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भारत में फसलें एवं फसलों की पद्धतियां भाग - 1
1.0 मूलभूत अवधारणाएं और परिभाषाएँ
वैश्विक स्तर पर आधे से अधिक मानव जनसंख्या कृषि में संलग्न है जिसके अंतर्गत वह फसलें उगा रही है, फल, सब्जियों, फूलों की खेती कर रही है, और पशु पालन कर रही है। भारत में 60 प्रतिहत से अधिक लोग आज भी कृषि पर निर्भर हैं। अब हम कुछ मूलभूत अवधारणाओं और परिभाषाओं पर नजर डालेंगे। भारत की फसलों और फसल पद्धतियों का विस्तृत अध्ययन उसके बाद किया जायेगा।
हालांकि विश्व में 50,000 से भी अधिक पौधे और वनस्पतियां खाद्य हैं, फिर भी इनमें से कुछ सौ का ही अधिक मात्रा में उपभोग किया जाता है। विश्व की 90 प्रतिशत आहार ऊर्जा अंतर्ग्रहण केवल 15 फसलों से प्राप्त किया जाता है, जिसमें से दो-तिहाई योगदान केवल चावल, मक्का और गेहूं का है। ये खाद्यान्न 500 करोड़ से भी अधिक लोगों का मुख्य अनाज है, जिसमें से चावल का उपभोग विश्व की लगभग आधी जनसंख्या द्वारा किया जाता है।
1.1 तीन प्रकार की मानव गतिविधियाँ
मानव की आर्थिक गतिविधियाँ तीन प्रकार की होती हैं - प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक गतिविधियाँ। प्राथमिक गतिविधियाँ वे हैं जिनका संबंध प्राकृतिक संसाधनों के उत्खनन और उत्पादन से है, जैसे कृषि, मत्स्यपालन, बागवानी और एकत्रण। द्वितीयक गतिविधियों का संबंध इन संसाधनों के प्रसंस्करण से है, उदाहरणार्थ, कपड़ा बुनना, इस्पात का विनिर्माण या खाद्य प्रसंस्करण। तृतीयक गतिविधियाँ प्राथमिक और द्वितीयक गतिविधियों को सेवाएं प्रदान करती हैं, उदाहरणार्थ, बैंकिंग एवं बीमा, व्यापार और परिवहन, विज्ञापन और विपणन इत्यादि।
1.2 कृषि-योग्य भूमि (कृष्ट भूमि) (Arable land)
कोई भी भूक्षेत्र जिसपर अनुकूल मृदा स्थलाकृति और जलवायु के कारण फसलें उगाई जा सकती हैं वह कृषि-योग्य भूमि कही जाती है। इसकी जड है लैटिन शब्द एराबिलिस जिसका अर्थ है जुताई-योग्य। इस प्रकार से, खेत और चराई क्षेत्र भिन्न हैं। खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) कहता है कि “कृषि योग्य भूमि वह है जो अस्थाई कृषि फसलों के अंतर्गत है (बहु फसल क्षेत्रों की गणना केवल एक बार की गई है), कटाई या चरागाहों के लिए अस्थाई घास के मैदान, बाजार और शाक वाटिकाओं के तहत भूमि और अस्थाई रूप से (पांच वर्ष से कम समय के लिए) बंजर भूमि। स्थानांतरण कृषि के परिणामस्वरूप परित्यक्त भूमि इसमें शामिल नहीं है। “कृषि योग्य भूमि“ के लिए दिए गए आंकडे़ं संभावित कृषि योग्य भूमि की मात्रा को इंगित करने के लिए नहीं हैं।
1.3 कृषि भूमि (प्रतिशत भूक्षेत्र)
कृषि भूमि का संबंध उस भूक्षेत्र के हिस्से से है जो कृषि योग्य है, स्थाई रूप से फसलों के तहत रहता है, और स्थाई रूप से चारागाहों के तहत है। स्थाई फसलों के तहत भूमि वह भूमि है जिसपर वे फसलें उगाई जाती हैं जो काफी लंबा समय लेती हैं, और जिन्हें प्रत्येक फसल के बाद दुबारा पौधरोपण करने की आवश्यकता नहीं होती, जैसे कोको, कॉफी और रबर। इस श्रेणी में फूल झाड़ी, फल वृक्ष, अखरोट के वृक्ष और लताएं शामिल हैं परंतु इसमें लकडी या इमारती लकड़ी के लिए उपयोग किये जाने वाले वृक्ष शामिल नहीं हैं। स्थाई चारागाह वह भूमि होती है जो पांच या उससे अधिक वर्षों के लिए चारे के लिए उपयोग की जाती है, जिसमें प्राकृतिक और मनुष्य द्वारा ली गई फसलें भी शामिल हैं।
1.4 शब्दावलियाँ
कृषि - मृदा पर फसलें पैदा करने, उनका संवर्धन करने और पशुपालन की प्रक्रिया। कृषि को फार्मिंग या हस्बेंडरी भी कहा जाता है। सर्वाधिक व्यापक दृष्टि से हम कह सकते हैं कि “कृषि का अर्थ है खाद्य, तंतु, जैव ईंधन और मानव जीवन के लिए अन्य उत्पादों के लिए पौधों, पशुओं, कवक और अन्य जीव रूपों की पैदावार करना।“
बागवानी - वाणिज्यिक उपयोग के लिए बडे़ पैमाने पर सब्जियों, फूलों और फलों की खेती करना।
मत्स्यपालन - वाणिज्यिक विक्रय के लिए विशेष रूप से निर्मित की गई टंकियों और तालाबों में मछलियों का प्रजनन करना
रेशम उत्पादन - वस्त्रों के लिए रेशम की कटाई के लिए रेशम के कीडों का वाणिज्यिक पालन और संवर्धन
अंगुरात्पादन (अंगूर की खेती) - द्राक्षाक्षेत्र को सीधे विक्रय करने के लिए अंगूर की खेती
फसल बनाम खरपतवार - कृषि फसल वह पौध है जो मानवजाति के लिए उपयोगी है। यह एक कृषिशास्त्रीय फसल हो सकती है, बागवानी फसल हो सकती है या खाद्य या गैर-खाद्य फसल इत्यादि हो सकती है। खरपतवार वह पौध है जो जहाँ उगती है वहां उपयोगी नहीं होती।
खरीफ फसलें - भारत में यह फसल ग्रीष्म ऋतु की फसल या मानसून ऋतु की फसल होती है। दक्षिण-पश्चिम मानसून के मौसम में जुलाई में होने वाली पहली वर्षा की शुरुआत के साथ इसकी बुवाई की जाती है। इनकी कटाई अक्टूबर-नवंबर के महीनों के दौरान की जाती है। इस फसल के उदाहरण हैं - धान (चावल), बाजरा और ज्वार, मक्का, मूंग (दाल), मूंगफली, लाल मिर्च, कपास, सोयाबीन, गन्ना, हल्दी, उडद इत्यादि।
रबी की फसल - भारत में यह फसल वसंत ऋतु में कटाई की जाने वाली या शीतकालीन फसल होती है। इसकी बुवाई शीत ऋतु में की जाती है और कटाई वसंत ऋतु (मार्च, अप्रैल) में की जाती है। उदाहरण - गेहूं, जौ, सरसों, चना, तिल, मटर, सूर्यफूल, धनिया, टमाटर, प्याज, आलू, ओट्स इत्यादि।
ज़ायद फसलें - यह फसल देश के कुछ भागों में मार्च से जून तक की अवधि में पैदा की जाती है। उदाहरण - तरबूज, खरबूजा, करेला, कद्दू, ककडी इत्यादि।
नकद फसलें - इन फसलों की पैदावार (प्रबंधन-कटाई- विक्रय) जीवनयापन के बजाय नकद राशि के लिए की जाती है। इनकी पैदावार खाद्यान्नों, फलों, फूलों, चारे, तनों, जडों या आक्षीर (वनस्पति दूध) के लिए की जा सकती है या इन्हें तंतु, रबर, चीनी, या जैव ईंधन में प्रसन्स्करित किया जा सकता है। उदाहरण - उष्णकटिबंधीय फसलों के समान सीधे बिक्री किये जाने योग्य सभी फसलें (कसावा, कोको, गन्ना, चाय, कॉफी, रबर, खोपरा, तेल पाम, केला, अनानास) या शीतोष्ण फसलें (मक्का, गेहूं, सोयाबीन, कुछ सब्जियां और जडी बूटियां इत्यादि)।
जीवनयापन फसलें - ये फसलें विपणन की अपेक्षा कृषक और उसके परिवार के जीवनयापन और पशु चारे के लिए पैदा की जाती हैं। उदाहरण - चावल, मक्का, जडों और कंद फसलों और दालों जैसी फसलें। हालांकि आजकल अनेक जीवनयापन फसलों का विपणन भी किया जाता है जैसे चावल और गेहूं। तब यह नकद फसल भी बन जाती है।
खाद्यान्न की फसलें - ये वे पौधे होते हैं जिनकी पैदावार उनके विभिन्न हिस्सों के लिए की जाती है जिनका उपयोग अनाज के रूप में किया जाता है। अनाज वह होता है जिसका उपभोग नियमित रूप से और भारी मात्रा में किया जाता है और जो मूलभूत पोषण और ऊर्जा प्रदाता बन जाता है। उदाहरण - माडीदार अनाज जैसे अनाज की फसलें (जौ, मक्का, ओट, चावल, राई जवार इत्यादि), जडें और कंद फसलें (कसावा, आलू, जिमीकंद (रतालू), अरारोट इत्यादि), फल फसलें (केला, ब्रैडफ्रूट इत्यादि) और पाम फसलें (साबूदाना पाम, खजूर इत्यादि); प्रोटीन समृद्ध अनाज जैसे दालें (काबुली चना, मसूर, सोयाबीन, मटर इत्यादि)।
निर्यात फसलें - जब फसलों की पैदावार बडे पैमाने पर निर्यात के लिए की जाती हैं
औद्योगिक फसलें - जब फसलें औद्योगिक प्रसंस्करणकर्ताओं को विक्रय किये जाने के लिए कच्चा माल बन जाती हैं। उदाहरण - औद्योगिक तेल, जैव ईंधन, रबर, सुगंधी यौगिकों, औद्योगिक रंगों के उत्पादन के लिए पैदा की गई फसलें।
वृक्षारोपण फसलें (बागान फसलें) - सघन कृषि के तहत बडे भू-क्षेत्र पर पैदा की गई फसलें, जिनका बाद में निर्यात किया जाता है।
उच्च-मूल्य फसलें - घरेलू और विदेशी बाजारों में उच्च मूल्य प्राप्त करने के लिए पैदा की गई फसलें, ऐसी फसलें जिनका उपयोग खाद्य, पेयों और अन्य उत्पादों के लिए किया जाता है।
कृषि फसलें - इनके अंतिम उपभोक्ता मनुष्य और पशु होते हैं और सौंदर्यशास्र महत्वपूर्ण नहीं हैं। परिपक्व स्थिति में इनकी कटाई की जाती है और ये फसलें न्यून कैलोरी और उच्च विटामिन और खनिज प्रदान करती हैं। इनकी पैदावार खेतों, चारागाहों, सीमाओं, वनों या बागानों में की जाती है। इनमें से बहुत कम फसलें सदाबहार होती हैं। उदाहरण - अनाज फसलें, दालें, तेलबीज, चारे की फसलें, चीनी की फसलें, जडें (मूल) और कंद फसलें।
बागानी फसलें - अंतिम उपभोक्ता मनुष्य हैं अतः सौंदर्यशास्त्र महत्वपूर्ण हैं। इन फसलों की विभिन्न चरणों में कटाई की जाती है, और ये न्यून कैलोरी और उच्च विटामिन और खनिज प्रदान करती हैं। इनकी पैदावार बागों, बगीचों, उपवनों अंगूर के बागानों, नर्सरियों, और वृक्षारोपण में की जाती है। उदाहरण - सब्जियां, फल, खाने योग्य नट्स (बादाम, अखरोट), सुगंधी फसलें, औषधि फसलें, सजावटी फूलों और पौधों की फसलें।
सुरक्षा फसलें - ये फसलें वार्षिक, द्विवार्षिक या सदाबहार फसलों के रूप में हो सकती हैं। ये फसलें एकल फसलों और मिश्रित फसलों के रूप में पैदा की जाती हैं। अपक्षरण नियंत्रण के लिए इनके उपयोग के अतिरिक्त ये फसलें मृदा के तापमान को विनियमित करने में सहायक होती हैं, खरपतवार को दबाती हैं, कीटों और बीमारियों को कम करती हैं, वाष्पीकरण के माध्यम से जमीन से पानी की हानि को न्यून करती हैं, मृदा की उर्वरकता में वृद्धि करती हैं, मृदा में जैव पदार्थों की वृद्धि करती हैं, और मृदा की कृषि जन्यता में वृद्धि करती हैं और पानी के उच्च पैठ का संवर्धन करती हैं। उदाहरण - हरी खाद, अंतरवर्ती फसल, जीवित गीली घास, चारागाह और चारे की फसलें, फलीदार फसलें इत्यादि।
हरी खाद - ये वे सुरक्षा फसलें होती हैं जो जुताई और कृषि के अन्य साधनों से मृदा में तब शामिल की जाती हैं जब वे हरी होती हैं या उनपर फूल आने के चरण पर हैं। इनका मुख्य उद्देश्य मृदा सुधार है। उदाहरण - खाद्यान्न फलियां, लोबिया और चावल के बाद मूंग की खेती। हरी खाद में मृदा में प्रति एकड 9 से 13 टन जैविक सामग्री जोडने की क्षमता है! फलीदार पौधे मृदा की उर्वरकता में सुधार करते हैं।
अंतरवर्ती फसलें - ये वे सुरक्षा फसलें हैं जो किसी मुख्य फसल की कटाई के बाद बोई जाती हैं ताकि मृदा की आर्द्रता और उर्वरकों जैसे अवशिष्ट संसाधनों का उपयोग किया जा सके साथ ही इनका उपयोग पोषकों के निक्षालन को कम करने के लिए भी किया जाता है। यदि लोबिया और मूंग को परिपक्व होने दिया जाता है या इनकी कटाई फली के लिए की जाती है तो ये फसलें भी अंतरवर्ती फसलें बन जाती हैं। अन्य उदाहरण - (चावल के बाद) तरबूज या खरबूजा, लहसुन, टमाटर और अन्य अनेक सब्जियां।
जीवित गीली घास - जिन फसलों की पैदावार और रखरखाव किसी भी नकद फसल के साथ-साथ की जाती है, मुख्य रूप से इसलिए ताकि वाष्पीकरण से मृदा की आर्द्रता में होने वाली तेज हानि को कम किया जा सके। उदाहरण - खोपरे, तेल पाम और अनेक फल बागानों और अंगूर के बागानों के नीचे बरमूडा घास और काराबाओ घास जैसे घास के पौधे। जीवित गीली घास की शीघ्र स्थापना के लिए फलीदार बेल के पौधों का बीजारोपण किया जाता है।
चारागाह और चारा फसलें - वे फसलें जिनकी पैदावार चारागाहों, मृदाकरण, सिलेज या घास की कटाई के माध्यम से पशु खाद्य के रूप में की जाती है। ये फसलें केवल घास के रूप में हो सकती हैं, फलीदार फसलों के रूप में हो सकती है या ये घास और फलीदार फसलों के मिश्रण के रूप में भी हो सकती हैं। ये फसलें मिश्रित फसल पशुधन एकीकृत कृषि प्रणाली के लिए आदर्श होती हैं। जुगाली करने वाले पशुओं के साथ एकीकृत सदाबहार फसल कृषि में बरमूडा घास, काराबाओ घास, स्टार घास और अन्य अनेक फलीदार पौधे शामिल हैं।
2.0 कृषि का इतिहास
मानव समाजों और अर्थव्यवस्थाओं में कृषि की उत्पत्ति एक महत्वपूर्ण स्थूल-विकासवादी उडान थी। इसने मनुष्य समूहों और चयनित पालतू प्रजातियों के बीच के संबंधों में परिवर्तन किया। वनस्पति की खेती का परिणाम गतिहीन जीवन शैली में हुआ। वनस्पतियों में अनेक परिवर्तन हुए क्योंकि इन्हें पालतू बनाया गया। पालतू बनाने के कार्य में भारत और चीन जैसे विभिन्न क्षेत्रों में सामानांतर पद्धतियां विकसित हुईं। एक अन्य दृष्टिकोण यह था कि कृषि की उत्पत्ति मध्य पूर्व (पूर्व के निकट) से हुई और यह अन्य सभी क्षेत्रों में फैल गई। कृषि की उत्पत्ति के दीर्घकालीन प्रभाव ने गतिहीनवाद का निर्माण किया, इसने सीमित संख्या में पालतू खाद्य वस्तुओं पर निर्भरता निर्मित की, और पदार्थ प्रौद्योगिकियों का विविधीकरण किया, जिसमें प्रारंभिक काल में चीनी मिट्टी भी शामिल थी साथ ही इसमें बाद में धातुओं जैसे अन्य पदार्थ भी शामिल हुए।
भारत हमेशा से एक कृषि प्रधान देश रहा है, और इसके आधुनिक इतिहास में इस प्रवृत्ति को नीचे दिए गए रेखाचित्र में देखा जा सकता है। सभी प्रकार के दोषों के बावजूद विश्व की कृषि सांख्यिकी में भारत का प्रदर्शन अनुकरणीय रहा है जैसा कि हम शीघ्र ही देखेंगे।
2.1 भारत के कृषि इतिहास के सूचक
- भारत में कृषि की शुरुआत 9000 ईसापूर्व (आज से लगभग 11000 वर्ष पूर्व) में हुई। पहले पाले गए वनस्पति पौधे थे गेहूं, जौ और बेर। पहले पालतू पशु थे बकरियां और भेडें।
- 5000 ईसापूर्व से (आज से लगभग 7000 वर्ष पूर्व) कपास की खेती की शुरुआत हुई। इस घटना का परिणाम अधिक समृद्धि में हुआ, और इसने इस महाद्वीप की बाद की सभ्यताओं के निर्माण में योगदान दिया।
- 200 ईसापूर्व के आसपास तमिल क्षेत्र ने चावल, गन्ने, काली मिर्च, खोपरे इत्यादि जैसी फसलों की कृषि का अनुभव किया।
- भारत विश्व मसाला व्यापार का केंद्र बन गया, और दालचीनी और काली मिर्च का व्यापार भूमध्यसागरीय क्षेत्र के साथ होने लगा।
- धीरे-धीरे विभिन्न क्षेत्र भिन्न-भिन्न फसलों में विशेषता प्राप्त क्षेत्र बन गए। गुजरात ने चावल के साथ नेतृत्व किया, और उत्तर और मध्य भारत ने गेहूं के साथ नेतृत्व किया।
- भारत में ब्रिटिश राज का परिणाम स्थानीय कृषि के व्यापक पतन में हुआ, और शोषक नीतियों के कारण भयंकर अकाल हुए जिनमें करोड़ों लोगों की मृत्यु हुई।
- 1947 के बाद, अनेक दशकों के अथक प्रयासों का परिणाम प्रथम हरित क्रांति की अभूतपूर्व सफलता में हुआ, और खाद्यान्न उत्पादन का स्तर आत्मनिर्भरता के स्तर तक पहुँच गया।
- इनमें से कुछ उपाय निम्नानुसार थे -
- जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के साथ ही भूमि सुधार
- छोटे भू-धारणों का समेकन (हालांकि यह अधिक सफल नहीं हुआ)
- अनेक क्षेत्रों में नई फसलों की शुरुआत की गई (जैसे पारंपरिक रूप से गेहूं की खेती करने वाले पंजाब राज्य में चावल की खेती)
- उच्च उत्पादन प्रदान करने वाली बीज किस्में विकसित की गईं
- सुदूर क्षेत्रों को बिजली उपलब्ध की गई (हालांकि दोषपूर्ण मूल्य नीतियों ने सूक्ष्म स्व सिंचाई की समस्या निर्मित की, जिसका परिणाम जल स्तर निःशक्तिकरण में हुआ)
- कृषकों के लिए विभिन्न संस्थागत विपणन और ऋण प्रयास
- आज कृषि क्षेत्र भारत के सर्वाधिक लोगों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रोजगार प्रदान करता है, साथ ही यह क्षेत्र देश के समग्र सकल मूल्य वर्धित और सकल घरेलू उत्पाद में महत्वपूर्ण हिस्से का योगदान प्रदान करता है।
3.0 कृषि भूमि और इसके प्रकार
कृषि के प्रयोजन से उपयोग की गई भूमि की दृष्टि से भारत का प्रतिशत सर्वाधिक में से एक है। ये दोनों चित्र इसे समझाते हैं।
इस प्रकार, कृषि भारत के लिए महत्वपूर्ण केवल इस तथ्य के कारण हो जाती है कि हमारी अधिकांश भूमि का उपयोग कृषि के लिए किया जाता ह
3.1 कृषि की प्रक्रिया
कृषि में निम्न प्रक्रियाएं शामिल हैं => निविष्टियाँ + प्रक्रियाएं = उत्पादन
निविष्टियाँ = मानव निविष्टियाँ + भौतिक निविष्टियाँ
मानव निविष्टियाँ - संग्रहण, श्रम, मशीनें, रसायन, बीज, सिंचाई
भौतिक निविष्टियाँ - वर्षा, सूर्यप्रकाश, तापमान, मृदा का प्रकार, स्थलाकृति
प्रक्रियाएं = साफ करना, जोतना, बुवाई करना, छिड़काव करना, कटाई करना
उत्पादन = फसलें
3.2 कृषि के प्रकार
जलवायु परिस्थितियों, पूँजी और श्रम की उपलब्धता जैसे कारकों की भिन्नता के आधार पर कृषि मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है - (ए) जीवनयापन कृषि, और (बी) वाणिज्यिक कृषि।
(ए) जीवनयापन कृषि - इन कृषक परिवारों के पास पूँजी और प्रौद्योगिकी ज्ञान का अभाव होता है। उनका भूधारण या तो अत्यल्प होता है या उनके पास स्वयं की कृषि भूमि होती ही नहीं है, और वे सामाजिक पिरामिड के अंतिम स्तर पर होते हैं। अतः अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वे कृषि करते हैं। अतः न्यून स्तर की प्रौद्योगिकी और पारिवारिक श्रम का उपयोग छोटे भू-धारण पर अल्प उत्पादन के लिए किया जाता है। यदि कृषक परिवार अत्यंत प्राथमिक स्तर की प्रौद्योगिकी का उपयोग कर रहे हैं तो वे आमतौर पर आदिम जीवनयापन कृषि में संलग्न माने जाते हैं। वे या तो स्थानांतरण कृषि करेंगे या खानाबदोश पशुपालन में संलग्न होते हैं। स्थानांतरण कृषि में किसी भूमि के टुकडे़ को उसके वृक्षों को काट कर और उन्हें जलाकर साफ किया जाता है। इन जले हुए वृक्षों की राख को मृदा में पोषकों के स्तर को बढ़ाने के लिए मृदा में मिश्रित किया जाता है और इस खेत में आलू, मक्का, रतालू, और कसावा जैसी फसलें उगाई जाती हैं। जब मृदा की उर्वरकता नष्ट हो जाती है तब इस खेत का परित्याग कर दिया जाता है। एक नया जमीन का टुकड़ा खोजा जाता है और वही चक्र फिर से आरंभ हो जाता है। स्थानांतरण कृषि को इसी कारण से ’काटना और जलाना’ कृषि भी कहा जाता है। इस प्रकार की कृषि अमेजॉन घाटी, उष्णकटिबंधीय अफ्रीका, दक्षिण पूर्वी एशिया के कुछ भागों और उत्तर पूर्वी भारत में पाई जाती है। ये अत्यंत मूसलाधार वर्षा और वनस्पति के शीघ्र उत्थान वाले क्षेत्र हैं। (जो इन क्षेत्रों में उपयोग की जाने वाली कृषि पद्धति को स्पष्ट करता है) खानाबदोश पशुपालन की विधि सहारा, मध्य एशिया और भारत के राजस्थान और जम्मू एवं कश्मीर जैसे कुछ भागों के अर्ध-शुष्क और शुष्क क्षेत्रों में अपनाई जाती है। पशुपालक (और उनके परिवार) अपने पशुओं के साथ चारे और पानी के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते हैं। अनेक वर्षों के दौरान वे अपने परिभाषित मार्ग विकसित कर लेते हैं, जो जलवायु और भूमि के स्वरुप से प्रेरित होते हैं। उपयोग किये जाने वाले पशुओं में आमतौर पर भेडें, ऊँट, याक और बकरियां शामिल होती हैं। ये पशु इन्हें दूध, मांस, ऊन, चमडा और अन्य उत्पाद प्रदान करते हैं।
सघन जीवनयापन कृषि (Intensive Subsistence Agriculture) में कृषक (परिवार) साधारण उपकरणों और भारी मात्रा में पारिवारिक श्रम का उपयोग करके जमीन के छोटे से टुकडे़ पर कृषि करता है। इसके लिए आदर्श जलवायु वह होती है जहाँ पूर्ण सूर्यप्रकाश के दिनों की संख्या और उर्वरक मृदा अधिक होती है। ये दो लाभ खेत के उसी टुकडे पर वर्ष भर के दौरान एक से अधिक फसलों के उत्पादन में सहायक होते हैं। आमतौर पर इसमें चावल प्रमुख फसल होती है, जबकि गेहूं, मक्का, दालों और तेलबीजों की फसलें भी ली जा सकती हैं। यह सघन जीवनयापन कृषि दक्षिण, दक्षिण पूर्वी और पूर्वी एशिया के सघन जनसंख्या वाले मानसून क्षेत्रों में पाई जाती है। व्यापक जीवनयापन कृषि (Extensive Subsistence Agriculture) में कृषक (परिवार) प्रति इकाई निविष्टि न्यूनतम श्रम के साथ विशाल भू-क्षेत्र पर कृषि करता है। उत्पादन कम रहता है।
(बी) वाणिज्यिक कृषि - वाणिज्यिक कृषि में बाजार की शक्तियां संपूर्ण कृषि चक्र को नियंत्रित करती हैं। अतः मितव्ययिता की अर्थव्यवस्था इस संदर्भ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। अतः पूँजी, मशीनों और भूमि के विशाल अंतर्वाह का उपयोग किया जाता है। फसलों की पैदावार और पशुओं का पालन बाजार में विक्रय के लिए किया जाता है। वाणिज्यिक कृषि तीन प्रकार की हो सकती है - (ए) वाणिज्यिक अनाज की कृषि, (बी) मिश्रित कृषि, और (सी) वृक्षारोपण या बागानी कृषि।
वाणिज्यिक अनाज की कृषि में गेहूं और मक्के जैसी फसलें वाणिज्यिक प्रयोजन के लिए पैदा की जाती हैं। कानूनी नीतिगत वातावरण को इसकी अनुमति प्रदान करना अनिवार्य है, साथ ही समग्र रूप से जनसंख्या कम होनी चाहिए ताकि थोक में कृषि के लिए भूमि उपलब्ध हो सके। इसके उदाहरण हैं उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया के शीतोष्ण घास के मैदान। यहाँ जनसंख्याएं कम हैं, और विशाल खेत सैकडों, हजारों हेक्टेयर पर फैले हुए हैं। शीत ऋतू के कारण पैदावार का मौसम छोटा होता है और आमतौर पर केवल एक ही फसल ली जा सकती है। भारत में वाणिज्यिक कृषि निगमों की अनुमति नहीं है। मिश्रित कृषि में कृषि कार्य और पशुपालन एकसाथ किया जाता है। जमीन का उपयोग खाद्य और चारा फसलों की पैदावार के लिए किया जाता है और साथ ही पशुपालन भी किया जाता है। इसके उदाहरण हैं यूरोप, पूर्वी अमेरिका, अर्जेंटीना, दक्षिण पूर्वी ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका के खेत। वृक्षारोपण या बागानी कृषि वाणिज्यिक कृषि का ही प्रकार है जहाँ चाय, कॉफी, गन्ने, काजू, रबर, केले या कपास की एकल फसल की फसलों की पैदावार की जाती है। चूंकि खेतों का आकार विशाल होता है अतः विशाल मात्रा में पूँजी और श्रम की आवश्यकता होती है। बाद में उत्पादन का प्रसंस्करण या तो खेत पर ही या अन्यत्र कहीं किया जाता है। इसके उदाहरण हैं विश्व के उष्णकटिबंधीय क्षेत्र जैसे भारत में चाय, मलेशिया में रबर, ब्राजील में कॉफी, श्रीलंका में चाय, इत्यादि।
4.0 भारतीय कृषि
4.1 मूलभूत तथ्य
184.3 करोड़ हेक्टेयर के साथ भारत में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा कृषि भूक्षेत्र है। भारत का कुल भू-क्षेत्र 32.87 करोड़ हेक्टेयर (32 लाख वर्ग कि.मी.) है। 20 कृषि जलवायु क्षेत्रों, विश्व की सभी 15 महत्वपूर्ण जलवायुएँ भारत में विद्यमान हैं। भारत मसालों, दालों, दूध, चाय, काजू और जूट का सबसे बड़ा उत्पादक है; और यह गेहूं, चावल, फलों और सब्जियों, गन्ने, कपास और तेलबीजों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। साथ ही, भारत फलों और सब्जियों के वैश्विक उत्पादन में विश्व में दूसरा है, इसीके साथ भारत आम और केले का विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक है। भारत में अंगूरों की उत्पादकता विश्व में सर्वाधिक है।
वित्त वर्ष 2015 में भारत में खाद्यान्नों का उत्पादन 25.20 करोड़ टन (एम टी) के स्तर पर पहुंचा। देश का चावल और गेहूं का उत्पादन क्रमशः 105 एम टी और 86 एम टी के स्तर पर था। वर्ष 2013-14 में समग्र उत्पादन रिकॉर्ड 265 एम टी था। वित्त वर्ष 2016 के लिए भी यह काफी अच्छा रहने का अनुमान है। भारत विश्व के 15 शीर्ष कृषि उत्पाद निर्यातकों में से एक है।
केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अनुमानों के अनुसार वर्ष 2015-16 के दौरान 2011-12 के मूल्यों पर कृषि और उसके संबंधित क्षेत्रों (जिनमें कृषि, पशुधन, वन्य उत्पाद एवं मत्स्यपालन शामिल हैं) का हिस्सा सकल मूल्य वर्धित का 15.35 प्रतिशत था।
कृषि मंत्रालय के अंतर्गत कृषि एवं सहकारिता विभाग भारत के कृषि क्षेत्र के विकास के लिए उत्तरदायी है। यह अन्य कृषि संबंधी क्षेत्रों के विकास के लिए अन्य अनेक निकायों का प्रबंधन करता है, जैसे राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत के कृषि क्षेत्र के विकास को बढ़ावा देने के लिए बहुविध कारकों ने एकसाथ मिलकर काम किया है। इनमें पारिवारिक आय और उपभोग में वृद्धि, खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र का विस्तार और कृषि निर्यात में वृद्धि जैसे कारक शामिल हैं। भारतीय कृषि में बढ़ती निजी भागीदारी, जैविक कृषि की पैदावार और सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग जैसी कुछ प्रमुख प्रवृत्तियां हैं।
संक्षेप में
- भारत दूध, दालों, पशुधन, जूट, चाय और गोभी का सबसे बड़ा उत्पादक है। (साथ ही भारत मोटी सौंफ, ताजे फलों, बादियन, सौंफ, उष्णकटिबंधीय ताजे फलों, धनिया, कबूतर मटर, मसालों, एरण्ड तेल के बीजों, बाजरा, कुसुम के बीजों, तिल के बीजों, नीबू, सूखी मिर्च और काली मिर्च, काजू, चने, अदरक, लंबी भिंडी, अमरुद, हल्दी, बकरी के दूध, आम, और मांस के उत्पादन में विश्व में पहले स्थान पर है)
- प्रमुख खाद्यान्नों, जैसे चावल, गेहूं, दालों इत्यादि के लिए भारत विश्व के शीर्ष 5 देशों में से एक है।
- भारत फलों सब्जियों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। यह विश्व के आमों के 50 प्रतिशत और विश्व के अधिकांश केले का उत्पादन करता है।
4.2 भारत में कृषि जनगणना (Agriculture Census)
भूमि का उपयोग कृषि के लिए, वन उगाने के लिए, पशुओं के चरने के लिए, खनन के लिए, उद्योगों को स्थापित करने के लिए और घरों, सड़कों, रेलवे इत्यादि के निर्माण के लिए किया जाता है। किसी भी देश की समृद्धि और धारणीय विकास के लिए भूमि का उचित और समझदारीपूर्ण उपयोग आवश्यक है। भूमि का उपयोग जमीन के प्रकार, इसकी गहराई, इसकी उर्वरकता, जल धारण करने की क्षमता, उपलब्ध खनिज सामग्री और परिवहन के साधनों इत्यादि पर निर्भर होता है। कृषि के लिए भूमि का उपयोग मृदा के प्रकार, सिंचाई सुविधाओं और जलवायु पर निर्भर होता है।
भारत में कुल 32.8 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र में से लगभग 51.09 प्रतिशत भूमि कृषि के तहत आती है, 21.81 प्रतिशत वनों के अंतर्गत और 3.92 प्रतिशत चारागाहों के अंतर्गत आती है। निर्मित क्षेत्र और गैर-कृषि क्षेत्र लगभग 12.34 प्रतिशत है। कुल भूक्षेत्र का लगभग 5.17 प्रतिशत गैर-कृषि अपशिष्ट क्षेत्र है जिसे कृषि क्षेत्र में परिवर्तित किया जा सकता है। अन्य प्रकार की भूमि लगभग 4.67 प्रतिशत है।
भारत में कृषि जनगणना प्रत्येक पांच वर्ष के अंतराल पर आयोजित की जाती है ताकि देशी के कृषि भू-धारण के संरचना से संबंधित पहलुओं की जानकारी संग्रहित की जा सके। यह ’परिचालनात्मक भू-धारण’ (operational landholdings) की गणना करता है। कृषि परिचालनात्मक भू-धारण में वह भू-धारण शामिल नहीं होता जो किसी कृषि भूमि का परिचालन नहीं करता और पूर्ण रूप से पशुपालन, कुक्कुट पालन और मत्स्यपालन इत्यादि में संलग्न है। वर्तमान जनगणना का संदर्भ वर्ष था कृषि वर्ष 2010-11 (जुलाई-जून)। इसकी रिपोर्ट वर्ष 2015 में जारी की गई।
(अधिक जानकारी हेतु पढ़ें http://agcensus.nic.in/ )
1 हेक्टेयर 2.47 एकड होता है और 1 एकड 4046 वर्ग मीटर होता है।
प्रमुख सीखें थीं -
- परिचालनात्मक भू-धारणों की कुल संख्या 13.835 करोड़ अनुमानित थी।
- कुल परिचालित क्षेत्र 15.959 करोड़ हेक्टेयर था।
- भू-धारण के औसत आकार का अनुमान 1.15 हेक्टेयर किया गया है। वर्ष 1970-71 से की गई विभिन्न कृषि जनगणनाओं में भू-धारण के औसत आकार में लगातार गिरावट की प्रवृत्ति नजर आती है।
- पिछले कुछ वर्षों के दौरान देश के परिचालनात्मक कृषि भू-धारण में लगातार वृद्धि देखी गई है। वर्ष 1995-96 के 11.558 करोड़ परिचालनात्मक भू धारणों से बढ़कर वर्ष 2010-11 में यह संख्या 13.835 करोड हो गई है, जो 16 वर्षों की अवधि के दौरान 20 प्रतिशत वृद्धि है।
- भू-धारण का औसत आकार भू-धारण की बढ़ती संख्या के कारण लगातार कम हो रहा है। यह औसत जो वर्ष 1995-96 में 1.41 हेक्टेयर था, वह वर्ष 2010-11 में घट कर 1.15 हेक्टेयर हो गया, जो 18 प्रतिशत की गिरावट दर्शाता है।
- परिचालित क्षेत्र के आधार पर कृषि जनगणना में परिचालनात्मक भू-धारण को निम्नानुसार वर्गीकृत किया गया है -
श्रेणी परिचालित क्षेत्र
सीमांत धारण (Marginal Holdings) 1 हेक्टेयर से कम
छोटा धारण (Small Holdings) 1 से 2 हेक्टेयर
अर्ध-मध्यम धारण (Semi-Medium Holdings) 2 से 4 हेक्टेयर
मध्यम धारण (Medium Holdings) 4 से 10 हेक्टेयर
विशाल धारण (Large Holdings) 10 हेक्टेयर और उससे अधिक
- सीमांत भू-धारण का प्रतिशत 2000-01 के 62.9 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2010-11 में 67.1 प्रतिशत हो गया है।
- विशाल भू-धारण का प्रतिशत वर्ष 2000-01 के 1 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2010-11 में 0.7 प्रतिशत तक कम हुआ है।
- 5 प्रतिशत से कम भू-धारण परिचालन के तहत कुल क्षेत्र के लगभग एक तिहाई है। हालांकि सीमांत और छोटे भू-धारण कुल भू-धारण का 85 प्रतिशत है, परंतु एकसाथ मिलकर वे परिचालन के तहत कुल क्षेत्र के केवल 45 प्रतिशत हैं।
- 85 प्रतिशत भू-धारण 45 प्रतिशत क्षेत्र को व्याप्त करते हैं। 5 प्रतिशत भू-धारण 33 प्रतिशत क्षेत्र को व्याप्त करते हैं।
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