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बागवानी, पशुपालन, उत्पाद प्रबंधन, खाद्य प्रसंस्करण, ई-नाम भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
वर्तमान में भारत चीन के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा खाद्य वस्तुओं का उत्पादक है, और यदि उसे उचित नीतियों और उपयुक्त संस्थागत रूपरेखा की सहायता प्राप्त हुई तो वह विश्व का सबसे बड़ा खाद्य वस्तुओं का उत्पादक देश भी बन सकता है। अब जबकि वर्श 2015 तक देष का खाद्य बाज़ार 258 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है अतः ऐसा अनुमान है कि अगले दस वर्षों के दौरान भारत का कुल खाद्यान्न उत्पादन दुगना हो जायेगा।
विशाल कृषि क्षेत्र, पर्याप्त पशुधन, और लागत में प्रतिस्पर्धा की स्थिति के साथ भारत प्रसंस्कृत खाद्यान्न के लिए तेजी से एक स्रोत केंद्र के रूप में उभर रहा है। भारतीय खाद्य प्रसंस्करण उद्योग देश के कुल खाद्य बाज़ार का 30 प्रतिशत से अधिक है।
भारत का खाद्य उद्योग विदेशी निवेशकों का काफी ध्यान आकर्षित कर रहा है क्योंकि भारत मध्य-पूर्व, अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया के बाजारों से काफी निकट है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय इस क्षेत्र में निवेश को प्रोत्साहित करने के सभी प्रकार के प्रयास कर रहा है। शीतलन श्रृंखला विकास के लिए विविध प्रकार के प्रोत्साहन, साथ ही खाद्य उत्पादों के परीक्षण के लिए सुसज्ज प्रयोगशालाएं स्थापित करने के लिए सहायता अनुदान भी प्रदान किया जा रहा है। आने वाले वर्श अत्यंत महत्वूपर्ण होंगे।
जैसे-जैसे वैश्विक जनसंख्या में वृद्धि जारी है, खाद्य सुरक्षा - खाद्य की उपलब्धता और सुलभता - एक बढ़ती हुई चिंता का कारण है। उसी समय उच्च लागतों और अकुशलताओं ने विकासशील देशों में छोटे किसानों के लिए कृषि कार्य को एक अव्यवहार्य व्यवसाय बना दिया है।
ऐसे हालातों में, सूचना प्रौद्योगिकी के बढ़ते उपयोग से संसाधनों को काम में लाने और उनके प्रभावी उपयोग को सुनिश्चित करने की क्षमता बनी है। सूचना की उपलब्धता को और तेज़ किया जा सकता है जिसका परिणाम कृषकों के लिए बेहतर आय में होगा।
2.0 भारत में बागवानी उद्योग
बागवानी (औद्यानिकी) फलों, सब्जियों, फूलों (पुष्पों) और सजावटी पौधों के उत्पादन, सुधार, विपणन और उपयोग का विज्ञान और कला है। चूंकि सौंदर्यशास्त्र महत्वपूर्ण बन जाता है, अतः वह वनस्पति शास्त्र और अन्य वनस्पति विज्ञानों से भिन्न होता है। भारत में और विश्वव्यापी स्तर पर यह एक तेजी से बढता हुआ क्षेत्र है, और बागवानी में संलग्न किसान अपनी (प्राथमिक) आय में काफी मात्रा में वृद्धि कर सकते हैं।
बागवानी क्षेत्र में फलों (जिनमें अखरोट, सुपारी इत्यादि शामिल हैं), सब्जियों (आलू सहित), कंद फसलों, कुकुरमुत्ते (मशरुम), सजावटी पौधों, जिनमें कटे हुए फूल, मसाले, रोपण फसलें और औषधि और सुगंधी वनस्पतियां शामिल हैं, के उत्पादन, प्रबंधन, प्रसंस्करण और विक्रय शामिल है। यह क्षेत्र भारत के अनेक राज्यों में आर्थिक विकास का प्रमुख और महत्वपूर्ण उत्प्रेरक बन गया है जो कृषि के सकल घरेलू उत्पाद में काफी और महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करता है।
भारतीय बागवानी क्षेत्र की कुछ झलकियां निम्नानुसार हैं -
- वैश्विक स्तर पर फलों और सब्जियों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक
- आम, केले, नारियल, काजू, पपीते, अनार इत्यादि का विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक
- मसालों का सबसे बडा उत्पादक और निर्यातक
- अंगूर, केले, कसावा, मटर, पपीते इत्यादि की उत्पादकता में प्रथम क्रमांक पर है
व्यापक रुप से रुझान काफी सकारात्मक हैं, साथ ही बागवानी क्षेत्र कृषि एवं संबंधित क्षेत्र के सकल घरेलू उत्पाद में भी महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करता है।
ऐतिहासिक दृश्टिकोण लेते हुए अब हम 1991-92 के आंकड़ों की तुलना करते हैं। यहां इस क्षेत्र की एक व्यापक अवधारणा दी गई है जो इसकी ज़बर्दस्त संभावनाओं को दर्षाता है। इसमें षामिल की गई फसलों में फल, सब्जियां, फूल, नट, सुंगधी वनस्पति और औशधि वनस्पति फसलें, रोपण फसलें, मसाले, कुकुरमुत्ते और षहद है।
भारत के अनेक राज्यों ने फलों और सब्जियों के क्षेत्र में अग्रक्रम स्थापित कर लिया है। इस क्षेत्र के शीर्ष राज्यों की एक झलक नीचे दी गई है।
नीचे सभी भारतीय राज्यों का एक समग्र दृष्टिकोण दिया गया है। कृपया इस तालिका के अध्ययन में कुछ समय अवश्य व्यतीत करें, क्योंकि यह तालिका इन राज्यों के किसानों के अर्जन की क्षमता और संभावना की दृष्टि से अंर्तदृष्टि प्रदान करती है। वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दुगना करने के सरकार के अभियान के परिप्रेक्ष्य में संबंधित क्षेत्रों के माध्यम से होने वाली वृद्धि आने वाले वर्षों के दौरान अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
3.0 भारत में पशुपालन
ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय लोगों का पशु पालन (animal rearing) के प्रति लगाव रहा है, जिन्हें उनके अस्तित्व का अभिन्न अंग माना जाता है। इनमें से बड़ी संख्या में पशु पौराणिक कथाओं और दैनिक धार्मिक अनुष्ठानों में भी स्थान पाते हैं। धीरे-धीरे समय बदल गया, और किसान मिश्रित फसल पशुधन कृषि व्यवस्था का अनुसरण करने लगे। यह व्यवस्था बड़ी संख्या में गरीबों के निर्वाह और सुरक्षा को सुनिश्चित करती है। भारत में पशु पालन इसी व्यवस्था का एक भाग है। धारणीय आर्थिक संवृद्धि, बढ़ती आय, बढ़ते शहरीकरण, लोगों की खान-पान की आदतों में हुए परिवर्तन, जिसके कारण आहार में परिवर्तन हुआ है, जो आहार में दूध, मांस, अंडे़ और मछली के महत्त्व को प्रतिपादित करता है, के वर्तमान परिपेक्ष्य में इस उत्पादन व्यवस्था का विशेष महत्त्व है। इस प्रकार की व्यवस्थाओं में पशुधन आय निर्माण करता है, रोजगार, सूखे से लड़ने की क्षमता और खाद प्रदान करता है।
3.1 पशु पालन और गरीबी में कमी
भारत में गरीबी उन्मूलन की दृष्टि से पशु पालन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
छोटे और सीमांत किसानों के लिए पशु पालन एक प्रमुख निर्वाह का साधन और जोखिम शमन (risk mitigation) का साधन है, विशेष रूप से भारत के वर्षा आधारित कृषि क्षेत्रों में। पशुधन क्षेत्र अन्य अनेक कृषि क्षेत्रों की तुलना में अधिक तेजी से वृद्धि कर रहा है और यदि यही प्रवृत्ति आगे भी जारी रही तो अनेक विद्वानों का अनुमान है कि यह क्षेत्र भारतीय कृषि क्षेत्र के विकास के उत्प्रेरक का कार्य करेगा।
अधिकतर हम पशुधन की ओर अनिवार्य खाद्य उत्पादों, सूखे से लड़ने की क्षमता, खाद, रोजगार, घरेलू आय और निर्यात अर्जन के प्रदाता के रूप में देखते हैं। हालांकि एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पशुधन संपत्ति का वितरण भूमि से सम्बंधित संपत्ति के वितरण की तुलना में कहीं अधिक समान रूप से हुआ है। इस प्रकार जब हम वैश्विक समावेशी विकास के बारे में सोचते हैं, तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समता और निर्वाह के परिपेक्ष्य में, पशु पालन को गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के केंद्र में होना चाहिए।
पारिवारिक स्तर पर पशु पालन एक महिला - निर्देशित गतिविधि है, अतः परिवार में पशु पालन से प्राप्त होने वाली आय और पशुधन के प्रबंधन से संबंधित निर्णय मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा ही लिए जाते हैं। भारत में प्रयोगों ने दर्शाया है कि पशु पालन के लिए समर्थन ने महिला सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है, जिसमें घरेलू स्तर पर और साथ ही ग्राम स्तर पर भी निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका और भागीदारी में वृद्धि हुई है। दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि पशु पालन, विशेष रूप से देश के वर्षा जनित कृषि क्षेत्रों में, गरीबतम लोगों की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण जोखिम शमन रणनीति के रूप में भी उभर रहा है। उन्हें अक्सर अनिश्चित मौसमी स्थितियों का सामना करना पड़ता है जो कृषि क्षेत्र में उनकी फसल उत्पादकता और मजदूरी श्रम को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती हैं।
3.2 भारत में पशु पालन के क्षेत्र की मुख्य चुनौतियाँ
संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) की खाद्य एवं कृषि की स्थिति पर वैष्विक रिपोर्ट में पशुधन क्षेत्र का विश्लेषण शामिल है। यह रिपोर्ट तीन महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डालती है।
पहला, हालांकि पशुधन उत्पाद अनेक निम्न आय ग्रामीण परिवारों के गरीबी उन्मूलन और खाध सुरक्षा में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करते हैं, फिर भी अनेक देशों की नीति और संस्थागत ढ़ांचा इन गरीबतम परिवारों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाने और उन्हें विकास के वाहक पट्टे पर लाने में असफल रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के गरीबतम परिवारों तक पहुंचने वाली पशुधन स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव, और छोटे पशु पालकों को बेहतर अर्जनक्षमता प्रदान करने वाले बाजारों तक पहुंच प्रदान पाने में विफलता तो केवल सामान्य असफलता के दो उदाहरण हैं। संस्थागत और नीतिगत ढ़ांचा केवल सघन और वाणिज्यिक पशुपालन को ही सहायता प्रदान करते हैं, जिनमें दोनों प्रकार की सहायता शामिल है, सेवाएं प्रदान करने और बाजारों तक पहुंच प्रदान करने के मामले में।
दूसरा, पशुधन उत्पादक, जिनमें पारंपरिक ग्राम्यता और छोटे पालक शामिल हैं, प्राकृतिक प्रातिक संसाधन अपक्षय से पीडित हैं, साथ ही वे इसमें योगदानकर्ता भी हैं। इनके लिए सुधारात्मक कदम शायद पर्यावरणीय संरक्षण, पारिस्थितिकी संरक्षण से संबंधित सार्वजनिक वस्तुओं और पशुधन उत्पादकता में सुधार के लिए आवश्यक निजी निवेश के लिए प्रोत्साहन के उचित मिश्रण में शामिल है, विशेष रूप से दूरस्थ क्षेत्रों में। भारत के मामले में समुदाय जनित हस्तक्षेपों के ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं जहां सामुदायिक प्रबंधन और प्राकृतिक संसाधनों के धारणीय उपयोग का छोटे पशुपालकों पर काफी अनुकूल प्रभाव पड़ा है।
तीसरा, पशु स्वास्थ्य सेवाएं न केवल पशुओं की मृत्यु और पशु उत्पादकता को कम करने वाली पशुओं की बीमारियों का मुकाबला करती हैं, बल्कि वे मानव स्वास्थ्य की भी सुरक्षा करती हैं क्योंकि पशु बीमारियों का फैलाव मनुष्यों को भी प्रभावित कर सकता है। विश्व के अनेक भागों में पशु स्वास्थ्य सेवाओं को नजरअंदाज किया जाता है और इसके कारण ऐसी संस्थागत कमजोरियां निर्मित हो जाती हैं जो अंततः पशु स्वास्थ्य सेवाओं के खराब वितरण और मानव स्वास्थ्य के लिए उच्च खतरे में परिणामित होती हैं। इस स्थिति में सुधार लाने के लिए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सघन वाणिज्यिक किसानों की तुलना में गरीब किसान भिन्न प्रकार के खतरों का सामना करते हैं और प्रतिक्रिया करने के उनके प्रलोभन और क्षमताएं भी नसे भिन्न होती हैं। अतः पशु स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के लिए यह अतिरिक्त चुनौती है कि वे अपने हितधारकों की इन भिन्नताओं को समझें और ऐसी व्यवस्थाएं विकसित करें ताकि ये सुविधाएं सभी हितधारकों तक समान रूप से और समान आसानी से पहुंच सकें।
इन समस्याओं के निराकरण के लिए सामाजिक, पर्यावरणीय, पशु स्वास्थ्य, मानव स्वास्थ्य और कृषि क्षेत्र में कार्य करने वाले अभिकरणों की ओर से एक बहुविध दृष्टिकोण की आवश्यकता है; जिसका अर्थ है कि सार्वजनिक, निजी और सामुदायिक संगठनों को एकत्रित रूप से सक्रिय होना पडे़गा।
3.3 गौशाला और पशुधन उत्पादन (Dairy and Livestock Production)
3.3.1 दूध
भारत निरंतर रूप से विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक बना हुआ है। भारत में डेरी उद्योग करोड़ों ग्रामीण परिवारों के लिए आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, और इसने रोजगार और आय अर्जन के अवसर प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत सरकार और राज्य सरकारें दुधारू पशुओं की उत्पादकता और प्रति व्यक्ति दुग्ध उपलब्धता में वृद्धि करने के लिए कठोर प्रयास कर रहे हैं। पशुपालन, डेरी एवं मत्स्यपालन विभाग ने सहकारी अधोसंरचना का निर्माण करने, और बीमार डेरी सहकारी संघों के पुनरुज्जीवन का प्रयास किया है, साथ ही गुणवत्तापूर्ण दूध और दुग्ध उत्पादों के उत्पादन के लिए अधोसंरचना निर्माण करने के लिए सहायता प्रदान की है। क्रियान्वित की गई दो महत्वपूर्ण योजनाएं हैं दुग्ध उत्पादन में वृद्धि करने और उसकी खरीद के लिए सघन डेरी विकास कार्यक्रम और गोजातीयों के आनुवांशिक उन्नयन के लिए पशुओं और भैंसों के प्रजनन के लिए राष्ट्रीय परियोजना। दूध, कुक्कुट पालन, मांस और मछली के उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि के लिए निर्मित की गई कुछ अन्य योजनाएं निम्नानुसार हैंः
गुणवत्तापूर्ण और स्वच्छ दुग्ध उत्पादन के लिए अधोसंरचना का सशक्तिकरणः अक्टूबर 2003 में शुरू की गई इस योजना का उद्देश्य है किसानों और अन्य सदस्यों में जागरूकता निर्माण करके ग्रामीण स्तर पर कच्चे दूध के उत्पादन की गुणवत्ता में सुधार करना। इस योजना के तहत दूध दुहने की अच्छी पद्धतियों के लिए किसानों को प्रशिक्षण देने और डेरी सहकारी संस्था स्तर पर थोक दूध शीतलक स्थापित करने का प्रावधान है।
सहकारी संस्थाओं को सहायताः 1999-2000 में शुरू की गई इस केंद्रीय योजना का उद्देश्य है जिला स्तर पर बीमार डेरी सहकारी संघों का और राज्य स्तर पर सहकारी महासंघों का पुनरुज्जीवन करना। पुनः बहाली की योजना राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड द्वारा संबंधित राज्य के डेरी महासंघ और जिला दुग्ध संघ की सलाह के साथ तैयार की जाती है।
डेरी उद्यम पूंजी कोषः डेरी/कुक्कुटपालन उद्यम पूंजी कोष योजना की शुरुआत दिसंबर 2004 में की गई थी। बाद में इसे संशोधित किया गया और इसका नाम परिवर्तित करके इसे डेरी उद्यमिता विकास योजना कहा जाने लगा और इसका क्रियान्वयन सितंबर 2010 से किया गया।
3.3.2 गाय-बैल और भैंसों का प्रजननः पशुधन उत्पादन
भारत में विश्व की सबसे अधिक पशुधन संख्या है, साथ ही इसमें भैंसों की संख्या विश्व की कुल संख्या की आधी हैं जबकि बकरियों की संख्या विश्व संख्या के एक बटा छह है। इतनी बड़ी पशुधन संख्या चुनौती पेश करती है जहां उत्पादकता का स्तर आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी, रियायतों और नीतियों के अनुप्रयोग के माध्यम से धारणीय बनाया जाता है।
वर्तमान में कई राज्य और केंद्र शासित प्रदेश राष्ट्रीय गाय-बैल और भैंस प्रजनन परियोजना में सहभागी हुए हैं। इस योजना का उद्देश्य है गोधन के आनुवांशिकी उन्नयन को बढ़ावा देना। कृत्रिम बीजारोपण केन्द्रों के लिए सहायता प्रदान की गई है, और उन्हें चलते -फिरते कृत्रिम बीजारोपण केन्द्रों के रूप में कार्य करने की दृष्टि से सुसज्जित किया गया है, साथ ही प्रजनन सेवाएं प्रधान करने की दृष्टि से 21,000 निजी कृत्रिम बीजारोपण केंद्र स्थापित किये गए हैं। वीर्य उत्पादन की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए सभी वीर्य उत्पादन केन्द्रों पर न्यूनतम मानक क्रमाचार प्रवर्तित किया गया है; इस न्यूनतम मानक क्रमाचार के अनुसार 49 बैलों के जमे हुए वीर्य केन्द्रों को सुदृढ़ किया गया है। प्रत्येक वीर्य केंद्र के दो वर्षों में एक बार मूल्यांकन के लिए एक केंद्रीय निगरानी इकाई का गठन किया गया है। जहां 2004 में आई एस ओ प्रमाणित वीर्य केंद्रों की संख्या केवल 3 थी, वहीं आज यह संख्या बढ़ कर 34 हो गई है। कृत्रिम बीजारोपण तकनीशियनों के लिए संतति परीक्षण और मानक संचालन प्रक्रियाओं के न्यूनतम मानक क्रमाचार का भी निर्माण किया गया है।
राष्ट्रीय गाय-बैल और भैंस प्रजनन का ध्यान स्वदेशी नस्लों के विकास और संरक्षण पर केंद्रित रहा है। भारत के गाय-बैल और भैंस आनुवांशिक संसाधनों का प्रतिनिधित्व गाय-बैलों की 34 स्वदेशी नस्लों द्वारा किया जाता है, जिनमें राठी, गीर, कांकरेज, थारपारकर, साहिवाल, देओनी, हल्लीकर, खिल्लर इत्यादि नस्लें शामिल हैं और भैंसों की 11 नस्लों में मुर्रा, जाफराबादी, मेह्सानी, सुरती इत्यादि नस्लें शामिल हैं। स्वदेशी पशु तगडे़ होते हैं और इनमें गर्मी को सहन करने, बीमारियों का प्रतिरोध करने की गुणवत्ता और चरम पोषण तनावों के दौरान भी बने रहने की क्षमता अधिक अच्छी होती है। ऐसा अनुमान है कि विश्वव्यापी तापमान वृद्धि के कारण पशु बीमारियों की घटनाओं में वृद्धि हो सकती है विशेष रूप से संकरित पशुओं में वायुजन्य और प्रोटोज़ोआ-जन्य बीमारियों की। अतः स्वदेशी नस्लों के विकास और संरक्षण के लिए कार्यक्रमों के निर्माण की अत्यंत आवश्यकता महसूस की जा रही है।
भागीदारी करने वाले राज्यों को प्राकृतिक सेवाओं के लिए गुणवत्तापूर्ण बैलों की खरीद के लिए, बैल उत्पादन कार्यक्रम शुरू करने के लिए, बैल मातृत्व केंद्रों के सशक्तिकरण के लिए और महत्वपूर्ण स्वदेशी नस्लों (भदावरी, साहिवाल, गीर, देओनी, कांकरेज, हरियाणा, केंकथा, हल्लीकर, खिल्लर इत्यादि) के लिए बैल मातृत्व केन्द्रों की स्थापना के लिए और उनके और अधिक विकास के लिए निधियां जारी की गई हैं।
3.4 डे़यरी क्षेत्र की चुनौतियाँ
विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश होने के बावजूद भारत का डे़यरी क्षेत्र विकास और अधिनिकीकरण के प्राथमिक चरण पर है। हालांकि भारत 300 मिलियन जानवरों की संख्या का दावा कर सकता है, भारत की एक गाय का औसत उत्पादन अमेरिकी गाय के औसत उत्पादन का केवल एक बटा सात है। भारतीय नस्लों की गायें उत्पादकता की दृष्टि से निम्न मानी जाती हैं। साथ ही यह क्षेत्र विभिन्न प्रकार की अनेक बाधाओं से भी ग्रस्त है, जैसे चारे का अभाव, इसकी कमजोर गुणवत्ता, निकृष्ट परिवहन सुविधाएं और खराब तरीके से विकसित शीतलन सुविधा अधोसंरचना। परिणामस्वरूप, पूर्ति संरचना इसकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पाती।
मांग की दृष्टि से स्थिति उत्प्लावक (buoyant) है। भारतीय अर्थव्यवस्था के धारणीय विकास और पिछले कुछ दशकों के दौरान लोगों की क्रय क्षमता में निरंतर होती वृद्धि के साथ आज अधिक से अधिक लोग दूध और अन्य डेरी उत्पादों की मांग कर पाने में सक्षम हैं। इस क्षेत्र में अनुभव की जा रही अल्पावधि और मध्यम अवधि की मांग की मजबूत संवृद्धि के साथ यह प्रवृत्ति जारी रहने की संभावना है। यदि संवृद्धि और विकास के मार्ग में आने वाली बाधाओं की ओर ध्यान नहीं दिया गया तो देश में मांग और पूर्ति के बीच भारी बेमेल और असंतुलन निर्माण होने की संभावना है और धीरे-धीरे देश बडे़ पैमाने पर दूध और अन्य दुग्ध उत्पादों का बड़ा आयातक बनने की संभावना है। डेरी क्षेत्र के समक्ष उपस्थित होने वाली प्रमुख चुनौतियाँ निम्नानुसार हैंः
- पशुओं के छोटे झुंड और निम्न उत्पादकता
- पिछले वर्षों के दौरान अपर्याप्त बजटीय आवंटन
- पशुपालन, डेरी और मत्स्यपालन
- फसल उत्पादन के साथ समानता का अभाव
- अपर्याप्त साख और ऋण उपलब्धता
- संगठित बाजारों तक कमजोर पहुंच कृषकों को दूध के उचित मूल्य से वंचित रखती है
- कमजोर कृत्रिम बीजारोपण संजाल
- मानव शक्ति और निधियों की कमी
- गुणवत्तापूर्ण प्रजनन बैलों की सीमित संख्या
- भैंसों के मामले में कृत्रिम बीजारोपण की अल्प स्वीकार्यता
- बीमारियों का फैलना रू मृत्यु दर और रुग्णता
- टीकों और टीकाकरण केंद्रों की कमी
- संकर पशुओं का ऐसे स्थानों में अधिष्ठापन जहां खाद्य संसाधन कमजोर हैं
- अधिकांश चारागाह या तो निम्नीकृत हैं या उनपर अतिक्रमण किया गया है
- पशु खाद्य और चारा घटकों का औद्योगिक उपयोग के लिए विपथन।
अगले आनुवांशिकी उन्नयन कार्यक्रमों के लिए राज्यों को निरंतर सहायता व समर्थन प्रदान करना आवश्यक है ताकि देश में दूध की तेजी से बढती मांग की पूर्ति की जा सके। राष्ट्रीय गाय-बैल और भैंस प्रजनन के तहत निर्मित प्रजनन अधोसंरचना को मजबूत बनाने और उसमें सुधार करने की भी आवश्यकता है, साथ ही गोधन की उत्पादकता में वृद्धि करने और अभिजात वर्ग के जननद्रव्य के प्रसार के लिए अन्य वैज्ञानिक कार्यक्रमों का भी विकास किया जाना आवश्यक है जैसे भ्रूण हस्तांतरण प्रौद्योगिकी, बहु अण्ड़ोत्सर्ग भ्रुण हस्तांतरण प्रौद्योगिकी, बाजार द्वारा सहायता प्रदान किया गया चयन और वीर्य संभोग प्रौद्योगिकी और सम्भोगकृत वीर्य का उपयोग। डेरी और पशुधन क्षेत्र के आगे विकास के लिए और इस क्षेत्र में निवेश आकर्षित करने के लिए निम्नलिखित नीतिगत पहलों की आवश्यकता हैः
- इस क्षेत्र में निवेश को प्रलोभन प्रदान करना, और
- सार्वजनिक निवेश में वृद्धि करना।
3.5 मांस और कुक्कुटपालन क्षेत्र
संख्या की दृष्टि से बकरियों के क्षेत्र में भारत का विश्व में दूसरा स्थान है जबकि भेड़ों के क्षेत्र में तीसरा। डेरी उप क्षेत्र के विपरीत कुक्कुटपालन उत्पादन में संवृद्धि का श्रेय मुख्य रूप से संगठित निजी क्षेत्र को दिया जा सकता है, जिसका देश के कुल उत्पादन के 80 प्रतिशत भाग पर नियंत्रण है।
कुक्कुटपालन विकास में निम्नलखित घटकों के लिए विभाग द्वारा वित्तपोषण किया जाता हैः
राज्यों के मुर्गीपालन फार्म्स को सहायताः इन फार्म्स के सशक्तिकरण के लिए अंडे सेने के स्थानों, प्रजनन और पालन गृहों, मुर्गियों के लिए मुर्गी खानों का निर्माण जिनमें भोजन मिल का प्रावधान हो, साथ ही उनकी गुणवत्ता की निगरानी और आतंरिक बीमारी निदान सुविधाओं और खाद्य विशेलषण प्रयोगशालाओं के रूप में एक बार सहायता प्रदान की जाती है।
ग्रामीण क्षेत्र में पिछवाडे़ के कुक्कुटपालन विकासः यह घटक गरीबी रेखा के नीचे के लाभार्थी परिवारों के लिए पिछवाडे़ के कुक्कुटपालन केंद्र स्थापित करने का प्रयास करता है ताकि उन्हें सहायक आय प्राप्त करने में और पोषण में सहायता प्राप्त हो सके।
कुक्कुटपालन संपदाः दो राज्यों में उद्यमिता कौशल में सुधार ‘‘कुक्कुटपालन संपदा’’ नामक अन्वेषणात्मक प्रायोगिक परियोजना के माध्यम से किया जाना है। यह योजना मुख्य रूप से कुछ सीमित मार्जिन पैसे के साथ शिक्षित बेरोजगार युवाओं और छोटे किसानों के लिए है ताकि वे वैज्ञानिक और जैविक रूप से सुरक्षित समूह दृष्टिकोण से विभिन्न कुक्कुटपालन गतिविधियों के माध्यम से एक लाभदायक उद्यम निर्मित कर सकें।
कुक्कुटपालन उद्यम पूंजी कोषः यह योजना नाबार्ड के माध्यम से न्यून निविष्टि प्रौद्योगिकी पक्षियों के साथ कुक्कुटपालन प्रजनन केंद्रों की स्थापना, खाद्य गोदामों की स्थापना, खाद्य मिल, खाद्य विश्लेषणात्मक प्रयोगशाला, मुर्गीपालन उत्पादों के विपणन, अंडों का श्रेणीकरण, और निर्यात क्षमता के लिए भंडार, खुदरा कुक्कुट ड्रेसिंग इकाई, अंडे और ब्रायलर की बिक्री के लिए गाड़ियां, और केंद्रीय उत्पादन इकाइयों इत्यादि जैसे घटकों के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करती है।
केंद्रीय कुक्कुटपालन विकास संगठन और केंद्रीय कुक्कुटपालन निष्पादन परीक्षण केंद्रः केंद्रीय कुक्कुटपालन विकास संगठनों के चार केंद्र चंडीगढ़ (उत्तरी क्षेत्र), भुबनेश्वर (पूर्वी क्षेत्र), मुंबई (पश्चिमी क्षेत्र) और बैंगलोर (दक्षिण क्षेत्र) में स्थित हैं जबकि एक कुक्कुटपालन निष्पादन परीक्षण केंद्र हरियाणा के गुडगांव में स्थित है। ये केंद्र निम्नलिखित उपायों के माध्यम से कुक्कुटपालन विकास को प्रोत्साहित कर रहे हैंः
- चिन्हीकृत न्यून निविष्टि प्रौद्योगिकी भंडार के गुणवत्तापूर्ण चूजों की उपलब्धता सुनिश्चित की जाती है।
- बत्तख और तुर्की पालन (दक्षिण क्षेत्र), जापानी बटेर (उत्तरी और पश्चिमी क्षेत्र), और गिनी मुर्गी (पूर्वी क्षेत्र) पालन में विविधीकरण।
- प्रशिक्षकों, कृषकों, महिला लाभार्थियों, विभिन्न सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के कुक्कुटपालन संगठनों, गैर सरकारी संगठनों, बैंकों, सहकारी संस्थाओं और विदेशी प्रशिक्षुओं का प्रशिक्षण।
- देश में उपलब्ध भंडारों के निष्पादन का आकलन करने के लिए विभिन्न भंडारों का नियमित परीक्षण।
शीतलन श्रृंखला अधोसंरचना और स्तंभित मुर्गी के लिए बढ़ती बाजारी स्वीकार्यता के साथ कुशल वितरण व्यवस्था विकसित करना दीर्घ काल में इस क्षेत्र के लिए प्रमुख प्रेरक रहने वाले हैं।
पिछले दो दशकों से भारतीय कुक्कुटपालन क्षेत्र में 8 से 10 प्रतिशत की दर से वार्षिक वृद्धि होती रही है, जिसमें ब्रायलर मांस के परिमाण में 10 प्रतिशत से अधिक की दर से वृद्धि हुई है, टेबल पर परोसे जाने वाले अंडों की वृद्धि दर 5 से 6 प्रतिशत रही है जिसका प्रमुख कारण घरेलू उपभोग में हुई वृद्धि है।
देश के किसान जो पहले देशी मुर्गियां पालते थे, वे अब संकरित मुर्गियों का पालन करने लगे हैं जो चूजों की तेजी से वृद्धि, प्रति पक्षी अधिक अंडे, अंडों से चूजे निकलने की बढ़ी ही दर, पक्षियों की न्यून मृत्यु दरखाद्य का उतकृधत परिवर्तन, और इन सभी के कारण कुक्कुट पालन करने वालों के लिए अधिक धारणीय लाभ सुनिश्चित करती हैं। कुक्कुटपालन उद्योग के उत्पादन में वृद्धि मुर्गी के मांस में अन्य मांस उत्पादों की तुलना में पिछले पांच वर्षों में हुई कम मूल्य वृद्धि को प्रतिबिंबित करती है - कुक्कुटपालन के थोक मूल्य सूचकांक में 2008- 13 के दौरान वर्ष दर वर्ष 12 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जिसकी तुलना में समग्र मांस उत्पादों में दर 21 प्रतिशत रही है - जो भारतीय आहार में प्रोटीन आवश्यकताओं की दृष्टि से एक सस्ता विकल्प प्रदान कर रही है।
3.5.1 मांस और कुक्कुटपालन क्षेत्र की चुनौतियाँ
मांस और कुक्कुटपालन क्षेत्र के समक्ष खड़ी समस्याओं में निम्न समस्याएं शामिल हैंः
- मक्के की उपलब्धता और उसकी लागतेंः मक्का मुर्गीपालन खाद्य का इकलौता सबसे महत्वपूर्ण घटक है और सस्ते दामों पर इसकी उपलब्धता कुक्कुटपालन क्षेत्र के समक्ष उपस्थित प्रमुख समस्या है।
- बीमारियांः रोगजनक और नई उभरती हुई बीमारियां जैसे ए.आई. घरेलू बाजार और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भारी नुकसान पहुंचाती हैं।
- विपणन जानकारी का अभावः मुतगिपालन और मुर्गीपालन उत्पादों की मांग और पूर्ति के अंतर को कम करने की दृष्टि से एक वास्तविक राष्ट्रीय विपणन सूचना तंत्र की अत्यंत आवश्यकता है।
- मानव संसाधन विकासः धारणीय और सुरक्षित उत्पादन की बढ़ती मांग की पूर्ति के लिए कुक्कुटपालन क्षेत्र में प्रशिक्षित और कुशल मानव संसाधन की व्यापक मांग है।
- लक्षित जनसंख्या के विशाल आकार को उत्पादकता की दृष्टि से विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग के साथ सुधारने की प्रक्रिया कुक्कुटपालन क्षेत्र के समक्ष एक अत्यंत दुर्जेय चुनौती है।
- पशु उत्पादों के प्रसंस्करण और मूल्य संवर्धन का स्तर अत्यंत निम्न है।
किये जाने वाले उपाय
मांस और कुक्कुटपालन क्षेत्र के त्वरित और धारणीय विकास और सशक्तिकरण के लिए निम्न उपाय सुझाये जा सकते हैंः
- उत्पादन वृद्धि और मक्के की गुणवत्ता में वृद्धि के लिए दीर्घ कालीन धारणीय उत्पादन उपायों की ओर ध्यान देना आवश्यक है।
- किसी भी बीमारी के त्वरित प्रसार के दौरान सक्रिय चौकसी, निगरानी और नियंत्रण आवश्यक है
- एक वास्तविक राष्ट्रीय और वैश्विक डेटा आधार और विपणन सूचना तंत्र संजाल को विकसित किया जा सकता है।
- विद्यमान संस्थानों में पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित मानव संसाधन विकसित किये जाने चाहियें।
- बढ़ते शहरीकरण और विकसित होती गुणवत्ता जागरूकता के साथ वैज्ञानिक तरीके से उत्पादित मांस उत्पाद तेजी से बढ़ने की संभावना है। खाने के लिए तैयार और अर्ध प्रसंस्कृत मांस उत्पादों के बाजार में बदलते सामाजिक आर्थिक परि.श्य और पड़ोसी देशों, विशेष रूप से मध्य पूर्व देशों को निर्यात के कारण वृद्धि हो रही है।
- मशीनीकृत कसाईखाने काटे गए पशुओं से विशाल मात्रा में रद्दी भागों का उत्पादन करते हैं जिनका उपयोग मूल्य संवर्धित उत्पादों के लाभदायक उत्पादन के लिए किया जा सकता है, जैसे मांस-सह-हड्डी भोजन, चरबी, हड्डी चिप्स, पालतू पशुओं का खाद्य, और ऊर्जा के स्रोत के रूप में मीथेन।
- सूअर पालन को भी बढ़ावा देने की आवश्यकता है ताकि सूअर उत्पादकता, सूअर के बच्चों की विकास दर और खाद्य संरक्षण कुशलता में सुधार किया जा सके।
- पशुधन के वध से प्राप्त उपोत्पादों के उचित उपयोग को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि पशुधन मालिकों की आय में वृद्धि हो सके। पर्यावरणीय प्रदूषण और पशुधन के रोगों के प्रसार को रोकना होगा।
3.6 मत्स्यपालन क्षेत्र
- भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा मछली उत्पादक देश है।
- मछली व्यवसाय की विकास नीति अंतर्देशीय मछली व्ययसाय पर जोर देती है, विशेष रूप से हाल के वर्षों का मत्स्यपालन, जो उत्पादन बढ़ाने, निर्यात में वृद्धि करने और मछुआरों की गरीबी दूर करने की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण साबित हुआ है।
केंद्र द्वारा प्रायोजित और केंद्रीय योजनाओं के माध्यम से मछली व्यवसाय क्षेत्र के विकास के लिए किये गए आवंटन का उपयोग संबंधित राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के माध्यम से विकास और कल्याण उन्मुख, दोनों प्रकार की योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए किया जाता है। केंद्र द्वारा प्रायोजित और केंद्रीय योजनाओं के किये गए आवंटन के अतिरिक्त अन्य ध्वज पोत कार्यक्रमों के माध्यम से भी सहायता प्रदान की जाती है, जैसे राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, और हाल ही में शुरू की गई प्रोटीन पूरक के लिए राष्ट्रीय मिशन।
3.6.1 चुनौतियाँ
बीते वर्षों के दौरान मत्स्य उद्योग उभर रहा है और तेजी से विकसित हो रहा है। इसमें मछली पकड़ना और मत्स्यपालन दोनों शामिल हैं, साथ ही इसमें अंतर्देशीय और समुद्री, दोनों प्रकार की मछलियाँ, मतयपालन, उपकरण, नौवहन, समुद्री विज्ञान, जलजीवालय प्रबंधन, प्रजनन, प्रसंस्करण, समुद्री खाद्य का आयात और निर्यात, विशेष उत्पाद और उपोत्पाद, अनुसंधान और उससे संबंधित गतिविधियाँ भी शामिल हैं। इस क्षेत्र में विश्व भर के उद्यमियों के लिए अनेक निवेश के अवसर भी विद्यमान हैं।
परंतु साथ ही देश के मत्स्य उद्योग क्षेत्र के विकास के समक्ष विभिन्न चुनौतियाँ और समस्याएं भी मौजूद हैं, जैसे मत्स्य व्यवसाय संसाधनों के संबंध में सटीक आंकडे और मछली उत्पादन की दृष्टि से उनकी क्षमता; फिन और शैल मत्स्यपालन के लिए धारणीय प्रौद्योगिकियों का विकास य उत्पादन इष्टतमीकरण; पैदावार और पैदावार पश्चात की गतिविधियाँ; मछली पकड़ने के जहाजों के अवतारण और ठहरने के स्थानों की सुविधाएं और मछुआरों के कल्याण की सुविधाएं इत्यादि। मत्स्यपालन उद्योग के समक्ष प्रस्तुत प्रमुख चुनौतियाँ निम्नानुसार हैंः
- गुणवत्ता पूर्ण और स्वस्थ मछली बीजों और अन्य निविष्टियों की कमी।
- संसाधनों का अभाव - विशिष्ट मछली पकड़ने के जहाज और विश्वसनीय संसाधन और अद्यतन किये हुए आंकड़े ।
- मछली के आर्थिक और पोषक लाभों के विषय में जागरूकता का अभाव।
- मत्स्यपालन व्यवसाय के लिए और मछुआरों और मत्स्यपालन उद्योग के प्रशिक्षण के लिए अपर्याप्त संख्या में विस्तार कर्मचारी।
- मछली उत्पादों के श्रेणीकरण और मानकीकरण का अभाव।
3.6.2 किये जाने वाले उपाय
‘‘मत्स्य व्यवसाय और मत्स्यपालन क्षेत्र‘‘ को भारतीय कृषि क्षेत्र में एक धूप क्षेत्र माना है। यह क्षेत्र अनेक सहायक उद्योगों के विकास को प्रेरित करता है, साथ ही यह आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी जनसंख्या के एक बडे़ भाग के लिए निर्वहन और आजीविका का भी साधन है, विशेष रूप से देश के मछुआरों के लिए। यह क्षेत्र खाद्य आपूर्ति में वृद्धि करने में सहायक है, उसी प्रकार यह क्षेत्र पर्याप्त रोजगार अवसरों की निर्मिति करने और पोषण के स्तर में वृद्धि करने में भी सहायक है। इस क्षेत्र में निर्यात की दृष्टि से अपार संभावनाएं मौजूद हैं और इस कारण यह देश के लिए विदेशी मुद्रा अर्जित करने का भी एक बड़ा साधन है।
भारत में मत्स्यपालन उद्योग के विकास की दृष्टि से ‘‘पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन विभाग‘‘ प्रमुख प्राधिकरण है। मत्स्यपालन के क्षेत्र की उत्पादकता और उत्पादन बढ़ाने के लिए उपयुक्त नीतियां बनाने और शुरू करने के अतिरिक्त यह विभाग सीधे और राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासनों के माध्यम से विविध उत्पादन, निविष्टि आपूर्ति और अधोसंरचना विकास कार्यक्रम और कल्याणकारी योजनाएं चलाता है। साथ ही ‘‘खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय’’ भी एक अन्य अभिकरण है जो भारत में मछली प्रसंस्करण विभाग के लिए उत्तरदायी है।
हालांकि मत्स्यपालन एक राज्य का विषय है और इसके विकास की प्राथमिक जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। मत्स्यपालन विकास के क्षेत्र में मुख्य जोर उत्पादकता और उत्पादन इष्टतमीकरण, मत्स्य उत्पादों की निर्यात वृद्धि, रोजगार बढ़ाने और मछुआरों के कल्याण और उनके सामाजिक-आर्थिक दर्जे में सुधार पर दिया गया है।
मत्स्यपालन क्षेत्र को अधिक सशक्त करने के लिए निम्नलिखित उपाय अधिक सहायक हो सकते हैंः
- अंतर्देशीय मछली उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि के लिए एकीकृत दृष्टिकोण की योजनाएं, जिनमें अग्रगामी और पश्चगामी लिंकेज हों जैसे उत्पादन श्रृंखला और उसकी निविष्टि आवश्यकताओं, जैसे गुणवत्तापूर्ण मत्स्य बीज और मत्स्य भोजन से लेकर पैदावार के लिए आवश्यक अधोसंरचना, स्वछता को संभालना, मूल्य संवर्धन और मछली के विपणन तक सारी बातें शामिल हों।
- विद्यमान मत्स्यपालन विकास प्राधिकरण का सशक्तिकरण किया जायेगा और सहकारी क्षेत्रों, सहायता समूहों और युवाओं को सघन मत्स्यपालन गतिविधियों में सक्रिय रूप से शामिल किया जायेगा।
- व्यापक स्तर पर खेती आधारित पकड़ मत्स्यपालन का अंगीकरण करना होगा और जलाशयों और विशाल जल क्षेत्रों में पिंजरा खेती की प्रक्रियाओं को शुरू करना होगा।
- समुद्री मछली संसाधनों का धारणीय दोहन करना, विशेष रूप से गहरे समुद्र के संसाधनों के, और समुद्री खेती, सागरीय कृषि, संसाधन पुनः पूर्ति कार्यक्रमों के माध्यम से जैसे कृत्रिम उच्चावचों का गठन करके इत्यादि।
3.7 पोषणः चारा और खाद्य
विश्व के 2.29 प्रतिशत भूक्षेत्र के साथ भारत विश्व के 10 प्रतिशत से अधिक पशुधन का संधारण कर रहा है। पशुधन की उत्पादकता पर पशु खाद्य और चारे के पोषक मूल्य का व्यापक प्रभाव होता है। चारे की मांग और पूर्ति के बीच का अंतर तेजी से बढ रहा है। इस अंतर को कम करने के लिए और गुणवत्तापूर्ण चारे का उत्पादन सुचिश्चित करने के लिए डी.ए़.डी.एफ. एक केंद्रीय चारा विकास संगठन योजना को कार्यान्वित कर रहा है। इस संगठन के निम्न सात क्षेत्रीय केंद्र हैं, एक चारा उत्पादन और प्रदर्शन केंद्र, हेस्सारघट्टा (कर्नाटक) में एक केंद्रीय चारा बीज उत्पादन केंद्र और चारा फसलों के लिए केंद्रीय मिनी किट परीक्षण कार्यक्रम। राज्यों के चारे और पशु खाद्य में वृद्धि के प्रयासों में सहायता प्रदान करने के लिए अप्रैल 2010 से एक संशोधित ‘‘केंद्र द्वारा प्रायोजित चारा एवं पशु खाद्य विकास योजना‘‘ क्रियान्वित की जा रही है।
3.7.1 पोषण में चुनौतियाँ
पर्याप्त और गुणवत्तापूर्ण चारा और पशु खाद्य प्रदान करने में निम्न चुनौतियाँ शामिल हैंः
- जबकि एक ओर पशुधन की संख्या बढ़ती ही जा रही है, वहीं दूसरी ओर चारागाह भूमि में निरंतर कमी होती जा रही है। चारा फसल के तहत आने वाला क्षेत्र भी अत्यंत सीमित है।
- अधिकांश चारागाहों का या तो काफी हद तक अपक्षय हो है या उनके ऊपर लोगों द्वारा अतिक्रमण कर लिया गया है, जिसके कारण पशुओं के चरने के लिए उपलब्ध स्थान कम होता जा रहा है।
- कृषि भूमि पर खाद्यान्नों, तेल बीजों, और दालों की फसलें पैदा करने के बढ़ते दबाव के कारण चारा फसलों के उत्पादन की ओर उचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
- कृषि अवशेषों के विविध उपयोग जैसे कागज उद्योग, पैकेजिंग इत्यादि, के कारण चारे की मांग और पूर्ति के बीच अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है।
- चारे, फसल अवशेषों, कृषि-औद्योगिक उपोत्पादों और पशु खाद्य अनाज (मोटे अनाजों) पर विश्वसनीय आंकड़ों का अभाव है। पशुधन क्षेत्र के यथार्थवादी नियोजन और विकास में उपयोग के लिए पशु खाद्य और चारे का वास्तविक डेटा आधार बनाना आवश्यक है।
- देश का सुधार किये गए चारा बीजों का वर्तमान उत्पादन लगभग 40,000 मेट्रिक टन है, जबकि देश में चारे की आवश्यकता 5.4 लाख मेट्रिक टन की है जिसे 10.8 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर उगाये जाने की आवश्यकता है।
- गेहूं और चांवल की मुख्य फसल की कटाई के बाद अधिकांश फसल अवशेषों को किसानों द्वारा जला दिया जाता है।
- अधिकांश राज्यों में चारे से संबंधित समस्याओं के निवारण के लिए उपलब्ध कर्मचारियों की संख्या अत्यंत अपर्याप्त है।
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