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सिंचाई की प्रणालियां एवं पद्धतिया
1.0 प्रस्तावना
जल कृषि उत्पादन के लिए पौधों के विकास और वृद्धि के लिए आवश्यक सबसे महत्वपूर्ण निविष्टि है। सिंचाई का अर्थ है प्राकृतिक वर्षण के अतिरिक्त अन्य मार्गों के माध्यम से पौधों के जड़ क्षेत्र में मृदा जल संग्रहण का पुनर्भरण करना। सिंचाई के इतिहास की जडें मानवता के सबसे प्रारंभिक शुरुआती समय में हैं। यह कृषि पद्धतियों में अनिश्चितताओं को कम करने में सहायता करती है, विशेष रूप से जलवायु से संबंधित अनिश्चितताओं को।
1.1 सिंचाई का इतिहास
पुरातात्विक अन्वेषण ने ऐसे क्षेत्रों में सिंचाई के साक्ष्य चिन्हित किये हैं जहां प्राकृतिक वर्षा फसलों की सहायता करने की दृष्टि से अपर्याप्त थी।
बारहमासी सिंचाई का अवलंब मेसोपोटामिया के मैदान में खेतों में छोटी-छोटी नालियों के निर्माण के माध्यम से पानी को इकठ्ठा करके किया जाता था। प्राचीन मिस्र के लोग नील नदी की बाढ़ का उपयोग करके तटबंधों से घिरे भूमि के टुकडों को पाटने के लिए नदी घाटी सिंचाई पद्धति का अवलंबन करते थे। प्राचीन न्युबियन लोगों ने सकिया नामक एक जल पहिए जैसे उपकरण के उपयोग से एक सिंचाई पद्धति विकसित की थी। उप-सहाराई अफ्रीका में ईसापूर्व की पहली या दूसरी सहस्त्राब्दी तक सिंचाई नाइजर नदी क्षेत्र की संस्कृतियों और सभ्यताओं तक पहुंची थी और यह गीले मौसम की बाढ़ और जल संचयन पर आधारित थी। प्राचीन फारस में लगभग 800 ईसापूर्व में विकसित क्वांटास ऐसी प्राचीनतम ज्ञात सिंचाई पद्धति है जो आज भी उपयोग की जाती है।
प्राचीन भारत की सिंधु घाटी की सभ्यता (5000 वर्ष पूर्व) सिंधु नदी और उसकी उपनदियों के बाढ़ के मैदानों से प्राप्त कृषि पर आधारित थी। ऐसा माना जाता है कि इस सभ्यता के प्रारंभिक लोग 40,000 ईसापूर्व में अफ्रीका से भारत पहुंचे थे। सबसे पहले वे शिकारी और संग्रहक थे परंतु 4000 ईसापूर्व में वे कृषक बन गए। वे जमीन पर गेहूं, अनाज और पशु पैदा करते थे। गायें, बकरियां और भेडें दूध और विकल्प प्रदान करती थीं। वे चूल्हों पर भोजन पकाते थे और एक सपाट पत्थर पर एक गोल किये गए पत्थर से अनाज को रगडकर आटा बनाते थे। रोटी और दलिया प्रत्येक के आहार का हिस्सा थे। वे अधिकतर सब्जियां और ताजी या नमक लगी मछली खाते थे। समृद्ध लोग मांस खाते थे। हड़प्पाकालीन लोग कपास पैदा करने वाले पहले लोग थे। सिंचाई पंजाब और सिंध की नदियों की अनियमित बाढ़ पर निर्भर थी।
प्राचीन श्रीलंका के सिंचाई के कार्य, जिनमें से प्राचीनतम लगभग 300 ईसापूर्व जितने प्राचीन थे, राजा पाण्डुकाभय के शासनकाल के दौरान के थे, और इसके बाद लगभग अगले एक हजार वर्षों के दौरान उनमें निरंतर विकास हुआ। ये सिंचाई कार्य प्राचीन विश्व के जटिलतम सिंचाई तंत्रों में से एक थे। प्राचीन चीन के किन राज्य के सिचुआन क्षेत्र में एक विशाल कृषि क्षेत्र को सिंचित करने के लिए दुजियांग्यां सिंचाई तंत्र का निर्माण 256 ईसापूर्व में किया गया था, जो आज भी जल आपूर्ति करता है। सांता क्रुज नदी का बाढ़ का मैदान प्रारंभिक .षि काल के दौरान व्यापक कृषि करता था, जिसका काल सिरसा 1200 ईसापूर्व से 150 ईस्वी तक था।
छत सिंचाई के साक्ष्य पूर्व-कोलंबियाई अमेरिका, प्राचीन सीरिया, भारत और चीन में दिखाई देते हैं। ऐसा कहा जाता है कि इतिहास मानवता का महानतम शिक्षक है। सिंचाई के इतिहास, सिंचाई प्रौद्योगिकी के विकास और प्राचीन सिंचाई तंत्रों की धारणीयता का अध्ययन उन कारकों पर अंर्तदृष्टि प्रदान करता है जिन्होंने परिणामों को पिछली अनेक पीढियों के दौरान धारणीय बनाए रखा है।
2.0 भारत में सिंचाई की आवश्यकता
भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है, जहां जलवायु, स्थलाकृति और वनस्पति में व्यापक विविधिता विद्यमान है। एक कृषि अर्थव्यवस्था होने के कारण भारत के अनेक संसाधन और स्वयं देश का आर्थिक विकास कृषि उत्पादन पर निर्भर है। फसलों की अधिकतम उत्पादकता के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि उचित समय पर सिंचाई जल की इष्टतम आपूर्ति की मात्रा आवश्यक है। सिंचाई निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्य संपन्न करती हैः
- यह एक पोषक और आर्द्रता वाहक के रूप में कार्य करती है
- यह रासायनिक उर्वरकों के बेहतर उपयोग को सुनिश्चित करती है
- पौध पर्यावरण के आसपास इष्टतम तापमान को बनाये रखती है।
भारत में आज भी कृषि मानसून पर निर्भर जुआ है। कृषि को मानसून की अनिश्चितताओं से पृथक करने के लिए सिंचाई अत्यंत आवश्यक है। निम्न कारकों ने भारत में सिंचाई के विकास की आवश्यकता को बढ़ा दिया है
- अपर्याप्त वर्षा
- असमान वर्षा
- शुष्क कृषि का बढ़ता उत्पादन
- फसलों के नियमित आवर्तन की पद्धति को अपनाने के लिए
- जल आपूर्ति को नियंत्रित करने के लिए
- मृदा में से लवणों को धोने के लिए या उनकी मात्रा को कम करने के लिए
- मृदा के साथ ही वातावरण को ठंडक पहुंचाने के लिए, और स्वस्थ पौधों की संवृद्धि के लिए अनुकूल पर्यावरण का निर्माण करने के लिए।
हालांकि जल भारत के सबसे दुर्लभ संसाधनों में से एक है, फिर भी भारत एक प्रमुख फसल के उत्पादन में चीन और ब्राजील की तुलना में 2 से 4 गुना अधिक पानी का उपयोग करता है। अतः यह अनिवार्य है कि देश .षि में पानी के उपयोग कौशल के सुधार पर ध्यान केंद्रित करे। स्वतंत्रता के बाद से भारत ने सिंचाई पर अनेक संसाधनों का निवेश किया है, जिनमें सार्वजनिक (नहर सिंचाई) और निजी (ट्यूब वेल) दोनों शामिल हैं। दोनों ही मामलों में जल का उपयोग “बाढ़“ सिंचाई के माध्यम से किया गया है जो पानी का सर्वाधिक अकुशल उपयोग है।
अब यह समझा जा रहा है कि सिंचाई में निवेश फव्वारा और टपक सिंचाई और जल संचयन (और जहाँ संभव हो वहां मनरेगा के तहत उपलब्ध श्रम का लाभ लिया जाये) जैसी प्रौद्योगिकियों को अपनाने की दिशा में परिवर्तित किया जाना चाहिए। इस परिवर्तन को सरल बनाने के लिए नई सिंचाई प्रौद्योगिकियों को “अधोसंरचना ऋण“ का दर्जा देने (जो अभी नहर सिंचाई को दिया जा रहा है) की आवश्यकता है, और केंद्र और राज्य, दोनों को सूक्ष्म सिंचाई के लिए सार्वजनिक व्यय में वृद्धि करने की आवश्यकता है।
पहले से जारी सिंचाई योजनाओं का - त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (एआईबीपी), एकी.त जलग्रहण क्षेत्र प्रबंधन कार्यक्रम (आईडब्लूएमपी), और खेत पर जल प्रबंधन (ओएफडब्लूएम) - प्रधानमंत्री .षि सिंचाई योजना में समेकन सिंचाई में निवेश अभिसरण की संभावना प्रदान करता है, जल स्रोत से वितरण और अंतिम उपयोग तक। पीएमकेएसवाय का अध्ययन हम इस पुस्तिका में बाद में करेंगे।
जल के संरक्षण (कम या अधिक) के साथ ही उत्पादकता में वृद्धि करने का एक उत्साहजनक आगे का मार्ग है सूक्ष्म सिंचाई पद्धितियों को अपनाना। उदाहरणार्थ, टपक सिंचाई में छिद्र युक्त पाइप जमीन से थोडे ऊपर या नीचे रखे जाते हैं जो पौधों की जडों और तनों पर पानी की बूँदें टपकाते हैं, और इस प्रकार पानी को निश्चित तौर पर उन फसलों तक पहुंचाते हैं जिन्हें उसकी आवश्यकता है। एक कुशल टपक सिंचाई तंत्र उर्वरकों के उपभोग (फर्टिगेशन के माध्यम से) और वाष्पीकरण से होने वाली जल हानि को कम करता है, साथ ही पारंपरिक बाढ सिंचाई की तुलना में अधिक पैदावार देता है।
इस प्रौद्योगिकी को अपनाने की सबसे प्रमुख बाधाएं हैं क्रय की उच्च प्रारंभिक लागतें और इनके रखरखाव के लिए आवश्यक कौशल। हालांकि पैदावार में वृद्धि और बिजली और उर्वरकों के उपयोग पर लागतों में कमी किसानों को शीघ्रता से उनकी स्थाई लागतें वसूल करने में सहायक हो सकती है। किसानों को ऋण का प्रावधान इस प्रौद्योगिकी को अधिक बडे पैमाने पर अपनाने के लिए उत्प्रेरक का कार्य कर सकता है।2.1 अत्यधिक सिंचाई के साथ समस्याएं
जैसे कृषि विकास के लिए सिंचाई आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार अत्यधिक और अवैज्ञानिक सिंचाई के अपने दुष्परिणाम भी हैं। पंजाब जैसे राज्य अत्यधिक सिंचाई के दुष्परिणाम भुगत रहे हैं, क्योंकि जहां राज्य का एक भाग अत्यधिक गहरे जलस्तर की समस्या से जूझ रहा है, वहीं एक अन्य भाग लवणता की समस्या का सामना कर रहा है। अच्छे प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन और धारणीय उत्पादन के लिए जल का उचित प्रबंधन आवश्यक है। अत्यधिक सिंचाई की निम्न हानियां हो सकती हैंः
- पानी का अपव्ययी उपयोग
- जल भराव
- सिंचित क्षेत्रों में मृदा अपक्षरण
- पानी का हानिकारक पदार्थों के साथ संदूषण
- नम जलवायु और पारिस्थितिकी असंतुलन
- मच्छरों का प्रजनन।
3.0 सिंचाई पद्धतियाँ
फसल, स्थलाकृति, मृदा के प्रकार, जल संसाधनों, जलवायु परिस्थितियों और लागतों के आधार पर अनेक सिंचाई पद्धतियों का उपयोग किया जाता है। ये पद्धतियाँ निम्नानुसार हैंः
- भूतल सिंचाई पद्धति
- उप-मृदा सिंचाई पद्धति
- सेचक सिंचाई पद्धति, और
- टपकन सिंचाई पद्धति
3.1 भूतल सिंचाई पद्धति (Surface Irrigation System)
इस पद्धति में एक संप्रेषण पद्धति, या चैनल या पाइप की सहायता से पानी खेत के ऊपरी भाग की सतह पर सीधे अनुप्रयुक्त किया जाता है, और यह भूमि के ढ़ाल के अनुसार गुरुत्वाकर्षण द्वारा खेत के अन्य भागों तक पहुंचता है। इस पद्धति में अनेक तरीके अपनाये जाते हैं जिनमें से सबसे आम हैं हाथ से पानी देना, एक गड्ढे से पानी का मुक्त प्रवाह करना, छोटे-छोटे बांध बनाकर पानी को रोकना, सीमा पट्टी और हल रेखा।
भूतल पद्धति के साथ सिंचाई के लिए खेत को बोवाई से पहले हर बार तैयार किया जाता है, क्योंकि तैयारी की जुताई के समय ये अभिन्यास नष्ट हो जाते हैं। कुछ मामलों में अगली फसल के लिए भी उन्हीं अभिन्यासों का उपयोग किया जाता है। हालांकि जल अनुप्रयोग की उच्च क्षमता प्राप्त करने के लिए खेत को समतल करना आवश्यक है।
3.1.1 हाथ से पानी देना (Hand watering)
इस पद्धति में पानी एक बाल्टी या अन्य किसी पात्र में ले जाकर पौधों की जड़ में उंडे़ला जाता है, या पौधों की पत्तियों पर छिड़का जाता है या फव्वारा जाता है। एक छोटे आकार के बगीचे में (घरेलू बगीचा, शाकवाटिका, या पोषण वाटिका, सम्मिश्र वाटिका) या अंकुरण, पौध प्रत्यारोपण या सब्जियों, फूलों, तंबाकू, बारामासी चारे इत्यादि को काटने के दौरान प्रत्येक पौधे को इस प्रकार से सिंचित किया जाता है। इस पद्धति में समय काफी अधिक लगता है परंतु सघन देखभाल की जाती है।
3.1.2 मुक्त या सघन जलधारा (Free or wild flooding)
इस पद्धति में पानी को पूरे खेत में अनियंत्रित रूप से प्रवाहित होने दिया जाता है। इस पद्धति का अवलंब उन स्थानों पर अधिक किया जाता है जहां सिंचाई के लिए पर्याप्त मात्रा में, सस्ता और मृदा और फसल के लिए हानिरहित जल उपलब्ध होता है। इस पद्धति का अवलंब आर्द्रभूमि चावल के लिए किया जाता है, जहां पानी निरंतर बाढ़, आवर्तनशील बाढ़ या सविराम बाढ़ के रूप में प्रदान किया जाता है।
इस पद्धति में भूमि का समतलीकरण और अभेद्य पालियां तैयार करने के साथ ही खेत के चारों ओर सीमा बांध बनाना आवश्यक होता है। जल वितरण के लिए किसी भी भूक्षेत्र का उपयोग नहीं किया जाता। इसमें जल अनुप्रयोग का पर्यवेक्षण आवश्यक नहीं होता। इस पद्धति का मुख्य दोष यह है कि काफी मात्रा में जल का अपव्यव हो जाता है। सभी प्रकार की खेत प्रबंधन पद्धतियाँ, विशेष रूप से पोषक प्रबंधन पद्धतियाँ अत्यंत कमजोर होती हैं। हालांकि हरित उर्वरक पद्धति को अपनाने की दृष्टि से यह एक आदर्श पद्धति है, क्योंकि यह पद्धति जैविक पदार्थों के अवायवीय अपघटन में सहायक होती है।
3.1.3 बांध बाढ़ या बाँध बेसिन (check flooding or check basin)
बेसिन एक समतल ज़मीन का टुकड़ा होता है जो चारों ओर से सेतु या बाँध से घिरा है। आवश्यक रूप से समतल भूमि पर बेसिन की आकृति या आकार मृदा की विशेषताओं, उपलब्ध धारा प्रवाह और फसल पद्धतियों पर निर्भर होता है। आयताकार या वर्गाकार बेसिन का उपयोग किया जाता है, जिनका आकार 10 वर्ग मीटर से लेकर 100 वर्ग मीटर, या उससे भी अधिक भी हो सकता है। बेसिन का समतलीकरण दोनों दिशाओं में किया जाता है। आपूर्ति नाली को सर्वोच्च समोच्च के साथ जोड़ा जाता है। व्यक्तिगत सपाट बेसिन एक के बाद एक इस गड्ढे के साथ जोडे़ जाते हैं, जहां गड्ढे में जगह छोड़ी जाती है, या वहनीय नलिकाएं स्थापित की जाती हैं। सिंचाई के बाद कटे हुए किनारे को अवरुद्ध कर दिया जाता है, या बंद कर दिया जाता है, या नलिकाओं को निकाल लिया जाता है।
यह पद्धति सभी प्रकार की सिंचाई योग्य मृदा और अनेक प्रकार की फसलों के लिए उपयुक्त है। आलू, मक्का, तंबाकू और मिर्ची जैसी जड़-क्षेत्र की पूर्ण संतृप्ति की दृष्टि से अतिसंवेदनशील फसलों के लिए यह सिंचाई पद्धति उपयुक्त नहीं है।
सिंचाई जल पर अच्छा नियंत्रण और उच्च अनुप्रयोग कुशलता के साथ इस पद्धति से दो से तीन प्रतिशत तक की ढ़लानों की सिंचाई की जा सकती है। अधिक खड़ी ढ़लानों पर उचित सीढ़ीदार खेत बनाने के बाद ही इस पद्धति का उपयोग किया जा सकता है।
इस पद्धति के कुछ दोष ये हैं कि इसमें बड़ी संख्या में मेडें़ बनानी पड़ती हैं जो काफी बड़े भूक्षेत्र को घेर लेती हैं, साथ ही इन मेड़ों का निर्माण और इनकी नियमित मरम्मत और सिंचाई के दौरान इनका सावधानीपूर्वक पर्यवेक्षण काफी महंगा और समय लेने वाला भी होता है।
3.1.4 बेसिन या चक्रपथ बेसिन
इस पद्धति का उपयोग एक व्यक्तिगत पौधे को सिंचित करने के लिए या गड्ढों या समूहों में उगाये जाने वाले पौधों को सिंचित करने के लिए सामान्यतः उन फसलों के लिए किया जाता है जिनमें पौधों के बीच काफी अंतर होता है। पौधे के चारों ओर एक घेरा या सपाट बेसिन तैयार किया जाता है, और अनेक पौधों या पौध समूहों को एक गड्ढे के साथ पौधों की पंक्तियों से गुजरने वाली नाली द्वारा जोड़ दिया जाता है। पौधों के आसपास की ज़मीन सिंचाई जल से अवशोषित हो जाती है, और बाकी का खेत लगभग शुष्क बना रहता है। यह पद्धति पानी के मितव्ययी उपयोग को काफी हद तक बढ़ाती है। शकरकंद, कद्दू, और पेठे जैसी फसलों की सिंचाई इस पद्धति द्वारा की जाती है। फलोद्यानों की सिंचाई के लिए इस सिंचाई पद्धति का आमतौर पर उपयोग किया जाता है।
3.1.5 सीमा पट्टी (Border strip)
इस पद्धति में खेत को अनेक लंबी संकरी पत्तियों में विभाजित कर दिया जाता है, जिनके दोनों ओर समानांतर मेडें बनी होती हैं। पट्टियां 2 से 10 मीटर चौडी होती हैं। पट्टियों की लंबाई 10 मीटर से 300 मीटर या उससे भी अधिक हो सकती है, जो ढ़लान और प्रवाह के आकार पर निर्भर करती हैं। प्रत्येक पट्टी को ठीक ढ़ंग से समतल किया जाता है, और इन्हें ऊपरी हिस्से पर बने हुए गड्ढे के साथ जोड़ दिया जाता है। सिंचाई के बाद इनके जुड़ाव का विच्छेद कर दिया जाता है।
यह पद्धति सभी प्रकार की सिंचाई योग्य मृदाओं और चरागाह फसलों के लिए उपयुक्त होती है, जो संतृप्त भूमि को एक घंटे या उससे अधिक समय के लिए सहन कर सकती हैं। गेहूं, जौ, सफेद सरसों और राई, मटर, फलियों, चने, चांवल की रोपवाटिकाओं और प्याज जैसी फसलों की सिंचाई इस पद्धति से की जाती है। जब चारागाह फसलें उगाई जाती हैं तो सात प्रतिशत तक की ढ़लान की सिंचाई की जा सकती है। इससे अधिक ढ़लानों पर इस पद्धति का उपयोग मृदा के स्थानांतरण को रोकने के लिए सही ढ़ंग से बनाई गई सीढ़ियों या खाइयों की निर्मिति के बाद ही की जा सकती है। सीमा पट्टियों की निर्मिति के लिए ज़मीन का समान रूप से श्रेणीकरण किया जाना आवश्यक है, ताकि जल अनुप्रयोग की उच्च कुशलता प्राप्त की जा सके। सिंचाई के दौरान मेड़ों की मरम्मत और पर्यवेक्षण आवश्यक होता है।
3.1.6 कुंड पद्धति (Furrow method)
पंक्ति फसलों में, दो फसल मेड़ों के बीच कुंड़ बनाये जाते हैं। पानी का अनुप्रयोग कुंडों में किया जाता है, और मेड़ों को सीधे गीला नहीं किया जाता। जब भूमि का समतल तीन प्रतिशत तक सौम्य ढ़लवां होता है, तब कुंड ढ़लान के निकट बनाये जा सकते हैं। जब ढ़लान तीन प्रतिशत से अधिक हो, और यह 15 प्रतिशत तक हो, तो कुंड श्रेणीकृत समोच्च पर बनाये जाते हैं। एकसमान अनुप्रयोग और उच्च क्षमता प्राप्त करने के लिए जल वितरण को अच्छी तरह से नियंत्रित किया जा सकता है। मृदा प्रकार, ढ़लान और अनुप्रयोग किये जाने वाले पानी की मात्रा के अनुसार कुंडों की लंबाई परिवर्तित हो सकती है। कुंडों की गहराई ऐसी होनी चाहिए कि मिट्टी के अंदर से पानी का प्रवाह पौधों के जड क्षेत्र में क्षैतिज हो।
3.2 उप-मृदा या उपतलीय सिंचाई पद्धति (Sub-surface Irrigation System)
उप मृदा सिंचाई पद्धति में, पानी का अनुप्रयोग खेत की अभेद्य परत में गहराई में खोदे गए गड्ढों की श्रृंखला में किया जाता है। यह पानी केशिकाओं के माध्यम पाषि्र्वक प्रवाहित होता है और फिर ऊर्ध्वाधर प्रवाहित होता है और पौधों के जड़ क्षेत्र को संतृप्त कर देता है। इस प्रकार से फसल के जड़ क्षेत्र में अभेद्य परत पर बनाये गए इस कृत्रिम सिंचाई पानी द्वारा निर्मित जलस्तर से निरंतर आर्द्रता की आपूर्ति सुनिश्चित की जाती है।
कृत्रिम उप-सिंचाई पद्धति में, जड़ क्षेत्र के निकट भूतल के नीचे छिद्रदार पाइप बिछाए जाते हैं, और इन पाइपों के माध्यम से दबाव के साथ पानी प्रवाहित किया जाता है दो मीटर या उससे भी अधिक गहराई पर उच्चस्तरीय भेद्य चिकनी बलुई मिट्टी या सतही रेतीली चिकनी बलुई मिट्टी, एकसमान स्थलाकृतिक परिस्थितियों में और सौम्य ढ़लान पर इस प्रकार की सिंचाई काफी उपयोगी होती है। इन परिस्थितियों के तहत क्षार जमा होने से रोकने के लिए या अतिरिक्त जल जमाव को रोकने के लिए जल के उपयुक्त नियंत्रण का परिणाम अक्सर जल के मितव्ययी उपयोग, उच्च फसल उत्पादन और सिंचाई की कम श्रम लागत में होता है।
3.3 फव्वारा या उपरि सिंचाई पद्धति (Sprinkler System)
इस पद्धति में जल का अनुप्रयोग किसी भी फसल या मृदा पर ऊपर से किये गए एक छिड़काव के रूप में किया जाता है। एक आम फव्वारा पद्धति में पानी को खींचने और दबाव के साथ प्रवाहित करने के लिए एक पंप होता है, जल को वितरित करने के लिए पाइप या ट्यूब होते हैं, और इनके सिरों पर फव्वारा या नोज़ल बने होते हैं जिन्हें पाइप से जोड़ने के लिए उठाव बने होते हैं। जिस उपकरण की सहायता से फव्वारा किया जाता है उसके आधार पर फवारा पद्धति को घूमते हुए सिरे वाले फवारे और छिद्रदार फवारे में वर्गीकृत किया जा सकता है। उपकरण के स्थानांतरण के आधार पर भी फवारा पद्धति का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है, (1) वहनीय, (2) अर्ध वहनीय और (3) स्थिर या स्थायी। स्वचालित फवारा पद्धतियाँ भी होती हैं जो केंद्रीय धुरी के आसपास क्षैतिज या ऊर्ध्वाधर रूप से घूमती हैं। इस प्रकार की वहनीय पद्धति दो से तीन हेक्टेयर से लेकर पचास से साठ हेक्टेयर तक के क्षेत्र की सिंचाई की जा सकती है।
एरोसोलिक पद्धति में पोषक तत्वों का नियमित रूप से पौधों की पत्तियों पर छिड़काव किया जाता है। धुंध कक्षों में फीटोट्रॉन और राइज़ोत्रोन सिंचाई एयरोसोल बूंदों के रूप में छिडकाव द्वारा प्रदान की जाती है।
यह पद्धति इसलिए काफी उपयोगी है क्योंकि पानी का अनुप्रयोग नियंत्रित दर से और उच्च क्षमता के साथ समान वितरण सुनिश्चित किया जाता है। यह पद्धति लगभग सभी प्रकार की फसलों के लिए उपयोगी है और विशेष रूप से नकद फसलों और कुछ फलोद्यान फसलों और सभी प्रकार की रोपवाटिकाओं के मामले में तो काफी लोकप्रिय है। यह पद्धति विशेष रूप से असमान स्थलाकृति वाली उथली रेतीली मिट्टी के लिए अत्यंत उपयोगी है जहां समतलीकरण संभव नहीं है, और ऐसे क्षेत्रों के लिए भी जहां पानी और श्रमिक कम हैं। लवणता की समस्या वाली कुछ मृदाओं के लिए लवणों को मिट्टी से अधिक प्रभावी ढ़ंग से धोने के लिए और पौधों के निकलने और शीघ्र और बेहतर संवृद्धि के लिए इस पद्धति की अनुशंसा की जाती है। इस पद्धति को अपनाकर कीटनाशकों का उपयोग भी सफलतापूर्वक किया गया है। फव्वारा पद्धति का उपयोग उच्च तापमान के दौरान पौधों को ठंड़ा रखने के लिए और हिमांक तापमान में तुषार को नियंत्रित करने के लिए भी किया जाता है।
शीतोष्ण और आर्द्र जलवायु में फव्वारे से होने वाली वाष्पीकरण हानि लगभग उतनी ही होती है जितनी सतही सिंचाई के खुले पानी में होती है य परंतु गर्म और शुष्क जलवायु में गर्मी के महीनों में वाष्पीकरण हानि अत्यधिक हो सकती है, और ऐसे समय केवल रात्रि सिंचाई की ही सलाह दी जाती है। कम चरम शुष्क स्थितियों में उच्च वर्षा और बडे़ आकार की बूंदों के साथ फवारे इस समस्या को हल कर सकते हैं, बशर्ते कि यह फसलों और मृदा द्वारा सहन किया जा सके।
3.4 टपक सिंचाई पद्धति (Drip Irrigation System)
इस सिंचाई पद्धति में जल का अनुप्रयोग फसल के जड़ क्षेत्र में अत्यंत धीमी गति से बूँद-बूँद करके किया जाता है।
इसके उपकरण में एक पंप करने की इकाई समाविष्ट होती है जो लगभग 2.5 किलोग्राम प्रति वर्ग सेंटीमीटर का दबाव निर्मित करने में सक्षम हो, पीवीसी ट्यूबों से बने पाइप हो सकते हैं, जिनमें टपकन प्रकार के नोज़ल लगे होते हैं, और पानी की अशुद्धियों को दूर करने के लिए एक निस्पंदन इकाई होती है। नोजल से टपकने वाले पानी को नोजल के दबाव में परिवर्तन करके या नोजल के छिद्रों के आकार में परिवर्तन करके आवश्यकतानुसार विनियमित किया जा सकता है। पानी को ऊपर निर्मित पाइपलाइन की सहायता से ऊपर उठाया और वितरित किया जा सकता है जो चुसनी से जुडे़ होते हैं ताकि पानी को आवश्यक स्थानों पर धीमी गति से टपकाया जा सके। या पानी को एक निश्चित ऊँचाई पर भी रखा जा सकता है जहां से वह पौधों के जड़ क्षेत्र में बिछाए गए छिद्रों में से जड़ों में टपक सके। जल आपूर्ति निरंतर भी हो सकती है और रुक-रुक कर भी की जा सकती है। इस पद्धति में पानी का उपयोग अत्यंत मितव्ययी ढ़ंग से किया जाता है, क्योंकि गहरे रिसाव और वाष्पीकरण से होने वाली हैं हानि न्यूनतम की जा सकती है। अतः यह प्रणाली शुष्क क्षेत्रों के लिए अत्यंत उपयुक्त है। टपक सिंचाई पद्धति की सहायता से लवण युक्त भूमि में भी फलोद्यानों की खेती सफलतापूर्वक की जा सकी है। इस पद्धति का उपयोग पौधों को द्रव रूप में उर्वरकों के अनुप्रयोग के लिए भी किया जा सकता है।
उपकरण की प्रारंभिक उच्च लागत व इसका नियमित रखरखाव इस पद्धति की मुख्य समस्याएं हैं। हालांकि यह फव्वारा पद्धति से सस्ती हो सकती है, विशेष रूप से फलोद्यानों के लिए और ऐसी फसलों के लिए जहां पौधों के बीच काफी अंतर होता है। गड्ढे या पौधे की जड़ के पास छिद्रयुक्त मटके भी गाड़ कर रखे जा सकते हैं। फिर इस मटके को पानी से भर दिया जाता है और इसके मुँह को अस्थायी तौर पर पक्का ढ़ँक कर बंद कर दिया जाता है। मटके से निकलने वाला पानी पौधों के जड़ क्षेत्र को सिंचित कर देता है। इस मटके को फिर से भर दिया जाता है। मटका सिंचाई शुष्क और अर्ध शुष्क क्षेत्रों में सिंचाई का सबसे महत्वपूर्ण और आसान तरीका है, जहां की मिटटी हलकी होती है और जहां पौधों के बीच अंतर काफी होता है वहां भी मटका सिंचाई काफी उपयोगी है जैसे कोहंडा और फलोद्यान। मौसमी खेती में तीन से पांच बार उसी मटके को स्थापित किया जा सकता है।
3.5 अन्य पद्धतियाँ
उपरोक्त पद्धतियों के अतिरिक्त सिंचाई की कुछ अन्य पद्धतियाँ भी प्रचलित हैं -
फर्टिगेशन (उर्वरक युक्त सिंचाई) : जब उर्वरकों को सिंचाई जल के साथ मिश्रित करके अनुप्रयुक्त किया जाता है, तो उसे फर्टिगेशन कहते हैं। जल कृषि में या हाइड्रोपोनिक या हाइपोनिक पोषक फसल की आवश्यकता के अनुरूप उचित मात्रा में पानी में घोले जाते हैं और फसल को इस पोषक युक्त पानी की आपूर्ति का धीमा प्रवाह प्रदान किया जाता है।
जैविक सिंचाईः पशुधन गृहों से एकत्रित किये गए तरल खाद को परिष्कृत किया जाता है और इसे अनेक प्रकार की फसलों को सिंचाई के रूप में प्रदान किया जाता है जैसे चारा फसलें।
मलजल से सिंचाईः निवासी क्षेत्रों या औद्योगिक क्षेत्रों से प्राप्त द्रव मलजल को विशेष रूप से प्रसंस्कृत किया जाता है, और सिंचाई से पहले इसे पतला किया जाता है। यह पद्धति न केवल प्रदूषण के खतरे को कम करती है, बल्कि जैविक अपशिष्ट और पानी के पुनःचक्रीकरण में भी सहायक होकर इसे उपयोगी संपत्ति में परिवर्तित कर देती है।
4.0 भारत के जल संसाधन
जल हमारा सबसे बहुमूल्य संसाधन है। हालांकि यह सीमित और असमान रूप से वितरित है। जनसंख्या, औद्योगीकरण और शहरीकरण की तेज गति से वृद्धि के साथ पानी की मांग बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है। जल संसाधन मंत्रालय जल संसाधनों के विकास, विनियमन और न्यायोचित उपयोग के लिए नीतियां और कार्यक्रम निर्धारित करता है। देश की वार्षिक औसत जल उपलब्धता 1869 बिलियन घन मीटर अनुमानित की गई है। इसमें से कुल उपयोगक्षम जल संसाधन अनुमानित 1123 बिलियन घन मीटर है, सतही जल 690 बिलियन घन मीटर अनुमानित है, जबकि भूजल 433 बिलियन घन मीटर अनुमानित है।
नहरेंः भारत में नहरें सबसे महत्वपूर्ण प्राचीन सिंचाई स्रोत रही हैं। हालांकि नहरों से सिंचाई भारत के केवल वृहद मैदानों (पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और बंगाल) और भारत के उर्वरक मैदानों (आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, ओडिशा और तमिलनाडु) तक ही सीमित है। बड़ी दोआब नहर, भाखडा नहर, इंदिरा गांधी नहर, पूर्वी और पश्चिमी यमुना नहर, गंगा नहर, आगरा और शारदा नहरें भारत की कुछ महत्वपूर्ण सिंचाई प्रणालियां हैं। नहर सिंचाई ने इंदिरा गांधी नहर क्षेत्र के थार के रेगिस्तान के कुछ क्षेत्रों को उर्वरक हरित क्षेत्रों में परिवर्तित कर दिया है।
4.1 नहर सिंचाई के गुण
- नहरें सिंचाई का बारामासी स्रोत होती हैं
- नहरें सिंचाई का सस्ता स्रोत होती हैं
- नहरें अपने साथ अनेक तलछटों को प्रवाहित करके लाती हैं जो सिंचित खेतों की उर्वरकता को समृद्ध करती हैं
- नहरें कृषि को धारणीय बनाती हैं
- वर्षा के मौसम में नहरें बाढ को नियंत्रित करने में सहायता प्रदान करती हैं।
4.2 नहर सिंचाई के दोष
- नहर के पानी का अत्यधिक उपयोग, और अक्सर दुरूपयोग किया जाता है
- अत्यधिक सिंचाई का परिणाम जल जमाव में होता है
- अत्यधिक सिंचाई का परिणाम भूमिगत जल स्तर की वृद्धि में होता है
- वर्षा के मौसम में अनेक नहरें क्षमता से अधिक ऊपर से प्रवाहित होती हैं
- नहर सिंचाई केवल मैदानी क्षेत्रों में ही संभव है
- जल जमाव के क्षेत्र मच्छरों के प्रजनन स्थल बन जाते हैं
- अर्ध शुष्क क्षेत्र में नहर सिंचाई का परिणाम ऊसर की निर्मिति में होता है।
5.0 कुँए और नलकूप
कुँए और नलकूप देश के सर्वाधिक फसल क्षेत्र को सिंचित करते हैं। कुल सिंचित क्षेत्र का लगभग 54 प्रतिशत क्षेत्र कुओं और नलकूपों द्वारा सिंचाई क्षेत्र के तहत आता है। नलकूप सिंचाई भारत के उत्तरी मैदानों में अत्यधिक विकसित हुई है। लगभग 95 प्रतिशत नलकूप उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, बिहार, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में स्थित हैं।
5.1 नलकूप सिंचाई के गुण
- नलकूप अत्यधिक कम समय में स्थापित किये जा सघ्क्ते हैं
- सरकार और कृषकों द्वारा नलकूप अत्यंत सुविधाजनक स्थानों पर स्थापित किये जा सकते हैं
- नलकूप काफी कम लागत पर स्थापित किये जा सकते हैं
- नलकूप सिंचाई का एक स्वतंत्र स्रोत हैं
- नलकूपों का उपयोग आवश्यकता के अनुरूप कभी भी किया जा सकता है
- नलकूप के पानी में अनेक प्रकार के खनिज और लवण उपस्थित होते हैं (जैसे नाइट्रेट, सल्फेट इत्यादि) जो मृदा की उर्वरकता में वृद्धि करते हैं।
5.2 नलकूप सिंचाई के दोष
- नलकूपों से केवल सीमित क्षेत्र की ही जा सकती है
- भूमिगत जल स्तर कम होता जाता है, विशेष रूप से गर्मी के मौसम में
- मानसून असफल हो जाने से भूमिगत जल स्तर गिर जाता है, और फसलों की सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध नहीं हो पाता
- चूंकि नलकूपों और पंपिंग सेट का परिचालन बिजली और डीजल द्वारा किया जाता है, अतः इसे सिंचाई का एक महंगा साधन माना जाता है ।
तालाब द्वारा सिंचाई सामान्यतः दक्खन के पठार के पूर्वी क्षेत्र में अपनायी जाती है, जहां की स्थलाकृति छोटी उपनदियों पर बांध निर्मित करने और कृत्रिम तालाबों में पानी संग्रहित करने की दृष्टि से उपयुक्त है।
तमिलनाडु के चेंगलपट्टु, उत्तरी आर्कोट, दक्षिणी आर्कोट जिलों, और आंध्र प्रदेश के नेल्लोर और वारंगल जिलों में तालाब बड़ी संख्या में पाये जाते हैं। जिन अन्य राज्यों में तालाब थोडे कम स्तर पर प्रचलित हैं वे हैं ओडिशा, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र।
6.1 सिंचाई क्षमता
धारणीय और व्यवस्थित विकास के साथ भारत की सिंचाई क्षमता 1951 की 22.6 मिलियन हेक्टेयर से 2010 में बढ़ कर 87.8 मिलियन हेक्टेयर हो गई है। अप्रैल 1978 से सिंचाई परियोजनाओं का वर्गीकरण उनके सिंचन क्षेत्र के आधार पर किया जाने लगा हैः
प्रधान परियोजनाएंः 10,000 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र
मध्यम परियोजनाएंः 2,000-10,000 हेक्टेयर क्षेत्र
लघु परियोजनाएंः 2,000 हेक्टेयर से कम क्षेत्र
लघु सिंचाई परियोजनाएं बडे़ पैमाने पर फैली हुई हैं, कृषकों को सिंचाई का तत्काल और विश्वसनीय स्रोत प्रदान करती हैं। भूमिगत जल विकास जो लघु सिंचाई कार्यक्रमों का प्रमुख साधन है, इसका क्रियान्वयन मूल रूप से व्यक्तिगत और सहकारी प्रयासों के माध्यम से किया जाता है। विश्व बंक द्वारा किये गए हाल के एक अध्ययन के अनुसार भारत की सिंचित कृषि भूमि के 40 मिलियन हेक्टेयर का लगभग 20 प्रतिशत भाग जल जमाव और लवणता की समस्याओं से ग्रस्त है, जिन्होंने फसलों के उत्पादन को काफी कम कर दिया है।
विद्यमान पद्धतियों के एकत्रीकरण के साथ-साथ सिंचाई सुविधाओं का विस्तार सिंचाई लाभों के धारणीय और व्यवस्थित विकास के साथ खाद्यान्नों के उत्पादन में वृद्धि की रणनीति का प्रमुख भाग रहा है। प्रधान, मध्यम और लघु सिंचाई परियोजनाओं के माध्यम से सिंचाई क्षमता में 1951 के 22.6 मिलियन हेक्टेयर से दसवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक 103 मिलियन हेक्टेयर तक की वृद्धि संभव हुई है।
7.0 प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाय)
यह क्या है
भारतीय कृषि निरंतर विभिन्न बाधाओं का सामना करती रहती है। इसमें से एक प्रमुख बाधा है सिंचाई से संबंधित समस्या, जो अनिवार्य रूप से वृद्धि और विकास को बाधित करती है। वर्तमान में देश की आधे से अधिक कृषि भूमि सिंचाई सुविधाओं से वंचित है, और कृषक धान (चावल), दालों, तेल बीजों और कपास जैसी खरीफ की फसलों के लिए जून से सितंबर के दौरान होने वाली दक्षिण-पश्चिम मॉनसूनी वर्षा पर निर्भर रहते हैं।
कृषि की वर्षा/मानसून पर निर्भरता से निपटने के लिए प्रधानमंत्री श्री मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने जुलाई 2015 में प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना का अनुमोदन किया। 2015-2020 की अवधि के लिए इस योजना के लिए 50,000 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया गया है। राज्यों द्वारा किया जाने वाला योगदान इस राशि के अतिरिक्त होगा। इस योजना के अतिरिक्त मंत्रिमंडल ने इलेक्ट्रॉनिक मंच के माध्यम से एक राष्ट्रीय कृषि बाजार के निर्माण का भी अनुमोदन किया है ताकि किसानों और व्यापारियों को पारदर्शितापूर्वक कृषि उत्पादों के क्रय-विक्रय के अवसरों तक पहुँच प्रदान की जा सके।
प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाय) का लक्ष्य पूर्व से चली आ रही योजनाओं का समामेलन करना है। ये निम्नानुसार हैं -
- जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा कायाकल्प मंत्रालय का त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (एआईबीपी)
- ग्रामीण विकास मंत्रालय के अंतर्गत भू-संसाधन विभाग का एकीकृत जल संभर प्रबंधन कार्यक्रम
- कृषि एवं सहकारिता विभाग के राष्ट्रीय धारणीय कृषि मिशन का घटक खेत पर जल प्रबंधन।
पीएमकेएसवाय पांच वर्षों के लिए कुल 50,000 करोड़ रुपये के परिव्यय और वर्ष 2015-16 के 5300 करोड़ रुपये के परिव्यय के साथ संपूर्ण देश में क्रियान्वयन के लिए अनुमोदित की गई है। केंद्रीय सहायता अगले पांच वर्षों में विभिन्न वर्षों के दौरान राज्यों द्वारा किये गए उपयोग पर आधारित होगी। यदि आवश्यक हुआ तो राज्य सरकारों की आवश्यकताओं की पूर्ति के इस योजना के कुल परिव्यय में वृद्धि भी की जाएगी ताकि हर खेत को पानी प्रदान करने और प्रति बूंद अधिक फसल के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सके।
यह योजना परिशुद्धता-सिंचाई प्रौद्योगिकियों का संवर्धन करेगी, जलभृतों के पुनर्भरण को बढाएगी और धारणीय जल संरक्षण पद्धतियां शुरू करेगी। जब मई 2014 में जब मोदी सरकार सत्ता में आई तो ऐसी आशा की गई थी त्वरित बदलाव होगा। दुर्भाग्यवश वरुण देवता ने आशानुकूल आशीर्वाद वर्षा नहीं की। एक वर्ष पूर्ण होने पर यह सरकार की उपलब्धियों की सूची थी जिसे तुरंत जांचना और बढ़ाना (पीएमकेएसवाय के माध्यम से) आवश्यक था ताकि अनेक कारणों के संयोजन के कारण ग्रामीण संकट की बढ़ती आग की लपटों पर काबू पाया जा सके।
समस्या और अधिक क्यों बिगडी
वर्तमान में अधिकांश भारतीय किसान अपनी ग्रीष्मकालीन फसलों के लिए वार्षिक मानसून पर निर्भर रहते हैं, और वह भी तब जब उचित मूल्य की खोज में रूकावट बनने वाली बाजार की दृढताओं के कारण वे अपने उत्पादन का उचित मूल्य प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं। देश में कोई राष्ट्रीय बाजार नहीं है और संपूर्ण देश में फसलों के उचित मूल्यों का एक बडा हिस्सा मंडियों में कार्यरत बिचौलियों को चला जाता है।
अनेक कारकों के संयोजन - कृषि क्षेत्र में निवेश को नजरअंदाज करना, पिछले दो वर्षों से जारी सूखा सदृश स्थिति, बाद में हुई बेमौसम वर्षा, वैश्विक वस्तु अति चक्र का अंत और विकास कार्यक्रमों में कटौती, ने भारत में एक ग्रामीण संकट की स्थिति निर्मित कर दी थी।
नीति आयोग और एनआईएईपीआर (राष्ट्रीय कृषि अर्थशास्त्र एवं नीति अनुसंधान संस्थान) के विशेषज्ञों को लगता है कि सिंचाई परियोजनाओं पर निधियन में वृद्धि करने का निर्णय काफी हद तक फसल उत्पादकता को बढाएगा और कृषि क्षेत्र में वृद्धि को पुनर्जीवित करेगा जो तेजी से गिर रही है। हमें याद रखना होगा कि वर्ष 2013-14 में खाद्यान्नों का रिकॉर्ड 26.5 करोड़ मैट्रिक टन और 1.925 करोड़ मैट्रिक टन दालों का उत्पादन हुआ था, और बाद में वर्ष 2014-15 में यह घटकर क्रमशः 25.2 करोड़ मैट्रिक टन और 1.715 करोड़ मैट्रिक टन रह गया था। भारत जैसे जनसांख्यिकीय प्रालेख के लिए यह निराशाजनक समाचार है।
वर्तमान अनुमानों के अनुसार, भारत की 14.2 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि में से केवल लगभग 45 प्रतिशत के पास किसी प्रकार की कृत्रिम सिंचाई सुविधा उपलब्ध है। शेष कृषि भूमि अपनी पानी की आवश्यकताओं के लिए पूरी तरह से वर्षा पर निर्भर है। वर्षा में हुई कोई भी देरी, या एक असफल दौर किसानों के लिए संकट पैदा कर देता है, और उसके परिणामस्वरूप फसल में आई कमी बाद में लोगों के लिए चिंता का कारण बन जाता है। सरकार को आशा है कि शुरू में पहले वर्ष के दौरान ही अतिरिक्त 6 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि को सिंचाई के तहत लाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, इसके परिणामस्वरूप 5 लाख हेक्टेयर भूमि को टपक सिंचाई का लाभ प्राप्त होगा। सूक्ष्म सिंचाई परियोजनाएं (“हर खेत को पानी“) और अंत-से अंत सिंचाई समाधान इस योजना का प्रमुख केंद्र बिंदु होगा।
यह योजना उन विभिन्न सिंचाई परियोजनाओं की भी जिम्मेदारी लेगी जो पिछली सरकारों द्वारा पर्याप्त निधि उपलब्ध होने के बावजूद खराब ढंग से क्रियान्वित की गई थीं। इन परियोजनाओं में कडे गुणवत्ता दिशानिर्देशों के आधार पर सुधार किया जायेगा। वे लगभग 1300 जलसंग्रहण परियोजनाएं जो आधार में लटकी रही हैं, वे अब पूरी की जाएँगी।
पीएमकेएसवाय के उद्देश्य
भारत मूल रूप से एक कृषि अर्थव्यवस्था है, जिसकी 60 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है। साथ ही भारत अनेक फसलों का शीर्ष उत्पादक और प्रमुख निर्यातक भी है। हमारी कृषि योग्य भूमि का प्रतिशत विश्व की सर्वाधिक कृषि योग्य भूमियों में से एक है। पिछले दशकों में किये विभिन्न प्रयासों के बावजूद कृषि क्षेत्र का एक बडा प्रतिशत आज भी मानसून पर निर्भर है। और जब मानसून असफल होता है तो भारतीय किसान जीवनयापन की कठिनाइयों का सामना करते हैं।
पीएमकेएसवाय के मुख्य उद्देश्य निम्नानुसार हैं -
- जमीनी स्तर पर सिंचाई में निवेश के अभिसरण को प्राप्त करना
- सुनिश्चित सिंचाई के तहत फसल योग्य क्षेत्र का विस्तार करना
- पानी के अपव्यय को कम करने के लिए खेत पर पानी के उपयोग की कुशलता में सुधार करना
- परिशुद्धता-सिंचाई और अन्य जल संरक्षण प्रौद्योगिकियों के अंगीकरण में वृद्धि करना (प्रति बूँद अधिक फसल)
- जलभृतों के पुनर्भरण में वृद्धि करना और अर्ध-शहरी .षि के लिए शोधित नगरपालिका अपशिष्ट जल के पुनः उपयोग की व्यवहार्यता तलाशने के माध्यम से धारणीय जल संरक्षण पद्धतियों की शुरुआत करना, और
- परिशुद्धता-सिंचाई व्यवस्था में अधिक निजी निवेश को आकर्षित करना।
यह योजना जल के निर्माण/उपयोग/पुनर्चक्रण/संभावित पुनर्चक्रण में संलग्न मंत्रालयों/विभागों/अभिकरणों/संबंधित अनुसंधान एवं वित्तीय संस्थाओं को एक साझा मंच पर लाने के काम को भी लक्षित करती है ताकि संपूर्ण “जल चक्र“ का एक विस्तृत और सर्वांगीण दृष्टिकोण से विचार किया जा सके और सभी क्षेत्रों के लिए, अर्थात परिवारों, कृषि और उद्योगों के लिए उचित जल बजटिंग किया जा सके।
पीएमकेएसवाय के अंतर्गत कार्यक्रम
बेहतर प्रतिफल और प्रबंधन के लिए पीएमकेएसवाय अंतर्गत तीन मंत्रालयों द्वारा चलाये जाने वाले कार्यक्रमों का समामेलन किया जा रहा है। ये निम्नानुसार हैं-
- जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा कायाकल्प मंत्रालय का त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (एआईबीपी) यह मंत्रालय विपथन नहरों, खेत वाहिकाओं, जल विपथन/उद्वहन सिंचाई के निर्माण, जिसमें वर्ष 2015-16 के लिए आवंटित 2000 करोड़ रुपये के साथ जल वितरण प्रणालियों का विकास भी शामिल है, के अतिरिक्त त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (एआईबीपी) की पूर्व से जारी परियोजनाओं को पूर्ण करने के लिए विभिन्न उपाय करेगा।
- ग्रामीण विकास मंत्रालय के अंतर्गत भू-संसाधन विभाग का एकीकृत जल संभर प्रबंधन कार्यक्रम (आईडब्लूएमपी) ग्रामीण विकास मंत्रालय को एकीकृत जल संभर प्रबंधन कार्यक्रम (आईडब्लूएमपी) मुख्य रूप से वर्षा जल संरक्षण, खेत पोखर, जल संचयन संरचना, छोटे चक बांध और समोच्च मेंडबंदी का कार्य करना है। वर्ष 2015-16 दौरान ग्रामीण विकास मंत्रालय के भू-संसाधन विभाग को 1500 करोड़ रुपये की राशि का आवंटन किया गया है।
- कृषि एवं सहकारिता विभाग के राष्ट्रीय धारणीय कृषि मिशन का घटक खेत पर जल प्रबंधन कृषि मंत्रालय, कृषि एवं सहकारिता विभाग को वर्षा जल संरक्षण, अपवाह नियंत्रण संरचनाएं, जल संचयन संरचनाएं इत्यादि जैसी गतिविधियां करनी हैं, जिसमें भू-जलस्तर में वृद्धि के उपाय भी शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, कृषि एवं सहकारिता विभाग फसल विविधीकरण का संवर्धन करता है और प्रति बूँद अधिक फसल के लिए जल बजटिंग भी सुनिश्चित करता है। किसानों की आय में वृद्धि करने के लिए फसल विकास, खेत वनीकरण, चरागाह विकास और अन्य जीवनयापन सहायता हस्तक्षेप भी किये जायेंगे। जल उपयोग कुशलता में सुधार के लिए और कृषि खेतों के लिए सिंचाई सुनिश्चित करने के लिए (हर खेत को पानी) सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों (टपक, फव्वारा और वर्षा बंदूक इत्यादि) के तहत अधिक बडे क्षेत्र का संवर्धन किया जायेगा। वर्ष 2015-16 के दौरान इस प्रयोजन के लिए 1800 करोड़ रुपये की धनराशि आवंटित की गई है।
जिला सिंचाई योजनाएं बनाते समय संसद सदस्यों और विधायकों के सुझावों पर भी विचार किया जाना चाहिए और इन सुझावों हो जिला सिंचाई योजनाओं में शामिल किया जाना है। इन्हें सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाएगी।
पीएमकेएसवाय के अंतर्गत वर्ष 2015-16 के लिए लक्षित क्षेत्र और उसका विश्लेषण
वर्ष 2015-16 के लिए 5300 करोड़ रुपये की धनराशि आवंटित की गई थी। इसके अंतर्गत निम्न प्रदान करना परिलक्षित किया गया था
लगभग 13.4 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को सिंचाई जल उपलब्ध कराना, जिसमें निम्न शामिल थे
- एआईबीपी के अंतर्गत 1.2 लाख हेक्टेयर
- सतही लघु सिंचाई के माध्यम से 0.3 लाख हेक्टेयर क्षेत्र
- सिंचन क्षेत्र विकास जल प्रबंधन के अंतर्गत 2 लाख हेक्टेयर क्षेत्र
- भू-जल के माध्यम से 0.3 लाख हेक्टेयर क्षेत्र
- जल निकायों की मरम्मत नवीकरण अनुसमर्थन के माध्यम से 0.2 लाख हेक्टेयर क्षेत्र
- सूक्ष्म सिंचाई के अंतर्गत 5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र, और
- एकीकृत जलग्रहण प्रबंधन कार्यक्रम के अंतर्गत 4.4 लाख हेक्टेयर क्षेत्र
कार्यक्रम के एकीकरण और प्रभावी क्रियान्वयन के लिए व्यवस्था तंत्र
- पीएमकेएसवाय का क्रियान्वयन क्रियान्वयन की परियोजना-वार से किया जाना है।
- कार्यक्रम वास्तुशिल्प को ’विकेन्द्रीकृत राज्य स्तरीय नियोजन एवं परियोजना-वार क्रियान्वयन’ संरचना अपनानी है जो राज्यों को जिला सिंचाई योजना के आधार पर अपनी स्वयं की सिंचाई विकास योजनाएं बनाने की स्वतंत्रता प्रदान करती है।
- जिला मजिस्ट्रेट की अध्यक्षता में एक समिति गठित की जानी है जिसमें वन अधिकारी, अग्रणी बैंक अधिकारी इत्यादि सहित संबंधित विभागों के सदस्य शामिल होंगे। इस समिति को जिला सिंचाई योजना को अंतिम रूप देने का अधिकार होगा।
- उसी तरह, राज्य सिंचाई योजना व्यापक राज्य सिंचाई योजना के माध्यम से पेय जल और स्वच्छता, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी इत्यादि के अनुप्रयोग सहित सभी जल क्षेत्र की गतिविधियों के लिए एक परिचालनात्मक मंच के लिए जिला सिंचाई योजनाओं का समामेलन होगी।
- राज्य स्तरीय स्वीकृति समिति, जिसकी अध्यक्षता संबंधित राज्य के मुख्य सचिव करेंगे, को परियोजनाएं स्वीकृत करने और उनके क्रियान्वयन और निगरानी का अधिकार होगा।
- राष्ट्रीय कार्यकारी समिति नीति आयोग के उपाध्यक्ष की अध्यक्षता में गठित की जानी है जो कार्यक्रम क्रियान्वयन, संसाधनों के आवंटन, अंतर-मंत्रालय समन्वय, निगरानी और निष्पादन मूल्यांकन और प्रशासनिक मुद्दों को संबोधित करेगी।
- राष्ट्रीय स्तर पर कार्यक्रम का पर्यवेक्षण प्रधानमंत्री के तहत और सदस्यों के रूप में संबंधित मंत्रालयों के मंत्रियों के साथ एक अंतर-मंत्रालय राष्ट्रीय संचालन समिति द्वारा किया जायेगा।
- प्रभावी क्रियान्वयन और निगरानी इत्यादि के लिए पीएमकेएसवाय के दिशा निर्देश संबंधित मंत्रालयों/विभागों की सक्रिय सलाह के साथ बनाए गए हैं और ये दिशा निर्देश कृषि मंत्री के अनुमोदन के बाद जारी किये जायेंगे।
इस प्रकार, यदि कार्यक्रम सफल होता है तो यह जमीनी स्तर पर सिंचाई व्यवस्था के लिए निवेश आकर्षित करेगा, देश में .षि योग्य भूमि का विकास एवं विस्तार करेगा पानी के अपव्यय के न्यूनीकरण के लिए खेत जल के उपयोग को बढ़ाएगा और जल संरक्षण प्रौद्योगिकियों और परिशुद्धता सिंचाई के क्रियान्वयन के माध्यम से प्रति बूँद फसल को बढाएगा। यह मंत्रालयों, कार्यालयों, संगठनों, अनुसंधान एवं वित्तीय संस्थाओं को साथ लाएगा और उन्हें एक मंच के तहत पानी के निर्माण और पुनर्चक्रण में व्यस्त रखेगा ताकि जल चक्र के एक व्यापक दृष्टिकोण पर विचार किया जा सके। इसका लक्ष्य केवल सभी क्षेत्रों में इष्टतम जल बजटिंग के द्वार खोलना है।
प्रारंभिक प्रगति
परियोजनाओं की प्राथमिकता तय की जा चुकी थी। नीति आयोग और जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा कायाकल्प मंत्रालय ने संयुक्त रूप से 46 मुख्य और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं को वर्ष 2019-20 तक पूर्ण करने की प्राथमिकता तय की है। ये परियोजनाएं लगभग 20,000 करोड रुपये के केंद्रीय हिस्से के निवेश के साथ 18.62 लाख हेक्टेयर सिंचाई क्षमता का निर्माण करेंगी। इनमें से 23 परियोजनाएं वर्ष 2016-17 में पूर्ण करने का लक्ष्य रखा गया है जिसके लिए 7949 करोड रुपये की केंद्रीय हिस्सेदारी की आवश्यकता होगी ताकि 7.17 लाख हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता निर्मित की जा सके।
एनआरएससी ने पीएमकेएसवाय द्वारा प्रासंगिक परतों के एकीकरण पर एक पृष्ठ शुरू किया है।
इसे यहाँ देखा जा सकता है - http://bhuvan-staging.nrsc.gov.in/events2/forest/pmksy.php
ई-नाम
महत्वाकांक्षी पीएमकेएसवाय के अतिरिक्त राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक बाजार (ई-नाम) बडे पैमाने पर पुनःप्राप्ति में सहायता देगा। यह इलेक्ट्रॉनिक मंच संयोजकता और प्रतिस्पर्धा में वृद्धि और विभिन्न कृषि बाजारों में मूल्य विस्तार को कम करके गैर-मूल्य कारकों के माध्यम से किसानों के लिए बेहतर मूल्य सुनिश्चित करने का एक परोक्ष मार्ग होगा। ई-विपणन मंच का लक्ष्य होगा .षि विपणन में सुधार करना, बाजार तक पहुँच में सुधार करना और किसानों के लिए मूल्य खोज को पारदर्शी बनाना। यह मंच गोदाम आधारित विक्रय के माध्यम से किसानों की बाजारों तक पहुँच में भी वृद्धि करेगा और इस प्रकार यह किसान की उसके उत्पाद को मंडी (थोक बाजार) तक परिवहन की आवश्यकता को भी कम करेगा।
राष्ट्रीय साझा बाजार के संवर्धन के लिए केंद्रीय क्षेत्र कृषि-प्रौद्योगिकी अधोसंरचना कोष के माध्यम से 200 करोड़ रुपये के बजट के साथ गठित किया जायेगा। इसका लक्ष्य अगले तीन वर्षों के दौरान देश भर के 585 विनियमित थोक बाजारों को इलेक्ट्रॉनिक मंच पर लाना है। वर्ष 2015-16 में 250 बाजार ई-मंच के अंतर्गत आ जायेंगे, 200 और बाजार वर्ष 2016-17 में और शेष 135 बाजार 2017-18 में इसके अंतर्गत लाये जायेंगे। राष्ट्रीय ई-मंच के साथ एकीकरण के लिए राज्यों को ऐसे एकल लाइसेंस प्रदाय के माध्यम से विद्यमान बाजारों में सुधार करना है जो संपूर्ण राज्य में वैध होगा, साथ ही उन्हें एकल बिंदु बाजार शुल्क अधिरोपित करना है और मूल्य खोज के लिए इलेक्ट्रॉनिक नीलामी का प्रावधान करना है। सरकार को आशा है कि यह किसानों को बेहतर मूल्य प्रदान करेगा, कृषि आपूर्ति श्रृंखला में सुधार करेगा और अपव्यय में कमी करेगा।
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