यूपीएससी तैयारी - स्वतंत्रता-पश्चात् भारत - व्याख्यान - 4

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शहरीकरण

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1.0 प्रस्तावना 

शहरीकरण का अर्थ है, ग्रामीण प्रव्रजन के परिणामस्वरूप शहरी क्षेत्रों की होने वाली भौतिक संवृद्धि, और इसका आधुनिकीकरण और युक्तिकरण की समाजशास्त्रीय प्रक्रिया से निकट का संबंध है। 

अन्य विकासशील देशों की तुलना में भारत में शहरीकरण धीमी गति से हुआ है, और 2011 की जनगणना के आधार पर शहरी क्षेत्रों की जनसंख्या का अनुपात 31 प्रतिशत रहा है। जैसे-जैसे देश अधिक तीव्र विकास की दिशा में बढ़ रहा है, वैसे-वैसे शहरीकरण की गति भी और तेज होने की उम्मीद बढ़ गई है। आर्थिक सुधारों ने निवेश और प्रगति के द्वार खोल दिए हैं, जो इसके नागरिकों को अधिक समृद्ध अवसर प्रदान कर रहे हैं। शहरों में बढ़ता विकास और रोजगार एक सशक्त चुंबक का कार्य करेगा। वर्तमान में भारत के 350 मिलियन से अधिक लोग नगरों और शहरों में रहते हैं। अगले 20-25 वर्षों में, भारतीय नगरों और शहरों से और 300 मिलियन लोग जुड़ जायेंगे। यह शहरी विस्तार इतनी तेज गति से होगा जितना भारत ने इससे पहले कभी भी नहीं देखा होगा। भारत की शहरी जनसंख्या को 230 मिलियन तक बढ़ने में 40 वर्ष लगे। और 250 मिलियन लोगों को शहरों से जोड़ने में शायद इससे आधा समय ही लगेगा। यदि इस वृद्धि को सही ढंग से प्रबंधित नहीं किया गया, तो भारतीय शहरी जनसंख्या व्यवस्थाओं पर अत्यधिक तनाव निर्माण कर देगी। 

1.1 बुनियादी शब्दावलियां 

भारत की 2011 की जनगणना के लिए, शहरी क्षेत्र की परिभाषा निम्न हैः

  1. ऐसे सभी स्थान जहां नगरपालिकाएं, नगरपालिक निगम, छावनी बोर्ड या अधिसूचित शहर क्षेत्र समितियां इत्यादि हैं। 
  2. ऐसे अन्य सभी स्थान, जो निम्नलिखित मानदंडों की पूर्ति करते हैंः

  • न्यूनतम 5,000 जनसंख्या;
  • कम से कम 75 प्रतिशत कार्यशील मुख्य पुरुष जनसंख्या गैर कृषि क्षेत्रों में कार्यरत है; और 
  • जनसंख्या का घनत्व न्यूनतम 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है। 

शहरी इकाइयों की पहली श्रेणी को सांविधिक नगर कहा जाता है। ये नगर संबंधित राज्य केंद्रशासित प्रदेश सरकारों द्वारा कानून के तहत अधिसूचित होते हैं, और जिनमें नगरपालिक निगमों, नगरपालिकाओं, नगरपालिका समितियों इत्यादि जैसे स्थानीय निकाय हैं, भले ही 31 दिसम्बर 2009 की गणना के अनुसार उनकी जनसांख्यिकीय विशेषतायें कुछ भी हों। इसके उदाहरण हैं वडोदरा (नगरपालिक निगम), शिमला (नगरपालिक निगम) इत्यादि। दूसरी श्रेणी के नगरों को जनगणना नगर कहा जाता है। इनकी पहचान 2001 की जनगणना के आंकडों के आधार पर की गई थी। 

शहरी समूहः एक शहरी समूह एक निरंतर विस्तार करने वाला शहर होता है, जिसमें उस नगर और उसके आसपास के क्षेत्र शामिल हैं, या दो या दो से अधिक भौतिक रूप से लगे हुए नगर और उनके आसपास के क्षेत्रों के साथ, या उनके बिना भी उनका विस्तार होता है। एक शहरी समूह में कम से कम एक सांविधिक नगर होना आवश्यक है और उसकी कुल जनसंख्या (यानी सभी घटक एक साथ रखते हुए) 2001 की जनगणना के अनुसार 20,000 से कम नहीं होना चाहिए। भिन्न-भिन्न स्थानीय परिस्थितियों में, इसी तरह के अन्य संयोजन थे, जिन्हें शहरी समूह माना गया, यदि वे समीपता की बुनियादी शर्त की पूर्ति करते थे। इसके उदाहरण हैं बृहन्मुंबई शहरी समूह, दिल्ली शहरी समूह, इत्यादि। 

बाहरी विकासः एक बाहरी विकास एक व्यवहार्य इकाई है, जैसे कि एक गांव या एक टोला या ऐसे गांव या टोले से बना हुआ एक गणना खंड, जो इसकी सीमाओं और स्थान की दृष्टि से स्पष्ट रूप से पहचाने जाने योग्य हो। इसके कुछ उदाहरणों के रूप में रेलवे कॉलोनियों, विश्वविद्यालय परिसरों, बंदरगाह क्षेत्रों, सेना की छावनियों इत्यादि को माना जा सकता है, जो एक सांविधिक नगर के निकट, उसकी सांविधिक सीमाओं के बाहर परंतु एक गांव या नगर से सन्निहित गांव की राजस्व सीमा के भीतर उभरे हैं। किसी नगर के बाहरी विकास का निर्धारण करते समय यह सुनिश्चित किया गया है कि अधोसंरचना और पक्की सड़कों, बिजली, नल, अपशिष्ट जल की निकासी के लिए व्यवस्था, शिक्षण संस्थाओं, डाकघरों, चिकित्सा सुविधाओं, बैंकों इत्यादि जैसी सुविधाओं की दृष्टि से इसमें शहरी विशेषतायें होनी चाहिए और भौगोलिक रूप से यह शहरी समूह के मूल नगर से सन्निहित होना चाहिए। 

उदाहरणः मध्य रेलवे कॉलोनी (बाहरी विकास), त्रिवेणी नगर (एनईसीएसडब्लू) (बाहरी विकास), इत्यादि। ऐसे प्रत्येक नगर को, इसके बाहरी विकास के साथ, एक एकीकृत शहरी क्षेत्र माना गया है और इसे ‘‘शहरी समूह‘‘ के रूप में निर्दिष्ट किया गया है। 2001 की जनगणना के 962 बाहरी विकासों के साथ 384 शहरी समूहों की तुलना में 2011 की जनगणना में, 981 बाहरी विकासों के साथ 475 स्थानों को शहरी समूहों के रूप में चिन्हित किया गया है।

2.0 शहरीकरण के कारण 

शहरीकरण से संबंधित दो कारक होते हैं 

  1. धकेलने वाले कारक (पुश फैक्टर) 
  2. खींचने वाले कारक (पुल फैक्टर)

जो कारक किसी व्यक्ति को आकर्षित करते हैं, जैसे रोजगार की उपलब्धता, अधिक आय, उत्कृष्ट शिक्षा इत्यादि, उन्हें खींचने वाले कारक कहा जाता है। वे कारक, जो किसी व्यक्ति को परिस्थितियों के कारण अपने घर को छोडने और प्रव्रजन करने के लिए बाध्य करते हैं, उन्हें धकेलने वाले कारक कहा जाता है। 

भारत में, और अन्य सभी विकासशील देशों में, शहरीकरण मुख्य रूप से खींचने वाले कारकों के कारण हुआ है। भारत में मुख्य रूप से शहरीकरण स्वतंत्रता के बाद शुरू हुआ, क्योंकि हमनें मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया, जिसके कारण निजी क्षेत्र का विकास हुआ। 

भारत में शहरीकरण के मुख्य कारण निम्नानुसार हैंः

  1. दूसरे विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप सरकारी सेवाओं का विस्तार
  2. भारत के विभाजन के बाद लोगों का पाकिस्तान से भारत में प्रव्रजन 
  3. औद्योगिक क्रांति 
  4. ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना, जिसका लक्ष्य था भारत के आर्थिक विकास के लिए शहरीकरण 
  5. लोगों के शहरी क्षेत्रों की और स्थलांतर के लिए रोजगार के अवसर बहुत महत्वपूर्ण है
  6. शहरी क्षेत्रों में अधोसंरचना सुविधाएँ 
  7. 1990 के बाद निजी क्षेत्र का विकास।

3.0 भारत में शहरीकरण के रुझान 

भारत विकासशील देशों के शहरीकरण की अधिकांश विशेषताओं को साझा करता है। शहरी समूहों/नगरों की संख्या 1901 के 1827 से 2001 में बढ़ कर 5161 हो गई। कुल जनसंख्या 1901 की 23.84 करोड़ से 2001 में बढ़ कर 102.7 करोड़ हो गई, जबकि शहरी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की संख्या 1901 की 2.58 करोड़ से 2001 में बढ़ कर 28.53 करोड़ हुई। भारत में शहरीकरण की यह प्रक्रिया शहरीकरण के विकास के सकारात्मक रुझान को प्रतिबिंबित करती है। वर्तमान में भारत शहरीकरण की प्रक्रिया के त्वरण चरण में है। 

सभी स्थानों में शहरीकरण का तरीका समान नहीं है। जनसंख्या की दृष्टि से मुंबई भारत का सबसे बड़ा महानगर है, जिसकी जनसंख्या 12.5 मिलियन है, जबकि दिल्ली के निवासियों की संख्या 11 मिलियन है। वर्तमान में, गुडगाँव और अन्य राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तीव्र गति से विकसित हो रहे हैं। 

भारत के पास अपने शहरों में कई नए विकास बाजार खोलने की संभावना मौजूद है। इनमें से कई बातें पारंपरिक रूप से भारत से संबंधित नहीं है, जिनमें मुख्य रूप से अधोसंरचना, परिवहन के साधन, स्वास्थ्य सुविधाएँ, शिक्षा और मनोरंजन जैसे क्षेत्र शामिल हैं। 

आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के पहले शहरीकरण सीमित था, परंतु औद्योगीकरण के बाद, शहरीकरण काफी अच्छी गति से हो रहा है। 2011 में भारत में 302 ऐसे शहर थे जिनकी जनसंख्या 1 लाख से अधिक थी, जबकि 1971 में ऐसे शहरों की संख्या केवल 151 थी। इन रुझानों को देखते हुए, विश्लेषक उम्मीद कर रहे हैं कि 2050 तक 85 करोड़ से भी अधिक लोग भारतीय शहरों में रहने लगेंगे। 

3.1 शहरीकरण का स्तर 

शहरीकरण के स्तर को शहरी क्षेत्रों में रहने वाले सापेक्ष लोगों की संख्या के रूप में परिभाषित किया जाता है। शहरीकरण के स्तर को नापने के लिए शहरी जनसंख्या के प्रतिशत [(शहरी जनसंख्याध्कुल जनसंख्या)*100] और ग्रामीण जनसंख्या के प्रतिशत [(ग्रामीण जनसंख्याध्कुल जनसंख्या)*100], और शहरी-ग्रामीण अनुपात [(शहरीध्ग्रामीण)*100] का उपयोग किया जाता है। शहरी जनसंख्याध्कुल जनसंख्या के अनुपात की निचली सीमा 0 है, और इसकी उच्च सीमा 1 है, अर्थात, 0< (शहरी जनसंख्या / कुल जनसंख्या) < 1 है। 

कुल जनसंख्या ग्रामीण जनसंख्या होगी तो सूचकांक 0 होगा, और जब कुल जनसंख्या शहरी होगी तो सूचकांक 1 होगा। जब 50 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण होगी, तो इसका अर्थ यह है, कि प्रत्येक ग्रामीण पर एक शहरी है। शहरी-ग्रामीण के इस अनुपात की निचली सीमा शून्य है और उच्च सीमा ¥ है, अर्थात, 0 < शहरी / ग्रामीण < ¥ 1

सिद्धांततः जब ग्रामीण जनसंख्या होगी ही नहीं (ग्रामीण=0), तो उच्च सीमा अनंत होगी, परंतु यह असंभव है। शहरी जनसंख्या का प्रतिशत 1901 के 11 प्रतिशत से 2001 में बढ़ कर 28 प्रतिशत हो गया है, जबकि एक सदी के दौरान ग्रामीण जनसंख्या के प्रतिशत में 89 प्रतिशत से 72 प्रतिशत तक की एक क्रमिक गिरावट देखी गई है। शहरी ग्रामीण अनुपात, जो एक सामान्य सूचकांक है, जो प्रत्येक ग्रामीण व्यक्ति पर शहरी व्यक्तियों की संख्या का मापन करता है, इसमें इन सौ वर्षों की भारतीय शहरीकरण की प्रक्रिया के दौरान एक बढ़ते रुझान की अनुभूति हुई है। 2001 में, शहरी-ग्रामीण अनुपात लगभग 38 के आसपास रहा है, अर्थात, 2001 में, भारत में प्रत्येक 100 ग्रामीणों पर  38 शहरी व्यक्ति थे। ये सभी सूचकांक इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि भारत शहरीकरण की प्रक्रिया के दौर से गुजर रहा है, और यह शहरीकरण के त्वरण चरण पर है।  

3.2 शहरी विकास

शहरी विकास के लिए तीन घटकों को जिम्मेदार माना जा सकता है 

  1. प्राकृतिक वृद्धि 
  2. शुद्ध प्रव्रजन 
  3. क्षेत्रीय वर्गीकरण 

चूंकि जनगणना अवधियों के बीच की अवधि के दौरान के नगरपालिका की सीमाओं में विस्तार के कारण हुए क्षेत्र और जनसंख्या में परिवर्तन के आंकड़ों की कुल जनसंख्या या स्थलांतरित जनसंख्या के लिए अलग से जानकारी उपलब्ध नहीं है, अतः शहरी क्षेत्रों की ओर हुए दशकीय प्रव्रजन का आकलन करना कठिन है। इसके अतिरिक्त, नए और अवर्गीकृत नगरों के आंकडे़ भी अलग से उपलब्ध नहीं है, अतः शहरी विकास में प्रव्रजन के योगदान की हिस्सेदारी के आकलन त्रुटिपूर्ण हो सकते हैं। 

1971-81 के दौरान 41 प्रतिशत शहरी विकास प्राकृतिक वृद्धि के कारण हुआ विकास माना जा सकता है, जो जनसांख्यिकीय गति की भूमिका को प्रतिबिंबित करता है, वहीं 36 प्रतिशत विकास शुद्ध प्रव्रजन के कारण और नगरपालिकाओं के सीमा परिवर्तन के कारण माना जा सकता है, और 19 प्रतिशत शहरी विकास क्षेत्रों के पुनर्वर्गीकरण के कारण माना जा सकता है। परंतु प्राकृतिक वृद्धि के कारण हुआ शहरी विकास 1971-81 के 42 प्रतिशत से 1981-91 में बढ़ कर लगभग 60 प्रतिशत हो गया है। प्रव्रजन और नगरपालिकाओं के पुनर्सीमांकन के कारण हुए शहरी विकास में 1971-81 के 39 प्रतिशत से 1981-91 में 22 प्रतिशत तक की गिरावट दर्ज की गई है। परंतु शहरी विकास के इन घटकों के लिए पाठक और मेहता द्वारा किया गए अनुमान थोडे़ अलग परिणाम दिखाते हैं। यह स्पष्ट है कि भारत का शहरी विकास मुख्यतः प्रव्रजन-जनित नहीं है, बल्कि यह प्राकृतिक वृद्धि के कारण हुए जनसांख्यिकीय विस्फोट का परिणाम है। लोग शहरों की ओर शहरी खिंचाव के कारण स्थलांतरित नहीं होते, बल्कि वे ग्रामीण धक्के के कारण स्थलांतरित होते हैं। गरीब-जनित स्थलांतरण ने बहुत ही कम गुणवत्ता वाले शहरीकरण का निर्माण किया है, जिसका परिणाम दुःख, गरीबी, बेरोजगारी, शोषण, झुग्गी-झोपडियों के तेज विकास, असमानता, और शहरी जीवन की गुणवत्ता की अधोगति में हुआ है।

3.3 भारत के शहरीकरण की विशेषतायें और इसका स्वरुप 

भारत के शहरीकरण की विशेषताओं पर निम्न प्रकार से प्रकाश ड़ाला जा सकता हैः

  1. असंतुलित शहरीकरण प्रथम श्रेणी के शहरों को बढ़ावा देता है 
  2. शहरीकरण औद्योगीकरण और एक मजबूत आधार के बिना होता है 
  3. शहरीकरण मुख्य रूप से एक जनसांख्यिकीय विस्फोट और गरीबी जनित ग्रामीण-शहरी स्थलांतरण का परिणाम है  
  4. तीव्र गति से होने वाले शहरीकरण का परिणाम बडे़ पैमाने पर विकसित होती मलिन बस्तियों में होता है, जिसका अंततः परिणाम दुःख, गरीबी, बेरोजगारी, शोषण, असमानताएं, और शहरी जीवन की गुणवत्ता में गिरावट में होता है
  5. शहरीकरण शहरी खिंचाव के कारण नहीं होता, बल्कि यह मुख्य रूप से ग्रामीण धक्के के कारण होता है 
  6. यदि ग्रामीण-शहरी स्थलांतरण की गुणवत्ता कम होगी तो होने वाले शहरीकरण की गुणवत्ता भी निम्न दर्जे की होगी 
  7. संकटग्रस्त उत्प्रवासन शहरी क्षय की शुरुआत करता है।

भारत में शहरीकरण का स्वरुप बडे़ शहरों में लगातार जनसंख्या और गतिविधियों के केंद्रीकरण का रहा है। किंग्सले डेविस ने इस प्रवृत्ति के लिए ‘‘अति-शहरीकरण‘‘ शब्द का प्रयोग किया है (किंग्सले डेविस एंड गोल्डन, 1954), जहाँ शहरी दुःख और ग्रामीण गरीबी एक साथ दिखाई देते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि शहर को शायद ही गतिशील कहा जा सकता है, और जहाँ अकुशल, अनुत्पादक अनौपचारिक क्षेत्र (कुंडू और बासु, 1998) अधिकाधिक स्पष्ट हो जाता है। एक और विद्वान (ब्रीस, 1969) भारत में शहरीकरण को छद्म-शहरीकरण के रूप में चित्रित करते हैं, जहाँ लोग शहरों में शहरी खिंचाव के कारण नहीं, बल्कि ग्रामीण धक्के के कारण आते हैं। रजा और कुंडू (1978) ने दुष्क्रियाशील शहरीकरण और शहरी अभिवृद्धि की बात कही है, जिसका परिणाम कुछ बडे़ शहरों में जनसंख्या का केंद्रीकरण उनके आर्थिक आधार में इसी प्रकार की वृद्धि के बिना होता है।

शहरीकरण की प्रक्रिया मुख्य रूप से ‘प्रव्रजन आधारित’ नहीं होती, बल्कि यह प्राकृतिक वृद्धि के कारण हुए जनसांख्यिकीय विस्फोट का परिणाम होती है। साथ ही ग्रामीण बाह्य प्रव्रजन मुख्य रूप से श्रेणी एक के शहरों की ओर होता है। बडे़ शहरों की जनसंख्या का आकार अनावश्यक रूप से अधिक बढ़ा हुआ हो गया है, जिसके कारण वहां की शहरी सेवाएं चरमरा गई हैं और जीवन की गुणवत्ता कम हो चुकी है। अपर्याप्त आर्थिक आधार के कारण बडे़ शहर क्रियाशील संस्थाएं बनने के बजाय संरचनात्मक दृष्टि से कमजोर और औपचारिक हो गए हैं। 

वैश्वीकरण के तहत, गरीबों के लिए उत्तरजीविता और अस्तित्व प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुए हैं। उदारीकरण वस्तुओं के सस्ते आयात की अनुमति देता है, जो अंततः ग्रामीण अर्थव्यवस्था, हस्तशिल्प और गृहउद्योग को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है, जिनपर मुख्य रूप से ग्रामीणों का अस्तित्व निर्भर है। उदारीकरण के लाभ मुख्य रूप से उन्हीं लोगों को मिलते हैं जो नए कौशल्य हासिल करते हैं। इस बात की कोई संभावना नहीं है कि सामान्य व्यक्ति और गरीब लोग उदारीकरण से लाभांवित हो सकें। निजीकरण का परिणाम श्रमिकों की छंटनी में होता है। ये सभी नकारात्मक संलक्षण ग्रामीण गरीबों को शहरों के अनौपचारिक क्षेत्रों की ओर प्रेरित-स्थलांतरण के लिए मजबूर करते हैं। अतः प्रव्रजन, जो शहरीकरण की वृद्धि का एक महत्वपूर्ण घटक है, वह शहरी खिंचाव के कारण नहीं बल्कि ग्रामीण धक्के के कारण होता है।

3.4 शहरीकरण की समस्याएं 

शहरीकरण की समस्या एकतरफा शहरीकरण, दोषपूर्ण शहरी नियोजन, गरीब आर्थिक आधार के साथ और कार्यात्मक श्रेणियों के बिना शहरीकरण की अभिव्यक्ति है। अतः भारत के शहरीकरण की वजह से निम्न क्षेत्रों में कुछ बुनियादी समस्याएं बनीं हैंः

  1. आवास 
  2. मलिन बस्तियां 
  3. परिवहन 
  4. जल प्रदाय और स्वच्छता 
  5. जल प्रदूषण और वायु प्रदूषण 
  6. सामाजिक अधोसंरचना का अपर्याप्त प्रावधान (विद्यालय, अस्पताल, इत्यादि)

कलकत्ता, मुंबई, दिल्ली, चेन्नई इत्यादि जैसे श्रेणी 1 के शहर रोजगार निर्मिति की क्षमता की संतृप्ति की स्थिति तक पहुँच चुके हैं। चूंकि ये शहर शहरी गरीबी, बेरोजगारी, आवास की कमी, शहरी अधोसंरचना सेवाओं की समस्या जैसी से ग्रसित हैं, अतः ये शहर दुःखी ग्रामीण प्रवासियों को, अर्थात, गरीब भूमिहीन निरक्षर और अकुशल कृषि श्रमिकों को अवशोषित करने में सक्षम नहीं हैं। इस वजह से यह प्रव्रजन श्रेणी 1 के शहरों की समस्याओं को और भी अधिक गंभीर बना देता है। 

इन अधिकांश शहरों में पूँजी सघन तकनीकों के इस्तेमाल के कारण ये शहर इन व्यथित ग्रामीण गरीबों के लिए रोजगार की निर्मिति नहीं कर पाते हैं। अतः इसका परिणाम ग्रामीण गरीबी के शहरी गरीबी में स्थलांतरित होने में होता है। निरक्षर और अकुशल श्रमिकों का गरीबी प्रेरित स्थलांतरण अधिकांश श्रेणी 1 के शहरों में होता है, जो शहरी पेचीदगी और शहरी क्षय को बढ़ा रहा है। 

भारतीय शहरीकरण पेचीदा है केंद्रज नहीं। गरीबी-प्रेरित प्रव्रजन ग्रामीण धक्के के कारण होता है। बडे़ शहर शहरी जनसंख्या में बढ़ रहे हैं, शहरी समृद्धि और शहरी संस्कृति में नहीं। अतः यह शहरीकरण बिना शहरी कार्यात्मक विशेषताओं के हुआ शहरीकरण है। इन महानगरों में चरम गंदी मलिन बस्तियां बढ़ रही हैं, और अत्यंत क्रूर महानगर इन चरम गरीब और ग्रामीण प्रवासियों को छत, पीने का पानी, बिजली, स्वच्छता जैसी बुनियादी सुविधाएँ नकार रहे हैं। 

शहरीकरण सामाजिक और आर्थिक असमानताओं की खाई को और भी अधिक चौड़ा कर रहा है, जिसके कारण सामाजिक संघर्षों, अपराधों, और समाज-विरोधी गतिविधियों में वृद्धि हो रही है। एकतरफा और अनियंत्रित शहरीकरण का परिणाम पर्यावरणीय अवनति, और शहरी जीवन की गुणवत्ता की अवनति में हुआ है। शहरी जीवन में ध्वनि प्रदूषण, और खरतनाक अपशिष्ट के अपवहन के कारण जल प्रदूषण निरंतर बढ़ रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों से स्थलांतरित हुए निरक्षर, अर्ध-कुशल या अकुशल ग्रामीणों को शहरी अनौपचारिक क्षेत्र बहुत ही कम मजदूरी दर पर अवशोषित कर रहा है, जिसके कारण शहरी अनौपचारिक क्षेत्र भी अकुशल और अनुत्पादक बनता जा रहा है। 

3.5 शहरीकरण के कारण विकास के अवसर

बुनियादी तौर पर, शहर प्रवासियों को इसलिए आकर्षित करते हैं क्योंकि वे रोजगार प्रदान करते हैं, जो अंततः खर्च करने की क्षमता को बढ़ाते हैं। साथ ही, जीवन शैली में आने वाला परिवर्तन (ग्रामीण नागरिकों की तुलना में) अनेक प्रकार की वस्तुओं और सेवाओं की मांग में वृद्धि करता है। 

सबसे बडा अवसर कम लागत के आवास के क्षेत्र में है। इन नए शहरी भारतीयों को आवास की आवश्यकता होगी, परंतु वे वर्तमान (स्फीत) कीमतें बर्दाश्त नहीं कर सकते। यदि व्यवसाय ऐसा तरीका निकाल सकें, जिससे अच्छे मकान सस्ती दरों पर उपलब्ध कराये जा सकें, तो इस क्षेत्र में अपार आर्थिक अवसर मौजूद हैं। इसीके साथ चलते हुए, निर्माण संबंधी घटक - इस्पात, सीमेंट, फर्नीचर, कलपुर्जे, टाइल्स, नल, बिजली की सामग्री, जैसे बिजली के बटन, तार, इत्यादि - क्षेत्रों में आर्थिक उछाल की अपर संभावनाएं हैं। 

मूलभूत आवश्यकताओं के बाद, लोगों को टिकाऊ वस्तुओं की  आवश्यकता होगी, जैसे गीज़र, खाना पकाने के स्टोव, प्रेशर कुकर, पंखे, टेलीविजन इत्यादि। उनकी यह आवश्यकताएं अंततः कपडे़ धोने की मशीन, रेफ्रिजरेटर और एयर कंडीशनर जैसे बड़े़ उत्पादों के लिए भी हो सकती है। निश्चित रूप से इन सभी कारणों से बिजली की मांग में भी वृद्धि होगी।  परिवहन के साधन एक और बड़ी आवश्यकता होगी, और कमजोर अधोसंरचना को देखते हुए, मोटर वाहनों और दुपहिया वाहनों की मांग में भी वृद्धि की उम्मीद की जा सकती है (जो वर्तमान में दिखाई भी दे रहा है)। 

उपभोक्ता गैर टिकाऊ-वस्तुओं की मांग में भी तीव्र गति से वृद्धि होगी, क्योंकि छोटे परिवार और कामकाजी महिलाएं डिब्बाबंद भोजन, सुविधा के सामान, सौंदर्य प्रसाधनों और कई प्रकार के घरेलू सामान की मांग में वृद्धि करेंगे। अंत में, भोजनालय, खेरची दुकानदारों, कपडे ़ धुलाई करने वालों, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन, घरेलू नौकरों और नौकरानियों, विद्यालयों, शिक्षकों, बेबीसिटर्स, सौंदर्य सैलून, जिम, स्वास्थ्य स्पा, और कई अन्य सेवाएं प्रदान करने वालों के क्षेत्र में भी बेहतरीन उछाल देखा जा सकेगा। 

4.0 प्रधानमंत्री मोदी के तीन ध्येय 

उपानुकूलतम भौतिक और वित्तीय निष्पादन में समाप्त हुए जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) के क्रियान्वयन से सबक लेते हुए केंद्र सरकार ने तीन महत्वपूर्ण परियोजनाओं - (1) स्मार्ट शहर मिशन, (2) कायाकल्प और शहरी परिवर्तन के अटल मिशन (अमृत) और (3) शहरी क्षेत्रों में सभी के लिए आवास मिशन - के क्रियान्वयन के परिचालनात्मक दिशानिर्देशों में व्यापक संशोधन किये हैं। 

ये संशोधित दिशानिर्देश इन तीन ध्येयों के तहत परियोजनाओं के निर्माण, अनुमोदन और क्रियान्वयन में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को पूर्ण स्वतंत्रता और लचीलेपन की अनुमति प्रदान करते हैं। दोनों शहरी मंत्रालयों ने नई शहरी योजनाओं के तहत विभिन्न परियोजनाओं के लिए समयबद्ध मंजूरी और क्रियान्वयन और संसाधनों की निश्चितता सुनिश्चित करने का प्रयास किया है, साथ ही विकास आवश्यकताओं की पहचान के लिए नागरिकों की सहभागिता सुनिश्चित करने का भी प्रयास किया है। केंद्र सरकार ने व्यक्तिगत परियोजनाओं के मूल्यांकन और मंजूरी की पूर्व में अपनाई जाने वाली पद्धति को लगभग समाप्त कर दिया है, जिसके कारण व्यक्तिपरकता और निर्णय की गुंजाईश लगभग समाप्त हो गई है। 

दिशानिर्देशों में समाविष्ट किये गए महत्वपूर्ण नए प्रावधानों में, जो सभी तीनों शहरी मिशंस के लिए समान हैं, निम्न बातें शामिल हैंः

  1. शहरों के चयन और निधियों के आवंटन के लिए वस्तुनिष्ठ मानदंडः संभावित स्मार्ट शहर और अमृत शहर एक वस्तुनिष्ठ और न्ययोचित मानदंड पर आधारित होंगे जिनमें शहरी जनसंख्या और प्रत्येक राज्य/केंद्र शासित प्रदेश में सांविधिक शहरों को समान भारांक प्रदान किये जायेंगे। आवास मिशन सभी 4,041 सांविधिक शहरों/नगरों में क्रियान्वित किये जायेंगे। स्मार्ट शहर के विकास के लिए प्रत्येक चयनित शहर को प्रति वर्ष 100 करोड़ रुपये की केंद्रीय सहायता प्रदान की जाएगी। अमृत के तहत निधियों का आवंटन शहरी जनसंख्या और प्रत्येक राज्य/केंद्र शासित प्रदेश में विद्यमान शहरों/नगरों की संख्या के अनुसार किया जायेगा। शहरी क्षेत्रों में प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत यह आवंटन शहरी गरीबों और झुग्गीवासियों की संख्या पर आधारित होगा। 
  2. पूर्व में अपनाई जाने वाली पद्धति के विपरीत, जहाँ मूल्यांकन और मंजूरी का कार्य शहरी मंत्रालय किया करते थे, नई व्यवस्था में राज्य/केंद्र शासित प्रदेश स्वयं व्यक्तिगत परियोजनाओं का मूल्यांकन अनुमोदन करेंगे। 
  3. संसाधनों के अभाव के कारण परियोजनाओं में होने वाले विलंब या कार्य अधूरा रहने जैसी समस्याओं को टालने की दृष्टि से अब राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को राज्य स्तरीय कार्य योजनाओं के तहत संसाधन समझौतों की निश्चित जानकारी प्रदान करना अनिवार्य किया गया है। 
  4. शहरी स्वशासन में वृद्धि के लिए निर्धारित सुधारों के समयबद्ध क्रियान्वयन के लिए स्पष्ट कार्य योजनाएं प्रदर्शित करना आवश्यक होगा। 
  5. परियोजनाओं के आवश्यकता आधारित और निचले स्तर से ऊपर के नियोजन को सुनिश्चित करने के लिए शहरी नागरिकों के साथ परामर्श और सलाह को अनिवार्य किया गया है। 
  6. राज्य स्तरीय कार्य योजनाओं में संसाधनों के इष्टतमीकरण की दृष्टि से उचित केंद्र और राज्य सरकार की अन्य योजनाओं के साथ अभिसरण स्पष्ट रूप से इंगित करना आवश्यक है। 
  7. संसाधनों को जमा करने की दृष्टि से सार्वजनिक-निजी भागीदारी मॉडल प्रमुख स्रोत होगा। 
  8. परियोजनाओं के निर्माण और निगरानी में सांसद सदस्यों और राज्यों के विधायकों की सहभागिता का प्रावधान भी किया गया है। 

परियोजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन के लिए मिशन वार दिशानिर्देश निम्नानुसार हैंः

अमृत 

  1. राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा भूमि की उपलब्धता और सभी अनिवार्य मंजूरियों के बिना इस मिशन में किसी भी परियोजना को शामिल नहीं किया जायेगा। 
  2. केंद्र सरकार से प्राप्त सभी धनराशियाँ प्राप्ति के 7 दिन के अंदर राज्य शहरी स्थानीय निकायों को हस्तांतरित करेंगे, साथ ही इन निधियों का किसी अन्य काम के लिए आवंटन नहीं किया जा सकेगा। यदि कोई राज्य/केंद्र शासित प्रदेश ऐसा करते हुए पाया जाता है तो केंद्र द्वारा ऐसे राज्यों के विरुद्ध अन्य प्रतिकूल कार्यवाही के अतिरिक्त दण्डात्मक ब्याज भी अधिरोपित किया जायेगा। 
  3. कार्य योजनाओं में परियोजना के तहत निर्मित परिसंपत्तियों पर उपयोग शुल्क के आधार पर कम से कम पांच वर्षों के लिए संचालन और रखरखाव लागतों का प्रावधान किया जाना चाहिए। 
  4. सुधारों के क्रियान्वयन नहीं किये जाने के लिए राज्यों/शहरी स्थानीय निकायों को दण्डित करने के लिए निधियों के आवंटन को परियोजनाओं की प्रगति से जोड़ने के बजाय, जिनके कारण परियोजनाएं लंबित रह जाती हैं, नए दिशानिर्देशों में अब वार्षिक आवंटन राशि का 10 प्रतिशत अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्यों/शहरी स्थानीय निकायों को प्रत्येक वर्ष के अंत में सुधारों के लिए प्रोत्साहन राशि के रूप में प्रदान करने का प्रावधान किया गया है। 
  5. जल आपूर्ति, मल निस्सारण, अतिरिक्त जल प्रवाह नालियों और शहरी परिवहन के लिए केंद्र का हिस्सा परियोजना लागत के एक तिहाई से लेकर 50 प्रतिशत के बीच होगा। शेष राशि की व्यवस्था राज्यों को स्वयं करनी होगी जिसमें उनकी स्वयं की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत से कम नहीं होगी। 
  6. चार वर्षों के दौरान 11 सुधारों के समुच्चय का क्रियान्वयन किया जाना हैः ई-शासन का संवर्धन, विभिन्न करों, शुल्कों और उपयोग शुल्कों  के संग्रहण में सुधार, दोहरी प्रविष्टि लेखा पद्धति का संवर्धन, नगरपालिका कर्मियों का गठन और उनका व्यवसायीकरण, जीआईएस आधारित महयोजनाओं का निर्माण, शहरी स्थानीय निकायों की निधियों और कर्मचारियों का हस्तांतरण, भवन उप-नियमों की समीक्षा, संसाधनों के संग्रह और वितरण के लिए वित्तीय मध्यस्थों का गठन, शहरी स्थानीय निकायों का ऋण पात्रता-मूल्यांकन, ऊर्जा और जल का लेखांकन और स्वच्छ भारत उद्देश्यों की प्राप्ति।

स्मार्ट शहर मिशन 

  1. केंद्रीय सहायता राशि का उपयोग केवल ऐसी अधोसंरचना परियोजनाओं के लिए किया जायेगा जिनके विशाल सार्वजनिक लाभ हैं। 
  2. पुनः संयोजना के लिए न्यूनतम क्षेत्र मानदंड 500 एकड क्षेत्र है; पुनर्विकास के लिए यह 50 एकड़ है; हरित क्षेत्र परियोजनाओं के लिए 250 एकड़ है। उत्तर-पूर्वी और हिमालयीन राज्यों के लिए यह 50 प्रतिशत होगा। 
  3. प्राप्त किये जाने वाले न्यूनतम मानदंडों में निम्न शामिल हैंः ऊर्जा आवश्यकताओं की 10 प्रतिशत पूर्ति अक्षय स्रोतों से की जाएगी, 80 प्रतिशत भवन निर्माण हरित होना चाहिए, और हरित क्षेत्र परियोजनाओं में 35 प्रतिशत आवास आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्गों के लिए होने चाहिए। 
  4. स्मार्ट शहर योजना के क्रियान्वयन के लिए विशेष प्रयोजन वाहनों का गठन किया जाना चाहिए जिनमें राज्य और शहरी स्थानीय निकायों की इक्विटी 50 : 50 होनी चाहिए। 
  5. स्मार्ट शहर विकास के सभी पहलुओं के समन्वय के लिए एक अंतर-विभागीय कार्यदल का गठन किया जाना चाहिए। 

प्रधानमंत्री आवास योजना (शहरी) [ शहरी क्षेत्रों में सभी के लिए आवास ]

  1. मकानों का स्वामित्व महिलाओं के नाम पर या पति के साथ संयुक्त नाम पर होना चाहिए 
  2. आर्थिक कमजोर वर्गों के लिए 30 वर्ग मीटर तल क्षेत्रफल के आवास निर्माण किये जाने चाहिए। अनुपलब्धता की स्थिति में राज्य लाभार्थियों की अनुमति से इसे शिथिल कर सकते हैं। अतिरिक्त व्यय को स्वयं वहन करते हुए राज्य इस क्षेत्रफल में वृद्धि भी कर सकते हैं। 
  3. केंद्र सरकार द्वारा प्रदान किया जाने वाले औसत प्रति आवास एक लाख रुपये के केंद्रीय अनुदान का उपयोग राज्यों द्वारा किसी भी झुग्गी पुनर्विकास परियोजना के लिए किया जा सकता है ताकि उसे व्यवहार्य बनाया जा सके। 
  4. 6.5 प्रतिशत की दर से दी जाने वाली ब्याज सहायता राशि का भुगतान लाभार्थी को ऋण मंजूर होने के बाद तुरंत किया जाना चाहिए ताकि उसकी मासिक किस्त कम हो सके। 
  5. आय के प्रमाण के रूप में लाभार्थी स्वयं प्रमाणपत्र या शपथ-पत्र प्रदान कर सकते हैं। 
  6. निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी में बनाए जाने वाले सस्ते आवासों के तहत 35 प्रतिशत आवास आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्गों के लिए होने चाहिए और इसका न्यूनतम परियोजना आकार 250 से अधिक आवास होना चाहिए। 
  7. केंद्रीय मंत्रालय/अभिकरण भी अपनी जमीनों पर झुग्गी पुनर्विकास परियोजनाएं क्रियान्वित करेंगे जिनके लिए वे किसी प्रकार का भूमि शुल्क नहीं लेंगे और इसके लिए वे केंद्रीय अनुदान के लिए पात्र रहेंगे। 
  8. यथास्थान  झुग्गी पुनर्विकास के तहत निजी विकासकर्ताओं (डेवलपर) का चयन खुली निविदा प्रक्रिया के माध्यम से किया जायेगा और निर्माण की अवधि के दौरान वैकल्पिक आवास प्रदान करने की जिम्मेदारी निजी भूमि विकासकर्ता की होगी। निजी भूमि विकासकर्ताओं को केवल उतनी ही जमीन दी जानी चाहिए ताकि उनकी यह पुनर्विकास परियोजना वाणिज्यिक दृष्टि से व्यवहार्य हो जाए। 
  9. यह योजना 4041 सांविधिक नगरों वाले समस्त शहरी क्षेत्र का समावेश करेगी, जबकि प्राथमिक ध्यान 500 वर्ग एक के शहरों पर केंद्रित किया जायेगा। और यह निम्नानुसार तीन चरणों में क्रियान्वित की जाएगी - (1) प्रथम चरण (अप्रैल 2015 - मार्च 2017) जिसमें राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा स्वेच्छा से चुने हुए 100 का समावेश किया जायेगा; (2) द्वितीय चरण (अप्रैल 2017 - मार्च 2019) इसमें 200 अतिरिक्त शहर शामिल किये जायेंगे और (3) तृतीय चरण (अप्रैल 2019 - मार्च 2022) इसमें शेष सभी शहरों को शामिल किया जायेगा। हालांकि विभिन्न चरणों में समावेश किये जाने वाले विभिन्न शहरों की संख्या में लचीलापन हो सकता है और यदि राज्यों की ओर से मांग की जाती है और यदि पूर्व के चरणों में उन्हें शामिल करने की उनकी क्षमता है तो अतिरिक्त शहरों के समावेश पर आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय द्वारा विचार किया जा सकता है। योजना का ऋण आधारित अनुवृत्ति घटक प्रारंभ से ही देश भर में सभी सांविधिक शहरों में लागू किया जायेगा। 
  10. वर्तमान में इस कार्य की व्याप्ति 2 करोड़ अनुमानित है। हालांकि आवासों की वास्तविक संख्या मांग पर निर्भर होगी जिसके लिए सभी राज्य/शहर सर्वेक्षण करेंगे और वास्तविक मांग के मूल्यांकन के लिए मांग का विस्तृत मूल्यांकन आधार क्रमांक, जन-धन योजना खाता क्रमांक या अपेक्षित लाभार्थियों के किसी भी अन्य पहचान पत्र के एकीकरण के माध्यम से किया जायेगा।

सस्ते आवास को छोड़कर तीनों मिशन केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं के रूप में क्रियान्वित किये जायेंगे जिनमें ऋण आधारित अनुवृत्ति घटक शामिल होगा। राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों की हिस्सेदारी एक से अन्य राज्य में भिन्न-भिन्न है। अमृत के तहत, राज्यों की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत से कम नहीं होगी और स्मार्ट शहर मिशन के तहत राज्यों/शहरी स्थानीय निकायों की हिस्सेदारी केंद्रीय अनुदान के अनुरूप होनी चाहिए, और शेष राशि की व्यवस्था राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों और शहरी स्थानीय निकायों को करना है। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत यह काम राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों पर छोड़ा गया है जो केंद्र की हिस्सेदारी के बाद बची हुई राशि की व्यवस्था करने के लिए उत्तरदायी हैं।

5.0 चीन से तुलना

भारत में, 2005 से 2025 तक शहरी प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर प्रति वर्ष 6 प्रतिशत रहने का अनुमान है, जबकि चीन की यही वृद्धि दर 7.3 प्रतिशत रहने का अनुमान है। इसके कारण हैं खराब अधोसंरचना, सुशासन का अभाव, इत्यादि। 

चीन ने शहरीकरण परिचालन मॉड़ल के प्रत्येक तत्व में कुछ आतंरिक रूप से स्थायी व्यवस्थाओं का विकास किया हैः वित्त पोषण, सुशासन, नियोजन, क्षेत्रीय नीतियां, शहरीकरण का आकार या स्वरुप, और ये सारी व्यवस्थाएं राष्ट्रीय स्तर पर और इन शहरों में भी लागू की गई हैं। 

5.1 समाधान 

भारत में एक युवा और तेज गति से बढ़ती जनसंख्या है, जो एक संभावित जनसांख्यिकीय लाभांश है। न्यू मेकिंसे ग्लोबल इंस्टिट्यूट का अनुसंधान यह अनुमान लगाता है कि 2030 तक शहर 70 प्रतिशत शुद्ध नए रोजगार निर्माण कर सकते हैं, शायद भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 70 प्रतिशत उत्पादन कर सकते हैं, और समूचे देश की प्रति व्यक्ति आय में चार गुना की वृद्धि कर सकते हैं। यदि भारत अपना शहरी परिचालन मॉड़ल निश्चित कर लेता है, तो इस वृद्धि से वह कार्यशील आयु की जनसंख्या में जनसांख्यिकीय लाभांश अर्जित करने की क्षमता रखता है - कार्यशील आयु बढ़त अगले दशक के दौरान 250 मिलियन रहने की संभावना है। यह लाभांश चीन से भी कहीं अधिक है, जो तेजी से वृद्धावस्था की ओर जा रहा है। 2025 तक, उसके लगभग 28 प्रतिशत निवासी 55 वर्ष से अधिक आयु के हो जायेंगे, जबकि भारत में यह प्रतिशत 16 होगा, जिसका जनसांख्यिकीय पार्श्वचित्र काफी अधिक युवा और ऊर्जावान है। यदि भारत अपने शहरों की उत्पादकता का अनुकूलन कर लेता है, और उनके सकल घरेलू उत्पाद को अधिकतम कर लेता है, तो 2005 से 2025 के दौरान वह अपनी अर्थव्यवस्था की श्रम शक्ति में चीन के 50 मिलियन की तुलना में 170 मिलियन से अधिक शहरी श्रमिकों को जोड़ सकता है। 

गरीबी का उन्मूलन करने के लिए, सरकारी योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन आवश्यक है। इस समस्या से निपटने के लिए जो सरकारी योजनायें उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं वे हैं, स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना (एसजेएसआरवाय), व जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम)। भारत को मलिन बस्ती मुक्त बनाने के लिए 2011 से राजीव आवास योजना नामक एक योजना शुरू की गई। यह योजना शहरीकरण के कारण होने वाले कम लागत के आवासों की आवश्यकता की पूर्ती कर सकती है। 

साथ ही, अनियंत्रित प्रव्रजन को कम करने के लिए जो कदम उठाने चाहियें वे निम्नानुसार हो सकते हैंः

  1. पुरा की अवधारणा का विकास करना, अर्थात, ग्रामीण क्षेत्रों से ग्रामीणों के स्थलांतरण को रोकने के लिए गांवों में ही अधोसंरचना, बिजली, रोजगार, शिक्षा इत्यादि का विकास करना (PURA = प्रोविज़न फॉर अर्बन अमेनिटीज़ इन रूरल एरियाज़) 
  2. ग्रामीणों को उनके कार्य वैज्ञानिक ढंग से करने के लिए प्रशिक्षित करना। इसके लिए 2011 से एक परियोजना चलाई जा रही है, जिसका नाम है राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (एनआरएलएम)
  3. मनरेगा को सक्रिय और पारदर्शी बनाया जाये 
  4. बुनियादी अधोसंरचना को पीपीपी मॉड़ल के आधार पर विकसित किया जाये 
  5. प्रधानमंत्री ग्राम सडक योजना (पीजीएसवाय) को प्रभावी ढंग से क्रियान्वित किया जाये 

भारत को अपने शहरीकरण का प्रबंधन करने के लिए कई क्षेत्रों पर काम करने की आवश्यकता है इनमें से शायद निम्नलिखित सबसे महत्वपूर्ण हैंः समावेशी शहर, शहरी सुशासन, वित्त पोषण, नियोजन, क्षमता निर्मिति, और कम लागत के आवास। भारत को एक राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत करने की भी आवश्यकता है, जहाँ शहरी समस्याओं पर परिणामकारक चर्चा हो और उनके समाधान निकाले जाएँ। 

समावेशी शहरः शहरों में गरीबों और कम आय वाले समूहों को मुख्यधारा में लाना चाहिए। घनत्व को प्रबंधित करने, और प्रव्रजन को हतोत्साहित करने के उद्देश्य से बने हुए नियम भूमि की आपूर्ति को कम करते हैं, और कई परिवारों को उनकी आवश्यकता से अधिक भूमि का उपभोग करने के लिए प्रेरित करते हैं। यह शहरी फैलाव को बढ़ावा देता है, जो सभी के लिए भूमि की कीमतों और सेवा वितरण की लागत में वृद्धि करता है। पार्किंग के उच्च मानक, आच्छादन सीमायें, सड़कों की चौडाई, स्वास्थ्य केंद्रों, विद्यालयों के लिए आरक्षण (आम तौर पर उपयोग ना होने वाले) इत्यादि, गरीबों को अपने सिर पर छत बनाने के लिए सबसे कीमती संसाधनों (शहरी भूमि) का कितना उपभोग किया जाये, इसका चुनाव और कानूनी आवश्यकताओं की पूर्ती करने से प्रतिबंधित करते हैं। 

भारत के अधिकांश शहरों की जनसंख्या के लिए सस्ते आवास के लिए अब केवल अनौपचारिकता का विकल्प ही बचा है। परंतु अनौपचारिकता में अवैधता, और परिणामी भेद्यता शामिल है। जबकि निम्न आय वर्ग आवास और सेवाओं के लिए काफी कीमत चुकाता है, फिर भी वे सामान्य संपत्ति के अधिकार की सुरक्षा से वंचित रहते हैं, और समृद्ध वर्ग की तुलना में उनका निवेश अधिक जोखिम भरा होता है। उन्हें अपने घरों और व्यवसाय स्थानों की सुरक्षा के लिए नौकरशाहों और राजनेताओं की सद्भावना पर निर्भर होना पड़ता है। स्वस्थ शहरीकरण की इन बाधाओं का उच्च मानवी मूल्य चुकाना पड़ता है, और ये उत्पादकता का हृ्रास भी करती हैं। चिरकालिक अनौपचारिकता शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास सुधार को हतोत्साहित करती है। निम्न वर्ग को अपने आप को सुधारने की और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योगदान करने की आवश्यकता है।

शहरी सुशासनः ऐसे सार्थक सुधार होने चाहियें, जो 74 वें संशोधन के अनुसार राज्यों से स्थानीय और महानगरीय निकायों में सत्ता और जिम्मेदारियों का सच्चा हस्तांतरण करने में सक्षम हों। यह इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि 2030 तक भारत के कई सबसे बडे़ शहर आज के कई देशों से भी बडे़ हो जायेंगे। भारत के शहरों के सुशासन में आमूलचूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है वर्तमान में भारतीय शहरों का सुशासन अन्य देशों के बडे शहरों के ठीक विपरीत है, जहाँ महापौरों को लंबी कार्यावधि और शहर के प्रदर्शन के प्रति स्पष्ट जवाबदेही के माध्यम से सशक्त बनाया गया है। भारत को भी अपने 20 सबसे बडे़ महानगरीय क्षेत्रों के लिए महानगरीय और नगरपालिकाओं की संरचना और उनकी भूमिका को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने की आवश्यकता है। शहरों के उनकी सीमाओं के परे विस्तार के चलते भारत के बडे़ शहरों के सफल प्रबंधन के लिए पूर्ण रूप से गठित महानगरीय प्राधिकरणों और उनकी भूमिकाओं की स्पष्ट परिभाषा करना अत्यंत आवश्यक है।

वित्त पोषणः हस्तांतरण को शहरी वित्त पोषण में अधिक सुधारों से समर्थित किया जाना चाहिए, जो राज्यों और केंद्र पर निर्भरता को कम कर देंगे, और आतंरिक राजस्व संसाधनों की निर्मिति को बढावा देंगे। अधिकांश अंतर्राष्ट्रीय उदाहरणों से सुसंगत, ऐसे कई वित्त पोषण के स्रोत हैं जिनका उपयोग भारतीय शहर आज की तुलना में कहीं अधिक हद तक कर सकते हैंः भूमि परिसंपत्तियों का मुद्रीकरणय संपत्ति करों का अधिक संग्रह, उपयोग शुल्क, जो लागतों को प्रतिबिंबित करते हैं; उधार और सार्वजनिक-निजी भागीदारीय और केंद्र/राज्य वित्त पोषण। हालांकि केवल आतंरिक वित्त पोषण ही पर्याप्त नहीं होगा, यहां तक कि बडे़ शहरों में भी नहीं। 

इसका एक हिस्सा केंद्र और राज्य शासन की ओर से आना आवश्यक है। यहाँ हम जे.एन.एन.यू.आर.एम. और राजीव आवास योजना जैसी केंद्रीय योजनाओं का उपयोग कर सकते हैं, परंतु अंततः भारत को तदर्थ अनुदानों के बहाय एक पद्धतिबद्ध सूत्र की ओर बढ़ने की आवश्यकता है। गहरी अर्थव्यवस्था वाले बडे़ शहरों के लिए इसका अर्थ यह हो सकता है कि उन्हें वस्तुओं और सेवाओं के कर (जीएसटी) राजस्व का 20 प्रतिशत अपने पास रखने की अनुमति दे दी जाये। यह 13 वें वित्त आयोग के उस अनुमान से सुसंगत भी है कि जीएसटी, जो एक उपभोग-आधारित कर है, और जो वृद्धि के लिए स्थानीय प्रोत्साहन निर्माण करता है, अतः यह शासन के तीसरे स्तर को सीधे आवंटित करने की दृष्टि से अनुकूल भी है। हालांकि छोटे शहरों के लिए बेहतर विकल्प यह होगा कि उन्हें गारंटीशुदा सुनिश्चित वार्षिक अनुदान प्रदान किया जाये। 

नियोजनः भारत को शहरी नियोजन को एक केंद्रीकृत, सम्मानीय कार्य बना, कुशल लोगों में निवेश, कठोर तथ्य आधार और अभिनव शहरी स्वरुप विकसित करने की आवश्यकता है। इसे ‘‘झरना-रूपी‘‘ नियोजन संरचना के माध्यम से किया जा सकता है, जिसमें बडे़ शहरों के लिए महानगरीय स्तर पर 40 वर्षीय और 20 वर्षीय योजनाएं होती हैं, जो नगर विकास योजनाओं पर बंधनकारक होती हैं। किसी भी शहर में नियोजन का केंद्र बिंदु स्थान का इष्टतम आवंटन होता है, विशेष रूप से भूमि उपयोग और फर्श क्षेत्र अनुपात (एफएआर) का नियोजन। इन दोनों का केंद्रबिंदु यह हो कि निम्न आय वर्ग के लिए नियोजित सस्ते आवासों का क्षेत्र वह निर्धारित करना चाहिए जो सार्वजनिक परिवहन सेवा से आसानी से जोड़ा जा सके। यह नियोजन विस्तृत, व्यापक और लागू करने योग्य होना चाहिए। 

स्थानीय क्षमता निर्माणः हस्तांतरण और सेवा वितरण की गुणवत्ता में सुधार की दृष्टि से शहरी स्थानीय निकायों की क्षमताओं और विशेषज्ञताओं में वृद्धि करना बहुत ही महत्वपूर्ण होगा। सुधारों को शहरी प्रबंधन के कार्यों के लिए पेशेवर प्रबंधकों के विकास पर ध्यान देना होगा, जिनकी संख्या अभी बहुत ही सीमित है, और जिनकी आवश्यकता आने वाले समय में काफी बढ़ने वाली है। निजी और सामाजिक क्षेत्रों में उपलब्ध विशेषज्ञता को प्राप्त करने के लिए नए अभिनव दृष्टिकोणों को खोजना होगा। 

भारत को अपने शहरी प्रशासन में तकनीकी और प्रबंधकीय गहराई निर्माण करनी होगी। भारतीय लोक सेवाओं में भारत के पास इस बात का प्रमाण है कि सुशासन के लिए एक समर्पित संवर्ग किस प्रकार से निर्माण किया जाये। अब भारत को इसी प्रकार का संवर्ग शहरों के लिए निर्माण करना होगा, साथ ही निजी क्षेत्र के अधिकारियों के लिए एक पार्श्व प्रवेश की अनुमति भी प्रदान करनी होगी। 

सस्ता आवासः निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए एक व्यवहार्य मॉडल के अभाव में, जो उनकी आवश्यकताओं की पूर्ती सके, सस्ते आवास वास्तव में एक चिरकालिक समस्या है। भारत इस चुनौती का सामना ऐसी नीतियों और प्रोत्साहनों के माध्यम से कर सकता है, जो सामर्थ्य और कीमतों के बीच की खाई को पाट सकें। इससे एक धारणीय और आर्थिक दृष्टि से व्यवहार्य सस्ता आवास मॉडल, सरकारी आवास एजेंसियों और निजी विकासकर्ताओं, दोनों के लिए निर्माण किया जा सकता है। भारत को किराये के मकानों के विकल्प को भी प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है, विशेष रूप से गरीब से गरीबतम लोगों के लिए, जिनमें इन प्रोत्साहनों के बावजूद अपने लिए आवास निर्माण करने का सामर्थ्य नहीं है। 

भारत के संविधान के 74 वें संशोधन, और जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) के साथ, भारत ने शहरी सुधारों की ओर पहला कदम उठाया है। इससे आगे जाकर केंद्र सरकार को समर्थक प्रोत्साहनों के साथ एक उत्प्रेरक की भूमिका निभानी होगी। राज्यों को इस बात को समझना होगा कि शहरी परिवर्तनों की जल्दी शुरुआत उन्हें एक प्रतियोगी लाभप्रद स्थिति में रखेगी, वे निवेश को आकर्षित कर सकेंगे, और राज्यों में रोजगार निर्मिति होगी, जो उन्हें दूसरे राज्यों की तुलना में कहीं आगे लाकर खड़ा कर देगी। 

इस प्रकार, शहरीकरण हमारे आर्थिक विकास के लिए अच्छा है, परंतु शर्त यह है कि यह नियोजित होना चाहिए। सरकार ग्रामीण या शहरी क्षेत्र के लिए जो भी नीति बनाये उसका प्रभावी क्रियान्वयन होना चाहिए, और वह पारदर्शी होनी चाहिए। सुशासन, और अच्छी अधोसंरचना होनी चाहिए। मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों के जीवन स्तर में भी सुधार लाया जाना चाहिए, क्योंकि वे भी देश के आर्थिक विकास में योगदान देते हैं। अधोसंरचना का विकास बी.ओ.टी. (बिल्ड़, ओन, ट्रांसफर) या बी.ओ.एल.टी. (बिल्ड़, ओन, लीज़, ट्रांसफ) के माध्यम से हो।




















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मुद्दे,15,बोधगम्यता के मूल तत्व,2,भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास,47,भारत का स्वतंत्रता संघर्ष,19,भारत में कला वास्तुकला एवं साहित्य,11,भारत में शासन,18,भारतीय कृषि एवं संबंधित मुद्दें,10,भारतीय संविधान,14,महत्वपूर्ण हस्तियां,6,यूपीएससी मुख्य परीक्षा,91,यूपीएससी मुख्य परीक्षा जीएस,117,यूरोपीय,6,विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं,16,विश्व एवं भारतीय भूगोल,24,स्टडी मटेरियल,266,स्वतंत्रता-पश्चात् भारत,15,
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PT's IAS Academy: यूपीएससी तैयारी - स्वतंत्रता-पश्चात् भारत - व्याख्यान - 4
यूपीएससी तैयारी - स्वतंत्रता-पश्चात् भारत - व्याख्यान - 4
सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
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