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जनसंख्या और इसकी समस्याएं
1.0 प्रस्तावना
सामाजिक अर्थशास्त्र में जनसंख्या के अध्ययन का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। जनगणना द्वारा प्रदान किये गए आंकडे़ सरकार के लिए योजनाएं बनाने और उनके क्रियान्वयन की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण होते हैं। ये हमें भविष्य के बारे में एक अंर्तदृष्टि भी प्रदान करते हैं। आंकडे़ और विकास दर देश की संसाधन आवश्यकताओं की गणना करने के लिए बहिर्वेशित किये जाते हैं। संबंधित संख्याओं की विस्तृत सूची नीचे दी गई है।
2.0 जनसंख्या की गुणवत्ता
जनसंख्या की गुणवत्ता का आकलन देश की जनसंख्या की जीवन प्रत्याशा, साक्षरता का स्तर और देश के लोगों द्वारा अर्जित तकनीकी कौशल्य से किया जा सकता है। 1981 तक, साक्षरता की गणना करते समय यह प्रथा थी कि 0-4 आयु वर्ग के बच्चों को गणना से बाहर रखा जाता था, और फिर साक्षरता के दर की गणना की जाती थी। हालांकि 1991 की जनगणना ने साक्षरता की धारणा को पुनर्परिभाषित किया है। वह ‘‘साक्षरता दर‘‘ शब्द का उपयोग सात वर्ष और उससे अधिक की आयु की जनसंख्या के लिए ही करती है।
इस प्रकार, पूर्व की परिभाषा पर आधारित आंकडे 1991 में स्वीकारी गई परिभाषा पर आधारित आंकड़ों से तुलनीय नहीं हैं। संशोधित परिभाषा के बावजूद साक्षरता दर में 1981 की 43.7 प्रतिशत की तुलना में 1991 में 52.2 प्रतिशत तक का सुधार हुआ। पुरुष साक्षरता की दर में 56.5 प्रतिशत से 64.1 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई, वहीं इसी अवधि के दौरान महिला साक्षरता दर में भी 29.5 प्रतिशत से 39.3 प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज की गई। इसमें कोई शक नहीं है कि 1991 में 352 मिलियन व्यक्ति साक्षर थे, परंतु उसी समय 324 मिलियन निरक्षर लोगों के रूप में निरक्षरता का प्रमाण भी काफी ऊंचा था। 1981-91 के दशक के दौरान साक्षरता दर में 8.5 प्रतिशत की वृद्धि 1971-81 के दशक से कुछ हद तक सुधार दर्शाती है, जब साक्षरता दर में 7 प्रतिशत अंकों की वृद्धि हुई थी। पुरुषों की साक्षरता में 1991 के 64.1 प्रतिशत की तुलना में 2001 में 75.8 तक की वृद्धि दर्ज की गई, और यह दर 2011 में बढ़ कर 82.14 प्रतिशत हो गई। इसी प्रकार, महिला साक्षरता में 1991 की तुलना में 2001 में 52.1 प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज की गई, जो 2011 में बढ़ कर 65.5 प्रतिशत हो गई। 2001-2011 के दशक के दौरान साक्षरता की दर में दर्ज की गई वृद्धि पिछले अन्य दशकों के दौरान दर्ज की वृद्धि दरों की तुलना में सबसे अधिक रही है। साथ ही, न केवल साक्षरता में सुधार हुआ है, बल्कि पुरुष साक्षरता और महिला साक्षरता के बीच का अंतर भी कम हुआ है।
3.0 जनसंख्या में गुणात्मक परिवर्तन
2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की जनसंख्या 121 करोड़ थी। इस पूरी जनसंख्या में 51.5 प्रतिशत पुरुष हैं जबकि 48.5 प्रतिशत महिलाएं हैं। यदि हम 1911 और 1921 के बीच की अवधि को छोड़ दें, तो हम देखेंगे कि जब से जनगणना का प्रयोग शुरू हुआ है तब से पहली बार जनसंख्या की वृद्धि में एक गिरावट की प्रवृत्ति देखी गई है। इसका अर्थ यह है कि 2001 से 2011 के दौरान जनसंख्या में जो वृद्धि दर्ज की गई है, उसकी दर पहले की तुलना में कम है, और दशकीय जनसंख्या वृद्धि में तीव्र गिरावट हुई है। 1991 से 2001 के दशक के दौरान जनसंख्या की वृद्धि दर21.5 प्रतिशत थी, जबकि यही वृद्धि दर 2001 से 2011 के दशक के दौरान 17.6 प्रतिशत रही। पिछले दशक के दौरान देश की जनसंख्या में 18.1 करोड़ नए लोग जुडे, परंतु इस दशक के पहले के दशक के दौरान जनसंख्या में नए जुडे लोगों की संख्या 18.3 करोड थी। इसका अर्थ यह है, कि न केवल जनसंख्या की वृद्धि दर कम थी; बल्कि इस दौरान जनसंख्या में नए से जुड़े निरपेक्ष व्यक्तियों की संख्या भी कम थी। एक और महत्वपूर्ण बात यह है, कि जनसंख्या में हुई 181 मिलियन लोगों की वृद्धि में नए जुडे़ पुरुषों की संख्या की तुलना में नए से जुडी महिलाओं की संख्या अधिक थी। 2001 की जनगणना में ऐसे केवल 15 राज्य थे जिनकी जनसंख्या वृद्धि प्रति वर्ष 2 प्रतिशत से कम थी, जबकि अभी 2011 की जनगणना में 25 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने 2 प्रतिशत से कम जनसंख्या वृद्धि दर दर्ज की है। 15 राज्य/केंद्रशासित प्रदेश तो ऐसे हैं जिन्होंने 1.5 प्रतिशत प्रति वर्ष से कम की जनसंख्या वृद्धि दर दर्ज की है। जनसंख्या वृद्धि के आंकडों के अलावा, जनगणना 2011 ने जनसंख्या में कुछ गुणात्मक परिवर्तनों की ओर भी इशारा किया है।
3.1 अब सुधारित लिंगानुपात
हालांकि 0-6 आयु वर्ग की लड़कियों के अनुपात में कमी आई है, जो निश्चित रूप से चिंता का विषय है, परंतु हमें यह महसूस करना होगा, कि पहली बार समग्र जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि दर में बडे़ पैमाने पर कमी आई है। इस प्रकार, हालांकि 0-6 के आयु वर्ग में लड़कों पर लड़कियों के अनुपात में दर्ज की गई गिरावट प्राथमिक परिणामों द्वारा दर्शायी गई है, फिर भी समग्र रूप से लिंगानुपात में 927 की तुलना में हुई 940 तक की वृद्धि कुछ राहत प्रदान करती है, क्योंकि यह इस बात का संकेत देती है कि देश में महिलाओं की स्थिति पहले की अपेक्षा बेहतर हो रही है। आज का महिला-पुरुष लिंगानुपात 1971 की जनगणना के बाद से सबसे अधिक है। एक समय ऐसा था जब कई राज्यों में लगातार गिरता हुआ महिला-पुरुष लिंगानुपात दिखाई दे रहा था, परंतु अब अधिकांश राज्यों में यह बढ़ रहा है।
इस प्रकार, यह सुधरता हुआ लिंगानुपात इस बात की ओर इशारा करता है, कि केंद्रीय और राज्य की सरकारों के स्तर पर ऐसे कदम उठाये जा रहे हैं जिनसे स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाया जा रहा है, और नागरिक समाज के स्तर पर महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के विरोध में निर्माण की गई जागरूकता के अच्छे परिणाम अब सामने आ रहे हैं। हम ऐसी आशा कर सकते हैं कि भविष्य में महिलाओं और पुरुषों के बीच संतुलन की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है।
3.2 भारत अब पहले की तुलना में अधिक साक्षर है
आंकडे बड़े पैमाने पर साक्षरता की दर में हुए सुधार का संकेत देते हैं। यह सर्व विदित है कि भारत की अधिकांश जनसंख्या 15-35 आयु वर्ग में है, और भारत को ‘‘यंगिस्तान‘‘ माना जाता है, एक ऐसा देश जिसमें युवाओं की संख्या सबसे अधिक है। अतः जनसंख्या की गुणवत्ता देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। पी.पी.पी. आर्थिक दृष्टि से आज भारत विश्व का तीसरा सबसे शक्तिशाली देश है। शिक्षा सुविधाओं में किया जाने वाला सुधार देश को और भी अधिक शक्तिशाली बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। इस दृष्टि से, साक्षरता अनुपात में दर्ज की गई 9 प्रतिशत अंकों की वृद्धि बहुत ही महत्वपूर्ण है। साक्षरता दर में होने वाली और अधिक वृद्धि निश्चित रूप से विकास को और अधिक गतिशीलता प्रदान करेगी।
3.3 बेहतर महिला साक्षरता
आंकडे़ं समग्र जनसंख्या की बेहतर साक्षरता दर की ओर इशारा करते हैं, जिसमें पुरुष साक्षरता एवं महिला साक्षरता, दोनों शामिल हैं। परंतु यह जानना महत्वपूर्ण है कि साक्षरता दर में वृद्धि महिलाओं की जनसंख्या में अधिक है, जो 2001 की 53.7 प्रतिशत की तुलना में 2011 में बढ़ कर 65.5 प्रतिशत हो गई है। इसी अवधि के दौरान पुरुषों के मामले में यह 75.3 से बढ़ कर 82.1 प्रतिशत हो गई है। इस प्रकार, महिलाओं और पुरुषों के बीच की साक्षरता दर में अंतर कम हुआ है। पहले यह अंतर 22.6 प्रतिशत अंक हुआ करता था, जो अब घट कर 17.6 प्रतिशत अंक रह गया है। इस अंतर को और भी कम करने की आवश्यकता है।
3.4 क्षेत्रीय असमानताएं भी कम हुई हैं
जनगणना इस बात का भी संकेत देती है मानव विकास में क्षेत्रीय असमानताएं कम हुई हैं, क्योंकि जनसंख्या की गुणवत्ता की दृष्टि से पिछडे़ राज्यों ने बेहतर परिणाम दिए हैं। 25 राज्यों ने 2 प्रतिशत से कम की जनसंख्या वृद्धि दर्ज की है। पिछडे़ राज्य बेहतर परिणाम दिखा रहे हैं। छह राज्य/केंद्र शासित प्रदेशों ने 6 वर्ष से कम आयु वर्ग की जनसंख्या में लिंगानुपात में सुधार दर्शाया है। साक्षरता के मामले में बिहार, झारखंड, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, और ओडिशा इत्यादि जैसे कम भाग्यशाली राज्यों पहले की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है। उदाहरणार्थ, बिहार में, जहां 2001 में साक्षरत की दर केवल 47 प्रतिशत थी, वह 2011 में बढ़ कर 64 प्रतिशत हो गई है, और झारखंड में साक्षरता दर, जो 53.6 प्रतिशत थी, वह बढ़ कर 67.6 प्रतिशत हो गई है।
3.5 चिंता का प्रमुख कारण
एक चिंताजनक समस्या जिसपर 2011 की जनगणना ने प्रकाश डाला है, वह यह है कि 2011 की जनगणना के अनुसार 2001 की जनगणना की तुलना में 0-6 आयु वर्ग के बच्चों की संख्या 50 लाख से कम हो गई थी। यह सीधे-सीधे पिछले दशक के दौरान जनसंख्या वृद्धि की दर में उससे पिछले दशक की तुलना में हुई कमी का परिणाम है। यह इस बात का भी संकेत है कि पिछले दशक के दौरान अब जन्म दर काफी कम रही है। किंतु इस आयु वर्ग (0-6 वर्ष) में चिंता का मुख्य कारण यह है कि जबकि 2001 में 1000 लड़कों पर लडकियों की संख्या 927 थी, वहीं 2011 में यह संख्या गिर कर 914 रह गई है।
इस प्रकार, केवल 0-6 आयु वर्ग में कम हुए लिंगानुपात के अलावा 2011 की जनगणना के, जनसंख्या वृद्धि दर में कमी, साक्षरता दर, समग्र लिंगानुपात, मानव विकास में क्षेत्रीय असमानताएं जैसे अन्य परिणाम उत्साहवर्धक रहे हैं।
4.0 आर्थिक विकास के एक कारक के रूप में जनसंख्या वृद्धि
आर्थिक विकास की प्रक्रिया में देश के भौतिक संसाधनों का देश की श्रमशक्ति द्वारा किया गया उपयोग शामिल होता है, जिससे देश की उत्पादक क्षमता को अर्जित किया जाता है। इस बात में कोई शक नहीं है कि विकास के इस प्रयास में, देश की श्रमशक्ति सकारात्मक योगदान प्रदान करती है, किंतु साथ ही साथ यह भी सत्य है कि तेजी से बढ़ती जनसंख्या विकास की इस प्रक्रिया को मंदा कर देती है। बढ़ती जनसंख्या का आर्थिक संसाधनों पर खिंचाव कई प्रकार से प्रभाव पघ्ता है। इस प्रकार की स्थिति की समस्याओं का अध्ययन रोचक हो सकता है।
जनसंख्या और राष्ट्रीय और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धिः 1980-81 और 2000-01 के दौरान, शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद की वार्षिक औसत वृद्धि 5.4 प्रतिशत थी और प्रति व्यक्ति उत्पाद (आय) की वृद्धि 3.4 प्रतिशत थी। ऐसा अनुमान है कि अगले तीन दशकों के दौरान जनसंख्या की वृद्धि दर और गिर कर वार्षिक 1.5 प्रतिशत हो जाएगी, जिसका परिणाम प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के रूप में होगा। पूर्व में जनसंख्या की बढती हुई वृद्धि दर प्रति व्यक्ति आय के स्तर की वृद्धि में एक बाधक कारक रहा है।
जनसंख्या और खाद्यान्न आपूर्तिः जब से माल्थस में अपना प्रसिद्ध जनसंख्या पर निबंध लिखा है, तभी से जनसंख्या बनाम खाद्यान्न आपूर्ति की समस्या पर ध्यान केंद्रित रहा है। इस बात में कोई शक नहीं है कि भारत में प्रति व्यक्ति कृषि क्षेत्र धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। 1921 से 2001 के बीच प्रति व्यक्ति कृषि क्षेत्र 1.11 एकड से घट कर 0.32 एकड रह गया है, जो 71 प्रतिशत की गिरावट की ओर इशारा करता है। कृषि भूमि-मनुष्य अनुपात की इस गिरावट की क्षतिपूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि उत्पादकता में वृद्धि के प्रयास किये जाएँ।
1961 और 2011 के बीच, खाद्यान्नों (अनाजों और दालों) का कुल उत्पादन 82 मिलियन टन से बढ़ कर 235 मिलियन टन हुआ है, जो 187 प्रतिशत की वृद्धि को दर्शाता है। परंतु इसी समयावधि के दौरान, जनसंख्या में भी 439 मिलियन से 1210 मिलियन तक की वृद्धि हुई, जो 176 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाती है। परिणामस्वरूप, हालांकि इस अवधि के दौरान ग्रामों में खाद्यान्नों के प्रति व्यक्ति उत्पादन में वृद्धि अवश्य दिखाई दी है, परन्तु यह वृद्धि 512 ग्राम से बढ़ कर 532 ग्राम हुई है, जो बहुत ही मामूली वृद्धि है। यहां यह तथ्य ध्यान में रखना होगा कि वास्तव में इसे प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता के रूप में नहीं माना जा सकता, क्योंकि शुद्ध उपलब्धता में शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन, शुद्ध आयात और सरकारी भंडारों में हुआ शुद्ध परिवर्तन शामिल होता है। शुद्ध उत्पादन को सकल उत्पादन का 87.5 प्रतिशत माना जाता है, क्योंकि 12.5 प्रतिशत को चारे, बीजों की आवश्यकता और अपव्यय के रूप में माना जाता है। चूंकि जनसंख्या वृद्धि का एक बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों में पाया जाता है, अतः इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कुल खाद्यान्न उत्पादन का एक बडा भाग पारिवारिक उपभोग के लिए खर्च होगा और बिक्रीयोग्य अधिशेष काफी कम बचेगा। ये निराशाजनक चेतावनियां हैं, जो परिवार नियोजन की आवश्यकता पर बल देती हैं।
जनसंख्या और बेरोज़गारीः बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ ही समाज की बढ़ती हुई श्रम शक्ति भी आती है। अतः यह बेरोज़गारी की समस्या के समाधान को और भी अधिक कठिन बना देती है। एनएसएस डेटा (55 वां चक्र) के आधार पर, यह ज्ञात हुआ है कि बेरोज़गारों की संख्या 1993-94 की 20.13 से बढ़ कर 1999-2000 में 26.58 मिलियन हो गई थी। श्रम शक्ति के अनुपात के रूप में, बेरोजगारी 1993-94 के 6.0 प्रतिशत से बढ़ कर 1999-2000 में 7.32 प्रतिशत तक पहुँच गई थी। 11वीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण पत्र के अनुसार, 2004-05 में बेरोजगारी की दर और भी अधिक बढ़ कर 8.3 प्रतिशत हो गई थी। 2011 में यह बढ़ कर 10.5 प्रतिशत हो गई। बेरोजगारों की संख्या में यह निरपेक्ष और सापेक्ष वृद्धि दर्शाती है कि नियोजन के पिछले 55 वर्षों के दौरान, पंचवर्षीय योजनाएं श्रम शक्ति में होने वाली इस शुद्ध वृद्धि को अवशोषित करने में भी असफल रही हैं, अतः बेरोज़गारों के बकाया को समाप्त करने के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता। भविष्य में बेरोज़गारी की यह समस्या और भी कहीं अधिक गंभीर हो जाएगी। निश्चित रूप से, राष्ट्रीय संसाधनों के एक बडे़ भाग का उपयोग रोजगार के अवसरों को विस्तारित करने में लगाने की आवश्यकता होगी, ताकि बढ़ती हुई श्रम शक्ति को अवशोषित किया जा सके, और साथ ही बढ़ती हुई जनसंख्या के दबाव के कारण निर्माण हुए बेरोजगारों के बकाया अधिशेष को अवशोषित किया जा सके।
इसके अतिरिक्त, भारत ने अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.9 पैसा प्रतिशत सार्वजनिक स्वास्थ्य पर व्यय किया हैः यह निश्चित ही उस स्तर से बहुत कम है, जो हमें कुपोषण के उन्मूलन और बीमारियों के नियंत्रण के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। इससे गरीब विशेष रूप से प्रभावित होते हैं, क्योंकि वे अपनी जेब से स्वास्थ्य के लिए आवश्यक अधिक निजी व्यय करने में असमर्थ होते हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य पर व्यय के बोझ को सकल घरेलू उत्पाद के 2-3 प्रतिशत तक बढ़ाना इस बात का द्योतक है कि देश की चिकित्सा सुविधाओं में बडे पैमाने पर सुधार करने की आवश्यकता है। केवल यही नहीं, बल्कि बढ़ी हुई जनसंख्या को आवास सुविधा प्रदान करने के लिए भी अतिरिक्त संसाधनों की आवश्यकता है।
जनसंख्या वृद्धि और पूँजी निर्माणः यह नितांत आवश्यक है कि राष्ट्रीय आय उसी गति से बढ़े जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है, ताकि वास्तविक प्रति व्यक्ति आय के वर्तमान स्तर को बनाये रखा जा सके। वर्तमान में भारत की जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर 1.5 प्रतिशत है। अतः प्रति व्यक्ति वास्तविक आय को स्थिर बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि राष्ट्रीय आय 1.5 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़े। इसे प्राप्त करने के लिए पूँजी निवेश आवश्यक है। वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए पूँजी-उत्पादन अनुपात का अनुमान 4.1 है, जो इस बात का द्योतक है कि उत्पादन की प्रत्येक एक इकाई के लिए पूँजी की 4.1 इकाइयों की आवश्यकता है। इस प्रकार, राष्ट्रीय आय को 1.5 प्रतिशत की दर से बढ़ाने के लिए 6.2 प्रतिशत की दर से पूँजी संचय आवश्यक है। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के जॉर्ज सी जेडन ने सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीएनपी) के उस अनुपात का आकलन किया है जिसका प्रति व्यक्ति आय को स्थिर रखने के लिए निवेश किया जाना आवश्यक है। जबकि विकसित देशों में इस उद्देश्य के लिए जीएनपी के जिस अनुपात का अपव्यय किया जाता है वह 5 प्रतिशत से भी कम है, वहीं भारत, कोलंबिया, मोरक्को, ब्राजील, घाना और तुनिशिया जैसे विकासशील देशों में यह 10 प्रतिशत से भी अधिक है (यहाँ अपव्यय से तात्पर्य यह है, कि यह वास्तविक वृद्धि नहीं है बल्कि मुद्रास्फीति के कारण होने वाली नाममात्र वृद्धि है)।
जबकि भूमि और अन्य प्रकार की संपत्ति के स्वामित्व की असमतावादी व्यवस्था, समाज के कमजोर तबके के लिए निर्दिष्ट उपायों पर कम ध्यान देना और 1950-51 से 1993-94 की अवधि के दौरान भारत में आर्थिक विकास की मंद गति जैसे कई अन्य कारक भी इसके लिए (प्रति व्यक्ति आय में कम वृद्धि) प्रमुख रूप से जिम्मेदार रहे हैं, फिर भी इस स्थिति में जनसंख्या वृद्धि भी एक महत्वपूर्ण कारक रहा है।
5.0 शहरीकरण और दिल्ली-मुंबई
2011 में आयोजित भारत की 15वीं जनगणना ने कई रोचक तथ्य प्रस्तुत किये हैं। 2011 की जनगणना दर्शाती है कि जनसंख्या वृद्धि की दर देश के दो सबसे अधिक जनसंख्या वाले शहरों-दिल्ली और मुंबई- में तीव्र गति से गिरी है। 1991-2001 के दौरान दिल्ली की जनसंख्या में 44.3 लाख की वृद्धि हुई, जबकि मुंबई (द्वीपीय शहर और उपनगरों को मिलाकर) की जनसंख्या में 20 लाख की। दशकीय वृद्धि दर के मान से, दिल्ली की जनसंख्या में 47 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि उसी दशक में मुंबई की जनसंख्या में 20 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यह जानना रोचक है कि उस दशक में, 1991-2001 में समग्र रूप से भारत की जनसंख्या में 21.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। अब जबकि अगले दशक 2001-11 के दौरान समग्र भारत की दशकीय जनसंख्या में 17.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है, वहीं दिल्ली और मुंबई की जनसंख्या वृद्धि में एक अनुपातहीन कमी दर्ज की गई है। 2001-11 के दशक के दौरान दिल्ली की जनसंख्या वृद्धि पिछले दशक की 47 प्रतिशत वृद्धि दर की तुलना में 21 प्रतिशत से कम दर्ज की गई है। एक अन्य महानगर मुंबई ने जनसंख्या वृद्धि में और भी अधिक कमी दर्ज की है, जो मात्र 4.2 प्रतिशत रही है। यदि हम मुंबई को द्वीपीय शहर और मुंबई उपनगरों में उपविभाजित करें, तो हम देखते हैं कि द्वीपीय मुंबई शहर की जनसंख्या में 5.75 प्रतिशत की वृद्धि (कमी) दर्ज की गई है, जबकि मुंबई उपनगरीय जनसंख्या में धनात्मक परंतु अपेक्षाकृत कम वृद्धि दर दर्ज की गई है, जो 8 प्रतिशत रही है। इस प्रकार, जबकि 1991-2001 के दशक के दौरान मुंबई ने अपनी जनसंख्या में 20 लाख का योगदान दिया, वहीं 2001-11 के दशक के दौरान यह योगदान मात्र 5 लाख का रहा, जबकि मुंबई की जनसंख्या 2001 की 1.19 करोड़ से 2011 में बढ़ कर 1.24 करोड़ हुई। परंतु यह भी सत्य है कि जनसंख्या के घनत्व के मान से देखा जाये तो आज भी मुंबई देश का सबसे घनी आबादी वाला शहर है। देश में और विश्व में शहरीकरण के बढ़ते रुझान के बीच महानगरों में जनसंख्या के गिरते आंकडं़े हमें सोचने के लिए मजबूर करते हैं। फिर भी आमतौर पर यह माना जाता है कि देश के अन्य भागों से लोग महानगरों की ओर प्रव्रजन करते हैं, और इस प्रकार महानगरों की भीड़ को बढ़ाते हैं। यह वहां रह रहे लोगों के जीवन की कठिनाइयों में वृद्धि करता है, और विद्यमान अधोसंरचना पर दबाव बढ़ता जाता है।
परंतु 2011 की जनगणना के आंकडें़ एक अलग चित्र की ओर इशारा करते हैं। 2001 से 2011 के बीच समग्र रूप से देश की जनसंख्या में हुई 17.6 प्रतिशत की वृद्धि की तुलना में दिल्ली की जनसंख्या के आकार में 20.96 प्रतिशत की वृद्धि हुई। आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि दिल्ली की जनसंख्या में वृद्धि का एक महत्वपूर्ण कारण है देश के दूसरे भागों से लोगों का दिल्ली की ओर प्रव्रजन। इस धारणा में कुछ भी गलत नहीं है, क्योंकि 1991-2001 के दशक के दौरान भी दिल्ली की जनसंख्या में देश की दशकीय जनसंख्या वृद्धि, 21.5 प्रतिशत, की तुलना में 47 प्रतिशत की वृद्धि हुई। अब जबकि दिल्ली की जनसंख्या में समग्र देश की जनसंख्या में हुई 17.5 प्रतिशत की तुलना में 21 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, अतः ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तव में काफी कम संख्या में लोग दिल्ली में प्रव्रजित हुए हैं। साथ ही यदि हम प्रव्रजन करने वाले लोगों के लिंग अनुपात पर नजर डालें, तो हमें यह दिखता है कि अधिकतर महिलाएं दिल्ली प्रव्रजित हुई हैं। यह इस तथ्य से सिद्ध हो जाता है कि दिल्ली के लिंगानुपात में सुधार हुआ है। जबकि 2001 में प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 821 थी, वहीं 2011 में यह आंकड़ा बढ़ कर 866 हो गया है। भारत का राष्ट्रीय लिंगानुपात 940 महिलाएं प्रति 1000 पुरुष है। इसका अर्थ यह है कि जो लोग पूर्व में भारत के अन्य भागों से दिल्ली में स्थलांतरित हुए हैं, वे अब अपने परिवारों को भी दिल्ली में ला रहे हैं, जिसके कारण दिल्ली के लिंगानुपात और दिल्ली की समग्र जनसंख्या में वृद्धि हो रही है। इस प्रकार दिल्ली में नया प्रव्रजन न्यूनतम रहा है।
हालांकि 21 प्रतिशत की वृद्धि दर के कारण, मूलतः प्राकृतिक वृद्धि के कारण, दिल्ली की जनसंख्या का घनत्व, जो 2001 में प्रति किलोमीटर 9,340 व्यक्ति था, वह 2011 में बढ़ कर 11,297 व्यक्ति हो गया है। जनसंख्या वृद्धि की दर, जो 2001 में 47 प्रतिशत थी, वह पिछले दशक में घट कर 21 प्रतिशत रह गई है, जो एक बड़ी राहत की बात है। यदि जनसंख्या वृद्धि की दर में यह कमी नहीं होती तो यह जनसंख्या घनत्व लगभग 13,700 तक पहुंच गया होता।
जनगणना विभाग इस रुझान के कारणों को स्पष्ट करने का प्रयास करता है। वह कहता है कि एक सामान्य अभियान के रूप में यमुना पुश्ता सहित शहर के विभिन्न भागों से झुग्गियों को हटाने का अभियान और राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के कारण झुग्गियों का विस्थापन इस रुझान का महत्वपूर्ण कारण रहा है। इनमें से कई लोग जो झुग्गियों में रहते थे, उनका पुनर्वास संभव नहीं हो पाया है। झुग्गियों को हटाने के कारण एनडीएमसी क्षेत्र स्वयं की जनसंख्या में कमी आई है। दिल्ली की एनसीटी की जनगणना रिपोर्ट कहती है कि झुग्गियों को हटाने के कारण प्रभावित हुई जनसंख्या की स्थिति के बारे में उसे कोई जानकारी नहीं है। अतः यह माना जा सकता है कि बड़ी संख्या में लोग दिल्ली से बाहर विस्थापित हुए हैं। यह जानना रोचक हो सकता है कि विभिन्न जिलों की जनसंख्या वृद्धि की दर भिन्न-भिन्न रही है, जिसके कारण जनसंख्या के घनत्व में अंतर आया है। उदाहरणार्थ, उत्तर पूर्वी दिल्ली ने पिछले दशक के दौरान जनसंख्या घनत्व में एक बड़ी वृद्धि दर्ज की है। (37 प्रतिशत) पूर्वी दिल्ली ने 27 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की है। मध्य, पश्चिमी और उत्तरी दिल्ली में वृद्धि दर क्रमशः 23 प्रतिशत, 20 प्रतिशत और 15 प्रतिशत रही है। दक्षिण दिल्ली, दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली और नई दिल्ली का जनसंख्या घनत्व क्रमशः केवल 11 प्रतिशत, 5 प्रतिशत और 4 प्रतिशत की दर से बढ़ा। पूर्व में चूंकि भूमि की उपलब्धता अधिक थी, अतः झुग्गियां निर्माण करना आसान था, परंतु अब स्थिति वैसी नहीं रही है। निर्माण गतिविधियों और अन्य अधोसंरचना परियोजनाओं की दृष्टि से दिल्ली के तीव्र गति से विकास के कारण, दिल्ली में स्थानांतरित होकर झुग्गियां निर्माण करना अब एक आसान विकल्प नहीं बचा है। स्थानांतरित जनसंख्या के लिए, दिल्ली में संपत्ति की अति ऊंची कीमतों के कारण, एक बार विस्थापित हो जाने के बाद पुनः स्थापित होना कतई आसान नहीं है।
यह सब तब हो रहा है जब पहले की तुलना में परिवहन, बिजली और पानी इत्यादि जैसी बुनियादी सुविधाएँ काफी बेहतर हैं। मेट्रो सेवा ने दिल्ली वासियों के जीवन में क्रांति ला दी है। परंतु इन सब के बावजूद, दिल्ली की महंगी जीवन-यापन की लागत लोगों को दिल्ली में आकर बसने से प्रतिबंधित कर रही है। अब एक नई प्रवृत्ति उभरने लगी है। बड़ी संख्या में लोग अब दिल्ली की सीमा से बाहर जाकर एनसीआर में बसने लगे हैं, और दिल्ली की सुधारित परिवहन सेवा का फायदा उठाते हुए लोग अब पड़ोसी शहरों, जैसे गाजियाबाद, फरीदाबाद, गुडगाँव, बहादुरगढ़, सोनीपत इत्यादि क्षेत्रों से काम के लिए दिल्ली में आकर वापस लौट जाते हैं।
मुंबई में हुए जनसांख्यिकीय बदलाव इन्ही प्रकार की प्रवृत्तियों की ओर इशारा करते हैं। 2011 की जनगणना के आंकडे मुंबई के उपनगरों में बहुत कम जनसंख्या वृद्धि दर्शाते हैं, वहीं द्वीपीय शहर की जनसंख्या में तो वास्तविक कमी दर्शाते हैं। इन प्रवृत्तियों के लिए शायद वे ही कारण हैं। मुंबई में भी जीवन यापन लागत में भारी मात्रा में वृद्धि हुई है, और यह लगातार जारी है। मुंबई में सीमित भूमि की उपलब्धता जनसंख्या को मुंबई मुख्य शहर और उपनगर मुंबई के बाहर धकेलती है।
6.0 जनसंख्या नीति
जनसंख्या वृद्धि के महत्त्व को इस तथ्य से आंका जा सकता है कि 1991-2001 के दौरान, जनसंख्या में लगभग 183 मिलियन की वृद्धि होकर यह आंकडा 2001 में 1,027 मिलियन हो गया। जिस खतरनाक दर से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, वह एक सकारात्मक जनसंख्या नीति की आवश्यकता को दर्शाती है, ताकि इस तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रण में रखा जा सके।
6.1 परिवार नियोजन और पंचवर्षीय योजनाएं
हालांकि भारत को विश्व के पहले ऐसे देश के रूप में मान्यता प्राप्त है जिसने 1952 में ही परिवार नियोजन कार्यक्रम को आधिकारिक रूप से अपनाया है, फिर भी जनसंख्या वृद्धि के बारे में गंभीर सोच तीसरी पंचवर्षीय योजना के इन तथ्यों से स्पष्ट होती है, जहां कहा गया है कि ‘‘एक उचित अवधि में जनसंख्या वृद्धि को स्थिर करने का उद्देश्य।‘‘ बाद में विभिन्न नीति विषयक दस्तावेजों में लक्ष्य निर्धारित किये गए। तीसरी पंचवर्षीय योजना में पहली बार यह जनसंख्या नियंत्रण का यह लक्ष्य निर्धारित किया गया कि 1973 तक हमें जन्म दर को प्रत्येक 1000 पर 25 तक कम करना है, परंतु इसकी उपलब्धि उम्मीदों से कहीं कम रही। इसी प्रकार, 1968 में लक्ष्य निर्धारित किया गया कि 1978-79 तक अपरिष्कृत जन्म दर को 23 तक लाया जाये, परंतु इस बार भी फिर से हमारी उपलब्धि बहुत ही निराशाजनक रही।
1983 में योजना आयोग द्वारा गठित जनसंख्या नीति पर कार्यदल की सिफारिशों के आधार पर राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (1983) ने यह लक्ष्य निर्धारित किया था कि 2000 तक अपरिष्कृत जन्म दर को 21 तक, अपरिष्कृत मृत्यु दर को 9 तक, शिशु मृत्यु दर को प्रत्येक एक हजार पर 60 तक और परिवार नियोजन अपनाने वाले युगलों की संख्या को 60 प्रतिशत तक लाने के उपायों के माध्यम से शुद्ध प्रजनन दर (एनआरआर) को 1 तक कम किया जायेगा। इसे वर्ष 1995 की योजना में जनसांख्यिकीय लक्ष्य के रूप में अपनाया गया। हालांकि इसकी समीक्षा ने यह स्पष्ट किया कि इस लक्ष्य की प्राप्ति 2006-2011 की अवधि तक ही हो पायेगी। इस प्रकार, हर बार एक जनसांख्यिकीय लक्ष्य निर्धारित किया गया, परंतु हर बार लक्ष्य प्राप्ति की विफलता के कारण इसे बाद की अवधि के लिए पीछे धकेला गया। केवल आठवीं पंचवर्षीय योजना के लिए निर्धारित लक्ष्य, अपरिष्कृत जन्म दर को 1997 तक प्रत्येक हजार पर 26 तक लाना, ही योजना के लिए निर्धारित लक्ष्य के निकट माना गया। परिवार नियोजन के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सरकार द्वारा निम्न उपायों को अपनाया गयाः
- परिवार नियोजन के ज्ञान के प्रसार के लिए प्रेरणा कार्यक्रम आयोजित करना। सीमित परिवार की चेतना प्रसारित करने के लिए समाचार पत्र, रेडियो, टीवी फिल्मों इत्यादि जैसे सभी प्रकार के मास मीडिया का उपयोग किया गया।
- ग्रामीण और शहरी जनसंख्या के सभी वर्गों के लिए गर्भ-निरोधकों की आपूर्ति की गई।
- नसबंदी कराने पर नकद पुरस्कारों के रूप में वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान किये गए।
- पुरुषों और महिलाओं, दोनों के लिए बडे़ पैमाने पर नसबंदी का उपयोग किया गया।
भारत में, परिवार नियोजन कार्यक्रम एक ही प्रकार के उपाय पर केंद्रित नहीं रखा गया था, बल्कि इसमें वे सभी उपाय अपनाये गए जिन्हें आमतौर पर ‘‘कैफेटेरिया दृष्टिकोण‘‘ के रूप में वर्णित किया जाता है, अर्थात, सभी प्रकार के वैज्ञानिक दृष्टि से अनुमोदित गर्भ निरोधकों का उपयोग। परिवार नियोजन के अलावा, हमारी जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए कुछ हद तक सरकार शैक्षणिक और आर्थिक विकास पर भी निर्भर रही। लोगों की शिक्षा के स्तर को ऊपर उठाने का प्रजनन पर एक सामान्य हितकारी प्रभाव पड़ता है। विशेषज्ञों के अनुसारः भारत में किये गए अध्ययनों ने प्रजनन दर और शिक्षा और आर्थिक स्थिति के बीच के संबंधों की पुष्टि की है- छोटे परिवार के लिए प्रेरणा और गर्भनिरोधक विधियों को सफलता पूर्वक अपनाने के उपाय उन वर्गों अधिक सफल होते हैं जो शिक्षित भी हैं आर्थिक रूप से समृद्ध भी हैं।‘‘
6.2 भारत की जनसंख्या वृद्धि पर परिवार नियोजन कार्यक्रमों का प्रभाव
मोटे तौर पर कहा जाय तो परिवार नियोजन कार्यक्रम तीन विधियों का उपयोग करते हैंः
- नसबंदी - जो स्पष्ट रूप से पूर्ण सुरक्षा प्रदान करती है।
- आईयूडी प्रविष्टि - जो, ऐसा माना जाता है कि लगभग 95 प्रतिशत सुरक्षा प्रदान करती है। और
- मौखिक गोलियों का नियमित उपयोग - इनके विषय में भी माना जाता है कि ये पूर्ण सुरक्षा प्रदान करती हैं, परंतु पारंपरिक गर्भ निरोधकों का उपयोग 50 प्रतिशत तक सुरक्षा प्रदान करता है।
आपातकाल के समग्र छत्र के तहत एक क्रूर नसबंदी अभियान शुरू किया गया था, जिसने 1976-77 के दौरान नसबंदी के स्तर को 8.26 मिलियन तक पहुंचा दिया था, परंतु 1977 के आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार के परिणामस्वरूप, जिनमें जबरन नसबंदी की ज्यादतियां एक महत्वपूर्ण मुद्दा था, परिवार नियोजन विभाग पूर्ण रूप से ठंड़ा पड़ गया, और 1977-78 के दौरान नसबंदी 0.95 मिलियन के एक असामान्य निचले स्तर पर पहुँच गई। 1978 -79 के बाद नसबंदी की प्रवृत्ति में धीरे-धीरे वृद्धि होती गई, जो 1978-79 के 1.48 मिलियन से 1981-82 में बढ़ कर 2.79 मिलियन हुई, और इसके भी आगे 1985-86 में बढ़ कर 4.90 मिलियन हो गई। यह बढ़ती हुई प्रवृत्ति इस बात का द्योतक है कि समय के साथ-साथ नसबंदी कार्यक्रम देश में स्थिरता की ओर अग्रसर है।
इसके अतिरिक्त, समय के साथ-साथ उन युगलों के प्रतिशत में भी काफी वृद्धि देखी गई है, जो विभिन्न गर्भ निरोधक साधनों का उपयोग प्रभावी रूप से कर रहे हैं।
6.3 गैर-परिवार-नियोजन उपाय
2001 की जनगणना ने यह तथ्य उजागर किया है कि विवाह के समय की महिलाओं की औसत आयु जिसका अनुमान 1971 के दौरान 17.16 लगाया गया था, वह 2001 में बढ़ कर 18.3 वर्ष हो गई है।
यहां यह बात गौर करने लायक है कि केरल, गुजरात, और पंजाब जैसे राज्यों ने विवाह के समय की औसत आयु में प्रभावी रूप से वृद्धि करने में सफलता पायी है। यह मोटे तौर पर इन राज्यों द्वारा प्राप्त की गई उच्च साक्षरता दर का परिणाम है। यदि वयस्क साक्षरता और सामान्य साक्षरता कार्यक्रमों को मजबूती प्रदान की जाती है तो सामान्य प्रजनन दर (जीएफआर) में और तीव्र गिरावट दर्ज की जा सकती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में भी महिलाओं के 15 से 19 वर्ष के आयु वर्ग में विवाह का जो अनुपात 1971 में 70 प्रतिशत से अधिक था, वह 1981 में घट कर 65 प्रतिशत से भी कम रह गया। आंध्र प्रदेश और हरियाणा में यह प्रवृत्ति और भी सशक्त है। सभी राज्यों में विवाह के समय की औसत आयु में सामाजिक परिवर्तन हो रहे हैं। यह इस तथ्य से भी स्पष्ट होता है कि 15 से 44 वर्ष आयु वर्ग की विवाहित महिलाओं का अनुपात 1961 के 85.75 प्रतिशत से 1981 में घट कर 80.48 प्रतिशत रह गया है। 1981 की जनगणना (यह मानते हुए कि यही प्रवृत्ति जारी रहेगी) अनुमान लगाती है कि 15 से 44 वर्ष आयु वर्ग की विवाहित महिलाओं का अनुपात 1991 में घट कर 77.1 प्रतिशत पर, और 2001 में और भी घट कर 73.6 प्रतिशत पर आ जायेगा। इससे रजिस्ट्रार जनरल यह अनुमान लगाते हैं किः ‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि अगले 20 वर्षों के दौरान जीएफआर द्वारा मापी गई प्रजनन दर में अंदाजन 12 प्रतिशत की कमी आएगी, और यह इस कारण से होगा कि विवाह के समय की आयु में वृद्धि हो रही है, जो एक गैर परिवार नियोजन उपाय है। हालांकि यदि साक्षरता में वृद्धि की प्रवृत्ति की गति बढ़ती है, तो यह कमी और भी तीव्र गति से प्राप्त की जा सकती है। अतः इसे एक निचली सीमा के रूप में माना जाना चाहिए।‘‘
6.4 एक तर्कसंगत जनसंख्या नीति की ओर कदम
विश्व का जनसंख्या वृद्धि का इतिहास दर्शाता है कि उच्च प्रजनन और उच्च शिशु मृत्यु साथ-साथ चलते हैं, और कम प्रजनन के लिए प्रेरणा उस हद तक मजबूत होती है, जिस हद तक शिशु मृत्यु और रुग्णावस्था में कमी आती है। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, जापान इत्यादि जैसे प्रगतिशील देशों में शिशु मृत्यु दर इस हद तक कम हुई है कि यह जन्म लेने वाले प्रति हजार बच्चों में केवल 10 से 15 के स्तर पर रह गई है। इसके विपरीत, भारत में 2006 में भी शिशु मृत्यु दर 57 जितने ऊंचे स्तर पर थी। दूसरा, प्रगत समाजों में बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी, दुर्घटना इत्यादि जैसी जोखिमों के विरुद्ध एक व्यवस्थित रूप से विकसित सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था अस्तित्व में है। भारतीय समाज के शहरी क्षेत्रों में रहने वाला समृद्ध वर्ग भी सामाजिक सुरक्षा की भविष्य निधि, ग्रेच्युटी, वृद्धावस्था निवृत्ति वेतन, जीवन बीमा जैसी योजनाओं के कारण जीवन की जोखिमों से अधिकांश रूप से मुक्त है। अमीर और कुलीन वर्ग के पास बड़े पैमाने पर संपत्ति का स्वामित्व है, और इन संपत्तियों से प्राप्त होने वाली आय उन्हें जीवन की जोखिमों से सुरक्षा प्रदान करती है। इसीलिए समृद्ध परिवारों में छोटे परिवार की प्रेरणा विद्यमान रहती है। इसके विपरीत, गरीब वर्गों में (भारत और चीन, दोनों देशों में) ‘‘पुत्र‘‘ को सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक सुरक्षा माना जाता है। परिणामस्वरूप, एक या दो पुत्र होने की प्रेरणा परिवार के आकार को बढ़ा सकती है। अतः यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, कि गरीब लोगों को छोटे परिवार के लिए प्रेरित करने के लिए रोजगार गारंटी योजना और वृद्धावस्था सुरक्षा उपायों को मजबूती प्रदान की जाय। यह एक प्रगतिशील और नया विचार है।
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम - NREGA - 2006 में शुरू किया गया यह कार्यक्रम सही दिशा में लिया गया कदम है। 65 वर्ष की आयु के वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक सामाजिक सुरक्षा शुरू करने की दिशा में एक शुरुआत की गई है। 2008-09 में सरकार की राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू करने की योजना है, जिसके द्वारा गरीबी रेखा से नीचे आने वाले और असंघटित क्षेत्र में काम करने वाले प्रत्येक श्रमिक को 30000 रुपये का स्वास्थ्य कवर प्रदान किया जायेगा।
अंत में, जनसांख्यिकीविदों के बीच एक विचारधारा का मानना है कि हमारी सामाजिक आर्थिक नीतियों में जनसंख्या और विकास लक्ष्यों को एकीकृत किया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ, वी पी पेठे का तर्क है किः ‘‘तर्कपरकता और नैतिक दृष्टी से आम जनता से तब तक यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वर्तमान वातावरण में छोटे परिवारों के परिणामस्वरूप जो कठिनाइयां निर्मित होंगी वे उन कठिनाइयों से गुजरें, जब तक शिक्षित और आर्थिक रूप से समृद्ध वर्ग भी प्रभावी रूप से यह ना दर्शा दें कि वे भी आर्थिक विकास, सामाजिक परिवर्तन और एक समतावादी सामाजिक व्यवस्था बनाने की सामान्य प्रतिबद्धता के लिए त्याग करने के लिए तत्पर हैं। (विशिष्ट उपभोग को कम करने, आय और संपत्ति लाभों को बाँटने इत्यादि के संबंध में)‘‘ पेठे की विचारधारा के विरुद्ध एक तीखी टिप्पणी करते हुए बी के बनर्जी कहते हैंः ‘‘आय का समतावादी वितरण राजनीतिज्ञों और कुछ अर्थशास्त्रियों के खेलने के लिए एक खिलौना है। परंतु दूर-दूर तक ऐसा कहीं दिखाई नहीं देता कि निकट भविष्य में यह वास्तविकता में परिवर्तित हो पायेगा।‘‘ वे प्रश्न उठाते हैः तो हम समतावादी समाज के आने के लिए कितने समय तक इंतजार करते रहें?
परंतु ये तर्क इस आवश्यकता को नहीं नकार सकते कि हम विकास और समतावादी वितरण के कार्यक्रमों पर बल दें, परंतु इस तथ्य को रेखांकित करते हुए कि परिवार नियोजन कार्यक्रम विकास और समतावादी वितरण के कार्यक्रमों से अलग स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ाये जाएँ। हालांकि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि ये दोनों मिलकर एक बेहतर सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था की निर्मिति को सुदृढ़ बनाते हैं।
6.5 परिवार नियोजन और मातृत्व और शिशु स्वास्थ्य (एमसीएच) रणनीतियां
समय के साथ सरकार की इस विषय में समझ बढ़ी है कि परिवार नियोजन तभी सफल हो सकता है जब हमारे देश में शिशुओं की जीवित रहने की दर में वृद्धि हो। सातवीं योजना ने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया था। ‘‘उच्च जन्म दर और उच्च शिशु मृत्यु दर के बीच के संबंध को समझते हुए एमसीएच (मातृत्व और शिशु स्वास्थ्य) कार्यक्रम को उच्च प्राथमिकता दी जाएगी।‘‘ वह आगे कहती है ‘‘दो बच्चों‘‘ के आदर्श को प्राप्त करने के लिए हमारे देश में यह आवश्यक है कि शिशु जीवित रहने की दर बढ़ाई जाय।‘‘ सातवीं योजना के परिवार कल्याण कार्यक्रम की दूसरी प्रमुख प्राथमिकता थी मातृत्व मृत्यु को कम करना।
परिवार नियोजन कार्यक्रमों, जिसे परिवार कल्याण कार्यक्रम के नाम से पुनः नामकरण करके इसका विस्तार बढा दिया गया है, का केंद्रबिंदु था मातृत्व और शिशु स्वास्थ्य की समस्याओं पर ध्यान देना, जो एक सही दिशा में उठाया गया कदम था।
7.0 राष्ट्रीय जनसंख्या नीति (2000)
15 फरवरी 2000 को एनडीए सरकार ने राष्ट्रीय जनसंख्या नीति (2000) को अपनाने का निर्णय इस उद्देश्य से लिया कि दो-बच्चे आदर्श को प्रोत्साहित किया जाये और सन 2046 तक भारतीय जनसंख्या को स्थिर किया जाये। राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की मुख्य विशेषतायें निम्नानुसार हैंः
पहला, सरकार ने निर्णय किया कि 1971 की जनगणना से 42 वें संविधान संशोधन के अनुसार लोक सभा सीटों पर लगाई गई रोक, जो सीटों की संख्या को निर्धारित करने का आधार थी, और जो 2001 तक वैध थी, उसे 2026 तक आगे बढ़ाया जाय। यह इसलिए किया गया ताकि तमिलनाडु, और केरल जैसे राज्य जिन्होंने छोटे परिवार के आदर्श का प्रभावी रूप से पालन किया है, उन्हें वंचित रहने से बचाया जा सके, और उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों को लोक सभा में अधिक सीटें प्रदान करके पुरस्कृत ना किया जाये।
इसके अतिरिक्त, राष्ट्रीय जनसंख्या नीति ने 2046 तक स्थिर जनसंख्या के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निम्नलिखित उपाय हैं।
- शिशु मृत्यु दर को जन्म लेने वाले प्रति 1000 शिशुओं पर 30 के नीचे लाना
- मातृत्व मृत्यु दर को प्रति 1,00,000 जीवित जन्मों पर 100 के नीचे लाना
- सार्वभौमिक टीकाकरण
- 80 प्रतिशत प्रसवों को नियमित औषधालयों, अस्पतालों और चिकित्सा संस्थानों के अधीन प्राप्त करना जहाँ प्रशिक्षित कर्मचारी उपलब्ध हैं
- एड्स की रोकथाम और संक्रामक रोगों की रोकथाम और नियंत्रण संबंधी सूचनाओं और जानकारियों तक पहुँच
- दो बच्चों और छोटे परिवार के आदर्श को अपनाने के लिए उत्तेजन प्रदान करना
- सुरक्षित गर्भपात की सुविधाओं में वृद्धि करना
- बाल विवाह प्रतिबंधक अधिनियम और पूर्व प्रसव निदान तकनीक अधिनियम का कडाई से पालन करवाना
- लडकियों के लिए विवाह की आयु बढ़ाना ताकि 18 वर्ष की आयु से पूर्व उनका विवाह ना कराया जाय, और अधिमानतः इस आयु को 20 वर्ष से अधिक करना
- जो महिलाएं 21 वर्ष की आयु के पश्चात विवाह करें उन्हें, और जो दूसरे बच्चे के बाद गर्भनिरोधक की एक अंतिम विधि को चुनते हैं उन्हें विशेष रूप से पुरस्कृत करना, और
- गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले जो परिवार दो बच्चों के बाद नसबंदी कराते हैं उन्हें स्वास्थ्य बीमा संरक्षण प्रदान करना।
अगले 10 महत्वपूर्ण वर्षों के लिए जो कार्य योजना बनाई गई है, उसमें निम्न बातें शामिल हैंः
- ग्राम पंचायत स्तर के स्वयं सहायता समूह, जिनमें अधिकतर गृहिणियां हैं, वे स्वास्थ्य सेवा कर्मचारियों और ग्राम पंचायतों के साथ संवाद करेंगे
- प्राथमिक शिक्षा को मुत और अनिवार्य बनाया जायेगा और
- जन्म और मृत्यु के साथ-साथ विवाह, और गर्भावस्था का पंजीकरण भी अनिवार्य बनाया जायेगा।
सरकार को आशा थी कि सन 2046 तक जनसंख्या स्थिरता के उद्देश्य को प्राप्त कर लिया जायेगा। अधोसंरचना में सुधार करने के लिए अतिरिक्त 3000 करोड़ रुपये की तुरंत आवश्यकता थी, ताकि गर्भ निरोध की अपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ती की जा सके। हलांकि आलोचकों को लगा कि नई जनसंख्या नीति ने सीमित परिवार की आवश्यकता के सारे बोझ को ‘‘महिलाओं‘‘ पर डाल दिया है। भारतीय परिवार नियोजन संघ की अध्यक्ष डॉ. नीना पुरी ने सरकार की आलोचना करते हुए कहा है किः ‘‘यह नीति पुरुषों की भागीदारी पर ‘‘नरम‘‘ है। नई नीति ने जो संदेश दिया है वह यह है, कि जनसंख्या नियंत्रण का सारा बोझ महिलाएं वहन करेंगी और पुरुषों को आसानी से इस जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया है।‘‘ इस नीति में केवल उन्ही महिलाओं को प्रोत्साहन राशि प्रदान करने का प्रावधान किया गया है, जो दो बच्चों के बाद गर्भनिरोध के अंतिम उपाय अपनाती हैं। अच्छा होता यदि यह नीति उन ‘‘पुरुषों‘‘ को भी प्रोत्साहन राशि प्रदान करती जो दूसरे बच्चे के बाद नसबंदी कराते हैं। इस तर्क में काफी दम था, और सरकार को प्रोत्साहन राशि नीति में उचित संशोधन करना चाहिए ताकि जनसंख्या नियंत्रण का बोझ समान रूप से दोनों भागीदारों पर रखा जा सके-पुरुष एवं महिला।
यह वास्तव में दयनीय है कि वर्तमान में गर्भनिरोधक उपाय के रूप में पुरुष नसबंदी का हिस्सा केवल 6 प्रतिशत है। वास्तव में पुरुष नसबंदी महिलाओं पर की जाने वाली नसबंदी की तुलना में अधिक सरल, सुरक्षित और आसान उपाय है, जबकि महिला नसबंदी अपेक्षाकृत अधिक जटिल प्रक्रिया है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के लिए जनसंख्या स्थिरीकरण पर योजना आयोग द्वारा गठित कार्यदल ने इस बात को स्वीकार किया है कि आपातकाल (1975-77) के दौरान की गई ज्यादतियों बाद पुरुष नसबंदी लोगों की पसंदगी से बाहर हो गई है। हालांकि, पुरुषों को स्वैच्छिक पुरुष नसबंदी के लिए पुरुषों को पुनः शिक्षित करने के लिए एक बड़ा कार्यक्रम हाथ में लेना बहुत आवश्यक है। स्वैच्छिक पुरुष नसबंदी को प्रोत्साहित करने के लिए कुछ प्रोत्साहन राशि का प्रावधान भी किया जा सकता है।
7.1 जनसंख्या अनुमान (2001-26)
राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग द्वारा गठित जनसंख्या अनुमानों पर तकनीकी समूह की 2001-2026 की अवधि से संबंधित रिपोर्ट मई 2006 में प्रस्तुत की गई। दिसंबर 2006 में भारत की जनगणना ने जनसंख्या अनुमानों को संशोधित कर दिया। इस रिपोर्ट के निष्कर्ष 25 वर्ष की अवधि के लिए जनसंख्या के रुझानों और उनको प्रभावित करने वाले विषयों पर प्रकाश डालती है, जिसके राष्ट्रीय और क्षेत्रीय नियोजन के विभिन्न क्षेत्रों के नीति निर्माण में गंभीर निहितार्थ हैं।
रिपोर्ट ने निम्नलिखित मान्यताएं दी हैंः
- 1981-2000 के दौरान कुल प्रजनन दर में अनुभव की गई गिरावट भविष्य में भी जारी रहेगी।
- सभी राज्यों का जन्म के समय का लिंगानुपात भविष्य के वर्षों में स्थिर रहेगा।
- जैसे-जैसे जीवन प्रत्याशा का स्तर ऊंचा होता जाता है, वैसे-वैसे जीवन प्रत्याशा में वृद्धि धीमी होती जाती है
- सभी राज्यों के लिए अनुमान अवधि के दौरान 1999-2001 की अवधि के दौरान का शुद्ध अंतर राज्यीय प्रव्रजन ही कायम रहेगा।
- 1991-2001 के दौरान की शहरी-ग्रामीण वृद्धि भिन्नता को भविष्य के लिए भी 2026 तक की अवधि तक स्थिर माना गया है।
रिपोर्ट इस तथ्य के प्रति जागरूक है कि ‘‘प्रजनन और मृत्यु दर के विषय में भविष्य कालीन अनुमान लगाना आसान काम नहीं है, विशेष रूप से ऐसे समय जब समय के परे देखते समय चिकित्सा और स्वास्थ्य हस्तक्षेप रणनीतियों, खाद्यान्न उत्पादन और उनकी समान उपलब्धता, जलवायु पतिवर्तन, सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्थाओं, राजनैतिक-आर्थिक स्थितियों और जनसंख्या गतिशीलता को प्रभावित करने वाले अन्य अनेक कारकों का प्रभाव पड़ना अवश्यंभावी है। इन निष्कर्षों को इन सीमाओं के तहत समझना आवश्यक है।
- 2001-2026 के दौरान भारत की जनसंख्या 1,029 मिलियन से बढ कर 1,401 मिलियन होने की संभावना है - अर्थात 25 वर्षों में 36 प्रतिशत की वृद्धि, अर्थात, वार्षिक 1.2 प्रतिशत की दर से। इसके परिणामस्वरूप, जनसंख्या का घनत्व 323 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से बढ़ कर 426 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हो जायेगा।
- लिंगानुपात (प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या) कुछ हद तक कम होने की संभावना है, जो 2001-2026 के दौरान 933 से घट कर 930 हो जायेगा।
- 2001-2026 की अवधि के दौरान शिशु जनसंख्या (0-14 आयुवर्ग) भी 35.3 प्रतिशत से घट कर 23.3 प्रतिशत होने की संभावना है।
- इन 25 वर्षों के दौरान कार्यशील आयु समूह जनसंख्या (15-64 वर्ष) में वर्त्तमान 60.1 प्रतिशत से 68.4 प्रतिशत तक की वृद्धि होने की संभावना है।
- 2001-2026 के दौरान शहरी जनसंख्या 286 मिलियन से बढ़ कर 468 मिलियन होने की संभावना है। कुल जनसंख्या के अनुपात के रूप में, यह 2001 के 28 प्रतिशत से 2026 में बढ़ कर 33 प्रतिशत होने की संभावना है।
- 15-24 आयुवर्ग की युवा जनसंख्या 2001 के 195 मिलियन से 2011 में बढ कर 240 मिलियन होने की संभावना है, और फिर इसमें निरंतर गिरावट होकर 2026 में यह 224 मिलियन रहने की संभावना है। कुल जनसंख्या के प्रतिशत के रूप में, यह 2001 के 19 प्रतिशत से घट कर 2026 में 16 प्रतिशत रहने की संभावना है।
7.2 जनसांख्यिकीय संकेतक (2001-2026)
- जनसंख्या वृद्धि में गिरावट निरंतर जारी रहेगी, जो 2001-05 के 1.6 प्रतिशत से 2001-15 में घट कर 1.3 प्रतिशत रह जाएगी, और उसके आगे 2021-25 के दौरान यह और भी कम होकर 0.9 प्रतिशत रह जाएगी।
- कुल प्रजनन में आने वाली गिरावट के कारण अपरिष्कृत जन्म दर 2001-05 की 23.2 प्रतिशत से घट कर 2021-25 के दौरान 16 प्रतिशत हो जाएगी। इसके विपरीत, अपरिष्कृत मृत्यु दर में बहुत कम मात्रा में कमी होगी, जो 2001-05 की 7.5 प्रतिशत से घट कर 2021-25 की अवधि के दौरान 7.2 प्रतिशत रह जाएगी।
- ऐसा अनुमान है कि शिशु मृत्यु दर 2001-05 की 61 प्रतिशत से घट कर 202125 की अवशि के अंत तक 40 प्रतिशत हो जाएगी।
- यह भी अनुमान है कि कुल प्रजनन दर (टीएफआर) 2001-05 की 2.9 से घट कर 2021-25 के दौरान 2.0 प्रतिशत रह जाएगी। इसके साथ, भारित टीएफआर 2015 तक 2.1 के प्रतिस्थापन स्तर तक पहुँच जाएगी
राज्यों के स्तर पर, केरल, तमिलनाडु और दिल्ली, इन तीन राज्यों ने पहले ही टीएफआर प्रतिस्थापन स्तर को प्राप्त कर लिया है। इस संदर्भ में फिसड्डी राज्य हैं झारखंड़, असम, बिहार, राजस्थान, उत्तरांचल, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश।
भारत की जनसंख्या में अनुमानित 371 मिलियन की वृद्धि में से लगभग 187 मिलियन की वृद्धि बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल, (जिन्हें बीमार राज्य कहा जाता है) इन सात राज्यों में होने का अनुमान है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इन 25 वर्षों के दौरान भारत की जनसंख्या में होने वाली कुल वृद्धि में से 57 प्रतिशत वृद्धि इन सात राज्यों में होगी। अकेले उत्तर प्रदेश में ही कुल जनसंख्या में से 22 प्रतिशत जनसंख्या वृद्धि होगी। राज्य-स्तरीय जनसंख्या अनुमानों का एक अध्ययन 2001-26 की संपूर्ण अवधि को दो भागों में विभाजित करता है 2000 से 2011 तक की 10 वर्षों की अवधि और 2011 से 2026 तक की 15 वर्षों की अवधि। प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर अध्ययन ने राज्यों को भी अग्रिम राज्यों और पिछडे़ राज्यों में विभाजित किया है।
नौ ‘‘अग्रिम‘‘ राज्यों में देश की 48.2 प्रतिशत जनसंख्या रहती है, परंतु जैसे ही जनसंख्या वृद्धि की दरें 2001-11 के दौरान 1.2 प्रतिशत और 2011-26 के दौरान 0.8 प्रतिशत तक मंद हो जाएँगी, तो ऐसा अनुमान है कि 2026 में कुल जनसंख्या में इन राज्यों की हिस्सेदारी घट कर 45.4 प्रतिशत तक रहने की संभावना है। केवल हरियाणा और महाराष्ट्र राज्यों को छोड़ कर, जिनमें 201126 के दौरान जनसंख्या वृद्धि क्रमशः 1.4 प्रतिशत और 1.3 प्रतिशत की ऊंची होने की संभावना है, अन्य सभी राज्यों में जनसंख्या वृद्धि की दर में कमी होने का अनुमान है, जो 1 प्रतिशत से भी कम रहने का अनुमान है, और केरल और तमिलनाडु राज्यों में तो 2011-26 की अवधि के दौरान जनसंख्या वृद्धि दर 0.5 प्रतिशत जितनी कम रहने की संभावना है।
- 1940 The subcommittee on Population, appointed by the National Planning Committee set up by the President of the Indian National Congress (Pandit Jawaharlal Nehru), considered ‘family planning and a limitation of children’ essential for the interests of social economy, family happiness and national lanning. The committee recommended the establishment of birth control clinics and other necessary measures such as raising the age at marriage and a eugenic sterilization programme.
- 1946 The Health Survey and Development Committee (Bhore Committee) reported that the control of disease and famine and improvement of health would cause a serious problem of population growth. It considered deliberate limitation of births desirable.
- 1951 The draft outline of the First Five Year Plan recognized ‘population policy’ as ‘essential to planning’ and ‘family planning’ as a ‘step towards improvement in health of mothers and children’.
- 1952 The final First Five Year Plan document noted the ‘urgency of the problems of family planning and population control’ and advocated a reduction in the birth rate to stabilize population at a level consistent with the needs of the economy.
- 1956 The Second Five Year Plan proposed expansion of family planning clinics in both rural and urban areas and recommended a more or less autonomous Central Family Planning Board, with similar state level boards.1959 The Government of Madras (now Tamil Nadu) began to pay small cash grants to poor persons undergoing sterilization as compensation for lost earnings and transport costs and also to canvassers and tutors in family planning.
- 1961 The Third Five Year Plan envisaged the provision of sterilization facilities in district hospitals, subdivisional hospitals and primary health centres as a part of the family planning programme. Maharashtra state organized ‘sterilization camps’ in rural areas.
- 1963 The Director of Family Planning proposed a shift from the clinic approach to a community extension approach to be implemented by auxiliary nurse midwives (one per 10,000 population) located in PHCs. Other proposals included: (a) a goal of lowering the birth rate from an estimated 40 to 25 by 1973; and (b) a cafeteria approach to the provision of contraceptive methods, with an emphasis on free choice.
- 1965 The intrauterine device was introduced in the Indian family planning programme.
- 1966 A full-fledged Department of Family Planning was set up in the Ministry of Health. Condoms began to be distributed through the established channels of leading distributors of consumer goods.
- 1972 A liberal law permitting abortions on grounds of health and humanitarian and eugenic considerations came into force.
- 1976 The statement on National Population Policy, made in the Parliament by the Minister for Health and Family Planning, assigned ‘top national priority and commitment’ to the population problem to bring about a sharp drop in fertility. The Constitution was amended to freeze the representation of different states in the lower house of Parliament according to the size of population in the 1971 Census. The states were permitted to enact legislation providing for compulsory sterilization.
- 1977 A revised population policy statement was tabled in Parliament by a government formed by the former opposition parties. It emphasized the voluntary nature of the family planning programme. The term ‘family welfare’ replaced ‘family planning’.
- 1982 The draft Sixth Five Year Plan adopted a long term goal of attaining a net reproduction rate of 1.0 on the average by 1996 and in all states by 2001. It adopted the targets for crude birth and death rates, infant mortality rate and life expectancy at birth and the couple protection rate, to be achieved by 2001.(The numbers were based on the illustrative exercises of a Working Group on Population Policy set up by the Planning Commission during 1978.)
- 1983 The National Health Policy incorporated the targets included in the Sixth Five-Year Plan document. While adopting the Health Policy, the Parliament emphasized the need for a separate National Population Policy.
- 1993 A Committee on Population, set up by the National Development Council in 1991, in the wake of the census results, proposed the formulation of a National Population Policy.
- 1994 The Expert Group, set up by the Ministry of Health and Family Welfare in 1993, to draft the National Population Policy recommended the goal of a replacement level of fertility (a total fertility rate of 2.1) by 2010. Other proposals of the expert group included (i) removal of method-specific targets down to the grassroots level; (ii) an emphasis on improving the quality of services; (iii) a removal of all incentives in cash or kind; (iv) a National Commission on Population and Social Development under the chairmanship of the prime minister. The draft statement was circulated among the members of Parliament and various ministries at the centre and among the states for comments.
- 1997 The cabinet headed by Prime Minister I. K. Gujral approved a draft National Population Policy, to be placed before the Parliament. With the dissolution of the lower house of Parliament, the action was postponed.
- 1999 Another draft of National Population Policy, placed before the cabinet, was remitted to a Group of Ministers (GOM) headed by the Deputy Chairman of the Planning Commission, to examine the scope for the inclusion of incentives and disincentives for its implementation. The GOM consulted various academic experts and women’s representatives and finalised a draft, which was discussed by the cabinet on 19 November 1999, and which was revised further for re-submission.
- 2000 National Population Policy was adopted by the cabinet and announced on February 2000.
- Mission ParivarVikas has been launched to increase access to contraceptives and Family Planning services in 146 high fertility districts.
- Introduction of New Contraceptive Choices: The current basket of choice has been expanded to include the new contraceptives viz. Injectable contraceptive, Centchroman and Progesterone Only Pills (POP).
- Redesigned Contraceptive Packaging: The packaging for Condoms, Oral Contraceptive Pills (OCPs) and Emergency Contraceptive Pills (ECPs) has now been improved and redesigned.
- New Family Planning Media Campaign has been launched to generate demand for contraceptives.
- Family Planning logistics management information system has been developed to track Family Planning commodities.
- Enhanced Compensation Scheme for Sterilization: The sterilization compensation scheme has been enhanced in 11 high focus states (8 Empowered Action Group (EAG), Assam, Gujarat, Haryana)
- National Family Planning Indemnity Scheme - Under this scheme clients are indemnified in the unlikely events of deaths, complications and failures following sterilization.
- Clinical Outreach Team Scheme - The scheme has been launched in 146 Mission ParivarVikas districts for providing Family planning services through mobile teams from accredited organizations in far-flung, underserved and geographically difficult areas.
- A Scheme for ensuring drop back services to sterilization clients has been initiated.
- Post Abortion Family Planning Services have been initiated.
- A Scheme for Home delivery of contraceptives by ASHAs to provide contraceptives at the doorstep of beneficiaries is in operation.
- A Scheme to ensure spacing of births by ASHAs is in operation.
- World Population Day & fortnight as well as Vasectomy Fortnight is observed every yearto boost Family Planning efforts all over the country.
- Post-partum Family Planning is being focused with special emphasis on Post-partum IUCD services.
- Quality Assurance Committees have been established in all state and districts for ensuring quality of care in Family Planning.
- Cu IUCD 375 with 5 years effectivity has been introduced in the programme as an alternative to the existing IUCD (Cu IUCD 380A with effectivity of 10 years).
- Male participation is being emphasized upon.
- Private/ NGO facilities have been accredited to increase the provider base for family planning services under PPP.
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