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भारत में रियासतों का एकीकरण
1.0 प्रस्तावना
स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर, भारत देश ब्रिटिश शासित भारत और रियासतें - इन दो हिस्सों में बंटा हुआ था। इस स्थिति के निर्माण में दो बातों ने प्रमुख भूमिका निभाई। पुराने समय से भारत कई रियासतों में बंटा हुआ था जिन पर कई राजवंशों ने शासन किया। इनमें से कुछ ही शासकों ने भारत की कई रियासतों को एक रखने में सफलता पाई। मौर्य राजवंश के अंत के समय भारत कुल 16 जनपदों में बंटा हुआ था। प्राचीन भारत के मौर्य काल से मध्ययुगीन मुगल काल, तथा आज तक सभी राजवंशों के अधीन प्रांत सतत् एकीकरण और विभाजन की प्रक्रिया से गुजरते रहे।
2.0 ब्रिटिश शासन के तहत भारत
18 वीं सदी के अंत और 19 वीं सदी के प्रारंभ में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने पडोसी राज्यों और रियासतों को किसी न किसी बहाने जीतकर उन पर अधिकार करना प्रारंभ कर दिया था। वैलिसले की सहायक गठबंधन प्रणाली (सहायक संधि प्रणाली) के कारण बहुत से राज्यों ने कंपनी की तुलना में अपना प्रभुत्व खो दिया था, और डलहौजी के क्षय सिद्धांत के चलते कुछ राज्यों पर कंपनी का सीधा अधिकार हो गया था। अन्य राज्यों में ब्रिटिशों ने अपने निवासी (रेज़ीडेंसी) स्थापित कर उन पर अधिकार करना प्रारंभ किया। मगर जब 1857 की क्रांति से यह सामने आया कि ब्रिटिशों की इस दोहरी नीति से भारत के राजा अप्रसन्न हैं, तो ब्रिटिश शासन ने इंग्लैंड की रानी के हवाले से यह घोषणा करवाई कि आगे से ब्रिटिश शासन किसी भी राज्य के आंतरिक मामलों में तब तक दखल नहीं देगा जब तक राज्य में भीषण अव्यवस्था की स्थिति निर्मित न हो या वह ब्रिटिश ताज के प्रति गैर वफादार न हो। अतः राजाओं को चिंता छोड़ देनी चाहिए। 1876 में लार्ड लिटन के वॉयसराय शासन में, इंग्लैंड की रानी ने स्वयं को भारत की समस्त रियासतों की रानी घोषित कर दिया और इस घोषणा के साथ ही भारत में ब्रिटिश शासन की संप्रुभता विधिवत घोषणा हो गई। इस तरह 19 वीं सदी के अंत तक भारतीय महाद्वीप दो भागों में विभक्त था - एक था ब्रिटिश भारत जिस पर वाईसरॉय का सीधा शासन था, एवं दूसरा था अनेक राजसी रियासतों का हिस्सा, जिस पर अंग्रेजों का अप्रत्यक्ष कब्जा था।
2.1 राज्य के लोगों के आरंभिक आंदोलन
भारत को विभाजित अवस्था से संघात्मक रूप में लाने के लिए भारतीय रियासतों के लोगों के आंदोलनों ने भी प्रमुख भूमिका निभाई। इन आंदोलनों का शुभारंभ किसानों के उन विरोधों से माना जाता है जो मेवाड़, कश्मीर, त्रावनकोर, मैसूर, हैदराबाद, आदि के किसानों ने 20 वीं सदी के प्रारंभ में राज्यों द्वारा लगाए गए अंधाधुंध कर के खिलाफ किए थे। मगर इन सभी किसानों का राज्य के शासकों ने ब्रिटिश शासन की मदद से हिंसात्मक दमन किया। हालांकि शहरी इलाकों में शहरी राष्ट्रीयता, प्रजा परिषद जैसी संस्था के रूप में 1920 के दशक में प्रस्फुटित हो रही थी, जब सब्जेक्टस् कांफ्रेन्स के अंतर्गत लोगों का वार्षिक सम्मेलन आयोजित होने लगा।
2.2 अखिल भारतीय राज्य जन सम्मेलन
बढ़ती राष्ट्रवादिता को रियासतों में फैलने से रोकने के लिए ब्रिटिश शासन ने 1921 में चेंबर आफ प्रिंसेस की स्थापना की। यह उनकी सामान्य नीति ‘फूट डालो और राज करो‘ की तर्ज पर ही आधारित था। 1927 में सायमन कमीशन (जो केवल ब्रिटिश शासन के हित के लिए था) की नियुक्ति के साथ ही हारकोर्ट बटलर आयोग की भी नियुक्ति की गई जिसका काम भारतीय रियासतों और ब्रिटिश शासन के बीच के रिश्तों को मजबूत बनाने के लिए तरीके सुझाना था। ब्रिटिश सरकार के इस कदम के जवाब में विभिन्न रियासतों में स्थित राष्ट्रवादियों, जैसे काठियावाड से बलवंत मेहता और माणिक कोठारी और दक्कन से जी.आर. अभयंकर आदि ने दिसंबर 1927 में अखिल भारतीय राज्य जन सम्मेलन का आयोजन किया (एआईएसपीसी), जिसमें विभिन्न राज्यों के 700 लोगों ने भाग लिया। इस सम्मेलन का उददेश्य रियासतों को अपने प्रबंधन में कुछ जरुरी सुधार करने के लिए दबाव बनाना और इन सबमें स्व शासन को निर्मित करना था। आगे जाकर एआईएसपीसी ने भारतीय राज्यों और ब्रिटिश शासन के बीच संवैधानिक रिश्तों को व्यवस्थित करने और इनमें राज्य के लोगों के प्रतिनिधित्व के लिए मोर्चा खोला। इनके विचार से ऐसा करने से ही भारत को जल्दी स्वतंत्रता मिल सकती थी।
भारतीय रियासतों को भारत का अभिन्न अंग मानते हुए ही उनके साथ व्यवहार किया जाए, अपनी इस मांग के साथ ऑल इंडिया स्टेट्स् पीपल्स् काँंस (एआईएसपीसी) ने ब्रिटिश सरकार से निवेदन किया कि पहले गोलमेज सम्मेलन में उनके दल के प्रतिनिधि को भी शामिल होने का अवसर दिया जाए, जिसे शासन ने खारिज कर दिया। फिर, ए.आई.एस.पी.सी. ने कांग्रेस पार्टी को एक ज्ञापन सौंपा जिसमें एक अखिल भारतीय संघीय संविधान की गई। वकालत की जिसमें वे सभी मौलिक अधिकार और विशेषाधिकार जिनकी चर्चा कांग्रेस के कराची अधिवेशन (1929) में की गई थी, उसमें ब्रिटिश भारत के साथ राज्य के लोगों को भी शामिल करने की वकालत की गई।
2.3 कांग्रेस और एआईएसपीसी
1930 के अंत तक, कांग्रेस ने भारतीय राज्यों के मामलों में दखल न देने का रुख अपना रखा था। उसका मानना था कि राज्य की सारी राजनीतिक गतिविधियां स्थानीय प्रजा मंडल द्वारा नियंत्रित होनी चाहिए। उसका मानना था कि राज्य के मामले में किसी भी बाहरी व्यक्तियों द्वारा चलाया गया आंदोलन सफल नहीं हो सकता। कांग्रेस के 1938 में हरिपुरा में हुए सम्मेलन में पहली बार उसने रियासतों की स्वतंत्रता की बात रखी, और उसे पूर्ण स्वराज्य का ही हिस्सा घोषित किया। उसी समय यह भी कहा गया कि कुछ समय के लिए कांग्रेस राज्य आमजन आंदोलन को केवल नैतिक समर्थन देगी और इस आंदोलन को कांग्रेस के नाम से प्रचारित न किया जाए। फिर त्रिपुरी सम्मेलन 1939 में यह निर्णय लिया गया कि कांग्रेस को रियासतों के मामलों में हस्तक्षेप करना होगा तथा आंदोलन से निकटतम रूप में जुडना होगा। 1939 में जवाहरलाल नेहरु एआइएससीपी के अध्यक्ष बने, जो ब्रिटिश भारत और रियासतों के साझे राजनैतिक संघर्ष का प्रतीक था। इस तरह इस आंदोलन ने राज्य के लोगों को जागरुक करने के साथ ही देश में भी एकता की लहर फैलाई।
3.0 1940 में रियासतें
1940 का समय भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के लिए निर्णायक समय था। आईएनए मुकदमे और आरआईएन विद्रोह के कारण यह आंदोलन अब उन क्षेत्रों में भी फैल गया था जो अबतक राजनैतिक बातों से अछूते थे। ब्रिटिश सर्वोपरिता के घटने के अपरिहार्य भविष्य से रियासतों के अस्तित्व का प्रश्न भी महत्वपूर्ण हो गया था। कुछ महत्वाकांक्षी राजा या उनके दीवान ऐसी स्वतंत्रता की उम्मीद में थे जिससे उनकी निरंकुशता बरकरार रह सकेगी और ऐसी उम्मीदों को ब्रिटिश शासन ने भी तब तक हौसला दिया जब तक माउंटबेटन ने एक यथार्थवादी नीति प्रस्तुत नहीं की। इसी बीच 1946-47 में राज्य जन आंदोलनों का नया दौर शुरु हो गया था जिसमें उन्होंने संविधान सभा में राजनीतिक अधिकारों और प्रतिनिधित्व की मांग रखी। कांग्रेस ने साइमन कमीशन की इस बात के लिए आलोचना भी की कि उसने राजाओं के प्रतिनिधियों की बजाय राज्य के अन्य व्यक्तियों के प्रतिनिधियों को लिए जाने की बात पर गौर ही नहीं किया। नेहरु ने ग्वालियर और उदयपुर के ए.आई.एस.पी.सी. (1945 और 1947) के अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए इस बात पर नाराजगी करते हुए कहा कि जो राज्य संविधान सभा में शामिल होने से इनकार करेंगे उन्हें शत्रु का दर्जा दिया जाएगा। मगर मौखिक भाषणों और धमकियों से हटकर, कांग्रेस विशेषकर सरदार पटेल ने, इस स्थिति को बडी चतुराई से संभाला। उन्होंने आंदोलन के माध्यम से रियासतों से रियायतें हासिल कर लीं और फिर धीरे-धीरे उन्हें किसी भी तरह से दबाव में लाकर अपने शासन तले लाने का दबाव बनाया।
ब्रिटिश शासन ने जैसे ही भारत को शक्ति हस्तांतरण का निर्णय लिया तो उन्होंने हर समस्या का एक समाधान खोजा और वह यह कि उनके द्वारा भारतीय राज्यों पर बनायी गयी सर्वोपरिता की स्थिति को अब समाप्त हुआ घोषित कर दिया जाए। इस प्रकार से वह इमारत जो ब्रिटिशों ने 150 से भी अधिक वर्षों की मेहनत से बनाई थी, वह एक ही रात में ढह गई। पर कुछ ऐसे ब्रिटिश भी थे जो रियासतों की इस समस्या के जानकार थे और उन्होंने उस समय यह कहा कि इस समस्या की गंभीरता को ब्रिटिश सरकार द्वारा समझा ही नहीं गया है और यह भी कहा कि यह समस्या देश की अन्य सभी समस्याओं से बड़ी है। यहां तक कि भारत में भी किसी ने इस विखंडीकरण के भयावह परिणामों के बारे में कल्पना नहीं की थी। दूसरी ओर सभी शक्तियों को भारत को ब्रिटिश शासन द्वारा अनुमानित सभी बाध्यताओं के साथ हस्तांतरित किया गया था। अतः हमारे लिए यह संभव था कि हम रियासतों की समस्या का निदान अपने तरीके से करें। शक्ति हस्तांतरण के बाद हमारे लिए सभी समस्याओं का हल बिना किसी पूर्वाग्रह में आए करना संभव था।
4.0 एकीकरण
स्वतंत्रता के बाद भारत की विभिन्न रियासतों को एक प्रशासन के तले लाना राजनैतिक नेतृत्व के लिए सबसे बडी चुनौती थी।
औपनिवेशिक भारत में देश का 40 प्रतिशत हिस्सा 560 छोटी-छोटी रियासतों में बंटा हुआ था जिनपर राजाओं - राजकुमारों का शासन था, जिन्हें ब्रिटिश शासन के तले विभिन्न दर्जों की स्वतंत्रता प्राप्त थी। वे जब तक ब्रिटिश शासन के अधीन रहे, शासन उन्हें आंतरिक और बाहरी दोनों तरह के मामलों में सुरक्षा देता रहा।
1947 में ब्रिटिश शासन के अंत के बाद रियासतों का भविष्य चिंता का मुद्दा बन गया। कई बड़ी-बड़ी रियासतें पूर्ण स्वतंत्रता का सपना देखने लगीं और इस दिशा में चालें बनाने लगीं। उन्होंने शक्ति को नए बने राज्यों - भारत और पाकिस्तान को हस्तांतरित करने का विरोध किया और उनके इस विरोध को ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली के 20 फरवरी 1947 को दिए गए इस बयान ने आग में घी के समान भड़काने का काम किया कि ब्रिटिश शासन, ब्रिटिश भारत की किसी भी सरकार को शक्ति हस्तांतरित करने के पक्ष में नहीं है। इसके साथ ही कुछ रियासतों के राजाओं ने भारत में ब्रिटिश शासन का अंत होने पर 15 अगस्त 1947 से स्वयं को स्वतंत्र घोषित करने का दावा पेश किया।
इन राज्यों को 18 जून 1947 के जिन्ना के इस बयान से भी शह मिली जिसमें उन्होंने कहा कि ‘सत्ता के हस्तांतरण के बाद भी राज्यों की स्वतंत्रता बनी रहेगी और वे अपनी इच्छानुसार स्वतंत्र रह सकते हैं’। भारतीय स्वतंत्रता विधेयक पर भाषण देते समय ब्रिटिश रुख थोडा बदला और क्लीमेंट एटली द्वारा यह कहा गया कि ‘शासन आशा करता है कि भारत के राज्य जल्दी ही भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ जुडने का प्रयास करेंगे’।
भारतीय राष्ट्रवादीयों इस बात को किसी भी तरह से स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि स्वतंत्र भारत की अखंडता को सैकडों छोटे-बडे राज्य संप्रभु बनकर बाधित करें। इसके अलावा रियासतों के कई लोग भी उन्नीसवीं सदी से स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेते रहे थे और उनके मन में भी राष्ट्रवादिता की प्रबल भावना जन्म ले चुकी थी। अतः ब्रिटिश भारत के राष्ट्रवादी नेताओं ने यह घोषणा की कि कोई भी रियासत स्वतंत्र रूप से शासन नहीं कर सकती। उन्हें भारत या पाकिस्तान में से किसी एक में शामिल होने का निर्णय लेना ही होगा और यह निर्णय उनकी सीमाओं की निकटता और उनके निवासियों की इच्छा के अनुरूप ही लिया जाएगा।
वास्तव में राष्ट्रीय आंदोलनों ने भी यह सिद्ध किया था कि सत्ता मुख्यतः राज्यों के हाथ में न होकर राज्य के निवासियों के हाथ में है जो अखंड भारत का एक हिस्सा थे। इसी तरह सभी रियासतों के लोग पहली बार इतनी बडी संख्या में किसी दल (एआईएसपीसी) के नाम तले संगठित हुए थे और देश के अन्य भागों के साथ समन्वयन और प्रजातांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था की मांग की थी। भरपूर कूटनीति का उपयोग करते हुए, तथा परिस्थितिनुसार अनुनय तथा दबाव दोनों का ही प्रयोग करते हुए, सरदार पटेल ने सैकड़ों रियासतों को भारत में शामिल होने के लिए राजी कर लिया। कुछ रियासतें बुद्धिमानी, व्यावहारिकता और देशभक्ति का प्रदर्शन करते हुए अप्रैल 1947 में संविधान सभा से भी जुड़ गईं, मगर अधिकतर रियासतें इससे दूर ही रहीं और कुछ रियासतों जैसे त्रावनकोर, भोपाल, हैदराबाद आदि ने सार्वजनिक रूप से स्वतंत्र राज्य बने रहने की अपनी मंशा को जाहिर किया।
4.1 राज्य विभाग
27 जून 1947 को सरदार पटेल ने राज्य विभाग का दायित्व संभाला और वी.पी. मेनन उनके सचिव बने। सरदार पटेल रियासतों की कट्टरता व विद्रोह से भारत की अखंडता को होने वाले खतरे के प्रति पूरी तरह से सजग थे। उस समय उन्होंने मेनन को बडे ही स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘यह स्थिति बडी ही खतरनाक हो सकती है और यदि हमने अभी इसे चतुराई से अपने हाथ में नहीं लिया तो इतनी कठिनाई से मिली हुई स्वतंत्रता रियासतों के दरवाजों से गुम हो जाएगी’। इसलिए वे तुरंत अड़ियल रियासतों से बातचीत करने को अग्रसर हुए।
सरदार पटेल ने भारतीय सीमा के भीतर आने वाली सभी रियासतों से सबसे पहले अपील की कि वे स्वेच्छा से भारतीय गणराज्य में शामिल हो जाएं और विदेशी संबंध, रक्षा और संचार के क्षेत्रों में सहयोग करें। उन्होंने छुपी हुई धमकी भरे स्वर में यह भी कहा कि 15 अगस्त के बाद वह रियासतों की आम जनता के विरोध को रोक न सकेंगे और इस अवधि के बाद सरकार के नियम और भी कड़े हो जाएंगे।
जन आंदोलन के आक्रामक रूप से भयभीत हो और सरदार पटेल की कडक तथा बेरहम छवि से आक्रोशित होकर तीन रियासतों (कश्मीर, जूनागढ और हैदराबाद) को छोड़कर सभी रियासतों ने भारत में विलयन को स्वीकार कर लिया। 1948 के अंत में बची हुई तीन रियासतें भी भारत में विलय करवा ली गईं।
4.2 जूनागढ़
जूनागढ़ सौराष्ट्र के तट पर एक छोटी रियासत थी जो भारतीय सीमा में थी और पाकिस्तान से इसकी सीमा का दूर-दूर तक संबंध नहीं था। फिर भी इसके नवाब ने 15 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में विलयन की घोषणा की जबकि रियासत की जनता हिंदू थी और भारत में शामिल होना चाहती थी।
भारतीय राष्ट्रवादियों ने नवाब की मांग की खिलाफत करते हुए जनता की मांग को समर्थन देने का निश्चय किया, और नेहरु और पटेल ने जूनागढ के मामले में जनमत संग्रह का निर्णय लिया। इसके विपरीत पाकिस्तान ने जूनागढ़ के पाकिस्तान में विलयन को स्वीकार कर लिया। दूसरी ओर रियासत के लोगों ने नवाब के निर्णय को मानने से इनकार किया, और एक आंदोलन खड़ा किया जिसके द्वारा नवाब को भागने पर मजबूर कर दिया गया, एवं एक समानांतर सरकार बना दी गई। जूनागढ़ के दीवान शाह नवाज़ भुट्टो, जो बाद में मशहूर जुल्फ़िकार अली भुट्टो के पिता थे, उन्होंने अब भारत सरकार को इस मामले में दखल देने को कहा। भारतीय सेना रियासत में आई। फरवरी 48 में रियासत में जनमत संग्रह हुआ जिसका परिणाम भारत के पक्ष में रहा और जूनागढ़ भारत में विलय हुआ।
4.3 कश्मीर
कश्मीर राज्य भारत और पाकिस्तान की सीमा पर स्थित था। इसके शासक महाराजा हरिसिंह हिंदू थे जबकि इसके 75 प्रतिशत नागरिक मुस्लिम थे। हरिसिंह स्वयं भी स्वतंत्र रहना चाहते थे। भारत के प्रजातंत्र और पाकिस्तान की सांप्रदायिकता से भयभीत होने से वे भारत या पाकिस्तान किसी के भी साथ मिलना नहीं चाहते थे। वे दोनों देशों की राजनीति से अलग रहकर स्वतंत्र रूप से अपना शासन चलाना चाहते थे। मगर नेशनल कांग्रेस के नेतृत्व में कार्यरत राजनैतिक शक्तियां और नेशनल कांग्रेस के नेता शेख अब्दुल्ला भारत में विलयन चाहते थे। भारतीय राजनेताओं ने कश्मीर के विलयन का कोई प्रयास न करते हुए यह निर्णय इसके निवासियों पर छोड दिया। (यही प्रस्ताव नेहरु और पटेल ने जूनागढ और हैदराबाद रियासतों के सामने भी रखा था)। इसमें उन्हें गांधीजी का समर्थन मिला जिन्होंने अगस्त 47 में कहा था कि कश्मीर अपनी इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान में विलय हो सकता है।
मगर पाकिस्तान ने न केवल जूनागढ़ व हैदराबाद के मामलों में जनमत संग्रह के नियम को ठुकरा दिया था, वरन एक त्वरित क्रिया द्वारा उसने भारत को कश्मीर के बारे में अपना रुख बदलने के लिए भी मजबूर करना चाहा। 22 अक्तूबर को सर्दियां शुरु होते ही कई पठान आदिवासी जिनका नेतृत्व अनाधिकारिक रूप से पाकिस्तान के सैन्य अधिकारी कर रहे थे, उन्होंने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया और श्रीनगर की ओर बढ चले। महाराज हरिसिंह की अकुशल सेना उनके सामने असमर्थ सिद्ध हुई और महाराज ने भयभीत होकर 24 अक्तूबर को भारत सरकार से हस्तक्षेप करने का आग्रह किया। इस कठिन समय में भी नेहरु जनमत संग्रह किए बिना कश्मीर का भारत में विलय करने को तैयार नहीं थे। माउंटबेटन ने चेतावनी दी कि अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार कश्मीर के भारत में विलय के बाद ही भारत आधिकारिक रूप से कश्मीर में सेना भेज सकता है। सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने भी विलय पर जोर दिया।
आखिरकार महाराज हरिसिंह ने 26 अक्तूबर को कश्मीर के भारत में विलय के प्रस्ताव को माना और शेख अब्दुल्ला को राज्य के प्रबंधन का नेतृत्व देने की भी बात की। नेशनल कांग्रेस और महाराजा के भारत में पूर्ण विलयन चाहने के बाद भी भारत अपनी प्रजातांत्रिक प्रतिबद्धता पर अडा रहा और माउंटबेटन की सीख का पालन करते हुए यह घोषणा की कि घाटी में शांति स्थापित होने के बाद जनमत संग्रह के आधार पर ही विलयन का निर्णय किया जाएगा।
विलयन (परिग्रहण) की प्रक्रिया के बाद केबिनेट ने श्रीनगर में सेना तुरंत भेजने का निर्णय लिया। इस निर्णय को गांधीजी की सहमति से बल मिला जब उन्होंने कहा कि कश्मीर से बुरी ताकतों को तुरंत निकाल बाहर किया जाए। 27 अक्तूबर को हथियारों और सैनिकों से भरे लगभग 100 विमान दुश्मनों को हराने के लिए श्रीनगर की ओर उड़ चले। पहले श्रीनगर पर कब्जा किया गया और फिर घुसपैठियों को घाटी के बाहर खदेडा गया। हालांकि उन्होंने घाटी के बाहरी हिस्सों पर कब्जा कर लिया और सशस्त्र संघर्ष कई माह तक चलता रहा।
भारत पाकिस्तान के बीच युद्ध की संभावनाओं से भयभीत होकर भारत सरकार ने 30 दिसंबर 1947 को माउंटबेटन की सलाह मानकर कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा समिति के सामने प्रस्तुत किया जिसमें पाकिस्तान को आक्रामकता छोड़ने हेतु कहने को कहा गया।
बाद में नेहरु को अपने इस निर्णय पर पछताना पडा क्योंकि पाकिस्तानी आक्रमण को गंभीरता से लेने की बजाय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा समिति जो ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा निर्देशित थी, उसने पाकिस्तान की तरफ़दारी करते हुए व भारत की शिकायत को नजरंदाज करते हुए कश्मीर समस्या को एक तरफ़ रखते हुए इसे ‘भारत-पाकिस्तान विवाद’ के रूप में प्रस्तुत किया। इसके बारे में कई प्रस्ताव दिए गए जिनमें से एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव के फलस्वरूप 31 दिसंबर 1948 को दोनों देशों के बीच शांति कायम करने और एक शांति रेखा द्वारा राज्य को दोनों देशों के बीच बांटने की बात की गई। नेहरु जो संयुक्त राष्ट्र संघ से न्याय की उम्मीद कर रहे थे, उन्होंने अपनी निराशा को विजयलक्ष्मी पंडित को फरवरी 48 में लिखे एक पत्र में इस तरह स्पष्ट किया, ’’मैंने सुरक्षा समिति से ऐसे भेदभाव भरे और तुच्छ व्यवहार की अपेक्षा नहीं की थी जैसा व्यवहार इसने किया है। इन लोगों पर दुनिया को सही स्थिति में (नियमानुकूल) रखने की जिम्मेदारी है। दुनिया टुकड़ों में बंटती हुई देखकर हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र और ब्रिटेन ने निकृष्ट भूमिका निभाई है और इस सारे तमाशे के पीछे ब्रिटेन प्रमुख भूमिका में है।’’
1951 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने मत संग्रह के आधार पर उसीके पर्यवेक्षण में एक जनमत संग्रह होगा किंतु पहले एक प्रस्ताव पारित किया जिसके आधार पर पाकिस्तानी सेना को कश्मीर के इलाके से हटने को कहा गया मगर पाकिस्तान ने अपने कब्जे में आए कश्मीर के हिस्से को आजाद कश्मीर का नाम देते हुए इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया। कश्मीर का मुद्दा तब से भारत-पाकिस्तान के मैत्रीपूर्ण संबंधों के आड़े आता रहा है। भारत ने अंततः कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा घोषित कर दिया। पाकिस्तान भारत के इस दावे को खारिज करता रहा। समय बीतते-बीतते कश्मीर भारत की धर्मनिरपेक्षता की परीक्षा और प्रतीक का मसला व चिन्ह बन गया। नेहरु के शब्दों में यह सांप्रदायिकता पर धर्मनिरपेक्षता की विजय थी।
4.4 हैदराबाद
हैदराबाद भारत का सबसे बड़ा राज्य था जो कि पूरी तरह से भारतीय सीमा से घिरा हुआ था। हैदराबाद का निज़ाम उन तीन शासकों में से था जिन्होंने 15 अगस्त से पहले अपने राज्य को भारत में विलय नहीं किया था। उसने स्वतंत्र राज्य की मांग रखते हुए पाकिस्तान की शह पर अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाना शुरु कर दिया। सरदार पटेल हैदराबाद के मामले में जल्दी में नहीं थे और माउंटबेटन भी इस मामले में बातचीत द्वारा कोई बीच का रास्ता निकालना चाहते थे। समय भारत के पक्ष में था क्योंकि हैदराबाद ने पाकिस्तान में शामिल होने से गुप्त रूप से मना किया था और ब्रिटिश शासन ने उसे स्वतंत्र राज्य का दर्जा देना स्वीकार नहीं किया था। सरदार पटेल ने यह स्पष्ट शब्दों में कहा कि वह ऐसे किसी भी स्वतंत्र पृथक राज्य को बर्दाश्त नहीं करेंगे जिसके होने से रक्त और परिश्रम से कमाई गई भारत की एकता और अखंडता को कोई हानि पहुंचें।
नवंबर 1947 में भारत शासन ने निज़ाम के साथ एक ठहराव समझौता (स्टैंड-स्टिल एग्रीमेंट) किया जिसके अनुसार आपसी वार्ता चलने तक राज्य में एक चुनी हुई सरकार का गठन किया जाए जो कि विलयन के मुद्दे को आसान बनाए। मगर निज़ाम कुछ और ही सोच रहा था। उसने सरकार से बातचीत करके निर्णय अपने पक्ष में करने हेतु माउंटबेटन के वकील मित्र सर वॉल्टर माँक्टन की सेवाएं लीं। निजाम बातचीत को अनावश्यक रूप से लंबा खींचकर उतनी अवधि में सैन्य बल बढ़ाना चाहता था ताकि उसके आधार पर भारत से अपने स्वतंत्र रहने की बात मनवाई जा सके। ऐसा न होने पर वह पाकिस्तान में विलयन की बात करके भारत और पाकिस्तान के बीच चलते तनाव का लाभ उठाना चाहता था।
इसी बीच राज्य में तीन अन्य राजनीतिक परिवर्तन हुए। आधिकारिक मदद से वहां मुस्लिम विद्रोहियों का दल इतिहाद उल मुस्लिमिन अपने पैरामिलिट्री सैन्य दल रज़ाकारों के साथ उदित हुआ। उसके बाद 7 अगस्त 1947 को हैदराबाद राज्य कांग्रेस ने राज्य में प्रजातंत्र लागू करने के लिए निज़ाम के खिलाफ एक भारी भरकम सत्याग्रह शुरु किया। लगभग बीस हज़ार सत्याग्रहियों को जेल में ड़ाला गया। रज़ाकारोंके आक्रमण और राज्य द्वारा उनके दमन से हज़ारों व्यक्ति राज्य छोड़कर भाग गए और भारतीय सीमा में अस्थाई शिविरों में शरण ली। राज्य कांग्रेस के नेतृत्व में छिडा आंदोलन भी सशस्त्र आंदोलन में बदल गया। इसी समय 1946 के उत्तरार्ध से तेलंगाना में साम्यावादी नेतृत्व किसानों का शक्तिशाली विद्रोह शुरु हो चुका था। इस विद्रोह ने भयंकर रूप ले लिया जब किसानों ने लोगों को दलों (दलम्) में संगठित किया और रजाकारों के हमले का जवाब दिया, अमीरों का धन लूट लिया और उसे किसानों और भूमिहीनों के बीच बांट दिया।
जून 1948 तक निजाम के साथ वार्तालाप खिंचता जाने पर सरदार पटेल अधीर हो गए। बीमारी की अवस्था में उन्होंने देहरादून से नेहरु को लिखा, ‘अब समय आ गया है कि हमें उन्हें बता देना चाहिए कि किसी भी तरह का अकुशल परिग्रहण या किसी अयोग्य सरकार का शासन करने को प्रवृत्त होना हमें किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं है’। फिर भी रज़ाकारों और निज़ाम के उकसाने के बाद भी कई महीनों तक भारत सरकार हाथ बांधे बैठी रही। निज़ाम अपने पांव पसारता रहा और अधिक से अधिक सैन्य बल एकत्र करता रहा। इसी तरह से रज़ाकारों ने भी अपनी लूटपाट जारी रखी। अंततः, 13 सितंबर 1948 को भारतीय सेना ने हैदराबाद की ओर प्रस्थान किया। तीन दिन बाद निज़ाम ने समर्पण किया और भारतीय गणराज्य में विलय किया। भारत सरकार ने उदार होकर निज़ाम को सज़ा नहीं दी। उसे राज्य का औपचारिक राजप्रमुख बनाया गया और उसे व्यक्तिगत कोष के रूप में पचास लाख रुपए दिए। उसे अपना ज्यादातर खज़ाना भी अपने पास रखने की इजाजत दी गई।
हैदराबाद के विलयन के साथ ही भारतीय गणराज्य में रियासतों के विलयन का अध्याय समाप्त हुआ। भारत सरकार का समस्त भूभाग पर एकछत्र शासन कायम हुआ। हैदराबाद प्रकरण ने भारतीय धर्म निरपेक्षता की विजय का उदाहरण प्रस्तुत किया। हैदराबाद में रह रहे मुस्लिमों ने बड़ी संख्या में न केवल निज़ाम के विरुद्ध संघर्ष में भाग लिया वरन देश के अन्य भागों में स्थित मुस्लिमों ने भी पाकिस्तान और निज़ाम की नीतियों से निराश होकर भारतीय सरकार का साथ दिया। पटेल ने सोहरावर्दी को 28 सितंबर को खुशी से लिखा, ‘हैदराबाद के प्रकरण में भारतीय गणराज्य के सारे मुस्लिम एक होकर खुलेआम हमारे समर्थन में आए और इसने सारे देश पर अच्छा प्रभाव डाला’।
भारतीय गणराज्य में रियासतों के विलयन का दूसरा कठिन दौर दिसंबर 1947 में शुरु हुआ। एक बार फिर सरदार पटेल ने तेज़ी से इस प्रक्रिया को सालभर के भीतर पूर्ण करने के लिए अपनी कार्यवाही शुरु की। छोटी-छोटी रियासतों को आस-पास की बडी रियासतों में मिलाया गया या उन्हें एकसाथ मिलाकर ‘केन्द्रीय प्रशासनिक क्षेत्र’ बनाया गया। कई रियासतों को मिलाकर पांच राज्य बनाए गए - मध्यभारत, राजस्थान, पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य संघ, सौराष्ट्र और त्रावनकोर कोचीन। मैसूर, हैदराबाद और जम्मू कश्मीर को संघ के अलग राज्य के रूप में ही रखा गया।
बडी रियासतों के शासकों द्वारा अपनी पूर्ण सत्ता समर्पित करने के एवज में उन्हें मुआवजे के रूप में बडी धन राशि दी गई जो पूरे तरह से हर तरह के कर से मुक्त थी। 1949 में यह राशि रू. 4.66 करोड़ थी जिसे बाद में संविधान के अनुसार दिया जाने लगा। शासकों को गद्दी पर उत्तराधिकारी नियुक्त करने और कुछ अन्य विशेषाधिकार जैसे उनके वंश के नाम चलाए रखना, व्यक्तिगत झंडे फहराना और विशेष अवसरों पर बंदूकों की सलामी देना आदि कायम रखे गए।
राजाओं को दिए इन मुआवजों की उस समय, और बाद में भी निंदा हुई। मगर स्वतंत्रता मिलने के तुरंत बाद का वह समय कठिन समय था और सभी रियासतों के प्रादेशिक और राजनैतिक विलयन के बदले में यह कीमत अधिक नहीं थी। निर्विवाद रूप से इस एकीकरण से पाकिस्तान बनने से भारत को हुई प्रादेशिक हानि की क्षतिपूर्ति कर दी और ‘विभाजन के घाव’ को भी आंशिक रूप से भरने का काम किया।
4.5 पांँडिचेरी और गोवा
भारतीय राजनीति के पटल पर दो कठिन हिस्से अब तक मौजूद थे। ये भारत के पूर्वी और पश्चिमी तटीय प्रदेश थे जिनपर पहले फ्रेंच और पुर्तगालियों का शासन था। इन प्रदेशों की जनता अपनी स्वतंत्र मातृभूमि में विलय होने के लिए उत्सुक थी। फ्रेंच अधिकारी कुछ हद तक उचित सोच रखते थे और लंबी बातचीत के बाद पांडेचेरी तथा उनके अधिकार के अन्य क्षेत्र 1954 में भारत को देने को तैयार हो गए, मगर पुर्तगाली गोवा पर अपना अधिकारी छोड़ने को तैयार नहीं थे। पुर्तगाल के नाटो के सहयोगी विशेषतः ब्रिटेन और अमेरिका भी इस अड़ियल कार्य में पुर्तगाल का सहयोग कर थे। भारत सरकार, जो देशों के बीच विवाद सुलझाने के लिए शांतिपूर्ण प्रयासों की अपनी नीति पर कायम थी, गोवा व अन्य क्षेत्रों को पुर्तगाल के अधिकार से मुक्त कराने हेतु किसी भी तरह की सैन्य कार्यवाही नहीं करना चाहती थी। गोवा के निवासियों ने कमान अपने हाथों में ले ली और पुर्तगाल के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया, जिसका बर्बरता से दमन कर दिया गया। गोवा के मसले पर अंतर्राष्ट्रीय राय का लंबे समय तक इंतजार करने के बाद 17 दिसंबर 1961 की रात को नेहरु ने भारतीय सेना को ‘‘ऑपरेशन विजय’’ के तहत गोवा में प्रवेश करने का आदेश दिया। गोवा के गवर्नर जनरल ने एक छोटे से संघर्ष के बाद तुरंत आत्मसमर्पण कर दिया और भारत का प्रादेशिक और राजनैतिक एकीकरण पूर्ण हुआ, इस प्रक्रिया में स्वतंत्रता के बाद 14 वर्ष लगे।
- Marriage and High School : At the age of 16, he got married to Jhaverba Patel in 1891 and at the age of 22, he passed his matriculation.
- Early ambition to be a Barrister : In his childhood, he made up his mind to be a barrister, and wanted to study in England. At that time, his family was not rich enough to enroll him in a college.
- Plague attack : When he was taking care of his friends suffering from the plague, Patel came down with the same disease. As the disease was highly contagious, Patel sent his family to a safe place and spent some time in a derelict temple. Later, he recovered from the disease slowly.
- Away from family : Patel spent several years away from family; studying on his own by borrowing books from friends. Later, he settled in Godhra with his wife.
- The making of a Barrister : Before going to England and becoming a barrister, Patel took a course in Law and practiced as a country-lawyer in Godhra, Borsad, and Anand.
- A genius mind : At the age of 36, Sardar Patel went to England to study Law. He enrolled in Middle Temple, Inns of Court, London. There, he completed his 36-months course within 30 months and topped his class despite having no college background.
- Dedicated to work : In 1909, his wife, Jhaverba Patel was admitted to hospital and diagnosed with cancer. Despite a successful surgery, she died in Hospital. When Patel was given a note of his wife’s death, he was cross-examining a witness in the court. Patel read the note and pocketed it and continued his work.
- A complete Englishman! When he returned from England, his lifestyle was changed, and he would wear suits and speak mostly in English. He used to smoke cigars at that time, but quit smoking later in the company of Mahatma Gandhi.
- An excellent Bridge player : He was fond of playing Bridge, a card game. In England as well as in India, he used to play and defeat many players of this game.
- A professional Barrister : When he returned to India in 1913, Patel settled in Ahmedabad and became one of the city’s most renowned barristers. He gained popularity as a criminal lawyer.
- Not a politician by choice : At the urging of his friends, he fought the municipal election in Ahmedabad in 1917 and won it.
- Inspiration from Gandhi : When Gandhi worked for the indigo-growing peasants, Patel was inspired a lot, and a subsequent meeting with Gandhi in 1917, changed Patel’s heart and led him to join the Indian independence movement.
- English suits in bonfire : After the Jallianwala Bagh Massacre, Gandhi started the non-cooperation movement and Patel supported him thoroughly. Patel organized bonfires in various places of Ahmedabad and set all his English clothes and commodities on fire. He started wearing Khadi clothes.
- Round Table Conference : When the round-table conference failed in London, Sardar Patel along with Mahatma Gandhi was imprisoned in ‘Yeravda Central Jail’ in 1932. During that time, Patel became the right-hand man of Mahatma Gandhi. They both were released in July 1934. Gandhiji taught Patel Sanskrit during this time.
- First choice to be the President of Congress : During the 1946 Election for the Congress Presidency, 12 out of 15 regional congress committees proposed Patel to be the President. Despite the support of Mahatma Gandhi, no committee proposed Jawaharlal Nehru’s name. However, later, Patel stepped down in the favor of Jawaharlal Nehru.
- The Bismarck of India : Just like Otto von Bismarck integrated Germany politically in the 1860s, Vallabhbhai Patel unified India when the British paramountcy ended, by integrating more than 600 princely states into India, in an elaborate process lasting a few years, aided by V P Menon. During the time of integration, he was the first Commander-in-chief of the Indian Armed Forces.
- Political integration of India : The process of integration started once it was clear that the British would leave India. Sardar Patel began the work of convincing the Princes (Kings of hundreds of princely states) that they will not be harmed in any way (criminal prosecution, taking away of titles etc.) if they decide to join the Indian Union. A privy purse was also assured. Working tirelessly for many years, he led the States’ Department (headed by V P Menon) in this gargantuan project. Lord Mountbatten was also convinced to help integrate the state, to allow for continuity of many trade and commerce treaties that the British had evolved over the years. In an elaborate process, various documents were signed (including the Standstill Agreement and the two Instruments of Accession (1947 and 1948)) that ultimately led to a relatively smooth integration process, and a common Constitution for the entire India.
- Bharat Ratna : Due to his superb contribution to the unification of the nation, Sardar Patel was posthumously awarded the Bharat Ratna in 1991.
- National Unity Day : In 2014, the government of India announced that his birthday (31st October) will be celebrated as “National Unity Day” or “Rashtriya Ekta Diwas” in India.
- World’s tallest statue : In 2018, the Government of India unveiled the world’s tallest statue - The statue of Unity in Patel’s honor. The Prime Minister of India inaugurated this statue on Patel’s birthday, i.e., 31 October. The statue is made up of mostly bronze and designed by the famous sculptor, Ram V. Sutar.
- Early life : Hailing from a small village in Ottappalam, Vappala Pangunni Menon rose to be the highest ranking Indian official in the viceregal establishment. Posted as reforms commissioner, Menon held a key position, serving the last three viceroys as their constitutional adviser. In independent India, he served as secretary of the newly formed States’ Department and later as the governor of Odisha.
- An interesting incident : During his attempt to persuade the young Maharaja of Jodhpur to sign a provisional agreement of accession to the Indian Republic, Mountbatten left Menon to get young ruler’s signature. “When he was gone, the young maharaja of Jodhpur pulled a fountain pen made in his workshop out of his pocket. After signing the text, he unscrewed its cap and revealed a miniature 0.22 pistol which he pointed at Menon’s head. I’m not giving in to your threats, he shouted. Mountbatten, on hearing the noise, returned and confiscated the pistol,” stated Larry Collins and Dominique Lapierre in their celebrated work Freedom at Midnight.
- More on early life and education : Loathed by Indian princes and nawabs, and trusted by the British and Indian authorities, Menon came from a humble family. Born on the banks of Bharatappuzha on September 30, 1893 at Panamanna in Ottappalam, he was the eldest son in a family of 12. At the age of 13, he had to quit school to work successively as a construction worker, coal miner, factory hand, stoker on Southern Indian Railways, unsuccessful cotton broker and schoolteacher. Finally, having taught himself to type with two fingers, he talked his way into a job as a clerk in the Indian administration in Shimla in 1929.
- With the Viceroy : “What followed was probably the most meteoric rise in that administration’s history. By 1947, Menon rose to one of the most-senior posts on the Viceroy’s staff, where he had quickly won Mountbatten’s confidence and later affection,” Collins and Lapierre wrote. In 1946, he was appointed as political reforms commissioner to British Viceroy.
- The plan : It was Menon who prepared the famous plan that led to India’s independence. In his book ‘Transfer of Power in India’, he recollected how he had only two or three hours to prepare an alternative draft plan. His plan was accepted by Pandit Jawaharlal Nehru and Mohammad Ali Jinnah.
- Political integration of India : Menon worked closely with Sardar Patel over the integration of over 500 princely states into the Union of India, applied diplomacy to foster good relations between the ministry and various Indian princes. He acted as Patel’s envoy and struck deals with reluctant princes and rulers to create the framework for present India. Patel respected his political genius and work ethic.
- Recognising him : “From 1945-50, Menon helped Patel annex over 500 princely states to independent India; more than what Bismarck did for Germany. There is not a single biography or a major biographical article in his name. His contributions don’t find a mention in school syllabus. There is only the V P Menon Award instituted in his memory at Ottappalam, which has produced many famous bureaucrats and diplomats,” said chairman of the award committee Rajasekharan Nair.
- Menon as an enabling architect of modern India : His character was such that he remained largely invisible. Sometime in 1965, Menon came to Ottappalam to inaugurate NSS’s BEd Training College and attended the function to honour Shankaran Nair who launched the movement for farmers’ rights.
- Death : A few months later, the able administrator of the British and independent India, died at Cooke Town in Cantonment, Bengaluru on December 31, 1965 aged 72.
- His early life and political involvement : Born in a humble family in Gujarat, on 19th Feb 1900, Balwantrai Gopalji Mehta as a child was a person of humility and well-disciplined. During his schooling days he displayed dedication towards studies and an interest in social welfare. At the age of 20, after graduation, he refused to earn further degree from foreign universities and joined the non-co-operation movement in 1920.
- Various movements : As a young graduate from a middle class family and a rigorous aspirant to the cause of India's independence, he was an active frontrunner in Civil Disobedience, Bordoli Satyagraha, and was imprisoned in 1942 for his participation in Quit Indian Movement, for 4 years.
- Mahatma Gandhi’s vision : His fidelity to the vision of M.K. Gandhi and for his relentless service to the country, Gandhi later recommended him for INC membership when India was freed from the foreign dominion, and thus become the member of congress working committee and eventually become the general secretary of All India Congress Committee during the tenure of Pt. Jawaharlal Nehru as the then President. He became the second CM of Gujarat succeeding Jivraj Narayan Mehta in 1963 and died during his office in 1965 during the Indo-Pak war when a Beechcraft plane carrying him and his wife and six other was shot down by a Pakistani aircraft mistaken for a military aircraft.
- The awakening of decentralized democracy in India : He focussed on rural development – decentralized democracy. Soon after the 1957 general election, he was appointed as the chairman of a parliamentary committee called the Estimate Committee to thoroughly examine and implement the working of community development and national extension service. Under his able chairmanship, the committee submitted its report and recommendation of a well-established local self-governance vehicle known as Panchayati Raj Institute (PRI).
- The PRI takes shape : One of the major characteristic of this recommendation was the establishment of three tier system within the PRI i.e. Gram Panchayat at the village level, Panchayat Samiti at the block level, and Zila Parishad at the district level. Of the three tier structure of the PRI, the Zilla Parishad which consists of district level officers from every spectrum including special representation of women, collector, and representative of the ST&SC stood as the apex body.
- Mandatory and discretionary power of PRI : The 73rd Amendment Act which becomes constitutionally effective from April 1993 was passed by parliament in 1992 to strengthen the working of PRI and subsequently inducted Part IX to the Constitution of India. This Act renders constitutional shape and endowed machinery tools to Article 40 of the constitution. Article 40 of the Indian Constitution envisaged the 'organization of village Panchayats' and mandates that, 'the State shall take steps to organize village panchayats and endow them with such powers and authority as may be necessary to enable them to function as units of self-government'. The mandatory power and discretionary power has each distinct contrary. The former used the word "shall" in its provisions whereas the word "may" was used in the later.
- With respect : Given the huge growth that the PRI has enabled over the decades, Mr. Balwantrai Mehta is remembered as the 'Architect of Panchayati Raj' with great respect.
- Inheriting a State : Maharaja Hari Singh inherited the vast state of Jammu Kashmir comprising of the Jammu Province, Jägirs of Poonch and Chenani, Province of Kashmir and Frontier Provinces of Ladakh, Baltistan and Gilgit. The credit of consolidating a vast territory and the founding of the state rests upon the vision of the warrior and statesman, Maharaja Gulab Singh, the great-grandfather of Maharaja Hari Singh.
- Last Dogra monarch : Maharaja Hari Singh was the fourth and the last Dogra monarch of the state. His rule from 1925 to 1947, saw a series of tumultuous historical events. His reign heralded a sea of reforms and people friendly policies which endeared him to all his subjects, irrespective of class, religion and gender.
- Changing times : Maharaja Hari Singh was sensitive to the changing times and made efforts to gradually democratise the administration. His Kingship was rooted in the concepts of social justice. His approach to governance was clear in his iconic coronation address where he said, “For me all communities, religions and races are equal. All religions are mine and justice is my religion”.
- A modern approach : He was a modern ruler devoted to the idea of eradicating illiteracy, social evils and inequality from the state. He was especially moved by the plight of the agriculturists of his state who formed eighty percent of the population. One of his first reforms, the Agriculturists Relief Regulations of July 1926, focused on freeing the farmers from the exploitative clutches of the moneylender. This was drafted in Uri in Kashmir, after the Maharaja who was camped there, received a thousand petitions on the same day against the Sahukari system. His reform aimed to empower the farmer and address the starvation and disease common amongst them due to their enslavement to the moneylending class. The cooperative credit system and an annual farmers conference where he could be apprised of the issues being faced by the farming community were all part of the many measures taken by the Maharaja for the upliftment of the majority class.
- Fighting illiteracy : To bring about socio-economic equality Maharaja Hari Singh put in concerted efforts in the drive against illiteracy, knowing very well that education was the biggest factor for social upward mobility. Progress in the field of education was across regions and the Maharaja particularly introduced Urdu as a medium of instruction to make it more attractive to his Muslim subjects. The Compulsory Primary Education Act of 1930 was put to immediate effect in Jammu, Srinagar, Sopore, Mirpur and Udhampur. The budget for education was raised from over rupees two lakhs in 1907 to nineteen and a half lakhs in 1931. As a result of this, there were 20,728 schools in 1945 as compared to 706 in 1925 when he took over from his predecessor.
- Progressive steps : Modern education and exposure made Maharaja Hari Singh committed to the cause of social equality which included women. He took many steps to remove gender-biased practices and elevated the status of women in the society. His measures focused on eradicating social evils like female infanticide and dowry. Polyandry which was prevalent in Ladakh was abolished in 1941. The Maharaja’s government not only enacted legislation to suppress immoral trafficking in women but made efforts for their reintegration in the society through rehabilitative schemes. The women were absorbed into respectable families and also trained in handicrafts.
- Women’s rights : Dhandevi Memorial Kanya Fund named after the Maharaja’s first wife granted orphan girls a sum of up to Rs 200 and an acre of state land. He was a tireless women’s rights champion encouraging widow remarriage and ownership of property by women. To ensure that women were included in the revolutionary changes being made in the field of education, he established the department of women education and appointed a Deputy Director for it. His many reforms in the health sector included women-centric measures like additional maternity wards in zenana hospitals.
- Controversial Act : To prevent Kashmir from becoming a British Colony, Maharaja Hari Singh introduced the Act of Hereditary State Subject in 1927 but the fact that he made no distinction in the definition and rights of the Permanent Residents of the state based on gender, is ignored today.
- Media freedom : A progressive ruler he believed in press freedom. Maharaja Hari Singh took steps to facilitate the publication of papers from Srinagar and Jammu bringing forth the Press and Publication Act in April 1932.
- A commitment to India : His commitment to India even as a ruler of a vast independent Princely state is noteworthy. He was the first amongst 560 rulers, who supported the cause of India’s Independence at the Round Table Conference in the House of Lords in London in 1931. He earned the wrath of British and an unsavoury saga of conspiracies unfolded against him upon his return to the state. Nevertheless, his words spoken in the House of Lords as Vice-Chancellor of Chamber of Prince’s rang loud and clear and should help in settling any doubts one may have of his loyalties. In the conference presided by the British Crown, he said: “I am an Indian first, and then a Maharaja”.
- End : Maharaja Hari Singh had to abdicate the throne unceremoniously with which ended the hundred years rule of the Dogra dynasty. He was forced into exile and was never to return to his beloved Jammu Kashmir. He was cremated in Chandanwadi in Mumbai and only his ashes returned home to be immersed in River Tawi.
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