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भारतीय नौसेना
1.0 प्रस्तावना
भारत का समुद्री इतिहास 3000 वर्षों से भी अधिक पुराना है। विश्व की पहली ज्वारीय गोदी का निर्माण 2300 ईसा पूर्व में, सिंधु घाटी की सभ्यता के दौरान गुजरात तट के वर्तमान मांगरोल बंदरगाह के निकट लोथल में किया गया था। आज भारतीय नौसेना हिन्द महासागर क्षेत्र में शांति, प्रशांति और स्थिरता के लिए उत्प्रेरक है। वह अन्य समुद्री देशों को दोस्ती और सहयोग का हाथ देने में भी शामिल रही है।
भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के समय, भारतीय शाही नौसेना में 32 पुराने हो चुके जहाज, जो केवल तटीय गश्त के ही काम के थे, और 11,000 अधिकारी और सैनिक शामिल थे। वरिष्ठ अधिकारी शाही नौसेना से लिए जाते थे, जिनमें रियर एडमिरल आई.टी.एस. हॉल स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पहले प्रधान सेनापति (कमांडर इन चीफ) थे। 26 जनवरी 1950 को भारत के एक गणराज्य के रूप में गठन के बाद उपसर्ग ‘‘शाही‘‘ को हटा दिया गया था। भारतीय नौसेना के पहले प्रधान सेनापति थे एडमिरल सर एडवर्ड पैरी, केसीबी, जिन्होंने अपना प्रभार एडमिरल सर मार्क पिजे़, केसीबी, सीबी, डीएसओ को 1951 में सौंपा। सर पिजे़, 1955 में पहले नौसेना प्रमुख भी बने, और उनके उत्तराधिकारी वाईस एडमिरल एस.एच. कार्लिल, सीबी, डीएसओ बने।
22 अप्रैल 1958 को वाईस एडमिरल आर.डी. कटारी ने पहले भारतीय नौसेना प्रमुख के रूप में पदभार ग्रहण किया।
आज भारतीय नौसेना का नेतृत्व नौसेना प्रमुख के हाथ में है, जिसका मुख्यालय नई दिल्ली में है। उनकी सहायता के लिए सहायक नौसेना प्रमुख, कार्मिक प्रमुख, आपूर्ति प्रमुख और उप नौसेना प्रमुख भी वहां हैं।
2.0 इतिहास
1700 ईसा पूर्व के आसपास लिखा गया ऋग्वेद समुद्री मार्गों की जानकारी का श्रेय वरुण को देता है, और यह नौसैनिक अभियानों का भी वर्णन करता है। इसमें प्लव नामक जहाज के दिशा पंखों का भी संदर्भ आया है, जो तूफान की स्थितियों में जहाज को स्थिरता प्रदान करता है। मत्स्य यंत्र (कंपास) का उपयोग 4 थी और 5 वीं शताब्दी ईस्वी में नौवहन के लिए किया जाता था।
मौर्य काल में नौसेना व्यापार का बहुत विकास हुआ। प्राचीन भारत में जहाजों और नौवहन को समर्पित एक संगठन का सबसे प्रारंभिक संदर्भ 4 थी शताब्दी ईसापूर्व के मौर्य साम्राज्य से प्राप्त होता है। महाराजा चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री कौटिल्य के अर्थशास्त्र का एक संपूर्ण अध्याय नवाध्यक्ष (जहाजों के अधीक्षक के लिए संस्कृत शब्द) के तहत जलमार्ग के एक राज्य विभाग को समर्पित है। शब्द नवद्वीपअंतरगमनं (संस्कृत भाषा में ‘जहाज के माध्यम से अन्य भूमियों को नौवहन‘) का उल्लेख भी पुस्तक में है। बौधायन धर्मशास्त्र समुद्रसम्यानम शब्द का उपयोग करता है (संस्कृत में जिसका अर्थ समुद्री यात्रा है)।
समुद्र मार्ग मुख्य रूप से भारतीय संस्कृति के अन्य समाजों में व्यापक प्रभाव के लिए जिम्मेदार हैं, विशेष रूप से हिंदमहासागर क्षेत्र में। शक्तिशाली नौसेनाओं में मौर्य, सातवाहन, चोल, विजयनगर, कलिंग, मराठा, और मुगल साम्राज्यों की नौसेनाएं शामिल थीं। चोलों को विदेशी व्यापार और समुद्री गतिविधियों में महारत हासिल थी, जिसने उनके प्रभाव को चीन और दक्षिणपूर्व एशिया के देशों में फैलाया।
2.1 मराठा नौसेना
सातारा के मराठा सरदार कान्होजी आंग्रे 1674 में छत्रपति शिवाजी, जिन्हें व्यापक रूप से ‘‘भारतीय नौसेना के जनक‘‘ के रूप में श्रेय दिया जाता है, के दूरदर्शी नेतृत्व में मराठा साम्राज्य में स्थापित नौसेना के प्रमुख थे। आंग्रे के साथ ही सामूठीरी के नौसेना प्रमुख कुंजली मरक्कर, भी उस काल के प्रसिद्ध नौसेना सरदार थे। इसकी शुरुआत से ही मराठा नौसेना में जहाजों पर लदी तोपें भी शामिल थीं। कान्होजी आंग्रे के अधिपत्य में मराठा नौसेना जंजीरा को छोड़कर, जो मुगल साम्राज्य के अधीन था, मुंबई से विंगोरिया (वर्तमान वेंगुर्ला) तक के वर्तमान महाराष्ट्र राज्य के भारतीय पश्चिमी तट की स्वामी थी। 1729 में उनकी मृत्यु तक उन्होंने लगातार ब्रिटिशों और पुर्तगालियों की औपनिवेशिक सत्ता पर आक्रमण किये और ब्रिटिश ईस्ट इंड़िया कंपनी के अनेक जहाजों पर कब्जा किया और उन्हें छोड़ने के बदले में फिरौती वसूल की। 17 वीं और 18 वीं सदियों के दौरान मराठों और केरल के बेडों का विस्तार किया गया, और वे अनेक अवसरों पर ब्रिटिश नौसेनाओं को पराजित करते हुए (उदाहरणार्थ, कलचेल की लड़ाई) उपमहाद्वीप की सबसे शक्तिशाली नौसेना शक्तियां बन गए। मराठा नौसेना के नौसैनिक बेडे़ की समीक्षा रत्नागिरी के दुर्ग में हुई जिसमें कई जहाजों जैसे गुरबों, गलबतों, पालों और ‘‘संगमेश्वरी‘‘ नामक छोटी नौकाओं ने भाग लिया। ‘‘पाल‘‘ एक तीन पालों वाला लडाकू जहाज था, जिसके दोनों ओर से बंदूकें बाहर निकली होती थीं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि अनेक कारणों के चलते वे आगे ब्रिटिशों को भारत में प्रवेश करने से नहीं रोक सके।
2.2 औपनिवेशिक भारतीय नौसेना
1612 में ईस्ट इंडिया ने वाणिज्य की सुरक्षा के लिए गुजरात के सूरत के निकट सुवाली गांव में एक बंदरगाह का निर्माण किया और एक छोटे से नौसैनिक ठिकाने की स्थापना की। कंपनी ने इस बल का नाम ‘माननीय ईस्ट इंडिया कंपनी की नौसेना‘ रखा और पहले लड़ाकू जहाज का आगमन 5 सितंबर 1612 को हुआ।
जब ब्रिटिशों के वाणिज्य का केंद्र बदल कर मुंबई हो गया तो उन्होंने इसका नाम बदलकर बॉम्बे मरीन रख दिया। बॉम्बे मरीन मराठों और सिद्दियों के विरुद्ध लड़ाइयों में व्यस्त रहे और उन्होंने आंग्ल-बर्मा युद्धों में भी भाग लिया। बॉम्बे मरीन ने अनेक भारतीय लस्करों की भर्ती की, परंतु 1928 तक किसी भी भारतीय अधिकारी को कमीशन प्रदान नहीं किया।
1830 में बॉम्बे मरीन महारानी की भारतीय नौसेना बन गई। ब्रिटिशों द्वारा एडन पर कब्जा किये जाने के बाद महारानी की भारतीय नौसेना की प्रतिबद्धताएं बढ़ गईं, जिसका परिणाम सिंधु बेड़े की निर्मिति में हुआ। इसके बाद नौसेना ने 1840 के चीन युद्ध में भाग लिया।
1863 से 1877 तक महारानी की भारतीय नौसेना का नाम फिर से बॉम्बे मरीन बहाल कर दिया गया, जब वह ‘महारानी की भारतीय मरीन‘ बन गई। उस समय इस मरीन में दो डिवीज़नें थीं; कलकत्ता में पूर्वी डिवीज़न और मुंबई में पश्चिमी डिवीज़न।
विभिन्न अभियानों के दौरान प्रदान की गई विभिन्न सेवाओं के सम्मानस्वरूप महारानी की भारतीय मरीन को 1892 में शाही भारतीय मरीन की उपाधि दी गई। इस समय तक इसके पास 50 से अधिक जहाज हो गए थे।
शाही भारतीय मरीन ने दोनों विश्व युद्धों में हिस्सा लिया।
3.0 कमान एवं संगठन
भारतीय नौसेना तीन कमानों का परिचालन करती है। प्रत्येक कमान का नेतृत्व वाईस एडमिरल रैंक के फ्लैग ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ (एफओसी-इन-सी) द्वारा किया जाता है। पूर्वी कमान और पश्चिमी कमान के पास अपने बेडे़ हैं जिनका नेतृत्व रियर एडमिरल द्वारा किया जाता है, और दोनों के पास एक-एक कमोडोर भी हैं जो पनडुब्बियों का नेतृत्व करते हैं। दक्षिणी नौसेना कमान ध्वज अधिकारी समुद्री प्रशिक्षण का मुख्यालय है।
कमान मुख्यालय का स्थान
पश्चिमी नौसेना कमान मुंबई
पूर्वी नौसेना कमान विशाखापट्नम
दक्षिणी नौसेना कमान कोच्ची
इसके अतिरिक्त पोर्ट ब्लेयर स्थित मुख्यालय के साथ अंडमान एवं निकोबार कमान एक एकीकृत त्रिसेवा कमान है, जिसका नेतृत्व कमांडर-इन-चीफ अंडमान एवं निकोबार द्वारा किया जाता है, जो चीफ ऑफ स्टाफ समिति के अध्यक्ष को रिपोर्ट करता है, जिसे कर्मचारियों की सहायता नई दिल्ली स्थित चीफ ऑफ इंटीग्रेटेड स्टाफ द्वारा प्रदान की जाती है। एकीकृत भारतीय नौसेना, भारतीय थलसेना, भारतीय वायुसेना और तटरक्षक बल की अंडमान एवं निकोबार कमान का गठन अंडमान एवं निकोबार द्ववीप समूह में 2001 में की गई थी।
इसका गठन निम्न उद्देश्यों से किया गया थाः
- भारत के भूभाग, लोगों एवं समुद्री हितों के विरुद्ध युद्ध के दौरान या शांति के दौरान निर्मित किसी भी खतरे या आक्रमण को भारतीय सशस्त्र बलों के सहयोग से रोकना या पराजित करना।
- भारत के समुद्री हितों के क्षेत्र में प्रभाव को प्रदर्शित करना, और देश के राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा उद्देश्यों को आगे बढ़ाना।
गोवा से 100 किलोमीटर दूर कारवार में आईएनएस कदम्बा नौसैनिक ठिकाने का गठन भारतीय नौसेना द्वारा 2005 में किया गया। यह मुंबई और विशाखापत्तनम के बाद तीसरा परिचालनात्मक नौसैनिक ठिकाना है, और पहला ऐसा ठिकाना है जिसका संपूर्ण नियंत्रण भारतीय नौसेना के पास है (अन्य दोनों ठिकाने नागरिक नौवहन के साथ बंदरगाह सुविधाएँ साझा करते है, जबकि यह पूर्णतः नौसैनिक ठिकाना है)। बहु-बिलियन डॉलर लागत की सीबर्ड परियोजना के प्रथम चरण के तहत निर्मित यह नौसैनिक ठिकाना इस क्षेत्र का सबसे बडा नौसैनिक ठिकाना है। एशिया की सबसे बड़ी नौसेना अकादमी आईएनएस ज़मोरिन का उद्घाटन एझिमाला में जनवरी 2009 में भारत के प्रधानमंत्री द्वारा किया गया था। पूर्वी तट के लिए 350 मिलियन डॉलर की लागत वाला एक और नौसैनिक ठिकाना विशाखापत्तनम के निकट नियोजित है। यह ठिकाना जो विशाखापत्तनम से 50 किलोमीटर पर स्थित रामबिली मंडल में नियोजित है, इसमें व्यापक वायुयान-रोधी, पनडुब्बी-रोधी और द्विधा गतिवाली (जलधलचर) क्षमता होगी। यह पूर्वी तट ठिकाने विस्तार कार्यक्रम क्षेत्र में चीनी पीएलए नौसेना की बढ़ती गतिविधियों के प्रति सीधी प्रतिक्रिया है।
भारतीय नौसेना मेडागास्कर में श्रवण चौकी गठित कर रही है, और मॉरिशस से किराये पर लिए गए एक प्रवालद्वीप पर एक और चौकी गठित करने की योजना है, ताकि मोज़ाम्बिक के तट और दक्षिणी हिंद महासागर की निगरानी और गश्त की जा सके। भारतीय नौसेना के पास ओमान और वियतनाम में गोदी शायिका के अधिकार भी हैं।
4.0 हिंद महासागर का सामरिक महत्त्व
‘‘आने वाले वर्षों में हिंद महासागर क्षेत्र विश्व शक्तियों और संघर्षों का मंच होगा। यही वह स्थान है जहां लोकतंत्र, ऊर्जा, स्वतंत्रता और धार्मिक स्वतंत्रता के लिए लडे़ जाने वाले युद्ध जीते या हारे जाएंगे।‘‘
राबर्ट डी. कैपलान
किसी समय ‘‘उपेक्षित महासागर‘‘ माना जाने वाला हिंद महासागर आज इस क्षेत्र में प्रमुख महाशक्तियों के पारंपरिक और परमाणु जहाजों की उपस्थिति के कारण, और इसके स्वयं के आर्थिक और सामरिक महत्त्व के कारण राजनीतिक, सामरिक और आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बन गया है। इसके तटवर्ती पट्टे के आसपास हिंद महासागर में 36 देश हैं। इसके अतिरिक्त, यहां 11 पृष्ठ प्रदेश भी हैं, उदाहरणार्थ नेपाल और अफगानिस्तान, जो हैं तो भूमि से घिरे हुए, फिर भी इनकी हिंद महासागर की राजनीति और व्यापार में गहरी रूचि है।
4.1 खनिजों का समृद्ध स्रोत
हिंद महासागर अनेक महत्वपूर्ण खनिजों का समृद्ध स्रोत है। यह क्षेत्र विश्व के स्वर्ण खनन के 80.7 प्रतिशत, टिन के 56.6 प्रतिशत, मैंगनीज के 28.5 प्रतिशत, निकल के 25.2 प्रतिशत और प्राकृतिक रबर के 77.3 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है। 65 प्रतिशत विश्व तेल और 35 प्रतिशत प्राकृतिक गैस की सबसे अधिक टनभारिता हिंद महासागर क्षेत्र में स्थित तटवर्ती देशों से होकर गुजरती है। इस सामरिक महत्त्व ने हिंद महासागर क्षेत्र को आज समकालीन भूराजनीति का अखाड़ा बना दिया है। परमाणु शक्ति से सज्जित पाकिस्तान, चीन और भारत जैसे देशों की उपस्थिति ने स्थिति को और भी अधिक जटिल बना दिया है।
इसीलिए महत्वपूर्ण क्षेत्रीय शक्तियां बड़े पैमाने पर दूसरी आक्रमण क्षमता निर्माण करने और किसी भी क्षेत्रीय या क्षेत्र के बाहर की शक्तियों के वर्चस्व को रोकने के लिए और शक्ति संतुलन बनाये रखने के लिए फ्लीट मिसाइल पनडुब्बियों और एसएलबीएम की तैनाती पर विश्वास व्यक्त कर रही हैं। अमेरिका ने हिंद महासागर में डिएगो गार्शिया में नौसेना ठिकाना स्थापित किया है, जो क्षेत्रीय देशों के लिए न केवल खतरा पैदा कर रहा है बल्कि यह क्षेत्र में अमेरिका के महत्वपूर्ण हितों की रक्षा भी कर रहा है। जहां तक अमेरिका की ‘‘एशिया धुरी‘‘ रणनीति का प्रश्न है, तो हिंद महासागर क्षेत्र में, और इसके आसपास के क्षेत्रों में राजनीतिक संबंधों के अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण निहितार्थ होंगे। अमेरिका के अमेरिकी सामरिक मार्गदर्शक 2012 ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था और सुरक्षा को हिंद महासागर के घटनाक्रमों के साथ जोड़ दिया है, जिसमें भारत की भूमिका को दीर्घकालीन सामरिक भागीदार के स्तर तक बढ़ा दिया है, जो क्षेत्र में ‘‘क्षेत्रीय लंगर के रूप में‘‘ कार्य करेगा। भारत को इसका लाभ अपने फायदे के लिए उठाना चाहिए।
आधिकारिक दस्तावेज ईरान और चीन को दो ऐसे संभावित देशों के रूप में घोषित करते हैं जो अमेरिकी हितों के क्षेत्रों का मुकाबला करने की दृष्टि से विषम साधनों का उपयोग करने के लिए सबसे अधिक संवेदनशील हैं। हिंद महासागर क्षेत्र में भारत-अमेरिकी मिलीभगत ने पाकिस्तान और चीन को उनकी अर्ध-शत्रुतापूर्ण पहल के प्रति सावधान बना दिया है, अतः क्षेत्र में सामरिक प्रतिस्पर्धा और शत्रु राष्ट्रों की पैंतरेबाजी का जवाब देने और उसे प्रतिसंतुलित करने के लिए संसाधन निर्भरता रणनीतियों की तैनाती हो रही है। इस दिशा में भारत अत्यंत सावधानीपूर्वक कदम उठा रहा है।
4.2 ऊर्जा का केंद्रबिंदु
हिंद महासगर ऊर्जा का केंद्रबिंदु है। भारत इस क्षेत्र में अपनी भागीदारी बढ़ाने के प्रयास कर रहा है, और वह ईरान के पठार से थाईलैंड की खाड़ी तक के क्षेत्र में अपने प्रभाव को बढ़ाने के प्रयास में है। शीघ्र ही भारत अमेरिका, चीन और जापान के बाद विश्व का चौथा सबसे बड़ा ऊर्जा उपभोक्ता बनने वाला है। वह अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं में से 33 प्रतिशत के लिए तेल पर निर्भर है, और शीघ्र ही उसके कुल तेल आयात का 90 प्रतशत हिस्सा फारस की खाड़ी से आ सकता है। नौसैनिक शक्ति को विकसित करने का एक अन्य कारण है भारत की ‘‘होर्मुज दुविधा‘‘, या उसकी अपने उन आयातों पर निर्भरता जो खाड़ी से होकर आते हैं, जो पाकिस्तान के मकरान तट के निकट है, जहां चीन पाकिस्तान की गहरे पानी के बंदरगाह विकसित करने में मदद कर रहा है। अपने महत्वपूर्ण हितों की रक्षा करने के लिए, साथ ही साथ स्वयं को एक महासत्ता के रूप में स्थापित करने के लिए भारत अपनी नौसेना में उसी भावना से वृद्धि कर रहा है। अपने 155 युद्ध पोतों के साथ, वर्तमान में ही भारत की नौसेना विश्व की सबसे बड़ी नौसेनाओं में से एक है, और 2015 तक वह अपनी नौसेना के आयुधों में तीन परमाणु-सुसज्जित पनडुब्बियों और तीन विमान-वाहक जहाजों को समाविष्ट करने जा रहा है, जो भारत की नौसेना को ‘नीले पानी की नौसेना‘ बना देंगे। अपनी नौसेना को स्थापित करने में भारत के महत्वपूर्ण उद्देश्य केवल आर्थिक उद्देश्य या सुरक्षा उद्देश्य नहीं है बल्कि ‘‘सामरिक स्वायत्तता‘‘ है। यह भारत के महाशक्ति का दर्जा प्राप्त करने के उद्देश्य के अनुरूप है, और यही कारण है कि अक्सर हम देखते कि भारत हिंद महासागर क्षेत्र में बाहरी शक्तियों की उपस्थिति का विरोध करता रहा है।
संघर्ष और सहयोग की स्थितियां निर्माण करने में ऊर्जा सुरक्षा निर्णायक भूमिका निभाएगी।
वह देश जो हिंद महासागर क्षेत्र में सर्वोपरि स्थिति में बना रहेगा वह शायद केवल पूर्वी-एशिया के लिए ही नहीं, जो भविष्य में विश्व आर्थिक शक्ति का संभावित केंद्र है, बल्कि अन्य क्षेत्रों के लिए भी ऊर्जा के प्रवाह को नियंत्रित करेगा। वर्तमान में विश्व की सबसे सबसे शक्तिशाली नौसैनिक शक्ति, अमेरिका, इस क्षेत्र पर वर्चस्व बनाये हुए है। इस क्षेत्र के देश, विशेष रूप से चीन, इस क्षेत्र में अमेरिकी शक्ति को संतुलित करने का प्रयास कर रहे हैं ताकि उनकी विकसित होती अर्थव्यवस्था और ऊर्जा आवश्यकताओं के मद्देनजर उनके हितों की सुरक्षा हो सके। फारस की खाड़ी से तेल की ढुलाई विश्व के लगभग सभी देशों को हिंद महासागर के रास्ते ही होती है, और चीन, कोरिया और जापान को मलक्का के जलड़मरूमध्य के मार्ग से होती है। अतः यदि कोई शक्ति इस परिवहन जीवन रेखा को नियंत्रित करती है तो तेल का आयात करने वाली कंपनियों को तगड़ा झटका लग सकता है। चूंकि अमेरिका की रणनीति तेल मार्गों पर वर्चस्व और नियंत्रण रखना है, अतः हाल के वर्षों में अमेरिका ने भारत, वियतनाम और सिंगापुर पर विशेष ध्यान दिया है, जो सभी उस मार्ग पर आते हैं।
4.3 सुरक्षा चिंताएं
पाकिस्तान की एकमात्र तटरेखा हिंद महासागर पर है। अतः यह व्यापार और ऊर्जा आपूर्ति के लिए एक महत्वपूर्ण पहुंचबिंदु है। हिंद महासागर में पाकिस्तान के महत्वपूर्ण हित हैं भारत को उसके क्षेत्र के सबसे निकट के क्षेत्रों में वर्चस्व स्थापित करने से रोकना और अपने आयात-निर्यात मार्गों की सुरक्षा करना। हालांकि पाकिस्तान स्वयं भारत की नौसैनिक उपस्थिति के विषय में अपेक्षाकृत अधिक कुछ नहीं कर सकता अतः उसका झुकाव दो बातों की ओर हुआ हैः स्वयं की नौसैनिक शक्ति को बढ़ाना और विशाल बाहरी संतुलकों की उपस्थिति। इसी कारण से पाकिस्तान अमेरिका पर अधिक निर्भरता प्रदर्शित नहीं कर रहा है, क्योंकि भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती हुई सुरक्षा वार्ताओं में अधिक से अधिक ध्यान हिंद महासागर क्षेत्र पर केंद्रित है। इसीलिए वह अब चीन की ओर देख रहा है। चीन की ‘‘मोतियों की माला‘‘ से पाकिस्तान को लाभ होगा, अतः उसने परिचालन के अधिकार चीन को सौंप दिए हैं।
भारत की दृष्टि से क्षेत्र के बाहर की शक्तियों की उपस्थिति से क्षेत्र में तनाव बढ़ता है, जो उसके संवेदनशील हितों के लिए घातक है। भारत उन शक्तियों को प्रतिस्थापित करना चाहता है और क्षेत्र में स्वयं अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है।
30 अप्रैल 2012 को भारत ने अपने नवीनतम नौसेना अड्डे आईएनएस द्वीपरक्षक का उद्घाटन किया जो दक्षिणी नौसेना कमान के तहत कवारात्री द्वीप (लक्षद्वीप समूह) पर स्थित है। यह चीन की उस ‘‘मोतियों की माला‘‘ रणनीति का मुकाबला करने के लिए है जो भारत को हिंद महासागर क्षेत्र के अन्य देशों से काट देना चाहती है। अगले 20 वर्षों के दौरान भारत लगभग 45 बिलियन डॉलर 103 युद्ध पोतों पर व्यय करने की योजना बना रहा है, जिनमें विध्वंसक और परमाणु पनडुब्बियां भी शामिल हैं। इसकी तुलना में, उसी अवधि के दौरान चीन का अनुमानित निवेश 135 जहाजों के लिए लगभग 25 बिलियन डॉलर का है। निश्चित ही, जैसे-जैसे भारत पूर्व और पश्चिम में, ज़मीन पर और समुद्र मे,ं अपने प्रभाव को विस्तारित करता जा रहा है, वैसे-वैसे वह चीन से टकराने के और निकट जाता जा रहा है।
होर्मुज़ के महत्वपूर्ण जलडमरूमध्य पर नियंत्रण के साथ ईरान हिंद महासागर क्षेत्र में उभरने वाली एक अन्य शक्ति है। यह एक ऐसा पारगमन मार्ग है जो क्षेत्र में संघर्ष की शुरुआत का कारण बन सकता है। जैसा स्पष्ट किया जा चुका है, यह पारगमन मार्ग विश्व के अधिकांश भागों को तेल की आपूर्ति करने के लिए जिम्मेदार है। जबकि इस मार्ग पर नियंत्रण अमेरिका के लिए सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, वहीं ईरान के लिए यह कहीं अधिक महत्वपूर्ण है कि वह उसपर अपना नियंत्रण बनाये रखे और अपनी शक्ति को विस्तार करने के लिए एक हथियार के रूप में इसका उपयोग करता रहे। साथ ही साथ इसे अपने परमाणु मुद्दे पर अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ सौदेबाजी करने के लिए उपयोग करता रहे। ईरान इस जलडमरूमध्य को अवरुद्ध करेगा या नहीं यह एक विवादस्पद प्रश्न है; हालांकि, ईरान के अनेक आधिकारिक वक्तव्यों से यह स्पष्ट है कि जहां तक शक्ति संतुलन का प्रश्न है, ईरान इस विकल्प को व्यवहार्य समझता है। सैन्य शक्ति के उपेक्षापूर्ण प्रदर्शन और होर्मुज जलडमरूमध्य को बंद करने की नए सिरे से दी गई धमकियों के साथ, यूरोपीयन यूनियन द्वारा शुरू किये गए तेल प्रतिबंध पर प्रतिक्रिया देते हुए, ईरान ने पश्चिमी देशों को संकेत दे दिया है कि वह आर्थिक युद्ध का निष्क्रिय शिकार हो कर बैठा नहीं रहेगा। दूसरी ओर, होर्मुज़ जलड़मरूमध्य की सुरक्षा बनाये रखना फारस की खाड़ी में ईरान की रक्षात्मक शक्ति संतुलन रणनीति की प्राथमिकता है। उस क्षेत्र की ईरान की नीति पूर्ण जिम्मेदारी का प्रदर्शन करते हुए और क्षेत्र की भूराजनीतिक वास्तविकताओं को समझते हुए, परंतु किसी को भी अपने न्यायसंगत हितों को खतरे में डालने की अनुमति दिए बिना, निश्चित रूप से सोची समझी और तर्कसंगत रहेगी।
हिंद महासागर क्षेत्र एक ऐसे क्षेत्र में विकसित हो रहा है जहां तीव्रता से संरक्षित संप्रभुता (तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्थाओं और सेनाओं के साथ) और आश्चर्यजनक परस्पर निर्भरता (उसकी पाइपलाइन और भू और जल मार्गों के साथ), दोनों विद्यमान हैं। सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में क्षेत्र पर पुर्तगालियों द्वारा किये गए आक्रमण के बाद से संभवतः पहली बार इस क्षेत्र में पश्चिमी देशों की ताकत कमजोर होती जा रही है, हालांकि यह प्रक्रिया सूक्ष्म और सापेक्ष है। हालांकि अमेरिका इसे नए सिरे से बढ़ावा देने का प्रयास कर रहा है, फिर भी वह क्षेत्र में अपनी वर्चस्व की स्थिति शायद निर्मित नहीं कर पायेगा। भारतीय और चीनी इस गतिमान महाशक्ति शत्रुता में प्रविष्ट होने की संभावना है इसीलिए एक बहुपक्षीय व्यवस्था स्थापित होना आवश्यक है, जिसके द्वारा प्रत्येक देश ‘‘समानता से‘‘ अपने उद्देश्यों की ओर आगे बढ़ सकें।
5.0 भारतीय नौसेना के अभियान
गोवाः भारतीय नौसेना की किसी भी अभियान में पहली बार भागीदारी 1961 के गोवा विलय के दौरान हुई जब उसने पुर्तगाली नौसेना के विरुद्ध ऑपरेशन विजय नामक अभियान में भाग लेते हुए सफलता अर्जित की। अनेक गश्ती नौकाओं के साथ एनआरपी अफोंसो द अल्बुकर्क, एनआरपी बार्थोलेम्यु डायस, एनआरपी जोआओ द लिस्बोआ और एनआरपी गोंजाल्विस जार्को नामक चार पुर्तगाली युद्ध पोतों की गोवा दमन एवं दिउ के तट के निकट गश्त के लिए तैनाती की गई थी।
अंत में केवल एनआरपी अफोंसो द अल्बुकर्क ने ही भारतीय नौसैनिक जहाजों के साथ हुए युद्ध को देखा, क्योंकि अन्य जहाज युद्ध की कार्रवाई शुरू होने से पहले ही भाग गए थे। भारतीय नौसेना युद्ध पोतों आईएनएस बेतवा और आईएनएस ब्यास द्वारा अफोंसो द अल्बुकर्क को नष्ट कर दिया गया। अफोंसो के कुछ भाग मुंबई के भारतीय नौसेना संग्रहालय में प्रदर्शन के लिए रखे हुए हैं, जबकि इसका बचा हुआ भाग भंगार के रूप में बेच दिया गया।
1971 का युद्धः 1971 के युद्ध में भारतीय नौसेना ने कराची बंदरगाह पर बमबारी करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 4 दिसंबर को इसने ऑपरेशन ट्राइडेंट की शुरुआत की, जिसके दौरान मिसाइल नौकाओं आईएनएस निर्घात और आईएनएस निपट ने सुरंग भेदी पोत पीएनएस मुहाफिज और विध्वंसक पीएनएस खैबर को डुबो दिया। विध्वंसक पीएनएस शाहजहां को मरम्मत ना हो सकने जैसी स्थिति तक नुकसान पहुंचाया। उनकी इस सफलता के सम्मानस्वरूप 4 दिसंबर को तभी से नौसेना दिवस के रूप में मनाया जा रहा है।
अभियान इतना सफल था कि 6 दिसंबर को पाकिस्तानी नौसेना द्वारा एक भारतीय मिसाइल नौका देखे जाने की झूठी चेतावनी जारी कर दी गई। पाकिस्तानी वायुसेना (पीएएफ) विमानों ने तथाकथित भारतीय नौका पर आक्रमण किया और यह पता लगने से पहले ही, कि वह एक अन्य पाकिस्तानी जहाज पीएनएस ज़ुल्फिकार था, जहाज को काफी नुकसान पहुंचा दिया। इस दोस्ताना गोलीबारी में भारी नुकसान हुआ और अनेक नौसैनिक भी मारे गए।
8 दिसंबर को ऑपरेशन पाइथन के दौरान आईएनएस वीर द्वारा पीएनएस ढ़ाका को बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया गया और कराची के तेल भंड़ारण डिपो को आग लगा दी गई। पश्चिमी मोर्चे पर अरब सागर में अभियान तब समाप्त हो गया जब कराची बंदरगाह पनामा के जहाज गल्फ स्टार के डूबने के कारण उपयोग करने लायक नहीं रह गया। एक भारतीय जहाज आईएनएस खुकरी पाकिस्तानी पनडुब्बी पीएनएस हंगोर द्वारा डुबोई गई थी।
पूर्वी मोर्चे पर पनडुब्बी पीएनएस गाजी को विशाखापत्तनम बंदरगाह के बाहर डुबो दिया गया। विमान वाहक पोत आईएनइस विक्रांत के भारतीय नौसैनिक विमान सी हॉक और अलीज़े ने अनेक गन बोट्स और व्यापारी नौसेना जहाजों को बंगाल की खाडी में डुबोने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय नौसेना द्वारा पूर्वी पाकिस्तान की सफल नाकाबंदी पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण के लिए महत्वपूर्ण कारक साबित हुई।
1971 के बादः 1988 में अब्दुल्ला लुथुफी के नेतृत्व में मालदीव्स के एक समूह द्वारा, जिन्हें प्लोटे संगठन के श्रीलंकाई तमिल भाडे़ के लगभग 200 सैनिकों की सहायता मिल रही थी, तख्तापलट के प्रयास को रोकने के लिए भारतीय सशस्त्र सेनाओं द्वार ऑपरेशन कैक्टस शुरू किया गया। जब भारतीय छतरीधारी सैनिक हुलहुले पर उतरे और उन्होंने वहां का हवाईअड्डा सुरक्षित कर लिया और लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित सरकार को माले में पुर्नस्थापित कर दिया, तो श्रीलंकाई भाड़े के सैनिकों ने मालवाहक जहाज एमवी प्रोग्रेस लाइट का अपहरण कर लिया और अनेक लोगों को बंधक बना लिया, जिनमें मालदीव्स के परिवहन मंत्री और उनकी पत्नी भी शामिल थीं। भारतीय नौसेना के युद्ध पोत आईएनएस गोदावरी और आईएनएस बेतवा ने उस मालवाहक जहाज पर कब्जा कर लिया, बंधकों को छुडाया और भाड़े के सैनिकों को श्रीलंका के तट के निकट गिरफ्तार किया।
2006 के लेबनान युद्ध के दौरान भारतीय नौसेना ने ऑपरेशन सुकून शुरू किया, जिसमें लेबनान से 2280 लोगों को सुरक्षित और सफलतापूर्वक बाहर निकाला गया, जिसमें भारतीय, 436 श्रीलंकाई, 69 नेपाली और 7 लेबनान वासी शामिल थे।
समुद्री डाकुओं के विरुद्ध अभियानः भारतीय नौसेना द्वारा अक्टूबर 2008 में एडन की खाडी में समुद्री डाकुओं के विरुद्ध कार्रवाई शुरू की गई। भारतीय ध्वज-धारी जहाजों का अनुरक्षण करने के अतिरिक्त दूसरे देशों के जहाजों को भी अनुरक्षित किया जा रहा है। वर्तमान में व्यापारी जहाजों का अनुरक्षण अंतर्राष्ट्रीय समर्थन प्राप्त ट्रांजिट कॉरिडोर (आईआरटीसी) के 490 समुद्री मील लंबे और 20 समुद्री मील चौड़े सम्पूर्ण क्षेत्र में किया जा रहा है। अब तक भारतीय नौसैनिक जहाजों ने व्यापारिक जहाजों पर हुए समुद्री डाकुओं के हमलों के 40 प्रयास नाकाम किये हैं। भारतीय नौसेना निरंतर रूप से अन्य देशों के साथ क्षमता वृद्धि और समन्वय के प्रयासों में लगी हुई है, ताकि विश्व से सबसे व्यस्ततम समुद्री मार्गों में से एक को खुला रखा जा सके और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को, विशेष रूप से तेल को, अवरुद्ध होने से बचाया जा सके।
6.0 उपकरण
6.1 विमान वाहक पोत
भारत के सभी सेवा में जहाजों रत (और नौसैनिक ठिकानों) के नाम के आगे उपसर्ग आईएनएस लगा है, जिसका अर्थ है भारतीय नौसैनिक जहाज (इंडियन नेवल शिप) या भारतीय नौसैनिक स्टेशन (इंडियन नेवी स्टेशन)। भारतीय नौसेना बेड़ा देश में निर्मित और विदेशी जहाजों का मिश्रण है। वर्तमान में भारतीय नौसेना के पास दो विमान वाहक पोत सक्रिय सेवा में हैं, जिनके नाम हैं आईएनएस विराट और आईएनएस विक्रमादित्य। प्रथम स्वदेशी निर्मित आईएनएस विक्रांत श्रेणी के जहाज के सेवा में आने के बाद आईएनएस विराट को सेवा निवृत्ति देने की योजना है। 2004 में भारत ने रूसी विमान वाहक पोत एडमिरल गोर्शकोव को 1.5 बिलियन डॉलर के समकक्ष में खरीदा है। इस जहाज की मरम्मत और नए इलेक्ट्रॉनिक हथियार प्रणालियों और सेंसर्स के लिए अतिरिक्त 1.5 बिलियन डॉलर की लागत आई है। आईएनएस विक्रमादित्य का 15 नवंबर 2013 को इसके सेवा में आने के बाद जलावतरण किया गया। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 14 जून 2014 को आईएनएस विक्रमादित्य को औपचारिक रूप से नौसेना में शामिल किया और इसे राष्ट्र को समर्पित किया।
6.2 पनडुब्बियां
भारत ने दो अकुला श्रेणी-2 की परमाणु-सज्ज आक्रमण पनडुब्बियों की निर्मिति को पूर्ण करने के लिए 2 बिलियन डॉलर का भुगतान किया है, जो 40 से 60 प्रतिशत तक तैयार थीं। इन पनडुब्बियों के परिचालन के लिए 300 नौसेना कर्मियों को रूस में प्रशिक्षण प्रदान किया गया। भारत ने रूस के साथ एक सौदा पक्का किया है जिसमें जब इन पनडुब्बियों की किराये की अवधि समाप्त हो जाएगी, तो उसे इन्हें खरीदने का विकल्प उपलब्ध होगा। पहली पनडुब्बी का नाम आईएनएस चक्र रखा गया है, और जो 23 जनवरी 2012 को भारत को सौंपी गई।
अरिहंत श्रेणी के जहाज भारत की पहली स्वदेशी निर्मित परमाणु पनडुब्बियां हैं। इन्हें 2.9 बिलियन डॉलर लागत वाली उन्नत तकनीक जहाज परियोजना के तहत विकसित किया जा रहा है। मुख्य जहाज आईएनएस अरिहंत का वर्तमान में समुद्री प्रशिक्षण किया जा रहा है। इस परियोजना के तहत 4 जहाजों की निर्मिति की जा रही है, और इनके 2023 तक सेवा में प्रविष्ट होने का अनुमान है। ये परमाणु पनडुब्बियां देश की इच्छित परमाणु त्रय का एक महत्वपूर्ण भाग होंगी। रूस से एक और अकुला-2 श्रेणी की पनडुब्बी किराये पर लेने की बातचीत जारी है, क्योंकि रक्षा प्रतिष्ठान भारतीय नौसेना का यह पानी के भीतर का अंग भी सशक्त करने के प्रति गंभीर है।
6.3 आयुध
भारत के पास बड़ी मात्रा में विदेशी बनावट की क्रूज मिसाइल प्रणाली है, जिनमें क्लब एसएस-एन-27 भी शामिल है। उसकी अपनी स्वयं की निर्भय क्रूज मिसाइल भी निर्माण की प्रक्रिया में है। पनडुब्बी प्रमोचित बैलिस्टिक मिसाइल सागरिका, जिसकी मारक क्षमता 700 किलोमीटर है (कुछ सूत्रों का दावा है 1000 किलोमीटर), भारत के परमाणु त्रय का हिस्सा है। एक और सफल कार्यक्रम है यखोंट जहाज रोधी मिसाइल प्रणाली को ब्रह्मोस में अपनाना, जो एनपीओ और डीआरडीओ द्वारा किया जा रहा है। ब्रह्मोस को भारतीय आवश्यकताओं के अनुरूप निर्मित किया गया है, जिसमें बडे़ पैमाने पर भारतीय प्रौद्योगिकी और भागों का उपयोग किया गया है, जिसमें इसकी अग्नि नियंत्रण प्रणाली, परिवाहक निर्माता प्रमोचक और इसकी पोत पर नौसंचालन आक्रमण प्रणाली शामिल है। आईएनएस राजपूत से ब्रह्मोस का सफल परीक्षण भारतीय नौसेना को सटीक भू-आक्रमण क्षमता प्रदान करता है।
6.4 नौसेना रक्षा उपग्रह
भारत का पहला अनन्य रक्षा उपग्रह जीएसएटी-7 यूरोपीय अंतरिक्ष सहव्यवस्था एरियनस्पेस के एरियन 5 रॉकेट से फ्रेंच गयाना के कोउरू अंतरिक्ष पोर्ट से अगस्त 2013 में छोड़ा गया, जिसने देश की समुद्री सुरक्षा को काफी मजबूती प्रदान की है। भारतीय नौसेना बहु-बैंड स्वदेश-निर्मित दूरसंचार अंतरिक्षयान की उपयोगकर्ता होगी। जीएसएटी-7 की रचना और विकास भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) द्वारा किया गया है, और ऐसी आशा है कि यह अपनी सौर कक्षा 74 अंश पूर्व में अगले सात वर्षों तक क्रियाशील रहेगा, और यूएचएफ, एस-बैंड, सी-बैंड और केयू-बैंड प्रसारण क्षमता प्रदान करेगा। अनुमान है कि इसकी केयू-बैंड क्षमता आवाज और वीडियो, दोनों के लिए उच्च घनत्व डेटा संचरण सुविधा प्रदान करेगी।
इस उपग्रह को अतिरिक्त शक्ति प्रदान की गई है, ताकि यह छोटे और चलित (आवश्यक नहीं कि ये भू-आधारित हों) गंतव्यों से भी वार्ता कर सकेगा। उम्मीद है कि यह समर्पित उपग्रह भारतीय नौसेना को हिंद महासागर क्षेत्र में लगभग 3,500 से 4,000 किलोमीटर पदचिन्ह प्रदान करेगा, साथ ही अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में भी, और और इसकी सभी परिचालनात्मक परिसम्पत्तियों को जल और थल दोनों पर वास्तविक समय नेटवर्किंग की क्षमता भी प्रदान करेगा। यह नौसेना को संजाल-उन्मुख वातावरण में कार्य करने में सहायता करेगा।
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