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राज्यों का भाषाई पुनर्गठन
1.0 प्रस्तावना
भारतीय रियासतों के भारतीय गणतंत्र में विलयन ने राज्य की संरचना की विविध श्रेणियां बना दी थी। 1950 तक जो राजनीतिक इकाईयां प्रकल्पित की गईं, उनमें आर्थिक व्यवहारिकता और सही प्रशासनिक व्यवस्था का अभाव था। राज्यों के पुनर्गठन की बात जल्दी ही सामने आ गई। 1920 नागपुर में कांग्रेस के अधिवेशन में कही गई बात कि भाषा ही राज्यों के पुनर्गठन का आधार बनेगी, और इस पर 1927, 1937, 1938 और 1945-46 में लिए गए निर्णय के अनुसार, राज्यों का पुनर्गठन भाषा के आधार पर ही किया जाये यह तय हुआ।
जनवरी 1953 में, ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी ने अपने हैदराबाद अधिवेशन में इस संकल्प को दोहराया कि भारत का आंतरिक विभाजन का प्राथमिक आधार भाषा ही रहेगा।
2.0 राज्य पुनर्गठन आयोग
दिसंबर 1953 में, भारत सरकार ने राज्यों के पुनर्गठन के विषय को निष्पक्षता और निरपेक्षता से जांच करने के लिए राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया।
इस आयोग ने राज्यों के पुनर्गठन हेतु एक तार्किक और संतुलित आधार तय किया। इसकी कार्यसूची निम्नानुसार थीः
- भाषायी एकरुपता का ध्यान रखना मगर इसे एकमात्र अनिवार्य नियम के रूप में न समझना;
- यह सुनिश्चित करना कि हरेक भाषाभाषी समूह की संवादात्मक, शैक्षिक और सांस्कृतिक जरुरतों को पूरा किया जा रहा हो;
- ऐसे संयुक्त राज्य जहां की आर्थिक, राजनीतिक और प्रशासनिक स्थिति संतोषप्रद हो, उन्हें उसी रूप में रहने दिया जाए, यह ध्यान रखते हुए कि हर एक हिस्से को समान अवसर और समान अधिकार मिल सकें;
- भारत के समस्त हिस्सों के नागरिकों को समान अवसर और समान अधिकार मिले यह सुनिश्चित करना ताकि जन्मभूमि की अवधारणा हरेक के लिए सच हो सके;
- ‘एक राज्य, एक भाषा‘ की अवधारणा को समाप्त करना; और अंततः
- राज्य के स्तर पर एक भाषा रखने का अहसास राज्यों में एक विशेष भावना को उद्भावित करेगा और इस भावना को संतुलित करने के लिए भारतीयता का गहन पुट देना होगा। सभी राज्यों की संस्कृति के बीच अंतर्संबंध विकसित करने, आपसी सहयोग और सहमति विकसित करने के लिए केन्द्र और राज्यों के बीच मधुर संबंध स्थापित होना जरुरी है। इसी से केन्द्र की नीतियों और कार्यक्रमों का सही क्रियान्वयन हो सकेगा।
भारत सरकार ने इस रिपोर्ट को ध्यान से पढ़ा और भारत का पुनर्गठन 15 राज्यों और 7 केन्द्रशासित प्रदेशों में करने की अनुशंसा की। संसद ने 1 नवंबर 1956 को 14 राज्यों और 6 केन्द्रशासित प्रदेशों में भारत के पुनर्गठन का कानून पारित कर दिया।
इस निर्णय से जनसंख्या व भूभाग का एक बडा हिस्सा समान प्रशासन के अंदर आ गया। भारत के लगभग 98 प्रतिशत हिस्से और वहां की जनसंख्या को एक-सी न्याय व्यवस्था, विधायी व्यवस्था और कार्यकारी तंत्र का लाभ मिला। केवल केन्द्रशासित प्रदेशों के रूप में बचे छोटे से हिस्से केन्द्रीय निर्देशन के अंतर्गत आ गए। राजप्रमुख का असंगत पद समाप्त किया गया। प्रादेशिक निकटता दूसरी उपलब्धि थी।
पुनर्गठन के बाद, भी हिमाचल प्रदेश अब भी दो बडे ब्लॉक्स के साथ बचा हुआ था। अधिकांश राज्यों का क्षेत्रफल पुनर्गठन के बाद बढ़ा था जबकि मद्रास और बिहार का कुछ भाग घट गया था। असम, उत्तरप्रदेश, उड़ीसा और जम्मू-कश्मीर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। कुछ पुराने राज्य जैसे भोपाल, कुर्ग, हैदराबाद, सौराष्ट्र, कच्छ, मध्यभारत, विन्ध्यप्रदेश, अजमेर-मेवाड़ और पेप्सू (च्मचेन) अपनी पहचान खो बैठे। सभी केन्द्रशासित प्रदेश अपनी पूर्व सीमाओं के साथ बने रहे।
सीमाओं में बहुत कम परिवर्तन हुए, व पुरानी सीमाएं हर संभव बनाए रखी गईं। राज्यों की संख्या आयोग की अनुशंसा एवं सरकार के प्रस्ताव से कम थी।
3.0 भाषा की समस्या
स्वतंत्रता के पहले बीस वर्षों में भाषा का विवाद एक प्रमुख मुद्दा रहा और इससे कई बार यह धारणा बनी कि देश की राजनीतिक और सांस्कृतिक एकता के लिए खतरा उत्पन हो गया है। इस विवाद को और भी हवा मिली जब इसका स्वरूप हिंदी विरोधी बन गया और धीरे-धीरे यह विवाद हिंदी-भाषी और गैर-हिंदी भाषी समूहों के बीच का मुद्दा बन गया। राष्ट्रभाषा का प्रश्न भी गहराने लगा था। संविधान-निर्माताओं ने प्रयत्न से इस विवाद का हल निकाला और कई भाषाओं को भारत की ‘राष्ट्रभाषाओं‘ के समतुल्य दर्जा दिया।
जो भी हो, देश का प्रशासनिक कामकाज कई भाषाओं में नहीं हो सकता था। देश को एक ऐसी भाषा की जरुरत थी जिसमें केन्द्र शासन अपना काम करे और राज्य सरकार तक अपनी बात पहुंचा सके। केवल दो भाषाएं इस कसौटी पर खरी उतर रही थीं - हिंदी और अंग्रेज़ी। संसदीय सभा में दोनों में से एक भाषा चुनने के लिए कड़ी बहस हुई।
स्वतंत्रता के पूर्व ही नेताओं ने यह स्वीकार किया था कि अंग्रेज़ी सारे देश को जोड़ने वाली भाषा नहीं बन सकती।
अब हिंदी, या हिंदुस्तानी, ही दूसरे उम्मीदवार के रूप में सामने थी जो कि स्वतंत्रता आंदोलनों के समय देश को जोडने का काम कर चुकी थी। गैर-हिंदीभाषी क्षेत्रों के नेताओं ने हिंदी को देश में सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जानेवाली भाषा मानकर स्वीकार किया। तिलक, गांधीजी, सी.राजगोपालाचारी, सुभाष बोस और सरदार पटेल हिंदी के उत्साही समर्थकों के रूप में थे।
प्रशासनिक भाषा की बहस में नेताओं की राय में काफी भिन्नता थी और इस पर कडी बहस भी हुई। यह प्रश्न शुरु से ही राजनीति से प्रभावित था। आपसी कटुता के बाद, हिंदी या हिंदुस्तानी का विवाद समाप्त हुआ। गांधी और नेहरु दोनों देवनागरी या उर्दू लिपि में लिखी गई हिंदुस्तानी के पक्ष में थे। हिंदी के पक्षधर इससे इत्तेफाक नहीं रखते थे, मगर उन्हें गांधी-नेहरु के विचार मानने को प्रवृत्त होना पड़ा। जैसे ही देश के विभाजन की घोषणा हुई और पाकिस्तान के समर्थकों ने उर्दू को पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार किया, हिंदी के समर्थकों ने उर्दू को ‘अलगाव की भाषा‘ के रूप में प्रचारित किया और देवनागरी लिपि में लिखी हिंदी को भारत की भाषा के रूप में स्वीकार करने की मांग की। इस मांग ने कांग्रेस पार्टी को दो धडों में बांट दिया। कांग्रेस विधायी दल ने 77 के सामने 78 मतों से हिंदी को हिंदुस्तानी के बजाय चुना, जबकि आज़ाद और नेहरु हिंदुस्तानी के लिए अडिग रहे।
हिंदी के पक्ष में जो बात थी वह यह कि यह न केवल भारत के बडे़ हिस्से द्वारा बोली जानेवाली भाषा थी वरन् यह बंगाल से पंजाब और गुजरात से महाराष्ट्र तक के शहरी क्षेत्रों में भी बोली-समझी जाती थी। हिंदी की आलोचना करनेवालों ने यह तर्क दिया कि यह अन्य भाषाओं की तुलना में कम विकसित भाषा है और इसे साहित्य या विज्ञान और राजनीति की भाषा नहीं कहा जा सकता।
हालांकि, हिंदी के विरोध का सबसे बडा कारण था गैर-हिंदीभाषियों के मन का यह डर कि हिंदी को प्रशासनिक भाषा बनाने से उनकी शिक्षा, नौकरी, तरक्की आदि में बाधा पडेगी और वे शैक्षिक और आर्थिक रूप से पिछड जाएंगे। हिंदी विरोधी यह तर्क देते रहे कि गैर-हिंदीभाषी प्रदेशों (दक्षिण भारत) पर हिंदी थोपने का अर्थ होगा हिंदी क्षेत्रों को उनके आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मामलों में प्रभुत्व दे देना।
3.1 आधिकारिक भाषा आयोग
1955 में गठित किए गए आधिकारिक भाषा आयोग (अध्यक्ष-बी.जी. खेर) ने 1956 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि हिंदी को धीरे-धीरे केंद्र सरकार के कामकाज में, अंग्रेजी को विस्थापित करना शुरु करना होगा और 1965 तक यह पूरी तरह से प्रशासनिक भाषा मान ली जाएगी। इस समिति के दो सदस्य - पश्चिमी बंगाल के प्रो. सुनीति कुमार चटर्जी और तमिलनाडु के पी. सुब्बरायन ने यह कहते हुए इस निर्णय का विरोध किया कि इस समिति के सदस्य हिंदी के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं और प्रशासनिक भाषा के रूप में अंग्रेजी को ही आगे बढ़ाना चाहिए। संसद द्वारा एक संयुक्त समिति बनाई गई जिसने इस रिपोर्ट का पुनवरालोकन किया। इस समिति की अनुशंसाओं के पालन हेतु राष्ट्रपति ने 1960 में यह आदेश निकाला कि 1965 के बाद हिंदी भारत की मुख्य आधिकारिक भाषा होगी मगर अंग्रेज़ी का सहायक आधिकारिक भाषा के रूप में उपयोग भी यथावत रहेगा और इसके उपयोग पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं रहेगा। लोक सेवा आयोग परीक्षाएं कुछ समय बाद हिंदी माध्यम में भी संचालित की जाएंगी मगर अभी इन परीक्षाओं में हिंदी का एक प्रश्नपत्र रखा जाएगा जिसे उत्तीर्ण करना जरुरी होगा। राष्ट्रपति के आदेशानुसार सरकार ने हिंदी के उत्थान के लिए कई कदम उठाए।
इस सभी गतिविधियों ने गैर-हिंदीभाषी क्षेत्रों के मन में चिंता और आशंका का निर्माण किया। साथ ही हिंदी भाषी नेता भी असंतुष्ट थे।
1957 में, डॉ. लोहिया की संयुक्त समाजवादी पार्टी और जनसंघ ने अंग्रेजी के तुरंत विस्थापन हेतु सघन आंदोलन चलाया, जो कि सतत दो साल तक चला। इस आंदोलन का एक उग्रवादी तरीका था अंग्रेजी में लिखे दुकानों आदि के बोर्ड को काला करना।
नेहरु के बाद प्रधानमंत्री बने श्री लालबहादुर शास्त्री हिंदी के प्रति गैर-हिंदीभाषी समूह के भय के प्रति संवेदनशील न हो सके और उन्होंने हिंदी को पब्लिक सर्विस परीक्षाओं का वैकल्पिक माध्यम बनाने की बात की। इसका अर्थ था कि गैर-हिंदीभाषी समूह यह परीक्षा केवल अग्रेजी में दे सकता था, जबकि हिंदी भाषी प्रदेशों को अपनी मातृभाषा का लाभ मिलनेवाला था।
3.2 दक्षिण भारत में असंतोष
जैसे ही 26 जनवरी 1965 पास आने लगा, गैर-हिंदीभाषी हिस्सों में ड़र का बुखार फैलने लगा। इन क्षेत्रों में, विशेषतः तमिलनाडु में, हिंदी के खिलाफ तगड़ा आंदोलन प्रारंभ हो गया। 17 जनवरी को द्रविड मुन्नेत्र कड़गम दल (डी.एम.के) ने मद्रास राज्य हिंदी विरोधी सभा का आयोजन किया जिसमें 26 जनवरी को एक शोक दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। इस आंदोलन को उग्र रूप देने और उसे लोगों के बीच पहुंचाने में छात्रों ने प्रमुख भूमिका निभाई क्योंकि वे स्वयं अपने भविष्य की चिंता से ग्रस्त थे और उन्हें यह डर था कि हिंदी भाषी लोगों के कारण वे नौकरियों की दौड़ से बाहर हो जाएंगे। उन्होंने एक नारा दिया, ‘हिंदी नैवर, इंगलिश एवर‘। उन्होंने संविधान में सुधार की भी मांग की। छात्रों का यह आंदोलन जल्दी ही सारे राज्य में असंतोष बनकर फैल गया।
कांग्रेस के नेता इस आंदोलन के पीछे छिपी गहराई और छात्रों की भावनाओं को समझने में असफल रहे और उनके साथ बातचीत करने की बजाय वे उस आंदोलन का दमन करने पर तुल गए। फरवरी के प्रथम सप्ताह में यह आंदोलन दंगों और हिंसा में बदल गया जिससे रेलवे और अन्य केंद्रीय सार्वजनिक संपत्ति को खूब नुकसान पहुंचा। हिंदी के प्रति तमिल युवाओं में इतना अधिक आक्रोश था कि कुछ युवकों ने इस नीति के खिलाफ आत्मदाह भी किया। दो मंत्रियों - सी. सुब्रम्हण्यम और अलगेसन ने केन्द्रीय मंत्रीमंडल से त्यागपत्र दे दिया। यह आंदोलन दो महीनों तक चलता रहा जिसमें पुलिस की गोलीबारी में करीब 60 लोग मारे गए।
इस असंतोष ने मद्रास सरकार और कांग्रेस सरकार दोनों को ही अपने रुख पर पुनर्विचार करने को मजबूर किया। मद्रास सरकार ने आंदोलनकारियों की मांगों पर विचार करने और अपनी नीति बदलने की घोषणा की, जबकि केन्द्र सरकार ने इस मुद्दे पर एक राय बनाने के लिए कई कदम प्रस्तावित किए। सारी चर्चाएं भारत-पाक युद्ध (1965) छिड़ने से अधर में ही रह गईं और सारा देश इस युद्ध से प्रभावित हो गया।
1967 में इंदिरा गांधी ने 1963 के आधिकारिक भाषा कानून में सुधार के लिए एक बिल संसद के सामने प्रस्तुत किया, जिसके अनुसार हिंदी के साथ साथ अंग्रेजी भी प्रशासनिक भाषा के रूप में प्रयोग की जाती रहेगी और दक्षिण भारतीय राज्य केन्द्र सरकार के साथ अंग्रेजी में ही संवाद करेंगे। वे जब तक चाहे अंग्रेजी उनकी प्रशासनिक भाषा बनी रहेगी।
4.0 तमिल राष्ट्र और डी.एम.के
डी. एम. के. पचास के दशक में एक ऐसे दल के रूप में उभरी और ऐसे आंदोलन की प्रतिनिधि बनी जो जाति, क्षेत्रीयता और पृथकतावादी भावनाओं पर आधारित था। यह तमिलनाडु में स्वतंत्रतापूर्व के दो प्रमुख आंदोलनों के उत्तराधिकारी के रूप में सामने थी-ब्राह्मण विरोधी आंदोलन जिससे 1920 में ब्रिटिश समर्थक जस्टिस पार्टी का जन्म हुआ जो पूरी तरह से जाति, क्षेत्रीयता विरोधी और परिवर्तनकारी दल था जिसका प्रतिनिधित्व ई.वी. रामास्वामी नायकर (जो पेरियार के नाम से जाने जाते थे) ने किया। 1944 में नायकर और सी.एन. अन्नादुराई ने द्रविड कड़गम की स्थापना की जो कि 1949 में विभाजित हो गया जब अन्नादुराई ने द्रविड मुन्नेत्र कड़गम की स्थापना की। मगर जस्टिस पार्टी और नायकर के विपरीत 1947 से पहले ही अन्नादुराई ने एक साम्राज्यवाद विरोधी, राष्ट्रवादी दल की स्थिति ले ली थी।
अन्नादुराई एक मेधावी लेखक, प्रभावी वक्ता और कुशल प्रबंधक थे। करुणानिधि और एम.जी. रामचन्द्रन जैसे फिल्मकार, लेखक, अभिनेताओं के संपर्क में रहते हुए अन्नादुराई ने नाटक, फिल्में, पत्रिकाएं, पर्चे और अन्य संचार माध्यमों द्वारा जनता तक विशेषकर एक ग्रामीण पृष्ठभूमि के युवाओं तक पहुंचने का रास्ता निकाला और एक सक्रिय राजनीतिक दल के रूप में अपनी पहचान बनाई।
डीएमके मजबूती से ब्राह्मणों के, उत्तर भारतीयों के और आर्यों के विरोध में खड़ी थी। दक्षिणी ब्राह्मणों और उत्तर -भारतीय आर्यों के नाम से और अन्य दक्षिणी लोग द्रविडों के नाम से जाने जाते थे। इसने उत्तर भारतीयों द्वारा सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर दक्षिण भारतीयों पर हावी होने का विरोध किया। नायकर और अन्य लोगों ने भी 1938 में मद्रास के स्कूलों में हिंदी पढ़ाए जाने के फैसले पर आंदोलन छेड़ा था और इसे उत्तर भारतीयों की प्रभुता का प्रतीक मानकर खारिज किया था। डीएमके ने भी इसे दक्षिण में उत्तरी साम्राज्यवाद कहते हुए इसका विरोध किया था।
इसकी प्रमुख मांग द्रविडों के लिए एक पृथक राज्य की थी जिसमें तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र और केरल शामिल थे और इन्हें द्रविड़नाडु या द्रविड़स्तान का नाम दिया गया।
पचास और साठ के दशक के दौरान कई बदलाव हुए जिनसे डीएमके के राजनीतिक अजेंडे में बदलाव हुए। जब 1954 में कामराज नामक गैर-ब्राह्मण ने सी. राजगोपालाचारी की जगह कांग्रेस के मुख्यमंत्री का पद ग्रहण किया तो नायकर के कांग्रेस विरोधी रुख में बदलाव आया।
इसी के साथ डीएमके नेताओं ने भी अपने ब्राह्मण विरोधी रुख में नरमी लाई।
डीएमके के पृथकतावादी रवैये में धीरे-धीरे परिवर्तन आना शुरु हुआ जब इसने चुनाव और संसदीय राजनीति में सक्रिय हिस्सा लेना शुरु किया। 1962 के चुनावों के बाद यह स्वतंत्र और सीपीआई के साथ गठबंधन में आई और इसके चुनावी घोषणा पत्र में द्रविडनाडु का प्रस्ताव होने की बाद भी इसने उसे छोड़ दिया। फिर 1962 में भारत-चीन युद्ध होने के बाद यह पूर्णतः सरकार के समर्थन में आ गई और पृथक्करण के सारे प्रचार छोड़ दिए।
एक अगला और अंतिम बदलाव आया जब नेहरु ने किसी भी तरह की अलगाववादी शक्तियों से कड़ाई से निपटने का निर्णय लिया और 1962 में पारित हुए सोलहवें संविधान संशोधन में अलगाववादी कार्यों को एक अपराध की श्रेणी में रखने की पैरवी की और संसद के हरेक सदस्य को भारत की एकता अखंडता को बनाए रखने की शपथ लेना जरुरी माना गया। डीएमके ने तुरंत अपना पाला बदला और अलग राज्य की मांग से हटकर वह राज्य को अधिक स्वतंत्रता, अधिक शक्ति देने, उत्तर भारतीयों के दक्षिण भारतीयों पर प्रभुता को रोकने और तमिलनाडु के विकास के लिए अधिक आर्थिक संसाधन देने की बात कहने लगी। धीरे धीरे इसका ब्राह्मण विरोधी रुख भी ढीला पडता गया और बाद में इसने स्वयं को तमिल दल घोषित किया, जिसमें तमिल ब्राह्मण भी शामिल हो सकते थे।
फरवरी 1969 में अन्नादुराई की मौत के बाद करुणानिधि मुख्यमंत्री बने। 1972 में डीएमके, एमजीआर की ऑल इंडिया डीएमके और डीएमके में विभाजित हो गई। पहली बार तमिलनाडु में दो दलों, और वो भी द्रविड दलों, ने शासन किया।
5.0 उत्तर पूर्वी गठबंधन
भारत के स्वतंत्र होने के तुरंत बाद ईसाई मिशनरी और अन्य विदेशी संस्थाओं ने उत्तर भारतीय राज्य अलग करने के पक्ष में भावनात्मक प्रचार करने शुरु किए थे। उत्तर-पूर्वी क्षेत्र का राजनीति में कोई प्रतिनिधित्व न होना भी एक बड़ा अंतर था। स्वतंत्रता संग्राम का उत्तर पूर्वी भारत के जनजातीय इलाकों पर कोई असर दिखाई नहीं देता था। जवाहरलाल नेहरु के अनुसारः हमारी स्वतंत्रता संघर्ष की उन्मुक्त हवा सारे देश में फैली हुई थी मगर उसका कोई भी हिस्सा इन जनजातियों को छू न सका था। उन्हें कभी यह अहसास ही न हो सका कि वे भी भारत का हिस्सा हैं और वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम या हमेशा से अलग-थलग ही बने रहे। उनके बाहरी अनुभव अधिकतर ब्रिटिश अधिकारियों और मिशनरीज़ से ही जुडे़ हुए थे, जो उन्हें भारत विरोधी बनने हेतु उकसाते थे।
जवाहरलाल नेहरु द्वारा प्रेरित जनजातीय नीति वास्तव में उनके लिए बड़ी ही प्रासंगिक थी। नेहरु ने अक्तूबर 1952 को कहा कि उन लोगों को हमारे विशेष ध्यान की जरुरत है। उनके साथ संबंध बनाना हमारे और उनके दोनों ही के लिए उपयोगी साबित होगा। वे भारत को शक्ति, विविधता और सांस्कृतिक समृद्धि प्रदान करते हैं।
इस नीति की छाप संविधान की छठी अनुसूची में दिखाई दी, जिसे केवल असम के जनजातीय इलाकों के लिए लागू किया गया। इस अनुसूची में जनजातीय लोगों के लिए स्वतंत्र जिलों और क्षेत्रीय समितियों के गठन को मंजूरी देकर उन्हें स्वायत्त बनाने की राह में एक कदम बढ़ाया गया था। ये क्षेत्रीय समितियां असम की संसदीय और विधायी सर्वोच्चता के भीतर ही कार्य करेंगी। इस अनुसूची का उद्देश्य जनजातियों को उनके अपने तरीके से जीवन-यापन की स्वतंत्रता देना था। मगर इसके साथ ही नेहरु ने यह बात भी स्पष्ट कर दी थी कि स्वतंत्रता का अर्थ देश को विखंडित करने या इस भू-भाग को भारत से अलग माने जाने से न लिया जाए। सरकार ऐसे हरेक आंदोलन या कार्यवाही का दमन करेगी जो देश की अखंडता को नुकसान पहुंचाती प्रतीत होगी।
1948 में असम के उत्तरी-पूर्व सीमावर्ती इलाकों में नेफा (NEFA) का गठन हुआ और इसने नेहरु और वेरियर एलविन की नीतियों का क्रियान्वयन यहां अच्छी तरह से किया। नेफा (NEFA) असम के केंद्रशासित प्रदेश के रूप में कार्यरत थी, और विशेष शासनाधिकार के तहत संचालित होती थी। शुरु से ही इन नीतियों के क्रियान्वयन के लिए विशेष अधिकारियों के दल का गठन किया गया था जिन्हें यह निर्देश थे कि लोगों की सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन शैली को विचलित किए बिना इन्हें लागू किया जाए। एक ब्रिटिश मानव विज्ञानी जो काफी समय से इन जनजातियों का अध्ययन कर रहा था, उसने 1967 में लिखा कि ‘अलगाव की एक भावना, प्रगतिवादी प्रशासन के लिए लाई गई एक सहानुभूतिपूर्ण और कल्पनाशील नीति के साथ जुड गई है जिसने ऐसी स्थिति पैदा की है जिसकी तुलना भारत के किसी भाग से नहीं की जा सकती‘।
नेफा को बाद में अरुणाचल प्रदेश कहा गया और इसे 1987 में अलग राज्य का दर्जा दिया गया। यह विकास कर रहा था और भारत के अन्य क्षेत्रों के साथ समरसता भी बनाए हुए था। उसी समय असम के प्रशासनिक क्षेत्रों में उग्रता पसरने लगी। इसका कारण था कि असम के पहाड़ी कबीलों का, असम और बंगाल के मैदानी भागों में रहनेवाले लोगों से किसी भी तरह का सांस्कृतिक जुड़ाव नहीं था। असमीकरण की नीति के चलते इन कबीलों के निवासियों को अपनी पहचान खोने का भय सताने लगा।
पचास के दशक में असम सरकार के खिलाफ असंतोष की लहर फैलने लगी और कुछ कबीलों द्वारा अलग क्षेत्र की मांग सर उठाने लगी। मगर इन कबीलों को प्रदेश की अर्थव्यवस्था में योगदान देने की परिकल्पना के चलते न तो सरकार ने उसे बढ़ाना ठीक समझा न ही असम शासन ने इसकी गंभीरता को समझा।
जो भी हो, यह मांग साठ के दशक में फिर पुष्ट होने लगी जब असम के कुछ नेताओं ने असमी को प्रदेश की अकेली आधिकारिक भाषा बनाने की मांग की। इस समय असम के सारे राजनैतिक दल मिलकर एक दल के रूप में ‘ऑल पार्टी हिल लीडर्स अधिवेशन‘ में शामिल हुए और एक अलग राज्य की मांग रखी। असम आधिकारिक भाषा कानून के अनुसार प्रशासनिक कामकाज में असमी के अलावा किसी भी कबीलाई भाषा का प्रयोग करने से स्प्ष्ट इनकार किया गया। इसका जनजातीय क्षेत्रों में खासा विरोध हुआ, हडतालें और प्रदर्शन हुए और भारी असंतोष फैल गया। 1962 के चुनावों में अलग राज्य की मांग रखने वाले नेता, जिन्होंने विधानसभा का बहिष्कार करने का निर्णय लिया था, वे जनजातीय इलाकों में भारी बहुमत से जीते।
लंबी वार्ताएं और बहसें हुईं। कई समितियों ने इस मुद्दे का अध्ययन किया और अपनी राय दी। अंत में मेघालय को, 1969 में एक संविधानिक संशोधन के तहत् ‘राज्य के भीतर अलग राज्य‘ का दर्जा दिया गया जिसे बाकी मामलों में स्वायत्ता दी गई थी, सिवाय नियम और कानूनी मामलों के लिए जहां वह असम पर आश्रित था। मेघालय ने असम के उच्च न्यायालय, लोक सेवा आयोग और राज्यपाल भी साझा किए। अंत में 1972 में गारो, खासी और जैन्तिया कबीलों को अपने में समेटे हुए मेघालय को पूर्णतः अलग राज्य का दर्जा दिया गया।
इस्के बाद त्रिपुरा और मणिपुर के केंद्र शासित प्रदेशों को भी राज्य का दर्जा मिला। इन चारों राज्यों - मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, अरूणाचल - में यह प्रक्रिया बड़ी ही आसानी से संचालित हो सकी। नागालैंड और मिज़ोरम में अलगाववादी और विद्रोही आंदोलन शुरु हो जाने से इस प्रक्रिया में बड़ी तकलीफ सामने आई।
5.1 नागालैंड
नागा जनजाति असम-बर्मा सीमा के उत्तर-पूर्वी इलाके में नागा पहाड़ियों में निवास करती थी। 1961 में इनकी संख्या पांच लाख थी जो भारत की कुल जनसंख्या के 0.1 प्रतिशत से कम हिस्सा थी। इसमें कई अलग-अलग भाषाएं बोलनेवाली जनजातियां निवास करती थीं। अंग्रेजों ने इस प्रदेश को भारत के अन्य हिस्से से अलग ही कर दिया था, और ईसाई मिशनरी को यहां प्रसारित होने दिया जिससे यह क्षेत्र शिक्षा में कुछ आगे बढ़ा।
स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारत सरकार ने नागा पहाड़ियों को असम में मिलाने और भारत का हिस्सा बनाने की पहल की। नागा नेताओं के एक दल ने ए.जे. फिजो के नेतृत्व में इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए नागाओं के लिए भारत से अलग स्वतंत्र देश की मांग की। उन्हें इसके लिए ब्रिटिश अधिकारियों और मिशनरीज़ का भी प्रोत्साहन मिल रहा था। 1955 में, अलगाववादियों ने नागालैंड नामक स्वतंत्र इलाके की घोषणा करते हुए सरकार के गठन के लिए उग्र आंदोलन की घोषणा की।
भारत सरकार ने जवाहरलाल नेहरु की जनजातीय लोगों के प्रति वृहद दृष्टि से देखने की नीति के तहत इस मुद्दे पर दो तरीकों से विचार किया। भारत सरकार ने यह स्पष्ट किया कि देश के विभाजन की किसी भी गतिविधि को देशद्रोह के रूप में ही देखा जाएगा, और जैसे नेहरु ने कहा था कि कठोर लोगों के साथ नरमी से काम नहीं लिया जा सकता, सरकार ने भी 1956 में नागाओं के एक गुट के सशस्त्र आंदोलन का सामना करने के लिए भारतीय सेना भेजकर स्थिति पर नियंत्रण किया।
दूसरी तरफ नेहरु ने यह भी महसूस किया कि केवल सैन्य शक्ति के बल पर नागलैंड के विद्रोहियों को परास्त करना पूर्णतः संभव नहीं होगा और इस कार्यवाही का वास्तविक उद्देश्य तो नागा लोगों के मन पर जीत हासिल करना होना चाहिए। नेहरु एक ‘दोस्ताना तरीका‘ अपनाते हुए भारत की अखंडता को बरकरार रखते हुए भी नागाओं को सांस्कृतिक और अन्य मामलों में पूर्ण स्वायत्तता देने के पक्षधर थे। उन्होंने नागा विद्रोही नेता फिजो के साथ तब तक बातचीत करने से इनकार किया जब तक वे अलग देश की मांग को वापस नहीं लेते और सशस्त्र विद्रोह समाप्त नहीं कर देते। उनके स्थान पर नेहरु ने नागाओं के अहिंसक, नम्र और अखंडता के पक्षधर नेताओं से बातचीत का रास्ता अपनाया और उन नेताओं को भी यह महसूस हुआ कि उन्हें नेहरु के समान सामंजस्यकारी नेता नहीं मिल सकता, जो उनके लिए इतना करने को तैयार हो।
वास्तव में जैसे ही 1957 में नागाओं का सशस्त्र विद्रोह कुचला गया, नागाओं के सहिष्णु दल के नेता डॉ. इंकोंग्लिबा आओ सामने आए। उन्होंने भारत गणराज्य के अंदर ही नागालैंड की मांग रखी। भारत सरकार ने कई मध्यस्थ कदम उठाते हुए इस मांग को स्वीकार किया और 1963 में नागालैंड के रूप में एक अलग राज्य का निर्माण हुआ, जिससे भारत गणराज्य की अखंडता में एक कदम और आगे बढाया गया। इसके बाद नागालैंड की राजनीति भी अन्य राज्यों का अनुसरण करने लगी।
नागलैंड के बनते ही विद्रोहियों को जनता का सहयोग मिलना बंद हो गया। हालांकि उग्रवाद पर परोक्ष रूप से काबू पा लिया गया था मगर चीन, पाकिस्तान और बर्मा में प्रशिक्षित नागा विद्रोहियों का गुरिल्ला आक्रमण जारी रहा, जो आज तक जारी है। हम नागाओं की स्थित के एक और पहलू का अध्ययन कर सकते हैं। भले ही नागालैंड़ में भारतीय सेना की प्रत्यक्ष छवि दस्तावेजों में बिलकुल स्वच्छ थी, विशेषतः उन परिस्थितियों को देखते हुए जिनमें वे काम कर रहे थे, मगर कुछ स्थितियों में उनका व्यवहार गलत और कई बार क्रूर था। कितनी ही बार मासूम लोगों को उनकी बर्बरता का शिकार बनना पड़ा था। इसके अलावा गुरिल्ला आक्रमण के दौरान, सेना को भी अपने कई जवानों और अधिकारियों को खोना पड़ा।
5.2 मिज़ोरम
नागालैंड जैसी ही अवस्था कुछ वर्षों बाद उत्तर-पूर्व के स्वतंत्र जिले मिज़ोरम में उत्पन्न हो गई। 1947 में ब्रिटिश अधिकारियों के बहकाने पर भड़का विरोध मिज़ो युवाओं का समर्थन न मिलने से दब गया था, मगर मिज़ो समाज के लोकतांत्रिकीकरण, आर्थिक विकास और आसाम विधानसभा में मिज़ो लोगों के पर्याप्त प्रतिनिधित्व जैसे मुद्दों को लेकर असंतोष जमा होता गया। असम सरकार के खिलाफ यह असंतोष 1959 के अकाल के दौरान, और फिर 1961 में असमी को असम की आधिकारिक भाषा बनाने को लेकर फूट पड़ा। इससे मिज़ो नेशनल फ्रंट (एम.एन.एफ.) का जन्म हुआ जिसके अध्यक्ष लालडेंगा बने।
चुनावी राजनीति में भाग लेते समय एम.एन.एफ. ने एक सैन्य विंग का गठन किया जिसे पूर्वी पाकिस्तान और चीन से हथियार और प्रशिक्षण मिलता था। मार्च 1966 में एम.एन.एफ. ने स्वयं को भारत से स्वतंत्र घोषित करते हुए सैन्य विद्रोह की घोषणा की। भारत सरकार ने तुरंत इसपर कार्यवाही करते हुए सैन्य बल का प्रयोग किया। कुछ ही सप्ताहों में इस विद्रोह को कुचल दिया गया और सरकार का नियंत्रण स्थापित किया गया, जबकि गुरिल्ला गतिविधियां जारी रहीं। कई बडे मिज़ो नेता पूर्वी पाकिस्तान भाग गए।
1973 तक जैसे ही मिज़ो नेताओं की मिज़ोरम को भारतीय गणराज्य से अलग करने की अतिरेक भरी मांग में कुछ नरमी आई, मिज़ोरम को असम से अलग करके मिज़ोरम के रूप में एक केन्द्रशासित प्रदेश का दर्जा से दिया गया। मिज़ो विद्रोहियों को सत्तर के दशक में पुनः बल मिला, मगर भारतीय सेनाओं ने बडी ही कुशलता से इसका सामना किया। विद्रोहियों को अपने काबू में रखने के बाद अब भारत सरकार ने नेहरु की जनजातीय नीति को अपनाया, अर्थात वे उन्हें स्वतंत्रता देने की इच्छा रखते थे मगर इसके लिए देश की कीमत पर समझौता नहीं चाहते थे।
1986 के अंत में एक समझौता हुआ। लालडेंगा और एम.एन.एफ. ने सारी अंतरिम विद्रोही गतिविधियां बंद करते हुए भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण किया और पुनः भारत की राजनीति की मुख्यधारा में शामिल हो गए।
भाषा के मुद्दे पर अपवाद स्वरूप बना दूसरा राज्य पंजाब था जिसमें आजादी के बाद पेपसू (Pepsu) के अंतर्गत तीन भाषा-भाषी राज्यों को सम्मिलित किया गया था। यहां पंजाबी, हिंदी और पहाड़ी बोली जाती थी। राज्य के पंजाबी बोले जानेवाले इलाके में अलग राज्य (पंजाबी सूबा) बनाने की मांग ज़ोर पकड़ने लगी और दुर्भाग्यवश यह मुद्दा सांप्रदायिक होने लगा। सिख, जिन्हें अकाली दल द्वारा निर्देशित किया जा रहा था, और हिंदू, जिन्हें जनसंघ का समर्थन मिला था, दोनों ने भाषा के मुद्दे को आधार बनाते हुए इसे साम्प्रदायिक रूप देने का प्रयास किया। जबकि हिंदू संप्रदायवादियों ने यह कहकर पंजाबी सूबा बनाने का विरोध किया कि पंजाबी उनकी मातृभाषा नहीं है, सिखों ने पंजाबी की लिपि गुरुमुखी को सिखों की भाषा बताते हुए एक सिख राज्य की मांग की।
1966 में इंदिरा गांधी ने इस मांग को मानते हुए पंजाब को पंजाब और हरियाणा में बांट दिया, जिसमें क्रमशः पंजाबी और हिंदी भाषी लोग रहने लगे। पहाड़ी बोलेनेवाले जिले कांगडा और होशियारपुर का एक हिस्सा हिमाचल प्रदेश में विलय किया गया। पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ को केन्द्रशासित प्रदेश का दर्जा देते हुए हरियाणा और पंजाब की संयुक्त राजधानी बनाया गया।
6.0 आंध्र प्रदेश - पहला भाषायी राज्य
ब्रिटिशों के शासनकाल से ही आंध्र के निवासी इसे एक अलग राज्य बनाने के लिए प्रयासरत थे मगर सफल न हो सके थे। 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद आंध्र को लगा कि अब शायद उसकी बरसों की इच्छा पूरी हो सकेगी। आंध्र के नेताओं द्वारा प्रधानमंत्री नेहरु और उप-प्रधानमंत्री वल्लभ भाई पटेल के सामने अपना मसौदा रखा गया मगर उस पर कोई सुनवाई न हो सकी।
भारत सरकार द्वारा एस.के. दर की अध्यक्षता में गठित दर आयोग ने भाषाओं के आधार पर राज्यों के गठन को मान्यता नहीं दी। इस निर्णय ने आंध्र के लोगों पर इतना विपरीत प्रभाव डाला कि आंध्र के नेताओं की आहत भावनाओं को शांत करना कांग्रेसी नेताओं को आवश्यक लगा। कांग्रेस ने जे.पी.पी. समिति का गठन किया जिसमें नेहरु, पटेल और पट्टाभि सीतारमैया शामिल थे। इस समिति ने अप्रैल 1949 में अपनी रिपोर्ट दी जिसके अनुसार भाषाओं के आधार पर जिलों का विभाजन कुछ समय के लिए टाला जाए और तेलुगू लोगों की आंध्र को अलग करने की मांग तभी मानी जाए जब वे मद्रास (अब चेन्नई) की मांग छोड़ दें। इस रिपोर्ट ने आंध्र में हिंसक विरोध को जन्म दिया, क्योंकि तेलुगू लोग मद्रास पर अपना अधिकार छोड़ने के लिए तैयार न थे।
इस स्थिति में एक विभाजन समिति गठित की गई जिसके अध्यक्ष मद्रास के मुख्यमंत्री कुमारस्वामी राजा थे। आंध्र का प्रतिनिधित्व तंगुतुरी प्रकासम, बी. गोपाल रेड्डी, कला वेंकट राव और एन. संजीव रेड्डी कर रहे थे। यह समिति किसी भी साझे समझौते पर न आ सकी। प्रकासम अन्य सदस्यों की राय से असहमत थे और उन्होंने अपनी असहमति लिखित रूप में दी। भारत सरकार ने इस लिखित असहमति का लाभ उठाते हुए इस मुद्दे को ढंकने का प्रयास किया। आंध्रवासियों के असंतोष को प्रकट करने के लिए स्वामी सीताराम ने आमरण अनशन करना शुरु किया और इससे आंध्र में हालात बिगड़ गए। विनोबा भावे की अपील के बाद 35 दिनों के बाद, 20 सितंबर 1951 को, स्वामी ने अपना अनशन समाप्त किया। इस अनशन से और कुछ तो नहीं मिला, हां, अपने नेताओं और भारत सरकार पर से लोगों का विश्वास उठने लगा।
1952 के पहले आम चुनावों में, आंध्र के लोगों ने अपना असंतोष अपने मतों द्वारा जाहिर किया और कांग्रेस को मद्रास की सीटों पर हराया। मद्रास विधानसभा की 140 सीटों में से कांग्रेस को केवल 43 सीटें मिलीं, जबकि साम्यवादी पार्टी को 60 में से 40 सीट मिली। विधानसभा में कांग्रेस को केवल 152 सीटें मिलीं, जबकि गैर-कांग्रेसी दलों ने कुल 164 सीटों के साथ एक नया दल युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट बनाया और टी. प्रकासम को अपना नेता चुना। मगर राज्यपाल ने सी. राजगोपालाचारी को विधान परिषद का नेता बनाते हुए उन्हें सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया।
मुख्यमंत्री बनने के बाद सी. राजगोपालचारी ने कृष्णा नदी का पानी कृष्णा-पन्नेर प्रोजेक्ट के अंतर्गत अपने क्षेत्र में मोड़ने का प्रयास किया, जिससे तमिल क्षेत्रों का विकास हो सके। आंध्र के निवासी इससे और रोष में आ गए और उन्होंने इस प्रोजेक्ट को आंध्र को नष्ट करने का उपक्रम बताया। भारत सरकार ने तुरंत इस मुद्दे की जांच के लिए ए. एन. खोसला की अध्यक्षता में एक समिति गठित की जिसने इस प्रोजेक्ट का अध्ययन करके इसे तुरंत बंद करने की अनुशंसा की, और इसे नंदीकोड़ा (आज के नागार्जुन सागर बांध का स्थल) में किए जाने के लिए कहा।
खोसला समिति की इस रिपोर्ट ने राजगोपालाचारी की सरकार की आंध्र के प्रति भेदभाव की नीति को उजागर कर दिया। आंध्र के लोगों की स्वयं को मद्रास से अलग करके नए राज्य का गठन करने की इच्छा को इससे बल मिला।
इसी समय पोट्टी श्रीरामुलु जो कि गांधीवादी थे, उन्होंने 19 अक्तूबर, 1952 को मद्रास में आमरण अनशन शुरु किया। भले ही इस अनशन ने आंध्र में एक असंतोष की लहर पैदा कर दी थी मगर भारत सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया।
15 दिसंबर 1952 को श्रीरामुलु की मौत हो गई। श्रीरामुलु की मौत की खबर ने आंध्र में एक भयानक और हिंसक स्थिति का निर्माण कर दिया। भारत सरकार स्तब्ध रह गई। 19 दिसंबर, 1952 को नेहरु ने लोकसभा में आंध्र को ग्यारह निर्विवादित तेलुगू जिलों और बेल्लारी जिले के तीन तालुकों के साथ अलग राज्य का दर्जा दिया, मगर मद्रास शहर इनके साथ नहीं था। 1 अक्तूबर, 1953 को आंध्र प्रदेश का गठन हुआ। इसमें श्रीकाकुलम, विशाखापट्टनम, पूर्वी गोदावरी, पश्चिमी गोदावरी, कृष्णा, गुंटूर, नेल्लूर, चित्तूर, कुड्डपा, अनंतपुर और कुरनूल, और बेल्लारी जिले के रायदुर्ग, अड़ोनी और अलुर तालुक शामिल थे। बेल्लारी तालुक के सवाल पर एल.एस. मिश्रा आयोग ने इसे मैसूर राज्य में रखने की अनुशंसा की थी। वैसा ही किया गया।
6.1 तेलंगाना की शुरुआत
भारत सरकार द्वारा दिसंबर 1953 में सैयद फज़ल अली की अध्यक्षता में गठित किए गए राज्य पुनर्गठन आयोग ने सभी संस्थाओं और लोगों के प्रस्ताव और मत सुनकर उनपर विचार किया और विशालांध्रा के विचार से सहमति रखते हुए भी, तेलंगाना नामक एक अलग राज्य के गठन की अनुशंसा की। इस समिति की रिपोर्ट ने तेलंगाना और विशालांध्रा दोनों के ही समर्थकों में हलचल मचा दी और दोनों खेमों में राजनीति शुरु हो गई। साम्यवदियों ने त्वरित प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि वे हैदराबाद विधान सभा से इस्तीफा देंगे और इस मुद्दे पर पुनः चुनाव लडे़ंगे। हैदराबाद विधानसभा में अधिकांश सदस्यों ने विशालांध्रा का समर्थन किया।
कांग्रेस हाईकमान ने भी विशालांध्रा का समर्थन करते हुए आंध्र और तेलंगाना के नेताओं को अपने विवाद आंतरिक रूप से ही सुलझाने के लिए कहा। ये नेता एक ‘जेंटलमेन अग्रीमेंट‘ पर पहुंचे जिसका एक प्रमुख पहलू था तेलंगाना के विकास के लिए एक क्षेत्रीय समिति का गठन करना। तेलुगू बोलनेवाले नौ जिलों को (अदिलाबाद, निजामाबाद, मेडक, करीमनगर, वारंगल, खम्मम, नालगोंडा, गोदावरी, महबुबनगर और हैदराबाद) आंध्र के ग्यारह जिलों (श्रीकाकुलम, विशाखापटटनम, पूर्व गोदावरी, पश्चिम गोदावरी, कृष्णा, गुंटूर, नैल्लोर, चिटटूर, कुड्डपा, अनंतपुर और कुरनूल के साथ मिलाया गया। इसे ‘आंध्रप्रदेश‘ का नाम दिया और हैदराबाद को इसकी राजधानी बनाया गया।
1 नवंबर 1956 को नेहरु द्वारा इसका शुभारंभ किया गया। नीलम संजीव रेड्डी को इसका मुख्यमंत्री बनाया गया। रेड्डी बाद में भारत के राष्ट्रपति भी बने। हैदराबाद राज्य के पिछले मुख्यमंत्री बरगुला रामकृष्णराव को केरल का राज्यपाल बनाया गया। सी.एम. त्रिवेदी आंध्र के राज्यपाल पद पर बने रहे।
अंत में, आधुनिक तेलंगाना राज्य का निर्माण 02 जून 2014 को हुआ और इसकी राजधानी हैदराबाद को बनाया गया।
- Early life : Ram Manohar Lohia, one of India's greatest freedom fighters, was born on March 23, 1910. Following the footsteps of his father Hira Lal, a patriot and freedom fighter, it did not take long for Lohia to decide the course of his life. He had dedicated his life to the welfare of India and its march towards total independence.
- Congress Socialist Party : He joined the Congress Socialist Party (CSP), the left wing of the Indian National Congress, when it was founded in 1934. Lohia worked as a member of the executive committee and also edited the weekly journal.
- We don’t want to fight your war : His vehement protests against enrollment of Indians in the Royal Army during World War II landed him in jail in 1939 and again in 1940. During Gandhi's call of Quit India Movement, Lohia and his fellow CSP members, including Jayaprakash Narayan, put up resistance in stealth. For this, he was again jailed in 1944.
- In Germany : Lohia studied at Berlin University in Germany. During this time, he organised the Association of European Indians that would raise voice against British oppression in India.He was jailed for writing an article 'Satyagraha Now' in Gandhi's newspaper Harijan.
- Hind Kisan Panchayat : After Independence, Lohia founded an organisation called Hind Kisan Panchayat to help farmers with agricultural solutions. had also protested against the Portuguese government's policy of restricted speech and movement of natives in Goa. Lohia wanted to have Hindi as the official language of India after Independence. He had said, "The use of English is a hindrance to original thinking, progenitor of inferiority feelings and a gap between the educated and uneducated public. Come, let us unite to restore Hindi to its original glory." He led agitations in that cause, but Hindi did not succeed in it. Lohia wrote his PhD thesis paper on the topic of Salt Taxation in India, focusing on Gandhi's socio-economic theory.
- A great test of Free Speech : A great test of Free Speech : At the turn of the 1950s, Lohia was prosecuted for exhorting citizens not to pay their taxes! The applicable law was a colonial statute that prohibited the kind of speech that Lohia engaged in, and its constitutionality was challenged before the Supreme Court. The state argued that even something as harmless as a call not to pay taxes could be a “spark" that would one day set the country ablaze in the flames of revolution. The court rejected this argument. It held that the state must establish a “proximate" or “imminent" connection between speech and violence, and not merely rely upon hypotheticals, or remote possibilities. Lohia’s case is one of the most important free speech judgements in the Supreme Court’s history. It marked a decisive break with a jurisprudence that the court had developed in the 1950s. In various cases, the court had upheld pre-censorship of the press, the colonial Press Act and Section 295A of the Indian Penal Code (blasphemy law). The court drew a distinction between “active membership" and “passive membership". Defining “active membership" as the incitement to imminent violent action, the court held that anything short of that was protected by the constitutional guarantee of freedom of speech, expression and association. (Article 19(2) of the Constitution lists eight grounds on the basis of which the state can restrict the freedom of speech and expression. Four of these have to do not so much with the content of speech, or what words are said, but the consequences that speech might have, especially in promoting violence. These are “sovereignty and integrity of India", “security of the State", “public order" and “incitement to an offence". While Article 19(2) allows the state to restrict speech “in the interests of" these categories, it also insists that the restrictions must be “reasonable".) Dr. Lohia passed away in 1967, at the age of 57 years.
- In his college days, Anna was exposed to the non-Brahmin politics of the Justice Party and drawn towards Justice Party headed by the radical thinker Periyar E.V. Ramasamy.
- One of the stalwarts of the Dravidian movement, Anna attacked Brahminism and ‘Aryan' values as the cause of Tamil political and cultural decadence.
- Anna founded the most famous Dravidian party, Dravida Munnetra Kazhagam (DMK) - meaning Dravidian Progressive Conference, in the year 1949, after a fall out with his mentor Periyar over the idea of India and Dravida Nadu.
- A great orator, script writer, theatre personality and journalist, Anna skilfully channelized the agitation against imposition of Hindi the official language of India. In 1967, DMK's swept assembly polls thus ending Congress dominance in the state and Anna was sworn in as Chief Minister of Madras state. Notably, his cabinet was the youngest in India then.
- Annadurai is credited with renaming Madras state as Tamil Nadu in 1969. It was during his tenure as chief minister , the state assembly passed a bill renaming the state.
- He felt that “Since most schools in India taught English, why could it be our link language? Why do Tamils have to study English for communication with the world and Hindi for communications within India? Do we need a big door for the big dog and a small door for the small dog? I say, let the small dog use the big door too! All that is needed is the big door. Both the big and the small dog could use it!”
- Anna was not against the political unity of India but was a strong advocator for maximum autonomy to the States. The abdication of the secessionist demand in wake of the Chinese aggression in 1962 was another example of his political acumen.
- He served as 1st Chief Minister of Tamil Nadu for 20 days in 1969 and fifth, and last Chief Minister of Madras from 1967 until 1969 when the name of the state of Madras was changed to Tamil Nadu. He passed away in Feb. 1969.
- Muthuvel Karunanidhi served as the Chief Minister of Tamil Nadu for five separate terms. He was declared leader of the DMK party in 1969 after the death of its founder- C N Annadurai.
- Born in 1924 in a small village, and changed his name from Dakshinamoorthy to M Karunanidhi, due to the influence of rationalist movements (not using God’s names). He was a long-standing leader of the Dravidian movement and ten-time president of the Dravida Munnetra Kazhagam (Dravidian Progressive Federation) party. Before entering politics he worked in the Tamil film industry as a screenwriter.
- The DMK leader started Murasoli newspaper, which is now a weekly journal and the official organ of the DMK. Karunanidhi published six volumes of his autobiography- Nenjukku Neethi since 1975.
- He personally never lost any election he contested, ever since he won for the first time in assembly elections in 1951. He won all the 13 elections he contested in, the last being the 2016 general elections from Tiruvarur.
- In 1957, Karunanidhi was elected to the Tamil Nadu assembly from Kulithalai assembly and soon became the party treasurer and in 1962 became the deputy leader of opposition. When Annadurai passed away in 1969, Karunanidhi outsmarted all the others to emerge as the chief minister.
- Karunanidhi survived two major splits and held the party together at trying times when the DMK was out of power for 12-long years between 1977 and 1989.
- Karunanidhi contributed a lot to Tamil literature- with scores of poems, novels, plays, articles and communication tools propagating ideologies made him a natural choice and recipient of honorific title of Kalaignar or loosely translated – Scholar of Arts.
- Karunanidhi wrote numerous screenplays including Rajakumaari, Devaki, Thirumbi Paar, Naam, Manohara, Malaikkallan,Rangoon Radha, Kuravanji, Kaanchi Thalaivan, Thayillapillai and Poompuhar, Poomalai.
- He was an active participant in national politics, being friendly with all major leaders and parties. Karunanidhi died on 7 August 2018 at Chennai after a prolonged illness. He was indirectly implicated in the 2G scam, but nothing was proven against him.
- Better known as the historian of the Indian National Congress, Dr. Bhogaraju Pattabhi Sitaramayya was born on 24 December 1880 in a poor Andhra Niyogi Brahmin family and took his M.B. & C.M. degree in 1901 from the Madras Medical College. Soon after his education Sitaraimayya moved to Masulipatnam and set up practice as a physician.
- When the partition of Bengal happened in 1905, it sent a wave of protest throughout the country. The leaders of Masulipatnam including Sitaraimayya strove hard to awaken the national feelings of the people through the press and by organising lectures and Harikathas. The youthful Sitaraimayya was at first inclined towards extremism and became an admirer of the 'Lal-Bal-Pal' school (i.e. of Lala Lajpat Rai, Bal Gangadhar Tilak and Bipin Chandra Pal).
- He soon became a member of the Home Rule League of Dr Annie Besant and ultimately became a Gandhian. Sitaraimayya made Masulipatnam the centre of his activities. Here in 1919, he started, an English nationalist weekly, the Janmabhumi. The Janmabhumi continued functioning till 1930. At Masulipatnam he started the Andhra Bank.
- His association with the Indian National Congress goes back to his college days. In 1916 he became a member of the All India Congress committee and gave up his medical practice. Soon he was elected a member of the Congress Working Committee and continued in that position until 1948.
- On the issue of Dominion Status vs Complete Independence Sitaraimayya, like Jawaharlal Nehru, favoured the latter. He was elected President of the Andhra Purna Swarajya Sangam.
- In the Calcutta session of the Congress in 1928, he voted against the 'All Party Resumption' demanding Dominion Status. On the eve of the Salt Satyagraha campaign in March 1930, Dr Pattabhi toured the villages of the East Krishna district and spoke to the villagers about the campaign.
- He himself broke the Salt Law in April 1930 by leading a batch of volunteers to the sea-shore near Masulipatnam and making salt. He was arrested and sentenced to imprisonment for a year and a fine of Rs 1,100. In October 1933, he was again arrested while picketing a shop selling foreign cloth and sentenced to six months imprisonment and a fine of Rs 500.
- Towards the close of 1938 Gandhi ji nominated him for the Presidency of the Congress when there was a growing extremist wing in the Party, but he was defeated in the election (by Subhash Chandra Bose).
- When Gandhi ji launched his campaign of Individual Satyagraha in 1940 - 41, Sitaraimayya was chosen to participate in it. He was also arrested during the Quit India Movement. He was released in June 1945. In December 1946 he was elected to the Constituent Assembly from Madras to work on a new Constitution under the Cabinet Mission's Plan.
- In 1948, he was elected President of the Jaipur session of the Indian National Congress. He was the Governor of Madhya Pradesh from 1952 to 1957. He passed away on 17 December 1959. He was also a member of the JVP Committee - Jawahar / Vallabhbhai / Pattabhi - to look into the issue of linguistic reorganisation of states in independent India.
- Though Sitaraimayya was a popular Congress leader and held in high esteem by Gandhi ji, he did not hanker after office and did not take part in elections to the Provincial Assemblies or the Central Legislature. He took pleasure in working for the organisation and in writing and publishing books. His earliest publication was 'National Education' (1912), of which K. Hanumantha Rao was co - author.
- In the subsequent years he wrote and published 'Indian Nationalism' (1913), 'The Redistribution of Indian Provinces on a Linguistic Basis' (1916), 'Non-Cooperation' (1921), 'History of the Indian National Congress' (Vol. 1 appearing as the Golden Jubilee Volume in 1935 and Vol. 2 in 1947), and many more works.
- He passed away in 1959 at Hyderabad.
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