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कृषि एवं भारतीय अर्थव्यवस्था - मुद्दों का सारांश
1.0 वर्ष 2017 और पश्चात की कृषि
“विश्व के अधिकांश गरीब लोग अपनी आजीविका कृषि से अर्जित करते हैं, अतः यदि हमें कृषि के अर्थशास्त्र की जानकारी होती तो हमें गरीब होने के अधिकांश अर्थशास्त्र के विषय में जानकारी हो जाती।“
थियोडोर शुल्ट्ज, वर्ष 1979 के नोबेल पुरस्कार विजेता, आर्थिक विज्ञान
कृषि के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था का घनिष्ठ जुडाव और भारतीय लोगों का सामान्य कल्याण दृश्य और गहन है। एक प्रफुल्लित मानसून मौसम में हुईं भरपूर फसलें न केवल उत्पादकों के चेहरों पर प्रसन्नता और खुशी लाती हैं, बल्कि ये आर्थिक नियोजनकर्ताओं और राजनीतिज्ञों के चेहरों पर अधिक खुशी लाती हैं जिनके भाग्य इस सकारात्मकता द्वारा उत्पन्न भावनाओं के साथ बंधे हुए हैं।
हालांकि भारतीय कृषि एक विशाल क्षेत्र है, और हम अनेक फसलों के उत्पादन में अग्रणी हैं - मनुष्य के उपभोग के लिए पैदा की गई गेहूं और दालों की फसलें, मनुष्य के उपभोग के लिए पैदा की गई फलों और सब्जियों की फसलें, विक्रय या प्रसंस्करण के लिए पैदा की गई कपास या तंबाकू जैसी वाणिज्यिक फसलें, और बडे़-बडे़ बागानों पर पैदा की गई चाय या कॉफी जैसी फसलें - फिर भी इस क्षेत्र में लंबे समय से अनसुलझे ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें संबोधित करना आवश्यक है। कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे हैं अनेक क्षेत्रों में और अनेक फसलों की अल्प उत्पादकता, भू-धारण के छोटे आकार, कृषि क्षेत्र में निवेश का अभाव, इत्यादि।
विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान कृषि का प्रदर्शन किस प्रकार का रहा है इसपर एक संक्षिप्त दृष्टिक्षेप हमें बताता है कि वृद्धि दरों को बनाए रखना एक निरंतर चुनौतीपूर्ण कार्य रहने वाला है।
भारत में मध्यम वर्ग की तीव्र वृद्धि ने सुनिश्चित किया है कि देश में प्रसंस्कृत खाद्य, उच्च प्रोटीन आहार (अंडे, दूध, मांस, मछली, दालें इत्यादि) की पर्याप्त मांग है। अतः अब आपूर्ति पक्ष में तदनुसार वृद्धि होना आवश्यक है अन्यथा मुद्रास्फीति के दबाव उत्पन्न हो जायेंगे।
एक सूचना प्रौद्योगिकी शक्ति के रूप में हमारी समस्त वृद्धि के बावजूद हमारे भूखे लोगों की संख्या हमारे लिए शर्मनाक स्थिति उत्पन्न करती है।
वर्तमान सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र के लिए कुछ उत्कृष्ट पहले की जा रही है, जो यदि व्यवस्थित ढंग से क्रियान्वित हो जाती हैं तो ये भारत के अनेक किसानों के आय के परिदृश्य को परिवर्तित कर सकती हैं। इन में से एक पहल है बागवानी के एकीकृत विकास के लिए शुरू किया गया अभियान - एमआईडीएच - जिसमें 21 से अधिक केंद्रीय मंत्रालयों के विभाग और संस्थान शामिल होंगे जो भारत में बागवानी विकास के एकीकृत दृष्टिकोण को सुनिश्चित करेंगे।
भारतीय कृषि की संपूर्ण मूल्य श्रृंखला का व्यापक सरलीकरण और प्रौद्योगिकीय एकीकरण अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह इलेक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई-नाम) जैसी पहलों की सफलता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
उसी समय, कृषि क्षेत्र में होने वाले “अपव्यय“ की प्रत्यक्ष अनुभूति के द्वारा भी हम इसमें कमी करने का प्रयास कर सकते हैं, और इस प्रकार भारतीय कृषि मूल्य श्रृंखला के व्यापक मूल्य में काफी वृद्धि की जा सकती है।
भारत में दी जाने वाली खाद्य अनुवृत्ति विशाल है। नीचे कुछ आंकडे दिए गए हैं।
इस परिप्रेक्ष्य में, समस्त लक्षित सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के अंत-से अंत कम्प्यूटरीकरण का सभी प्रकार के रिसावों को बंद करने के माध्यम से बचत पर काफी गहरा प्रभाव पडेगा।अनेक सकारात्मक उपभोक्ता जागरूकता पहलों का और उपभोक्ताओं को नियमित रूप से शिक्षित करने का सर्वत्र व्याप्त भ्रष्टाचार में कमी करने की दृष्टि से बडा भारी प्रभाव होगा।
1.1 भारत में सुधारित कृषि के लिए मुद्दों की श्रृंखला
वर्श 2016 में संबंधित मंत्रालयों (कृशि एवं कृशण कल्याण मंत्रालय, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय और उनके संबंधित विभाग) की एक समीक्षा बैठक आयोजित की गई थी जिसने वर्श 2016-17 में चिंता की दृश्टि से कुछ तत्काल विशयों की सूची प्रदान की। नीचे विस्तृत सूची दी गई है जो काफी अंतदृश्टिपूर्ण है।
मुद्दे - देश में 13 विशिष्ट मुद्दे हैं।
- दालें और तेल बीज - सुधारित प्रौद्योगिकी निविष्टियों के माध्यम से दालों और तेल बीजों की उत्पादकता और उत्पादन में सुधार की रणनीति। (संकाय - कृषि)
- चावल - तनाव-प्रवण क्षेत्रों (वर्षापोषित, बाढ़ प्रवण इत्यादि), साथ ही पूर्वी भारत में धान की उत्पादकता और उत्पादन में वृद्धि की रणनीति। (संकाय - कृषि)
- कपास - उचित प्रौद्योगिकी प्रबंधन पद्धतियों के परिनियोजन द्वारा कपास की फसल का प्रबंधन, विशेष रूप से कीट एवं रोग भेद्यता। (संकाय - कृषि)
- बेहतर निविष्टि प्रबंधन के माध्यम से कृषि में फसल उत्पादन की लागतों को कम करने के लिए आवश्यक हस्तक्षेप और रणनीति। (संकाय - कृषि)
- जैविक कृषि - धारणीय आधार पर पैदावार क्षमता प्राप्त करने के लिए पर्वतीय क्षेत्रों में जैविक कृषि का संवर्धन। (संकाय - कृषि)
- खरीफ 2016 के दौरान किसानों के अधिकतम समावेश को प्राप्त करने के लिए फसल बीमा योजना का प्रभावी क्रियान्वयन। (संकाय - कृषि)
- बागवानी में उच्च उत्पादकता प्राप्त करने के लिए प्रौद्योगिकी संचालित वृद्धि। (संकाय - बागवानी)
- कटाई-पश्चात की हानियों को कम करना और उत्पादन को शीत श्रृंखला की दिशा में बढ़ाना। (संकाय - बागवानी)
- बेहतर चारा प्रबंधन और रोग नियंत्रण के माध्यम से पशु उत्पादकता और उत्पादन में वृद्धि करना। (संकाय - पशुपालन, डेरी एवं मत्स्यपालन)
- डेरी क्षेत्र में वित्तीयन और खरीद, प्रसंस्करण और विपणन अधोसंरचना का प्रबंधन, विशेष रूप से अत्यंत पुराने डेरी संयंत्रों का नवीकरण। (संकाय - पशुपालन, डेरी एवं मत्स्यपालन)
- कृषि विपणन में सुधार - राष्ट्रीय कृषि बाजार का क्रियान्वयन। (संकाय - ऋण एवं बीमा, कृषि विपणन में सुधार)
- कृषि क्षेत्र में अल्पकालिक और दीर्घकालीन, दोनों प्रकार के पूँजी निवेशों के लिए संस्थागत ऋण व्यवस्था में किसानों की पहुँच में सुधार करना। (संकाय ऋण एवं बीमा, कृषि विपणन में सुधार)
- देश में दालों और तेल के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए मूल्य समर्थन योजना के तहत दालों और तेल बीजों की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद और उसके प्रभावी उपयोग से संबंधित मुद्दे। (संकाय - ऋण एवं बीमा, कृषि विपणन में सुधार)
अब हम उन प्रमुख विशय वस्तुओं की ओर देखते हैं जिनके इर्द-गिर्द कृशि से संबंधित चर्चाऐं आमतौर पर केंद्रित रहती हैं।
सूखे -
- देश में लगातार हुए दो सूखे और वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दुगना करने की सरकार की प्रतिबद्धता की पृष्ठभूमि पर भारतीय कृषि नियोजन को विशेष महत्त्व प्राप्त हो जाता है।
- लगातार दो मानसून की विफलताओं का परिणाम खाद्यान्नों की पैदावार में वर्ष 2013-14 से रिकॉर्ड 26.4 करोड़ टन के स्तर से गिरावट में हुआ। सामान्य से कम हुए दो फसल मौसमों ने किसानों और संसाधनों, दोनों को तनावपूर्ण बना दिया है। इसके कारण बीज, ऋण और उर्वरकों इत्यादि जैसी महत्वपूर्ण निविष्टियाँ की समयबद्ध उपलब्धता सुनिश्चित करने की केंद्र और राज्य स्तर पर सभी संबंधित विभागों और अभिकरणों की जिम्मेदारी बढ़ गई है।
- देश अब अनियमित वर्षा की स्थिति से निपटने की दृष्टि से बेहतर ढंग से सुसज्जित है। पिछले क्रमशः दो वर्षों के दौरान 14 प्रतिशत और 12 प्रतिशत की उच्च वर्षा न्यूनता के बावजूद वर्ष 2015-16 के दौरान देश में खाद्यान्नों का उत्पादन वर्ष 2014-15 के 25.202 करोड़़ टन के उत्पादन की तुलना में 25.316 करोड़ टन के मामूली से उच्च स्तर पर रहा है।
- मौसम की अस्थिरता और भू-धारण के छोटे और सीमांत स्वरुप के मद्देनजर अगले छह वर्षों के दौरान किसानों की आय को दुगना करने के लक्ष्य को प्राप्त करना केवल फसल उत्पादन के आधार संभव नहीं होगा, और इसके लिए कृषि के सभी संबंधित क्षेत्रों, अर्थात (ए) बागवानी, (बी) पशुपालन, (सी) डेरी और मत्स्यपालन, (डी) ऋण, सहकारिता और विपणन का समावेश करके एकीकृत कृषि पद्धतियों की व्यापक रणनीति की आवश्यकता होगी।
- चूंकि पानी एक महत्वपूर्ण संसाधन है, अतः 2016-17 के बजट में जल स्रोतों के निर्माण और जल उपयोग कुशलता में वृद्धि को कृषि क्षेत्र की मुख्य चिंता का स्थान दिया गया है।
- उर्वरकों के संतुलित उपयोग का संवर्धन करने और मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना की प्रासंगिकता को स्पष्ट रूप से समझाने की आवश्यकता है।
- राज्यों को सभी फसलों पर सिफारिश की गई 33 प्रतिशत की बीज प्रतिस्थापन दरों को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
- कृषि को अधिक व्यवहार्य बनाने के लिए राज्यों को फसल-वार, जिला-वार और खंड - वार पैदावार का विश्लेषण करना चाहिए और ऐसे क्षेत्रों के किसानों को विशेष सहायता प्रदान करनी चाहिए जहाँ वास्तविक पैदावार जिला, राज्य और राष्ट्रीय औसत से कम है। ऐसे क्षेत्रों के किसानों को समयबद्ध ऋण, बीजों, उर्वरकों और तकनीकी सलाह तक पहुँच प्रदान की जानी चाहिए ताकि पैदावार के स्तरों में सुधार हो सके।
सिंचाई -
- वर्ष 2015-16 में शुरू की गई प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना न केवल देश के जल संसाधनों में वृद्धि करेगी बल्कि यह योजना जल उपयोग वृद्धि करेगी। 2015-16 के संशोधित अनुमानों के समक्ष प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के तहत 2016-17 के आवंटन में काफी वृद्धि करके इसे 2340 करोड़ रुपये किया गया है।
भूमि और उत्पादकता -
- चूंकि भूमि की उपलब्धता सीमित है, अतः उच्च आय केवल फसल की उत्पादकता में वृद्धि के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है, जो उर्वरकों के संतुलित उपयोग के बिना प्राप्त नहीं की जा सकती।
- सरकार द्वारा देश के 14 करोड़ भू-धारणों के संबंध में मृदा की पोषक तत्व आवश्यकता के अनुसार उर्वरकों के उपयोग का संवर्धन करने के लिए एक व्यापक मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना शुरू की गई है।
- राज्यों द्वारा पहले ही (अप्रैल 2016 तक) 90 लाख मृदा नमूने एकत्रित किये जा चुके थे और इनमें से 60 लाख से अधिक नमूनों का परीक्षण किया जा चूका था। उर्वरकों के असंतुलित उपयोग को देखते हुए, जिसके कारण मृदा की उर्वरकता का अपक्षय हुआ है, मृदा स्वास्थ्य कार्ड के बारे में जागरूकता निर्माण करने की आवश्यकता अत्यंत महत्वपूर्ण है।
- पूर्वी भारत में उत्पादकता में सुधार पर विशेष ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
जैविक कृषि -
- पैदावार से समझौता किये बिना भी जैविक कृषि का संवर्धन करने की काफी संभावना है।
- जैविक कृषि के संवर्धन के लिए, विशेष रूप से वर्षापोषित पर्वतीय क्षेत्रों में, परंपरागत कृषि विकास योजना का क्रियान्वयन मिशन मोड में किये जाने की आवश्यकता है। किसानों की आय में वृद्धि के लिए किसानों को लाभकारी प्रतिफल प्राप्त हो यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है।
राष्ट्रीय कृषि बाजार -
- सरकार एक राष्ट्रीय कृषि बाजार की स्थापना के लिए योजना शुरू कर रही है जिसमें सितंबर 2016 तक 200 बाजार शामिल कर लिए जायेंगे, और मार्च 2017 तक इसमें और 200 बाजार शामिल किये जायेंगे। यह किसानों को उनके उत्पादों के लिए अधिक प्रतिस्पर्धी मूल्य प्राप्त करने में सहायक होगी और अंततः इसका परिणाम उनकी आय में वृद्धि में होगा। राज्यों के लिए आवश्यक है कि वे अपने कृषि उपज बाजार समितियों के सुधारों को पूर्ण करें और जितनी जल्दी संभव हो राष्ट्रीय कृषि बाजार में शामिल हों।
बीमा योजनाएं -
- किसानों को विभिन्न जोखिमों और अनिश्चितताओं से सुरक्षित करने के लिए सरकार एक व्यापक प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का क्रियान्वयन कर रही है। यह किसानों के कल्याण के लिए एक लीक से हट कर की गई पहल है, और सभी राज्यों को बोलियां पूर्ण करके विभिन्न बीमा कंपनियों को जिले आवंटित करने हैं ताकि किसान 2016 के खरीफ मौसम से ही प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का लाभ ले सकें।
दालों का उत्पादन -
- वर्ष 2016 में सरकार ने दालों के उत्पादन पर विशेष जोर दिया है और वर्ष 2016-17 में देश में दालों के उत्पादन को संवर्धित करने के लिए 500 करोड रुपये की अतिरिक्त धनराशि का आवंटन किया गया है। वर्ष 2020-21 तक देश में दालों की 2.4 करोड़ टन की वार्षिक पैदावार प्राप्त करने के लिए एक पांच वर्षीय दिशा मानचित्र तैयार किया गया है।
दूध उत्पादन -
- 1.चूंकि दूध उत्पादन ग्रामीण परिवारों की सकल आय में लगभग एक-तिहाई का योगदान देता है, अतः यह महत्वपूर्ण है कि किसान अपने गांवों में और गांवों के आसपास से कृत्रिम गर्भाधान केंद्रों जैसी प्रजनन सुविधाओं का लाभ उठाएं। दुग्ध पशुओं की अल्प उत्पादकता को देखते हुए सरकार सक्रिय रूप से इस बात का प्रयास कर रही है कि जिसके पास दुग्ध पशु हैं ऐसे प्रत्येक किसान को डेरी व्यवसाय के लाभ प्राप्त हो सकें। डेरी व्यवसाय से किसानों की आय में वृद्धि के लिए सरकार सहकारी क्षेत्र के लिए अतिरिक्त दूध प्रसंस्करण, विपणन और खरीद अधोसंरचना के निर्माण और सशक्तिकरण को लक्षित कर रही है।
बीज -
- आईसीएआर बुवाई मौसमों के लिए बीज और रोपण सामग्री की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए तैयार है।
- आईसीएआर ने ऐसी नई सूखा रोधी बीज किस्मों का विकास किया है जो अपूर्ण वर्षा की स्थिति के लिए उपयुक्त हैं, साथ ही ऐसी बीज किस्में भी विकसित की हैं जिनकी अवधि तो कम है परंतु पैदावार में अधिक समझौता करने की आवश्यकता नहीं हैं। उचित समय पर गुणवत्तापूर्ण बीजों की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है, अतः राज्यों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बीजों की देर से आपूर्ति से किसानों का नुकसान न हो।
- राज्यों को दालों और तेल बीजों की पुरानी बीज किस्मों का उपयोग नहीं करना चाहिए और तेल बीजों और दालों के लिए उपलब्ध बेहतर गुणवत्ता के बीज उत्पादकता में सुधार करेंगे। प्रौद्योगिकी और गुणवत्तापूर्ण बीजों की उपलब्धता को देखते हुए ऐसी आशा की जा रही है कि दालों और तेल बीजों के लिए निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त कर लिया जायेगा।
पशुधन -
- किसानों की आय में पशुधन का महत्त्व बहुत अधिक है, और इन्हें अभी तक अत्यंत गौण महत्त्व दिया गया है।
- संबद्ध क्षेत्र समावेशी होते हैं क्योंकि ये समाज के सर्वाधिक सीमांत और भेद्य वर्गों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं, और छोटे और सीमांत किसान पशुधन क्षेत्र से लाभान्वित होने वाले प्रमुख वर्ग हैं। हालांकि देश में पशुधन की संख्या सर्वाधिक है, फिर भी वैश्विक औसत की तुलना में इनकी उत्पादकता अत्यंत न्यून है।
- पशुपालन क्षेत्र, जो कृषि और संबद्ध क्षेत्र की जीडीपी में लगभग एक-तिहाई का योगदान देता है, परंतु फिर भी इसे आरकेवीवाय के अंतर्गत आवंटन में आनुपातिक हिस्सा नहीं मिलता।
- साथ ही, सूखे, बाढ़ इत्यादि के कारण हुई क्षति का मूल्यांकन करते समय पशुधन के कारण हुए नुकसान का सही ढंग से मूल्यांकन नहीं किया जाता और इसे ठीक करना आवश्यक है। किसानों को उनके पशुधन की हानि की पर्याप्त क्षतिपूर्ति प्राप्त होना आवश्यक है।
- वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दुगना करने की सरकार की प्रतिबद्धता के संदर्भ में राज्य सरकारें महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी। 20 वीं पशुधन जनगणना वर्ष 2017 में आयोजित की जाएगी।
योजनाएं -
- पीएमकेएसवाय - सिंचाई की सुविधाओं में वृद्धि के लिए प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना को सुगठित किया गया है और इसका आवंटन अब बढ़ाकर 2400 करोड़ रुपये किया गया है।
- पीकेवीवाय - वर्षापोषित और पर्वतीय क्षेत्रों के लिए जहाँ सिंचाई के विश्वसनीय स्रोत उपलब्ध नहीं हैं, वहां प्रतिफल में वृद्धि के लिए जैविक कृषि का संवर्धन किया जा सकता है। इसके लिए राज्य सक्रिय रूप से परंपरागत कृषि विकास योजना और उत्तर-पूर्व के लिए जैविक मूल्य श्रृंखला परियोजनाओं के क्रियान्वयन पर विचार कर सकते हैं।
- ई-नाम - वर्ष 1991 में आर्थिक उदारीकरण के बाद बाजार सुधार कृषि क्षेत्र की महत्वपूर्ण पहल है। इस दिशा में एक प्रमुख खोज के रूप में प्रधानमंत्री द्वारा प्रायोगिक रूप से आठ राज्यों की 21 कृषि उपज बाजार समितियों में एक ई-मंच के रूप में राष्ट्रीय कृषि बाजार की शुरुआत की गई है। वर्ष 2016-17 के अंत तक इसका और अधिक विस्तार करके इसमें 400 बाजार शामिल किये जाएंगे।
- ग्रामीण ऋण - कृषि क्षेत्र के संकट को संबोधित करने में संस्थागत ऋण की भूमिका के महत्त्व को पहचानते हुए वर्तमान वर्ष के बजट में कृषि ऋण के लक्ष्य को बढ़ाकर 9 लाख करोड़ रुपये किया गया है। विद्यमान व्याज की आर्थिक सहायता योजना की त्रुटियों और कमियों को दूर किया जा रहा है।
- प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना - जोखिम शमन के लिए एक प्रभावी तंत्र निर्माण करने के उद्देश्य से एक नई फसल बीमा योजना, “प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना“ शुरू की गई है। राज्यों को इस योजना के व्यापक प्रचार और लोक-प्रसिद्धि के लिए अग्रसक्रिय कदम उठाने चाहिए और योजना के शीघ्र क्रियान्वयन के लिए पहल करनी चाहिए।
उर्वरक -
- उपलब्धता - वर्ष 2015-16 के दौरान उर्वरकों की उपलब्धता की स्थिति पर्याप्त और आश्वासक थी और 2016 के खरीफ मौसम की आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि से पर्याप्त मात्रा में उर्वरक उपलब्ध थे।
- नीम आवरणित (लेपित) यूरिया - नीम आवरणित यूरिया के लाभों के संदर्भ में किसानों में जागरूकता निर्माण करने की दृष्टि से सघन जागरूकता अभियान चलाए जाने की आवश्यकता है, साथ ही आपूर्तिकर्ताओं के साथ निकट समन्वय होना, उर्वरक परिवहन करने वाले रेल डिब्बे शीघ्र जारी करना और प्रवर्तन उपाय इत्यादि को सशक्त करना भी आवश्यक है। एनएचएम के अंतर्गत मृदा की स्वास्थ्य स्थिति, सूक्ष्म पोषकों, जैविक उर्वरकों और जल में घुलनशील उर्वरकों के आधार पर उर्वरकों की इष्टतम खुराक के उपयोग का संवर्धन करना भी आवश्यक है।
2.0 छोटे किसान और भारतीय कृषि
भारतीय कृषि पर (कम से कम संख्या की दृष्टि से) छोटे और सीमांत कृषक परिवारों का वर्चस्व है। भारत के छोटे किसानों के लिए वर्ष 2015 के अंत तक और वर्ष 2016 की शुरुआत तक का समय काफी संघर्षपूर्ण रहा है क्योंकि मौसम देवता उनके ऊपर अधिक मेहरबान नहीं रहे हैं। दस राज्यों ने सूखे की स्थिति घोषित की है। बढ़ते ऋणों और फसलों की असफलता के विरुद्ध सुरक्षा के लिए राज्य के सहायता तंत्र ने भी कोई सहायता नहीं दी। वर्ष 2015 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या बढ़कर औसत 52 प्रति दिन हो गई। यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि एक ऐसे क्षेत्र में अभी भी काफी कुछ किये जाने की आवश्यकता है जिसपर देश की 60 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या अपने उदर निर्वाह और आय अर्जन के लिए निर्भर है, एक ऐसा क्षेत्र जिसपर सभी के लिए खाद्य सुरक्षा की जिम्मेदारी है, आज भी और भविष्य में भी।
भारत के अधिकांश किसान “छोटे किसान“ हैं। भारत में कुल 13.8 करोड़ किसानों में से 85 प्रतिशत किसान छोटे किसान हैं जिनके पास कृषि के अंतर्गत कुल परिचालनात्मक भूमि का लगभग 45 प्रतिशत हिस्सा है। और यदि वर्तमान प्रवृत्तियां जारी रहती हैं तो आने वाले वर्षों में कृषि का अल्प भू-धारण स्वरुप बढ़ने वाला है। 2020 में एक नये दृश्टिकोण की आवष्यकता होगी।
न केवल किसानों की संख्या और कृषि भूमि का आकार, बल्कि विभिन्न अध्ययनों ने भारत के खाद्य उत्पादन में छोटे किसानों से प्राप्त होने वाले विशाल हिस्से की गणना की है। खाद्य एवं कृषि संगठन की वर्ष 2002 की एक रिपोर्ट कहती है कि कुल खाद्य उत्पादन में छोटे किसानों का योगदान 41 प्रतिशत है। (खाद्य एवं कृषि संगठन, 2002) आईजीआईडीआर द्वारा वर्ष 2012 में किया गया एक अन्य अध्ययन कुल खाद्य उत्पादन में छोटे किसानों से प्राप्त हिस्से का आकलन 51.2 प्रतिशत करता है। (डेव, 2012) किसानों के विभिन्न वर्गों से कुल खाद्य उत्पादन में प्राप्त होने वाले संबंधित हिस्से के संबंध में कोई भी सटीक सरकारी आकलन उपलब्ध नहीं हैं।
कुछ स्पष्ट निष्कर्ष -
- भारतीय कृषि में छोटे भू-धारण का चरित्र इस क्षेत्र में शामिल कुल किसानों की संख्या और देश में उत्पादित कुल खाद्यान्न, दोनों दृष्टियों से एक महत्वपूर्ण घटना है।
- यदि यही प्रवृत्ति जारी रहती है तो जैसा पिछले रुझानों ने दर्शाया है, छोटे भू-धारणों का स्वरुप यथास्थिति से अधिक बढ़ने वाला है।
2.1 भारत के छोटे किसानों की समस्याएं
देश व्यापक सूखे का सामना कर रहा है, जिसमें हानि और क्षति से पुनःप्राप्ति के कोई ठोस तंत्र उपलब्ध नहीं हैं। साथ ही इसमें कुछ अन्य तथ्य भी हैं।
संसाधनों तक सीमित पहुँच (वित्तीय, सामग्री और प्राकृतिक): भारतीय किसानों की, विशेष रूप से छोटे किसानों की वित्तीय ऋण तक पहुँच अत्यंत सीमित है। भारत के छोटे और सीमांत किसानों की औसत मासिक बचत या तो नगण्य है या ऋणात्मक है, और उत्पादक परिसंपत्तियों में उनका औसत निवेश 422 रुपये से 540 रुपये के बीच है (एनएसएसओ) किसानों को पूँजी की आवश्यकता उनकी बचत की तुलना में काफी अधिक होती है, और अत्यल्प बचत करने वाले छोटे और सीमांत किसानों को पूँजी की अधिक निविष्टि की आवश्यकता होती है। आज भारत के कृषक परिवार के नाम पर बकाया औसत ऋण राशि 47,000 रुपये है जो उसकी दृष्टि से अत्यंत भारी बोझ है।
परंपरागत रूप से की जा रही कृषि की बढ़ती भेद्यताएंः बढ़ते तापमानों, बदलती वर्षा पद्धतियों और चरम मौसम घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति के कारण जलवायु परिवर्तन कुल फसल उत्पादन और खाद्य उत्पादन के लिए क्षेत्रीय जल उपलब्धता में कमी करने की संभावना है। घटते प्राकृतिक संसाधनों और प्राकृतिक संसाधनों की बढ़ती मांग के साथ ही संकुचित होता संसाधन आधार देश के खाद्य उत्पादन की प्रक्रियाओं को प्रभावित करने की संभावना है। हमारे देश की 60 प्रतिशत खेती आज भी वर्षा पोषित है जो अपनी फसलों के लिए मानसून और बदलती मौसम स्थितियों की उच्च भेद्यता पर निर्भर रहती है।
कृषि पैदावार को मिलने वाला अल्प मूल्यः विभिन्न अध्ययनों ने छोटे किसानों के बाजार से जुडाव के अभाव को संपुष्ट किया है, जिसके कारण कृषि उत्पादन को अल्प मूल्य प्राप्त होता है। सरकार की खरीद नीतियों की भी आलोचनाएं होती रही हैं। वर्ष 1970 में, गेहूं के लिए किसानों को दिया गया न्यूनतम समर्थन मूल्य 76 रुपये प्रति क्विंटल था। वर्ष 2015 तक गेहूं को दिए जाने वाले समर्थन मूल्य में मात्र 19 गुना वृद्धि हुई है, जो बढ़ कर 1450 रुपये प्रति क्विंटल हुआ है। इसी अवधि के दौरान, सरकारी कर्मचारियों के मूल वेतन (और महंगाई भत्ते) में 150 गुना जितनी भारी वृद्धि हुई है, जबकि महाविद्यालयों के प्राध्यापकों और विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों के लिए यही वृद्धि 170 गुना रही है, विद्यालय शिक्षकों के लिए 320 गुना और शीर्ष निगमों के अधिकारी वर्ग के लिए यह वृद्धि 1000 गुना जितनी भारी और अप्रत्याशित हुई है। वस्तुओं की घटती कीमतों, गिरती पैदावार और निविष्टियों की बढ़ती लागतों के संयोजन का परिणाम यह हुआ है कि करोडों कृषि मजदूरों और किसानों के लिए जीवनयापन का संकट निर्माण हो गया है, साथ ही यह भारत की खाद्य सुरक्षा के लिए भी खतरा बन गया है। ऐसी परिस्थिति में भारत के केंद्रीय बजट ने कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण आवंटन किये प्रतीत होते हैं।
3.0 भारतीय कृषि के लिए केंद्रीय बजट में किये गए उपाय
केंद्रीय बजट 2019 - कृषि क्षेत्र
छोटे एवं सीमांत कृषकों को सुनिश्चित आय प्रदान करने के लिए, केंद्र सरकार ने एक ऐतिहासिक योजना - प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि शुरू की है। योजना के तहत, कमजोर किसान, जो लगभग 2 हेक्टेयर भूमि के स्वामी है, को प्रतिवर्ष 6000 रुपये की प्रत्यक्ष आय सहायता मिलेगी।
- अंतरिम केंद्रीय वित्तमंत्री पीयूष गोयल ने फरवरी 1, 2019 को अंतरिम बजट 2019-20 पेश किया। यह स्वतंत्र भारत का 89 वां तथा नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार का छठा बजट था।
- बजट 2019 ने कृषि क्षेत्र को अर्थव्यवस्था के प्रमुख चालकों में से एक के रूप में समझा है। तदनुसार, अंतरिम वित्तमंत्री पीयूष गोयल ने निम्नलिखित पहलों की घोषणा की :
- किसान की आय दोगुनी करना : सभी 22 फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत रखा गया है। कृषि वस्तुओं का रिकॉर्ड उत्पादन करने के लिए कई किसान समर्थक नीतियाँ बनाई गई है।
- हाल के दिनों में खेती की उपज कम हो गई है, साथ ही किसान परिवारों की आय भी कम हो गई है।
- इसलिए, गरीब किसान परिवारों को खाद एवं बीज आदि खरीदने के लिए संरचित आय सहायता प्रदान करने की आवश्यकता है।
- समर्थन का उद्देश्य किसानों को उनकी ऋण ग्रस्तता में मदद करना एवं उन्हें सम्मानजनक जीवन जीने में सक्षम बनाना है।
- लघु एवं सीमांत किसानों को सुनिश्चित आय प्रदान करने के लिए, सरकार ने एक ऐतिहासिक योजना शुरू की है - प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पीएम किसान)।
- योजना के तहत, कमजोर किसानों, जिनके पास लगभग 2 हेक्टेयर भूमि है, उन्हें प्रतिवर्ष 6000 रुपये की प्रत्यक्ष आय सहायता मिलेगी।
- सहायता के रूप में 2000 रुपये की तीन समान किश्तों को लाभार्थी किसान के खाते में सीधे हस्तांतरित किया जाएगा। यह योजना पूर्णतः भारत सरकार द्वारा वित्त पोषित होगी।
- इस योजना से 12 करोड़ किसान परिवारों को लाभ मिलने की उम्मीद है। कार्यक्रम दिसंबर 2018 से लागू कर दिया गया है।
- केंद्र द्वारा प्रतिवर्ष लगभग 75,000 करोड़ रुपये का वहन किया जाएगा। सूची तैयार करने के बाद जल्द ही पहली किस्त वापस कर दी जाएगी। इस वित्तीय वर्ष में 20,000 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे।
- पीएम किसान कमजोर किसान परिवारों को सुनिश्चित पूरक आय प्रदान करेगी, जिससे उन्हें सम्मान जनक जीवन जीने में मदद मिलेगी।
- इसके अलावा, प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित किसानों को फसल ऋण पर ब्याज दर में 3 प्रतिशत की रियायत दी जाएगी।
तालिका पर टिप्पणियां -
- कृषि में बीमे के लिए किया गया आवंटन केवल लक्षणों को संबोधित करने में सक्षम हो सकता है न कि कृषि क्षेत्र के संकट के मूल कारण को संबोधित करने में।
- साथ ही, सिंचाई में लक्षित आवंटन और अंतिम स्तर के किसान तक कृषि ऋण की पहुँच का विस्तार एक महत्वपूर्ण कदम है। अतः इस बजटीय आवंटन के उपयोग की प्रक्रिया में इस पर जोर दिया जाना आवश्यक है।
- किसानों को बाजार से जोडने और संबंधित सामुदायिक संस्थाओं को सहायता के माध्यम से मूल्य संवर्धन के काम की .ष्टि से अभी काफी कुछ किया जाना आवश्यक है। देश के किसानों को प्रदान किये जाने वाले अपेक्षाकृत स्थिर न्यूनतम समर्थन मूल्यों में भी संशोधन किया जाना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
- किसानों के लिए बेहतर कृषि लाभ सुनिश्चित करने के लिए सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में सडकों, परिवहन के साधनों और भंडारण अधोसंरचना जैसी अधोसंरचना के विकास के लिए निजी क्षेत्र से निवेश आकर्षित करना आवश्यक और अनिवार्य है।
- सरकार ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दुगना करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है। परंतु इस लक्ष्य की प्राप्ति किस प्रकार की जायेगी इसके संबंध में अभी काफी बातें अस्पष्ट हैं।
- केंद्रीय बजट निश्चित रूप से इस निराशाजनक स्थिति में एक अच्छा कदम है परंतु यह भी उतना ही सही है कि छोटे किसानों की समस्याओं के अंबार की दृष्टि से और वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दुगना करने के निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति की दृष्टि से यह कदम स्पष्ट और निश्चित रूप से पर्याप्त नहीं है।
भारतीय कृषि में एक नाटकीय सुधार हो यह सुनिश्चित करने के लिए यहाँ कुछ सुझाव और स्पष्ट उपाय दिए गए हैं जिनका कडाई से क्रियान्वयन आवश्यक है।
4.0 नीति आयोग और भारतीय कृषि का मूल्यांकन
इस पुस्तिका में सूचीबद्ध किये गए उपरोक्त सभी मुद्दों और समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में यह स्पष्ट है कि इस क्षेत्र के संपूर्ण परिवर्तन के लिए त्वरित कार्यवाही अनिवार्य है। भारत के नीति आयोग ने भी एक विस्तृत और सतर्क मूल्यांकन किया है, और कृषि विकास कार्यदल ने पांच प्रमुख मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया हैः कृषि उत्पादकता, किसानों के लिए लाभकारी मूल्य, भूमि नीति, कृषिजन्य संकट, और पूर्वी क्षेत्र जो कृषि विकास की दृष्टि से देश के शेष भागों से काफी पिछड़ गए हैं।
पहला मुद्दाः कृषि उत्पादकता - कृषि उत्पादकता में वृद्धि के लिए अनिवार्य उपायों की एक श्रृंखला की आवश्यकता है। व्यापक स्तर पर इस मुद्दे के दो पहलू हैंः राष्ट्रीय स्तर पर न्यून औसत उत्पादकता और इसके क्षेत्रीयता में उच्च भिन्नता। जैसा कि पहले समझाया गया है, अन्य प्रमुख चावल उत्पादक देशों की तुलना में भारत में चावल की औसत उत्पादकता काफी कम है। गेहूं के मामले में भारत का प्रदर्शन काफी अच्छा है परंतु इस फसल में भी सुधार की काफी संभावना है। यही बात तील बीजों, फलों और सब्जियों, साथ ही पशुपालन, मत्स्यपालन और कुक्कुटपलन जैसी गतिविधियों के विषय में भी लागू है। दूसरी व्यापक उत्पादकता चिंता क्षेत्रीय विविधता से संबंधित है। यह भी स्पष्ट है कि जहाँ एक ओर पंजाब और हरियाणा राष्ट्रीय स्तर पर उच्च उत्पादकता का प्रदर्शन करते हैं वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, ओडिशा और कर्नाटक जैसे राज्य प्रति हेक्टेयर न्यून उत्पादकता की समस्या से जूझते हैं। इन क्षेत्रों में भी उत्पादकता में सुधार की व्यापक संभावनाएं मौजूद हैं। उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए तीन आयामों पर प्रगति करना आवश्यक हैः (1) गुणवत्ता और पानी, बीजों, उर्वरकों और कीटनाशकों जैसी निविष्टियाँ का न्यायसंगत उपयोग; (2) आनुवंशिक संशोधित फसलों के साथ ही अन्य आधुनिक प्रौद्योगिकी का न्यायसंगत और सुरक्षित दोहन; और (3) फलों, सब्जियों, फूलों, मत्स्यपालन, पशुपालन और कुक्कुटपलन जैसी उच्च मूल्य वस्तुओं में कृषि क्षेत्र का परिवर्तन। दीर्घकाल में उत्पादकता वृद्धि के लिए मजबूत बीज किस्मों और अन्य निविष्टियों की खोज, और प्रभावी विस्तार कार्य की दृष्टि से एक दी गई मृदा किस्म की दृष्टि से उपयुक्त फसल और निविष्टियों का उपयोग आवश्यक है। पूर्व में भारत ने कृषि अनुसंधान और विकास कार्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। परंतु किस क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करना है इस बारे में स्पष्टता और वित्तीय संसाधनों के अभाव के कारण यह क्षेत्र भी काफी तनाव में है। सहयोगी संस्थाओं के बीच संपर्क और जुडाव भी कमजोर हुआ है, साथ ही समय के साथ जवाबदेही में भी कमी आई है। अनुसंधान और विकास पर पुनर्विचार करना आवश्यक और अनिवार्य बन गया है।
दूसरा मुद्दाः किसानों के लिए लाभकारी मूल्य - इस मुद्दे के दो पहलू हैं, एक पहलू न्यूनतम समर्थन मूल्य से जुडा हुआ है और दूसरा पहलू अंतिम उपभोक्ता द्वारा भुगतान किये जाने वाले मूल्य में किसान के हिस्से से संबंधित है। पहले हम न्यूनतम समर्थन मूल्य से जुडे पहलू पर विचार करते हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रभावी रूप से कुछ विशिष्ट फसलों पर ही लागू होता है, मुख्य रूप से चावल, गेहूं और कपास, और यह उत्पादक राज्यों के उप समुच्चयों में ही उपलब्ध है। जिन राज्यों में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सार्वजनिक अभिकरणों द्वारा खरीद नहीं की जाती, उन राज्यों के किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य द्वारा प्रदान किया गया आश्वासन प्राप्त नहीं हो पाता है। इसके अतिरिक्त, सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के अंतर्गत अनाज का रियायती दर पर वितरण मांग के एक हिस्से को परिवर्तित कर देता है जिसके कारण उस मूल्य को कृत्रिम रूप से कम कर दिया जाता है जिसपर किसान को अपनी फसल बेचना है। इसी तरह फलों और सब्जियों जैसी फसलों के लिए, जो किसी भी सरकारी खरीद अभिकरण के अंतर्गत नहीं आती हैं, कभी-कभी इन उत्पादों की भंगुरता और बाजारों की स्थानीयता के कारण कीमतें अत्यंत कम होने की संभावना उत्पन्न हो जाती है। अपर्याप्त शीतगृह सुविधाएं भी इन फसलों की ओर आकृष्ट होने की किसानों की समस्या की व्यापकता में वृद्धि कर देती हैं। पिछले अनेक दशकों के दौरान कृषि विपणन व्यवस्था के क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण सुधार और आधुनिकीकरण नहीं हुआ है। आपूर्ति श्रृंखला बिखरी हुई और असंतुलित प्रतीत होती है, गतिविधियों की व्यापकता कम है और बिचौलियों की उपस्थिति आवश्यकता से काफी अधिक है। प्रतिस्पर्धात्मकता की दयनीय स्थिति सामान्य से अधिक और सामान्य से कम उत्पादन की स्थिति में काफी प्रखर हो जाती है। सामान्य से कुछ ही ऊपर हुए उत्पादन का परिणाम अक्सर किसानों के लिए मूल्य में तीव्र गिरावट के रूप में होता है और सामान्य से कम उत्पादन का परिणाम अक्सर कटाई अवधि के पश्चात की आसमान को छूती ऊंची कीमतों में होता है जिनका शायद ही कोई लाभ किसानों को मिल पाता है। किसान को मिलने वाले मूल्य का दूसरा पहलू मूल्य के उस छोटे से अंश से संबंधित है जो अंतिम उपभोक्ता द्वारा भुगतान किया जाता है और किसान को बाजार में प्राप्त होता है। अधिकांश वस्तुओं में और अधिकांश राज्यों में .षि उपज बाजार समिति अधिनियमों से प्रवाहित होने वाले विनियमों की लगातार उपस्थिति का अर्थ यह रहा है कि किसान पाने उत्पाद सरकार द्वारा नियंत्रित बाजार केंद्रों पर बेचने के लिए मजबूर हैं। ये नियंत्रण लेन-देन को कुछ स्थानीय खिलाडियों और आसानी से किये जाने वाले जोड-तोड तक प्रतिबंधित कर देते हैं। .षि उपज बाजार समिति के बाजार केंद्र बडी संख्या में तकनीकी और विपणन खामियों से ग्रस्त हैं जो किसानों को मिलने वाले मूल्य को कमजोर करती हैं। आदर्श .षि उपज बाजार समिति अधिनियम, 2003, जो सर्वांगीण विपणन सुधार की शुरुआत करता है, का एक वास्तविक क्रियान्वयन ही इस बात को सुनिश्चित कर सकता है कि किसान को उस मूल्य में लाभकारी हिस्सा प्राप्त हो जो अंतिम उपभोक्ता द्वारा भुगतान किया जाता है। इसके अतिरिक्त, अनिवार्य वस्तु अधिनियम की कुछ प्रतिबंधक विशेषताएं हैं, जो एक अनिश्चितता का वातावरण निर्मित करती हैं और .षि विपणन अधोसंरचना में बडे खिलाडियों के प्रवेश को हतोत्साहित करती हैं, इनका पुनर्मूल्यांकन और समीक्षा और संभावित संशोषण होना आवश्यक और अनिवार्य है।
तीसरा मुद्दाः भूमि नीति - कुछ समझने योग्य ऐतिहासिक कारणों से भारत में भूमि की पट्टेदारी के कानूनों ने ऐसे स्वरुप अंगीकार कर लिए हैं जो भू-स्वामी और पट्टेदार के बीच औचारिक पट्टे अनुबंधों को हतोत्साहित करते हैं। जमीनी अध्ययनों ने दर्शाया है देश में अधिकांश पट्टेदारी छिपी हुई है, और इस प्रकार अनधिकृत है। इस तथ्य के निहितार्थ ये हैं कि दस्तावेजों में पट्टेदारों को अक्सर वास्तविक कृषकों के रूप में मान्यता नहीं मिलती। वास्तविक कृषकों के रूप में पट्टेदारों की मान्यता के अभाव के सार्वजनिक नीति के क्रियान्वयन में गंभीर निहितार्थ हैं। पट्टेदार किसान के लिए अभिप्रेत आपदा राहत या प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण जोखिम जैसे लाभ भू स्वामी को वितरित हो जाते हैं जो सरकारी दस्तावेजों में वास्तविक किसान प्रतीत होता है। शासकीय दस्तावेजों के अभाव में, पट्टेदार किसान कृषकों को प्रदान किये जाने वाले औपचारिक ऋण और अन्य लाभों से भी वंचित रह जाते हैं। अनेक राज्यों में पट्टेदारी के कानूनों का प्रभावी रूप से परिणाम भू-स्वामियों द्वारा पट्टेदारों के नाम पर भूमि के हस्तांतरण में भी होता है जिसके कारण भूमि स्वामियों को अपनी पट्टे पर दी गई जमीन से पूरी तरह से हाथ धोना पडता है। पीढी-दर-पीढी जैसे-जैसे परिवारों की सदस्य संख्या में वृद्धि हुई है, वैसे-वैसे पारिवारिक जमीन के छोटे-छोटे और कृषि और आर्थिक दृष्टि से अव्यवहार्य टुकडे होते चले गए हैं। कष्टदायक पट्टेदारी कानूनों ने इन भू-धारणों के समेकन को अवरुद्ध किया है। दूसरी ओर, ये छोटे भू-धारण भू-स्वामियों को आजीविका के लिए वैकल्पिक कार्यों की ओर जाने के लिए मजबूर कर देते हैं, वहीं उनके छोटे भूमि के टुकडे कृषि कार्य-विहीन पडे रहते हैं क्योंकि उनके पास इन छोटे टुकडों को दूसरे कृषकों के साथ जोडने का विकल्प या संभावना भी नहीं होती।
इससे निकट संबंधित एक विषय यह भी है कि भारत में स्वामित्व के अधिकारों को मजबूती से परिभाषित भी नहीं किया गया है। समस्त स्वामित्व आनुमानिक और न्यायालय में चुनौती देने योग्य होते हैं। इस विशेषता ने एक गतिमान भूमि विक्रय बाजार के विकास को कमजोर किया है क्योंकि भू-स्वामी को उसकी जमीन के टुकडे का उचित मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता है। इसके परिणामस्वरूप, किसान को जब यह पता भी है कि उसका जमीन का टुकडा बहुत ही छोटा और आजीविका कृषि की दृष्टि से अव्यवहार्य है फिर भी वह अपनी जमीन को बेचना नहीं चाहता। उतना ही महत्वपूर्ण यह तथ्य भी है कि स्वामित्व के उचित दस्तावेजों के अभाव में और जमीन के विवादों की संभावना के कारण बैंकें भी ऋण के लिए जमीन को जमानत के रूप में स्वीकार करने में झिझकती हैं।
चौथा मुद्दाः कृषि संकट - किसान अक्सर सूखे, बाढ़, चक्रवातों, तूफानों, भूस्खलनों, ओलों और भूकंपों जैसी प्रा.तिक आपदाओं से प्रभावित होते हैं। चूंकि अधिकांश किसान आजीविका कृषि पर जीवनयापन करते हैं, अतः इस प्रकार की आपदाएं उनके लिए चरम संकट और विपत्तियां निर्मित कर सकती हैं। हालांकि पूर्व में कुछ फसल बीमा योजनाएं प्रदान करने का प्रयास किया गया है परंतु वे प्रभावी रूप से क्रियान्वित नहीं हो पाई हैं। एक महत्वपूर्ण समस्या यह है कि ये कार्यक्रम केवल उन किसानों को शामिल करती हैं जिनपर कोई बैंक ऋण बकाया नहीं है। चूंकि छोटे और गरीबतम किसानों की बैंकिंग व्यवस्था तक पहुँच नहीं है अतः उन्हें इन बीमा योजनाओं के आवरण का लाभ नहीं मिलता। इस स्थिति में सुधार की नितांत आवश्यकता है जिसके द्वारा फसलों के अधिकांश भाग का विनाश करने वाली इन प्रा.तिक आपदाओं की स्थिति में छोटे और सीमांत किसानों को न्यूनतम त्वरित राहत प्रदान की जा सके।
पांचवा मुद्दाः पूर्वी भारतीय राज्य - हमें पूर्वी राज्यों के किसानों की समस्याओं की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इन क्षेत्रों की उर्वरक भूमि और अपार जल संसाधनों को देखते हुए इन राज्यों में कृषि की दृष्टि से अपार संभावनाएं है। फिर भी विभिन्न फसलों में उनकी उत्पादकता राष्ट्रीय औसत से पिछडी हुई है। अनुकूल जलवायु स्थितियों और पर्याप्त जल उपलब्धता के बावजूद इस क्षेत्र की फसल सघनता काफी कम है।
तालिका में क्षेत्र वार विदेशी प्रत्यक्ष निवेश अंतर्वाह के आंकडे दिए गए हैं। तुलना करने के लिए आपको खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों (क्रमांक 13) और कृषि सेवाओं (क्रमांक 28) के आंकडे़ं देखने चाहिए।
6.0 वैश्विक कृषि परिदृश्यपैदावार के मूल्य की दृष्टि से विश्व अर्थव्यवस्था को चित्र में दर्शाए अनुसार विभाजित किया जा सकता है। निर्देषिकानुसार किसी भी देश के लिए सबसे गहरा क्षेत्र है सेवा क्षेत्र, अपेक्षाकृत कम गहरे रंग का क्षेत्र उद्योग क्षेत्र को इंगित करता है और सबसे हल्का क्षेत्र सेवा क्षेत्र है।
अतः हम देखते हैं कि मूल्य की दृष्टि से कृषि क्षेत्र का योगदान तीनों क्षेत्रों में से सबसे कम है। परंतु भोजन के बिना तो दुनिया चल ही नहीं सकती! विश्व की जनसंख्या बढ़ती जा रही है, हालांकि कुल प्रजनन दर में लगातार कमी हो रही है। फिर भी 2016 के 7.3 अरब के स्तर से अगले कुछ दशकों से इसके 9 अरब के स्तर को पार कर लेने की संभावना है, और यहाँ तक कि मध्यम से दीर्घकाल में इसके 10 अरब के स्तर को भी पार कर लेने की संभावना है।
हमारे आसपास हो रहे अनेक जलवायु संबंधी परिवर्तनों के साथ भी विश्व खाद्य उत्पादन को इसके साथ गति गति बनाए रखनी है।
समग्र कृषि उत्पादकता में भूमि की भूमिका तेजी से कम होती जा रही है। भविष्य की उत्पादकता वृद्धि में कुल घटक उत्पादकता (टीएफपी), जो बेहतर प्रबंधन और प्रक्रियाओं को समझने के माध्यम से आने वाले सभी सकारात्मक उत्पादकता परिवर्तनों का कुल योग है, सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। विश्व स्तर पर हुई पहली हरित क्रांति विशुद्ध रूप से निविष्टि प्रेरित थी - अधिक उर्वरक, अधिक संकर बीज, अधिक सिंचाई - परंतु भविष्य में ये घटक काम नहीं करेंगे।
न्यून आय देशों में (जिनमें से कुछ को अब न्यून-मध्यम-आय देश कहा जा रहा है) यह संबंध और भी अधिक सही है।
सारांश में, यहाँ विश्व कृषि के भविष्य के बारे में कुछ तथ्यों का उत्कृष्ट संकलन दिया गया है।
7.0 भारतीय कृषि के 12 प्रमुख मुद्दों का सांराश
भारत की जनसंख्या वृद्धि के अनुरूप भारतीय कृषि ने अपने विकास को बनाए रखा जिसका श्रेय किसानों एवं वैज्ञानिकों को जाता है। आने वाले वर्ष 2020 में भारतीय कृषि को निम्न 12 प्रमुख मुद्दों का सामना करना पडेगा।
7.1 मुद्दा 1 - बहुत छोटा एवं खंडित भूमि जोत
- 141.2 मिलियन हेक्टेयर के कुल बुवाई वाले क्षेत्र एवं 189.7 मिलियन हेक्टेयर (1999-2000) के कुल फसली क्षेत्र है, लेकिन हम देखते हैं कि यह आर्थिक रूप से असक्षम छोटी एवं बिखरी हुई जोतों में विभाजित है।
- 1970-71 में होल्डिंग का औसत आकार 2.28 हेक्टेयर था, 1980-81 में 1.82 हेक्टेयर एवं 1995-96 में 1.50 हेक्टेयर था। भूमि जुताई के अनंत उप-विभाजन के साथ जोतों का आकार और घट जाएगा।
- भारत की दसवीं कृषि जनगणना (2015-16) के अनुसार खेतों की कुल संख्या 14.57 करोड़ थी जिसका औसत कृषि आकार 1.08 हेक्टेयर (2010-11 में 1.15 हेक्टेयर) था।
- यह समस्या केरल, पश्चिम बंगाल, बिहार एवं उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग जैसे घनी आबादी एवं सघन खेती वाले राज्यों में अधिक गंभीर है, जहाँ उपजाऊ भूमि का औसत आकार एक हेक्टेयर से कम है एवं कुछ हिस्सों में तो यह 0.5 हेक्टेयर से भी कम है।
- विशाल रेतीले खंडों वाले राजस्थान एवं नागालैंड में प्रचलित झूम कृषि ’(कृषि को स्थानांतरित करने वाले) के साथ क्रमशः 4 एवं 7.15 हेक्टेयर की औसतन कृषि योग्य भूमि है। पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक एवं मध्य प्रदेश जैसे शुद्ध बुवाई क्षेत्र का उच्च प्रतिशत रखने वाले राज्यों का आकार राष्ट्रीय औसत से ऊपर है।
- भूमि का विरासत में बँटवारा भी मुख्य कारण है। पिता की भूमि उनके बेटों के बीच समान रूप से विभाजित की जाती है। भूमि का यही विभाजन भूमि को एकत्रित या समेकित नहीं करता है,बल्कि इसे खंडित कर देता है। भिन्न. भिन्न ट्रैक्ट में उत्पादकता के विभिन्न स्तर होते हैं एवं उसी के अनुसार वितरण किया जाता है। यदि चार ट्रैक्ट हैं जो दो बेटों के बीच विभाजित किए जाएगे तो दोनों को प्रत्येक भूमि ट्रैक्ट के छोटे-छोटे प्लॉट मिलेंगे। इस तरह जोत भूमि प्रत्येक गुजरने वाली पीढ़ी के साथ छोटी एवं अधिक खंडित हो जाती है।
- इस प्रकार इन छोटे एवं खंडित खेतों पर सिंचाई करना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा, बहुत सारी उपजाऊ कृषि भूमि खेतों की सीमा निर्धारित करने में बर्बाद हो जाती है। ऐसी परिस्थितियों में, किसान सुधार पर ध्यान केंद्रित नहीं कर सकता है।
- इसका उपाय है कि खण्डित कृषि भूमि य होल्डिंग्स के समेकन को एकत्रित किया जाए एवं पुनः खेतों का निर्माण, किया जाए जिसमें प्रत्येक किसान के अधिकार में छोटे- छोटे भूमि के टुकडो के बजाए एक बडी कृषि भूमि हो ।
- लगभग सभी राज्यों द्वारा होल्डिंग्स के समेकन के लिए कानून बनाया गया है, लेकिन यह केवल पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में लागू किया गया है।
- इस समस्या का दूसरा समाधान सहकारी खेती है जिसमें किसान अपने संसाधनों को जमा करते हैं एवं लाभ साझा करते हैं।
7.2 मुद्दा 2 - बीज
- उच्च फसल पैदावार प्राप्त करने एवं कृषि उत्पादन में निरंतर वृद्धि के लिए बीज एक महत्वपूर्ण एवं बुनियादी आधार है।
- सुनिश्चित गुणवत्ता वाले बीज उत्पादन एवं उनका वितरण दोनों ही महत्वपूर्ण है।
- उच्च गुणवत्ता वाले बीज अधिक कीमतों के कारण अधिकांश किसानों विशेषकर छोटे एवं सीमांत किसानों की पहुँच से बाहर हो जाते हैं।
- इस समस्या को हल करने के लिए, सरकार ने 1963 में नेशनल सीड्स कॉर्पोरेशन यछैब्द्ध एवं 1969 में स्टेट फार्मर्स कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (SFCIs) की स्थापना की। किसानों के लिए बेहतर बीजों की आपूर्ति बढ़ाने के लिए तेरह राज्य बीज निगमों (SSCs) की भी स्थापना की गई।
- देश में खाद्यान्नों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए 1966-67 में हाई-यील्डिंग वैराइटी प्रोग्राम (HYVP) शुरू किया गया था।
- भारतीय बीज उद्योग ने अतीत में प्रभावशाली विकास का प्रदर्शन किया एवं भविष्य में अधिक कृषि उत्पादन की उम्मीद की। बीज उद्योग की भूमिका न केवल पर्याप्त मात्रा में गुणवत्ता वाले बीजों का उत्पादन बल्कि विभिन्न किस्म के ऐसे बीजों का उत्पादन करना भी है, जो कि देश के विभिन्न कृषि भूभाग एवं जलवायु के अनुरूप हो।
- भारतीय बीज उत्पादन कार्यक्रम काफी हद तक बीज सीमित उत्पादन प्रणाली का पालन करता है। इस प्रणाली के तीन भेद है- किस्म, यब्रीडरद्ध आधार य फाउंडेशनद्ध एवं प्रमाणित बीज। पहला चरण - ब्रीडर यकिस्मद्ध - मूल बीज, दूसरा चरण - आधार फाउंडेशन बीज-प्रजनक बीजसंतान एवं अंतिम चरण प्रमाणित बीज- मूलबीज संतान है। ब्रीडर एवं फाउंड सीड्स एवं प्रमाणित बीजों के वितरण का उत्पादन वार्षिक औसत दर 3.4 प्रतिशत, 7.5 प्रतिशत एवं 9.5 प्रतिशत क्रमशः 2001-02 एवं 2005-06 के बीच बढ़ा।
- जीएम फसलों ने 2000 के दशक की शुरुआत में प्रवेश किया, लेकिन आज तक केवल बीटी कपास की अनुमति है।
7.3 मुद्दा 3 - खाद, उर्वरक एवं जैव रासायनिक
- भारतीय मिट्टी का इस्तेमाल हजारों सालों से बिना किसी रख-रखाव व भरपाई के फसलों को उगाने के लिए किया जाता है जिसने की मिट्टी की उर्वकता को कम करते करते लगभग समाप्त ही कर दिया है जिसके परिणामस्वरूप उत्पादकता में गिरावट आई है।
- कई फसलों की औसत पैदावार दुनिया में सबसे कम है। अधिक खाद एवं उर्वरकों का उपयोग करके इस समस्या को हल किया जा सकता है।
- खाद एवं उर्वरक मिट्टी के लिए उतने ही आवश्यक है जितना शरीर के लिए पोषक भोजन।
- उर्वरकों की खपत में वृद्धि .षि समृद्धि का बैरोमीटर है। गरीब किसानों का भारत के विभिन्न हिस्सों में बसे होने कारण देश के सभी हिस्सों में पर्याप्त खाद एवं उर्वरक उपलब्ध कराने में कठिनाइयाँ होती हैं। गाय का गोबर मिट्टी को सबसे अच्छी खाद प्रदान करता है।
- इसका उपयोग सीमित है क्योंकि गोबर का अधिकांश हिस्सा गोबर के उपले बनाकर रसोई में ईंधन के रूप में उपयोग किया जाता है। आग जलाने के लिए लकड़ी की आपूर्ति में कमी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में आबादी में वृद्धि के कारण होने वाली ईंधन की बढ़ती मांग ने समस्या को अधिक जटिल कर दिया है।
- रासायनिक उर्वरक महंगे हैं तथा गरीब किसानों की पहुँच से परे हैं इसलिए, उर्वरक की समस्या तीव्र एवं जटिल दोनों है।
- मिट्टी की उर्वकरता बनाए रखने के लिए जैविक खाद आवश्यक है।
- सरकार ने ज्यादा मात्रा में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करने के लिए किसानों अधिक सब्सिडी दी है ।
- गुणवत्ता बनाए रखने के लिए, देश के विभिन्न हिस्सों में उर्वरक गुणवत्ता नियंत्रण प्रयोगशालाएँ स्थापित की गईं।
- कीटों, कीटाणुओं एवं खरपतवारों से फसलों को भारी नुकसान होता है, जो आजादी के समय कुल उत्पादन का लगभग एक तिहाई था। फसलों कोई नष्ट होने से एवं नुकसान से बचाने के लिए बायोकेड्स (कीटनाशक, शाकनाशी एवं खरपतवारनाशक) का उपयोग किया जाता है। इनके बढ़ते उपयोग ने बहुत सारी फसलों को बचा लिया है, विशेष रूप से खाद्य फसलों को लेकिन बायोकाइड्स के अंधाधुंध उपयोग के परिणामस्वरूप व्यापक पर्यावरण प्रदूषण फैल गया है जो कि स्वयं ही इसका जिम्मेदार है।
- भारत चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सिंचित देश है, लेकिन केवल एक तिहाई फसल ही सिंचाई क्षेत्र के अंतर्गत आती है।
- उष्णकटिबंधीय (tropical) देशों में कृषि के लिए सिंचाई सबसे महत्वपूर्ण आधार मानसून है जैसे भारत जहाँ वर्षा अनिश्चित, अविश्वसनीय एवं अनियमित होती है।
- भारत कृषि के क्षेत्र मे तब तक प्रगति नहीं कर सकता जब तक कि आधे से ज्यादा फसलीय क्षेत्र को सिंचाई अंतर्गत लाने के लिए आश्वत नहीं किया जाता है।
- हालांकि, विशेष रूप से नहरों से सिंचित क्षेत्रों में अधिक सिंचाई के दुष्प्रभाव से बचाव के लिए देखभाल की जानी चाहिए। दोषपूर्ण सिंचाई के कारण पंजाब एवं हरियाणा में बड़े ट्रैक्ट (लवणता, क्षारीयता एवं जल-जमाव से प्रभावित क्षेत्र) बेकार हो गए है।
- इंदिरा गांधी नहर अंतर्गत आने वाले क्षेत्र में भी गहन सिंचाई से उप-मिट्टी के जल स्तर में तेज वृद्धि हुई है, जिससे जल-जमाव, मिट्टी की लवणता एवं क्षारीयता बढ़ रही है।
- उसी समय, भारत के आधे से अधिक व्यक्तिगत किसानों द्वारा अपने स्वयं के कुँओं एवं नलकूपों का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता है, जिससे व्यक्तिगत सूक्ष्म सिंचाई का निर्माण होता है, एवं भारतीय के सभी राज्यों में पानी की तालिकाओं में गिरावट आती है।
- इस बडी (मेगा) समस्या से निपटने के लिए 2015 में पीएम कृषि सिचाई योजना लाई गई।
7.5 मुद्दा 5 - प्रौद्योगिकी एवं मशीनीकरण का अभाव
- भारत के बड़े हिस्से में अधिकांश कृषि कार्य सरल एवं पारंपरिक साधनों द्वारा हाथों से किया जाता है जैसे लकड़ी के हल, दरांती, इत्यादि
- जुताई, बुवाई, सिंचाई, पतलेपन एवं छंटाई, निराई, कटाई थ्रेशिंग एवं फसलों के परिवहन में मशीनों का या तो बहुत कम प्रयोग होता या बिल्कुल नहीं होता है।
- मशीनों का उपयोग विशेष रूप से छोटे एवं सीमांत किसानों नहीं करते है इसके परिणामस्वरूप मानव श्रम अधिक होता है पर प्रति व्यक्ति पैदावार कम होती है।
- कृषि का मशीनीकरण करने की तत्काल आवश्यकता है ताकि खेती को सुविधाजनक एवं कुशल बनाया जा सके एवं अतिरिक्त परिश्रम करेने से बचा जा सके। कृषि औजार एवं मशीनरी कृषि के लिए एक महत्वपूर्ण आधार है ताकि कार्य समय पर व कुशलतापूर्वक हो सके जिससे की फसलों उत्पादन में बढोतरी हो।
- इसकी आवश्यकता को 1960 के दशक में हरित क्रांति के दौरान अधिक महसूस किया गया जब किसानों को पारंपरिक एवं पुराने उपकरणों के स्थान पर स्वयं के ट्रैक्टर, पावर टिलर, हार्वेस्टर एवं अन्य उपकरणों का प्रयोग करने के लिए निर्देशित किया गया।
- कृषि मशीनों के निर्माण के लिए बडे पैमाने पर औद्योगिक विकास भी हुआ एवं विभिन्न कृषि कार्यों को करने के लिए बिजली की उपलब्धता भी बढ़ी है।
- यह वृद्धि ट्रैक्टर, पावर टिलर एवं कंबाइन हार्वेस्टर, सिंचाई पंप एवं अन्य बिजली संचालित मशीनों के बढ़ते उपयोग का परिणाम थी।
7.6 मुद्दा 6 - मृदा अपरदन (मिट्टी का कटाव)
- उपजाऊ भूमि के बडे हिस्से का कटाव तेज हवा एवं पानी से होता हैं। इसका ठीक तरह से उपचार कर भूमि की मूल प्रजनन क्षमता को कायम रखना चाहिए।
- करोड़ों किसानों (एवं खेतों) को मृदा स्वास्थ्य कार्ड जारी करना किसानों को उर्वरकों को लागू करने के लिए एक उचित प्रणाली बनाने एवं उनकी मिट्टी को संरक्षित करने की आवश्यकता के बारे में प्रशिक्षित करने की दिशा में एक कदम है।
- भारत के बड़े हिस्से में वनों की कटाई ने भी बड़े पैमाने पर मिट्टी का कटाव किया है इसे फिर से भरने में कई साल लग जाते हैं।
7.7 - मुद्दा 7 - कृषि विपणन
- ग्रामीण भारत में कृषि विपणन स्थिति अभी भी में खराब अवस्था में है। बेहतर विपणन सुविधाओं के अभाव में, किसानों को अपने खेत की उपज को बेचने के लिए स्थानीय व्यापारियों एवं बिचौलियों पर निर्भर रहना पड़ता है जो अक्सर किसानो को (किसानों द्वारा) कम कीमत देते है।
- कई मामलों में, किसानों को सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के दबाव के चलते अपनी उपज की बिक्री के लिए मजबूर किया जाता है। अधिकांश छोटे गांवों में, किसान अपनी उपज को उस ऋणदाता को बेचते हैं, जिनसे वे आमतौर पर पैसा उधार लेते हैं।
- खेत के समीप संग्रह केंद्रों कमी का होना किसानो को निराश कर देता है जो कि अच्छे मूल्य का भुगतान करते हुए व्यावसायिक रूप से खाद्यान्नों का प्रबंधन कर सकते है
- ऐसी स्थिति जो गरीब किसान अपनी फसलों की कटाई के बाद लंबे समय तक इंतजार नहीं कर सकते हैं, अतः गाँवों में खेतों में ही खडी फसल को बेच देते है जिससे उन्हें एमएसपी ;डैच्ेद्ध बिल्कुल नहीं मिलता है।
- पीडीएस चलाने के लिए, सरकार केंद्रीय स्तर ;थ्ब्प्ेद्ध के माध्यम से एवं राज्य स्तर (राज्य एजेंसियों के माध्यम से) में बड़े पैमाने पर खरीद का कार्य करती हैं। अफसोस की बात यह है कि, कुछ किसानों को ही इससे लाभ होता है, एवं वास्तव में उपज पर वास्तविक एमएसपी अर्जित होता है।
- एक संगठित विपणन संरचना की अनुपस्थिति में, निजी व्यापारी एवं बिचौलिए .षि उपज के विपणन एवं व्यापार पर हावी हैं। बिचौलियों द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं के पारिश्रमिक से उपभोक्ता पर भार बढ़ता है, हालांकि उत्पादक (किसान) समान लाभ प्राप्त नहीं करता है।
- एपीएमसी अधिनियमों ने पूरे भारत में मंडियों के निर्माण में मदद की है। ये विनियमित बाजार हैं, जहाँ प्रतिस्पर्धी खरीद की एक प्रणाली मौजूद है। यह कुप्रथाओं को खत्म करने में मदद कर सकता है, मानकी.त वजन एवं उपायों का उपयोग सुनिश्चित कर सकता है एवं विवादों के निपटारे के लिए उपयुक्त मशीनरी विकसित कर सकता है।
- ई-एनएएम परियोजना (इलेक्ट्रॉनिक नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट्स) 2020 से आगे का रास्ता है। किसान उचित मूल्य पर ऑनलाइन बिक्री करने में सक्षम होंगे, एव ंयदि एक उचित पैन-इंडिया कोल्ड चेन इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण हो जाता है तो किसान सभी उपजों (.षि एवं बागवानी) को ले सकता है तो यह सभी के लिए वरदान साबित होगा।
7.8 मुद्दा 8 - अपर्याप्त भंडारण सुविधाएं
- ग्रामीण क्षेत्रों में भंडारण सुविधाएं या तो पूरी तरह से अनुपस्थित हैं या अपर्याप्त हैं। ऐसी परिस्थितियों में किसान बाजार भाव से कम में अपनी उपज बेचने के लिए मजबूर होते हैं।
- इस तरह की संकट बिक्री किसानों को उनकी वैध आय से वंचित करती है।
- कटाई के बाद के नुकसान होने के कई कारण हैं, एवं इसमें से बहुत कुछ अकेले भंडारण की खराब स्थिति के कारण है। इसलिए, वैज्ञानिक भंडारण, नुकसान से बचने एवं किसानों तथा उपभोक्ताओं को समान रूप से लाभ पहुंचाने के लिए बहुत आवश्यक है।
- भारतीय खाद्य निगम (FCI) एवं केंद्रीय भंडारण निगम (CWC) द्वारा वेयरहाउसिंग एवं स्टोरेज गतिविधियाँ की जा रही हैं। इसके अलावा, विभिन्न राज्य वेयरहाउसिंग कॉरपोरेशन इसे करते हैं। ये एजेंसियां बफर स्टॉक बनाने में मदद करती हैं, जिनका इस्तेमाल जरूरत के समय में किया जा सकता है।
- संपूर्ण पीडीएस भंडारण की रीढ़ पर खड़ा है।
- हालांकि, यह सुनिश्चित करने के लिए बड़े पैमाने पर निवेश (सार्वजनिक और निजी) की आवश्यकता है कि .षि ग्रामीण समुदाय के आर्थिक हितों की सेवा के लिए पैन-इंडिया आधुनिक ग्रामीण भंडारण नेटवर्क बनाया जाए।
7.9 मुद्दा 9 - अपर्याप्त परिवहन
- भारतीय कृषि मे मुख्यबाधा खेत के निकट सस्ते एवं कुशल परिवहन साधनों की कमी है।
- लाखों किसानों के खेत मुख्य सडक तथा बाजार से जुडे हुए नही है । पीएम ग्राम सड़क योजना का पिछले 15 वर्षों में सकारात्मक प्रभाव पड़ा है ।
- ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश सड़कें कच्ची होने के कारण आवागमन के लिए बैलगाड़ी का ही उपयोग किया जाता है जिसके कारण किसान को अपनी उपज को मुख्य बाजार तक ले जाने में समस्या का सामना करना पडता है इसलिए प्रत्येक गांव को मुख्य मार्ग की सड़कों से जोड़ने का काम पीएमजीएसवाई में किया गया।
- पूरे भारत में 2015 से मेगा फूड पार्कों का निर्माण हो रहा है एवं आगे भी इसकी आवश्यकता बढ़ रही है तथा इसकी लिंकिंग अधिक महत्वपूर्ण होती जा रही है।
7.10 मुद्दा 10 - निवेश के लिए संस्थागत ऋण एवं पूंजी
- बुनियादी ढाँंचे के निर्माण के लिए .षि को पूँजी की आवश्यकता होती है।
- कृषि प्रौद्योगिकी की उन्नति के साथ पूँजी निवेश की भूमिका महत्वपूर्ण है। चूंकि किसानों की पूँजी उसकी भूमि एवं स्टॉक में बंद है, इसलिए वह .षि उत्पादन के गति को बढ़ाने के लिए पैसे उधार लेने के लिए बाध्य है।
- किसान को पैसे के मुख्य आपूर्तिकर्ता पैसे देने वाले, व्यापारी एवं कमीशन एजेंट हैं जो उच्च ब्याज दर लेते हैं एवं बहुत कम कीमत पर .षि उपज खरीदते हैं।
- विभिन्न ऑल इंडिया रूरल क्रेडिट सर्वे (All India Rural Credit Surveys) ने दिखाया कि शुरूआती वर्षों में साहूकारों की हिस्सेदारी कुल ग्रामीण साख के 51 प्रतिशत के बराबर रही।
- समय के साथ, बात साहूकारों के हाथ से निकल गई, लेकिन वे अभी भी कृषि ऋण का एक बड़े योगदानकर्ता है।
- ग्रामीण ऋण परिदृश्य में अब एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है, केंद्रीय सहकारी बैंक, राज्य सहकारी बैंक, वाणिज्यिक बैंक, सहकारी क्रेडिट एजेंसियाँ एवं कुछ सरकारी एजेंसियाँं जैसे संस्थागत एजेंसियाँ किसानों को आसान शर्तों पर ऋण दे रही हैं।
- चूंकि भारत सरकार एवं आरबीआई ने स्पष्ट रूप से ऋण देने के लिए प्राथमिकता क्षेत्र के मानदंडों को निर्धारित किया है, इसलिए पिछले कुछ वर्षों में कृषि के लिए संस्थागत ऋण का प्रवाह बढ़ा है।
7.11 मुद्दा 11 - पानी की कमी
- भारत में कृषि के लिए पानी का बड़ा हिस्सा उपयोग में लाया जाता है ,जो कि भारत के जल संसाधनों के लिए एक गंभीर समस्या है ।
- अधिकांश किसान सूक्ष्म सिंचाई उद्यमी बनने के कारण, भारत भर में पानी का स्तर नीचे चला गया है - यह भविष्य के लिए एक अस्तित्वगत खतरा है, एवं इसे फिर से भरने के लिए मजबूत कदमों की आवश्यकता है।
- नीति आयोग की समग्र जल प्रबंधन सूचकांक रिपोर्ट भारत में आने वाले जल तनाव को दर्शाती है।
7.12 मुद्दा 12 - व्यापार नीतियां
- भारत से कृषि वस्तुओं का आयात एवं निर्यात बड़े पैमाने पर होता है।
- भारत कृषि वस्तुओं का एक विशाल उत्पादक है, एवं दुनिया भर में निर्यात करता है।
- सभी व्यापार डब्ल्यूटीओ गैट-एग्रीमेंट ऑन एग्रीकल्चर - मानदंडों के तहत आते हैं, एवं पश्चिमी दुनिया द्वारा भारत में दी जाने वाली सब्सिडी की राशि पर एम्बर बॉक्स के तहत निर्धारित अधिकतम 10 प्रतिशत की सीमा को तोड़ते हुए सवाल उठाए गए हैं।
- भारत ने तकनीकी आधार पर ऐसे सभी भ्रामक दावों का जमकर विरोध किया है, एवं अब तक के अपने व्यापार की शर्तों की रक्षा की है।
- समस्या घरेलू प्रबंधन में निहित है। किसी भी कीमत पर खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की आवश्यकता के कारण, भारत की .षि व्यापार नीतियाँ सुसंगत नहीं रही हैं।
- भारत के कृषि व्यापार भागीदार नीति में स्थिरता पर पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हैं, क्योंकि रातोरात नीतियां बदल सकती हैं।
- इसके अलावा, खाद्य तेलों का भारी आयात सरकारी खजाने को प्रभावित कर रहा है, लेकिन इसका कोई तत्काल समाधान नहीं है।
शून्य बजट प्राकृतिक खेती
- जीरो बजट खेती, प्राकृतिक खेती का एक प्रकार है जो मुख्यतः दक्षिण भारत में विकसित हुआ है तथा मुख्य प्रचलित है। इसे आध्यात्मिक खेती भी कहा जाता है। इस विधि में मल्चिंग, इंटर क्रॉपिंग तथा कई तैयारियों का उपयोग शामिल है जिसमें गाय का गोबर शामिल है।
- शून्य बजट प्राकृतिक खेती (ZBNF) भारत के विभिन्न राज्यों में फैल गई है। कर्नाटक राज्य में आंदोलन का जन्म श्री सुभाष पालेकर के सहयोग से हुआ था, जो र्ठछथ् प्रथाओं तथा राज्य किसान संघ कर्नाटक राज्य सभासंघ (KRRS) को एक साथ ले आए। पालेकर को हाल ही में 2016 में भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार, पद्म श्री से सम्मानित किया गया था।
- भारतीय अर्थव्यवस्था के नव उपनिवेशीकरण ने एक गहरे कृषि संकट को जन्म दिया, जो छोटे पैमाने पर खेती को एक असफल व्यवसाय बना रहा है। निजीकृत बीज, इनपुट तथा बाजार किसानों के लिए दुर्गम और महंगे हैं। उच्च उत्पादन लागत, ऋण के लिए उच्च ब्याज दर, फसलों के अस्थिर बाजार मूल्य, जीवाश्म ईंधन आधारित आदानों की बढ़ती लागत और निंजी बीजों के कारण भारतीय किसान तेजी से कर्ज के दुष्चक्र में खुद को पाते हैं।
- शून्य बजट - ऐसी स्थितियों के तहत, ‘शून्य बजट’ खेती ऋण पर निर्भरता को खत्म करने और उत्पादन लागत में भारी कटौती करने का वादा करती है, जिससे हताश किसानों के लिए ऋण चक्र समाप्त हो जाता है। शब्द ‘बजट’ क्रेडिट और खर्चों को संदर्भित करता है, इस प्रकार वाक्यांश ‘शून्य बजट’ का अर्थ है बिना किसी क्रेडिट का उपयोग किए, तथा कोई पैसा खर्च किए बिना। ‘प्राकृतिक खेती ’का अर्थ है प्रकृति के साथ और बिना रसायनों के खेती।
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