यूपीएससी तैयारी - भारतीय कृषि एवं संबंधित मुद्दें - व्याख्यान - 9

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 बागवानी, पशुपालन, उत्पाद प्रबंधन, खाद्य प्रसंस्करण, ई-नाम भाग - 2

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4.0 कृषि विपणन (Agriculture Marketing) 

कृषक ने उत्पादन की नई तकनीकों को अपनाने के महत्त्व को जान लिया है, और वह अधिक आय और बेहतर जीवन स्तर के लिए प्रयास कर रहा है। इसके कारण आज की फसल पद्धतियाँ निर्वाह आवश्यकताओं से कम और आर्थिक कारणों से अधिक प्रभावित है। आमतौर पर कृषक विपणन व्यवस्था की जटिलताओं से अनभिज्ञ होता है, जो अधिकाधिक जटिल होती जा रही हैं। एक विक्रेता के रूप में फसल उत्पादक अनेक विकलांगताओं के कारण असमर्थ है। वह अपना उत्पाद अनुचित स्थान, समय और मूल्य पर विक्रय कर रहा है। 

4.1 कृषि विपणन के लिए आवश्यक सुविधाएँ 

अपने कृषि उत्पाद का सर्वश्रेष्ठ लाभ प्राप्त करने के लिए कृषक को कुछ मूलभूत सुविधाओं की आवश्यकता होती है 

  1. उसके पास अपने उत्पादन के उचित भंडारण की सुविधा होना आवश्यक है। 
  2. उसके पास धारण क्षमता होनी चाहिए, इस अर्थ से कि उसमें उस समय तक रुकने की क्षमता होनी चाहिए जब वह अपने उत्पाद के लिए बेहतर मूल्य प्राप्त कर सके, न कि उसे गांव में ही अपनी फसल निकलने के तुरंत बाद विक्रय करने के लिए बाध्य होना पडे़, जब कीमतें काफी कम होती हैं। 
  3. उसे पर्याप्त और सस्ती परिवहन सुविधाएँ उपलब्ध होनी चाहिये, ताकि वह अपनी अधिशेष फसल को गांव में ही साहूकार बनाम व्यापारी को सस्ती कीमतों पर बेचने के बजाय विक्रय के लिए मंड़ी में ले जा सके। 
  4. उसे बाज़ार की स्थिति के साथ ही प्रचलित कीमतों की भी स्पष्ट जानकारी होनी चाहिए अन्यथा उसके साथ धोखा किया जा सकता है। संगठित और विनियमित बाजार उपलब्ध होने चाहिये जहां कृषक के साथ ‘‘दलाल’’ और ‘‘आढ़तिये‘‘ धोखा नहीं कर सकें। 
  5. बिचौलियों की संख्या कम से कम होनी चाहिए, ताकि बिचौलियों का लाभ कम हो जाये। यह कृषकों के प्रतिफल में वृद्धि कर देगा।

4.2 वर्तमान विपणन व्यवस्था की कमियां 

भारतीय कृषि विपणन व्यवस्था दोषों से ग्रस्त है। यह कृषक को उसके उत्पाद के उचित मूल्य से वंचित रखती है। वैश्विक स्तर पर ऐसे उदाहरण देखे जा सकते है जहां हालांकि कृषि उत्पाद के मूल्य विनिमय के स्तर पर कम नहीं हुए हैं, फिर भी कृषि उत्पाद मूल्यों में भारी गिरावट देखी गई है। यह प्रवृत्ति अनेक बिचौलियों की उपस्थिति और निराश विक्रय की ओर इशारा करती है। नीचे कृषि विपणन व्यवस्था के प्रमुख दोषों की चर्चा की जा रही है। 

अनुपयुक्त भंडारगृहः गांवों में उपयुक्त भंड़ारण सुविधाओं का पूरी तरह से अभाव है। अतः कृषक अपने उत्पाद को गड्ढों, मिट्टी के पात्रों, ‘‘कच्चे‘‘ गोदामों इत्यादि में रखने के लिए मजबूर हैं। भंड़ारण की इन अवैज्ञानिक पद्धतियों के कारण उत्पाद के बडे़ भाग का अपव्यय भी होता है। अनुमान है कि लगभग 1.5 प्रतिशत कृषि उत्पाद सड़ जाता है और मनुष्यों के उपभोग के योग्य नहीं रहता। इस कारण से गांव के बाजार में आपूर्ति काफी हद तक बढ़ जाती है और कृषकों को उनके उत्पाद का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। केंद्रीय भंड़ारण निगम और राज्य भंड़ारण निगमों की स्थापना के कारण इस स्थिति में कुछ हद तक सुधार हुआ है। 

श्रेणीकरण और मानकीकरण का अभावः कृषि उत्पादों की विभिन्न किस्मों का उचित श्रेणीकरण नहीं किया जाता। आमतौर पर जो पद्धति प्रचलित है उसे ‘‘दारा‘‘ विक्रय कहते हैं जिसमें सभी गुणवत्ता वाले उत्पादों के ढ़ेर बना दिए जाते हैं और वे सभी एकसाथ विक्रय किये जाते हैं। इस कारण से जो कृषक अच्छी गुणवत्ता की फसल पैदा कर रहे हैं, उन्हें भी अपने उत्पाद की बेहतर कीमत मिलने की संभावना नष्ट हो जाती है। अतः कृषक को अच्छे बीजों का उपयोग करने और गुणवत्तापूर्ण किस्मों का उत्पादन करने के लिए किसी प्रकार का प्रोत्साहन नहीं रह जाता। 

अपर्याप्त परिवहन सुविधाएँः भारत में परिवहन व्यवस्थाएं बहुत ही अपर्याप्त हैं। बहुत कम संख्या में गांव रेल और पक्की सड़कों से मंड़ियों से जुडे़ हुए हैं। उत्पाद का परिवहन बैलगाड़ी जैसे धीमे परिवहन साधनों के माध्यम से किया जाता है। निश्चित ही ऐसे साधनों का उपयोग उत्पाद को दूर के स्थानों तक ले जाने के लिए उचित नहीं है, परिणामस्वरूप किसानों को अपने उत्पाद निकट की मंडियों में ही बेचना पड़ता है, चाहे फिर वहां उनका मूल्य कम ही क्यों न हो। नाशवान उत्पादों के बारे में तो यह बात अधिक सत्य है। 

बड़ी संख्या में बिचौलियों की उपस्थितिः कृषि विपणन में बिचौलियों की श्रृंखला इतनी लंबी है, कि उत्पाद में कृषक की हिस्सेदारी काफी कम हो जाती है। उदाहरणार्थ डी.डी. सिधान द्वारा किया गया एक अध्ययन दर्शाता है कि कृषकों को चावल का केवल 53 प्रतिशत मूल्य प्राप्त हो पाता है, जबकि बिचौलियों का हिस्सा 31 प्रतिशत होता है। (शेष 16 प्रतिशत विपणन लागत में चला जाता है)। सब्जियों और फलों के मामले में कृशक की हिस्सेदारी और भी कम थी, सब्जियों के मामले में यह 39 प्रतिशत थी जबकि फलों के मामले में यह केवल 34 प्रतिशत थी। सब्जियों के मामले में बिचौलियों की हिस्सेदारी 29.5 प्रतिशत थी, जबकि फलों में उनकी हिस्सेदारी 46.5 प्रतिशत थी। कृषि विपणन व्यवस्था के कुछ बिचौलियों में गांव के व्यापारी, कच्चे आढ़तिये, पक्के आढ़तिये, दलाल, थोक विक्रेता, खेरची विक्रेता और साहूकार इत्यादि शामिल हैं।

अविनियमित बाजारों में व्याप्त भ्रष्टाचारः आज भी देश में अविनयमित बाजारों की संख्या काफी बड़ी है। आढ़तिये और दलाल कृषकों के अज्ञान और निरक्षरता का फायदा उठाते हुए किसानों के साथ धोखेबाजी करने के लिए भ्रष्ट साधनों का उपयोग करते हैं। किसानों को आढ़तियों को आढ़त का भुगतान करना पड़ता है, माल को तोलने के लिए ‘‘तुलाई‘‘ का भुगतान करना पड़ता है, बैलगाडी से उत्पाद उतरवाने और अन्य छोटे कामों के लिए ‘‘पल्लेदारी‘‘ का भुगतान करना पड़ता है, उत्पाद में विद्यमान अशुद्धियों के लिए ‘‘गर्द‘‘ का भुगतान करना पड़ता है, और अनेक अन्य अपरिभाषित और अनिर्धारित शुल्कों का भुगतान करना पडता है। अविनियमित मंडियों में प्रचलित एक अन्य भ्रष्ट तरीका है गलत वजनों और मापों का उपयोग। आज भी कई विनियमित बाजारों में किसानों के साथ धोखा करने के उद्देश्य से गलत वजनों का उपयोग किया जा रहा है। 

अपर्याप्त बाजार सूचनाः आमतौर पर कृषकों के लिए विभिन्न बाजारों में प्रचलित कीमतों की सटीक जानकारी प्राप्त करना संभव नहीं हो पाता। अतः वे व्यापारियों द्वारा प्रस्तुत कीमत स्वीकार करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। इस समस्या से निपटने के उद्देश्य से सरकार नियमित रूप से कृषि उत्पादकों की कीमतों के प्रसारण के लिए रेड़ियो और टेलीविजन मीडिया का उपयोग कर रही है। समाचार पत्र भी किसानों को उत्पाद मूल्यों में होने वाले परिवर्तनों के विषय में अद्यतन रखने का प्रयास करते हैं। हालांकि कई बार मूल्य निविदाएं विश्वसनीय नहीं होतीं, साथ ही कई बार इनमें समयावधि का भी काफी अंतर हो जाता है। व्यापारी आमतौर पर सरकारी मीडिया द्वारा प्रसारित मूल्य से कम मूल्य देते हैं।

अपर्याप्त साख सुविधाएँः भारतीय कृषक चूंकि गरीब है, अतः वह अपने उत्पादन को फसल कटने के बाद तुरंत विक्रय करने के लिए के लिए मजबूर होता है, हालांकि इस समय फसल का मूल्य अपने निम्नतम स्तर पर होता है। कृषकों को इस प्रकार के ‘‘मजबूरन विक्रय‘‘ से बचाने का एक सुरक्षा उपाय है उन्हें पर्याप्त साख उपलब्ध कराना, ताकि वह बेहतर समय और बेहतर कीमत मिलने तक इंतजार करने में सक्षम हो जाए। चूंकि ऐसी ऋण सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं, अतः किसान साहूकारों से ऋण लेने के लिए विवश हैं, जिसके लिए वे अपने उत्पाद को साहूकार के पास कम कीमत पर भी गिरवी रखने के लिए बाध्य हो जाते हैं। आमतौर पर सहकारी विपणन संस्थाओं ने बडे़ किसानों की आवश्यकताओं की ही पूर्ति की है, और छोटे किसानों को साहूकारों की मनमानी पर निर्भर रहने के लिए ही छोड़ दिया गया है। 

अतः भारत की वर्तमान कृषि विपणन व्यवस्था को भूमि संबंधों से अलग करके देखा जा सकता। आल इंडिया रेडियो द्वारा कीमतों के बाजार प्रसारण के विनियमन, परिवहन व्यवस्था में सुधार इत्यादि का लाभ निश्चित रूप से केवल पूंजीवादी कृषकों को ही मिला है और वे अब अपने ‘‘बाज़ार उत्पादों‘‘ के लिए बेहतर मूल्य प्राप्त करने में सक्षम हुए हैं, परंतु उपरोक्त परिवर्तनों और सुधारों का छोटे और सीमांत किसानों को बहुत अधिक लाभ नहीं मिल पाया है। 

4.3 कृषि उत्पाद की विशिष्ट विशेषतायें 

कृषि उत्पाद उनके स्वरुप और सामग्री में औद्योगिक उत्पादों से निम्न प्रकार से भिन्न हैं। 

  1. अनेक औद्योगिक उत्पादों की तुलना में कृषि उत्पाद अधिक भारी होते हैं, और उनके मूल्य के हिसाब से उनका वजन और आयतन काफी अधिक होता है। 
  2. भंड़ारण और परिवहन की मांग कहीं अधिक भारी है, और औद्योगिक उत्पादों की तुलना में कृषि उत्पादों के लिए यह अधिक विशिष्ट प्रकार की भी होती है। 
  3. कृषि उत्पाद औद्योगिक उत्पादों की तुलना में अधिक नाशवान होते हैं। हालांकि चावल और धान उनकी गुणवत्ता लंबे समय तक बनाये रखते हैं, फिर भी अधिकांश कृषि उत्पाद नाशवान होते हैं, और अंतिम उपभोक्ता तक पहुंचने तक वे लंबे समय तक क्षति और गुणवत्ता हृ्रास के बिना नहीं रखे जा सकते। 
  4. आम और अंगूर जैसे कुछ कृषि उत्पाद हैं जो केवल उनके मौसम में ही उपलब्ध होते हैं, जबकि मौसमी उपलब्धता का यह गुण औद्योगिक उत्पादों में नहीं होता है।
  5. कृषि उत्पाद विशाल भौगोलिक क्षेत्र में बिखरे होते हैं, अतः इनका संग्रहण समस्या बन जाता है, जबकि औद्योगिक उत्पादों के मामले में ऐसी स्थिति निर्मित नहीं होती। 
  6. कृषि उत्पादों में किस्मों की प्रचुर मात्रा में विविधता पाई जाती है, अतः उनका श्रेणीकरण करना कठिन हो जाता है। 
  7. विशेष रूप से भारत जैसे देशों में किसानों की रोक क्षमता बहुत ही कम होती है, अतः आवश्यकताओं के दबाव में उन्हें अपने उत्पादों का फसल कटने के बाद तुरंत विक्रय करना आवश्यक हो जाता है, फिर चाहे फसल कम कीमत पर ही क्यों न बेचना पडे़। 
  8. अंत में, कृषि उत्पादों की मांग और पूर्ति दोनों गैर-लचीली होती है। यदि फसल बहुत अधिक हुई है तो भी सरकार की ओर से न्यूनतम समर्थन मूल्य की निश्चितता के अभाव में किसानों की स्थिति अत्यंत विकट हो सकती है। उसी प्रकार वास्तव में किसान अल्पता या बुरी फसल का लाभ लेने की स्थिति में भी नहीं होते। ये लाभ केवल बिचौलियों को ही हस्तांतरित हो सकते हैं। 


4.4 विक्रय की पद्धतियाँ और विपणन अभिकरण 

आमतौर पर कृषि उत्पादों का विपणन निम्न में से किसी एक पद्धति से किया जाता है। 

आड़ में या हत्ता पद्धतिः इस पद्धति के तहत विक्रय विक्रेताओं के प्रतिनिधियों द्वारा कपडे़ के अंदर उँगलियों को मोड़ कर या जोड़कर किया जाता है। जब तक अंतिम बोली स्पष्ट नहीं हो जाती तब तक कृषक को विश्वास में नहीं लिया जाता। 

खुली बोली पद्धतिः इस पद्धति में प्रतिनिधि उत्पाद के लिए बोलियाँ आमंत्रित करते हैं, और सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को उत्पाद बेच दिया जाता है।

दारा पद्धतिः एक और संबंधित पद्धति यह है कि अनाज के विभिन्न मात्रा के ढे़र बनाये जाते हैं, और वजन इत्यादि का उपयोग किये बिना उन्हें ढ़ेर के हिसाब से बेचा जाता है। 

मोघम विक्रयः इस पद्धति में विक्रय क्रेता और विक्रेता के बीच मौखिक समझ के आधार पर होता है, और इसमें दर का भी उल्लेख नहीं किया जाता क्योंकि यह मान्य किया जाता है कि क्रेता प्रचलित दर के अनुसार मूल्य देगा। 

निजी समझौतेः विक्रेता अपने उत्पाद के लिए प्रस्ताव आमंत्रित कर सकते हैं, और उत्पाद का विक्रय उसे किया जा सकता है जिसने सबसे ऊंचा प्रस्ताव पेश किया है। 

सरकारी खरीदः सरकारी अभिकरण कृषि उत्पादों की विभिन्न गुणवत्ताओं की निश्चित कीमतें निर्धारित करते हैं। श्रेणीकरण और उचित वजन के लिए क्रमिक प्रक्रियाकरण के बाद विक्रय संपन्न होता है। सहकारी और विनियमित बाजारों में भी इसी पद्धति का पालन किया जाता है। 

विपणन अभिकरणः कृषि उत्पादों के विपणन के कार्य में कार्यरत विभिन्न अभिकरणों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है (1) सरकारी और अर्ध निजी अभिकरण जैसे सहकारी संस्थाएं और (2) निजी अभिकरण। सरकारी और निजी, दोनों प्रकारों के अभिकरणों में बिचौलियों की एक श्रृंखला कार्यरत देखी जा सकती है। इनमें से अधिक महत्वपूर्ण निम्नानुसार हैंः

  1. व्यापारी उत्पाद का सबसे आम क्रेता होता है, वह व्यक्तिगत स्तर पर कार्य करता है। 
  2. भ्रमणकारी व्यापारी विभिन्न गांवों का दौरा करता है, उत्पाद इकठ्ठा करता है, और सबसे नजदीकी बाजार में उत्पाद को विक्रय के लिए ले जाता है। 
  3. प्रतिनिधियों का संबंध उत्पाद को इकठ्ठा करके उसके वितरण से होता है।

4.5 सहकारी विपणन (Cooperative Marketing)

हालांकि उपरोक्त उपायों के कारण कृषि विपणन में कुछ हद तक सुधार हुआ है, फिर भी इसका अधिकांश बड़ा लाभ उन बडे़ कृषकों द्वारा ही उठाया गया है जिनके पास विपणन योग्य अधिशेष उपलब्ध होता है। हालांकि छोटे और सीमांत कृषक आज भी अपने उत्पाद का अधिकांश भाग अपनी ऋण की आवश्यकताओं के कारण साहूकारों को ही बेच रहे हैं, और ये साहूकार उन्हें उनके उत्पाद का अत्यंत अल्प मूल्य प्रदान करते हैं। सहकारी विपणन संस्थाएं कृषकों को बहुविध लाभ प्रदान कर सकती हैं, जिनमें से कुछ नीचे दिए गए हैं। 

कृषकों की सौदेबाजी की क्षमता में वृद्धिः  वर्तमान कृषि विपणन व्यवस्था की अनेक बुराइयां इस कारण से निर्मित होती हैं कि ज्ञान और निरक्षर किसान को (एक व्यक्ति के रूप में) सुसंगठित और चतुर बिचौलियों का सामना करना पड़ता है। यदि किसान संगठित हो जाएँ और एक सहकारी संस्था बना लें, तो स्वाभाविक रूप से वे शोषण और भ्रष्टाचार की दृष्टि से कम प्रवण होंगे। अपने उत्पादों का अलग-अलग और स्वतंत्र रूप से विपणन करने के बजाय, वे एक ही अभिकरण के माध्यम से एकसाथ अपने उत्पादों का विपणन कर सकेंगे। 

अंतिम क्रेता के साथ सीधा संपर्कः अनेक मामलों में सहकारी संस्थाएं बिचौलियों से पूर्ण रूप से मुक्त होकर कार्य कर सकती हैं, और इसके बजाय अंतिम क्रेताओं के साथ सीधे संपर्क स्थापित कर सकती हैं। पद्धति शोषण करने वाले बिचौलियों को समाप्त कर देगी और उत्पादकों और उपभोक्ताओं, दोनों के लिए उचित मूल्य सुनिश्चित कर सकेगी। 

ऋण का प्रावधानः सहकारी विपणन संस्थाएं कृषकों को फसल के बाद तुरंत अपने उत्पादों की बिक्री करने को बाध्य होने से बचाने के लिए ऋण सुविधा प्रदान करती हैं। यह कृषकों को बेहतर प्रतिफल सुनिश्चित करता है।  

सुलभ और सस्ता परिवहनः सहकारी संस्थाओं द्वारा कृषि उत्पादों का थोक में किया जाने वाला परिवाह अक्सर सुलभ और सस्ता होता है। कई बार इन संस्थाओं के पास अपने स्वयं के परिवहन के साधन भी उपलब्ध होते हैं। यह लागतों में, और उत्पाद को बाजार तक ले जाने की चिंता को और भी अधिक कम कर देता है। 

भंडारण सुविधाएँः सहकारी विपणन संस्थाओं के पास अक्सर भंड़ारण सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं। इस प्रकार कृषक अच्छी और बेहतर कीमतों का इंतजार कर सकते हैं। साथ ही इनके कारण उनके उत्पाद को वर्षा, कृतंकों और चोरी से होने वाले से नुकसान का खतरा भी नहीं होता। 

श्रेणीकरण और मानकीकरणः यह कार्य एक व्यक्तिगत कृषक की तुलना में सहकारी संस्था के लिए अधिक आसानी से किया जा सकता है। इस प्रयोजन से वे सरकार से भी सहायता प्राप्त कर सकती हैं, या स्वयं अपनी श्रेणीकरण व्यवस्थाएं निर्मित कर सकती हैं। 

बाज़ार की सूचनाः सहकारी संस्थाएं नियमित रूप से बाज़ार की कीमतों, मांग और पूर्ति और अन्य संबंधित जानकारी के आंकड़ों की बाजारों से आसानी से व्यवस्था कर सकती हैं, और उनके अनुसार अपनी गतिविधियों का नियोजन कर सकती हैं। 

बाजार की कीमतों को प्रभावित करनाः पूर्व में जबकि बाजार की कीमतें बिचौलियों और व्यापारियों द्वारा निर्धारित की जाती थीं, और किसान मूक दर्शक बनकर उसे ही स्वीकार करने के लिए मजबूर रहते थे जो उन्हें प्रदान किया जाता था। सहकारी संस्थाओं ने इस पूरी प्रक्रिया को पूरी तरह से परिवर्तित कर दिया है। जहां कहीं शक्तिशाली विपणन सहकारी संस्थाएं क्रियाशील हैं, वहां उन्होंने पर्याप्त सौदेबाजी की है और अपने कृषि उत्पादों के लिए बेहतर कीमतें प्राप्त की हैं। 

निविष्टियों और उपभोक्ता वस्तुओं का प्रावधानः सहकारी विपणन संस्थाएं आसानी से बीज, खाद, उर्वरक इत्यादि जैसी कृषि निविष्टियों और उपभोक्ता वस्तुओं की सस्ती दरों पर थोक खरीद की व्यवस्था कर सकती हैं, और फिर उन्हें अपने सदस्यों के बीच वितरित कर सकती हैं। 

कृषि उत्पाद का प्रक्रियाकरणः सहकारी संस्थाएं बीजों को कुचलने, कपास की ओटाई और संकोचन इत्यादि जैसे प्रक्रियाकरण के कार्य कर सकती हैं। 

उपरोक्त सभी लाभों के अतिरिक्त, सहकारी विपणन व्यवस्था कृषकों में आत्मविश्वास और सामूहिक कार्य की भावना जगा सकती है, जिसके बिना कृषि विकास के कार्यक्रम चाहे कितनी भी अच्छी तरह से बने और लागू किये गए हों, सफल होना संभव नहीं हैं। 


4.6 भंड़ारण भाण्डागारण

भंडारण एक महत्वपूर्ण विपणन कार्य है जिसमें उत्पादों को उत्पादन के समय से उपभोग के लिए उनकी आवश्यकता के समय तक बनाये रखना और संरक्षण शामिल है। एक अकुशल भंड़ारण व्यवस्था न केवल कृषकों को दंड़ित करती है, बल्कि अभाव के समय उपभोक्ताओं को भी हानि पहुंचाती है। अतः उत्पादन के समय से लेकर उपभोग के समय तक उत्पादों का भंडारण बाजार में वस्तुओं के निरंतर प्रवाह को सुनिश्चित करता है। एक पर्याप्त भंडारण व्यवस्था के लाभ नीचे दिये गये हैं। साथ ही विस्तृत अखिल भारतीय    भंडारण क्षमता मानचित्र का भी संदर्भ लें।

  1. भंड़ारण नाशवान और अर्ध-नाशवान उत्पादों की गुणवत्ता के क्षय से संरक्षण करता है
  2. ऊनी कपड़ों जैसे कुछ उत्पादों की मांग मौसमी होती है। इस मांग की पूर्ति लिए निरंतर आधार पर उत्पादन और भंड़ारण अनिवार्य हो जाता है
  3. यह मांग और पूर्ति के समायोजन के माध्यम से मूल्यों के स्थिरीकरण में भी सहायक होता है
  4. अन्य विपणन कार्य संपन्न होने तक के समय के लिए भंडारण आवश्यक है
  5. भंडारण मूल्य लाभ के माध्यम से आय और रोजगार प्रदान करता है। 

4.6.1 खाद्यान्नों के संरक्षण के सिद्धांत 

खाद्यान्नों की गुणवत्ता में गिरावट, हानि और अपव्यय के बिना इनके संरक्षण की दृष्टि से निम्न स्वर्णिम सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए। 

  1. खाद्यान्नों की बोरियां इसकी भण्डारण योजना के अनुसार उचित निभार के साथ प्राप्त की जानी चाहियें ताकि इनका संवातन, निरिक्षण और गुणवत्ता जाँच उपाय सुलभ बनाया जा सके, साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जा सके कि खाद्यान्नों की बोरियां पूर्ण क्षमता के अनुसार रखी गई हैं और भण्ड़ारण में कहीं भी जगह रिक्त नहीं रखी गई है। 
  2. प्रत्येक क्रमबद्ध ढे़र, गोदाम और परिचालन बिंदु के आसपास चारों ओर स्वच्छता बनाये रखना आवश्यक है, साथ ही ढ़ीले छलकाव से बचा जा सके और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि छलका हुआ खाद्यान्न संबंधित ढ़ेरों की पल्ला बोरियों में भर कर स्थान को स्वच्छ किया जाना चाहिए। 
  3. कीट नाशकों के छिड़काव का व्यक्तिगत रूप से पर्यवेक्षण किया जाना चाहिए, साथ ही छिड़काव की मात्रा उचित होनी चाहिए, साथ ही किसी ढे़र में कीटों की उपस्थिति महसूस होते ही प्रतिरोधी उपाय भी तुरंत किये जाने चाहियें ताकि कीटों के अन्य ढ़ेरों में संक्रमण को ‘‘वक्त का एक टांका बेवक्त के सौ टांकों से बेहतर है‘‘ की तर्ज पर रोका जा सके। 
  4. प्रत्येक प्राप्ति बिंदु और निर्गम बिंदु पर पर्याप्त तारपोलीन और पॉलिथीन का प्रावधान सुनिश्चित किया जाना चाहिए और उनकी प्राप्ति पर जोर दिया जाना चाहिए, ताकि छलके हुए खाद्यान को मिटटी के मिश्रण और सम्भाव्य अपव्यय और हानि से बचाया जा सके। 
  5. खाद्यान्नों के ट्रकों पर लदान से पहले ट्रक के तल पर पूरी तरह से तारपोलीन बिछा हुआ हो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए, साथ ही लदान के बाद ट्रक चारों ओर से तारपोलीन से अच्छी तरह ढं़का हुआ हो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए, ताकि परिवहन के दौरान खाद्यान्नों में पानी का रिसाव न हो सके, और संभावित क्षय और नुकसान से बचा जा सके। 
  6. पर्याप्त हवा और सूर्य प्रकाश सुनिश्चित करने के लिए सभी साफ दिनों में गोदामों के सभी फाटक पर्याप्त समय के लिए खुले रखने चाहिये। 
  7. छलकाव के ढ़ेरों पर राशिपातन से पूरी तरह से बचना चाहिए। 

4.7 कृषि विपणन व्यवस्था में सुधार 

भारत सरकार ने कृषि विपणन में सुधार लाने के लिए अनेक उपाय किये हैं, जिनमें से महत्वपूर्ण उपाय निम्नानुसार हैं - विनियमित बाजारों की स्थापना, भंड़ारगृहों का निर्माण, श्रेणीकरण का प्रावधान, और उत्पादों का मानकीकरण, वजन और मापों का मानकीकरण, आल इंडिया रेडियो पर कृषि उत्पादों के बाजार मूल्यों का दैनिक प्रसारण, परिवहन सुविधाओं में सुधार, इत्यादि। 

विपणन सर्वेक्षणः सबसे पहले सरकार ने विभिन्न कृषि उत्पादों का सर्वेक्षण किया है और इन सर्वेक्षणों को प्रकाशित किया है। इन सर्वेक्षणों ने कृषि उत्पादों के विपणन में आने वाली समस्याओं को उजागर किया है, और उन्हें समाप्त करने के लिए सुझाव दिए हैं। 

श्रेणीकरण और मानकीकरणः सरकार ने अनेक कृषि उत्पादों के श्रेणीकरण और मानकीकरण की दिशा में काफी कार्य किया है। कृषि उत्पाद (श्रेणीकरण और विपणन) अधिनियम के तहत सरकार ने घी, आटा, अंडे़ इत्यादि जैसे उत्पादों के लिए श्रेणीकरण केंद्र स्थापित किये हैं। श्रेणीकृत उत्पादों पर कृषि विपणन विभाग की मुहर-एगमार्क अंकित की जाती है। ‘‘एगमार्क‘‘ उत्पादों का बाजार काफी विस्तृत और व्यापक होता है, और उन्हें मूल्य भी बेहतर प्राप्त होता है। नागपुर में एक केंद्रीय गुणवत्ता नियंत्रण प्रयोगशाला स्थापित की गई है, और देश में आठ अन्य स्थानों पर क्षेत्रीय प्रयोगशालाएं स्थापित की गई हैं। इनका उद्देश्य सरकारी ‘‘एगमार्क‘‘ के लिए आवेदन करने वाले कृषि उत्पादों की गुणवत्ता का परीक्षण करना है। सरकार गुणवत्ता नियंत्रण, परीक्षण और श्रेणीकरण में सुधार को और अधिक सुसंगत बना रही है।

भाण्डागारण सुविधाओं का प्रावधानः केंद्रीय भंडारण निगम की स्थापना 1957 में कृषि उत्पादों के भंडारण के लिए गोदामों और भांड़ागारों के निर्माण और परिचालन के उद्देश्य से की गई थी। इन्ही उद्देश्यों से राज्यों ने राज्य भंडारण निगमों की स्थापना की है। वर्तमान में खाद्य निगम देश के विभिन्न भागों में अपने स्वयं के गोदामों के संजाल का निर्माण कर रहा है। छठी योजना के अंत तक देश में कुल भंडारण क्षमता 27 मिलियन टन थी। 

बाजार सूचना का विकीर्णनः सरकार कृषकों के लिए बाजार जानकारी के प्रसारण की ओर ध्यान देती रही है। चूंकि अधिकांश गांवों में रेडियो की सुविधा उपलब्ध है, अतः इन प्रसारणों को कृषकों द्वारा वास्तव में सुना जाता है। समाचारपत्र भी कृषि मूल्यों का प्रकाशन या तो दैनिक या साप्ताहिक आधार पर करते हैं, जिनमें रुझानों और प्रवृत्तियों पर एक संक्षिप्त समीक्षा भी शामिल होती है। 

विपणन एवं निरीक्षण निदेशालयः भारत सरकार द्वारा इस निदेशालय की स्थापना विभिन्न कभीकरणों के बीच कृषि विपणन के समन्वय के लिए और कृषि विपणन की समस्याओं के बारे में केंद्र एवं राज्य सरकारों को सलाह देने के लिए की गई थी। इस निदेशालय की गतिविधियों में निम्न गतिविधियाँ शामिल हैंः

  1. कृषि एवं तत्संबंधी उत्पादों के श्रेणीकरण और मानकीकरण को प्रोत्साहित करना;
  2. बाजारों एवं बाजार पद्धतियों का सांविधिक विनियमन;
  3. कर्मियों का प्रशिक्षण;
  4. बाजार विस्तारण;
  5. बाजार अनुसंधान, सर्वेक्षण और नियोजन, और 
  6. पुराने भण्डारण आदेश, 1980 और मांस खाद उत्पाद आदेश, 1973 का प्रशासन। 

अभी तक इस निदेशालय ने 142 उत्पादों के लिए श्रेणी विनिर्देश निर्मित किये हैं। कम से कम 41 ऐसे कृषि उत्पाद हैं जिनके निर्यात से पहले यह निदेशालय उनके अनिवार्य गुणवत्ता नियंत्रण का प्रवर्तन करता है। यह निदेशालय कुछ चयनित विनियमित बाजारों को उत्पादक के स्तर पर तंबाकू, जूट, कपास, मूंगफली और काजू जैसे महत्वपूर्ण उत्पादों के श्रेणीकरण की सुविधा प्रदान करने के लिए वित्तीय सहायता भी प्रदान कर रहा है।

सरकारी खरीद एवं समर्थन मूल्यों का निर्धारणः उपरोक्त उल्लिखित उपायों के अतिरिक्त, कृषकों को उनके उत्पादों का उचित मूल्य उपलब्ध कराने के उद्देश्य से सरकार समय-समय पर विभिन्न कृषि उत्पादों के समर्थन मूल्यों की भी घोषणा करती है। ये मूल्य कृशि लागत व मूल्य आयोग (CACP) की अनुशंसा के अनुसार निर्धारित किये जाते हैं। 

यदि कीमतें घोषित मूल्य से नीचे गिरना शुरू हो जाती हैं, (बाजार में उत्पाद के आधिक्य के कारण) तो भारतीय खाद्य निगम जैसे सरकारी अभिकरण बाजार में हस्तक्षेप करते हैं और समर्थन मूल्य पर कृषकों से उत्पाद का सीधा क्रय करते हैं। इस खरीद का सरकार द्वारा सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के माध्यम से सस्ते दामों पर विक्रय किया जाता है। 

4.8 विभिन्न कानूनी प्रावधान

4.8.1 आवष्यक वस्तुएं अधिनियम (Essential Commodities Act)

जुलाई 2014 में सरकार ने प्याज और आलू को आवश्यक सेवाओं के अधिनियम की परिधि में शामिल करके आवश्यक वस्तुएं अधिनियम को अधिक कठोर बनाने का प्रयास किया है। आवश्यक वस्तुएं अधिनियम का अधिनियमन 1955 में अधिनियम के तहत आवश्यक वस्तुओं के रूप में घोषित वस्तुओं के व्यापार और कीमतों को नियंत्रित और विनियमित करने के उद्देश्य से किया गया था। यह अधिनियम केंद्र को राज्य सरकारों को भंड़ारण की सीमा अधिरोपित करने और जमाखोरों को सही मार्ग पर लाने के आदेश देने के अधिकार प्रदान करता है ताकि आपूर्ति को नियमित किया जा सके और मूल्यों को नियंत्रित किया जा सके। आमतौर पर केंद्र भंड़ारण के मामले में उच्च सीमा निर्धारित करता है, और राज्य विशिष्ट सीमायें निर्धारित करते हैं। हालांकि यदि केंद्र और राज्य की सीमाओं में अंतर है, तो अधिनियम में यह प्रावधान किया गया है कि केंद्र द्वारा निर्धारित सीमायें लागू मानी जाएँगी। औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश (डीपीसीओ) और अन्य ऐसे आदेश आवश्यक वस्तुएं अधिनियम द्वारा प्रदत्त अधिकार के तहत जारी किये गए हैं।

उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने आवश्यक वस्तुएं अधिनियम, 1955 को संशोधित करने के लिए कुछ सिफारिशें तैयार की हैं। इस प्रकार के संशोधन की एक महत्वपूर्ण सिफारिश है अधिनियम में एक अनुच्छेद की प्रविष्टि, जिसके तहत केवल विशेष रूप से अधिसूचित वस्तुओं को छोड़कर खाद्यान्नों सहित आवश्यक वस्तुओं के वायदा बाजार में व्यापार पर पूर्ण प्रतिबंध की सिफारिश शामिल है। इस अधिनियम के क्षेत्राधिकार में आने वाली प्रमुख वस्तुएं निम्नानुसार हैंः

  1. पेट्रोलियम और इससे संबंधित उत्पाद, जिनमें पेट्रोल, डीजल, मिट्टी का तेल, नैप्था, विलायक द्रव इत्यादि शामिल हैं। 
  2. खाद्य वस्तुएं, जिनमें खाद्य तेल और बीज, वनस्पति, दालें, गन्ना और इसके पदार्थ, जैसे खांड़सारी और शक्कर, धान इत्यादि 
  3. जूट और वस्त्र। 
  4. औषधियां - उर्वरक नियंत्रण आदेश कीमतों को छोड़कर उर्वरकों के हस्तांतरण और भंडार पर प्रतिबंध का प्रावधान करता है। 
  5. उर्वरक- उर्वरक नियंत्रण आदेष कीमत के अतिरिक्त उर्वरकों के हस्तांतरण और भंडारण को प्रतिबंधित करता है।

पूर्व में अधिनियम में विभिन्न संशोधनों माध्यम से सरकार ने तृणमारक, कवकनाशी और अध्ययन पुस्तकों जैसी अनेक वस्तुओं को इसके क्षेत्राधिकार से बाहर कर दिया था। साथ ही जुलाई 2014 में सरकार ने प्याज और आलू को इसके क्षेराधिकार में लाकर इसे और अधिक कठोर बना दिया है। 

4.8.2 कृषि उत्पन्न बाजार समिति अधिनियम (APMC Acts)

कृषि उत्पन्न बाजार समिति अधिनियमों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि बिचौलिए किसानों को उनके उत्पाद सस्ती कीमतों पर बेचने के लिए मजबूर नहीं कर पाएं, और इस प्रकार किसानों को शोषण से बचाना। इस अधिनियम ने यह सुनिश्चित करने का किया कि किसान पहले अपना उत्पाद मंडियों में लाएं और अपने उत्पादों को नीलामी की प्रक्रिया के माध्यम से बेचें। इससे यह सुनिश्चित होगा कि किसानों को उनके उत्पादों का प्रतियोगी मूल्य प्राप्त हो सके। हालांकि समय के साथ इस अधिनियम के क्रियान्वयन में अनेक दोष विकसित हो गए। 

विभिन्न राज्यों के मूल कृषि उत्पन्न बाजार समिति अधिनियमों के तहत 

  1. राज्य भौगोलिक दृष्टि से विभाजित किये गए हैं और मंडियां राज्य के अंदर विभिन्न स्थानों पर स्थापित की गई थीं
  2. किसानों को उनके उत्पाद मंड़ियों में नीलामी के माध्यम से बेचना था
  3. मंड़ी में परिचालन के लिए व्यापारी को अनुज्ञप्ति प्राप्त करना आवश्यक था 
  4. थोक व्यापारी और खेरची व्यापारी (उदाहरणार्थ एक मॉल में स्थित दुकान का स्वामी) सीधे किसान से कृषि उत्पाद नहीं खरीद सकते हैं। उन्हें यह उत्पाद मंडी से ही क्रय करना होगा।

हालांकि, इनके घोषित उद्देश्यों की प्राप्ति के बजाय इस अधिनियम ने ठीक इसकी उलटी दिशा में ही कार्य किया है। विश्लेषकों के अनुसार विश्लेषकों का कहना है व्यापारियों की अनुज्ञप्ति एकाधिकार को बढ़ावा देती है, और सीधे और मुक्त विपणन में किसानों को कोई सहायता प्रदान नहीं करती। वर्तमान में प्रत्यक्ष विपणन पर प्रतिबंध के कारण निर्यातकों, प्रसंस्करण इकाइयों और खुदरा श्रृंखला संचालकों को उनके व्यापार के लिए इच्छित गुणवत्ता की और उपयुक्त मात्रा में वस्तुएं उपलब्ध नहीं हो पातीं। अतः खाद्य प्रसंस्करण करने वाला प्रसंस्करण संयंत्र या भांडारण गृहों से सीधे उत्पाद नहीं खरीद सकता। इसके कारण प्रसंस्करण करने वालों द्वारा खरीदी गई वस्तुओं की लागत में वृद्धि होती है, जबकि किसान को भी उसके उत्पाद का उचित मूल्य नहीं मिल पाता खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय कृषि उत्पन्न बाजार समिति अधिनियम को समाप्त करने का विचार कर रहा है, और इसने कृषि बाजार विनियमन अधिनियम के संशोधन/समाप्ति पर ध्यान केंद्रित किया है।  अनेक नीति निर्माता और शिक्षाविद इस कानून को निजी व्यवसाइयों द्वारा अधोसंरचना निर्माण, किसानों के लिए वैकल्पिक विपणन चौनल के विकास और एक प्रतियोगी बाजार की स्थापना के प्रतिबंध के रूप में देखते हैं। 

कृषि उत्पन्न बाजार समिति अधिनियम के नए संशोधनों के अनुसार किसान को अपना उत्पाद कृषि उत्पन्न बाजार समिति मंड़ी में लाने की आवश्यकता नहीं है। वह अपना उत्पाद किसी को भी बेच सकता है। कृषि प्रसंस्करक, निर्यातक, श्रेणीकर्ता, पैकेजिंग करने वाले इत्यादि सीधे किसान से कृषि उत्पाद खरीद सकते हैं। यह किसानों को एक व्यापक बाजार की सुविधा प्रदान करता है, और बिचौलियों का उन्मूलन करता है। यह किसानों को उनके उत्पादों के लिए बेहतर मूल्य अर्जित करने में सहायता प्रदान करता है। साथ ही देश में फसल कटाई के बाद के व्यवस्थापन, शीतगृहों, पूर्व शीतलन सुवधाओं, पैकिंग कार्यों इत्यादि के लिए कृषि बाजारों के प्रबंधन और विकास के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी की भी अनुमति प्रदान की गई है। 

हालांकि कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल कुछ राज्यों ने अपने कृषि उत्पन्न बाजार समिति अधिनियमों में सीधे विपणनन, अनुबंध खेती और निजी और सहकारी क्षेत्र में बाजारों को अनुमति प्रदान करने के संशोधन किये हैं पंजाब, हरियाणा और मध्यप्रदेश जैसे प्रमुख अनाज उत्पादक राज्यों ने केवल आंशिक सुधार किये हैं। साथ ही सात राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कृषि व्यापार को शासित करने के लिए कृषि उत्पन्न बाजार समिति अधिनियम अस्तित्व में ही नहीं हैं। 

आंध्र प्रदेश ने निजी बाजारों की अनुमति प्रदान की है, परंतु उन्हें अनुज्ञप्ति शुल्क के रूप में 50,000 रुपये का भुगतान करना आवश्यक है, साथ ही परियोजना न्यूनतम 10 करोड़ रुपये की होना आवश्यक है। यह छोटे किसान/व्यापार संगठनों को अपने निजी बाजार स्थापित करने से हतोत्साहित करता है।

हरियाणा ने केवल अनुबंध खेती से संबंधित प्रावधान को ही लागू किया है। अनुबंध खेती किसानों और क्रेताओं के बीच एक वायदा समझौता होता है, जिसमें क्रेता निविष्टियां, प्रौद्योगिकी इत्यादि प्रदान कर सक्ता है ताकि उत्पाद उसकी इच्छित गुणवत्ता प्राप्त कर सकता है, और किसान अपना उत्पाद उत्पादित करने और उसे पूर्व निर्धारित मूल्य पर क्रेता को बेचने की सहमति प्रदान करता है। 

केवल मध्यप्रदेश ने दलाल पद्धति का उन्मूलन किया है। बिहार ने 2006 में अपने कृषि उत्पन्न बाजार समिति अधिनियम का निरसन किया था, किसानों से किसी भी प्रकार का बाजार शुल्क नहीं वसूला जाता, परंतु लदाई/उतराई/हमाली भुगतान अनियंत्रित हो गए हैं। 

कुछ राज्यों में निजी बाजार भी मंडी शुल्क की परिधि के तहत हैं। 

भारत का विशाल भौगोलिक क्षेत्र और इसकी कमजोर अधोसंरचना कृषि उत्पाद के लिए उचित वितरण प्रणाली की निर्मिति में प्रमुख रुकावटें हैं, जिसका सुधार केवल कृषि उत्पन्न बाजार समितियों के उचित संचालन के माध्यम से ही किया जाना संभव है। हालांकि कृषि उत्पन्न बाजार समिति अधिनियम में सुधारों के विरुद्ध निहित स्वार्थ आडे़ आ रहे हैं। इन कृषि उत्पादक संघों को तोड़ने के लिए और विभिन्न राज्यों में इस अधिनियम के सुसंगत क्रियान्वयन में बाजार वि.तियां निर्मित करने वाली प्रथाओं को समाप्त करने के लिए आवश्यक राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है। चूंकि कृषि उत्पन्न बाजार समितियों की निर्मिति किसानों के हितों के संरक्षण के उद्देश्य से की गई थी, अतः उचित यही होगा कि यह निर्णय किसानों पर ही छोड़ दिया जाए कि वे कृषि उत्पन्न बाजार समिति में जाना चाहते हैं या नहीं। यह कहना जितना आसान है, फिर भी कृषि उत्पन्न बाजार समितियों का उन्मूलन या उत्पादों का कृषि उत्पन्न बाजार समितियों से असूचीयन मूल्य वृद्धि और किसानों की आत्महत्याओं के लिए दीर्घकालीन समाधान प्रदान नहीं कर सकता। हालांकि छोटे किसानों, उत्पादकों और व्यापारियों के हितों के संरक्षण एक सरकारी नियामक मंड़ल के बिना उत्पादक संघ मंडी संचालकों से बडे़ स्तर के वितरकों और खुदरा विक्रेताओं, जो सीधे सरकार के नियंत्रण में नहीं होंगे, की ओर परिवर्तित नहीं होगा।

5.0 भारत में खाद्य प्रसंस्करण (Agriculture Marketing) 

हम भारत में हुई कुछ प्रमुख कृशि ‘‘क्रांतियों‘‘ के अध्ययन से शुरु करते हैं। परंतु पहले हम इस क्षेत्र की संरचना श्रृंखला और अवसरों की ओर नज़र डालें।

5.1 श्वेत क्रांति (White Revolution)

पिछले 15 वर्षों से भारत ने विश्व के सबसे बडे़ दुग्ध उत्पादक के रूप में अपना नेतृत्व बनाये रखा है। यह ऑपरेशन फ्लड़ के माध्यम से संभव हो पाया है  जिसने भारत में श्वेत क्रांति की शुरुआत की। 2012-13 के लिए उत्पादन का अनुमान 132.43 मिलियन टन है, जो विश्व के दुग्ध उत्पादन का लगभग 17 प्रतिशत है। विश्व के अन्य दुग्ध उत्पादक देशों के विपरीत भारत की विकास गाथा व्यापक रूप से छोटे स्तर के किसानों द्वारा लिखी गई थी। 

भारत के 80 प्रतिशत गाय-बैलों का स्वामित्व किसानों के पास है, जिनके पशु समूहों का आकार चार पशुओं तक है। परंतु इन पारंपरिक छोटे किसानों को प्रभावित करने वाले अनेक कारक हैं, जैसे एक गतिविधि के रूप में डेरी एक सहायक व्यवसाय है, स्थिर उत्पादन, बढ़ती हुई पशु खाद्य और चारे की कीमतें और ग्रामीण क्षेत्रों में अन्य व्यवसायों की ओर परिवर्तित होने की बढ़ती हुई प्रवृत्ति। 

आपूर्ति की चुनौतियों के सामानांतर ही भारत की डेयरी उत्पादों की मांग में भी वार्षिक 6 प्रतिशत की दर से वृद्धि होने का अनुमान है। हालांकि आपूर्ति की वार्षिक वृद्धि दर प्रति वर्ष केवल 4 प्रतिशत से कुछ अधिक है। मांग-पूर्ति की परस्पर क्रिया का प्रभाव हाल के वर्षों के दौरान दूध की कीमतों में होती लगातार वृद्धि से अनुभव किया जा सकता है। इसके कारण एक दूसरी श्वेत क्रांति की आवश्यकता महसूस की जा रही है। मांग और पूर्ति के बीच के अंतर को कम करने का एक प्रभावी उपाय है वाणिज्यिक डेयरी कृषि मॉडल्स की ओर देखने का अभिनव दृष्टिकोण, ताकि वे धारणीय, समावेशी और परिमाप्य बन सकें। इनमें से कुछ संभावनाओं का वर्णन नीचे दिया गया है। 

विशाल डेयरी फार्मः विशाल एकीकृत डेयरी फार्म 1000 से भी अधिक उच्च उत्पादन करने वाले संकरित पशुओं को स्थान प्रदान कर सकते हैं, जहां दूध निकालने के, पशुओं को खिलाने के, दुग्ध प्रसंस्करण के, एकीकृत पशु खाद्य उत्पादन के और आतंरिक प्रजनन सुधार के स्वचालित साधन उपलब्ध होते हैं। इन फार्म्स के परिचालन और रख-रखाव की जिम्मेदारी एक एंकर प्रोसेसर की होती है, जो अनुबंध कृषि मॉडल के रूप में किसानों के साथ हरे चारे की खरीद के लिए अनुबंध कर सकता है, क्योंकि हरा चारा पशुओं के दूध उत्पादन में वृद्धि करने की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण निविष्टि है। 

उपलब्ध दूध या तो अन्य डेरियों को बेचा जा सकता है या अपने स्वयं के फार्म पर मूल्य संवर्धित दुग्ध उत्पादों के उत्पादन के लिए इसका प्रसंस्करण किया जा सकता है। इस मॉडल का महत्वपूर्ण लाभ यह है कि इसमें परिचालन के पैमाने में कौशल उपलब्ध हो जाता है। यह मॉडल बड़ी सहकारी दुग्ध संस्थाओं और निगमों के लिए अत्यंत उपयुक्त है। 

हब और स्पोक मॉडलः एक एंकर के स्वामित्व वाले मुख्य फार्म (हब) में 500 से अधिक गायों के दूध निकालने, पशु खाद्य उत्पादन और दुग्ध प्रसंस्करण की सभी सुविधाएं उपलब्ध होती हैं। जुडे हुए/उपग्रह फार्म (स्पोक), जिनमें प्रत्येक में 50 से 200 पशु होते हैं, में भी दूध निकालने और पशु प्रबंधन की सभी मूलभूत अधोसंरचनाएं उपलब्ध होती हैं, और इनका स्वामित्व मुख्य फार्म के निकटस्थ क्षेत्रों के प्रगतिशील डेरी कृषकों के पास होता है। एंकर इन उपग्रह फार्म्स को तकनीकी सहायता (जैसे पशुचिकित्सा सुविधा, पशुखाद्य प्रबंधन, और प्रशिक्षण) प्रदान करता है। 

यह मॉडल एंकर द्वारा किये गए कम पूंजी व्यय के साथ उत्पाद और प्रसंस्करण नियंत्रण के लाभ प्रदान करता है। इस मॉडल के लिए नियंत्रण व्यवस्थाएं महत्वपूर्ण हैं जो उपलब्ध होनी चाहियें ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि फार्म प्रबंधन प्रशासन वंचित स्तर का है और दूध उत्पादन की गुणवत्ता निर्धारित मानकों के अनुरूप है। साथ ही इस मॉडल में भूमि की आवश्यकता बहुविध स्थानों पर वितरित हो जाती है। यह मॉडल सामाजिक दृष्टि से समावेशी है और इसके पैमाने में शीघ्र वृद्धि की मजबूत संभावना होती है।

प्रगतिशील डेरी कृषकः एक एंकर प्रक्रमक से प्राप्त कुछ सहायता के साथ बड़ी संख्या में प्रगतिशील कृषक अपने पशु समूहों के पैमाने को बढ़ा सकते हैं, जिसके माध्यम से वे 200 से 300 पशुओं के साथ मध्यम आकार के डेरी फार्म स्थापित कर सकते हैं। इस मामले में दूध निकालने और पशु भोजन की दृष्टि से फार्म्स अर्ध स्वचालित होते हैं। यह एक उद्यमिता मॉडल है जिसमें अधिक पूंजी का व्यय किये बिना एंकर के लिए अनुमार्गणीय, निरंतर और अच्छी गुणवत्ता वाले दूध की आपूर्ति सुनिश्चित हो जाती है। 

एंकर कृषकों को तकनीकी सहायता (पशुचिकित्सा सुविधा, पशुखाद्य प्रबंधन, प्रशिक्षण) और वित्तीय सहायता (सीधे या वित्तीय संस्थाओं के माध्यम से) प्रदान करता है। यह मॉडल प्रगतिशील कृषकों की सीमित पूंजी निवेश की क्षमता के रूप में निरुद्ध होता है, साथ ही यह मॉडल एंकर की फार्म गतिविधियों पर निगरानी की क्षमता के कारण भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है। 

समुदाय मॉडलः इस मॉडल में सहकारी संस्था/उत्पादक कंपनी के तहत पशुओं के आवास, प्रजनन और दूध दुहने की समान अधोसंरचना पर सामुदायिक स्वामित्व और प्रबंधन मॉडल लागू होगा।

 एक सीमित भौगोलिक परिधि के अंदर बड़ी संख्या में इस प्रकार के फार्म तकनीकी सहायता सेवाओं का समुच्चयन के आधार पर उपयोग कर सकते हैं। कृषकों पर एक विशिष्ट इकाई को दूध बेचने का निर्बंध नहीं होता। दूध दुहने की मशीने, उपकरण, थोक शीतलन और दूध भण्डारण सुविधाएं सामुदायिक स्वामित्व के तहत होती हैं। मांग और पूर्ति की चुनौती का सामना करने के लिए आगे आने वाली रणनीति का लक्ष्य ऐसी आपूर्ति व्यवस्था को सशक्त बनाना होना चाहिए जो धारणीय और परिमाप्य हो। प्रत्येक मॉडल की सफलता के उत्प्रेरकों का ज़मीनी स्तर पर परीक्षण किया जाना चाहिए। वर्तमान कृषि व्यवस्थाओं के विविधतापूर्ण स्वरुप, सामाजिक सांस्कृतिक वास्तविकताओं और जलवायु पद्धतियों के कारण दूसरी श्वेत क्रांति की खोज़ के लिए कोई भी अकेला मॉडल उत्तर के रूप में उभर कर सामने नहीं आ सकता। 

5.2 नीली क्रांति (White Revolution)  

नीली क्रांति का अर्थ है मछली और समुद्री उत्पादों के उत्पादन में वृद्धि के लिए सघन मत्स्यपालन पैकेज कार्यक्रमों का उल्लेखनीय विकास। 

नीली क्रांति के लाभ 

नीली क्रांति और कृषि में वृद्धि के निम्नलिखित लाभ हैंः

  1. खाद्य सुरक्षा प्रदान करना 
  2. पोषण की सुरक्षा प्रदान करना 
  3. रोजगार प्रदान करना। मछली पकड़ना, मत्स्यपालन और इससे संबंधित अनेक गतिविधियाँ भारत के लगभग 14 मिलियन लोगों के लिए जीवन निर्वाह का साधन हैं 
  4. यह एक प्रमुख विदेशी विनिमय अर्जक है 

दुर्भाग्य से, अधिक सघन आधुनिक औद्योगिक मत्स्यपालन के उदय के समय से गंभीर पर्यावरणीय और सामाजिक मुद्दे विकसित हुए हैं। इनके कारण करोड़ों स्वदेशी तटीय लोग प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो रहे हैं। 

  1. सबसे गंभीर समस्याओं में से एक समस्या है प्राकृतिक तटीय संसाधनों का अपक्षय और विनाश। 
  2. मत्स्यपालन तालाबों में उपयोग किये जाने वाले प्रतिजैविकों, तृणनाशकों और अन्य औषधियों के कारण स्थानीय पानी और प्रजातियां भी संदूषित हो सकती हैं। 
  3. सेवन नहीं किया गया खाद्य और मल इन दोनों ही प्रकार के जैविक पदार्थों का संचय। जब मत्स्यपालन गतिविधियां सीधे समुद्री या खारे वातावरण में आयोजित की जाती हैं तो इसका परिणाम यूट्रोफिकेशन प्रक्रिया है, जिसका संबंध जलाशयों में ऑक्सीजन की कमी से होता है। 
  4. कच्छ वनस्पति दलदलों और आर्द्रभूमियों के झींगा कृषि फार्म के रूप में परिवर्तन के कारण कच्छ वनस्पति दलदलों और आर्द्रभूमियों की हानि होगी जिसके कारण तटीय क्षेत्र अपक्षरण, बाढ़, बढ़ी हुई चक्रवाती क्षति, परिवर्तित प्राकृतिक अपवाह पद्धतियों, बढ़ी हुई लवणीयता और जलीय और स्थलीय प्रजातियों के महत्वपूर्ण प्राकृतिक आवासों के विनाश के प्रति अनावृत्त हो जायेंगे। 
  5. वाणिज्यिक मत्स्यपालन में रोगजनकों का प्रकोप भी एक प्रमुख खतरा है, जिसके कारण प्रति वर्ष करोडों डॉलर नष्ट हो रहे हैं। रोगजनक न केवल संवर्धित मछलियों का विनाश कर सकते हैं बल्कि ये आसपास की प्राकृतिक प्रजातियों को भी संक्रमित कर सकते हैं, जिसके कारण इन प्राकृतिक मछलियों का भी विनाश हो सकता है।

राजीव गांधी जलीय कृषि केंद्रः राजीव गांधी जलीय कृषि केंद्र समुद्री उत्पाद विकास प्राधिकरण का अनुसंधान एवं विकास अंग है। इसकी प्रेरणा स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की भारत को एक प्रौद्योगिकी की दृष्टि से उन्नत राष्ट्र बनाने की दूरदृष्टि से प्राप्त हुई थी, जिन्होंने इस जलीय कृषि में उत्कृष्टता केंद्र की स्थापना की और इसे भारतीय जलीय कृषि उद्योग के विकास को समर्पित कर दिया। राजीव गांधी जलीय कृषि केंद्र विभिन्न प्रकार की धारणीय जलीय कृषि प्रौद्योगिकियों के विकास की दिशा में सक्रियता से कार्य कर रहा है, जो जैविक दृष्टि से सुरक्षित, पर्यावरण के अनुकूल, कम कार्बन उत्पादन के साथ अनुमार्गणीय, विभिन्न जलीय प्रजातियों के बीजोत्पादन और संवर्धित कृषि, विशेष रूप से उन प्रजातियों की जिनकी निर्यात संभावना अधिक है, के कार्य कर रहा है। राजीव गांधी जलीय कृषि केंद्र एक अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और प्रशिक्षण केंद्र का भी विकास कर रहा है जिसके माध्यम से देश में विभिन्न स्थानों पर स्थापित परियोजनाओं में विकसित प्रौद्योगिकियों का भारत के जलीय कृषि उद्योग में प्रसार किया जा सके। 

राष्ट्रीय मात्स्यिकी विकास बोर्डः भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय मत्स्य विकास बोर्ड की शुरुआत 2006 में की गई। इसका मुख्यालय हैदराबाद में स्थित है, जो एक मछली के आकार के भवन में स्थित है। इसकी गतिविधियों के केंद्रीय क्षेत्र निम्नानुसार हैंः

  1. तालाबों और जलाशयों में सघन जलीय कृषि 
  2.  जलाशयों में मत्स्य विकास 
  3. तटीय एक्वाकल्चर
  4. सागरीय कृषि
  5. समुद्री शैवाल की खेती

देश में अनेक विशेषज्ञता प्राप्त संस्थान हैं जो मछुआरों को प्रशिक्षण प्रदान करते हैं। केन्द्रीय समुद्री मत्स्य पालन एवं अभियांत्रिकी प्रशिक्षण संस्थान (सीआईएफएनईटी) की स्थापना 1963 में केरल राज्य के कोच्ची में की गई थी। मछली पकड़ने वाली नौकाओं पर कार्य करने के लिए आवश्यक प्रशिक्षित कर्मियों का निर्माण करके सीआईएफएनईटी देश की सेवा कर रहा है इसकी दो इकाइयां हैं, एक तमिलनाडु के चेन्नई (1968) में स्थित है, और दूसरी आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम (1981) में स्थित है। सीआईएफएनईटी में नियमित रूप से चलाये जाने वाले पाठ्यक्रम निम्नानुसार हैं रू मत्स्योद्योग में स्नातक (समुद्री विज्ञान) (चार वर्ष का पदवी पाठ्यक्रम), पोत नाविक पाठ्यक्रम (2 वर्षीय पाठ्यक्रम), और समुद्री मिस्त्री पाठ्यक्रम (2 वर्षीय पाठ्यक्रम) उपरोक्त पाठ्यक्रमों के अतिरिक्त, यह संस्थान विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित करता है, जिनकी निम्न श्रेणियां हैंः अनुषंगी पाठ्यक्रम, सांविधिक पाठ्यक्रम, पुनश्चर्या पाठ्यक्रम, अल्पकालिक पाठ्यक्रम इत्यादि।

5.3 गुलाबी क्रांति (Pink Revolution)

गुलाबी क्रांति एक ऐसा शब्द है जिसका उपयोग मांस और मुर्गी पालन प्रसंस्करण में हुई प्रौद्योगिकी क्रांति को निरूपित करने के लिए किया जाता है। भारत ने अपने खाद्य उद्योग में इससे पहले ही ‘‘हरित‘‘ और ‘‘श्वेत‘‘ क्रांतियां देखी हैं - जिनका संबंध क्रमशः कृषि और दूध से रहा है, अब इस उद्योग का जोर मांस और कुक्कुटपालन क्षेत्र पर है। चूंकि भारत गाय-बैल और मुर्गियों की विशाल संख्या वाला देश है, अतः यदि इस क्षेत्र का आधुनिकीकरण किया गया तो इस क्षेत्र में वृद्धि की अपार संभावनाएं विद्यमान हैं। 

भारत में गुलाबी क्रांति की संभावनाएं और चुनौतियांः देश के मांस और मुर्गी प्रसंस्करण क्षेत्र में संवृद्धि की अपार संभावनाएं मौजूद हैं। 

मांस के उपभोग की वर्तमान 6 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रति दिन की दर अगले दशक के दौरान बढ़कर 50 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन हो जाएगी। जब मांस के उपभोग में ऐसी अभूतपूर्व वृद्धि होगी, तो इस क्षेत्र में जबरदस्त वृद्धि दिखाई देगी। 

भारत में पशुधन की विशाल संख्या के बावजूद विश्व बाज़ार में भारत की हिस्सेदारी केवल 2 प्रतिशत है। 

क्षेत्र के विकास की चुनौतियों में निम्न चुनौतियां शामिल हैं मांस उत्पादन और निर्यात के लिए मानक नीतियों का निर्माण, मांस और मुर्गियों की गुणवत्ता और सुरक्षा के पहलुओं का मानकीकरण और आधुनिक कसाईखानों के लिए अधोसंरचना, और मांस और मुर्गी प्रसंस्करण क्षेत्र के विकास के लिए मांस परीक्षण सुविधाओं और शीतागार सुविधाओं का निर्माण। 

खाद्य मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय मांस एवं मुर्गी प्रसंस्करण बोर्ड नामक संस्थागत प्राधिकरण की स्थापना की गई है। 

भारत को मांस और मुर्गी प्रसंस्करण के लिए अधिक स्वच्छ और स्वास्थ्यकर पद्धतियों और इस क्षेत्र में अधिक निवेश करने की आवश्यकता है। 

मांस और मुर्गीपालन क्षेत्र को प्रोत्साहित करने के लिए भारत सरकार की नीतियांः इस क्षेत्र में किसी प्रकार का आयकर या केंद्रीय उत्पादन शुल्क नहीं है। मुर्गीपालन और मुर्गी पालन उत्पादों के निर्यात पर किसी प्रकार के निर्बंध नहीं है, साथ ही सरकार कुछ प्रकार की परिवहन अनुवृत्तियां भी प्रदान करती है। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश पर निर्बंध भी उठा हैं, अर्थात इस समूचे क्षेत्र में अब 100 प्रतिशत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के अवसर उपलब्ध हैं।

देश भर के कसाईखानों के आधुनिकीकरण के लिए सरकार द्वारा एक व्यापक योजना शुरू की गई है, ताकि गुणवत्ता मानकों, संदूषण और उत्पादन के ह््रास और बेकार जाने वाले मांस की मात्रा की समस्याओं को संबोधित किया जा सके की पूर्ति हो सके। भारतीय मुर्गीपालन उद्योग प्रति वर्ष 8 से 15 प्रतिशत की बदलती दरों से वृद्धि करता रहा है और अब इसका मूल्य 700 बिलियन डॉलर से भी अधिक हो गया है। 

राजनीतिक विवादः चूंकि भारतीय जनसंख्या का एक बड़ा भाग शाकाहारी है, अतः इस विषय पर काफी टकराव होना अपरिहार्य है। 

5.4 पीली क्रांति (Yellow Revolution)

संवृद्धि, विकास और तेलबीजों की नई किस्मों को अपनाने और पूरक प्रौद्योगिकियों ने तेलबीजों का उत्पादन लगभग दुगना कर दिया, जो 1987-88 के 12.6 मिलियन टन से 1996-97 में बढ़कर 24.4 मिलियन टन हो गया, और तेलबीजों पर प्रौद्योगिकी मिशन की उत्प्रेरणा ने देश में पीली क्रांति को जन्म दिया। 

पीली क्रांति के मुरझाने, अर्थात उत्पादन और उत्पादकता में गिरावट, के प्रमुख कारण हैंः इन फसलों की खेती ऊर्जा की कमी से जूझ रही स्थितियों के तहत की जा रही है, पोषकों का न्यून उपयोग या बिलकुल उपयोग नहीं, उर्वरकों का असंतुलित उपयोग, सिंचाई की सुविधाओं और तेलबीज फसलों की उच्च उत्पादकता किस्मों का अभाव, उन्नत प्रौद्योगिकियों का कमजोर अंगीकरण, छोटे और सीमांत किसान, आवश्यक निविष्टियों की अल्प आपूर्ति इत्यादि। 

कृषि लागत एवं मूल्य आयोग पर्यावरणीय दृष्टि से विनाशकारी एक अन्य वृक्षारोपण फसल - ताड़ का तेल- को आगे बढ़़ाने के लिए बढ़ते खाद्य तेलों के आयात के तर्क का उपयोग करता रहा है। 

पिछले तीन दशकों के दौरान खाद्य तेलों का आयात बिल कई गुना बढ़ गया है। वर्ष 2012 के लिए (उदाहरण के लिए खाद्य तेलों का वर्ष नवंबर 2011 से अक्टूबर 2012 है) आयात 9.01 मिलियन टन तक बढ़ गए जिनका मूल्य 56,295 करोड़ रुपये था। 2006-07 और 2011-12 के बीच खाद्य तेलों के आयात में 380 प्रतिशत की विशाल वृद्धि हुई है। अतः निश्चित रूप से इनके आयात को कम करने, और 56,295 करोड़ रुपये मूल्य के विदेशी मुद्रा बहिर्वाह के एक बडे़ भाग को भारतीय किसानों को प्रदान करने की तत्काल आवश्यकता है। 

इंडोनेशिया, मलेशिया, अमेरिकी और ब्राजील के किसानों को भुगतान करने के बजाय, भारत इन्हीं देशों से खाद्य तेलों का आयात करता है, घरेलू कृषकों को सहायता प्रदान करने के प्रयास किये जाने चाहियें। हालाँकि भारत, जो 1993-94 में खाद्य तेलों के मामले में लगभग था, धीरे-धीरे विश्व का दूसरा सबसे बड़ा खाद्य तेल आयातक बनकर उभरा है।

भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी चकित हो गए थे। 1985 में जब आयात बिल 1500 करोड़ रुपये था तब उन्होंने टिप्पणी की थी, ‘‘मैं समझ सकता हूँ कि हम पेट्रोल और उर्वरकों का आयात क्यों करते हैं, क्योंकि हम इनका पर्याप्त उत्पादन नहीं करते। परंतु हमें खाद्य तेलों का आयात क्यों करते रहना चाहिए जबकि हम उनका उत्पादन कर सकते हैं।‘‘ उन्होंने घरेलू तेलबीज उत्पादन को बढ़ाने, और खाद्य तेलों के आयात को कम करने के लिए तेलबीज प्रौद्योगिकी मिशन की शुरुआत की। 

उनके प्रयास फलीभूत हुए। अगले दस वर्षों में, 1993-94 तक भारत खाद्य तेलों के उत्पादन में लगभग आत्मनिर्भर बन गया था, जब हम घरेलू आवश्यकताओं का 97 प्रतिशत देश में उत्पादन करते थे। तेलबीजों के उत्पादन में इस लंबी छलांग को ‘‘पीली क्रांति‘‘ कहा गया। हालांकि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को यह स्वीकार्य नहीं था। तभी से, और अपनी अर्थव्यवस्था की पुनर्रचना के लिए विश्व बैंक के दबाव के तहत भारत ने खाद्य तेलों के आयात शुल्क में कमी करना शुरू किया। हालांकि विश्व व्यापार संगठन के मानकों के तहत भारत ने अपने खाद्य तेलों के आयात शुल्क को 300 प्रतिशत पर बांध कर रखा था (केवल सोयाबीन को छोड़कर, जिसे अमेरिका के हितों को लाभ पहुंचाने के लिए 45 प्रतिशत तक कम कर दिया गया था), और इन शुल्कों को

धीरे-धीरे कम किया गया। आयातों का अंतर्वाह बढ़ने लगा। 1996-97 के खाद्य तेलों के 1.02 मिलियन टन आयात की तुलना में 1998-99 में भारत का आयात दुगना होकर 2.98 मिलियन टन हो गया, और 1999-2000 में यह बढ़कर 5 मिलियन टन हो गया। 

चूंकि तेलबीजों की फसलें शुष्क भूमि की फसलें होती हैं, अतः इसका नकारात्मक प्रभाव कठोर वातावरण में निस्तेज करोडों किसानों को सहन करना पडा। जो यह किसानों के लिए नकद फसल हो सकती थी वही निर्यात करने वाले देशों के लिए दुधारू गाय बन गई। आयात शुल्कों में कमी के लिए स्वयं पूर्व मंत्री शरद पवार जिम्मेदार रहे हैं। 2004 में कोटा व्यवस्था के साथ, जो परिष्कृत खाद्य तेलों और कच्चे खाद्य तेलों के सस्ते आयात की सुविधा प्रदान करती थी, खाद्य तेलों पर आयात शुल्क 75 प्रतिशत आंका गया था। 2010-11 में कच्चे खाद्य तेलों पर आयात शुल्क को शून्य के स्तर तक नीचे लाया गया, और परिष्कृत तेलों के आयात शुल्क को 7.5 प्रतिशत तक नीचे लाया गया। कोई आश्चर्य नहीं कि आयात 2006 के 4.7 मिलियन के स्तर से 2012 में बढ़कर 9.01 मिलियन टन तक पहुंच गए। 

हालांकि पुरदुए विश्वविद्यालय, नेब्रास्का विश्वविद्यालय, विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, आयोवा विश्वविद्यालय और अमेरिका के अर्कांसस विश्वविद्यालय द्वारा किये गए अनुसंधान के अनुसार गैर आनुवांशिक रूप से संशोधित सोया किस्मों की तुलना में आनुवांशिक रूप से संशोधित सोया किस्मों का फसल उत्पादन 4 से 20 प्रतिशत कम पाया गया है। अतः सोयाबीन की आनुवांशिक रूप से संशोधित किस्मों को प्रोत्साहित करने का तर्क, जो विद्यमान उन्नत गैर आनुवंशिक रूप से संशोधित किस्मों से कम उत्पादन प्रदान करती हैं, संदिग्ध प्रतीत होता है। 

यह कहना, कि वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तेलबीजों के उत्पादन के लिए वर्तमान फसल क्षेत्र की तुलना में 30 प्रतिशत अधिक भूमि की आवश्यकता होगी, भी शरारतपूर्ण है मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, और इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के कुछ भागों को आसानी से गेहूं, चांवल और कपास से हटा कर तेलबीजों में परिवर्तित किया जा सकता है, जिनमें सरसों और सोयाबीन भी शामिल हैं। यह एक ओर जहां गेहूं और चांवल के भंडारण के बोझ को हल्का कर देगा वहीं दूसरी ओर शुष्क भूमि पर कृषि करने वाले किसानों के हाथ में अधिक आय भी प्रदान करेगा। इसके अतिरिक्त इसका अर्थ भूजल के उपयोग में कमी के रूप में भी होगा क्योंकि तेलबीज फसलों को लगने वाली पानी की मात्रा तुलनात्मक दृष्टि से काफी कम होती है।

दूसरी ओर ऐसा पाया गया है कि ताड़ के तेल का वृक्षारोपण पर्यावरण की दृष्टि से भी घातक है। वर्ल्डवॉच संस्थान ने दिखाया है कि किस प्रकार ताड़ के तेल का मोनोकल्चर मरुस्थलीकरण में योगदान देता है, साथ ही यह उष्णकटिबंधीय वनों की तुलना में 10 गुना अधिक कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंड़ल में उत्सर्जित करके विश्वव्यापी तापक्रम वृद्धि को भी और अधिक कटु बनाता है। 

किसी भी दृष्टि से जैसा कि पिछले अनुभव से स्पष्ट है उत्पादन को बढ़ाने के कोई भी प्रयास तब तक सफल नहीं हो पाएंगे जब तक भारत आयात शुल्क को कम से कम 130 से 150 प्रतिशत तक पुनःस्थापित नहीं कर देता ताकि सस्ते आयात को रोका जा सके। इसके साथ ही किसानों को सुनिश्चित खरीद और सुनिश्चित मूल्य प्रदान करने के एक मिशन दृष्टिकोण को भी अपनाना पडे़गा। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान आसानी से देश के खाद्य तेलों के आपूर्तिकर्ता बन सकते हैं, बशर्ते कि नीतिगत निर्णयों के एक समुच्चय का स्पष्ट रूप से निरूपण किया जाए जो तेलबीजो की कृषि को आर्थिक रूप से व्यवहार्य बनायें। प्रसंस्करण उद्योगों की स्थापना से अधिक रोजगार निर्माण करने में भी सहायता मिलेगी। 

5.5 खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में सरकार की पहलें 

भारत सरकार ने खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में स्वतः अनुमोदित मार्ग के माध्यम से 100 प्रतिशत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की अनुमति प्रदान की है। खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र के प्रोत्साहन और विकास के लिए 12 वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान इस क्षेत्र के लिए खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय की विभिन्न योजनाओं के तहत 5990 करोड़ रुपये (1 बिलियन डॉलर) का आवंटन किया गया है। 

खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय और ‘‘इन्वेस्ट इंडिया‘‘ के बीच एक निवेशकों के ‘‘मदद डेस्क‘‘ की स्थापना के लिए एक समझौता किया गया है ताकि घरेलू और विदेशी, दोनों निवेशकों को उनके प्रश्नों के संबंध में ऑनलाइन सहायता प्रदान की जा सके, विशेष रूप से उनकी इकाई की स्थापना के प्रारंभिक चरणों के दौरान। 

मंत्रालय द्वारा 12 वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान एक केंद्रीय प्रायोजित योजना शुरू की गई है जिसका नाम है खाद्य प्रसंस्करण पर राष्ट्रीय मिशन। वित्त वर्ष 13 और वित्त वर्ष 14 (31 जनवरी तक) के दौरान इस योजना के तहत राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को 204.85 करोड़ रुपये (34.23 मिलियन डॉलर) की राशि जारी की गई है। 

मंत्रालय खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में मानव संसाधन विकास के लिए एक योजना क्रियान्वित कर रहा है ताकि प्रौद्योगिकीविद्, प्रबंधक, उद्यमी, और क्षेत्र में गुणवत्ता प्रबंधन के लिए मानव संसाधन विकसित किये जा सकें। इस क्षेत्र में मानव संसाधन की आवश्यकता 5.3 लाख व्यक्तियों की अनुमानित की गई है। 

देश में एकीकृत शीतलन श्रृंखला और परिरक्षण अधोसंरचना सुविधाओं के निर्माण को प्रोत्साहन प्रदान करने के उद्देश्य से मंत्रालय एकीकृत शीतलन श्रृंखला, मूल्य संवर्धन और परिरक्षण अधोसंरचना की योजना क्रियान्वित कर रहा है। 

खाद्य प्रसंस्करण - भारतीय नियामक और नीति परिदृश्य 

इस क्षेत्र के विनिर्माण क्षेत्र और कृषि क्षेत्र के साथ महत्वपूर्ण संयोजन और तालमेल के कारण खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का महत्त्व काफी बढ़ जाता है। इसके रणनीतिक महत्त्व को समझते हुए सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य प्रसंस्करण नीति, 2000 और अन्य योजनाओं के माध्यम से इस क्षेत्र की संवृद्धि को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न प्रचार के उपाय किये हैं। इनमें निम्न उपाय शामिल हैंः

  1. अधिकांश खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों को उद्योग (विकास एवं विनियम) अधिनियम, 1951 के तहत औद्योगिक अनुज्ञप्ति के प्रावधानों से छूट प्रदान की गई है, जिनमें बियर और मादक पेय और सिरके, ब्रेड, बेकरी इत्यादि जैसे लघु उद्योग क्षेत्र के लिए संरक्षित उद्योगों का अपवाद है। 
  2. 1999 में इस उद्योग को बैंक ऋण की दृष्टि से प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों की सूची में शामिल किया गया था। 
  3. केवल मादक पेय, बियर और लघु उद्योग क्षेत्र के लिए संरक्षित वस्तुओं को छोड़ कर अधिकांश प्रसंस्करित वस्तुओं के लिए कुछ विशिष्ट शर्तों के तहत 100 प्रतिशत तक विदेशी इक्विटी का स्वतः अनुमोदन उपलब्ध है। 
  4.  हाल के वर्षों के दौरान खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में करों का काफी युक्तिकरण किया गया है। उल्लेखनीय है कि 2001-02 से प्रसंस्करित फलों और सब्जियों को उत्पादन शुल्क के भुगतान से छूट प्रदान की गई है। अन्य वस्तुओं पर भी यदि सेनवैट क्रेडिट का लाभ नहीं उठाया है तो 1 प्रतिशत की रियायती दर से शुल्क लागू किया जाता है और यदि सेनवैट क्रेडिट का लाभ उठाया है तो 5 प्रतिशत की दर से शुल्क लागू किया जाता है, और 10 प्रतिशत यथामूल्य लागू होता है। 
  5. आयकर अधिनियम के तहत फलों और सब्जियों और अनाजों की प्रसंस्करण इकाइयों को 2004-05 से पांच वर्षों तक लाभ पर 100 प्रतिशत कर कटौती और अगले पांच वर्षों के लिए 25 प्रतिशत कर कटौती की अनुमति प्रदान की गई है। बाद में 2009 में इस अधिनियम में संशोधित करके दूध, मुर्गी पालन और मांस जैसे नाशवान पदार्थों को भी इसमें शामिल किया गया।
  6. ऐसी निर्दिष्ट वस्तुओं को भी उत्पादन शुल्क से छूट में शामिल किया गया है जिनका उपयोग शीतागारों, ठंड़े कमरों या प्रशीतित वाहनों के निर्माण में किया जाने वाला है जिनका उपयोग कृषि, बागवानी, डेरी, कुक्कुटपालन, समुद्री उत्पादों और मांस के संरक्षण, भंडारण, परिवहन या प्रसंस्करण के लिए किया जाता है। 
  7. बीजों, अनाजों की सफाई, छंटाई, श्रेणीकरण करने के उपयोग में आने वाली मशीनों और पिसाई उद्योग में काम आने वाली मशीनों पर भी उत्पादन शुल्क शून्य है। 
  8. प्रशीतित वाहनों या ट्रकों के विनिर्माण में आवश्यक प्रशीतन इकाइयों को भी सीमा शुल्क से पूर्ण छूट प्रदान की गई है।

कर संरचना के समस्या क्षेत्र और कर संरचना की विसंगतियां 

जबकि अप्रत्यक्ष करों का कर भार और प्रशुल्क पिछले कई वर्षों के दौरान कम कर दिया गया है, फिर भी प्रसंस्.त खाद्य पदार्थों की बड़ी श्रृंखला के लिए कर संरचना एकसमान नहीं है। कराधान की वर्तमान व्यवस्था उत्पादों पर आधारित है जो विभिन्न प्रकार के वर्गीकरण की विसंगतियां पैदा करती है। अनेक कृषि और खाद्य उत्पाद जैसे दूध मिश्रित पेय, अनाजों को फुलाकर प्राप्त किये गए खाद्य पदार्थ, अनाज उत्पाद, बिस्किट, बनावट वनस्पति प्रोटीन,(सोया बडी), तुरंत भोजन मिश्रण और खाने के लिए तैयार पैकेज किया गया भोजन, और वातित पेय अभी भी उच्च उत्पादन शुल्क के तहत बने हुए हैं। ब्रांडेड और गैर ब्रांडेड खाद्य पदार्थों के लिए अलग-अलग कर संरचनाएं हैं। ब्रांडेड खाद्य पदार्थ अधिक बिक्री कर आकर्षित करते है जो उन्हें महंगा बना देते हैं और यह प्रसंस्.त खाद्य पदार्थों को लोकप्रिय बनाने में मददगार साबित नहीं होता। 

साथ ही, मूल्य संवर्धन कर (वैट) के तहत, जो राज्य सरकारों द्वारा अधिरोपित किया जाता है, अधिकांश प्रसंस्.त खाद्य उत्पादों पर 1 प्रतिशत, 4 प्रतिशत और 13 प्रतिशत की भिन्न भिन्न दरों से करारोपण किया जाता है। वैट के अतिरिक्त, अन्य कर जैसे प्रवेश कर, चुंगी इत्यादि भी खाद्य उत्पादों पर अधिरोपित किये जाते हैं। साथ ही पैकिंग सामग्री पर 12 प्रतिशत की उच्च दर से उत्पादन शुल्क अधिरोपित किया जाता है, जो प्रसंस्.त खाद्य पदार्थों को और अधिक महंगा बना देते हैं। यहां तक कि पैकिंग सामग्री पर सीमा शुल्क भी अभी तक काफी उच्च है। इन सबका परिणाम यह होता है कि इन करों का संचयी कर भार भारत में प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों को ताजे खाद्य उत्पादों की तुलना में अधिक महंगा बना देता है, जबकि दूसरे देशों में स्थिति ऐसी नहीं है। अधिकांश देशों में खाद्य क्षेत्र में मूल्य संवर्धन को प्रोत्साहित करने के लिए प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों पर कर/शुल्क अधिरोपित नहीं किये जाते।

सरकार ने खाद्य प्रसंस्करण उद्योग पर काफी जोर दिया है, विशेष रूप से पिछले पांच वर्षों के दौरान। विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत इस क्षेत्र के लिए प्रस्तावित वित्तीय परिव्यय में कई गुना वृद्धि हुई, जो दसवीं पंचवर्षीय योजना के 6.5 बिलियन रुपये से ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में बढ़कर 50.06 बिलियन रुपये तक पहुंच गया। वित्तीय सहायता का प्रयोजन अधोसंरचना विकास, प्रौद्योगिकी उन्नयन, आधुनिकीकरण, विस्तार, अनुसंधान और विकास, संवर्धन, गुणवत्ता नियंत्रण और अन्य विविध गतिविधियों के लिए है। अधोसंरचना विकास, प्रौद्योगिकी उन्नयन, आधुनिकीकरण और विस्तार की योजनाएं प्रस्तावित परिव्यय का एक बड़ा भाग बनाती हैं। सरकार ने खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किये हैं, जिन्हें 2015 तक प्राप्त किया जाना है। इनमें निम्न लक्ष्य शामिल हैंः

  1. नाशवान पदार्थों के प्रसंस्करण के स्तर को 6 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत करना 
  2. मूल्य संवर्धन को 20 प्रतिशत से बढ़ाकर 35 प्रतिशत करना  
  3. वैश्विक खाद्य व्यापार को 1.5 से बढ़ाकर 3 प्रतिशत करना 

हालांकि इन योजनाओं का निष्पादन अधिक उत्साहवर्धक नहीं है जैसा कि ऊपर दी गई तालिका से देखा जा सकता है। विभिन्न पंचवार्षिक योजनाओं के तहत की गई एक समीक्षा दर्शाती है विभिन्न योजनाओं के तहत किया गया सकल वितरण प्रस्तावित वित्तीय परिव्यय से कम रहा है। प्रस्तावित वित्तीय सहायता और वास्तविक वितरित धनराशि के बीच का अंतर ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान बढ़ा है। 50.06 बिलियन रुपये के प्रस्तावित वित्तीय परिव्यय में से ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के पहले तीन वर्षों के दौरान केवल 6.83 बिलियन रुपये का ही उपयोग इस उद्योग के विकास के लिए किया गया है। 

उदाहरणार्थ, अपव्यय की समस्या के निराकरण के उद्देश्य से बनाई गई सरकार की एकी.त शीतलन श्रृंखला सुविधा योजना की प्रगति काफी धीमी रही है। हालांकि सरकार द्वारा पिछले एक दशक के दौरान शीतलन श्रृंखला सुविधाओं के विकास के लिए परिव्यय सहायता में वृद्धि की गई है, फिर भी जमीनी स्तर की पहलों को अभी वांछित परिणाम प्राप्त करना बाकी है। जबकि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के तहत शीतलन श्रृंखला सुविधाओं के तहत 18 परियोजनाओं को सहायता प्रदान की गई है, और 5 परियोजनाओं को को मूल्य संवर्धन केन्द्रों के तहत सहायता प्रदान की गई है, वर्तमान में केवल 4 शीतागार और 2 मूल्य संवर्धन केंद्र प्रचालनात्मक हैं। 

यहां तक कि खाद्य प्रसंस्करण कंपनियों को एक ही छत के नीचे सभी सुविधाएं प्रदान करने के प्रयोजन के लिए बनी मेगा खाद्य पार्क योजना ने भी वांछित परिणाम नहीं दिए हैं। जबकि खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय ने आठवीं पंचवर्षीय योजना से देश में 54 खाद्य पार्कों के विकास के लिए सहायता प्रदान की है, फिर भी उनमें से अधिकांश अभी भी प्रचालनात्मक होना बाकी हैं। 10 वीं योजना के 25 भौतिक पार्कों के लक्ष्य के सामने अभी तक केवल 18 पार्कों को ही मंजूरी प्रदान की जा सकी है। इनमें से भी केवल 8 खाद्य पार्कों को ही प्रचालनात्मक कहा जा सकता है। 

हालाँकि जो प्रचालनात्मक हैं वे भी उद्यमियों को आकर्षित नहीं कर पाने के अलावा भारी अल्प उपयोग की समस्या का भी सामना कर रहे हैं। इन 8 पार्कों में केवल 28 इकाइयां ही वर्तमान में परिचालन कर रही हैं।

विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की नीति (FDI Policy)

मादक पेयों और जो वस्तुएं लघु उद्योग क्षेत्र के लिए सुरक्षित हैं उन्हें छोडकर सभी खाद्य और पेयों के लिए 100 प्रतिशत इक्विटी तक विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के लिए स्वचालित अनुमोदन (निर्धारित मानकों के अंदर विदेशी प्रौद्योगिकी समझौतों सहित) की अनुमति है। 

डीआईपीपी के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार अप्रैल 2000 से मार्च 2016 तक प्रसंस्कृत खाद्य उद्योग ने 40,246 करोड़ रूपये का संचयी विदेशी प्रत्यक्ष निवेश अंतर्वाह आकर्षित किया है। भारतीय खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में निवेश की दृष्टि से निवेशकों की सूची में अमेरिका का नाम सबसे ऊपर है। कुछ प्रसिद्ध खाद्य और पेय विक्रय कंपनियां जिन्होंने भारत में निवेश किया है (भागीदारी के माध्यम से या पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनियों के माध्यम से) उनमें कोका कोला, हेंज इटालिया, ग्रूपे दानोन, केलॉग कंपनी, पेप्सिको, नेस्ले, युनिलीवर इत्यादि शामिल हैं। 

जबकि देश का खाद्य प्रसंस्करण उद्योग धीरे-धीरे विश्व भर के व्यापक श्रृंखला के निवेशकों के लिए खुला कर दिया गया है, फिर भी निरपेक्ष संख्या काफी प्रतीत नहीं होती। कुल विदेशी प्रत्यक्ष निवेश अंतर्वाह में उनका योगदान मात्र 0.8 प्रतिशत रहा है। और यह भी तब जब सरकार द्वारा खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में 100 प्रतिशत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की अनुमति प्रदान की गई है। इस क्षेत्र में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की कम मात्रा के कुछ कारण निम्नानुसार हैं रू

  1. कृषि भूमि सीमा अधिनियम - यह विशाल पैमाने पर निगमित कृषि में रूकावट पैदा करता है, जो प्रसंस्करण सुविधाओं विशाल निवेशों के लिए महत्वपूर्ण पूर्वशर्त है। हालांकि विभिन्न राज्यों में अनुबंध कृषि की अनुमति है, फिर भी यह बहुत बड़े पैमाने पर नहीं की जाती। यह प्रवर्तन एक चिंता का विषय है। 
  2. कृषि उत्पन्न बाज़ार समिति अधिनियम - यह अधिनियम कच्चे माल की गुणवत्ता और मात्रा के स्रोत के लिए सीधे कृषक-प्रक्रमक जुडाव को निर्बंधित करता है। 

6.0 ई-नाम (e-NAM)

महत्वाकांक्षी पीएमकेएसवाय के अतिरिक्त राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक बाजार (ई-नाम) बडे पैमाने पर वृद्धि में सहायता देगा। यह इलेक्ट्रॉनिक मंच संयोजकता और प्रतिस्पर्धा में वृद्धि और विभिन्न कृषि बाजारों में मूल्य विस्तार को कम करके गैर-मूल्य कारकों के माध्यम से किसानों के लिए बेहतर मूल्य सुनिश्चित करने का एक परोक्ष मार्ग होगा। ई-विपणन मंच का लक्ष्य होगा कृषि विपणन में सुधार करना, बाजार तक पहुँच में सुधार करना और किसानों के लिए मूल्य खोज को पारदर्शी बनाना। यह मंच गोदाम आधारित विक्रय के माध्यम से किसानों की बाजारों तक पहुँच में भी वृद्धि करेगा और इस प्रकार यह किसान की उसके उत्पाद को मंडी (थोक बाजार) तक परिवहन की आवश्यकता को भी कम करेगा। 

राष्ट्रीय साझा बाजार के संवर्धन के लिए केंद्रीय क्षेत्र कृषि-प्रौद्योगिकी अधोसंरचना कोष के माध्यम से 200 करोड़ रुपये के बजट के साथ गठित किया जायेगा। इसका लक्ष्य अगले तीन वर्षों के दौरान देश भर के 585 विनियमित थोक बाजारों को इलेक्ट्रॉनिक मंच पर लाना है। वर्ष 2015-16 में 250 बाजार ई-मंच के अंतर्गत आ जायेंगे, 200 और बाजार वर्ष 2016-17 में और शेष 135 बाजार 2017-18 में इसके अंतर्गत लाये जायेंगे। राष्ट्रीय ई-मंच के साथ एकीकरण के लिए राज्यों को ऐसे एकल लाइसेंस प्रदाय के माध्यम से विद्यमान बाजारों में सुधार करना है जो संपूर्ण राज्य में वैध होगा, साथ ही उन्हें  एकल बिंदु बाजार शुल्क अधिरोपित करना है और मूल्य खोज के लिए इलेक्ट्रॉनिक नीलामी का प्रावधान करना है। सरकार को आशा है कि यह किसानों को बेहतर मूल्य प्रदान करेगा, कृषि आपूर्ति श्रृंखला में सुधार करेगा और अपव्यय में कमी करेगा।


मेगा फूड पार्क्स 

  • मेगा फूड पार्क की योजना का उद्देश्य किसानों, प्रोसेसर एवं खुदरा विक्रेताओं को एक साथ लाकर .षि उत्पादन को बाजार से जोड़ने के लिए एक तंत्र प्रदान करना है ताकि अधिकतम मूल्य संवर्धन प्राप्त किया जा सके, अपव्यय को कम किया जा सके, किसानों की आय में वृद्धि हो सके एवं विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार के अवसर पैदा हो सकें।
  • मेगा फूड पार्क योजना “क्लस्टर” .ष्टिकोण पर आधारित है एवं पार्क में प्रदान किए जाने वाले औद्योगिक भूखंडों के स्थापित आपूर्ति श्रृंखला से जुड़े होने के अलावा अत्याधुनिक बुनियादी ढांचे, आधुनिक खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना, अच्छी तरह से परिभाषित .षि/बागवानी क्षेत्रों आदि की परिकल्पना की गई है।
  • मेगा फूड पार्क में आमतौर पर संग्रह केंद्रों, प्राथमिक प्रसंस्करण केंद्रों, केंद्रीय प्रसंस्करण केंद्रों, कोल्ड चेन एवं उद्यमियों के लिए खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना के लिए लगभग 25-30 पूरी तरह से विकसित भूखंडों सहित आपूर्ति श्रृंखला अवसंरचना शामिल है।
  • मेगा फूड पार्क परियोजना एक विशेष उद्देश्य वाहन (एसपीवी) द्वारा कार्यान्वित की जाती है जो कंपनी अधिनियम के तहत पंजी.त एक बॉडी कॉर्पोरेट है। राज्य सरकार, राज्य सरकार की संस्थाओं एवं सहकारी समितियों को मेगा फूड पार्क परियोजना के कार्यान्वयन के लिए एक अलग एसपीवी बनाने की आवश्यकता नहीं है। योजना दिशानिर्देशों की शर्तों को पूरा करने के अधीन, फंड एसपीवी को जारी किए जाते हैं। सभी जानकारी निम्न लिंक से प्राप्त की जा सकती है 

            http://mofpi.nic.in/sites/default/files/42_mfps_01.07.2019_with_totals.pdf

  • अब तक सोलह मेगा फूड पार्क कार्यषील हैं जो निम्नलिखित हैं :

  1.  श्रीनी मेगा फूड पार्क, चित्तूर, आंध्र प्रदेश
  2.  गोदावरी मेगा एक्वा पार्क, पश्चिम गोदावरी, आंध्र प्रदेश
  3.  नॉर्थ ईस्ट मेगा फूड पार्क, नलबाड़ी, असम
  4.  गुजरात एग्रो मेगा फूड पार्क, सूरत, गुजरात
  5.  क्रेमिका मेगा फूड पार्क, ऊना, हिमाचल प्रदेश
  6.  एकीकृत मेगा फूड पार्क, तुमकुर, कर्नाटक
  7.  सिंधु मेगा फूड पार्क, खड़गांव, मध्य प्रदेश
  8.  पैथन मेगा फूड पार्क, एवंगाबाद, महाराष्ट्र
  9.  सतारा मेगा फूड पार्क, सतारा, महाराष्ट्र
  10.  एमआईटीएस मेगा फूड पार्क, रायगढ़, ओडिशा
  11.  इंटरनेशनल मेगा फूड पार्क, फाजिल्का, पंजाब
  12.  ग्रीनटेक मेगा फूड पार्क, अजमेर, राजस्थान
  13.  पतंजलि फूड एंड हर्बल पार्क, हरिद्वार, उत्तराखंड
  14.  हिमालयन मेगा फूड पार्क, उधम सिंह नगर, उत्तराखंड
  15.  जंगीपुर बंगाल मेगा फूड पार्क, मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल
  16.  त्रिपुरा मेगा फूड पार्क, पश्चिम त्रिपुरा, त्रिपुरा

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exchange,9,Formal and informal economy,13,Fossil fuels,14,Fundamentals of the Indian Economy,10,Games SportsEntertainment,1,GDP GNP PPP etc,12,GDP-GNP PPP etc,1,GDP-GNP-PPP etc,20,Gender inequality,9,Geography,10,Geography and Geology,2,Global trade,22,Global treaties,2,Global warming,146,Goverment decisions,4,Governance and Institution,2,Governance and Institutions,773,Governance and Schemes,221,Governane and Institutions,1,Government decisions,226,Government Finances,2,Government Politics,1,Government schemes,358,GS I,93,GS II,66,GS III,38,GS IV,23,GST,8,Habitat destruction,5,Headlines,22,Health and medicine,1,Health and medicine,56,Healtha and Medicine,1,Healthcare,1,Healthcare and Medicine,98,Higher education,12,Hindu individual editorials,54,Hinduism,9,History,216,Honours and Awards,1,Human rights,249,IMF-WB-WTO-WHO-UNSC etc,2,Immigration,6,Immigration and citizenship,1,Important Concepts,68,Important Concepts.UPSC Mains GS III,3,Important Dates,1,Important Days,35,Important exam concepts,11,Inda,1,India,29,India Agriculture and related issues,1,India Economy,1,India's Constitution,14,India's independence struggle,19,India's international relations,4,India’s international relations,7,Indian Agriculture and related issues,9,Indian and world media,5,Indian Economy,1248,Indian Economy – Banking credit finance,1,Indian Economy – Corporates,1,Indian Economy.GDP-GNP-PPP etc,1,Indian Geography,1,Indian history,33,Indian judiciary,119,Indian Politcs,1,Indian Politics,637,Indian Politics – Post-independence India,1,Indian Polity,1,Indian Polity and Governance,2,Indian Society,1,Indias,1,Indias international affairs,1,Indias international relations,30,Indices and Statistics,98,Indices and Statstics,1,Industries and services,32,Industry and services,1,Inequalities,2,Inequality,103,Inflation,33,Infra projects and financing,6,Infrastructure,252,Infrastruture,1,Institutions,1,Institutions and bodies,267,Institutions and bodies Panchayati Raj,1,Institutionsandbodies,1,Instiutions and Bodies,1,Intelligence and security,1,International Institutions,10,international relations,2,Internet,11,Inventions and discoveries,10,Irrigation Agriculture Crops,1,Issues on Environmental Ecology,3,IT and Computers,23,Italy,1,January 2020,26,January 2021,25,July 2020,5,July 2021,207,June,1,June 2020,45,June 2021,369,June-2021,1,Juridprudence,2,Jurisprudence,91,Jurisprudence Governance and Institutions,1,Land reforms and productivity,15,Latest Current Affairs,1136,Law and order,45,Legislature,1,Logical Reasoning,9,Major events in World History,16,March 2020,24,March 2021,23,Markets,182,Maths Theory Booklet,14,May 2020,24,May 2021,25,Meetings and Summits,27,Mercantilism,1,Military and defence alliances,5,Military technology,8,Miscellaneous,454,Modern History,15,Modern historym,1,Modern technologies,42,Monetary and financial policies,20,monsoon and climate change,1,Myanmar,1,Nanotechnology,2,Nationalism and protectionism,17,Natural disasters,13,New Laws and amendments,57,News media,3,November 2020,22,Nuclear technology,11,Nuclear techology,1,Nuclear weapons,10,October 2020,24,Oil economies,1,Organisations and treaties,1,Organizations and treaties,2,Pakistan,2,Panchayati Raj,1,Pandemic,137,Parks reserves sanctuaries,1,Parliament and Assemblies,18,People and Persoalities,1,People and Persoanalities,2,People and Personalites,1,People and Personalities,189,Personalities,46,Persons and achievements,1,Pillars of science,1,Planning and management,1,Political bodies,2,Political parties and leaders,26,Political philosophies,23,Political treaties,3,Polity,485,Pollution,62,Post independence India,21,Post-Governance in India,17,post-Independence India,46,Post-independent India,1,Poverty,46,Poverty and hunger,1,Prelims,2054,Prelims CSAT,30,Prelims GS I,7,Prelims Paper I,189,Primary and middle education,10,Private bodies,1,Products and innovations,7,Professional sports,1,Protectionism and Nationalism,26,Racism,1,Rainfall,1,Rainfall and Monsoon,5,RBI,73,Reformers,3,Regional conflicts,1,Regional Conflicts,79,Regional Economy,16,Regional leaders,43,Regional leaders.UPSC Mains GS II,1,Regional Politics,149,Regional Politics – Regional leaders,1,Regionalism and nationalism,1,Regulator bodies,1,Regulatory bodies,63,Religion,44,Religion – Hinduism,1,Renewable energy,4,Reports,102,Reports and Rankings,119,Reservations and affirmative,1,Reservations and affirmative action,42,Revolutionaries,1,Rights and duties,12,Roads and Railways,5,Russia,3,schemes,1,Science and Techmology,1,Science and Technlogy,1,Science and Technology,819,Science and Tehcnology,1,Sciene and Technology,1,Scientists and thinkers,1,Separatism and insurgencies,2,September 2020,26,September 2021,444,SociaI Issues,1,Social Issue,2,Social issues,1308,Social media,3,South Asia,10,Space technology,70,Startups and entrepreneurship,1,Statistics,7,Study material,280,Super powers,7,Super-powers,24,TAP 2020-21 Sessions,3,Taxation,39,Taxation and revenues,23,Technology and environmental issues in India,16,Telecom,3,Terroris,1,Terrorism,103,Terrorist organisations and leaders,1,Terrorist acts,10,Terrorist acts and leaders,1,Terrorist organisations and leaders,14,Terrorist organizations and leaders,1,The Hindu editorials analysis,58,Tournaments,1,Tournaments and competitions,5,Trade barriers,3,Trade blocs,2,Treaties and Alliances,1,Treaties and Protocols,43,Trivia and Miscalleneous,1,Trivia and miscellaneous,43,UK,1,UN,114,Union budget,20,United Nations,6,UPSC Mains GS I,584,UPSC Mains GS II,3969,UPSC Mains GS III,3071,UPSC Mains GS IV,191,US,63,USA,3,Warfare,20,World and Indian Geography,24,World Economy,404,World figures,39,World Geography,23,World History,21,World Poilitics,1,World Politics,612,World Politics.UPSC Mains GS II,1,WTO,1,WTO and regional pacts,4,अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं,10,गणित सिद्धान्त पुस्तिका,13,तार्किक कौशल,10,निर्णय क्षमता,2,नैतिकता और मौलिकता,24,प्रौद्योगिकी पर्यावरण मुद्दे,15,बोधगम्यता के मूल तत्व,2,भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास,47,भारत का स्वतंत्रता संघर्ष,19,भारत में कला वास्तुकला एवं साहित्य,11,भारत में शासन,18,भारतीय कृषि एवं संबंधित मुद्दें,10,भारतीय संविधान,14,महत्वपूर्ण हस्तियां,6,यूपीएससी मुख्य परीक्षा,91,यूपीएससी मुख्य परीक्षा जीएस,117,यूरोपीय,6,विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं,16,विश्व एवं भारतीय भूगोल,24,स्टडी मटेरियल,266,स्वतंत्रता-पश्चात् भारत,15,
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PT's IAS Academy: यूपीएससी तैयारी - भारतीय कृषि एवं संबंधित मुद्दें - व्याख्यान - 9
यूपीएससी तैयारी - भारतीय कृषि एवं संबंधित मुद्दें - व्याख्यान - 9
सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
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