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भारत की सुरक्षा चुनौतियां
1.0 प्रस्तावना
‘‘यदि आप अपने शत्रुओं को जानते हैं, और स्वयं को जानते हैं, तो आप सौ युद्धों में भी संकट में नहीं आयेंगे; यदि आप अपने शत्रुओं को नहीं जानते, परंतु स्वयं को जानते हैं, तो आप एक युद्ध जीतेंगे और एक में पराजित होंगे; यदि आप अपने शत्रुओं को नहीं जानते, और स्वयं को भी नहीं जानते, तो आप प्रत्येक युद्ध में संकट में होंगे‘‘
विश्व पटल पर भारत के प्रभुत्व के सामने आतंरिक और बाहरी, दोनों प्रकार के कई युद्ध और खतरे हैं। पिछले 50 वर्षों में, विश्व द्विध्रुवीय व्यवस्था से एकध्रुवीय व्यवस्था, और अंततः बहुध्रुवीय व्यवस्था की ओर अग्रसर हुआ है। इसने सुरक्षा पर एक लचीली और गतिशील नीति की आवश्यकता को बढ़ा दिया है।
आतंरिक दृष्टि से भी भारत की अपनी भाषाई, क्षेत्रीय, आर्थिक और सांप्रदायिक कलहें मौजूद हैं। समय-समय पर उठने वाली राज्य दर्जे की मांगें देश की अखंडता के लिए खतरा निर्माण करती हैं। भारत दक्षिणपंथी से लेकर वामपंथी तक के सभी प्रकार के उग्रवाद का सामना कर रहा है।
2.0 भारत के समक्ष बाह्य सुरक्षा खतरे
भौगोलिक दृष्टि से भारत उस क्षेत्र के अत्यंत निकट स्थित है, जिसे ‘‘वैश्विक आतंकवाद का उपरिकेंद्र‘‘ कहा जाता है। अमेरिकी रणनीतिक परिदृश्य में भारत की बढ़ती प्रासंगिकता, स्वतंत्रता के समय से पाकिस्तान के साथ अशांत संबंध, चीन के साथ बिगड़ते और अप्रत्याशित संबंध, माओवादी उग्रवाद के साथ नेपाल के अस्थिर राजनीतिक हालात, बांग्लादेश के साथ संदिग्धचित संबंध, गृहयुद्ध से क्षतिग्रस्त और अभी भी उससे उभरने का प्रयास करता हुआ श्रीलंका, अधिनायकवादी म्यांमार, इन सभी ने मिलकर इन सारी सुरक्षा चुनौतियों से निपटने की भारत की तैयारियों के अनुमानों को एक जटिल कार्य बना दिया है।
2.1 संयुक्त राज्य अमेरिका
1991 में सोवियत संघ के पतन ने शीत युद्ध की अकस्मात समाप्ति का संकेत दे दिया था। इसने नई दिल्ली को अपने महाशक्तियों के साथ संबंधों को एक बार फिर से शुरू से पुनर्निर्मित करने के लिए मजबूर कर दिया है। केवल 1990 के दशक का आर्थिक अभिविन्यास परिवर्तन ही दर्दनाक नहीं था, बल्कि पिछले दो दशकों के दौरान विदेश नीति की उपलब्धियां भी काफी महत्वपूर्ण रही हैं। पिछले बीस वर्षों में भारत ने जो निरंतर प्रयास किये हैं, उन्होंने अंततः विश्व मामलों में अधिक स्वीकार्यता और मान्यता के रूप में फल प्रदान करना आरंभ कर दिया है।
2004 में अपनी दूसरी कार्यावधि के शुरू में, राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने भारत को अधिक महत्त्व देना शुरू कर दिया, और इस प्रकार, नई दिल्ली को पाकिस्तान और चीन, दोनों के साथ अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए अधिक स्थान मिलने लगा। मार्च 2005 में, बुश प्रशासन ने भारत के महाशक्ति बनने के प्रयासों में सहायता प्रदान करने की घोषणा कर दी।
इस घोषणा का परिणाम वाशिंगटन और नई दिल्ली के बीच हुए दो अत्यंत महत्वपूर्ण समझौतों में हुआ। पहला समझौता था दोनों देशों के बीच एक दस-वर्षीय रक्षा सहयोग रूपरेखा, जिसने अमेरिका के उन्नत हथियारों के भारत द्वारा क्रय का रास्ता खोल दिया, और इसने दोनों देशों के सुरक्षा बलों द्वारा संयुक्त मिशनों को परिभाषित किया। दूसरा समझौता था, अब का बहुचर्चित नागरिक परमाणु पहल का (परमाणु 123 समझौते द्वारा चिन्हित किया हुआ), जिसका उद्देश्य था भारत का साढे़ तीन दशकों के वैश्विक अप्रसार व्यवस्था से पृथक्करण की समाप्ति। इन दोनों समझौतों ने अमेरिका के भारत के प्रति दृष्टिकोण में हुए बुनियादी परिवर्तन को रेखांकित किया।
शुरुआत में, बुश प्रशासन की कई विदेश नीतियों का परित्याग करने के ओबामा के वादे से काफी चिंता निर्माण हुई थी। इन दो त्रिकोणों को - एक अमेरिका, भारत और पाकिस्तान के बीच, और दूसरे वाशिंगटन, बीजिंग और नई दिल्ली के बीच - अस्तव्यस्तता की जोखिम का सामना करना पड़ा। हालांकि, 2009 में रिचर्ड होलब्रुक की अफगानिस्तान और पाकिस्तान के लिए विशेष प्रतिनिधि के रूप में नियुक्ति की घोषणा करते समय ओबामा ने कश्मीर और भारत-पाकिस्तान के संबंधों में मध्यस्थता का कहीं भी उल्लेख नहीं किया था। उनका यह इशारा भारत की कुछ चिंताओं के लिए समर्थन था। इसके बाद, राष्ट्रपति ओबामा और (तत्कालीन) राज्य सचिव हिलेरी क्लिंटन ने भारत और पाकिस्तान की ओर अमेरिकी नीति को अधिक सावधानी और संवेदनशीलता के साथ स्पष्ट करने का प्रयास किया।
हालांकि वैचारिक दृष्टि से भारत सीटीबीटी और एनपीटी व्यवस्था पर हस्ताक्षर करने के लिए गैर-प्रतिबद्ध बना हुआ है, फिर भी, 2006 में भारत-अमेरिका परमाणु संधि पर हस्ताक्षर करने के कारण उसकी परमाणु ऊर्जा क्षमता में बहुत वृद्धि हुई है।
ऐतिहासिक दृष्टि से, विदेश संबंधों पर अमेरिकी नीतियां स्वहित से निर्धारित हुई हैं। 1960 में सीटो (दक्षिण पूर्व एशिया संधि संगठन) व्यवस्थाओं के माध्यम से पाकिस्तानी सेना को अमेरिकी समर्थन, बाद में फरवरी 1972 में राष्ट्रपति निक्सन की चीन यात्रा, जो गोपनीय रूप से पाकिस्तान द्वारा सुगम बनाई गई थी, और जिसने दोनों देशों के बीच बर्फ को पिघलाने का काम किया था, 1980 के दशक के दौरान पाकिस्तान के रक्षा तंत्र और तालिबान को सहायता, और अब अफगान-पाकिस्तान जनजातीय क्षेत्र में सैन्य अभियान, इन सभी को अमेरिकी स्वहित के मद्देनज़र ही किया गया था। इन सभी कदमों का भारत के बाह्य सुरक्षा वातावरण पर प्रभाव पड़ा है। हमारी उत्तर-पश्चिमी सीमा पर अमेरिका की निरंतर उपस्थिति को 2001 में संसद पर किये गए हमले, और बाद में 2008 में 26/11 के मुंबई हमले के बाद के पाकिस्तान के उग्र दृष्टिकोण के एक प्रमुख कारण के रूप में उद्धृत किया जाता है। आतंकवाद पर वैश्विक युद्ध में उसके द्वारा प्रदान की जाने वाली सैन्य सहायता के कारण पाकिस्तानी सेना जानती है कि पाकिस्तानी सीमा के पार आक्रमण करने के भारत के विकल्प बहुत ही सीमित हैं। भारत में आतंकवादी हमले और उनकी अधोसंरचना को प्रायोजित करने के लिए पाकिस्तान के विरुद्ध भारत की दंडात्मक कार्रवाई क्षमता को सीमित करने के अतिरिक्त अमेरिका ने पाकिस्तान को बडे़ पैमाने पर वित्तीय और सैन्य सहायता भी प्रदान की है, जिनका हमारी रणनीतिक गणना पर विपरीत प्रभाव पड़ा है।
फिर भी, सभी दृश्य संकेतों को देखते हुए, ऐसी संभावना है कि आने वाले कम से कम दो दशकों तक विश्व मामलों में अमेरिका का वर्चस्व कायम रहेगा। भारत को इस दिशा में प्रयास करने होंगे कि अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को की जाने वाली सहायता का भारत की बाह्य सुरक्षा पर न्यूनतम विपरीत प्रभाव पडे़।
2.2 चीनी जन गणतंत्र (पी.आर.सी.)
2.2.1 राजनीतिक खतरा
1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद से दोनों देशों के बीच संबंध संदेहों से भरे रहे हैं। विश्लेषकों का कहना है कि भारत की विदेश नीतियां चीन-उन्मुख हैं, जो दोनों देशों के बीच मौजूद उच्च दर्जे की असुरक्षा की ओर इशारा करती हैं। पिछले तीन दशकों के दौरान चीन की आर्थिक और राजनीतिक प्रगति ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक हलकों में उसका काफी दबदबा निर्माण किया है।
चीन ने धैर्यपूर्वक भारत की परिधि के चारों ओर सैन्य, आर्थिक और राजनीतिक गठबंधन बनाने की दिशा में काम किया है-जिसे ‘‘मोतियों की माला रणनीति‘‘ कहा जाता है। हर हाल में, चीन भारत के लिए पहले क्रमांक का सुरक्षा खतरा बना हुआ है। उसने भारत के विरुद्ध उपयोग करने के लिए पाकिस्तान को निरंतर सैन्य सहायता प्रदान की है, उत्तर-पूर्व में सशस्त्र विद्रोहियों को वित्त पोषण किया है, और नत्थी वीज़ा, वीज़ा अस्वीकृति और भारत में तिब्बती लोगों पर जासूसी के माध्यम से कूटनीतिक हलकों में भी अपना दबाव बढ़ाना जारी रखा है।
हालांकि चीन की तिब्बत के प्रति संवेदनशीलता के प्रति भारत को सावधान रहने की आवश्यकता है, फिर भी भारत चीनी समकक्षों को अपने हितों का स्पष्ट प्रतिपादन करने में एक मुखर भूमिका अदा करने में विफल रहा है। दूसरी ओर, चीन ने भारत-तिब्बत सीमा पर बेहतर नागरिक और सैन्य अधोसंरचना निर्मित कर ली है। चीन के रूबरू हमारी सुरक्षा तैयारी बहुत ही कमजोर है। जैसा कि हमारे एक सेना प्रमुख ने ठीक ही प्रतिपादित किया है कि हमारे युद्ध और युद्ध तैयारियों के सिद्धांतों का निर्माण करते समय चीन और पाकिस्तान, दोनों के साथ एक साथ दो मोर्चों पर युद्ध परिदृश्य की संभावनाओं को ध्यान में रखा जाना आवश्यक है।
इस युद्ध खतरे को प्रभावहीन बनाने के लिए रक्षा क्षेत्र में बडे़ निवेश की आवश्यकता है। हालांकि सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि में होती हुई गिरावट के चलते यह काफी कठिन हो गया था। 2.1 प्रतिशत पर हमारा रक्षा बजट क्रमशः पाकिस्तान और चीन के सकल घरेलू उत्पाद के 4.5 प्रतिशत और 4.7 प्रतिशत की तुलना में काफी कम है, यहाँ तक कि तेज गति की और पारदर्शी प्रक्रियाओं के अभाव में सुरक्षा बलों को आधुनिक बनाने के लिए आवंटित निधियों का भी पूरा उपयोग नहीं हो पाता।
चीन, व्यापक रूप से अपने रक्षा बजट को कम घोषित करने के लिए जाना जाता है। पाकिस्तान के रक्षा व्यय में पूंजीगत परिव्यय को शामिल नहीं किया जाता। अतः घोषित आंकड़ों की तुलना में वास्तविक व्यय कहीं अधिक होता है। अतः यह स्पष्ट है कि अपनी मारक क्षमता को अधिकतम बनाने के लिए हमें हमारे सीमित रक्षा परिव्यय का चयनात्मक उपयोग करना आवश्यक है।
2.2.2 आर्थिक खतरा
चीन से आयातित सस्ते विनिर्मित माल से भारतीय व्यवसाइयों को खतरा महसूस होता है।
विभिन्न देशों की ‘‘व्यवसाय करने में आसानी‘‘ पर विश्व बैंक की विभागक्रम प्रतिष्ठा में चीन के 50 वें स्थान की तुलना में भारत को 100 वें स्थान पर रखा गया है। आवश्यक दस्तावेजों की संख्या, आयात/निर्यात में लगने वाला समय और इसमें शामिल लागत भारत की कमजोर विभागक्रम प्रतिष्ठा चीन की तुलना में खराब अवस्था को प्रतिबिंबित करती है।
आयात-निर्यात औपचारिकताओं में चीन को प्राप्त लाभ के साथ-साथ चीनी निर्यातकों को लाभ प्रदान करने वाले कुछ अन्य कारक हैंः
- कम वास्तविक मजदूरी और औद्योगिक विवादों और तालाबंदी का न होना
- सरकार द्वारा नियंत्रित वित्तीय संस्थाओं के माध्यम से घरेलू क्षेत्र द्वारा कॉर्पोरेट क्षेत्र का पार अनुवृत्तिकरण (एक कम घरेलू उपभोग, उच्च बचत अनुपात, अतिरिक्त उच्च मुद्रास्फीति, कम वास्तविक ब्याज दरों, सस्ती पूंजी नीति वातावरण में)
- कम मूल्य पर आंकी गई विनिमय दर
- सीमित वैश्विक आपूर्ति वाले कोयले, धात्विया, सिलिकॉन, पीले फास्फोरस और जस्ते जैसे कच्चे मॉल पर निर्यात प्रतिबंध
- अफ्रीका और लातिन अमेरिका में जिंस (लौह अयस्क, तांबा, तेल और गैस) परिसंपत्तियां अधिग्रहित करने की आक्रामक नीति, और
- सरकार द्वारा अधिग्रहित भूमि, सस्ती बिजली, और अधिक उदार पर्यावरणीय मानकों की उपलब्धता।
अपनी विकास की गतिशीलता को बनाये रखने के लिए चीन को निर्यात पर निर्भर रहना पडे़गा, और सस्ते चीनी आयात का खतरा भारतीय व्यवसाइयों को सताता ही रहेगा। परंतु जब बात अपने स्वयं के बाज़ार की आती है, तो चीन कुछ अनेक गैर-शुल्क व्यापार बाधाओं को अपनाता है, ताकि उसके घरेलू बाज़ार में होने वाले प्रवेश को प्रतिबंधित किया जा सके।
चीन एक महत्वपूर्ण निर्यात गंतव्य, सस्ती निविष्टियों का आपूर्तिकर्ता और घरेलू और निर्यात बाजारों में एक गंभीर प्रतिस्पर्धी है। हालांकि भारत में उच्च व्यापार लेनदेन लागतों के प्रभाव के कारण, और सस्ती निविष्टियों की घरेलू उपलब्धता और चीन में कम मूल्य पर आंकी गई मुद्रा के कारण भारत के व्यवसायी समान स्तर से वंचित रहते हैं।
वर्तमान में, चीन को ‘‘संक्रमण कालीन अर्थव्यवस्था‘‘, या गैर-बाजार अर्थव्यवस्था माना जाता है, जो इसके व्यापारिक भागीदारों के लिए व्यापार सुरक्षा उपायों के उदार इस्तेमाल को काफी लचीलापन प्रदान करता है। यह लचीलापन तब समाप्त हो जायेगा जब भारत चीन को एक ‘‘बाज़ार अर्थव्यवस्था‘‘ का दर्जा प्रदान कर देगा, जो 2015 तक होने की संभावना है।
आने वाले वर्षों में, भारतीय व्यवसाइयों को खुले या छिपे रियायती दरों के चीनी उत्पादों से प्रतिस्पर्धा करनी पडेगी, जिनमें प्रसंस्कृत खाद्य से लेकर वस्त्रों तक, रसायनों से लेकर इंजीनियरिंग तक की श्रृंखला है, और यह प्रतिस्पर्धा घरेलू बाजार और निर्यात बाज़ार, दोनों में होगी। अपनी 2015 के बाद की वाणिज्यिक रणनीतियां बनाते समय भारतीय व्यवसाइयों को इन वास्तविकताओं के सकारात्मक असर को ध्यान में रखना होगा। विकसित बाजारों में धीमी आर्थिक वापसी के साथ, भारतीय व्यवसाइयों को अपनी लागत प्रतिस्पर्धात्मकता में सुधार करने के उद्देश्य से तेजी से बढ़ते चीन से एक निर्यात बाजार के रूप में और या सस्ती निविष्टियों के आपूर्तिकर्ता के रूप में लाभ उठाने के रास्ते खोजने होंगे।
हमें महत्वपूर्ण निविष्टियों पर निर्यात शुल्क, या घरेलू और आयातित उत्पादों के बीच पक्षपात जैसे विश्व व्यापार संगठन-असंगत चीनी व्यापार उपायों का विश्व व्यापार संगठन के विवाद निराकरण तंत्र के माध्यम से द्विपक्षीय या बहुपक्षीय मध्यस्थता से विरोध करना चाहिए।
इसीलिए ऐसी आशंका है कि विश्व व्यापार संगठन में क्षेत्रवार बातचीत, जिसका उद्देश्य 14 क्षेत्रों में (जिनमें रसायन और इससे संबंधित क्षेत्र, विद्युत/इलेक्ट्रॉनिक्स, औद्योगिक मशीनें, वस्त्र उद्योग और वस्त्र शामिल हैं) और अधिक शुल्क कमी करना है, भारत के घरेलू बाजार को चीनी आयात के लिए और भी अधिक खुला कर देगी। इसके अलावा चीन के साथ एक मुक्त व्यापर संधि पर भी विचार किया जा रहा है।
भारत सरकार की भूमिका को ‘‘प्रोत्साहन प्रदाता‘‘ से ‘‘व्यापार सुविधाप्रदाता‘‘ में परिवर्तित करना होगा, और यहां भारत की व्यापार अधोसंरचना में सुधार करने के लिए ठोस प्रयास करने में उसकी जिम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है। इस बात की भी तत्काल आवश्यकता है कि भारत के व्यापार चर्चा करने वालों और भारतीय व्यावसायिकों के बीच एक प्रभावी सहयोग स्थापित किया जाये, ताकि द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार बातचीत में उनके व्यापार उद्देश्यों को भी ध्यान में रखा जा सके।
2.3 पाकिस्तान
प्रमुख कानून निर्माताओं और अन्य एजेंसियों के साथ साझा किया गया रक्षा मंत्रालय का एक आतंरिक आकलन कहता है कि पाकिस्तान सभी सैन्य आयामों में भारत के लिए सबसे प्रमुख सुरक्षा खतरा बना हुआ है। पाकिस्तान में उग्रवादी और आतंकवादी संगठनों के तेजी से फैलते कदम, और जम्मू एवं कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों में उनकी संलिप्तता स्पष्ट रूप से भारत की सुरक्षा के लिए खतरा है।
पाकिस्तान से बाह्य खुले और छिपे खतरे को प्रबंधित करने की भारत के रक्षा तंत्र के समक्ष की चिरस्थायी चुनौती सर्वविदित और सर्वश्रुत है, और इसे अतिरिक्त ज़ोर देकर कहने की आवश्यकता नहीं है। पाकिस्तान के जन्म से ही भारत ने उसके साथ चार युद्ध लडे़ हैं - 1948 में, 1965 में, 1971 में और अंतिम बार 1999 में। इसके अतिरिक्त, देश जम्मू एवं कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा बढ़ावा दिए गए और पाकिस्तानी सेना द्वारा प्रायोजित कम तीव्रता के संघर्ष का, और उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में और देश के भीतर विभिन्न सीमान्त उग्रवादी समूहों को दिए जा रहे समर्थन के माध्यम से निरंतर सामना करता चला आ रहा है। देश बडे़ पैमाने पर कराची और दुबई से संचालित नकली गोरखधंधे के रूप में भी एक बहुत बड़ी चुनौती का सामना कर रहा है, जिसके बारे में यह व्यापक मान्यता है कि इसे पाकिस्तान की बाह्य जासूसी संस्था कुख्यात इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस या आई.एस.़आई. का वरदहस्त प्राप्त है।
हाल के केरन अभियान को पाकिस्तान द्वारा अपनाई गई नई आतंक नीति के एक भाग के रूप में देखा जा रहा है। सूत्रों ने बताया की ‘‘केरन क्षेत्र में, पाकिस्तानी थलसेना ने भीषण गोलीबारी की, कई बार तो उन्होंने एक रात में (24 सितंबर) मध्यम और भारी मशीन गनों से 1000 तक गोलियां दागीं ताकि उसके विशेष दस्ते घुसपैठ कर सकें। आमतौर पर जब घुसपैठियों को ललकारा जाता है, तो वे वापस लौट जाते हैं, परंतु इस मामले में उन्होंने सुरक्षा बलों को 3-4 दिन तक उलझाये रखा।‘‘ अंत में जब वे यहां से सुरक्षा घेरा नहीं तोड़ पाये, तो वे पडोसी क्षेत्रों से घुसपैठ के प्रयास करने के लिए वापस लौट गए, जहां सेना ने बताया कि 8 आतंकवादी मारे गए और 66 हथियार बरामद किये गए। हालांकि एक भी शव ना मिलने से सेना का विवरण संदेह के घेरे में आ जाता है, परंतु ‘‘सैन्य वातावरण‘‘ अभियान को सफल मान रहा है।
हालांकि निरपेक्ष संख्या की दृष्टि से भारत में आतंकवाद से संबंधित मृत्युओं की संख्या में कमी आई है, फिर भी ऐसे तंत्र के उपयोग के माध्यम से देश के भीतर सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने की संभावना को कम करके नहीं आंका जा सकता। हताहतों में तीनों प्रकार की मौतों का समावेश है - सामान्य नागरिक, सुरक्षा जवान और आतंकवादी। मोर्चे पर मौजूद वरिष्ठ सैन्य अधिकारी रक्षा मंत्रालय के इस आकलन से सहमत हैं कि ‘‘पाकिस्तान द्वारा उकसाने की कार्रवाई से पूर्णतः इंकार नहीं किया जा सकता। हमारा (सरकार का) यह दृढ़ संकल्प है कि हमारी प्रतिक्रिया इस प्रकार की जवाबी कार्रवाई होनी चाहिए जो पाकिस्तान को ऐसी हरकतें करने से रोक सकें।‘‘
इस प्रकार, आतंरिक और बाहरी, दोनों प्रकार की सुरक्षा की दृष्टि से पाकिस्तान हमारी सबसे बडी चिंताओं में से एक बना हुआ है। इसके अलावा, चीन के साथ अपनी दीर्घकालीन सामरिक भागीदारी के आधार पर, वह हमारी सुरक्षा सेनाओं की क्षमताओं को पूर्वी क्षेत्र तक खींच सकता है। काराकोरम राजमार्ग के आधुनिकीकरण की योजनाएं, चीनी नौसेना द्वारा ग्वादर का एक नौसैनिक बंदरगाह के रूप में विकास, और पाकिस्तान के परमाणु और मिसाइल कार्यक्रमों को दी जा रही सहायता - हमारी रक्षा योजनाओं में इन दोनों देशों पर सावधानीपूर्वक निगाह रखने की आवश्यकता है।
आयशा जलाल व क्रिस्टीन फेअर की हाल ही में लिखीं दो पुस्तकें पाकिस्तानी सेना की मानसिकता का एक निराशाजनक चित्र प्रस्तुत करती हैं। उनके अनुसार, पाक सेना सिर्फ एक लक्ष्य में तल्लीन है - ‘हिंदु-बहुल देश भारत‘ जिसे वे अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानते हैं, को कमज़ोर करना।
2.4 निकट पड़ोसी
भारत की अन्य पडोसियों के साथ भी समस्याएं हैं। भारत की विदेश नीति उनसे पार पाने के प्रयासों में लगी हुई है।
अंततः बांग्लादेश प्रधानमंत्री शेख हसीना सरकार की इस घोषित नीति पर काम करने के संकेत दे रहा है, कि वह अपने देश की भूमि का भारत-विरोधी गतिविधियों के लिए उपयोग करने की अनुमति नहीं देगा। हाल ही में बांग्लादेश ने उनके देश में छिपे हुए कई कुख्यात आतंकी नेता भारत को सौंपे हैं। भारत ने भी इसका बदला बांग्लादेश को ऋण रेखा के रूप में विशाल 1 बिलियन डॉलर की आर्थिक सहायता प्रदान करके चुकाया है। परंतु भारत को भी सक्रिय रूप से निरंतर उनके विपक्ष की नेता और देश की पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया के साथ कुछ हद तक व्याकुल संबंधों को बेहतर ढंग से प्रबंधित करना होगा। हरकत-उल-जिहाद-अल-इस्लामी (हूजी) की आतंकवादी अधोसंरचना को नष्ट करने में बांग्लादेश का सक्रिय सहयोग प्राप्त करना भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के लिए अभी भी चुनौतीपूर्ण बना हुआ है।
हालांकि प्रारंभ में भारत ने बर्मा के सैन्य शासन के साथ अपने संबंधों को नजरअंदाज किया, फिर भी पिछले कुछ वर्षों में हमारे द्विपक्षीय संबंधों में सुधार हुआ है। चीन हमारी उत्तर-पूर्वी सीमा के निकट पश्चिमी तट पर क्यूकरयु और सिटट्वे को वाणिज्यिक बंदरगाहों के रूप में विकसित करने के लिए बडे़ पैमाने पर निवेश करता रहा है। इन दोनों बंदरगाहों का नौसैनिक ठिकानों के रूप में उपयोग किया जा सकता है, और यह हमारे लिए चिंता का कारण होना चाहिए। भारत को भी उत्तर-पूर्वी विद्रोही गुटों पर काबू पाने के लिए म्यांमार का सहयोजन प्राप्त करना चाहिए, उदाहरणार्थ, एनएससीएन, उल्फा और मणिपुर विद्रोही, जो अंतर्राष्ट्रीय सीमा के आसपास के घने जंगलों में पनाह लिए हुए हैं। इस दृष्टि से, अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियां आकर्षित किये बिना अधिक आर्थिक और सैन्य सहयोग एक चुनौती है, क्योंकि हाल ही में अमेरिका ने भारत के सैन्य-प्रशासन के साथ मजबूत होते संबंधों पर आपत्ति ली है।
श्रीलंका को उसके हितों के अनुकूल रखने में भी भारत को चीन से प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। श्रीलंका के उत्तर-पूर्वी भागों में हाल ही में समाप्त हुए गृहयुद्ध का परिणाम भारतीय तमिलों के लिए विशाल भावनात्मक और आर्थिक लागत के रूप में हुआ है। इस प्रकार, श्रीलंका सरकार को जातीय अल्पसंख्यकों के लिए संसाधनों के समान वितरण और उचित बर्ताव के लिए राजी करने के माध्यम से सौहार्दपूर्ण भाषाई संबंधों को प्रोत्साहन देना भारतीय विदेश नीति के निर्माताओं की प्राथमिकता है। भूटान ने 2003 में उनके क्षेत्रों में उल्फा विद्रोहियों को नष्ट करके हमारी चिंताओं पर संवेदनशीलता का प्रदर्शन किया है, और भारत सही मायनों में उसकी आर्थिक, सामाजिक और रक्षा विकास गतिविधियों में सहायता कर रहा है। इसी प्रकार भारत को शीत युद्ध काल के दौरान के अपने सबसे निकट सहयोगी रूस को भी प्रबंधित करना चाहिए ताकि चीन के साथ प्रतिसंतुलन भी बनाया जा सके और महत्वपूर्ण रक्षा आपूर्तियां भी प्राप्त की जा सकें। इन सभी राष्ट्रों से बेहतर संबंध बनाने की दिशा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने त्वरित कदम उठाना शुरू कर दिए हैं।
3.0 भारत के आतंरिक सुरक्षा खतरे
भारत की आतंरिक सुरक्षा चुनौतियों को दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है - विद्रोह और उग्रवाद
3.1 विद्रोह
देश के विभिन्न भागों में उठी विद्रोह की आग को बुझाना भारत के समक्ष एक गंभीर चुनौती बना हुआ है - छत्तीसगढ, झारखंड, उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश के कुछ भागों (जिसे लाल गलियारा कहा जाता है) से घिरे मध्य भारत के घने जंगलों से लेकर, उत्तर-पूर्वी भारत तक। 1989 से जम्मू एवं कश्मीर राज्य में जारी पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित और समर्थित आतंकवादी गतिविधियों से हम सभी परिचित हैं। इसके अलावा, देश के विविध जातीय उत्तर पूर्वी भागों में दर्जनों उग्रवादी गुट हैं। अब तक भारत की रणनीति यह रही है कि पहले संबंधित राज्य को अपनी कानून व्यवस्था की स्थिति से निपटने दिया जाए, और केवल चरम अत्यावश्यकता के मामले में ही हस्तक्षेप किया जाए।
इस रणनीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता है, क्योंकि स्वतंत्रता चाहने वाले कइयों के एकत्रीकरण के संकेत प्राप्त हो रहे हैं। उदाहरणार्थ, ऐसे संकेत हैं कि अपनी गतिविधियों में तालमेल कायम करने के लिए माओवादियों ने कश्मीरी अलगाववादियों और उल्फा के साथ संबंध बनाने के प्रयास किये हैं। साथ ही, जैसे-जैसे भारत में वामपंथी उग्रवाद (एलडब्लूई) फैलता जा रहा है, वह महत्वपूर्ण शहरों, और संचार की उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम रेखाओं में भी निकटता विकसित कर सकता है जिसे भारतीय सेना ने ‘‘संभावित खतरनाक‘‘ का नाम दिया है।
अतः एलडब्लूई के साथ सफलतापूर्वक निपटने के लिए दो-तरफा रणनीति अपनाने की आवश्यकता है - प्रभावित क्षेत्रों का सामाजिक-आर्थिक विकास, जो भारत सरकार द्वारा उसके नागरिकों से किया गया अपूर्ण वादा है (राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के अनुसार) और दूसरा, कठोरता से बर्बर उग्रवादियों को कुचलना क्योंकि यही भारत के भीतरी में नक्सल आंदोलन की वृद्धि का प्रमुख कारण रहा है। समावेशी विकास को सार्वजनिक नीति के उद्देश्य के रूप में क्रियान्वित करने के ईमानदार प्रयास किये जाने चाहिए। उग्रवाद से संघर्ष करने के लिए अंतर-राज्य सहयोग अत्यंत आवश्यक है, और राष्ट्रीय स्तर पर उग्रवाद का मुकाबला करते समय क्षेत्राधिकार के मुद्दों को आड़े नहीं आने देना चाहिए। यह सफल नहीं हो पाया तो स्पष्ट है कि भारत में शासन का गंभीर संकट उत्पन्न हो जायेगा।
भारत के उत्तर-पूर्व में विद्रोह 1950 से देखा जा रहा है, व यह उस प्रक्रिया से जुड़ा है जिसके तहत् उन राज्यों को भारत संघ में जोड़ा गया। किंतु बहुत समय बीत चुका है। ज़मीनी स्तर पर जनता को भागीदार बनाकर हमें अंतर-नस्लीय व अंतर-धार्मिक भेदों को पाटना होगा। बांग्लादेश से हो रहे
अवैध आव्रजन को रोकना ही होगा व उसे वोट-बैंक राजनीति बनने नहीं देना होगा अन्यथा आने वाले दशकों में इन राज्यों की परिवर्तित जनसांख्यिकी देश की आतंरिक सुरक्षा पर कहर ढ़ा सकता है। यूआईडीएआई आधार संकल्पना शुरू करने का यही संक्षिप्त कारण था।
जम्मू एवं कश्मीर के मुद्दे को हल करने के लिए, अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं। परंतु संक्षेप में, इस विषय को केंद्र सरकार की ओर से कठोरता से निपटने की आवश्यकता है। यह बात व्यापक रूप से प्रलेखित है कि पाकिस्तान का शासन कश्मीरी युवाओं में अलगाव के बीज सुलगाता है। यहां तक कि जम्मू एवं कश्मीर राज्य के भीतर भी जम्मू और लद्दाख में अलगाववादी गतिविधियाँ नहीं देखी जाती, और ये क्षेत्र देश की मुख्यधारा से अच्छी तरह से एकीकृत हैं। केवल घाटी ही है जहां ऐसी गतिविधियाँ देखी जाती हैं, और इस क्षेत्र में रोजगार निर्मिति पर पर्याप्त ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है।
3.2 उग्रवाद
भारत में धार्मिक उग्रवाद देश की सुरक्षा के लिए एक अन्य आतंरिक खतरा है। इस प्रतिभास के कारण-एवं-परिणाम को स्थापित किये बिना, जैसा कि अधिकांश दक्षिणपंथी और वामपंथी बुद्धिजीवी करते हैं, इस समस्या को तेजी से हल करने की आवश्यकता है। निष्पक्ष और पारदर्शी कानून प्रवर्तन, और त्वरित, कुशल न्यायिक तंत्र देश में धार्मिक उग्रवाद के ज्वार को रोकने के लिए आवश्यक है अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक, दोनों। इस चुनौती को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने के उद्देश्य से कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा हाल ही में दिए गए शब्दाडंबरपूर्ण बयान वास्तव में बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण हैं। आतंरिक सुरक्षा के लिए अन्य चुनौतियाँ हैं आश्चर्यजनक रूप से बडे़ पैमाने पर व्याप्त भ्रष्टाचार, राजनीतिक गुटबाजी और जातीय संघर्ष - इन सभी के लिए आवश्यक है अनुभवी और दृढ़ राजनीतिक दूरदृष्टि।
4.0 कौन सा खतरा बड़ा है - आतंरिक या बाह्य?
भारत के लिए कौन सा खतरा बड़ा होगा यह निर्धारित करना एक कठिन काम है। वास्तव में, उच्च गतिशीलता वाली बाह्य सुरक्षा स्थिति में और तेजी से विकसित होते आतंरिक सामाजिक-आर्थिक घटनाक्रम में, इन चुनौतियों की सापेक्ष ताकत निश्चितता से निर्धारित नहीं की जा सकती। परंतु हम कह सकते हैं कि एक आतंरिक रूप से कमजोर देश बाह्य दुश्मन से सफलतापूर्वक नहीं लड़ सकता। अतः आतंरिक विद्रोह से सफलतापूर्वक निपटना बाहर की लड़ाई लड़ने से अधिक बड़ी और त्वरित चुनौती है। लगातार चलता विद्रोह हमारी आतंरिक कमजोरी को उजागर कर देगा और हमारे दुश्मनों को बाहरी आक्रमण के लिए प्रेरित करेगा। उदाहरणार्थ, युद्ध की स्थिति में वामपंथी उग्रवादी रेल और सड़क अधोसंरचना को अपंग बना सकते हैं, और हमारे दुश्मन इसे भी हमारी कमजोरी के रूप में अपनी गिनती में शामिल करेंगे। उसी प्रकार भारत में उग्रवादियों को हमारे दुश्मनों द्वारा उकसाया जा रहा है और उन्हें समर्थन दिया जा रहा है और इन दोनों चुनौतियों के प्रभाव को दरअसल पृथक नहीं किया जा सकता।
5.0 उपसंहार
राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे विशाल और जटिल क्षेत्र में यह निर्धारित करना कठिन है कि आतंरिक और बाह्य खतरे में से देश को आगे बढ़ने से रोकने में कौन सा खतरा सुरक्षा खतरा अधिक बड़ा साबित होगा। किन्तु यदि हम देश को एक जीव के रूप में देखें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि बाह्य दुश्मन से लडने के लिए आतंरिक शक्ति पूर्व शर्त है। आतंरिक एकजुटता और बाहरी सुरक्षा तैयारी ही किसी देश को एक संभाव्य आक्रमणकारी को रोकने और देश की स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए आवश्यक घातक शक्ति प्रदान करती है। अनेक सहस्राब्दियों के भारतीय इतिहास ने यह दिखा दिया है कि हमने अपनी सीमाओं को नजरअंदाज करके या आतंरिक गुटबाजी के कारण ही अपनी स्वतंत्रता और संपत्ति को खोया है। कोई भी राष्ट्र जो समृद्ध और संपन्न हो रहा है, वह यदि अपनी सुरक्षा पर पर्याप्त ध्यान केंद्रित नहीं करता, तो वह बाह्य आक्रमण को निमंत्रण दे रहा है।
क्या हम एक राष्ट्र के रूप में इन चुनौतियों का सामना करने और उनपर काबू पाने के लिए तैयार हैं?
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