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भारत में कृषि अनुवृत्तियां और न्यूनतम समर्थन मूल्य तंत्र भाग - 1
1.0 अनुवृत्तियां (Subsidies)
अनुवृत्ति किसी जरूरतमंद को प्रदान की गई सहायता को कहा जाता है, जो प्रत्यक्ष नकद भुगतान के रूप में भी हो सकती है या किसी मूल्य में कमी या कर में कटौती के रूप में भी प्रदान की जा सकती है। यदि भारत सरकार उर्वरक या बीज किसानों को रियायती दरों पर प्रदान करने का निर्णय लेती है तो यह फसल निविष्टियों में आर्थिक सहायता या अनुवृत्ति का उत्कृष्ट उदाहरण है।
यह किसी संस्था, व्यवसाय या क्षेत्र को प्रदान की जाने वाली एक प्रकार की वित्तीय सहायता है, जो किसी सरकारी नीति का संवर्धन करने के लिए प्रदान की जाती है। अनुवृत्तियां विभिन्न प्रकार की होती हैं, और इनकी रचना किसी अभिप्रेत प्रभाव का निर्माण करने के लिए की जाती है। विश्व व्यापार में कृषि अनुवृत्तियां एक महत्वपूर्ण मुद्दा हैं। विश्व व्यापार संगठन की चर्चा आमतौर पर इससे उठने वाले विभिन्न विवादित मुद्दों के इर्द-गिर्द केंद्रित होती है।
1.1 अनुवृत्तियों के लाभ
अनुवृत्तियों के निम्न लाभ हैंः
- अधिक उत्पादन/उपभोग को प्रेरित करना
- बाज़ार अपूर्णताओं का समायोजन करना जिसमें बाह्यताओं का अंतर्राष्ट्रीयकरण भी शामिल है
- सामाजिक नीति उद्देश्यों की प्राप्ति, जिसमें आय का पुनर्वितरण है।
1.2 भारत में अनुवृत्तियों के प्रकार
अनुवृत्तियों का आकलन अनुवृत्तियों से संबंधित एक मानक वर्गीकरण के आधार पर तीन वर्गों के किया जाता है
- सार्वजनिक वस्तुएं (Public goods)
- योग्यता वस्तुएं (Merit goods), और
- गैर योग्यता वस्तुएं (Non-merit goods)।
अनुवृत्तियों का परिणाम व्यक्तिगत उपभोक्ताओं को लाभों के विविध प्रकार से हस्तांतरण के रूप में होता हैः
- नकद अनुवृत्तियांः उपभोक्ताओं को खाद्य या उर्वरक उन मूल्यों पर प्रदान करना जो सरकार द्वारा खरीदे गए मूल्य से काफी कम हैं।
- ब्याज/ऋण अनुवृत्तियांः ये अनुवृत्तियां उन ऋणों से संबंधित हैं जो बाज़ार में प्रचलित दर से कम दर पर प्रदान किये जाते हैं। यह लघु उद्योगों या प्राथमिकता क्षेत्र के ऋणों के तहत व्यक्तियों को टैक्सी, ऑटो रिक्शा खरीदने, या किसी छोटे उद्यम की स्थापना के लिए या किन्ही उपकरणों की खरीद के लिए प्रदान किये जाते हैं।
- कर अनुवृत्तियांः ये चिकित्सा व्यय पर कर्ज की छूट, कर बकाया की वसूली को विलंबित करना इत्यादि के रूप में प्रदान की जा सकती हैं।
- वस्तु रूप में अनुवृत्तियांः सरकारी अस्पतालों के माध्यम से मुफ्त चिकित्सा सुविधाएं प्रदान करना, शारीरिक विकलांग व्यक्तियों को उपकरण प्रदान करना, इत्यादि।
- खरीद अनुवृत्तियांः इसका एक अच्छा उदाहरण है एक सुनिश्चित मूल्य पर खाद्यान्नों की खरीद जो प्रचलित बाजार मूल्य से अधिक है।
- विनियामक अनुवृत्तियांः उद्योगों को निविष्टियां प्रदान करने के उद्देश्य से सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा उत्पादित वस्तुओं के मूल्य लागत से कम पर निर्धारित करना या किसी अन्य वर्ग के उपभोक्ताओं को सहायता प्रदान करना। इसके उदाहरण हैं इस्पात, कोयले या उद्योगों को उपलब्ध अन्य खनिजों का निर्माण, किसानों को लागत से कम मूल्य पर बिजली प्रदान करना, इत्यादि।
योग्यता के आधार पर अनुवृत्तियां प्रदान करने और उन्हें जारी रखने के विषय में एक आम सहमति है, क्योंकि बहिर्भाव के रूप में इसके समाज को समग्र लाभ काफी अधिक है। हालांकि गैर योग्यता के अनुवृत्तियां प्रदान करने की तीव्र आलोचना हुई है क्योंकि उनके मामले में लाभ तो व्यक्ति का अकेले का होता है परंतु इसकी लागत समाज को वहन करनी पड़ती है। साथ ही, कई मामलों में तो लक्षित लाभार्थियों के बजाय लाभों का विनियोजन समृद्ध और संपन्न वर्ग द्वारा ही कर लिया जाता है। उदाहरणार्थ, ऐसा आरोप किया जाता है कि किसानों को सस्ती बिज़ली प्रदान करने ये लाभ आमतौर पर धनी और समृद्ध किसानों को ही मिलता है। उसी प्रकार खाद्यान्नों या अन्य आवश्यक वस्तुओं के सार्वजानिक वितरण की सामान्य योजना का लाभ संपन्न और आर्थिक रूप से समर्थ परिवार उठा सकते हैं।
आमतौर पर देश में दो प्रमुख अनुवृत्तियां है, ये हैं उर्वरक अनुवृत्ति और खाद्य अनुवृत्ति (fertiliser and food subsidy)। ये दोनों अनुवृत्तियां मिलकर कृषि अनुवृत्ति का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा बनाती हैं। इसके अतिरिक्त भारत में कृषि आय पर कर अधिरोपित नहीं किया जाता। आज के समय में मुद्दा उर्वरक अनुवृत्तियों के इर्द-गिर्द ही घूमता है। नीचे कुछ आंकडे़ दिए गए हैंः
2.0 न्यूनतम समर्थन मूल्य
नीति आयोग द्वारा किया गया एक हाल का अनुसंधान इंगित करता है कि भारतीय कृषि अनेक मुद्दों का सामना कर रही है। आयोग द्वारा चिन्हित पांच प्रमुख मुद्दे थेः (1) कृषि उत्पादकता, (2) किसानों के लिए लाभकारी मूल्य, (3) भूमि नीति, (4) कृषि से संबंधित संकट, और (5) पूर्वी राज्य जो कृषि की दृष्टि से शेष देश से पीछे रह गए हैं।
पहला, कृषि उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए अनिवार्य कदमों की एक श्रृंखला की आवश्यकता है। उत्पादकता में वृद्धि के लिए (1) पानी, बीजों, उर्वरकों और कीटनाशकों जैसी निविष्टियों की गुणवत्ता और उनके न्यायोचित उपयोग; (2) आधुनिक प्रौद्योगिकी के न्यायोचित और सुरक्षित दोहन, जिसमें बीजों का आ आनुवंशिक संशोधन भी शामिल है; और (3) फलों, सब्जियों, फूलों, मत्स्यपालन, पशुपालन और कुक्कुटपालन जैसी उच्च मूल्य वस्तुओं में परिवर्तन में प्रगति आवश्यक है।
दूसरा मुद्दा किसानों की लाभकारी मूल्य प्राप्त करने की आवश्यकता से संबंधित है। इस मुद्दे के दो पहलू हैं, एक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से संबंधित है और दूसरा अंतिम उपभोक्ता द्वारा भुगतान किये गए मूल्य में किसान के हिस्से से संबंधित है।
2.1 न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को समझना
भारत ने ब्रिटिशों से एक कृषि अर्थव्यवस्था विरासत में प्राप्त की जिसमें कृषि और उससे संबंधित क्षेत्र सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 75 प्रतिशत योगदान देते थे और साथ ही 80 प्रतिशत जनसंख्या को रोजगार प्रदान करते थे। 1960 के दशक के मध्य में अनुभव की गई खाद्य की कमी ने भारत को उसी कृषि नीति में सुधार के लिए प्रेरित किया और तदनुसार भारत ने अनेक महत्वपूर्ण नीतिगत सुधारों को अपनाया जिनका लक्ष्य था खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना।
कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए और कृषि फसल पद्धतियों को आधुनिक बनाने के लिए संस्थागत सुधारों की एक लंबी श्रृंखला शुरू की गई। इन सुधारों में भूमि सुधर, कृषि की प्रशासनिक व्यवस्थाओं में संरचनात्मक परिवर्तन, कृषि विस्तार योजनाएं, मूल्य समर्थन नीतियों की पहल, जिनमें प्रमुख कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की शुरुआत, नई प्रौद्योगिकियों की शुरुआत (जिन्हें प्रचलित रूप से हरित क्रांति कहा जाता है), कृषि अनुसंधान का सशक्तिकरण इत्यादि शामिल थे। 11 वीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के दौरान कृषि और उससे संबंधित क्षेत्रों में प्रति वर्ष 3.6 प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई।
रकबे के विस्तार में बाधाओं को देखते हुए दीर्घकालीन उत्पादन वृद्धि का प्रमुख स्रोत पैदावार में सुधार का रहा है। पिछली दो योजना अवधियों के, अर्थात 10 वीं योजना (2002-03 से 2006-07) और 11 वीं योजना (2007-08 से 2011-12) के दौरान विभिन्न फसलों के क्षेत्र और उत्पादन और पैदावार की औसत वार्षिक दरें चित्र में दी गई हैं। यह भारतीय कृषि के स्थूल परिदृश्य को दर्शाता है।
2.2 न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण
कृषि उत्पादों के मूल्य अंतर्निहित रूप से अस्थिर होते हैं, जिसके मूल रूप से तीन कारण हैं, (1) उनकी आपूर्ति में विविधता, (2) बाजार एकीकरण का अभाव और (3) सूचना विषमता।
किसी भी वर्ष में अच्छी फसल का परिणाम उस वर्ष के दौरान उस उत्पाद की कीमतों में हुई तीव्र गिरावट में होता है, जिसका अंततः प्रतिकूल प्रभाव उसकी भविष्य की आपूर्ति पर होगा क्योंकि किसान अगले/आने वाले वर्षों में उस उत्पाद के उत्पादन से पीछे हट जाते हैं। इसके कारण अगले वर्ष उस उत्पाद की आपूर्ति में कमी आएगी, अतः यह कमी उपभोक्ताओं के लिए बड़ी मूल्य वृद्धि के रूप में होगी।
इसका तर्क निम्नानुसार है -
X का बेहतरीन उत्पादन ⇒ मूल्य में गिरावट ⇒ किसान हतोत्साहित होते हैं ⇒ X का उत्पादन बंद कर देते हैं ⇒ X की आपूर्ति कम होती है ⇒ मूल्यों में वृद्धि होती है X बाजार में उपभोक्ता घबरा जाते हैं
इस पर काबू पाने के लिए प्रमुख कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रति वर्ष सरकार द्वारा निर्धारित किया जाता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य वह साधन है जो किसानों को बुवाई के मौसम से पहले गारंटी प्रदान करता है, कि इनकी आने वाली फसल के लिए एक उचित मूल्य की मात्रा निर्धारित है ताकि कृषि उत्पादों में अधिक निवेश और उत्पादन को प्रोत्साहन प्राप्त हो। न्यूनतम समर्थन मूल्य का स्वरुप सरकार द्वारा प्रदत्त एक न्यूनतम सुनिश्चित पर सुनिश्चित बाजार के रूप में है।
2.3 न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण कौन करता है?
न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की सिफारिशों पर किया जाता है। सीएसीपी एक सांविधिक निकाय है और यह अलग-अलग रिपोर्ट प्रस्तुत करता है, जिनमें खरीफ और रबी फसलों के मूल्यों की सिफारिशें की जाती हैं। इन रिपोर्ट्स पर विचार करने के बाद और राज्य सरकारों के विचार जानने के बाद, और साथ ही देश की समग्र मांग और आपूर्ति स्थिति को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार अंतिम निर्णय लेती है। गन्ने के मामले में, न्यूनतम समर्थन मूल्य को एक सांविधिक दर्जा प्रदान किया गया है, अतः घोषित मूल्य को सांविधिक न्यूनतम मूल्य कहा जाता है, जिसका नाम परिवर्तित करके इसे उचित लाभकारी मूल्य (एफआरपी) कहा जाने लगा। चीनी कारखानों पर यह सांविधिक बंधन है कि वे न्यूनतम घोषित मूल्य का भुगतान करें और इन मूल्यों से कम मूल्य पर किया गया समस्त क्रय या लेन-देन गैर-कानूनी माना जाता है। विभिन्न कृषि फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य, अर्थात, खाद्यान्न, तेल बीज, तन्तु फसलें, गन्ना और तंबाकू भारत सरकार द्वारा उनकी बुवाई के मौसम से पूर्व घोषित किये जाते हैं। इससे किसान को यह अनुमान लगाना संभव हो जाता है कि फसल के लिए सरकार द्वारा किस हद तक मूल्य बीमा आवरण प्रदान किया गया है।
सीएसीपी द्वारा की गई सिफारिश और अंततः सरकार द्वारा निर्धारण की वर्षवार विस्तृत तुलना व्याख्यान के अंत में दी गई तालिका में दी गई है। प्रक्रिया किस प्रकार काम करती है इसे समझने के लिये इसका संदर्भ अवश्य लें।
2.4 इसके अंतर्गत कितनी फसलें शामिल हैं?
आरंभ में न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत धान, चावल, गेहूं, ज्वार, बाजरा, मक्का, रागी, जौ, चने, तूअर, मूंग, उडद, गन्ने, मूंगफली, सोयाबीन, सूर्यमुखी बीज, सफेद सरसों बीज और सरसों, कपास, जूट और तंबाकू को शामिल किया गया था। वर्ष 1994-95 के बाद आयोग द्वारा पहले से ही शामिल किये गए खाद्यतेल बीजों के अतिरिक्त नाइजर बीज और तिल को भी सीएसीपी की न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना में शामिल किया गया। इसी तरह, वर्ष 2001-2002 के दौरान सरकार ने मसूर को शामिल करके आयोग की संदर्भ की शर्तों को बढा दिया। अब न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना में शामिल की गई फसलों की संख्या बढ़कर 25 (26) हो गई है।
2.5 वर्तमान न्यूनतम समर्थन मूल्य दरें क्या हैं?
यहाँ वर्तमान और ऐतिहासिक न्यूनतम समर्थन दरों की सूची दी गई है। तालिका के नीचे दी गई अनुक्रमणिका को अवश्य पढें।
2.6 न्यूनतम समर्थन मूल्य का तंत्र कितना व्यवहार्य है?
सरकार को विभिन्न कृषि जलवायु अंचलों में पैदा की जाने वाली बड़ी संख्या में फसलों, वर्तमान में 24, से संबंधित कारकों का अध्ययन करना पड़ता है, जिनके क्रियान्वयन में बहुविध और विविध संगठन संलग्न हैं।
समझा जा सकता है, कि एक फसल के लिए मुद्दों के कुछ विशिष्ट समुच्चय हो सकते हैं जो उनके प्रभावी क्रियान्वयन में समस्याएं पैदा करते होंगे, जो दूसरी फसलों से संबंधित मुद्दों से अलग हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक न्यूनतम समर्थन मूल्य वस्तु की अपनी विशिष्टताएं होंगी और इसके परिणामस्वरूप भिन्न-भिन्न किसान जो भिन्न-भिन्न .षि वस्तुओं का उत्पादन देश के भिन्न-भिन्न भागों में करते हैं, उनकी अवधारणाएं न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना की उपयोगिता या अनुपयुक्तता के संबंध में भिन्न-भिन्न होंगी। न्यूनतम समर्थन मूल्य के अध्ययन में शामिल विविध और जटिल मुद्दों का दस्तावेजीकरण करना काफी कष्टप्रद प्रक्रिया है।
नीति आयोग ने जब 2016 में रिपोर्ट प्रस्तुत की तो उसने कहा कि मूल्यांकन अध्ययन के उद्देश्य निम्नलिखित थेः
- सरकार द्वारा निर्धारित राष्ट्रव्यापी मूल्य समर्थन के उद्देश्यों के संदर्भ में भारत की मूल्य नीति की प्रभावशीलता का उत्खनन करना और विश्लेषण करना।
- एक पूर्वकथनीय और न्यायसंगत फसल मूल्य शासन के निर्माण पर न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रभाव।
- न्यूनतम समर्थन मूल्य के क्रियान्वयन और उसके कारणों में क्षेत्रीय और अंतर-फसल भिन्नताओं को चिन्हित करना।
- फसल प्रवृत्तियों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य के प्रभाव क अध्ययन और मूल्यांकन करना।
- दीर्घकालीन कृषि प्रतिस्पर्धात्मकता पर न्यूनतम समर्थन मूल्य के प्रभाव का मूल्यांकन करना।
- देशव्यापी आधार पर इष्टतम भूमि और जल उपयोग और धारणीयता पर न्यूनतम समर्थन मूल्य के प्रभाव का मूल्यांकन।
- इस बात का मूल्यांकन करना की सुधारित प्रौद्योगिकी, उचित निवेश और ग्रामीण अधोसंरचना को अपनाने में न्यूनतम समर्थन मूल्य सहायक हुआ है अथवा नहीं।
- अधिक प्रभावशाली न्यूनतम समर्थन मूल्य के निर्माण के लिए उपाय सुझाना।
साथ ही, निम्न तालिका कुछ महत्वपूर्ण फसलों का समग्र भार दर्शाती है।
2.7 न्यूनतम समर्थन मूल्य के संबंध में सिफारिशें
इसी रिपोर्ट ने कुछ सिफारिशें की थी जिनमें निम्न सिफारिशें भी शामिल थींः
- किसानों के बीच जागरूकता में वृद्धि करने की आवश्यकता है और सूचना सबसे अंतिम स्तर तक समय से प्रसारित की जानी चाहिए ताकि यह ज्ञान किसानों की सौदेबाजी की शक्ति में वृद्धि करेगा।
- न्यूनतम समर्थन मूल्य के भुगतान में विलंब का किसानों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिसमें सुधार करने की आवश्यकता है और समय से भुगतान सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
- नीति निर्माताओं की अपेक्षानुरूप न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषकना बुवाई के मौसम से काफी पहले की जानी चाहिए ताकि किसान अपनी फसल का नियोजन करने में सक्षम बन सकें।
- खरीद केंद्रों पर सुविधाओं में सुधार किये जाने चाहिए, जैसे किसानों को फसल सुखाने के लिए पर्याप्त स्थान, तोल कांटे, प्रसाधन गृह इत्यादि उपलब्ध किये जाने चाहिए। और अधिक गोदामों का निर्माण किया जाना चाहिए, और बेहतर भंडारण और अपव्यय में कमी करने के लिए इनका उचित रखरखाव किया जाना चाहिए।
- राज्य सरकारों के साथ अर्थपूर्ण चर्चा होनी चाहिए, जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य की गणना की पद्धतियों और इसके क्रियान्वयन तंत्र, दोनों पर चर्चा की जानी चाहिए।
- न्यूनतम समर्थन मूल्य के निर्धारण के लिए मानदंड वर्तमान वर्ष के आंकडें़ होने चाहिए और ये ऐतिहासिक लागतों के बजाय अधिक अर्थपूर्ण मानदंडों पर आधारित होने चाहिए।
3.0 उर्वरक अनुवृत्तियां/मुद्दे और समस्याएं
1967 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने मेक्सिको से 18000 टन संकरित गेहूं के बीजों का आयात किया था। इसका चमत्कारिक प्रभाव हुआ। उस वर्ष गेहूं की फसल इतनी अधिक हुई थी कि अनाज भंडारण सुविधाओं में रखने को जगह नहीं बची थी।
इन बीजों को अधिकतम उत्पादन के लिए रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता होती थी। चुनौती यह थी कि उर्वरक किसानों के लिए सस्ते किये जाएँ जिनके पास अपनी खाद्यान्नों, वस्त्रों और आवास जैसी बुनियादी आवश्यकताओं को खरीदने के लिए भी नकद पैसे का अभाव था। उस समय देश भर में फैले करोड़ों किसानों को नकद या कूपन प्रदान करना एक दुर्गम कार्य था, जिसके साथ भ्रष्टाचार की संभावना भी जुडी हुई थी, क्योंकि उस समय इंटरनेट या मोबाइल जैसी प्रौद्योगिकी भी उपलब्ध नहीं थी। अतः सरकार ने उर्वरक कंपनियों को अनुवृत्ति प्रदान की, जिन्होंने उत्पादन लागत से कम मूल्य पर, और सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य पर उर्वरक बेचने के लिए सहमति प्रदान की। उर्वरक अनुवृत्तियों की यह मूलभूत संकल्पना है।
उर्वरक विनिर्माता कंपनियां देश भर में जल्दी-जल्दी स्थापित हुईं। नागार्जुन उर्वरक और रासायनिक कंपनी भारत की सूचीबद्ध कंपनियों में सबसे अधिक लाभ प्राप्त करने वाली कंपनियों में से एक बनी।
आज भारत विश्व के सबसे बडे़ उर्वरक उत्पादक और उपभोक्ता देशों में से एक बन गया है। उर्वरकों का वर्तमान उत्पादन स्तर 16.5 मिलियन टन है। इनका उपभोग 26 मिलियन टन है।
भारत में उर्वरक अनुवृत्तियों की शुरुआत 1977 में हुई। उस समय की योजना अवधारण मूल्य सह अनुवृत्ति की थी, जहां अवधारण मूल्य स्थिर मूल्य है जो कंपनी की प्रदान किया जाता है। बाद में 2003 में डॉ. मनमोहन सिंह ने इस योजना में परिवर्तन कर के इसे नई मूल्य योजना कर दिया।
भारत में उर्वरक अनुवृत्तियों की व्यवस्था की मुख्य विशेषताएं निम्नानुसार हैंः
- मुद्दा यह है कि इन अनुवृत्तियों का कितना भाग किसानों की जेब में जा रहा है और कितना कंपनियों की जेब में। भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद द्वारा किये गए एक अनुसंधान के अनुसार किसानों को अनुवृत्तियों का औसत 67 प्रतिशत प्राप्त हो रहा है। इंबीं हुआ भाग मुख्य रूप से उर्वरक कंपनियों को जा रहा है।
- दूसरा एक मुद्दा यह है की इन अनुवृत्तियों का कितना भाग गरीब और जरूरतमंद किसानों को प्राप्त हो रहा है, और बड़े किसानों को इनमें से क्या प्राप्त हो रहा है। वही अनुसंधान बताता है कि अनुवृत्ति का 52 प्रतिशत भाग छोटे किसानों को प्राप्त हो रहा है।
- एक तीसरा प्रश्न यह है कि इन अनुवृत्तियों का कितना हिस्सा पूर्णतः विकसित क्षेत्रों को जा रहा है, और अपेक्षाकृत कम विकसित क्षेत्रों को कितना प्राप्त हो रहा है। अनुसंधान द्वारा यह निष्कर्ष निकाला गया है कि अनुवृत्तियों का 50 प्रतिशत से अधिक भाग केवल 5 राज्यों को प्राप्त हो रहा है।
- इन अनुवृत्तियों का उपयोग मुख्य रूप से चांवल, गेहूं, कपास और गन्ने जैसी फसलों पर ही केंद्रित है।
1991 में भारत के वित्त पर अनुवृत्तियों की लागत बहुत भारी पड़ने के साथ ही, मनमोहन सिंह (तत्कालीन वित्तमंत्री) ने इनके उन्मूलन का प्रयास शुरू किया। अधिकांश उर्वरक कंपनियों ने इस कार्यक्रम को बनाये रखने की पैरवी शुरू की। अनेक सांसदों ने भी अनुवृत्तियों को समाप्त करने का विरोध शुरू किया क्योंकि उन्हें इसके लिए किसानों का विद्रोह होने का डर था। उस समय सरकार ने यूरिया के अतिरिक्त अन्य उर्वरकों को अनुवृत्ति प्रदान की। बजट की कमी के कारण उन उर्वरकों पर अनुवृत्ति में या तो कटौती की गई है, या उसे समाप्त कर दिया है, परंतु फिर भी यूरिया पर अनुवृत्ति जारी है। इसका कारण यह है कि यूरिया विनिर्माताओं का एक मजबूत संगठन है, और किसान सबसे अधिक इसी उर्वरक पर निर्बर हैं, जिसने इसकी कीमत में वृद्धि के मुद्दे को एक गर्म राजनीतिक मुद्दा बना दिया है।
‘‘यही वह समय था जब उर्वरकों का असंतुलित उपयोग शुरू हुआ‘‘, यह कहना है भारतीय उर्वरक संघ उद्योग समूह के भूतपूर्व निदेशक श्री प्रताप नारायण का। ‘‘व्यापारिक हितों ने इसकी पैरवी की और व्यापारिक हितों की विजय हुई‘‘, यह कहना है वाशिंगटन स्थित एक विशेषज्ञ दल अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान के एशिया के निदेशक अशोक गांगुली का, जो उस समय नीति संबंधी विचार-विमर्श में सहयोगी थे। अंतिम क्षणों में किये गए एक समझौते के कारण यूरिया को छोड़ कर अन्य सभी उर्वरकों की अनुवृत्तियों का उन्मूलन हो गया। अधिक उत्पादन और उर्वरकों के अधिक उपयोग का परिणाम पर्यावरणीय अवनति में हो रहा है। एक व्यापार प्रकाशन इंडियन जर्नल ऑफ फर्टिलाइजर्स के अनुसार हरियाणा राज्य में वित्त वर्ष मार्च 2009 में किसानों द्वारा पोटैशियम की तुलना में नाइट्रोजन का उपयोग 32 गुना अधिक किया गया, यह 4 पर 1 के संस्तुत अनुपात से कहीं अधिक था। आंकडे़ दर्शाते हैं कि पंजाब राज्य में किसानों ने नाइट्रोजन का उत्पादन पोटैशियम की तुलना में 24 गुना अधिक किया।
‘‘इस प्रकार का अनुपात एक आपदा है‘‘, यह कहना है श्री गुलाटी का। ‘‘यह भारत को उस उत्पादन स्तर तक पहुंचने से रोक रहा है जिसकी इन संकरित बीजों द्वारा प्रदान करने की क्षमता है।‘‘
यह एक दुष्चक्र है। पिछले 10 से 15 वर्षों में मृदा कमजोर से कमजोर होती है। हमें वही उत्पादन प्राप्त करने के लिए अधिक यूरिया की आवश्यकता है। एक ही प्रकार की यूरिया के अत्यधिक उपयोग से मृदा का इतना अपक्षय हो रहा है कि कुछ फसलों में उत्पादन घट रहा है और आयात का स्तर बढ़ता जा रहा है। उसी प्रकार खाद्यान्नों की कीमतें भी बढ़ती जा रही हैं, जो पिछले वर्ष 19 प्रतिशत बढ़ीं। अब देश अपने अपेक्षाकृत गरीब पड़ोसियों, पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश की तुलना में कम प्रति हेक्टेयर चांवल का उत्पादन कर रहा है। चीन का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 6.5 टन है, पाकिस्तान का 3.5 टन है जबकि भारत का उत्पादन केवल 3.4 हेक्टेयर है।
अतिरिक्त उर्वरक खाद्य श्रृंखला में अपना मार्ग बनाते जा रहे हैं, जिसके कारण मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों, और कीटों को नुकसान हो रहा है, और जो मृदा की पारिस्थितिकी के संतुलन को बिगाड़ रहा है। अत्यधिक उर्वरकों का उपयोग भूमिगत जल और अन्य जल स्रोतों को भी प्रदूषित कर सकता है। ये सभी मिलकर प्रभावित पौधों, पशुओं और मनुष्यों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकते हैं। जो मनुष्य अत्यधिक उर्वरकों के उपयोग वाले खाद्यान्नों का सेवन करते हैं, उन्हें अनेक प्रकार की बीमारियां होने का खतरा बढ़ जाता है।
प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरणः प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल ने घोषणा की थी कि अप्रैल 2013 में भारत एक नई अनुवृत्ति योजना को लागू किया जायेगा, जिससे यह उम्मीद की जा रही है कि किसानों को पोषकों के बेहतर मिश्रण के उपयोग के लिए प्रोत्साहित करके मृदा के पोषकों की भरपाई की जाएगी। परंतु एक प्रमुख समझौते के तहत सरकार ने यूरिया पर पिछली अनुवृत्ति को वैसे ही बनाये रखा जिसका अर्थ यह था कि किसानों को इसके अत्यधिक उपयोग के लिए प्रोत्साहन जारी रहेगा।
4.0 कृषि अनुवृत्तियां और विश्व व्यापार संगठन
कृषि अनुवृत्ति एक ऐसा मुद्दा है जिसने इस बहुपक्षीय व्यापार निकाय की सदस्यता को इसकी निर्मिति के समय से ही विभाजित रखा है। विकसित देशों द्वारा अपने कृषकों को भारी मात्रा में प्रदान की जाने वाली अनुवृत्तियां अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को विकसित देशों के हितों के विरुद्ध विकृत करती रही हैं।
कृषि पर विश्व व्यापार संगठन के समझौते के तहत सदस्य देशों को धीरे-धीरे सभी प्रकार की कृषि अनुवृत्तियों को कम करना है और अंततः उन्हें समाप्त करना है।
विश्व व्यापार संगठन तीन प्रकार की कृषि अनुवृत्तियों को मान्यता देता है।
‘‘अंबर बक्सा‘‘ उपाय वे हैं जो व्यापार को सबसे गंभीर रूप से विकृत करते हैं। विकासशील देशों को इस प्रकार की अनुवृत्तियां उनके कुल कृषि उत्पादन मूल्य के 10 प्रतिशत तक प्रदान करने की अनुमति है। विकसित देशों को यही अनुमति 5 प्रतिशत तक की है।
दूसरे वर्ग की अनुवृत्तियां, जिसे ‘‘नीला बक्सा‘‘ कहा जाता है, अपेक्षाकृत कुछ कम विकृति निर्माण करने वाली मानी जाती हैं। विकासशील देशों के लिए उनके नीले बक्से के समर्थन के लिए 8 प्रतिशत की उच्च सीमा निर्धारित की गई है।
और अंत में, ‘‘हरित बक्सा‘‘ अनुवृत्तियां वे होती हैं जो व्यापार को किसी भी तरह से विकृत नहीं करती हैं। इन अनुवृत्तियों के लिए किसी भी प्रकार की सीमा या शर्तें निर्धारित नहीं की गई हैं। हरित बक्सा अनुवृत्तियों के उदाहरणों में कृषकों को प्रत्यक्ष आय सहायता प्रदान करना और पर्यावरण संरक्षण और क्षेत्रीय विकास की नीतियां शामिल हैं। अधिकांश विकसित देश कृषि अनुवृत्तियों के लिए हरित बक्सा अनुवृत्तियों की ओर मुड गए हैं, और इस प्रकार वे अपने देश के कृषकों को भारी मात्रा में सहायता भी प्रदान कर पा रहे हैं, और इस प्रक्रिया के दौरान विश्व व्यापार संगठन की प्रतिबद्धताओं का उल्लंघन भी नहीं कर रहे हैं।
भारत के हाल के खाद्य सुरक्षा कानून को, जो विश्व की सबसे बड़ी कुपोषित जनसंख्या को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने का प्रयास करता है, अमेरिका द्वारा विश्व व्यापार संगठन में चुनौती दी गई है, जबकि भारत की योजना अमेरिका द्वारा खाद्य अनुवृत्ति के रूप में प्रदान की जा रही लागत का एक अत्यंत छोटा भाग है। अंततः विश्व व्यापार संगठन को दिसंबर 2013 में हुए बाली चक्र के दौरान भारत के समक्ष झुकने, और उसे अनिश्चित शांति अनुच्छेद प्रदान करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
यह विकासशील देशों की तुलना में समृद्ध देशों को स्वीकृत उच्च अनुवृत्तियां और संरक्षण प्रदान करने के पुरातन नियमों के कारण हुआ है।
भारत ने विश्व व्यापार संगठन के नियमों से स्थायी अपवाद प्रदान किये जाने पर जोर दिया है, परंतु वह इसे प्राप्त करने में असफल रहा है। अंतिम मसौदे ने सिफारिश की कि चार वर्षों के अंदर एक स्थाई समाधान निकाला जाये। इसकी वजह से विश्व व्यापार संगठन दोहा वार्ता (बाली वार्ता दौर) लगभग टूट ही गया था, किंतु 2014 में भारत-अमेरिका के मध्य हुए अंतिम मिनिट समझौते ने इसे बचा लिया एवं प्रथम वृहद विश्व व्यापार संगठन-व्यापार सुविधा समझौते 2015 का मार्ग प्रशस्त किया।
4.1 कृषि अनुवृत्तियों की वैश्विक समस्या
कृषि अनुवृत्ति में सबसे बड़ी समस्या यह है कि आप जरूरतमंद और गैर जरूरतमंद के बीच अंतर नहीं कर सकते। अमेरिका में 90 प्रतिशत अनुवृत्ति का लाभ 25 प्रतिशत सबसे बडे कृषकों को ही प्राप्त होता है। यूरोपीय संघ, जापान और कनाडा में यह आंकड़ा 70 प्रतिशत है। अनुवृत्तियों के वास्तविक लाभों के विषय में विवाद एक वैश्विक मुद्दा है।
अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित जोसफ स्टिग्लिट्ज ने तर्क दिया है कि कृषि अनुवृत्तियों को कम करने का विश्व खाद्य मूल्यों की वृद्धि पर दीर्घकालीन प्रभाव पड़ता है, जो वास्तव में गरीबों के लिए ही हानिकारक है, कुपोषण इत्यादि में वृद्धि करता है। और इसका आर्थिक स्पष्टीकरण यह है कि यह मुक्त बाज़ार की स्थितियों को परिवर्तित करता है।
साथ ही अनुवृत्तियां व्यापार की शर्तों को नुकसान पहुंचाती हैं, और इस प्रकार किसी देश को तुलनात्मक लाभ के लाभ प्राप्त करने से वंचित करती हैं।
एक अन्य मुद्दा है अनुवृत्तियों द्वारा निर्मित अकुशलताओं का मुद्दा। शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण जैसे क्षेत्रों में अनुवृत्तियों का औचित्य इस आधार पर सिद्ध किया जा सकता है कि उनके लाभ तत्काल प्राप्तकर्ताओं से कहीं आगे विस्तारित हैं, और ये लाभ वर्तमान और भविष्य की जनसंख्या द्वारा समग्र रूप से साझा किये जाते हैं। हालांकि अन्य अनेक अनुवृत्तियों के लिए मामला इतन स्पष्ट नहीं है। विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में सरकार की गहन भागीदारी के कारण उठने वाली अनेक अनुवृत्तियां हैं जो अकुशलताओं को आश्रय प्रदान करती हैं या इनके वितरणात्मक प्रत्यायक शंकास्पद होते हैं। भारत में विशेष रूप से इस प्रकार की स्थिति देखी जा सकती है जहां प्रशासनिक प्रबंधन का भ्रष्टाचार पर पूर्ण नियंत्रण नहीं है।
अमेरिका और यूरोप किस प्रकार अपनी कृषि अनुवृत्तियों को छिपाते हैं विकसित देशों ने अपने व्यापार विकृति उपायों को अंबर बक्से से (जिसकी गणना सहायता की सकल गणना या एएमएस के रूप में की जाती है) हरित बक्से में स्थानांतरित कर दिया है। एएमएस में कमी की शर्तें लागू होती हैं जबकि हरित बक्सा विश्व व्यापार संगठन में कानूनी चुनौतियों से संरक्षित है। ‘‘चित्र शामिल कर लें‘‘ अनुवृत्तियों से प्रेरित पानी और बिजली जैसी दुर्लभ निविष्टियों के उप इष्टतम उपयोग पर कृषि अनुवृत्तियों के दबाव के प्रभाव और क्या अनुवृत्तियों का परिणाम व्यवस्थागत अकुशलताओं में होता है, जैसे मुद्दे भी हैं। अनुवृत्तियों का अपर्याप्त लक्ष्यीकरण भी बड़ी बहस का विषय है।
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