यूपीएससी तैयारी - स्वतंत्रता-पश्चात् भारत - व्याख्यान - 12

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भारत में संगठित अपराध

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1.0 प्रस्तावना

अन्य अधिकांश देशों की तरह ही भारत में भी प्राचीन काल से अपराधी गिरोह संचालित किये गए हैं। ब्रिटिश काल में ‘ठगो’ं‘ की गतिविधियाँ अच्छी तरह से प्रलेखित हैं। एक और प्रसिद्ध अपराधी समूह में अभी हाल तक चंबल क्षेत्र के डकैतों को शामिल किया जाता था (हाल ही में इनके फिर सिर उठाने की खबरें आई हैं)। ऐसे अनेक गिरोह मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश राज्यों में संचालित हुआ करते थे, और लगातार पुलिस कार्रवाई और सामाजिक सुधार आंदोलन के परिणामस्वरूप इन्हें निष्प्रभावी कर दिया गया था। 

संगठित अपराध किसी एक देश की सीमाओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि आज यह एक अंतर्राष्ट्रीय समस्या बन गया है। संगठित आपराधिक गतिविधि प्राचीन काल से ही अलग-अलग रूपों में विद्यमान रही है, परंतु संगठित अपराध की समकालीन गतिविधियाँ इतने असीमित रूप से अधिक जटिल हो गई हैं जितनी वे इतिहास के किसी भी काल में इससे पहले कभी नहीं थीं। मूल संगठित आपराधिक गतिविधि है गैर-कानूनी वस्तुओं और सेवाओं की अनगिनत नागरिक ग्राहकों को की जाने वाली आपूर्ति। यह वैध व्यवसायों और श्रम संघठनों में भी गहराई से शामिल है।

वैध स्वामित्व और नेतृत्व को बाहर खदेड़ने या उन्हें नियंत्रित करने के लिए और जनता से गैर-कानूनी लाभ प्राप्त करने के लिए संगठित अपराधी अवैध तरीके अपनाते हैं - एकाधिकारीकरण, आतंकवाद, जबरन वसूली, और कर चोरी। सरकारी हस्तक्षेप से बचने के लिए संगठित अपराध लोक सेवकों को भ्रष्ट भी बनाते है, और ये अधिकाधिक परिष्कृत होते जा रहे हैं। अगले चरण में, संगठित अपराध के माध्यम से अर्जित पैसे और शक्ति को वैध व्यावसायिक हितों में परिवर्तित कर दिया जाता है।

भारतीय संगठित आपराधिक गतिविधियों के क्षेत्र में जबरन वसूली, संरक्षण धन की मांग, सुपारी हत्या, मद्य तस्करी, जुआ, वैश्यावृत्ति और तस्करी शामिल हैं। गतिविधियों के नए क्षेत्र हैं नशीले पदार्थों की तस्करी, अवैध हथियारों का कारोबार, धन शोधन, मानव तस्करी और अन्य गैर-कानूनी गतिविधियां, जो मुख्य और अनिवार्य रूप से पाशवी बल, हिंसा की धमकी, और आवश्यकता पड़ी तो हिंसा, पर आधारित हैं। 

2.0 संगठित अपराध का अर्थ

संगठित अपराध की एक प्राथमिक परिभाषा निम्नानुसार हो सकती है, ‘‘जो लोग अन्यत्र पर्याप्त लाभ के लिए सामान्यतः दूसरों के साथ काम करते हुए निरंतर गंभीर आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हैं।‘‘ संगठित अपराधी जो एक विशिष्ट आपराधिक गतिविधि या गतिविधियों के समय तक साथ-साथ काम करते हैं, उन्हें ही हम संगठित अपराध गिरोह कहते हैं। 

अमेरिका की 1967 की कार्यबल रिपोर्ट संगठित अपराध की परिभाषा करते हुए कहती है, ‘‘एक ऐसा समाज जो अमेरिकी लोगों और उनकी सरकार के नियंत्रण से बाहर काम करना चाहता है। इसमें किसी बडे़ निगम जितनी ही जटिल संरचना के भीतर काम करने वाले हजारों अपराधी शामिल हैं, और ऐसे कठोर कानूनों के तहत काम करते हैं, जो वैध सरकारों से भी अधिक कसकर लागू किये जाते हैं। इनकी कार्रवाइयां आवेगी नहीं होती, बल्कि ये जटिल षड्यंत्रों का परिणाम होती हैं, जो विशाल लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से गतिविधि के व्यापक क्षेत्रों पर की जाती हैं।‘‘

संगठित अपराध और आपराधिक संगठन ऐसे पदनाम हैं जो उन समूहों या गुटों के लिए प्रयुक्त होते हैं जो अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय या अपराधियों द्वारा संचालित उच्च केंद्रीकृत उद्यमों के स्थानीय समूह के रूप में वर्गीकृत होते हैं, जो सामान्यतः आर्थिक लाभों के लिए अवैध गतिविधि में शामिल होना चाहते हैं। 

संगठित आपराधिक समूह की कोई एक समान संरचना नहीं होती। कुछ ऐसे समूह कार्यरत हैं जो अपराधियों के बंधनमुक्त संजाल में रहते हैं, और जो किसी विशिष्ट आपराधिक गतिविधि की अवधि के लिए एकत्रित होते हैं, और उनके कौशल्य और विशेषज्ञता के अनुसार भिन्न-भिन्न भूमिकाएं निभाते हैं। अनुभवों को साझा करने से (जैसे कि कारावास), या विश्वासप्राप्त व्यक्तियों की सिफारिश से सहयोग को मजबूत बनाया जाता है। कुछ ऐसे हैं जो पारिवारिक या जातीय संबंधों से बंधे होते हैं - कुछ ‘अपराधी परिवार‘ संक्षेप में ये ही हैं। इस संकल्पना को ‘‘गॉडफादर‘‘ फिल्म श्रृंखला में वीटो कोर्लेओन परिवार के चित्रीकरण ने आकर्षक बना दिया था। 

अधिकांश सफल संगठित अपराध समूहों में आमतौर पर कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तियों का एक स्थायी समूह होता है। उनके इर्दगिर्द अधीनस्थों का गुट, विशेषज्ञ, और अन्य अस्थायी सदस्य होते हैं, साथ ही प्रयोज्य सहयोगियों का एक विस्तारित संजाल भी होता है।

3.0 संगठित अपराध की विशेषतायें 

3.1 आपराधिक समूह की विशेषतायें 

निरंतरताः आपराधिक समूह व्यक्तिगत सदस्यों के जीवन के बाद भी कार्यरत रहते हैं, और इनकी संरचना नेतृत्व परिवर्तन को सहन करने के अनुरूप बनी होती है। 

संरचनाः आपराधिक समूह की संरचना पदानुक्रम के अनुसार संजोये परस्पर निर्भर व्यक्तियों के संग्रह के रूप में होती है, जो किसी विशिष्ट कार्य के निष्पादन के प्रति समर्पित होते हैं। यह उच्च संरचित भी हो सकती है, या बिखरी हुई भी हो सकती है। हालांकि यह अत्यंत स्पष्ट होती है क्योंकि इनका दर्जा इनकी शक्ति और अधिकार पर आधारित होता है। 

सदस्यताः प्रमुख अपराध समूह में सदस्यता सीमित होती है, और यह जातीयता, आपराधिक पृष्ठभूमि या समान हितों जैसे समान लक्षणों पर आधारित होती है। संभावित सदस्यों की कड़ी जांच-पडताल की जाती है, और उन्हें उस अपराध समूह के लिए अपनी उपयोगिता और वफादारी सिद्ध करनी पड़ती है। सदस्यता के नियमों में गुप्तता, समूह के लिए कुछ भी कर गुजरने की इच्छा और समूह के संरक्षण का इरादा, जैसे नियम शामिल हैं। वफादारी के बदले में आपराधिक समूह के सदस्यों को आर्थिक लाभ, कुछ प्रतिष्ठा, और कानून प्रवर्तन से संरक्षण प्राप्त होता है। 

अपराधिताः निरंतर आय के लिए आपराधिक समूह निरंतर आपराधिक गतिविधियां करने में विश्वास रखता है। अतः निरंतर आपराधिक षड्यंत्र संगठित अपराध में ही अंतर्निहित है, उदाहरणार्थ, अवैध वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति। 

हिंसाः हिंसा और हिंसा की धमकी अपराधी समूह का अभिन्न अंग हैं। हिंसा या उसकी धमकी का उपयोग सदस्यों के विरुद्ध उन्हें रास्ते पर रखने के लिए किया जाता है, वैसे ही इसका उपयोग समूह के आर्थिक हितों के संरक्षण के लिए बाहरी व्यक्तियों के विरुद्ध किया जाता है। सदस्यों से ऐसी उम्मीद की जाती है कि वे हिंसक कार्य करें, उन्हें अनदेखा करें या उन्हें अधिकृत करें। 

शक्ति/लाभ लक्ष्यः आपराधिक समूह के सदस्यों का लक्ष्य समूह के लाभ को अधिकतम करना होता है। राजनीतिक शक्ति सरकारी अधिकारियों, विधायकों और राजनीतिक पदाधिकारियों को भ्रष्ट बनाने के माध्यम से प्राप्त की जाती है। आपराधिक समूह अपनी शक्ति अपने ‘‘संरक्षकों‘‘ के सहयोग से बनाये रखते हैं, जो समूह और उसके लाभों की सुरक्षा करते हैं।

3.2 संगठित अपराध पर भारत में कानूनी स्थिति 

भारत में कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है। भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची 2 की प्रविष्टि 1 और 2 सार्वजनिक व्यवस्था और पुलिस का उल्लेख करती हैं। विभिन्न राज्य विधानसभाओं ने संगठित अपराध के प्रभाव को काबू में करने और इससे मुकाबला करने के लिए कानून अधिनियमित किये हैं, उदाहरणार्थ, महाराष्ट्र में महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (एमसीओसीए), उत्तर प्रदेश अपराधी एवं असामाजिक गतिविधि (निरोधक) अधिनियम 1986 इत्यादि। केंद्र सरकार के अधिनियमों में भी अपराध से संबंधित कुछ प्रावधान हैं। 

3.2.1 भारतीय दंड संहिता (आईपीसी)

भारतीय दंड संहिता का अनुच्छेद 120-ए आपराधिक षड्यंत्र की परिभाषा निम्नानुसार करता हैः

‘‘जब दो या दो से अधिक व्यक्ति करने के लिए समझौता करते हैं, या किया जाने के लिए कारण बनते हैं 

  1. कोई अवैध कृत्य, या 
  2. अवैध माध्यमों से कोई ऐसा कृत्य जो अवैध नहीं है। 

ऐसे समझौते को आपराधिक षड्यंत्र के रूप में निरूपित किया जाता हैः ‘‘बशर्ते कि एक अपराध के लिए किये गए समझौते के अलावा किया गया कोई भी समझौता तब तक आपराधिक षड्यंत्र नहीं होगा जब तक कि समझौते के अतिरिक्त किया गया कोई कृत्य ऐसा समझौता करने वाले एक या एक से अधिक पक्षों ने उसके अनुसरण में किया है, जो उस प्रयोजन के लिए केवल आनुषंगिक है।‘‘

भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 120-बी में आपराधिक षड्यंत्र के लिए दंड के प्रावधान दिए गए हैं। 

दंड संहिता का अनुच्छेद 391 डकैती की परिभाषा निम्नानुसार करता है, ‘‘जब पांच या उससे अधिक व्यक्ति एकसाथ मिलकर लूट करते हैं या लूट करने का प्रयास करते हैं, या जहां एकसाथ मिलकर लूट करने वाले या लूट करने का प्रयास करने वाले व्यक्तियों की कुल संख्या, और वहां उपस्थित, और ऐसे कृत्य करने या करने के प्रयास में सहायता देने वाले व्यक्तियों की संख्या पांच या उससे अधिक है, तो ऐसा कृत्य करने, करने का प्रयास करने या सहायता करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को ‘‘डकैती‘‘ डालने वाले व्यक्ति के रूप में माना जायेगा।‘‘

दूसरे शब्दों में, यदि पांच या उससे अधिक व्यक्ति चोरी डालने का अपराध करते हैं, तो वे ‘‘डकैती‘‘ करते हैं। 

डकैती की सजा आजीवन कारावास या 10 वर्ष 5 महीने का सश्रम कारावास हो सकती है (अनुच्छेद 395)।

3.2.2 अन्य कानून 

कुछ अन्य केंद्रीय कानून भी हैं, जो संगठित अपराध के विशिष्ट पहलुओं से संबंधित हैं। इनमें से कुछ निम्नानुसार हैंः

  1. सीमा शुल्क अधिनियम, 1962 
  2. नशीले पदार्थ एवं मादक पदार्थ अधिनियम, 1984 
  3. अनैतिक यातायात (निवारण) अधिनियम, 1956
  4. विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973, जिसे विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (एफईएमए) द्वारा 1998 में प्रतिस्थापित किया गया 
  5. सार्वजनिक जुआ अधिनियम, 1867, इत्यादि 

4.0 मुंबई में अपराध जगत का विकास

समकालीन भारत में संगठित अपराध एक जटिल समस्या बन गया है। बढ़ते आकांक्षा पूर्ति अंतराल और सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों ने भी संगठित अपराध में योगदान दिया है। तथ्य यह है कि भारतीय संविधान का लक्ष्य लोकप्रिय, जटिल एवं बहुलवादी लोकतंत्र में सामाजिक-आर्थिक समानता प्राप्त करना था, परंतु इसने ऐसी प्रक्रियाएं निर्मित की हैं जो विचलन एवं अपराध के विभिन्न स्वरूपों के लिए अधिक राजनीतिक वैधता निर्माण करने की पक्षधर हैं। आर्थिक अपराधों में हुई वृद्धि में विभिन्न प्रकार के वित्तीय घोटाले, कर चोरी और धन शोधन शामिल हैं। 

स्वतंत्रता के बाद, महाराष्ट्र सरकार द्वारा अपनायी गई मद्य निषेध नीति के कारण अपराधी गिरोहों के लिए अवैध शराब का व्यापार एक आकर्षक व्यवसाय बन गया। उन्होंने स्थानीय नागरिकों को अवैध शराब की आपूर्ति करके काफी पैसा कमाया। 

उनकी गतिविधियाँ पडोसी गुजरात राज्य तक फैल गईं, जिसे स्वतंत्रता के समय से ही शराब बंदी वाला राज्य घोषित किया गया था, और वह आज भी वैसा ही है। वरदराजन मुदलियार, जिसने विक्टोरिया टर्मिनस (वीटी) रेलवे स्टेशन पर एक कुली के रूप में शुरुआत की थी, उसने मुंबई गोदी पर चोरियां करना शुरू किया और 1960 के दशक में बढ़ कर अवैध शराब की बिक्री करने लगा। उसने ऐसी गतिविधियों से काफी दौलत कमाई और कानून प्रवर्तन व्यवस्था में भी काफी विकृतियां पैदा की। 1980 के मध्य में वह इतना प्रभावशाली बन गया कि वह अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में विवादों को सुलझाने के लिए दरबार लगाता था। 

इसी प्रकार, हाजी मस्तान और यूसुफ पटेल ने भी छोटे अपराधियों के रूप में शुरुआत की, और बाद में सोने और चांदी की तस्करी का काम करने लगे। उन्होंने भी काफी दौलत कमाई और उसका निवेश ‘‘वैध‘‘ व्यवसाय उद्यमों में किया, मुख्य रूप से निर्माण और रियल इस्टेट में। व्यावसायिक दुश्मनी के चलते 1970 के दशक में हाजी मस्तान ने यूसुफ पटेल की हत्या करने का भी प्रयास किया, परंतु वह बच गया। यह मुंबई में गैंगवार की शुरुआत थी, जो आज भी जारी है, और जिसने सैकड़ों जानें ली हैं। 

1970 के दशक में अवैध शराब की बिक्री और मटके की गतिविधियों के आधार पर मुंबई में उभरने वाली एक बड़ी गैंग थी वरदराजन मुदलियार का गिरोह। बाद के वर्षों में, उसने अपनी अवैध गतिविधियाँ तस्करी, गोदी में चोरियां और अनुबंध हत्याओं की ओर मोड़ दीं, और 1980 के दशक तक शहर के अपराध जगत पर एक दशक से अधिक समय तक राज किया।

एक और उदाहरण था गुजरात राज्य के अहमदाबाद का माफिया डॉन अब्दुल लतीफ। उसने भी अपने पेशेवर जीवन की शुरुआत एक छोटे अवैध शराब विक्रेता के रूप में की, और बढ़ते-बढ़ते वह इस स्तर पर पहुंच गया कि राज्य के संपूर्ण अवैध शराब व्यापार पर उसका एकाधिकार हो गया। 1985 में, उसने अपने विरोधी पप्पू खान को गिराने के लिए मुंबई के कुख्यात पठान गैंगस्टर आलमजेब के साथ गठबंधन कर लिया। अहमदाबाद शहर में उसका प्रभाव और शक्ति इतनी बढ़ गई थी कि 1987 के चुनावों में जेल में रहते हुए भी वह पांच अलग-अलग नगरपालिका वार्डों से पार्षद के रूप में निर्वाचित हुआ (1985 में एक पुलिस अधिकारी की हत्या के आरोप में उसे गिरतार किया गया था)। बाद में वह दाऊद इब्राहिम गैंग से जुड़ गया और उसने आलमजेब की हत्या कर दी। जनवरी 1993 में उसे दाऊद से अयोध्या कांड के पश्चात हुए दंगों में उपयोग करने के लिए 57 एके-56 राइफलों और 15,000 कारतूसों की एक खेप प्राप्त हुई। इस प्रकार, कलानुक्रमण में केवल एक सामान्य अवैध शराब विक्रेता अब्दुल लतीफ एक खतरनाक गैंगस्टर-बनाम-आतंकवादी-बनाम-राजनेता बन गया, और गुजरात पुलिस के लिए एक प्रमुख सिरदर्द बन गया। यह तब तक चलता रहा जब तक 10 अक्टूबर 1995 को वह दिल्ली के दरियागंज इलाके में पकड़ा, और बाद में एक पुलिस मुठभेड़ में मारा नहीं गया। उसकी गतिविधियों का क्षेत्र गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र राज्यों तक फैला हुआ था। 

वर्ष 1991 भारत के आर्थिक पुनरुत्थान में एक बड़ा मोड़ था। अर्थव्यवस्था के उदारीकरण और वैश्वीकरण ने देश में विदेशी वस्तुओं और पूंजी के मुक्त प्रवाह की अनुमति दी, और उसके बाद हुए कंप्यूटरीकरण और ई-व्यापार ने देश में साइबर अपराधों को जन्म दिया।  

देश के विदेशी विनिमय भंडार में वृद्धि के उद्देश्य से शुरू की गई सभी योजनाएं हेरफेर के लिए खुली हैं। इस तथ्य को मूल्य आधारित उन्नत अनुज्ञप्ति (वीएबीएएल) योजना के माध्यम से सर्वोत्कृष्ट रूप से समझाया जा सकता है, जहां निर्यात मूल्य के 60 प्रतिशत तक को शून्य आयात शुल्क और विदेशी विनिमय आय को आय कर मुक्तता की अनुमति दी गई थी। इसका परिणाम हवाला (गैर कानूनी धन हस्तांतरण प्रणाली) धंधे में हुआ, जहां बेईमान निर्यातक फर्जी निर्यात ऑर्डर्स के आधार पर निर्यात अनुज्ञप्तियां लेने लगे, और हवाला तंत्र के माध्यम से विदेशी विप्रेषणों की व्यवस्था द्वारा उन्होंने बेहिसाब लाभ कमाया। विशेषज्ञ एम.एन. सिंह ने अनुमान लगाया है कि 1994 में देश में हुआ कुल हवाला लेनदेन प्रतिवर्ष 305 बिलियन रुपये का था। यह मुद्रा उड़ान आज भी एक आकर्षक अपराध जगत गतिविधि बनी हुई है। मुंबई बम हमलों के टाइगर मेमन और मूलचंद शाह उर्फ चोकसी जैसे आरोपियों ने अपनी गैर-कानूनी आय को हवाला मार्ग से चलाया, जिसका उपयोग उन्होंने बमबारी की गतिविधियों में भी किया। 

विभिन्न कानूनी पहलों ने संगठित अपराधों के अन्य रूपों को भी जन्म दिया है। संविधान में प्रतिष्ठापित राज्य के नीति निर्देशक तत्वों की भावना के अनुसार सामाजिक असमानताओं, बुराइयों और आर्थिक विभिन्नताओं को दूर करने के लिए कई कानूनों को अधिनियमित किया गया। 

भारत की आर्थिक राजधानी के रूप में मुंबई लंबे समय से अनेक आपराधिक गैंगों और प्रभुत्व के लिए उनमें जारी निरंतर संघर्ष के लिए खेल का मैदान बना हुआ है।

दाऊद इब्राहिम गिरोहः दाऊद इब्राहिम सबसे शक्तिशाली मुंबई माफिया ‘डॉन‘ है, जिसका अखिल भारतीय स्तर पर फैला हुआ विस्तृत संजाल और विदेशों में भी विस्तृत संपर्क है। वह अंतर्राष्ट्रीय अपराधों में लिप्त सबसे शक्तिशाली गैंगस्टरों में से एक है, जिनमें नशीले पदार्थों की तस्करी, जबरन वसूली और अनुबंध हत्याएं शामिल हैं। वह दुबई में रह चुका है, और वर्तमान में उसका ठिकाना पाकिस्तान में है। बहुत ही थोडे़ समय में ही वह असाधारण रूप से बढ़ा था।

एक भूतपूर्व आपराधिक अंवेषण विभाग के सिपाही इब्राहिम कासकर के पुत्र दाऊद ने शुरुआत एक छोटे अपराधी के रूप में की, और उसके पिता के संपर्कों के कारण बंबई (वर्तमान मुंबई) पुलिस विभाग में उसे काफी सहानुभूति प्राप्त थी। वह तस्करों की उन लोगों से पैसा निकलवाने में सहायता करता था जो अपने ‘शब्द‘ का पालन नहीं करते थे। 1970 के दशक में अन्य गिरोह अपेक्षाकृत कमजोर हो गए थे, और उसने इसी निर्वात का फायदा उठाया, और सोने और चांदी की तस्करी शुरू कर दी। उसने अपने भाइयों और निकट सहयोगियों की मदद से अपना अपराध का साम्राज्य निर्माण किया, और वह प्रतिद्वंद्वी गुटों के सैकड़ों अपराधियों को निपटाने के लिए भी जिम्मेदार था। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित उदार जमानत नीति ने उसे उसके गिरोह के समेकन में सहायता की। 1980 के दशक में वह मुंबई का सबसे खतरनाक गैंगस्टर बन चुका था। 

हालांकि प्रतिद्वंद्वी गिरोहों से उत्पन्न जीवन के भय से वह दुबई भाग गया, हालांकि उसका आपराधिक संजाल लगभग अक्षुण्ण बना रहा। वर्तमान में वह अपने गिरोह की गतिविधियों को पूर्ण माफी से नियंत्रित करता है, क्योंकि भारत की दुबई या पाकिस्तान के साथ कोई प्रत्यर्पण संधि नहीं है, और इन देशों के अधिकारियों ने उसे प्रत्यर्पित करने से इंकार कर दिया है - और हाँ, भारी सबूत के बावजूद भी वे अपनी जमीन पर उसकी उपस्थिति से भी इंकार करते हैं। दुबई में अनेक प्रभावशाली राजनीतिज्ञों और फिल्मी कलाकारों की मेज़बानी करके उसने सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने के भी काफी प्रयास किये।

दाऊद का भाई अनीस इब्राहिम तस्करी, नशीली दवाओं की तस्करी और अनुबंध हत्याओं की गतिविधियाँ संभालता है। एक और महत्वपूर्ण सहयोगी नूरा फिल्म वित्त-पोषण और फिल्मी हस्तियों से जबरन वसूली की गतिविधियाँ संभालता है। एक कम कद का कार्यकर्ता इकबाल उसकी हांगकांग के शेयर बाजार की व्यापारी गतिविधियों और जवाहरात और स्वर्ण व्यापार सहित सारी ‘‘वैध‘‘ गतिविधियाँ संभालता है। उसके गिरोह में 4000 से 5000 लोग काम करते हैं। दाऊद का गिरोह के 50 प्रतिशत सदस्य मुंबई और आसपास के जिलों के हैं, और उसके निकट प्रतिनिधि अबू सालेम सहित 25 प्रतिशत सदस्य उत्तर प्रदेश के हैं। 

वित्तीय नीतियों में हुए परिवर्तनों के कारण सोने और चांदी की तस्करी अब अपेक्षाकृत कम आकर्षक रह गई है। वर्तमान में इस गिरोह की महत्वपूर्ण गतिविधियाँ हैं जबरन वसूली, अनुबंध हत्याएं, फिल्मों को वित्त पोषण, नशीले पदार्थों की तस्करी, कंप्यूटर पुर्जों की तस्करी और हथियारों का अवैध व्यापार। दाऊद का गिरोह अपराधियों और आतंकवादियों, दोनों के हथियारों की आपूर्ती करता है। 

दाऊद इब्राहिम ने ‘‘वैध‘‘ व्यवसाय उद्यमों में भी काफी निवेश किया हुआ है। उसके भाई अनीस की दुबई में एक व्यापारी कंपनी है, और दाऊद ने मुंबई के दीवान शॉपिंग सेंटर में भी बडे़ पैमाने पर निवेश किया हुआ है, और जानकारी यह भी है कि मुंबई के डायमंड रॉक होटल में भी उसकी अंश भागीदारी है। नूरा मुंबई की सुहैल ट्रेडिंग कंपनी का भी संचालन करता है, जो वर्तमान में प्रवर्तन के काफी दबाव में है। ऐसी भी खबरें हैं कि ईस्ट वेस्ट एयर लाइन्स में भी दाऊद की बड़ी हिस्सेदारी थी। उसके वैध व्यापार साम्राज्य का वार्षिक कारोबार लगभग 2000 करोड़ का बताया जाता है। 

वर्ष 1993 के पहले तक दाऊद का गिरोह धर्मनिरपेक्ष माना जाता था, और यह गिरोह हिंदू और मुस्लिम, दोनों समुदायों के स्वयंसेवकों को आकर्षित करता था। हालांकि 1993 के श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों में उसकी संलिप्तता के बाद उसके अधिकांश हिंदू सदस्यों ने गिरोह छोड़ दिया। हालांकि एक खतरनाक गैंगस्टर सुनील सामंत, उसके प्रति वफादार बना रहा, जिसकी छोटा राजन गिरोह ने 1995 में दुबई में हत्या कर दी थी। उसके भाइयों के अलावा, जो उसके प्रमुख सलाहकार हैं, वह छोटा शकील के माध्यम से अपना साम्राज्य चलाता रहा। 

शुरुआत में छोटा शकील गिरोह दाऊद की ‘डी कंपनी‘ की एक शाखा हुआ करती थी। वर्तमान में एक स्वतंत्र गिरोह के रूप में कार्यरत, हालांकि उसकी दाऊद गिरोह से कोई दुश्मनी नहीं है, इस गिरोह की गतिविधियाँ मध्य और उत्तर-पश्चिमी मुंबई में सक्रिय हैं।

अरुण गवली गिरोहः रामा नाइक की मृत्यु के बाद, नेतृत्व की जिम्मेदारी अरुण गवली के कंधों पर आ गई। दाऊद गिरोह के विरुद्ध अनेक अंतर-गिरोह हत्याएं हुई हैं, और उन्होंने एक दूसरे के आर्थिक और राजनीतिक हितों को भी निशाना बनाया है। इस गिरोह में लगभग 2000 से 3000 लोग हैं। यह दिलचस्प है कि 1990 में अरुण गवली को जेल भेजा गया था, और हालांकि उसे न्यायालय से जमानत मिल गई थी, फिर भी मुख्य रूप से दाऊद गिरोह के प्रकोप से बचने के लिए उसने जेल में रहना ही पसंद किया। अपने मुलाकातियों के माध्यम से निर्देश देते हुए जेल के भीतर से भी उसने अपने गिरोह का संचालन जारी रखा। उसके गिरोह बडे़ व्यवसायिओं से संरक्षण धन वसूल करने और अनुबंध हत्याओं में शामिल है। जब वह जेल से बाहर आया तो उसने अखिल भारतीय सेना नामक एक राजनीतिक पार्टी भी बनाई। एक अनुबंध हत्या में उसकी संलिप्तता के आरोप में उसे वापस जेल भेज दिया गया है। राजनीतिक क्षेत्र में भी अरुण गवली काफी सक्रिय है, और मुंबई की मलिन बस्तियों में उसका काफी प्रभाव भी है। एक समय तो उसने महाराष्ट्र के एक प्रभावी राजनीतिक दल शिव सेना के समक्ष काफी चुनौती प्रस्तुत कर दी थी। 

अमर नाइक गिरोहः यह गिरोह वर्ष 1980 में पैदा हुई, और मुंबई शहर के दादर इलाके से छोटे फल और सब्जी विक्रेताओं से हफ्ता वसूली से इसने अपनी गतिविधियों की शुरुआत की। जब इस गिरोह के नेता रामा भट को एक डकैती के मामले में जेल भेज दिया गया, तो गिरोह का नेतृत्व अमर नाइक ने संभाल लिया। इसकी आपराधिक गतिविधियों का मुख्य धंधा छोटे सब्जी विक्रेताओं, खोमचे वालों, अवैध शराब का धंधा करने वालों और तस्करों से हफ्ता वसूली करना था। हितों के टकराव के कारण इस गिरोह की, जेल से बाहर ही नहीं बल्कि जहां दोनों गिरोहों के सदस्यों को बंद किया गया था उस जेल परिसर के भीतर भी अरुण गवली गिरोह से कई बार झडपें हुईं, जिसका परिणाम अनेक हत्याओं में हुआ। इस गिरोह में लगभग 200 अपराधी हैं। 9 अगस्त 1996 को अमर नाइक की हत्या हो गई, और अब गिरोह के नेतृत्व का भार व्यवसाय से इंजीनियर, उसके छोटे भाई अश्विन नाइक के कन्धों पर आ गया है। 

छोटा राजन गिरोहः छोटा राजन ने अपनी अपराध यात्रा दाऊद इब्राहिम गिरोह से शुरू की। मुंबई के पूर्वी उपनगर चेंबूर के रहिवासी छोटा राजन ने शुरुआत तिलक नगर में गणेश उत्सव का आयोजन करने वाले सह्याद्रि क्रीडा मंडल से केंद्रित जबरन वसूली के गोरखधंधे से की। 1993 के मुंबई के श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों के बाद दाऊद का गिरोह  धर्म के आधार पर दो भागों में विभाजित हो गया, और छोटा राजन ने दाऊद का गिरोह छोड दिया और वह भारत से भाग गया। 1994-95 में उसने एक नए गिरोह का गठन किया। अनुमानों के अनुसार, उसके गिरोह के सदस्यों की संख्या लगभग 800 है। उसकी गतिविधियों का क्षेत्र महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और दिल्ली के राज्य हैं। मूल रूप से वह एक नशीली दवाओं का तस्कर और अनुबंध हत्यारा है। उसने अरुण गवली के साथ हाथ मिला लिया, और वह दाऊद के एक विश्वस्त साथी सुनील सामंत की 1995 में दुबई में की गई हत्या के लिए जिम्मेदार था। यह एक जवाबी हत्या थी। उसने कई दाऊद वफादारों को निशाना बनाया है, और जवाबी कार्रवाइयों में उसने भी अपने कई साथियों को खोया है। वर्तमान में छोटा राजन दक्षिण-पूर्व एशिया से अपनी गतिविधियाँ संचालित कर रहा है। 

5.0 संगठित अपराधों के प्रकार

नशीली दवाओं के दुरुपयोग और उनकी तस्करीः भारत स्वर्णिम वर्धमान और स्वर्णिम त्रिकोण के ठीक बीच में स्थित है, जो इसे इन क्षेत्रों में उत्पादित मादक पदार्थों को पश्चिमी देशों को भेजने के लिए एक पारगमन बिंदु बनाता है। भारत में भी बड़ी मात्र में अवैध अफीम का उत्पादन किया जाता है, जिसका एक भाग विभिन्न स्वरूपों में अवैध बाजार में भी जाता है। भारत का मादक पदार्थों का अवैध व्यापार पांच मुख्य पदार्थों पर केंद्रित है, ये हैं हेरोइन, हशीश, अफीम, भांग (गांजा) और मेथाक्वालोन। 

तस्करीः तस्करी होने वाले पदार्थों का स्वरुप और उनकी मात्र भी विद्यमान वित्तीय नीतियों के अनुसार निर्धारित की जाती है। 

भारत की 7500 किलोमीटर की एक विशाल तट रेखा है, और नेपाल और भूटान के साथ इसकी खुली सीमा है, जो वर्जित पदार्थों और अन्य उपभोग्य वस्तुओं की बडे़ पैमाने पर तस्करी के प्रवण हैं। हालांकि इस देश में तस्करी के माध्यम से आने वाली वर्जित पदार्थों की मात्रा का मूल्य तय करना संभव नहीं है, फिर भी जब्त किये गए वर्जित पदार्थों के मूल्य से इसकी कल्पना की जा सकती है, हालांकि ये वास्तविक तस्करी का एक बहुत ही छोटा भाग है। 

धन शोधन और हवालाः धन शोधन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा अवैध धन को वैध लगने वाले धन में परिवर्तित किया जाता है। यह धन फिर वैध अर्थव्यवस्था में एकीकृत हो जाता है। विश्व भर में मादक पदार्थों से संबंधित अपराधों से प्राप्त धन, धन शोधन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। इसके अतिरिक्त, कर चोरी, और विनिमय विनियमों का उल्लंघन इस अवैध कमाई को कर चोरी आय के साथ विलयित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, ताकि उसके उद्गम को अस्पष्ट किया जा सके। आमतौर पर इस उद्देश्य की प्राप्ति स्थापन, स्तरीकरण, और एकीकरण की जटिल प्रक्रियाओं के माध्यम से होती है, ताकि इस एकीकृत धन का उपयोग खोजबीन के ड़र के बिना अपराधियों द्वारा मुक्त रूप से किया जा सके। धन शोधन विश्व भर में एक गंभीर खतरा पैदा कर रहा है, न केवल देशों की आपराधिक न्याय प्रणालियों के लिए बल्कि उनकी संप्रभुता के लिए भी। आतंकवादी गतिविधियों के वित्त पोषण में भी धन शोधन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। 

अनुबंध हत्याएंः हत्या के अपराध के लिए भारतीय दंड़ संहिता के अनुच्छेद 302 के तहत आजीवन कारावास या फांसी की सजा का प्रावधान है। हत्याओं के मामलों में दोषसिद्धि की दर लगभग 38 प्रतिशत है। अनुबंध हत्या में सुराग लगने की संभावना बहुत ही कम होती है। अनुबंध हत्या में जो तरीका अपनाया जाता है, वह है पैसे के बदले एक पेशेवर गिरोह को हत्या की जिम्मेदारी सौंपी जाना।

फिरौती के लिए अपहरणः शहरी क्षेत्रों में फिरौती के लिए अपहरण एक उच्च कोटि का संगठित अपराध है। इसमें अनेक स्थानीय और अंतर-राज्यीय गिरोह लिप्त हैं, क्योंकि इससे संलग्न श्रम और जोखिम की तुलना में मिलने वाला धन बहुत अधिक होता है।

6.0 संगठित अपराध को नियंत्रित करने में आने वाली समस्याएं

6.1 अपर्याप्त कानूनी संरचना 

संगठित अपराधों को नियंत्रित करने में अनेक समस्याएं हैं। पहली बात, भारत में संगठित अपराधों को नियंत्रित करने/दबाने के लिए विशेष कानून नहीं है। क्योंकि यह एक निरंतर षडयंत्र होता है, संगठित अपराधों को सामान्य षडयंत्र कानून के तहत निपटाया जाता है। विद्यमान कानून अपर्याप्त है, क्योंकि यह व्यक्तियों को लक्ष्य बनाता है अपराधी गिरोहों या अपराधी उद्यमों को नहीं। न्यायालय में षडयंत्रों को साबित करना अभियोजन के लिए एक कठिन कार्य होता है। 

6.2 सबूत जुटाने में कठिनाइयां 

चूंकि अपराधी गिरोह पदानुक्रमित ढ़ंग से संरचित होते हैं, अतः नेतृत्व के उच्च नेता कानून प्रवर्तन से पृथक रहते हैं। वास्तविक अपराध करने वालों को दोषसिद्ध करना संभव हो सकता है, परंतु साक्ष्य के नियमों के कारण, विशेष रूप से अपराधियों द्वारा पुलिस एक समक्ष दिए गए इकबालिया बयानों की न्यायालय के समक्ष गैर स्वीकार्यता के कारण पदानुक्रम में उनके पार जाना कठिन हो जाता है। गवाह अपनी जान की जोखिम के कारण साक्ष्य देना नहीं चाहते, और संगठित अपराधियों के विरुद्ध गवाही देने वाले गवाहों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए कोई कानून नहीं है। मुखबिर इसलिए सामने नहीं आना चाहते क्योंकि ‘मुखबिर‘ होने में एक प्रकार का लांछन संलग्न है। 

6.3 संसाधनों और प्रशिक्षण का अभाव 

भारतीय संविधान के अनुसार, मामलों का अन्वेषण, उनका अभियोजन और अपराध न्यायालयों का गठन संबंधित राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। अधिकांश राज्य संसाधनों की कमी से जूझते रहते हैं, अतः वे आपराधिक न्याय प्रणाली एजेंसियों के लिए पर्याप्त संसाधन प्रदान करने में असमर्थ होते हैं। पुलिस स्टेशनों में तैनात पुलिस कर्मियों की संख्या अपर्याप्त है। इसके अलावा, संगठित अपराधों के अन्वेषण के लिए किसी भी प्रकार की प्रशिक्षण सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं। 

6.4 समन्वय का अभाव 

भारत में ऐसी कोई राष्ट्रीय स्तर की एजेंसी नहीं है, जो संगठित अपराधों का मुकाबला करने के लिए राज्य/शहर के पुलिस संगठनों और केंद्रीय प्रवर्तन एजेंसियों के प्रयासों को समन्वित करती हो। साथ ही, ऐसी कोई एजेंसी नहीं है जो भारत में, और विदेशों में संचालित होने वाली अंतर्राष्ट्रीय और अंतर-राज्य गिरोहों की जानकारी को संग्रहित, समानुक्रमित, विश्लेषित और दस्तावेजीकरण करने के लिए एक केंद्रीय विनिमय केंद्र के रूप में काम करती हो। उसी प्रकार, ऐसी कोई व्यवस्था उपलब्ध नहीं है, जो राष्ट्रीय या राज्यों के स्तर पर चयनित गैंग्स का निरंतर पीछा करती हो। संस्थागत रूपरेखा के अभाव के अलावा, राजनीतिक धारणाओं में भिन्नता होने के कारण केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच और एक राज्य और दूसरे राज्य की सरकारों के बीच समन्वय में भी समस्याएं हैं। 

6.5 अपराधियों, राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों की सांठगांठ 

देश में अपराधी गिरोहों, हथियारबंद सेनाओं, नशीले पदार्थ माफियाओं, तस्करी गिरोहों, नशीले पदार्थ तस्करों और आर्थिक पैरवीकारों का तीव्र विकास और विस्तार हुआ है, जिन्होंने बीते अनेक वर्षों के दौरान नौकरशाहों, सरकारी कर्मचारियों, राजनीतिज्ञों, मीडिया कर्मियों और स्थानीय स्तर पर लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित व्यक्तियों के साथ संपर्कों का एक व्यापक और विस्तारित संजाल निर्माण कर लिया है। इनमें से कई गिरोहों के विदेशी खुफिया एजेंसियों सहित अंतर्राष्ट्रीय संपर्क भी हैं। बिहार, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में इन गिरोहों को दलगत राजनीति से परे जाकर स्थानीय राजनेताओं का संरक्षण भी प्राप्त है।

6.6 एकसमान और संसक्तिशील अंतर्राष्ट्रीय कानून का अभाव 

अपराधी संगठन राष्ट्रीय सीमाओं का सम्मान नहीं करते। कुछ अपराधों, विशेष रूप से मादक पदार्थों की तस्करी, की योजना विश्व के एक भाग में बनाई जाती है, जबकि उसका निष्पादन विश्व के किसी और भाग में किया जाता है। अपराधी विश्व के एक भाग से दूसरे भाग में बहुत तेजी से आते-जाते हैं रहते हैं भिन्न-भिन्न देशों की कानूनी संरचनाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। कोई गतिविधि किसी एक देश में ‘‘अपराध‘‘ की श्रेणी में आती होगी, परंतु किसी अन्य देश में वाही गतिविधि अपराध नहीं मानी जाती। उदाहरण के तौर पर, धन शोधन अमेरिका और कुछ अन्य यूरोपीय देशों में अपराध है, परंतु काफी समय तक भारत में धन शोधन अपराध नहीं था।

7.0 महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (एमसीओसीए), 1999 

शहरों में संगठित अपराधों निपटने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने वर्ष 1999 में महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (एमसीओसीए) को अधिनियमित किया। एमसीओसीए के तहतः

  • कोई भी व्यक्ति संगठित अपराध का अपराध करता है, तो 

  1. यदि उसके अपराध के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई है, तो उसे फांसी या उम्रकैद की सजा सुनाई जाएगी, साथ ही साथ उसपर जुर्माना भी लगाया जायेगा य जुर्माने की कम से कम राशि एक लाख रुपये होगी;
  2. किसी अन्य मामले में, उसे कम से कम पांच वर्षों की कैद की सजा होगी, जिसे उम्रकैद तक भी बढ़ाया जा सकता है, साथ ही उसपर कम से कम पांच लाख का जुर्माना भी लगाया जायेगा। 

  • यदि कोई भी षड्यंत्र करता है, या करने का प्रयास करता है, या उसकी पैरवी करता है, किसी संगठित अपराध या संगठित अपराध की तैयारी की गतिविधि करने के लिए शह देता है, या जानबूझ कर उसमें सहायता करता है, तो उसे कम से कम पांच वर्ष की कैद की सजा सुनाई जाएगी, जिसे बढ़ा कर उम्रकैद में भी बदला जा सकता है, साथ ही उसपर कम से कम पांच लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया जायेगा। 
  • कोई भी व्यक्ति जो किसी संगठित अपराध गिरोह के सदस्य को शरण देता है, या छिपाता है, या शरण देने का या छिपाने का प्रयास करता है, तो उसे कम से कम पांच वर्ष कैद की सजा दी जा सकती है, परंतु उसे उम्रकैद तक भी बढ़ाया जा सकता है, साथ ही उसपर कम से कम पांच लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया जा सकता है। 
  • कोई भी व्यक्ति, जो किसी संगठित अपराध करने वाले गिरोह का सदस्य है, तो उसे कम से कम पांच वर्ष की कैद की सजा सुनाई जा सकती है, परंतु इसे उम्रकैद में भी बढाया जा सकता है, साथ ही उसपर कम से कम पांच लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया जा सकता है। 
  • यदि कोई व्यक्ति किसी ऐसी संपत्ति का स्वामित्व प्राप्त करता है, जो संगठित अपराध करके या किसी संगठित अपराध के माध्यम से प्राप्त की गई है, या जो संगठित अपराध गिरोह के पैसे से प्राप्त की गई है, तो उसे कम से कम तीन वर्ष की कैद की सजा दी जा सकती है, परंतु उसे उम्रकैद तक बढ़ाया भी जा सकता है, साथ ही उसपर कम से कम दो लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया जा सकता है। 

यदि कोई व्यक्ति किसी संगठित अपराध गिरोह के सदस्य की ओर से किसी चल या अचल संपत्ति का स्वामी है, या पहले कभी रहा है, जिसके बारे में वह संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाता है, तो उसे कम से कम तीन वर्ष की कैद की सजा दी जा सकती है, जिसे 10 वर्ष तक के लिए बढ़ाया भी जा सकता है, साथ ही उसपर कम से कम एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया जा सकता है। साथ ही अनुच्छेद 20 के प्रावधानों के अनुसार ऐसी संपत्ति की कुर्की और जब्ती भी की जा सकती है। 

इस बारे में लगभग 120 पुलिस अधिकारियों और 20 लोक अभियोजकों की राय जानी गई, कि क्या एमसीओसीए मुंबई में संगठित अपराधों को रोकने का एक प्रभावी साधन सिद्ध हो रहा है। इसपर प्राप्त प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि चूंकि एमसीओसीए मामलों में जमानत नहीं मिलती अतः इस प्रावधान ने इसे कुछ हद तक ’प्रभावी‘ बनाया है। अन्य आपराधिक मामलों में 1977 में न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर की बनाई एक नीति ‘‘जेल नहीं, बेल (जमानत)‘‘ न्यायव्यवस्था का मूलमंत्र बन गई है, जिसने अपराधियों को आसानी से छूटने में सहायता की है। कई संगठित अपराधी इसी प्रकार कानून के चंगुल से छूट गए, और कट्टर जुर्म की दुनिया में प्रविष्ट हो गए। 

उदाहरणार्थ, सात अन्य व्यक्तियों के साथ दाऊद इब्राहिम ने 7 फरवरी 1974 को  एक व्यापारी को लूट लिया था। इस मामले के सभी आरोपी गिरफ्तार किये गए थे, परंतु बाद में जमानत पर छूट गए। 3 जुलाई 1977 को सत्र न्यायालय ने उन्हें दोषी करार दिया, और 7 वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई। हालांकि, उस समय तक, उन्होंने देश छोड दिया था, और दाऊद ने अपना आपराधिक संजाल बना लिया था। इस प्रकार संगठित अपराधी इस प्रकार की ‘‘न्यायिक उदारता‘‘ और नरम जमानत नीति का फायदा उठाते हैं, जो सामान्य जनता और कानून प्रवर्तन संस्थाओं के लिए काफी क्लेशकारक होता है। एमसीओसीए में ‘‘बेल (जमानत) नहीं बल्कि जेल‘‘ नियंत्रक सिद्धांत बन जाता है। 

यदि संगठित अपराध के मामलों से अलग तरीके से निपटने की आवश्यकता स्वीकार हो जाती है, तो एक सही प्रतिक्रिया होगी कि भारतीय दंड़ संहिता में संशोधनों के पैबंद लगाने की बजाय एक स्वतंत्र संगठित अपराध संहिता बनाई जाए। विद्यमान प्रत्यर्पण के कानून भी किसी काम के नहीं हैं। अनीस कासकर, दाऊद इब्राहिम, टाइगर मेमन, छोटा राजन इत्यादि जैसे कई भगोड़े, जो भारत में गंभीर अपराधों के लिए वांछित हैं, विभिन्न देशों में आराम से रह रहे हैं, और हमारे कानून लागू करने वाले पूरी तरह से असहाय हैं। 

हालांकि केवल विशेष कानून बनाना ही पर्याप्त नहीं है। ऐसा कानून बनने तक पुलिस और अन्य अन्वेषण करने वाली एजेंसियों को निष्क्रियता में सुस्त नहीं हो जाना चाहिए, या ऐसा कानून बनने के बाद भी नहीं, पालकी उन्हें अन्वेषण और तीव्रता से जारी रखना चाहिए। ऐसे अपराधों के अन्वेषण और अभियोजन के लिए हमें विशेष अधोसंरचना विकसित करने की आवश्यकता है। अवैध हथियारों और विस्फोटकों के स्वामित्व पर और अधिक कठोर नियंत्रण, और जिनके पास आयुधों जैसे बम, हथगोले, आरडीएक्स इत्यादि जैसे विस्फोटक बरामद होते हैं उन्हें और अधिक सजा देने की आवश्यकता है। अपराध खुफिया तंत्र को भी बहुत अधिक मजबूत बनाने की आवश्यकता है।




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