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केन्द्र-राज्य के वित्तीय संबंध
1.0 प्रस्तावना
संघ और राज्यों के बीच वित्तीय शक्तियों का हस्तांतरण और राजस्व का वितरण, संघीय संरचना का एक महत्वपूर्ण भाग है, एवं इसे ‘‘राजकोषीय संघवाद’’ कहते हैं। यह एक ऐसी विशेषता है जिसका संघीय व्यवस्था के एक आवश्यक अंग के रूप में विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। इस विषय में भारतीय संविधान में विशेष प्रावधान किये गए हैं। यह राजस्व के वितरण को निर्दिष्ट करता है, जहां राज्य को कर संग्रह के कुछ अधिकार प्रदान किये गए हैं, और करों के संबंध में केंद्र में निहित संपूर्ण अधिकारों का उल्लेख किया गया है। इसी के अनुसार भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची में केंद्रीय, राज्य और समवर्ती सूचियों में भेद किया गया है, जहां केंद्र और राज्यों के बीच राजस्व के वितरण का विभिन्न प्रविष्टियों में उल्लेख किया गया है। कुल मिलाकर, प्रयास यह होता है कि ऐसी प्रक्रियाऐं हों जिनसे अर्थव्यवस्था के असंतुलन कम किये जा सकें - उर्द्धवाधर, क्षैतिज़ एवं विकास।
2.0 अवधारणाएं और परिभाषाएं
- कर अंतरणः संविधन के अनुच्छेद 280 (3)(क) में की गई व्यवस्था के अनुसार, वित्त आयोग के मुख्य कार्यों में से एक मुख्य कार्य करों के शुद्ध आगमों का केन्द्र और राज्यों के बीच वितरण के संबंध में सिफारिश करना है। यह किसी वित्त आयोग का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है क्योंकि केन्द्रीय करों के शुद्ध आगमों में राज्य का हिस्सा केन्द्र से राज्यों को किए जाने वाले संसाधन अंतरण का प्रधान माध्यम है।
- विभाज्य पूलः विभाज्य पूल सकल कर राजस्व का वह भाग होता है, जो केन्द्र और राज्यों के बीच बांटा जाता हे। विभाज्य पूल निर्दिष्ट उद्देश्य के लिए उद्गृहीत अधिभारों और उप-कर के सिवाय, सभी करों, निवल संग्रहण प्रभार से मिलकर बनता है। संविधान (80वां संशोधन) अध्नियम, 2000 के अध्नियमित किए जाने से पूर्व, केन्द्रीय कर राजस्वों में राज्यों का हिस्सा उस समय लागू अनुच्छेद 270 और 272 के उपबंधों के अनुसार था। संविधान के अस्सीवें संशोधन ने केन्द्रीय करों में विभाजन की प्रक्रिया मूल रूप से बदल दी। इस संशोधन के अंतर्गत अनुच्छेद 272 निकाल दिया गया तथा अनुच्छेद 270 में काफी बदलाव कर दिया गया। नया अनुच्छेद 270 में केन्द्रीय सूची में निर्दिष्ट सभी करों और शुल्कों, अनुच्छेद 268 और अनुच्छेद 269 में क्रमशः निर्दिष्ट करों और शुल्कों, तथा अनुच्छेद 271 में निर्दिष्ट करों और शुल्कों पर अधिभार तथा विशिष्ट उद्देश्यों के लिए उद्गृहीत कोई उप-कर को छोड़कर, के विभाजन की व्यवस्था है।
- सहायता अनुदानः क्षैतिज असंतुलनों का समाधान वित्त आयोग और कर अंतरण और अनुदानों की पद्धति के माध्यम से किया जाता है, पहले वाली लिखत का प्रयोग प्रमुखता से किया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 275 के अधीन, वित्त आयोगों को सहायता की आवश्यकता वाले राज्यों को, अनुदानों के सिद्धांत और धनराशि की सिफारिश करने का अधिदेश है तथा भिन्न-भिन्न धनराशियां नियत की जा सकेंगी। इस प्रकार अनुदानों की पूर्वापेक्षाओं में से एक पूर्वापेक्षा राज्यों की आवश्यकताओं का आकलन करना है। पहले वित्त आयोग ने अनुदान के लिए राज्य की पात्रता अवधरित करने के पांच विस्तृत सिद्धांत निश्चित किए थे। पहला था, किसी राज्य का बजट उसकी आवश्यकता की जांच के लिए प्रारंभिक बिन्दु है। दूसरा, राज्यों द्वारा क्षमता साकार करने के लिए किया गया प्रयास था। तीसरा, सभी राज्यों में मूल सेवाओं के मानकों को समान करने में अनुदानों से मदद मिलनी चाहिए। चौथा, राज्य के कार्यक्षेत्र के अंतर्गत राष्ट्रीय हितों के कोई विशिष्ट भार या बाध्यताओं को भी ध्यान में रखा जाए। पांचवां, कम विकसित राज्यों के लिए राष्ट्रीय हितों के किसी फायदे वाली सेवा के लिए अनुदान अवश्य दिए जाएं। वित्त आयोग द्वारा संस्तुत अनुदान मुख्यतया सामान्य उद्देश्य के अनुदानों के स्वरूप के होते हैं जिनके माध्यम से प्रत्येक राज्य के आयोजना-भिन्न राजस्व मदें आकलित व्यय तथा केन्द्रीय करों में राज्य के हिस्से लक्षित राजस्व के बीच अंतर की पूर्ति की जाती है। इन्हें प्रायः ‘‘अंतर-पूर्त अनुदानों’’ के रूप में जाना जाता है। पिछले वर्षों में राज्य के लिए अनुदानों का क्षेत्र और भी काफी बढ़ गया जिनसे कि उनकी विशिष्ट सेवाएं शामिल की जा सकें। संविधन में 73वां और 74वां संशोधन करने के पश्चात् वित्त आयोग को स्थानीय निकायों के संसाधनों की अनुपूर्ति के लिए राज्य की संचित निधि में इजाफा करने के उपाय सुझाने का अतिरिक्त उत्तरदायित्व सौंपा गया था। इससे वित्त आयोग अनुदानों के क्षेत्र में और विस्तार हो गया है। 10वां वित्त आयोग पहला आयोग था, जिसने ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों के लिए अनुदानों की सिफारिश की। इस प्रकार, पिछले वर्षों में सहायता अनुदानों के क्षेत्र में काफी विस्तार हुआ है।
- वित्तीय क्षमता/आय में अंतरः आय में अंतर का मापदण्ड पहली बार 12वें वित्त आयोग द्वारा प्रयोग किया गया था। कर क्षमता में राज्यों के बीच अंतर प्रोक्सी (च्तवगल) के रूप में प्रति व्यक्ति जीएसडीपी द्वारा मापा गया था। जब इस प्रकार प्रोक्सी किया गया, प्रक्रिया में स्पष्ट रूप से राज्यों के बीच राजकोषीय क्षमता अंतर को अवधरित करने के लिए एकल औसतन कर - से जीएसडी अनुपात में यह प्रक्रिया स्पष्ट रूप से लागू की जाती है। 13वें वित्त आयोग ने यह फार्मूले में मामूली बदलाव किया है और कर क्षमता मापने के लिए अलग-अलग औसत के प्रयोग की सिपफारिश की थीः एक सामान्य श्रेणी के राज्यों के लिए और दूसरी विशेष श्रेणी के राज्यों के लिए।
- राजकोषीय अनुशासनः कर अंतरण के लिए मापदण्ड के रूप में राजकोषीय अनुशासन का प्रयोग 11वें और 12वें वित्त आयोग द्वारा किया गया था ताकि राज्यों को अपने वित्त साधन विवेकपूर्ण ढंग से व्यवस्थित करने के लिए प्रोत्साहन दिया जा सके। यह मापदण्ड 13वें वित्त आयोग में बगैर किसी बदलाव के जारी रहा। राजकोषीय अनुशासन के सूचकांक पर किसी राज्य की अपनी राजस्व प्राप्तियों को उसके कुल राजस्व व्यय से सुधरों से तुलना करने पर पहुंचा जा सकता है। इससे सभी राज्यों के तदनुरूपी औसत से भी तुलना होती है।
14 वें वित्त आयोग ने अपनी रिपोर्ट दिसंबर 2014 में प्रस्तुत की जिसे सरकार द्वारा स्वीकार किया गया। 15 वें वित्त आयोग का गठन नवंबर 2017 में हुआ, जिसके अध्यक्ष हैं श्री एन.के. सिंह, और यह 2020-2025 के लिये रिपोर्ट देगा।
3.0 संघ और राज्यों के बीच राजस्व का वितरण (संवैधानिक प्रावधान)
अनुच्छेद 268 - शुल्कों को परिभाषित करता जो संघ द्वारा अधिरोपित किये जाते हैं, परंतु राज्यों द्वारा संग्रहित और विनियोजित किये जाते हैं।
अनुच्छेद 268 उन शुल्कों को परिभाषित करता जो संघ द्वारा अधिरोपित किये जाते हैं, परंतु राज्यों द्वारा संग्रहित और विनियोजित किये जाते हैं।
अनुच्छेद 268 (1) में प्रावधान किया गया है कि औषधीय और प्रसाधन विनिर्माण पर मुद्रांक शुल्क और उत्पादन शुल्क, जिनका उल्लेख केंद्रीय सूची में किया गया है, इन शुल्कों का संग्रहण राज्य द्वारा किया जायेगा, जिनका अधिरोपण केंद्र सरकार द्वारा किया जायेगा। किसी भी राज्य के अंदर किसी भी वित्त वर्ष के दौरान उद्ग्राह्य ऐसे किसी भी शुल्क की प्राप्तियां भारत की संचित निधि का भाग नहीं होंगी, बल्कि वे उस राज्य को दी जाएँगी। संविधान के (सातवें) संशोधन अधिनियम, 1956 के द्वारा यह प्रावधान केंद्र शासित प्रदेशों के लिए भी विस्तारित किया गया था।
अनुच्छेद 268 ए संविधान के (अट्ठासीवें) संशोधन अधिनियम, 2003 द्वारा प्रविष्ट किया गया था। इसके द्वारा केंद्र और राज्यों के बीच सेवा कर को साझा करने के प्रावधान प्रस्तावित किये गए थे। यह अधिनियम निर्दिष्ट करता है कि सेवा कर भारतीय संघ द्वारा अधिरोपित किया जायेगा और इसका विनियोजन संघ और राज्यों द्वारा किया जायेगा।
3.1 अनुच्छेद 269 - संघ द्वारा अधिरोपित और संग्रहित परंतु राज्यों को दिए गए कर
इस अनुच्छेद में अंतिम संशोधन अस्सीवें संशोधन द्वारा 2000 में किया गया था, जो 1 अप्रैल 1996 से प्रभावी था। यह अनुच्छेद निर्दिष्ट करता है कि अंतर राज्यीय व्यापार या वाणिज्य के दौरान वस्तुओं के विक्रय एवं क्रय पर लगाया जाने वाला कर, और वस्तुओं के प्रेषण पर लगाया जाने वाला कर भारत सरकार द्वारा अधिरोपित और संग्रहित किया जायेगा।
मामलाः गुडईयर-इंड़िया लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य इस मामले में प्रश्न दो विक्रय कर अधिनियमों से संबंधित था जो वस्तुओं के प्रेषण की बात करते हैं। हरियाणा सामान्य विक्रय कर अधिनियम 1973 का अनुच्छेद 9(1) और बॉम्बे विक्रय कर अधिनियम 1959 का अनुच्छेद 13 एए वस्तुओं के प्रेषण से संबंधित हैं, और ये प्रावधान संबंधित राज्यों की विधायिकाओं के क्षेत्राधिकार से बाहर हैं, क्योंकि यह अधिकार संसद में निहित है। अतः इसे अमान्य माना गया। इस अनुच्छेद की धारा 3 में प्रावधान किया गया है कि संसद सिद्धांतों का निर्माण करके यह निर्धारित कर सकती है कि किस स्थिति में इस प्रकार के क्रय-विक्रय या प्रेषण को अंतर राज्य व्यापार या वाणिज्य के तहत माना जाये।
मामलाः आंध्र प्रदेश राज्य बनाम राष्ट्रीय ताप निगम लिमिटेड इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्रीय विक्रय अधिनियम 1956 के अनुच्छेद 3 और 6 को ग्राह्य माना है। सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्य के अंदर विक्रय का लेनदेन पूर्ण होने के बाद वस्तुओं के संचलन को अंतर-राज्य विक्रय नहीं माना जा सकता। पीठ ने अंतर राज्य व्यापार या वाणिज्य को मानने के लिए कुछ सिद्धांत भी निर्धारित कियेः
- ऐसे विक्रय अनुबंध का अस्तित्व जिसमें वस्तुओं के अंतर राज्य संचलन की अभिव्यक्त या निहित व्यवस्था समाविष्ट है;
- ऐसे अनुबंध के पश्चात वस्तुओं का एक राज्य से दूसरे राज्य में संचलन वास्तव में होना अनिवार्य है;
- वस्तुओं का ऐसा संचलन एक राज्य से उस राज्य में होना चाहिए जहां विक्रय होता है।
3.2 अनुच्छेद 270 - संघ और राज्यों द्वारा अधिरोपित और उनके बीच वितरित कर
इस अनुच्छेद का अस्सीवें संशोधन के द्वारा 2000 में अंतिम बार संशोधन किया गया था, पर इसे 1 अप्रैल 1996 से प्रभावी किया गया था। यह अनुच्छेद विशेष रूप से प्रावधान करता है कि कृषि के अलावा अन्य आय पर कर, और निगम कर संघ द्वारा अधिरोपित और संग्रहित किया जायेगा और इसका वितरण संघ और राज्यों द्वारा किया जायेगा। राज्यों को हस्तांतरित किया जाने वाला राजस्व बिना शर्त होगा और राज्यों को विवेकाधिकार होगा कि वे अपनी आय का जब चाहें तब उपयोग कर सकेंगे। इसके बावजूद राज्य अधिक कर अधिरोपित करने का पर्याप्त प्रयास नहीं करते, और यह विशेष रूप से राजनीतिक कारणों के कारण होता है। कर की प्राप्तियां भारत की संचित निधि का हिस्सा नहीं होंगी, परंतु उनका वितरण राज्यों के बीच किया जायेगा।
मामलाः टी.एम. कण्णियन बनाम आयकर कार्यालय आयकर के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय दिया और कहा कि ‘‘केंद्र शासित प्रदेशों से संबंधित आयकर भारत की संचित निधि का हिस्सा है। केंद्र शासित प्रदेशों के संबंध में आयकर के वितरण की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि ये क्षेत्र केंद्र द्वारा राष्ट्रपति के माध्यम से प्रशासित किये जाते हैं।‘‘
3.3 अनुच्छेद 271 - संघ के प्रयोजन के लिए कुछ शुल्कों और करों पर लगाया गया अधिभार
यह अनुच्छेद भारत शासन अधिनियम, 1935 के अनुच्छेद 137 और अनुच्छेद 138(1) के अनुरूप है। यह अनुच्छेद संसद को समय-समय पर अधिभार अधिरोपित करने की शक्ति प्रदान करता है। इस प्रकार के अधिभार की समस्त प्राप्तियां भारत की संचित निधि का हिस्सा होती हैं और इन्हें राज्यों को वितरित करने की आवश्यकता नहीं होती। कोई भी संसद को अधिभार अधितोपित करने से प्रतिबंधित नहीं कर सकता। साथ ही, संसद एक ही समय में विभिन्न प्रकार के अधिभार अधिरोपित कर सकती है।
3.4 अनुच्छेद 272 - वे कर जो संघ द्वारा अधिरोपित और संग्रहित किये जाते हैं और संघ और राज्यों के बीच वितरित किये जा सकते हैं
यह अनुच्छेद संविधान (अस्सीवाँ) संशोधन अधिनियम द्वारा लोपित कर दिया गया है।
3.5 अनुच्छेद 273 - जूट और जूट उत्पादों के निर्यात शुल्क के स्थान पर अनुदान
भारत शासन अधिनियम के तहत जूट निर्यात शुल्क से प्राप्त शुद्ध प्राप्तियां केंद्र सरकार और जूट उत्पादन करने वाले प्रांतों द्वारा साझा की जाती थीं। भारत के वर्तमान संविधान के तहत राज्यों को इस प्रकार के हिस्से का कोई अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 273 में प्रावधान किया गया है कि संविधान के लागू होने से 10 वर्षों की अवधि के लिए, जूट का उत्पादन करने वाले पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम राज्यों को संघ से जूट निर्यात शुल्क के हिस्से के स्थान पर अनुदान सहायता प्रदान की जायेगी। इस अनुदान सहायता की राशि की मात्रा राष्ट्रपति द्वारा वित्त आयोग की सलाह से निर्धारित की जाएगी।
3.6 अनुच्छेद 275 - संघ द्वारा कुछ राज्यों को दिया जाने वाला अनुदान
इस अनुच्छेद को संविधान (बाईसवें) संशोधन अधिनियम 1969 द्वारा संशोधित किया गया था। संसद को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह विशिष्ट राज्यों को जब उन्हें वित्तीय सहायता की आवश्यकता हो, तो ऐसे अनुदान प्रदान कर सकती है। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण को प्रोत्साहित करने के लिए भी विशेष अनुदान प्रदान किये जा सकते हैं।
3.7 अनुच्छेद 276 - व्यवसायों और व्यापारों पर कर अधिरोपण के राज्यों के अधिकार
यह अनुच्छेद सूची 2, प्रविष्टि 60 के माध्यम से राज्य या स्थानीय प्राधिकरणों को व्यवसाय इत्यादि पर कर अधिरोपण का अधिकार प्रदान करता है। इस अनुच्छेद की धारा 2 व्यवसायों, कॉलिंग इत्यादि पर वार्षिक 250 रुपये की कर राशि की स्थायी सीमा निर्धारित करती है। बाद में संविधान ने इस राशि में 2500 रुपये तक की वृद्धि की।
मामलाः क्विलोन नगरपालिका बनाम एच एंड सी लिमिटेड यहां केरल व्यवसाय कर 1958 को अधिकारातीत माना गया क्योंकि यह अनुच्छेद 276 का उल्लंघन करता है, साथ यह आयकर की संघ सूची पर भी अतिक्रमण है क्योंकि यह उस समय की निर्धारित 250 रुपये की राशि से अधिक था।
मामलाः बी.एम. लखानी बनाम नगरपालिका समिति इस विशिष्ट मामले में निम्न दो प्रश्न उठाये गए थेः
- क्या नगरपालिका को चुकाए गए नगरपालिका अधिकारातीत कर के प्रतिदाय का दावा पोषणीय है, और
- यदि दावा पोषणीय है, तो क्या नगरपालिका द्वारा अधिरोपित कर कानून के अनुसार वैध था।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 276 द्वारा स्वीकृत राशि से अधिक राशि के प्रतिदाय का दावा पोषणीय है। और दूसरे प्रश्न के लिए संविधान में निर्दिष्ट राशि से अधिक राशि अधिरोपित करने के विरुद्ध एक प्रतिबंध था, और यह केवल अप्रयोज्य प्रविष्टि के तहत कर अधिरोपण का प्रश्न नहीं था।
आलोचनाएँः इस अधिनियम की संविधान विशेषज्ञों द्वारा निम्न आधार पर काफी आलोचना की गई है
- इस अनुच्छेद में संघीय सूची के साथ अतिव्यापी प्रावधान हैं। भारत का संविधान इस प्रकार के अतिव्यापन की अनुमति प्रदान करता है, और यह स्पष्ट करता है कि विवाद की स्थिति में केंद्र सरकार का कानून मान्य होगा।
3.8 अनुच्छेद 282 - संघ या राज्य द्वारा अपने राजस्व में से चुकाने योग्य व्यय
यह अनुच्छेद संघ को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए व्यय करने के व्यापक अधिकार प्रदान करता है। इस अनुच्छेद में यह प्रावधान है कि संघ या राज्यों की व्यय करने की शक्तियां केवल उनकी विधायी शक्तियों तक सीमित नहीं हैं। सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए किये जाने वाले व्यय विधायिका द्वारा निर्धारित व्यय से भी अधिक किये जा सकते हैं। यह अनुच्छेद भारत शासन अधिनियम 1935 के (1) अनुच्छेद 150, (2) अमेरिकी संविधान के अनुच्छेद 1, धारा 8(1), और (3) ऑस्ट्रेलिया के राष्ट्रमंडल संविधान अधिनियम 1900 के अनुरूप है। इस अनुच्छेद के विषय में काफी मुकदमेबाजी भी हुई है।
मामलाः सी.एफ. नारायणन नंबूदरीपाद, कीडांगजाही मनक्कल बनाम मद्रास राज्यः माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि धर्म की गतिविधि एक निजी प्रयोजन है। किंतु यदि सार्वजनिक व्यवस्था के हितों, नैतिकता या स्वास्थ्य की दृष्टि से ऐसी धार्मिक निधियों का प्रबंधन राज्य अपने हाथ में लेता है, तो यह सार्वजनिक प्रयोजन माना जायेगा।
राज्यों के कर अधिरोपित करने के अधिकारों पर प्रतिबंध
3.9 अनुच्छेद 286 - कर अधिरोपित करने के राज्यों के अधिकार
अनुच्छेद 286 राज्य सरकारों को ‘‘समाचार पत्रों के अलावा वस्तुओं के क्रय और विक्रय‘‘ पर कर अधिरोपित करने के अधिकार प्रदान करता है। परंतु कुछ संघीय कानून भी हैं जैसे ‘‘आयात और निर्यात‘‘ और ‘‘समाचारपत्रों के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं के क्रय और विक्रय पर कर, जब इस प्रकार का क्रय या विक्रय अंतर राज्य व्यापार या वाणिज्य दौरान किया गया हो।‘‘ इस प्रकार के अतिव्याप्त बचने के लिए अनुच्छेद 286 के तहत राज्यों को प्रदान किये गए अधिकार निम्न शर्तों द्वारा प्रतिबंधित किये गए हैं।
3.10 अनुच्छेद 286 (1) (ए)
कोई भी राज्य अपनी भौगोलिक सीमा के बाहर होने वाले विक्रय पर कर अधिरोपित नहीं कर सकता।
यह अनुच्छेद विशेष रूप से राज्यों को किसी भी ऐसे क्रय या विक्रय पर कर अधिरोपित करने से प्रतिबंधित करता है, जो उस राज्य के भौगोलिक क्षेत्र से बाहर किये जाते हैं। परंतु इस अनुच्छेद की धारा 2 स्पष्ट रूप से उस सिद्धांत को निर्दिष्ट करती कि क्रय या विक्रय को राज्य की सीमा से बाहर कब माना जाये।
3.11 अनुच्छेद 286 (1) (बी)
कोई भी राज्य आयात या निर्यात के दौरान हुए क्रय या विक्रय पर कर अधिरोपित नहीं कर सकता।
यह अनुच्छेद राज्य को ऐसे किसी क्रय या विक्रय पर कर अधिरोपित करने से प्रतिबंधित करता है, जब यह क्रय या विक्रय वस्तु के भारत की सीमा के अंदर आयात या भारत की सीमा से बाहर निर्यात के दौरान किया गया है। संसद कानून के तहत यह निर्धारित करने के सिद्धांत बना सकती है कि कब कोई क्रय या विक्रय आयात या निर्यात के दौरान हुआ माना जायेगा।
मामलाः के गोपीनाथ बनाम केरल राज्य सी.सी.आई. द्वारा अफ्रीकी व्यापारियों से काजू क्रय करके उनका भारत में आयात किया गया था, जो सी.सी.आई. द्वारा स्थानीय उपभोक्ताओं को बेचे गए थे। सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि सी.सी.आई. द्वारा किया गया विक्रय आयात के दौरान नहीं माना जा सकता, और यह केंद्रीय विक्रय कर अधिनियम 1956 के तहत छूट के लिए पात्र नहीं था। इस मामले में सी सी आई और क्रेताओं के बीच समझौते के स्वरुप के आधार पर विक्रय की कार्रवाई और आयात का कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था, और सी.सी.आई. द्वारा आयात के लिए परिणत करने की योजना के कारण द्वारा भी विक्रय छूट में नहीं आते हैं।
संघीय सूची की प्रविष्टि 92 ए भी उल्लिखित करती है कि कोई भी राज्य अंतर राज्य व्यापार और वाणिज्य के दौरान हुए क्रय या विक्रय पर कर अधिरोपित नहीं कर सकताः
क्रय या विक्रय पर कर अधिरोपित करने का संपूर्ण और स्पष्ट अधिकार केवल संसद में निहित है। केंद्रीय विक्रय कर अधिनियम के अनुच्छेद 3 में भी यह प्रावधान किया गया है किः किसी क्रय या विक्रय को अंतर राज्य व्यापार या वाणिज्य के दौरान हुआ माना जायेगा यदि क्रय या विक्रय - (ए) के कारण वस्तुओं को एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जाया जाता है; या (बी) या यह वस्तुओं के एक राज्य से दूसरे राज्य में परिवहन के दौरान के स्वामित्व के दस्तावेजों के माध्यम से किया गया हो।
3.12 अनुच्छेद 286 (3)
विशेष महत्त्व की वस्तु के क्रय या विक्रय पर कर
अंतर-राज्य व्यापार या वाणिज्य में विशेष महत्व की वस्तुएं केंद्रीय विक्रय कर अधिनियम 1956 के अनुच्छेद 14 में घोषित की गई हैं। इस प्रकार अनुच्छेद 15 ऐसी वस्तुओं पर अधिरोपण पर प्रतिबंध लगाता है।
अनुच्छेद 366 की धारा 29-ए में वस्तुओं में किसी कार्य अनुबंध के क्रियान्वयन में, संपत्ति के हस्तांतरण पर वस्तुओं के क्रय या विक्रय, किराया क्रय के तहत वस्तुओं के हस्तांतरण या किश्तों में भुगतान की किसी प्रणाली के तहत, नकद में किसी भी प्रयोजन के लिए वस्तुओं के उपयोग के लिए, अधिकारों के हस्तांतरण, विलंबित भुगतान या किसी भी मूल्यवान प्रतिफल के लिए कर का प्रावधान किया गया है। इस प्रकार राज्य के कानून को उपरोक्त वस्तुओं पर कर अधिरोपण से प्रतिबंधित किया गया है।
3.13 अनुच्छेद 277
यह अनुच्छेद उन करों, शुल्कों, उप करों, या फीस का उल्लेख करता है जो संविधान के लागू होने के तुरंत पहले सरकार द्वारा कानून के अनुसार अधिरोपित किये गए थे, वे उसी प्रयोजन के अनुसार जारी रहेंगे, यद्यपि उपरोक्त चीजें संघीय सूची में उल्लिखित हैं, यदि इसके किसी अन्य कानून का प्रावधान नहीं किया गया है।
दुर्गा दास बसु के अनुसार इस अनुच्छेद का उद्देश्य नए संवैधनिक अधिनियमों के अस्तित्व में आने के कारण विद्यमान करों में होने वाले परिवर्तनों के कारण और इन परिवर्तनों के प्रभावशील होने के कारण स्थानीय सरकारों और प्राधिकरणों के वित्तीय साधनों के विस्थापन को प्रतिबंधित करना था।
यह माना गया है कि करारोपण जनता के लाभ के लिए है, जो राज्य या स्थानीय सरकारी प्राधिकरणों द्वारा किये जाने वाले व्ययों का परिणाम हैं। इस अनुच्छेद का दायरा सीमित है और जहां संविधान के तहत संघ और राज्यों के बीच शक्तियों के आवंटन में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ है, वहां इस अनुच्छेद का अनुप्रयोग नहीं हुआ है।
मामलाः अमरावती नगरपालिका बनाम रामचंद्र अमरावती नगरपालिका ने संविधान के लागू होने से पहले जारी किये गए एक कानून के अनुसार सोने और चांदी को छोड़ कर, रेल या सड़क मार्ग से नगरपालिका की सीमा से बाहर निर्यात या सीमा के अंदर आयात की गई वस्तुओं पर सीमा कर अधिरोपित किया था। संविधान के अस्तित्व में आने के बाद सूची प् की प्रविष्टि 89 के अनुसार इस प्रकार का कर अधिरोपित करने का अधिकार संसद को दिया गया था। संविधान लागू होने के बाद नगरपालिका की 1959 की एक संशोधन अधिसूचना के अनुसार सोने और चांदी को भी सीमा कर के दायरे में समाविष्ट कर लिया गया था। न्यायालय ने माना कि नगरपालिका की कार्रवाई इस आधार पर असंवैधानिक थी कि अनुच्छेद 277 ना तो दर वृद्धि की अनुमति दे सकता है, और ना ही इसके भार में परिवर्तन किया जा सकता है।
यह याद रखा जाना चाहिए कि अनुच्छेद 372 एक सामान्य प्रावधान है और अनुच्छेद 277 एक विशेष प्रावधान है। अनुच्छेद 372 संविधान के पहले के सभी वैध कानूनों को संरक्षित करता है, जबकि अनुच्छेद 277 केवल करों, शुल्कों, उप करों और फीस तक सीमित है। अनुच्छेद 372 को अनुच्छेद 277 की शर्तों के तहत पढ़ा जाना चाहिए।
मामलाः हैदराबाद केमिकल एंड़ फार्मास्यूटिकल वर्क्स लिमिटेड बनाम आंध्र प्रदेश राज्य आवेदक ऐसी औषधियों का विनिर्माण करता था जिनमें उन्हें अल्कोहल का उपयोग करना पड़ता था। वे हैदराबाद आबकारी अधिनियम के तहत प्राप्त अनुज्ञप्ति और उसके तहत बनाये गए नियमों के अनुसार कार्य करते थे। पर्यवेक्षण के लिए उन्हें राज्य सरकार को एक निश्चित फीस अदा करनी पड़ती थी। उसके बाद संसद ने औषधीय एवं प्रसाधन विनिर्माण अधिनियम 1955 पारित किया, जिसके तहत उन्हें फीस का भुगतान करने की आवश्यकता नहीं थी। याचिकाकर्ता ने केंद्रीय अधिनियम 1955 पारित होने के बाद राज्य सरकार द्वारा फीस लिए जाने को चुनौती दी। सूची 1 की प्रविष्टि 84 और अनुसूची VII और अनुच्छेद 277 के आधार पर राज्य सरकार कोई भी शुल्क अधिरोपित नहीं कर सकती थी। यह मान्य किया गया कि संसद द्वारा पारित कानून के बाद हैदराबाद अधिनियम को निरसित माना जाना चाहिए था।
कर और फीस में भी अंतर है कर सार्वजनिक प्रयोजन के लिए किया अधिरोपण है, जिसमें राज्य द्वारा प्रदान की गई किसी सेवा या किसी लाभ का उल्लेख नहीं किया जाता। जबकि फीस राज्य द्वारा व्यक्ति के लाभ के लिए प्रदान की गई सेवा के लिए अधिरोपित किया गया भुगतान है। यह एक ऐसे सिद्धांत के अनुरूप अधिरोपित किया जाता है जो कर के ठीक विरुद्ध है। कर का भुगतान सरकार द्वारा सभी करदाताओं को प्रदान किया गया एक सामान्य लाभ है, जबकि फीस का भुगतान किसी विशेष लाभ के लिए किया जाता है।
3.14 अनुच्छेद 279
शुद्ध प्राप्तियों इत्यादि की गणना - अनुच्छेद में ‘‘शुद्ध प्राप्तियों‘‘ की परिभाषा दी गई है। इसका अर्थ है कर की समस्त प्राप्तियां, जिनमें से संग्रहण की लागतें हटा दी गईं हों। किसी राज्य में कर की शुद्ध प्राप्ति का भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) का प्रमाणपत्र अंतिम माना जाता है।
4.0 वित्त आयोग
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 280 में यह प्रावधान किया गया है कि भारत के राष्ट्रपति द्वारा एक वित्त आयोग की नियुक्ति की जाएगी। वित्त आयोग का विचार ऑस्ट्रेलिया के राष्ट्रमंडल आयोग से लिया गया है। संविधान के वित्तीय प्रावधानों की समिति ने वित्त आयोग के गठन की सिफारिश की थी। भारत में वित्त आयोग भविष्य की दृष्टि से एक अत्यंत महत्वपूर्ण नवोन्मेष है, क्योंकि या भारत की वित्तीय प्रणाली के चरित्र को संघीय बनाने का प्रयास करता है। यह बात उल्लेखनीय और ध्यान देने योग्य है कि राज्यों की आवश्यकताओं का आकलन करते समय वित्त आयोग अन्य बातों के अलावा इस सिद्धांत के मार्गदर्शन का पालन करता है कि ‘‘वितरण की योजना का प्रयास राज्यों के बीच असमानता को कम करने का होना चाहिए।‘‘ संविधान के निर्माताओं ने सुनिश्चित किया कि केंद्र से राज्यों को निधियों का हस्तांतरण इस प्रकार नहीं किया जाना चाहिए जो राज्यों की स्वायत्तता को क्षति पहुंचाए। अनुच्छेद 280 के अनुसार यह अनिवार्य है कि प्रत्येक पांच वर्ष की समाप्ति के बाद या उससे पहले ऐसे किसी समय जिसे राष्ट्रपति उचित और आवश्यक समझें, राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की नियुक्ति करें।
वित्त आयोग अधिनियम के अनुसार इसे दीवानी न्यायालय के सभी अधिकार प्रदान किये गए हैं जैसे गवाहों को समन जारी करना, किसी भी दस्तावेज की प्रस्तुति की मांग करना, किसी भी व्यक्ति से किसी भी जानकारी के बिंदुओं की मांग करना, जो आयोग को उसके विचाराधीन किसी मामले के संबंध में आवश्यक प्रतीत होती है।
वित्त आयोग का गठनः वित्त आयोग अधिनियम 1952 के अनुसार आयोग में राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त एक अध्यक्ष और चार अन्य सदस्य होंगे। अधिनियम आगे कहता है कि अध्यक्ष का चयन ऐसे व्यक्तियों में से किया जायेगा जिनका सार्वजनिक मामलों में लंबा अनुभव हो, और सदस्यों का चयन निम्न श्रेणियों में से किया जायेगाः
- ऐसे व्यक्ति जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के योग्य हों; या
- जिनके पास वित्तीय मामलों का विशेष ज्ञान उपलब्ध हो; या
- जिन्हें वित्तीय और प्रशासनिक मामलों का व्यापक अनुभव प्राप्त हो; या
- जिन्हें अर्थशास्त्र का विशेष ज्ञान प्राप्त हो।
4.1 वित्त आयोग का महत्त्व
इसमें अनेक जटिल वित्तीय मामलों को सुलझाने की क्षमता होती है, जो संघ और राज्यों के संबंधों को प्रभावित कर सकते हैं। पिछले 12 वित्त आयोगों की सिफारिशों ने साबित किया है कि आयोग ने अनेक जटिल समस्याओं को सुलझाया है, और संघ और राज्यों के बीच का वर्तमान वित्तीय आवंटन लगभग इन्हीं सिफारिशों का परिणाम है। सिफारिशें करते समय वित्त आयोग सभी प्रासंगिक मामलों को संज्ञान में लेगा, जिनमें संघ की वित्तीय स्थिति भी शामिल है।
4.2 वित्त आयोग के कार्य
इसका पहला कार्य पंच निर्णय के स्वरुप का होगा, अतः आयोग का निर्णय अंतिम होगा। अनुच्छेद 280 (3) द्वारा निम्न कर्तव्य वर्णित किये गए हैंः
- करों की शुद्ध प्राप्तियों का संघ और राज्यों के बीच वितरण, जो उनके बीच किया जाना है, या विभाजित किया जायेगा, और ऐसी प्राप्तियों में उनकी क्रमशः हिस्सेदारी;
- भारत की संचित निधि में से राज्यों के राजस्व की अनुदान सहायताओं को शासित करने के सिद्धांत;
- राज्य के वित्त आयोग द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर राज्य की पंचायतों के संसाधनों को अनुपूरित करने के लिए राज्य की संचित निधि को बढाने के लिए किये जाने वाले उपाय;
- राज्य के वित्त आयोग द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर राज्य की नगरपालिकाओं के संसाधनों को अनुपूरित करने के लिए राज्य की संचित निधि को बढाने के लिए किये जाने वाले उपाय और
- मजबूत वित्तीय व्यवस्था के लिए राष्ट्रपति द्वारा सुझाये गए अन्य मामले जो उसे प्रेषित किये गए हों।
4.3 विभिन्न वित्त आयोग
शुरुआत में वित्त आयोग से उम्मीद की जाती थी कि वह अनुच्छेद 269, 272, 275, और 282 के तहत सभी वित्तीय हस्तांतरणों को समाविष्ट करेगा। वास्तव में पहले और दूसरे वित्त आयोगों ने राज्यों की राजस्व और पूंजीगत, दोनों प्रकार की वित्तीय आवश्यकताओं के लिए वित्तीय सहायता की सिफारिशें की थीं, परंतु योजना आयोग के गठन के कारण इस कार्य का विभाजन हो गया, और वित्त आयोग की भूमिका गैर-योजना व्यय तक सीमित रह गई। अंतिम वित्त आयोग की स्थापना 2012 में की गई थी और इसके अध्यक्ष श्री वाय.वी. रेड्डी हैं। उम्मीद है कि वित्त आयोग केवल दो मानदंडों का अनुप्रयोग करेगा; एक है राज्य के कर प्रयास, और दूसरा है इसकी सिफारिशों के निर्माण में कुशलता और मितव्ययता। राजस्व के वितरण के मामले में वित्त आयोग अत्यंत सहायक सिद्ध हुआ है, और आशा है कि भविष्य में भी यह इसी प्रकार से उपयोगी साबित होगा।
4.4 चौदहवा वित्त आयोग
14 वें वित्त आयोग ने केन्द्रीय विभाज्य पूल में राज्यों का हिस्सा वर्तमान 32 प्रतिशत से बढ़ाकर मूलतः 42 प्रतिशत कर दिया है, जो उर्ध्वाध्र अंतरण में अब तक का सबसे अधिक है । पिछले दो वित्त आयोगों अर्थात् 12 वें (अवधि 2005-2010) और 13 वें (अवधि 2010-2015) ने केन्द्रीय विभाज्य पूल में राज्य हिस्सा क्रमशः 30.5 प्रतिशत (1 प्रतिशत की वृद्धि) और 32 प्रतिशत (1.5 प्रतिशत की वृद्धि की सिफारिश) की थी। 14 वें वित्त आयोग ने राज्यों के बीच विभाज्य पूल में राज्य हिस्से के वितरण के लिए नए क्षैतिज सूत्र का भी सुझाव दिया है । सम्मिलित/असम्मिलित परिवर्तनीय कारकों तथा उन्हें सौंपे जाने वाले भारांशों, दोनों में बदलाव हैं। 13 वें वित्त आयोग की अपेक्षा, 14 वें वित्त आयोग ने दो नए परिवर्तनीय कारक जोड़े हैं - 2011 की जनसंख्या और वन क्षेत्र, और राजकोषीय अनुपालन कारक को निकाल दिया है। कई अन्य प्रकार के अंतरणों का सुझाव दिया गया है, जिनके अंतर्गत ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों को अनुदान, आपदा राहत के लिए अनुदानों सहित निष्पादन अनुदान और राजस्व घाटा सम्मिलित हैं। 2015-20 की अवधि के लिए ये अंतरण कुल मिलाकर लगभग 5.3 लाख करोड़ रुपए के हैं। 14 वें वित्त आयोग ने 13 वें वित्त आयोग के विपरीत सैक्टर-विशिष्ट अनुदानों से संबंधित कोई सिफारिश नहीं की है।
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