह मनाये जा रहे हैं
11 अगस्त - संसद ने झारखंड की निर्मिति को मंजूरी प्रदान की। राजयसभा ने बिहार के दक्षिणी भाग से पुनर्निर्मित करके स्वतंत्र झारखण्ड राज्य के बिहार पुनर्गठन विधेयक 2000 को ध्वनिमत से पारित किया
25 अगस्त - राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने बिहार पुनर्गठन विधेयक 2000 को मंजूरी प्रदान की
12 अक्टूबर - केंद्र सरकार ने गजट अधिसूचना जारी की कि 15 नवंबर नए झारखंड राज्य की निर्मिति की नियत तिथि होगी
15 नवंबर - नए झारखंड राज्य का निर्माण हुआ।
2.2 एक असफल वादा?
ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि झारखंड राज्य की निर्मिति से क्षेत्र के जनजातीय लोगों का सशक्तिकरण होगा, राज्य के संसाधनों का बेहतर उपयोग किया जायेगा जिससे राज्य का समग्र विकास होगा। यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि क्या वास्तव में ऐसा हो पाया है?
विश्लेषकों का तर्क है कि राज्य के बनने से जनजातीय लोगों की भेद्यता में वृद्धि ही हुई है। एक जनजातीय मुख्यमंत्री के रूप में एक प्रतीकात्मक रियायत और कुछ आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों के माध्यम से यह मान लिया गया कि जनजातियों को तथाकथित विकास के लिए निर्वासित करने के लिए हरी झंडी मिल गई है। पर्यावरण और मानव अधिकारों पर भारतीय जन न्यायाधिकरण की रिपोर्टों के अनुसार, अब तक विकास के नाम पर झारखंड से 6.54 मिलियन लोगों को विस्थापित किया जा चुका है। भारतीय प्रबंध संस्थान (आईआईएम) और कानून में राष्ट्रीय अध्ययन और अनुसंधान विश्वविद्यालय (एनयूएसआर एल) के लिए नागरी गांव (झारखंड के रांची के निकट) का भूमि अधिग्रहण शायद समृद्ध और शिक्षित व्यक्तियों की दृष्टि से विकास परियोजनाएं प्रतीत हो सकती हैं। किंतु इन कुलीन शैक्षणिक संस्थानों के कारण 500 जनजातीय परिवारों को विस्थापित होना पड़ा है। बांधों, कारखानों, खनन इत्यादि के नाम पर किया गया विस्थापन तो अधिकांश रूप से अप्रकाशित ही रहा है।
झारखंड की राजनीति में बडे औद्योगिक घरानों ने भी बडी भूमिका निभाई है। एक ऐसी जगह जहाँ विस्थापन और विकास एक दूसरे के पर्यायवाची बन गए हैं, वहां इस प्रकार के दमनकारी उपाय रुपये- पैसे के लाभ से कहीं आगे जाते हैं। राजनीतिज्ञों और बडे औद्योगिक घरानों का गठजोड़ उसी समय उजागर हो गया था, जब झारखंड राज्य के गठन के तुरंत बाद 42 समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किये गए। झारखंड मानवाधिकार आंदोलन (जेएचआरएम) द्वारा मानवाधिकारों पर जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, झारखंड की राज्य सरकार ने अब तक 102 ऐसे समझौता ज्ञापन मंजूर किये हैं जो पांचवीं अनुसूची के नियमों के विरुद्ध हैं। इन समझौता ज्ञापनों को हकीकत में बदलने के लिए विशाल भूमि के क्षेत्र की आवश्यकता होगी।
झारखंड राज्य में विशाल खनिज संसाधनों के भंडार उपलब्ध हैं, जहाँ भारत के कोयले के भंडारों का 33 प्रतिशत, माइका का 47 प्रतिशत और ताम्बे का 34 प्रतिशत भंडार मौजूद है।
घटनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में देखने हेतु, भारत में राज्यों के पुर्नगठन की प्रक्रिया को अब हम चरणवार समझने का प्रयास करेंगे।
भूमि अधिग्रहण के विरोध में लोगों का विरोध और अनेक संवैधानिक कानून बडे़ औद्योगिक घरानों द्वारा भूमि अधिग्रहण में बाधाएं रही हैं। 2011 में एक जन आंदोलन के कारण झारखंड की एक प्रस्तावित परियोजना से आर्सेलर मित्तल को पीछे हटना पडा था। कॉर्पोरेट क्षेत्र यथास्थिति को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए काफी प्रयासशील रहा है, और ऐसा करते समय उन्होंने कुछ अनुचित तरीकों का भी सहारा लिया है। संविधान द्वारा प्रदान किया गया छोटानागपुर पट्टेदारी अधिनियम (सीएनटी) भी आदिवासियों और जनजातीय लोगों के हितों की सुरक्षा करने वाले अनेक कानूनों में से एक ऐसा ही कानून है। इसका गठन 1908 में इस उद्देश्य से किया गया था कि आदिवासियों की भूमि गैर आदिवासी लोगों को बेची जाने से बचायी जा सके। यह कानून संभावित विस्थापन को प्रतिबंधित करने के उद्देश्य से और आदिवासियों की पहचान को बनाये रखने के उद्देश्य से की गई थी जमीन का स्वामित्व खोने से आदिवासी पहचान भी खो जाएगी, क्योंकि समुदाय का प्रमाणपत्र प्रदान करने के लिए जमीन के स्वामित्व की साक्ष्य आवश्यक है।
ऐसा प्रतीत होता है कि निजी क्षेत्र ने सीएनटी अधिनियम में आमूल परिवर्तन करने या इसे समाप्त करवाने में विशेष रूचि दिखाई है। कुछ लोगों द्वारा यह आरोप भी लगाया जाता है कि बडे औद्योगिक घरानों के स्वामित्व वाले समाचारपत्रों ने इस अधिनियम में सुधार करने की दृष्टि से एक बड़ा अभियान छेड़ रखा है, ताकि आदिवासियों की जमीन गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित करने की दिशा में कुछ लचीलापन लाया जा सके। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि ऐसा कोई भी सुधार उन्हीं बडे़ औद्योगिक घरानों को फायदा पहुंचाएगा जिनकी आदिवासियों की जमीनों पर खदानें हैं, और जो भविष्य में इस भूमि का अधिग्रहण करना चाहते हैं।
राज्य की सरकार भी, चाहे फिर वह किसी भी पार्टी की सरकार रही हो, आदिवासियों के हितों का हो रहे इस खतरे में हिस्सेदार रही हैं। सरना धर्म को धार्मिक जनगणना में समाविष्ट नहीं करने के कारण आदिवासियों की जनसंख्या में काफी कमी दर्ज की गई है। प्रशासन ने भी आदिवासी जनसंख्या के आंकडों की सटीक जानकारी प्रदान करने में तत्परता नहीं दिखाई है, इनमें से कई तो ऐसी हैं जिनका कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता।
निरंतर जारी विस्थापन के कारण आदिवासियों की जनसंख्या की संख्या में भारी कमी आई है, और कागजों पर यह जनसंख्या केवल 28 प्रतिशत रह गई है।
3.0 उत्तराखंड
इस पर्वतीय राज्य के लिए आयोजित किया गया पहला बडा आंदोलन 1957 में टेहरी के तत्कालीन शासक मानवेंद्र शाह के नेतृत्व में किया गया था, लेकिन इसे क्षेत्र के लोगों के एक जन आंदोलन का रूप लेने के लिए 14 वर्षों का समय लगा। 1973 में गठित उत्तराखंड राज्य परिषद ने इस उद्देश्य को आगे बढ़ाया, और यह क्षेत्र के लोगों के संघर्ष का एक मंच बन गया। इस आंदोलन ने जुलाई 1979 में कुमाऊं विश्वविद्यालय के भूतपूर्व उपकुलपति के नेतृत्व में एक राजनीतिक दल को जन्म दिया, जिसका नाम था उत्तराखंड क्रांति दल। इसका पहला विधायक (जसवंत सिंह बिष्ट) 1980 के राज्य विधानसभा चुनावों में निर्वाचित हुआ।
1985 में काशी सिंह इस पार्टी के दूसरे विधानसभा प्रतिनिधि बने। परंतु उत्तराखंड क्रांति दल अपनी इतनी ही पैठ बना पाया। नए राज्य की मांग को न्यायोचित ठहराने के बाद इस पर्वतीय क्षेत्र में भारतीय जनता पार्टी एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभर कर सामने आई। (और अंततः एक प्रभावी पार्टी बन गई)
जहाँ तक राज्य विधानसभा का संबंध था, इसने उत्तराखंड राज्य की मांग करने के लिए एक सरकार द्वारा प्रायोजित विधेयक पारित कर दिया, और 12 अगस्त 1991 को समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाली मुलायम सिंह यादव सरकार इसी आशय का एक प्रस्ताव लेकर आई, और 24 अगस्त 1994 को राज्य विधानसभा ने इसे स्वीकार कर लिया।
तीन वर्ष बाद, 24 अप्रैल 1997 को राज्य विधानसभा ने एक और सरकार द्वारा प्रायोजित विधेयक पारित किया, जिसमें केंद्र सरकार से एक नए पर्वतीय राज्य के निर्माण के लिए आवश्यक कदम उठाने के लिए अनुरोध किया गया था। भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार 1997 में एक संविधान संशोधन विधेयक लेकर आई, जो अपने किस्म की पहली कार्रवाई थी, और भारत के राष्ट्रपति के माध्यम से, राज्य सरकार से प्रस्तावित विधेयक के विभिन्न प्रावधानों पर अपनी राय देने का अनुरोध किया। इसके जवाब में राज्य विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसके अनुसार केंद्रीय विधेयक के मसौदे में 26 संशोधन सुझाये गए थे। इसमें, हरिद्वार को राज्य का हिस्सा नहीं बनाने का, और वर्तमान राज्य की अधिकांश विद्युत और सिंचाई परियोजनाओं और प्राकृतिक संसाधनों पर वर्तमान राज्य के स्वामित्व को अबाधित रखने के संशोधन भी शामिल थे। प्रस्तावित उत्तराखंड राज्य कई मायनों में विशाल विविधताओं वाला राज्य होने वाला था, जिनमें भौगोलिक, स्थलाकृतिक और जनसांख्यिकीय विविधतायें शामिल थीं। यहाँ तराई के तलहटी मैदान हैं, जो आमतौर पर काफी उपजाऊ माने जाते हैं, और जिनकी जलवायु गर्म है और इनमें जल संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। कुमाऊं क्षेत्र में तराई अनाज फसलों और गुणवत्तापूर्ण बीज़ का बेताज अन्न भंडार बन गया है। फिर यहाँ शिवालिक क्षेत्र है जिसमें कई दून हैं। ये संख्या में पांच हैं, जो निम्न प्रकार से हैंः यमुना और गंगा के बीच में देहरादून है, गंगा और पश्चिमी रामगंगा के बीच चौखंभा और कोठारी दून है, पश्चिमी रामगंगा और कोसी के बीच पातलीदून है, जबकि कोसी और बौर के बीच कोटदून है। शिवालिक के उत्तर में 70 किलोमीटर चौडे़ छोटे हिमालय हैं। ढलवां तराइयों के साथ यह क्षेत्र उत्तराखंड का तुलनात्मक दृष्टि से अधिक घनी आबादी वाला क्षेत्र है और इसके चारों ओर कई शहरी पुंज बसे हुए हैं, जैसे नैनीताल, पौडी, पिथौरागढ, अल्मोडा, रुद्रप्रयाग, गोपेश्वर, बागेश्वर, रानीखेत, टिहरी, चंपावत, इत्यादि।
अन्य बातों के अलावा, राज्य विधानसभा द्वारा सुझाये गए संशोधनों में विद्युत परियोजनाओं और जल संसाधनों पर उत्तरप्रदेश राज्य का साम्पत्तिक अधिकार शामिल था। इसमें नए राज्य के लिए एक 60 सदस्यीय विधानसभा का भी प्रावधान था, और यह भी प्रावधान था कि जब तक सभी कानूनी औपचारिकताओं के साथ इस सदन का गठन नहीं हो जाता, तब तक इसकी ओर से एक अंतरिम विधानसभा कार्यरत रहेगी। अपनी पार्टी द्वारा किये गए एक बहुप्रतीक्षित वादे की पूर्तता के लिए 17 मई 2000 को जब केंद्रीय गृहमंत्री एल के आडवाणी लोकसभा के पटल पर विधेयक प्रस्तुत करने के लिए खडे़ हुए तो सदन में हंगामा हो गया। उत्तरप्रदेश पुनर्निर्माण विधेयक 1 अगस्त 2000 को लोकसभा में पारित हो गया, और राजयसभा ने इसे 10 अगस्त 2000 को अपनी मंजूरी प्रदान की। इस विधेयक को राष्ट्रपति ने अपनी मंजूरी 28 अगस्त 2000 को दी। बाद में इसे शासकीय गजट में अधिसूचित किया गया।
3.1 उत्तराखंड का गठन
9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड भारत का 27 वैन राज्य बना, जिसने इस पर्वतीय क्षेत्र के रहिवासियों के बहुप्रतीक्षित स्वप्न को साकार किया। 13 जिलों वाले इस नए नवेले राज्य के पहले राज्यपाल के रूप में श्री सुरजीत सिंह बरनाला की नियुक्ति की गई, जबकि श्री नित्यानंद स्वामी को इस राज्य का पहला मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया। देहरादून (उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी) का ऐतिहासिक परेड मैदान नए राज्य के राज्यपाल और मुख्यमंत्री के शपथग्रहण समारोह का गवाह बना। वे महत्वपूर्ण घटनाएँ जो उत्तराखंड राज्य के निर्माण के लिए कारण बनीं, निम्नानुसार हैंः
1930 में स्थानीय रहिवासियों ने बहुमत के आधार पर एक प्रस्ताव रखा, जिसमें स्वतंत्र उत्तराखंड़ राज्य की मांग की। इस प्रकार से देखा जाय तो उत्तराखंड़ राज्य की निर्मिति की नींव काफी पहले 1930 में ही रखी जा चुकी थी।
5-6 मई 1938ः श्रीनगर (ब्रिटिश कालीन गढवाल) में हुए कांग्रेस के एक राजनीतिक अधिवेशन में पंड़ित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि क्षेत्र के दूरस्थ भौगोलिक आकार और परंपराओं को ध्यान में रखते हुए, और क्षेत्र के विकास की दृष्टि से, क्षेत्र के लोगों को महत्वपूर्ण मामलों में स्वयं नीतियां बनाने और निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए।
1946ः हल्द्वानी के अधिवेशन में गढ़वाल केसरी बद्री दत्त पांडेय ने क्षेत्र के लिए विशेष दर्जे की मांग रखी और गढ़ केसरी अनसूया प्रसाद बहुगुणा ने गढ़वाल कुमाऊं क्षेत्र को एक अलग इकाई या राज्य के रूप में विकसित करने की मांग रखी।
1954ः राज्य विधानसभा के एक सदस्य इंदिरा सिंह नयाल ने राज्य के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत को क्षेत्र के विकास के लिए स्वतंत्र व्यवस्था बनाने का अनुरोध करने के लिए एक पत्र लिखा।
1955ः फज़ल अली ने उत्तराखंड़ को एक अलग राज्य के रूप में विकसित करने के उद्देश्य से उत्तरप्रदेश की पुनर्रचना की मांग की।
1957ः योजना आयोग के उपाध्यक्ष टी.टी. कृष्णमाचारी ने पर्वतीय क्षेत्र के लोगों की समस्याओं की ओर विशेष ध्यान देने की मांग की।
12 मई 1970ः इंदिरा गांधी ने पर्वतीय स्थलों के पिछडेपन और विकास के अभाव की जिम्मेदारी केंद्र और राज्य सरकारों पर थोप दी।
24 जुलाई 1979ः एक स्वतंत्र पर्वतीय राज्य के निर्माण के लिए ‘‘उत्तराखंड क्रांति दल‘‘ का गठन।
जून 1987ः कर्णप्रयाग की सर्वदलीय बैठक में स्वतंत्र उत्तराखंड़ राज्य के गठन की शपथ ली गई।
नवंबर 1987ः दिल्ली में प्रदर्शन और राष्ट्रपति को ज्ञापन। ज्ञापन के अनुसार हरिद्वार को उत्तराखंड राज्य के भाग के रूप में शामिल किया गया था।
1991ः भाजपा सरकार ने राज्य विधानसभा में उत्तराखंड के गठन के संबंध में एक प्रस्ताव पारित किया और इसे स्वीकृति के लिए केंद्र सरकार को भेज दिया।
1994ः उत्तराखंड की मांगों का मूल्यांकन करने के लिए मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कनिश्क्य समिति का गठन किया। 21 जून 1994 में समिति ने उत्तराखंड़ के पक्ष में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।
जून 1994ः स्वतंत्र राज्य के लिए उत्तराखंड़ में सभी स्थानों पर विद्यार्थी आंदोलन किये गए।
19 अगस्त 1994ः नैनीताल में राज्य सरकार के कर्मचारियों द्वारा हड़ताल की गई, और लोकसभा में नारे लगाये गए।
1 सितंबर 1994ः खटीमा में प्रदर्शनकारियों पर पुलिस द्वारा गोलियां चलाई गईं, इनमें कई लोगों की जानें गईं और हल्द्वानी और खटीमा में निषेधाज्ञा लागू कर दी गई।
2 सितंबर 1994ः मसूरी में पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाई गईं, जिसमें एक उप-पुलिस अधीक्षक सहित 7 लोगों की मृत्यु हुई।
3 सितंबर 1994ः विद्यार्थियों, महिलाओं सहित समाज के सभी वर्गों के लोगों द्वारा संपूर्ण उत्तराखंड में सामूहिक विरोध प्रदर्शन किये गए।
1-2 अक्टूबर 1994ः दिल्ली जा रहे प्रदर्शनकारियों पर अत्याचार किये गए, जिनमें अनेक लोग मारे गए, अनेक लोग गिरतार किये गए, उनकी बस को आग लगा दी गई, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया गया, दिल्ली में सामूहिक विरोध प्रदर्शन किये गए और पुलिस द्वारा भीड पर गोलियां बरसाई गईं।
3 अक्टूबर 1994ः समूचे उत्तराखंड में सामूहिक विरोध प्रदर्शन किये गए, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाया गया, विभिन्न क्षेत्रों में निषेधाज्ञा लागू कर दी गई। नैनीताल, ऋषिकेश और देहरादून, इन सभी स्थानों पर एक एक प्रदर्शनकारी मारा गया।
7 अक्टूबर 1994ः पुलिस की गोलीबारी में एक महिला की मौत हुई, एक पुलिस स्टेशन को लूट लिया गया, और पुलिस से बिना वर्दी के परेड कराई गई।
13 अक्टूबर 1994ः देहरादून में निषेधाज्ञा के दौरान एक व्यक्ति की मृत्यु हुई।
27 अक्टूबर 1994ः तत्कालीन गृहमंत्री राजेश पायलट के साथ बातचीत के बाद उत्तराखंड़ में शांति प्रस्थापित हुई।
10 नवंबर 1995ः श्रीनगर के त्रियांक टापू में पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों पर किये गए अत्याचारों में दो प्रदर्शनकारियों की मौत हुई।
5 अगस्त 1996ः लाल किले से प्रधानमंत्री एच डी देवेगौडा द्वारा उत्तराखंड़ राज्य के गठन की घोषणा की गई, और राज्य की विधानसभा से उसकी राय मांगी गई।
1998ः पहली बार भाजपा द्वारा उत्तराखंड के गठन के लिए राष्ट्रपति के माध्यम से राज्य विधानसभा को एक अध्यादेश जारी किया गया।
2000ः अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा एक बार फिर उत्तराखंड राज्य के गठन के लिए 2000 उत्तरप्रदेश पुनर्गठन विधेयक प्रस्तुत किया गया। केंद्र सरकार द्वारा 27 जुलाई 2000 को यह विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया गया, और लोकसभा में यह विधेयक 1 अगस्त 2000 को पारित हुआ, तथा 10 अगस्त 2000 को राज्यसभा में पारित हुआ। 28 अगस्त 2000 को सरकार को इसके लिए राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हुई। केंद्र सरकार द्वारा उत्तराखंड राज्य के गठन के लिए 9 नवंबर 2000 का दिन निर्धारित किया।
4.0 तेलंगाना
वर्ष 2014 में भारतीय संघराज्य के नवीनतम निर्मित राज्य तेलंगाना का एक उथल-पुथल भरा इतिहास रहा है। वर्ष 1947 में जब भारत ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्र हुआ उस समय हैदराबाद के निजाम, जो एक मुस्लिम शासक थे, चाहते थे कि उनका हैदराबाद राज्य शाही रियासतों को दिए गए विशेष प्रावधानों के अंतर्गत स्वतंत्र रहे। परंतु हैदराबाद राज्य के हिंदुओं ने, जिनकी जनसंख्या राज्य की कुल जनसंख्या के 93 प्रतिशत थी, कुछ मुस्लिमों के सहयोग से राज्य के शेष भारत के साथ एकीकरण के लिए ‘‘भारत में शामिल हो‘‘ नामक आंदोलन शुरू किया।
इस आंदोलन में कई अन्य दल भी शामिल थे। राज्य के भारतीय राष्ट्रीय नेताओं और आर्य समाज नेताओं ने भी आंदोलन का जी-जान से समर्थन किया। राज्य के किसानों ने भी, जो साम्यवादी पार्टी से प्रभावित थे, निजाम के विरुद्ध विद्रोह किया, जिसने जमींदारों के विरुद्ध उनके सशस्त्र संघर्ष का दमन करने का प्रयास किया। कासिम रिजवी के नेतृत्व वाली रज़ाकार मुस्लिम सेना, जो निजाम के शासन के जारी रहने के समर्थन में लड रही थी, स्वयं अपने लोगों पर अत्याचार करने में संलग्न थी। अंततः, भारत सरकार की सेना ने, गृह मंत्री सरदार पटेल के आदेश से 17 सितंबर 1948 को हैदराबाद राज्य को मुक्त करवाया और इसका भारत में विलय हुआ। इस बेहद सफल सैन्य अभियान को पोलो अभियान का नाम दिया गया।
4.1 स्वतंत्रता के पश्चात
प्रारंभिक वर्षों के दौरान शांति दुष्प्राप्य साबित हुई। वर्ष 1946 में साम्यवादियों के नेतृत्व में एक किसान विद्रोह शुरू हुआ जो वर्ष 1951 तक जारी रहा। उस समय हैदराबाद राज्य में तेलंगाना के 9 तेलुगु भाषी जिले, गुलबर्गा प्रभाग के 4 कन्नड जिले और औरंगाबाद प्रभाग के 4 मराठी भाषी जिले शामिल थे। वर्ष 1978 में तेलंगाना के हैदराबाद जिले से रंगारेड्डी जिले का निर्माण किया गया। 26 जनवरी 1950 को केंद्र सरकार ने एम के वेल्लोदी नामक एक लोक सेवक को हैदराबाद राज्य के पहले मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त किया। उन्होंने राज्य का प्रशासन मद्रास राज्य और बंबई राज्य के नौकरशाहों की सहायता से संचालित किया। वर्ष 1952 में संपन्न पहले लोकतांत्रिक चुनावों में डॉ. बुर्गुला रामकृष्ण राव हैदराबाद राज्य के पहले मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। इस समय के दौरान कुछ तेलंगाना वासियों ने मद्रास राज्य के नौकरशाहों को वापस भेजने के लिए हिंसक आंदोलन शुरू किया। उन्होंने ‘‘मुल्की-नियमों‘‘ (स्थानीय नौकरियां केवल स्थानीय लोगों के लिए) के कठोर क्रियान्वयन की मांग की, जो वर्ष 1919 से हैदराबाद राज्य कानून का हिस्सा था।
वर्ष 1952 में तेलुगु भाषी लोगों को लगभग 22 जिलों में वितरित किया गया था, जिनमें से 9 जिले निजाम की शाही रियासत हैदराबाद राज्य के अधिराज्य में थे, 12 मद्रास प्रेसीडेंसी (आंध्र क्षेत्र) में थे और एक फ्रांसीसियों के नियंत्रण वाले यनम में था। उसी दौरान तत्कालीन मद्रास राज्य से आंध्र क्षेत्र के तेलुगु भाषी क्षेत्रों का निर्माण पोट्टी श्री रामुलु जैसे नेताओं द्वारा किया गया जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 1953 में आंध्र राज्य का निर्माण हुआ, जिसकी राजधानी कुर्नूल थी।
4.2 हैदराबाद राज्य और आंध्र का विलय
दिसंबर 1953 में भाषाई आधार पर राज्यों के निर्माण की तैयारी के लिए राज्य पुनर्गठन आयोग की नियुक्ति की गई। जनता की मांग के कारण आयोग ने हैदराबाद राज्य के विघटन करने और मराठी भाषी क्षेत्रों के बंबई राज्य में और कन्नड भाषी क्षेत्रों के मैसूर राज्य में विलय की सिफारिश की। वर्ष 1956 में पुनर्गठन के बाद राज्य के कुछ क्षेत्रों का क्रमशः बंबई और मैसूर राज्यों में विलय हुआ जबकि शेष राज्य (तेलंगाना) का आंध्र में विलय करके आंध्र प्रदेश राज्य का निर्माण किया गया।
राज्य पुनर्गठन आयोग समान भाषा के बावजूद तेलुगु भाषाई तेलंगाना के आंध्र राज्य में तुरंत विलय के पक्ष में नहीं था। उसने कहा ‘‘आंध्र में आम राय अत्यधिक रूप से एक अधिक बडी इकाई के पक्ष में है; तेलंगाना में जनता की राय अभी भी स्पष्ट होना शेष है। स्वयं आंध्र के आम राय के महत्वपूर्ण नेता भी इस बात से सहमत प्रतीत होते हैं कि वांछनीय होने के बावजूद भी तेलंगाना का आंध्र के साथ एकीकरण लोगों के स्वैच्छिक और अनुकूल संगठन के आधार पर किया जाना चाहिए, और मुख्य रूप से तेलंगाना के लोगों को ही अपने भविष्य के बारे में निर्णय करना है।‘‘
तेलंगाना के लोगों की विभिन्न चिंताएं और आशंकाएं थीं। इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था आंध्र की तुलना में कम विकसित थी, परंतु फिर भी इसका राजस्व आधार बडा था (अधिकांशतः इसलिए क्योंकि वह मादक पेयों को प्रतिबंधित करने के बजाय उसपर कर अधिरोपित करता था) और तेलंगाना के लोगों को आशंका थी कि इसका उपयोग आंध्र के लिए किया जाएगा। उन्हें यह भी भय था कि कृष्णा और गोदावरी नदियों की नियोजित परियोजनाएं तेलंगाना के लोगों को आनुपातिक लाभ नहीं पहुंचाएंगी, बावजूद इसके कि तेलंगाना के लोग इन नदियों के नदी उद्गमों को नियंत्रित करते थे। साथ ही यह भी भय और आशंका थी कि आंध्र के लोगों को, जिनकी ब्रिटिश शासन के तहत उच्च शिक्षा तक पहुँच थी, सरकारी और शैक्षणिक नौकरियों में अनुचित लाभ प्राप्त होगा।
आयोग ने प्रस्ताव दिया कि तेलंगाना क्षेत्र को 1961 के आम चुनावों के बाद आंध्र राज्य के साथ एकीकरण के प्रावधान के साथ एक स्वतंत्र राज्य के रूप में गठित किया जाये, यदि तेलंगाना राज्य विधानसभा में दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित किया जाता है। हैदराबाद राज्य के मुख्यमंत्री बुर्गुला राम.ष्ण राव ने अपने विचार व्यक्त किये कि बहुसंख्य तेलंगाना वासी विलय के विरुद्ध थे। तेलंगाना के विरोध के बावजूद उन्होंने कांग्रेस पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के तेलंगाना और आंध्र के विलय के निर्णय का समर्थन किया। 25 नवंबर 1955 को आंध्र राज्य विधानसभा ने तेलंगाना को सुरक्षा उपाय प्रदान करने का प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव में कहा गया था कि ‘‘विधानसभा तेलंगाना के लोगों को आश्वस्त करना चाहती है कि उस क्षेत्र का विकास एक विशेष प्रभार माना जाएगा, और क्षेत्र के सुधार के लिए कुछ प्राथमिकताएँ और विशेष संरक्षण प्रदान किये जाएंगे, जैसे सेवाओं और शैक्षणिक संस्थाओं में जनसंख्या और सिंचाई में विकास के आधार पर आरक्षण।‘‘ तेलंगाना के नेताओं को विश्वास नहीं था कि ये सुरक्षा उपाय कारगर होंगे।
आंध्र के कांग्रेस नेताओं के पक्ष जनमत के साथ और कांग्रेस पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के दबाव के साथ 20 फरवरी 1956 को आंध्र के नेताओं और तेलंगाना के नेताओं के बीच तेलंगाना और आंध्र के विलय के समझौते को अंतिम रूप दिया गया जिसमें तेलंगाना के हितों की रक्षा का आश्वासन दिया गया। इसे सज्जनों का समझौता नाम दिया गया। इस समझौते ने राज्य पुनर्गठन आयोग की तेलंगाना राज्य के चुनावों के दो चक्रों के बाद तेलंगाना राज्य विधानसभा की दो-तिहाई बहुमत से मंजूरी प्राप्त करने के लिए 1961 तक रुकने की सिफारिशों के विरुद्ध 1956 में ही आंध्र प्रदेश राज्य के निर्माण की अनुमति प्रदान की।
प्रारंभ में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तेलंगाना के आंध्र के साथ विलय के प्रति साशंक थे जिसमें उन्हें ‘‘विस्तारवादी साम्राज्यवाद के रंग‘‘ का भय लग रहा था। सज्जनों के समझौते के बाद केंद्र सरकार ने 1 नवंबर 1956 को एकीकृत आंध्र प्रदेश की स्थापना की। इस समझौते ने तेलंगाना को सत्ता में साझेदारी, साथ ही प्रशासनिक अधिवास नियमों और विभिन्न क्षेत्रों के व्ययों के वितरण की दृष्टि से आश्वासन प्रदान किया था।
4.3 घटनाओं का क्रम
25 नवंबर 1955 - आंध्र विधानसभा द्वारा तेलंगना नामक क्षेत्र का स्वयं में विलय का प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें राज्य के लोगों के हितों की सुरक्षा का आश्वासन दिया गया। किसी समय निजाम द्वारा शासित उर्दू और तेलुगु भाषी राज्य को भय था कि अंग्रेजी और तेलुगु भाषी लोगों को उनसे अधिक लाभ होगा, साथ ही उन्हें इस बात का भी भय था कि उनके हितों को नजरअंदाज किया जा सकता था।
20 फरवरी 1956 - तत्कालीन आंध्र प्रदेश राज्य के मुख्यमंत्री बी गोपाला रेड्डी और उनके तत्कालीन हैदराबाद राज्य के समकक्ष बी रामकृष्ण राव के बीच विलय पर आगे बढ़ने के लिए एक ‘‘सज्जनों के समझौते‘‘ पर हस्ताक्षर किये गए।
1 नवंबर 1956 - केंद्र ने एकीकृत आंध्र प्रदेश की स्थापना की। बडे पैमाने पर पलायन के परिणामस्वरूप विशाल आंध्र जनसंख्या तेलंगाना की ओर पलायन कर गई - जिनमें से अधिकांश लोग व्यवस्थित रूप से स्थापित हैदराबाद शहर में बस गए।
1969 : एक विद्यार्थी आंदोलन से उठने वाला आंदोलन तेलंगाना में शुरू हुआ, जिसमें लोग इस बात का विरोध कर रहे थे कि सज्जनों के समझौते ने उनके साथ न्याय नहीं किया था। यह आंदोलन अल्पकालिक सबित होता है। जनता और इंदिरा गांधी की सरकार के बीच के इस संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि हजारों लोगों को जेल में बंद कर दिया गया, जबकि कम से कम 300 प्रदर्शनकारियों को पुलिस ने गोलियां मार दी।
1971 - आंदोलन के कुछ वर्षों बाद तेलंगाना प्रजा समिति (टीपीएस) स्वतंत्र राज्य के लिए लोकतांत्रिक मार्ग से प्रयास करती है और 1971 के लोकसभा चुनावों में 11 में से 10 सीटें जीतती है।
सितंबर 1971 - टीपीएस प्रमुख मर्री चेन्ना रेड्डी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ बातचीत करते हैं जिसके बाद टीपीएस का कांग्रेस में विलय हो जाता है और तेलंगाना आंदोलन अंततः समाप्त हो जाता है।
11 अक्टूबर 1999 - टीडीपी प्रमुख एन चंद्रबाबू नायडू मुख्यमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल के लिए शपथ ग्रहण करते हैं। इस दौरान, एक टीडीपी नेता और नायडू के एक निकटस्थ विश्वासपात्र के. चंद्रशेखर राव अंतिम क्षणों में मंत्री पद नहीं मिलने के कारण गुस्से से उबलने लगते हैं। बाद में वे टीडीपी छोड देते हैं और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) का गठन करते हैं।
27 अप्रैल 2001 - टीआरएस का गठन होता है, जो बाद में पृथक तेलंगाना की मांग का नेतृत्व करने वाली थी। अगले कुछ वर्षों तक टीआरएस धीरे-धीरे पृथक राज्य की मांग को अधिक तीव्र करती जाती है परंतु इसका कोई विशेष परिणाम नहीं निकलता है।
2 सितंबर 2009ः नल्लमला के जंगल में एक हेलीकाप्टर दुर्घटना में आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वाय. एस. राजशेखर रेड्डी की मृत्यु हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप केसीआर की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को नया जीवन मिलता है।
29 नवंबर 2009 - टीआरएस प्रमुख अनिश्चितकालीन आमरण अनशन की शुरुआत करते हैं, जिसका अंत तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम द्वारा 9 दिसंबर 2009 को दिए गए इस वक्तव्य के साथ होता है कि केंद्र ने तेलंगाना राज्य के निर्माण की प्रक्रिया शुरू कर दी थी।
3 फरवरी 2010 - तेलंगाना के लिए सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश बी. एन. श्री.ष्ण की अध्यक्षता में स्वतंत्र तेलंगाना राज्य की मांग पर विचार करने के लिए श्री.ष्ण समिति का गठन किया गया।
30 दिसंबर 2010 - समिति ने आगे बढने के लिए छह सुझावों के साथ केंद्र को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। हालांकि, तेलंगाना समर्थक कार्यकर्ताओं ने इन सुझावों को अस्वीकार कर दिया और अपनी मांगें जारी रखीं। राजनीतिक उथल-पुथल के कुछ और वर्ष जारी रहते हैं। हैदराबाद तब तक लगभग पूर्ण बंद का अनुभव करता है जब तक केंद्र मांगों को स्वीकार करने के लिए सहमति प्रदान नहीं करता।
2 जून 2014 - भारत के 29 वें राज्य के रूप में तेलंगाना का निर्माण होता है। टीआरएस प्रमुख के. चंद्रशेखर राव पहले मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण करते हैं।
5.0 उपसंहार
उपरोक्त घटनाओं के वर्णन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आंदोलनों और पार्टियों की राजनीति के प्रतिच्छेदन ने उत्तराखंड़ और झारखंड़ के सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा अपनायी गई रणनीतियों के उद्देश्यों को साकार रूप प्रदान करने में मदद की, जिसने अंततः नए राज्यों के गठन की मांगों को साकार किया। इन विषयवस्तुओं को इसलिए नहीं लिया गया कि वंचित लोगों के महत्त्व को कमतर आंका जाये, बल्कि इसलिए लिया गया है कि इस बात पर तर्क-वितर्क किया जाये कि किसी भी राजनीति या वंचितता को संस्थागत और गैर संस्थागत राजनीति के आपसी संबंधों को ध्यान में रखना आवश्यक है। राज्य का दर्जा प्राप्त होने के बाद से झारखंड ने भारत के अन्य राज्यों की तुलना में लगातार राजनीतिक अस्थिरता का प्रदर्शन किया है। दस वर्षों के दौरान (2000 से 2010 के दौरान) इस राज्य ने आठ विविध अल्पावधि सरकारों और चार अलग-अलग मुख्यमंत्रियों के गठन का, और राष्ट्रपति शासन की दो अवधियों का अनुभव किया है। राज्य के गठन के बाद से, भाजपा के 1990 के दशक के उभरते हुए आदिवासी नेता और झारखण्ड राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने भाजपा को छोड़ कर अपनी स्वयं की अलग पार्टी झारखण्ड विकास मोर्चा बना ली है। इसमें एक मजबूत संकेत छिपा हुआ है, कि कमजोर रूप से संगठित राजनीतिक पार्टियां उभरते हुए नेतृत्व को सीमित गतिशीलता प्रदान करती हैं, हालांकि खनन और औद्योगिक उपक्रमों से मिलने वाला किराया राजनीतिक करियर के आकर्षण में वृद्धि करता रहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि झारखंड राज्य तीव्रता से उस अवस्था की ओर बढ़ता जा रहा है जिसे ‘‘प्रणालीरहित प्रतियोगिता‘‘ की ‘‘रोगावस्था‘‘ कहा जाता है यह स्थिति चरम तरलता की ओर इशारा करती है जिसमें चुनावी प्रतियोगिता राजनीतिक पार्टियों की परंपराओं द्वारा बंधी हुई नहीं है, बल्कि जहाँ व्यक्तिगत उद्यमिता, या बहुत ही ढीली और अत्यंत अल्पावधि के गठबंधन हावी रहते हैं।
स्थिरता के अभाव ने राज्य के दीर्घकालीन विकास के लक्ष्यों को अपनाने की क्षमता को सीमित कर दिया है। इसने ऐसे समझौतों को लंबित कर दिया है, उदाहरणार्थ, औद्योगीकरण के पश्चात के पुनर्वास और पुनर्स्थापन के न्यूनतम कार्यान्वयन योग्य मानकों को। साथ ही, इस अस्थिरता के कारण सरकार द्वारा व्यवसाइयों के साथ किये समझौतों की गति भी मंद हो गई है। कुछ अर्थों में झारखंड में शासन की निष्क्रियता स्थानीय विरोध द्वारा बनाये रखे गए प्रभाव को भी प्रतिबिंबित करती है। यह उस राजनीतिक समाधान के अभाव को भी दर्शाती है जो विकास की भिन्न दूर.ष्टि के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा सके। राज्य दर्जे के पक्ष में किये गए समझौते ने एक नए राजनीतिक अनुबंध की निर्मिति करने के बजाय इन तनावों पर आवरण डाल दिया था। राज्य की संस्थाओं के क्रियान्वयन के बिना समावेशी आर्थिक विकास दूर की कौडी ही प्रतीत होता है। साथ ही झारखंड में (और छत्तीसगढ़ में) राज्य के गठन के समय से ही विविध समूहों के नक्सलवाद के एक ढ़ीले छत्र के तहत (साथ ही नक्सलवाद विरोधी आंदोलनों के तहत) चुनावी व्यवस्था से बाहर आंदोलनों में अदलाबदली हुई है। यह इस बात का प्रतिबिंब है कि संस्थागत राजनीति के कार्यकलापों से सामान्य जनता असंतुष्ट है, और मध्य भारत में बढती हुई माओवादी गतिविधियाँ यह इशारा करती हैं कि प्राकृतिक संसाधनों के स्वामित्व के लिए होड़ मची हुई है। अब हम प्रस्तुत करते हैं कुछ राज्यों की तथ्यात्मक तुलना मूल राज्यों की तुलना से।
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