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उच्च न्यायालय (हाई कोर्ट)
1.0 संवैधानिक प्रावधान
भारतीय राज्यों की न्याय व्यवस्था में एक उच्च न्यायालय और बहुत से अधीनस्थ न्यायालय होते हैं। केंद्र की संसद नियमों के अनुसार दो या अधिक राज्यों के लिए या, एक या अधिक राज्यों के लिए और एक या अधिक केन्द्रशासित प्रदेशों के लिए एक साझा उच्च न्यायालय स्थापित कर सकती है। प्रत्येक राज्य का अपना उच्च न्यायालय होता है जो उसके अधिकार में आने वाले प्रदेशों के लिए कार्य करता है। भारत में केवल संसद ही उच्च न्यायालय को नियंत्रित कर सकती है या उसकी संरचना में या उसके संविधान में बदलाव कर सकती है।
अनुच्छेद 214 - राज्यों के लिए उच्च न्यायालय
प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय होगा।
अनुच्छेद 215 - उच्च नयायालयों का अभिलेख न्यायालय होना
प्रत्येक उच्च न्यायालय अभिलेख न्यायालय होगा और उसको अपने अवमान के लिए दंड देने की शक्ति सहित ऐसे न्यायालय की सभी शक्तियां होंगी।
अनुच्छेद 216 - उच्च न्यायालयों का गठन
प्रत्येक उच्च न्यायालय मुख्य न्यायमूर्ति और ऐसे अन्य न्यायाधीशों से मिलकर बनेगा जिन्हें राष्ट्रपति समय-समय पर नियुक्त करना आवश्यक समझे।
अनुच्छेद 217 - उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति और उसके पद की शर्तें
- भारत के मुख्य न्यायमूर्ति से, उस राज्य के राज्यपाल से और मुख्य न्यायमूर्ति से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की दशा में उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श करने के पश्चात् राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा और वह न्यायाधीश अपर या कार्यकारी न्यायाधीश की दशा में अनुच्छेद 224 में उपबंधित रूप में पद धारण करेगा और किसी अन्य दशा में तब तक पद धारण करेगा जब तक वह बासठ वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेता है।
परंतु -
- कोई न्यायाधीश, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा;
- किसी न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के लिए अनुच्छेद 124 के खंड (4) में उपबंधित रीति से उसके पद से राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकेगा;
- किसी न्यायाधीश का पद, राष्ट्रपति द्वारा उसे उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किए जाने पर या राष्ट्रपति द्वारा उसे भारतके राज्यक्षेत्र मेंकिसी अन्य उच्च न्यायालय को, अंतरित किए जाने पर रिक्त हो जाएगा।
- कोई व्यक्ति, किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए तभी अर्हित होगा जब वह भारत का नागरिक है और
- भारत के राज्यक्षेत्र में कम से कम दस वर्ष तक न्यायिक पद धारण कर चुका है; या
- किसी उच्च न्यायालय का या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम दस वर्ष तक अधिवक्ता रहा है;
स्पष्टीकरण - इस खंड के प्रयोजनों के लिए
(क) भारत के राज्यक्षेत्र में न्यायिक पद धारण करने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान कोई व्यक्ति न्यायिक पद धारण करने के पश्चात् किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहा है या उसने किसी अधिकरण के सदस्य का पद धारण किया है अथवा संघ या राज्य के अधीन कोई ऐसा पद धारण किया है जिसके लिए विधि का विशेष ज्ञान अपेक्षित है।
(कक) किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने अधिवक्ता होने के पश्चात् न्यायिक पद धारण किया है या किसी अधिकरण के सदस्य का पद धारण किया है अथवा संघ या राज्य के अधीन कोई ऐसा पद धारण किया है जिसके लिए विधि का विशेष ज्ञान अपेक्षित है
(ख) भारत के राज्यक्षेत्र में न्यायिक पद धारण करने या किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहने की अवधि की संगणना करने में इस संविधान के प्रारंभ से पहले की वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने, यथास्थिति, ऐसे क्षेत्र में जो 15 अगस्त, 1947 से पहले भारत शासन अधिनियम, 1935 में परिभाषित भारत में समाविष्ट था, न्यायिक पद धारण किया है या वह ऐसी किसी क्षेत्र में कि उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहा है।
- यदि उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश की आयु के बारे में कोई प्रश्न उठता है तो उस प्रश्न का विनिश्चय भारत के मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श करने के पश्चात् राष्ट्रपति का विनिश्चय अंतिम होगा।
अनुच्छेद 218 - उच्चतम न्यायालय से संबंधित कुछ उपबंधों का उच्च न्यायालयों को लागू होना
अनुच्छेद 124 के खंड (4) और खंड (5) के उपबंध, जहां-जहां उनमें उच्चतम न्यायालय के प्रति निर्देश है वहां-वहां उच्च न्यायालय के प्रति निर्देश प्रतिस्थापित करके, उच्च न्यायालय के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वे उच्चतम न्यायालय के संबंध में लागू होते हैं।
अनुच्छेद 219 - उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान
उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होने के लिए नियुक्त प्रत्येक व्यक्ति, अपना पद ग्रहण करने से पहले, उस राज्य के राज्यपाल या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त व्यक्ति के समक्ष, तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्रारूप के अनुसार, शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा।
अनुच्छेद 220 - स्थायी न्यायाधीश रहने के पश्चात् विधि-व्यवसाय पर निर्बंधन
कोई व्यक्ति, जिसने इस संविधान के प्रारंभ के पश्चात् किसी उच्च न्यायालय के स्थायी न्यायाधीश के रूप में मद धारण किया है, उच्चतम न्यायालय और अन्य उच्च न्यायालयों के सिवाय भारत में किसी न्यायालय या किसी प्राधिकारी के समक्ष अभिवचन या कार्य नहीं करेगा।
स्पष्टीकरण - इस अनुच्छेद में, ‘‘उच्च न्यायालय‘‘ पद के अंतर्गत संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 के प्रारंभ से पहले विद्यमान पहली अनुसूची के भाग (ख) में विनिर्दिष्ट राज्य का उच्च न्यायालय नहीं है।
अनुच्छेद 221 - न्यायाधीशों के वेतन आदि
- प्रत्येक उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को ऐसे वेतनों का संदाय किया जाएगा जो संसद विधि द्वारा, अवधारित करें और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसे वेतनों का संदाय किया जाएगा जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं।
- प्रत्येक न्यायाधीश ऐसे भत्तों तथा अनुपस्थिति छुट्टी और पेंशन के संबंध में ऐसे अधिकारों का, जो संसद द्वारा बनाई गई विध द्वारा या उसके अधीन समय-समय पर अवधारित किए जाएं, और जब तक इस प्रकार अवधारित नहीं किए जाते हैं तब तक ऐसे भत्तों और अधिकारों का जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, हकदार होगा।
परंतु किसी न्यायाधीश के भत्तों में और अनुपस्थिति छुट्टी या पेंशन के संबंध में उसके अधिकारों में उसकी नियुक्ति के पश्चात उसके लिए अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जाएगा।
अनुच्छेद 222 - किसी न्यायाधीश का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय को अंतरण
- राष्ट्रपति, भारत के मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श करने के पश्चात् किसी न्यायाधीश का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायलय को अंतरण कर सकेगा।
- जब कोई न्यायाधीश इस प्रकार अंतरित किया गया है या किया जाता है तब वह उस अवधि के दौरान, जिसके दौरान वह संविधान (पंद्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 कि प्रारंभ के पश्चात् दूसरे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में सेवा करता है, अपने वेतन के अतिरिक्त ऐसा प्रतिकारात्मक भत्ता, जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा नियकत करे, प्राप्त करने का हकदार होगा।
अनुच्छेद 223 - कार्यकारी मुख्य न्यायमूर्ति की नियुक्ति
जब किसी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति का पद रिक्त है या जब ऐसा मुख्य न्यायमूर्ति अनुपस्थिति के कारण या अन्यथा अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है तब न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों में से ऐसा एक न्यायाधीश, जिसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा।
अनुच्छेद 224 - अपर और कार्यकारी न्यायाधीशों की नियुक्ति
- यदि किसी उच्च न्यायालय के कार्य में किसी अस्थायी वृद्धि के कारण या उसमें कार्य की बकाया के कारण राष्ट्रपति को यह प्रतीत होता है कि उस न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या को तत्समय बढ़ा देना चाहिए तो राष्ट्रपति सम्यक् रूप से अर्हित व्यक्तियों को दो वर्ष से अनधिक की ऐसी अवधि के लिए जो वह विनिर्दिष्ट करें, उस न्यायालय के अपर न्यायाधीश नियुक्त कर सकेगा।
- जब किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायमूर्ति से भिन्न कोई न्यायाधीश अनुपस्थिति के कारण या अन्य कारण से अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है या मुख्य न्यायमूर्ति के रूप में अस्थायी रूप से कार्य करने के लिए नियुक्त किया जाता है तब राष्ट्रपति सम्यक् रूप से अर्हित किसी व्यक्ति को तब तक के लिए उस न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने के लिए नियुक्त कर सकेगा जब तक स्थायी न्यायाधीश अपने कर्तव्यों को फिर से नहीं संभाल लेता है।
- उच्च न्यायालय के अपर या कार्यकारी न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कोई व्यक्ति 62 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने के पश्चात् पद धारण नहीं करेगा।
अनुच्छेद 224(क) - उच्च न्यायालयों की बैठकों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति
इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य के उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायमर्ति, किसी भी समय, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से किसी व्यक्ति से, जो उस उच्च न्यायालय या किसी अन्य उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का पद धारण कर चुका है, उस राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने का अनुरोध कर सकेगा और प्रत्येक ऐसा व्यक्ति, जिससे इस प्रकार अनुरोध किया जाता है, इस प्रकार बैठने और कार्य करने के दौरान ऐसे भत्तों का हकदार होगा जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा अवधारित करे और उसको उस उच्च न्यायालय के न्यायधीश की सभी अधिकारिता, शक्तियां और विशेषाधिकार होंगे, किंतु उसे अन्यथा उस उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नहीं समझा जाएगा।
परंतु जब तक यथापूर्वोक्त व्यक्ति उस उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने की सहमति नहीं दे सकता है तब तक इस अनुच्छेद की कोई बात उससे ऐसा करने की अपेक्षा करने वाली नहीं समझी जाएगी।
अनुच्छेद 225 - विद्यमान उच्च न्यायालयों की अधिकारिता
इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए और इस संविधान द्वारा समुचित विधान मंडल को प्रदत्त शक्तियों के आधार पर उस विधान मंडल द्वारा बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी विद्यमान उच्च न्यायालय की अधिकारिता और उसमें प्रशासित विधि तथा उस न्यायालय में न्याय प्रशासन के संबंध में उसके न्यायाधीशों की अपनी-अपनी शक्तियों, जिनके अंतर्गत न्यायालय के नियम बनाने की शक्ति तथा उस न्यायालय और उसके सदस्यों की बैठकों का चाहे वे अकेले बैठें या खंड न्यायालयों में बैठें विनियमन करने की शक्ति है, वहीं होंगी जो इस संविधान के प्रांरभ से ठीक पहले थींः
परंतु राजस्व संबंधी अथवा उसका संग्रहण करने में आदिष्ट या किए गए किसी कार्य संबंधी विषय की बाबत उच्च न्यायालयों में से किसी की आरंभिक अधिकारिता का प्रयोग, इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले, जिस किसी निर्बंधन के अधीन था वह निर्बंधन ऐसी अधिकारिता के प्रयोग को ऐसे प्रारंभ के पश्चात् लागू नहीं होगा।
अनुच्छेद 226 - कुछ रिट निकालने की उच्च न्यायालय की शक्ति
- अनुच्छेद 32 में किसी बात के होते हुए भी प्रत्येक उच्च न्यायालय को उन राज्यक्षेत्रों में सर्वत्र, जिनके संबंध में वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है, भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिए और किसी अन्य प्रयोजन के लिए उन राज्यक्षेत्रों के भीतर किसी व्यक्ति या प्राधिकारी को या समुचित मामलों में किसी सरकार को ऐसे निर्देश, आदेश या रिट जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण रिट हैं, या उनमें से कोई निकालने की शक्ति होगी।
- किसी सरकार, प्राधिकारी या व्यक्ति को निर्देश, आदेश या रिट निकालने की खंड (1) द्वारा प्रदत्त शक्ति का प्रयोग उन राज्यक्षेत्रों के संबंध में, जिनके भीतर ऐसी शक्ति के प्रयोग के लिए वादहेतुक पूर्णतः या भागतः उत्पन्न होता है, अधिकारिता का प्रयोग करने वाले किसी उच्च न्यायालय द्वारा भी, इस बात के होते हुए भी किया जा सकेगा कि ऐसी सरकार या प्राधिकारी का स्थान या ऐसे व्यक्ति का निवास स्थान उन राज्यक्षेत्रों के भीतर नहीं हैं।
- जहां कोई पक्षकार, जिसके विरूद्ध खंड (1) के अधीन किसी याचिका पर या उससे संबंधित किसी कार्यवाही में व्यादेश के रूप में या रोक के रूप में या किसी अन्य रीति से कोई अंतरिम आदेश -
- ऐसे पक्षकार को ऐसी याचिका की और ऐसे अंतरिम आदेश के लिए अभिवाक् के समर्थन में सभी दस्तावेजों की प्रतिलिपियां, और
- ऐसे पक्षकार को सुनवाई का अवसर, दिए बिना किया गया है, ऐसे आदेश को रद्द कराने के लिए उच्च न्यायालय को आवेदन करता है और ऐसे आवेदन की एक प्रतिलिपि उस पक्षकार को जिसके पक्ष में ऐसा आदेश किया गया है या उसके काउंसेल को देता है वहां उच्च न्यायालय उसकी प्राप्ति को तारीख से या ऐसे आवेदन की प्रतिलिपि इस प्रकार दिए जाने की तारीख से दो सप्ताह की अवधि के भीतर, इनमें से जो भी पश्चात्वर्ती हो, या जहां उच्च न्यायालय खुला है, आवेदन को निपटाएगा और यदि आवेदन इस प्रकार नहीं निपटाया जाता है तो अंतरिम आदेश, यथास्थिति, उक्त अवधि की या उक्त ठीक बाद वाले दिन की समाप्ति पर रद्द हो जाएगा।
- इस अनुच्छेद द्वारा उच्च न्यायालय को प्रदत्त शक्ति से, अनुच्छेद 32 के खंड (2) द्वारा उच्चतम न्यायालय को प्रदत्त शक्ति का अल्पीकरण नहीं होगा।
अनुच्छेद 226(क) - अनुच्छेद 226 के अधीन कार्यवाहियों में केन्द्रीय विधियों की सांविधानिक वैधता पर विचार न किया जाना
संविधान (तैंतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 8 द्वारा (13-4-78) से निरसित।
अनुच्छेद 227 - सभी न्यायालयों के अधीक्षण की उच्च न्यायालय की शक्ति
- प्रत्येक उच्च न्यायालय उन राज्यक्षेत्रों में सर्वत्र, जिनके संबंध में वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है, सभी न्यायालयों और अधिकरणों का अधीक्षण करेगा।
- पूर्वगामी उपबंध की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, उच्च न्यायालय
- ऐसे न्यायालयों से विवरणी मंगा सकेगा;
- ऐसे न्यायालयों की पद्धति और कार्यवाहियों के विनियमन के लिए साधारण नियम और प्ररूप बना सकेगा, और निकाल सकेगा तथा विहित कर सकेगा; और
- किन्हीं ऐसे न्यायालयों के अधिकारियों द्वारा रखी जाने वाली पुस्तकों, प्रविष्टियों और लेखाओं के प्ररूप विहित कर सकेगा।
- उच्च न्यायालय उन फीसों की सारणियां भी स्थिर कर सकेगा जो ऐसे न्यायालयों के शैरिफ को तथा सभी लिपिकों और अधिकारियों को तथा उनमें विधि-व्यावसाय करने वाले अटर्नियों, अधिवक्ताओं और प्लीडरों को अनुज्ञेय होंगी;
परंतु खंड (2) या खंड (3) के अधीन बनाए गए कोई नियम, विहित किए गए कोई प्ररूप या स्थिर की गई कोई सारणी तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के उपबंध से असंगत नहीं होगी और इनके लिए राज्यपाल के पूर्व अनुमोदन की अपेक्षा होगी।
- इस अनुच्छेद की कोई बात उच्च न्यायालय को सशस्त्र बलों से संबंधित किसी विधि द्वारा या उसके अधीन गठित किसी न्यायालय या अधिकरण पर अधीक्षण की श्क्तियां देने वाली नहीं समझी जाएगी।
अनुच्छेद 228 - कुछ मामलों का उच्च न्यायालय को अंतरण
यदि उच्च न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि उसके अधीनस्थ किसी न्यायालय में लंबित किसी मामले में इस संविधान के निर्वचन के बारे में विधि का कोई सारवान् प्रश्न अंतर्वलित है जिसका अवधारणा मामले के निपटारे के लिए आवश्यक है तो वह उस मामले को अपने पास मंगा लेगा और
- मामले को स्वयं निपटा सकेगा, या
- उक्त विधि के प्रश्न का अवधारणा कर सकेगा और उस मामले को ऐसे प्रश्न पर निर्णय की प्रतिलिपि सहित उस न्यायालय को, जिससे मामला इस प्रकार मंगा लिया गया है, लौटा सकेगा और उक्त न्यायालय उसके प्राप्त होने पर उस मामले को ऐसे निर्णय के अनुरूप निपटाने के लिए आगे कार्यवाही करेगा।
अनुच्छेद 228(क) - राज्य विधियों की सांविधानिक वैधता से संबंधित प्रश्नों के निपटारे के बारे में विशेष उपबंध
संविधान (तैंतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 10 द्वारा (13-4-1978) से निरसित।
अनुच्छेद 229 - उच्च न्यायालयों के अधिकारी और सेवक तथा व्यय
- किसी उच्च न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों की नियुक्तियां उस न्यायालय का मुख्य न्यायमूर्ति करेगा या उस न्यायालय का ऐसा अन्य न्यायाधीश या अधिकारी करेगा जसे वह निर्दिष्ट करे; परंतु उस राज्य का राज्यपाल नियम द्वारा यह अपेक्षा कर सकेगा कि ऐसी किन्हीं दशाओं में जो नियम में विनिर्दिष्ट की जाएं, किसी ऐसे व्यक्ति को, जो पहले से ही न्यायालय से संलग्न नहीं है, न्यायालय से संबंधित किसी पद पर राज्य लोक सेवा आयोग से परामर्श करके ही नियुक्त किया जाएगा, अन्यथा नहीं।
- राज्य के विधान मंडल द्वारा बनाई गई विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्च न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों की सेवा की शर्तें ऐसी होंगी जो उस न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति या उस न्यायालय के ऐेसे अन्य न्यायाधीश या अधिकारी द्वारा, जिसे मुख्य न्यायमूर्ति ने इस प्रयोजन के लिए नियम बनाने के लिए प्राधिकृत किया हे, बनाए गए नियमों द्वारा विहित की जाएंः परंतु इस खंड के अधीन बनाए गए नियमों के लिए, जहां तक वे वेतनों, भत्तों, छुट्टी या पेंशनों से संबंधित है, उस राज्य के राज्यपाल के अनुमोदन की अपेक्षा होगी।
- उच्च न्यायालय के प्रशासनिक व्यय, जिनके अंतर्गत उस न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों को यो उनके संबंध में संदेय सभी वेतन, भत्ते और पेंशन हैं, राज्य की संचित निधि पर भारित होंगे और उस न्यायलय द्वारा ली गई फीसें और अन्य धनराशियां उस निधि का भाग होंगी।
अनुच्छेद 230 - उच्च न्यायालयें की अधिकारिता का संघ राज्य क्षेत्रों पर विस्तार
- संसद विधि द्वारा, किसी संघ राज्यक्षेत्र पर किसी उच्च न्यायालय की अधिकारिता का विस्तार कर सकेगी या किसी संघ राज्यक्षेत्र से किसी उच्च न्यायालय की अधिकारिता का अपवर्जन कर सकेगी।
- जहां किसी राज्य का उच्च न्यायालय किसी संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करता है, वहां
- इस संविधान की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह उस राज्य के विधान मंडल को उस अधिकारिता में वृद्धि, उसका निर्बंधन या उत्सादन करने के लिए सशक्त करती है; और
- उस राज्यक्षेत्र में अधीनस्थ न्यायालयों के लिए किन्हीं नियमों, प्ररूपों, या सारणियों के संबंध में, अनुच्छेद 227 में राज्यपाल के प्रति निर्देश का, यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह राष्ट्रपति के प्रति निर्देश है।
अनुच्छेद 231 - दो या अधिक राज्यों के लिए एक ही उच्च न्यायालय की स्थापना
- इस अध्याय के पूर्ववर्ती उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, संसद विधि द्वारा, दो या अधिक राज्यों के लिए अथवा दो या अधिक राज्यो और किसी संघ राज्यक्षेत्र के लिए एक ही उच्च न्यायालय स्थापित कर सकेगी।
- किसी ऐसे उच्च न्यायालय के संबंध में,
- अनुच्छेद 217 में उस राज्य के राज्यपाल के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जा जाएगा कि वह उन सभी राज्यों के राज्यपालों के प्रति निर्देश है जिनके संबंध में वह उच्च न्यायालय अधिकारिता का प्रयोग करता है; और
- अधीनस्थ न्यायालयों के लिए किन्हीं नियमों, प्ररूपों या सारणियों के संबंध में, अनुच्छेद 227 में राज्यपाल के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह उस राज्य के राज्यपाल के प्रति निर्देश है जिसमें वे अधीनस्थ न्यायालय स्थित है;
- अनुच्छेद 219 ओर अनुच्छेद 229 में राज्य के प्रति निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वे उस राज्य के प्रति निर्देश है, जिसमें उस उच्च न्यायालय का मुख्य स्थान हैः
परंतु यदि ऐसा मुख्य स्थान किसी संघ राज्यक्षेत्र में है तो अनुच्छेद 219 और अनुच्छेद 229 में राज्य के राज्यपाल, लोक सेवा आयोग, विधान मंडल और संचित निधि के प्रति निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वे क्रमशः राष्ट्रपति, संघ लोक सेवा आयोग संसद और भारत की संचित निधि के प्रति निर्देश हैं।
2.0 स्पष्टिकरण
2.1 न्यायाधीश की नियुक्ति और उनके कार्यालय की शर्तें
- प्रत्येक उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीश होंगे जिनकी नियुक्ति समय-समय पर राष्ट्रपति द्वारा की जायेगी।
- राष्ट्रपति के पास निम्न को नियुक्त करने के अधिकार हैं
- अतिरिक्त न्यायाधीश, अस्थायी अवधि के लिए जो दो वर्ष से अधिक न हो; इनकी नियिक्त उच्च न्यायालय के बचे हुए कामों को पूर्ण करने हेतु की जाती है।
- कार्यकारी न्यायाधीश, जब उच्च न्यायालय के स्थायी न्यायाधीश (मुख्य न्यायाधीश के अलावा) अस्थायी रूप से अनुपस्थित हों या अपने कर्त्तव्यों का पालन करने में असमर्थ हों या अस्थायी रूप से उनकी नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश के पद पर हुई हो।
उच्च न्यायालय के हरेक न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जायेगी। मुख्य न्यायाधीश के अलावा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति भारत के प्रमुख न्यायाधीश, राज्य के राज्यपाल, (और हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी) की राय ले सकते हैं।
2.2 कार्यकाल
उच्च न्यायालय का न्यायाधीश आयु के 62वें वर्ष तक इस पद पर कार्य कर सकता है। कोई भी न्यायाधीश (स्थायी, कार्यकारी या अतिरिक्त) आयु सीमा से पहले भी निम्न आधारों पर अपना पद छोड़ सकता है
- राष्ट्रपति को अपना लिखित इस्तीफा भेजकर
- सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किए जाने या अन्य राज्य के उच्च न्यायालय में स्थानांतरण किए जाने पर
- आचार-व्यवहार के आधार पर संसद के सदस्यों की सिफारिश पर (कम से कम दो तिहाई मत मिलने पर) राष्ट्रपति द्वारा हटाए जाने पर
2.3 वेतन-भत्ते
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के वेतन, भत्ते और छुटटी, पेंशन आदि के अधिकार संसद द्वारा तय किए जाते हैं मगर किसी एक न्यायाधीश की नियुक्ति के बाद संसद अपनी इच्छानुसार उसके वेतन-भत्तों में बदलाव नहीं कर सकती।
2.4 नियुक्ति के लिए आवश्यक योग्यता
संविधान के अनुसार न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिए निम्न योग्यताएं होना आवश्यक हैं
- उसे भारत का नागरिक होना चाहिए
- उसकी उम्र 62 वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिए, और
- भारत के किसी भी प्रदेश के न्यायालय में उसे न्यायिक अधिकारी के रूप में दस वर्ष का अनुभव हो या उसने उच्च न्यायालय में वकील के रूप में काम किया हो या लगातार दो या अधिक ऐसे न्यायालयों में काम किया हो।
2.5 न्यायाधीशों की स्वायत्तता
सुप्रीम कोर्ट की तरह ही संविधान ने हाई कोर्ट के न्यायाधीशों को भी पूर्ण स्वायत्तता देने के लिए निम्न प्रावधान रखे हैंः
- हाई कोर्ट के न्यायाधीश को तब तक सेवा से बर्खास्त नहीं किया जा सकता, जबतक सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीश को हटाने की प्रक्रिया का पालन न किया जाए
- न्यायाधीशों के वेतन और भत्तों के खर्च राज्य की समेकित निधि से हांगे
- संविधान में न्यायाधीशों के वेतन का स्पष्ट उल्लेख किया गया है और उन्हें मिलनेवाले भत्ते व पेंशन को संसद द्वारा उनकी नियुक्ति के पश्चात् उन्हें नुकसान पहुचे इस प्रकार नहीं बदला जा सकता सिवाय तब जब अनुच्छेद 360 के तहत् आर्थिक आपातकाल लग गया हो; और
- सेवानिवृत्ति के बाद कोई भी न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट तथा उसने स्वयं जिस हाई कोर्ट में काम किया हो इसके अलावा किसी अन्य कोर्ट में ही वकालत कर सकता है।
3.0 केन्द्र का उच्च न्यायालयों पर नियंत्रण
केन्द्र, उच्च न्यायालयों पर निम्नानुसार नियंत्रण रखता हैः
- न्यायाधीशों की हाई कोर्ट में नियुक्ति, स्थानांतरण, आयु संबंधी विवाद, पद मुक्ति आदि का निदान केन्द्र द्वारा किया जाता है।
- हाई कोर्ट की स्थापना और संरचना निर्धारित करना तथा दो या दो से अधिक क्षेत्रों के लिए संयुक्त हाईकोर्ट की स्थापना करना, किसी हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र में वृद्धि या कमी करना, ये सभी कार्य संसद के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
4.0 अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction)
संविधान में उच्च न्यायालयों के विविध अधिकार क्षेत्र उस तरह से वर्गीकृत नहीं किए गए हैं जैसा कि इन्हें उच्चतम न्यायालय के लिए किया गया है। इसका कारण यह है कि उच्च न्यायालय संविधान की रचना के पहले से देश में काम कर रहे थे जबकि उच्चतम न्यायालय संविधान की रचना के बाद बनाए गया संस्थान था।
4.1 मूल अधिकार क्षेत्र (Original Jurisdiction)
कलकत्ता, चेन्नई और मुंबई के हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र में 2000 रुपए से अधिक के सभी नागरिक मामले, प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट द्वारा अनुशंसित अपराधिक मामले तथा नौवाहन विभाग, वसीयत, तलाक, विवाह, कंपनी अधिनियम और कोर्ट की अवहेलना के मामले आते हैं।
- संवैधानिक अधिकार और ऐसे ही किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए परमाधिकार प्रादेश दायर करना।
- राज्य विधानसभा और संसद में सदस्यों के चुनाव से संबंधित विवादों का निपटारा करना।
4.2 रिट क्षेत्राधिकार (Writ Jurisdiction)
संविधान की धारा 226 के अनुसार हाईकोर्ट को अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर मौलिक अधिकारों की सुरक्षा का दायित्व सौंपा गया है। धारा 32 के अनुसार मौलिक अधिकारों की सुरक्षा का दायित्व सुप्रीम कोर्ट को पहले ही दिया जा चुका है मगर यह महसूस किया गया कि हरेक के लिए सुप्रीम कोर्ट तक जाना संभव न हो सकेगा। इसलिए मौलिक अधिकारों की सुरक्षा का दायित्व हाईकोर्ट को दिया गया, जिससे बहुसंख्य लोगों के लिए वहां जाकर अपने अधिकार सुरक्षित करना आसान हो गया।
इन धाराओं के अंतर्गत हाईकोर्ट द्वारा अधिक संख्या में रिट जारी की जाती है जबकि सुप्रीम कोर्ट केवल तभी रिट जारी कर सकता है जब किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन हो रहा हो। हाईकोर्ट यह रिट किसी सामान्य अधिकार के उल्लंघन के तहत भी जारी कर सकता है बशर्ते रिट ही उस मामले में सही इलाज हो।
हाईकोर्ट द्वारा रिट के मामले उसके मूल क्षेत्राधिकार में आते हैं, और अपील के निर्णय उसके अधिकार क्षेत्र में आनेवाले सभी कोर्ट के लिए लागू होते हैं। हाईकोर्ट अपने अधिकार क्षेत्र में आनेवाले किसी भी व्यक्ति या अधिकारी के खिलाफ रिट जारी कर सकता है जो विविध प्रकृति की (बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, वारंट आदि) हो सकती हैं।
संसद या विधानसभा के सदस्यों के चुनाव के बारे में शिकायत भी चुनाव याचिका के रूप में संबंधित हईकोर्ट में दायर की जा सकती है।
हाईकोर्ट को नागरिक, अपराधिक और कर संबंधी मामलों में निचली कोर्ट के निर्णय पर दायर अपीलों पर पुनर्विचार करने व उसे बदलने का अधिकार है। इसे अपीलीय क्षेत्राधिकार कहते हैं।
यदि व्यक्ति को किसी मामले में 7 से अधिक साल की सजा हुई है तो सेशन जज (सत्र न्यायाधीश) के निर्णय के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की जा सकती है। किसी भी सत्र न्यायाधीश द्वारा दिए गए मृत्युदंड को हाईकोर्ट की अनुमति के बिना लागू नहीं किया जा सकता।
संशोधित क्षेत्राधिकार के तहत हाईकोर्ट को यह भी अधिकार दिया गया है कि वह निचली अदालत द्वारा दिए गए किसी भी आदेश की जांच कर सकता है और इसके लिए संबंधित रिकार्ड मंगवा सकता है। यह कार्य किसी बाहरी याचिका पर भी हो सकता है या कोर्ट स्वविवेकानुसार भी इसकी मांग कर सकता है।
किसी मामले में यदि हाईकोर्ट को यह विश्वास हो कि उसमें संविधान से जुड़े कानून के पर्याप्त बड़े प्रश्न विद्यमान है; तो वह उस मामले को निचली अदालत से हटाकर अपने विचारार्थ ले सकता है और निर्णय के बाद पुनः उस मामले को निचली अदालत में भेज सकता है, जहां आगे की कार्यवाही उस आदेश की रोशनी में की जाएगी।
भारतीय सेना के मामलों के ट्रिब्यूनल कोर्ट के अलावा सभी निचले कोर्ट, हाईकोर्ट के अधिकार व निरीक्षण में होते हैं। संविधान की धारा 227 में इसका उल्लेख किया गया है। हाईकोर्ट ट्रिब्यूनल के किसी भी मामले में नियमानुसार किसी भी कमी (अधिकार क्षेत्र से बाहर होना, सामान्य न्याय के नियमानुसार न होना आदि) पाए जाने पर उस मामले पर पुनर्विचार कर सकता है।
अतः राज्य के न्यायतंत्र का प्रबंधन करना हाईकोर्ट का प्रमुख कार्य है। निचली अदालतों की नियुक्तियों के समय भी हाईकोर्ट की राय ली जाती है। राज्य की निचली अदालतों की कार्य व्यवस्था के नियम भी हाईकोर्ट ही बनाता है। किसी तय समय सीमा में निचली अदालतों द्वारा विचार किए जानेवाले मामलों की संख्या भी हाईकोर्ट द्वारा ही तय की जाती है।
प्रत्येक हाईकोर्ट अभिलेख न्यायालय होता है। निचली अदालतें इसके निर्णयों को मानने हेतु बाध्य होती हैं। इसकी कार्यवाही और निर्णयों को अन्य मामलों पर निर्णय लेते समय ध्यान में रखा जाता है। यह अवमानना मामलों में दंड दे सकती हैं।
4.3 अधीनस्थ अदालतें
हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र में आनेवाली सभी अदालतों को निचली अदालतें कहा जाता है। राज्य सरकारों को इनके गठन हेतु आवश्यक कानून बनाने होंगे। यह नामावली हरेक राज्य में अलग-अलग हो सकती है। हाईकोर्ट के नीचे, प्रत्येक जिले में जिला अदालतें होती हैं जो जिले में अपीलीय क्षेत्राधिकार का कार्य भी करती हैं। जिला अदालतों के नीचे निचली अदालनतें होती हैं जैसे अतिरिक्त जिला अदालतें, उप अदालतें, मुंसिफ मजिस्ट्रेट कोर्ट, श्रम न्यायालय कोर्ट ऑफ स्पेशल मजिस्ट्रेट क्लास 1, 2 आदि। सबसे निचले स्तर पर पंचायत न्यायालय होते हैं। इन्हें अपराधिक मामलों के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत कोर्ट नहीं माना जाता।
ट्रिब्यूनल कोर्ट के नियमानुसार कार्य न करने पर, नियमों के उल्लंघन पर या सामान्य न्याय के खिलाफ जाने पर हाईकोर्ट इसके खिलाफ मामले पर पुनर्विचार की याचिका दायर करने में सक्षम होता है। इसे उत्प्रेषण लेख (सर्टियोरारी) कहते हैं।
5.0 जनहित याचिका (पी.आई.एल.)
जनहित याचिका की अवधारणा का प्रादुर्भाव आस्ट्रेलिया में हुआ। यह एक सामाजिक-आर्थिक आंदोलन था जिसे न्यायपालिका ने समाज के पिछडे़ वर्ग को न्याय दिलाने हेतु शुरु किया था। यह विचार रोम की न्यायपालिका के ‘अेटियो पापुलरिस ’ विचार से आया था जिसके तहत कोई भी नागरिक जनहित में कुछ गलत होता देखकर इसके खिलाफ याचिका दायर कर सकता था। इसका उद्देश्य एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के खिलाफ मुकदमा दायर करना नहीं था वरन पिछडे हुए वर्ग को न्याय दिलाना था। इसके अंतर्गत कोर्ट कोई भी ऐसा निर्णय नहीं लेता जो संविधान के अनुरूप न हो। ऐसी जनहित याचिका स्वीकार कर न्यायालय कोई भी संविधानेतर क्षेत्राधिकार नहीं बना रहा है। धारा 14 व धारा 21 के अनुसार जनहित याचिका द्वारा किसी भी मनमानी और नियम विरुद्ध प्रशासनिक गतिविधि को चुनौती दी जा सकती है (धारा 14) और ऐसी हर गतिविधि जो किसी नागरिक के सम्मानपूर्ण जीवन जीने में बाधा बन रही हो, उसे इससे चुनौती दी जा सकती है (धारा 21)।
5.1 जनहित याचिका ने तीन महत्वपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति की है
- इससे जनता अपने अधिकारों, और उनकी प्राप्ति में न्यायव्यवस्था के सहयोग के प्रति जागरुक हुई है। कहा जाता है कि इसने न्यायतंत्र को प्रजातांत्रिक रूप दिया है।
- जनहित याचिका के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने धारा 32 और 226 के तहत मौलिक अधिकारों के क्षेत्र को सर्वथा विस्तृत कर दिया है।
- इसने अधिकारियों और नेताओं को मजबूर किया है कि वे जनता के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह करें। अधिकारी अर्थात् कार्यपालिका व नेता अर्थात न्यायपालिका।
5.2 जनहित याचिका के महत्वपूर्ण आयाम
जनहित याचिका के सबसे पहले दायर होने वाले मुकदमों में एक था
बिहार राज्य बनाम हुसैनारा खातूनः यह मामला इन्डियन एक्सप्रेस समाचार पत्र में प्रकाशित आलेखों की श्रृंखला के आधार पर दायर किया गया था, जिसमें विचाराधीन कैदियों की दुर्दशा का खुलासा किया गया था। इसके आधार पर एक वकील ने कोर्ट का ध्यान इन कैदियों की ओर खींचने के लिए मुकदमा दायर किया। इन कैदियों में से कई कैदी तो उनके अपराध के लिए अधिकतम सजा पूरी कर चुके थे मगर कोर्ट का निर्णय न आने के कारण अब तक कैद में थे। सुप्रीम कोर्ट ने इस अपील को सुने जाने का अधिकार दिया इसे अधिस्थिति (लोकस स्टैंड़ाई) कहते हैं और इसके बाद हुई सुनवाई के बाद कोर्ट ने प्रत्येक मामले में जल्द से जल्द सुनवाई करके निर्णय देने का आदेश दिया जिससे जीवन की सुरक्षा हो सके और निजी स्वतंत्रता का हनन रोका जा सके। इसे ‘‘राईट टू स्पीड़ी ट्रायल’’ कहा गया, अर्थात ‘‘त्वरित सुनवाई का अधिकार’’। इसी के तुरंत बाद में कानून विषय के दो प्राध्यापकों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की जिसमें संविधान की धारा 21 के हनन की बात की गई थी।
इस याचिका में संरक्षण गृहों में व्यक्तियों के साथ होनेवाले अमानवीय व्यवहार, कोर्ट में लंबे समय तक चलनेवाले मामले, महिलाओं की तस्करी, गलत कामों के लिए बच्चों की खरीदारी और मजदूरों को श्रम का उचित मोल न देना या बंधुआ मजदूर रखना, आदि को शामिल किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के अधिकार (अधिस्थिति) को स्वीकार करते हुए उन वकीलों को गरीब व्यक्तियों की ओर से लडने की अनुमति दी और ऐसे दिशा निर्देश पारित किए जो उन व्यक्तियों के अधिकारों की सुरक्षा कर सकें व जिससे उनकी स्थिति बहुत सुधरी।
जनहित याचिका का नया स्वरूप -सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन के मामले के निर्णय ने जनहित याचिका को पत्रोचित याचिका में बदलने में बडी भूमिका निभाई। यह पत्र जेल में बंद एक कैदी द्वारा सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश को लिखा गया था। इसमें कैदी ने जेल के हेड़-वार्डर द्वारा दूसरे कैदी के साथ किए गए अमानवीय व्यवहार का उल्लेख किया था। कोर्ट ने उस पत्र को भी किसी रिट (याचिका) के रूप में ही माना।
वर्दीचंद बनाम नगर निगम, रतलाम के मामले में कोर्ट ने नागरिकों की सामूहिक याचिका की अधिस्थिति को मान्यता दी जिसमें उन्होंने नालियों और गटरों के खुले रहने से फैलती दुर्गंध और बीमारियों पर आपत्ति उठाई थी।
केंन्द्र सरकार बनाम परमानंद कटारा के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक वकील की अर्जी को मान्य किया जिसमें उसने हिंदुस्तान टाइम्स समाचार पत्र में प्रकाशित एक आलेख ‘‘कानून घायल को मरने में मदद करता है’’ का उल्लेख किया था। इसमें याचिकाकर्ता ने सडक दुर्घटना में घायल हुए व्यक्तियों की परेशानी को बताया था कि किस तरह अस्पताल उस घायल का इलाज करने से मना करते हैं जब तक कुछ औपचारिकताएं पूरी न की जाएं, भले ही उतनी देर में घायल की मृत्यु क्यों न हो जाए। सुप्रीम कोर्ट ने चिकित्सकीय संस्थाओं को ऐसे घायलों को किसी औपचारिकता के निर्वहन के पहले ही तुरंत इलाज देने का आदेश दिया, और ऐसा न करना गंभीर माना जाएगा यह भी स्पष्ट किया।
भारत में निर्मित हुआ जनहित याचिका का अनोखा प्रारूप न केवल उपभोक्ता सुरक्षा, लिंग समानता, पर्यावरण सुरक्षा और प्रदूषण के मुद्दों को देखता है वरन समाज में उपेक्षित और कमजोर वर्गों को उनके अधिकार दिलाने और उन्हें आगे लाने का भी कार्य करता है। न्यायालयों ने भी इस क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं जैसे भोजन की उपलब्धता, शुद्ध वायु की उपलब्धता, कार्यस्थल पर सुरक्षा, राजनीतिक प्रतिनिधित्व, सकारात्मक कार्य, भेदभाव विरोधी मापदंड, जेल की स्थिति में सुधार और इसी तरह के कई मामले।
पर्यावरण सुरक्षा के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण निर्णय पर्यावरणविद् एम.सी. मेहता की याचिकाओं पर लिए गए हैं। वे इस क्षेत्र में अथक परिश्रम करते रहे हैं और उनकी याचिकाओं के निपटान स्वरूप ही ऐसे कई आदेश निकाले गए जैसे नई दिल्ली में कारखानों से ओलियम गैस की निकासी का प्रबंधन, गंगा नदी के प्रदूषण की जांच, दिल्ली की नगरपालिका द्वारा पर्यावरण के लिए हानिकारक उद्योगों का अन्यत्र स्थापन, ताजमहल के आसपास प्रदूषण की जांच करना, और ऐसे ही कई मुद्दे। दिल्ली में वाहनों द्वारा फैलाए जा रहे भयंकर प्रदूषण को लेकर भी याचिका दायर हुई जिस पर तुरंत निर्णय हुआ।
कोर्ट को भारी व्यवसायिक वाहनों द्वारा फैलाए जा रहे डीजल जनित प्रदूषण के पर्याप्त प्रमाण मिले और कोर्ट ने इस मामले में ठोस कदम उठाते हुए सभी वाहनों को प्राकृतिक गैस (सी.एन.जी.) द्वारा संचालित किए जाने का आदेश दिया। इसके कुछ समय बाद यही आदेश तीन पहिया वाहनों (आटो रिक्शा) के लिए भी लागू किया गया। प्रारंभ में कोर्ट के इस निर्णय को प्रदूषण बोर्ड के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप मानते हुए इसकी आलोचना की गई मगर अब इसे खुले दिल से स्वीकार किया जा रहा है कि न्यायिक हस्तक्षेप के कारण ही दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण पर नियंत्रण पाना संभव हो सका है। इसी तरह का अन्य महत्वपूर्ण निर्णय की याचिका के मामले में दिया गया जब एक पंजीगत समाजसेवी संस्था ने तटीय इलाकों में हो रहे पारिस्थितिक तंत्र की हानि की ओर कोर्ट का ध्यान आकर्षित किया। पिछले कुछ वर्षों में कोर्ट ने जंगलों का कटाव रोकने और पर्यावरण हानि पर नजर रखने के लिए विशेष ‘हरित बैंच’ का गठन किया है।
राजस्थान सरकार बनाम विशाखा के मामले में लैंगिक समानता के मुद्दे पर महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया। यह याचिका बलात्कार की शिकार हुई एक समाजसेविका के मामले में दायर की गई थी। इस मामले में कोर्ट ने महिलाओं के खिलाफ होने वाले हर तरह के भेदभाव को खत्म करने के लिए कुछ दिशा निर्देश बनाए जिनमें कार्य स्थल पर हर तरह के यौन उत्पीड़न को अपराध की श्रेणी में रखा गया। इस निर्णय की भी यह कहकर काफ़ी आलोचना की गई कि यह विधान मंडल के अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ कर रहा है। मगर आजतक विधान मंडल ने इस मुद्दे पर कोई कानून नहीं बनाया है। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि किसी भी बड़े समाजव्यापी परिवर्तन को घटने में समय लगता है और इसके लिए लगातार कार्य किया जाना आवश्यक होता है। भले ही किसी याचिका पर सुनवाई होने या निर्णय लेने में देर लगे मगर उस मुद्दे पर मुकदमा दायर करना ही एक बड़ा कदम होता है।
इस प्रयास का एक तात्कालिक उदाहरण है केन्द्र सरकार बनाम नागरिक स्वतंत्रता हेतु जन संगठन के मामले में लिया निर्णय, जिसमें कोर्ट ने यह सुनिश्चित करने की मांग की कि सभी सरकारी प्राइमरी स्कूलों में मध्याह्न भोजन दिया जा रहा है। मध्याह्न भोजन योजना को कुछ समय पहले जोर शोर से स्कूलों में लागू किया गया था जिससे कमजोर आय वर्ग के बच्चों की स्कूल में उपस्थिति को बढ़ाया जा सके और उन्हें कुपोषण से भी बचाया जा सके। इसके बाद स्कूलों को दिए गए राशन के चोरी हो जाने के बारे में रिपोर्ट प्रकाशित होने लगीं जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार को इस योजना के सही क्रियान्वयन के लिए कडे़ निर्देश दिए।
5.3 न्यायिक समीक्षा और जनहित याचिका (Judicial Review & P.I.L.)
न्यायिक समीक्षा का अर्थ न्यायतंत्र की उस शक्ति से है जिसके अंतर्गत कार्यकारी (कार्यपालिका) एवं विधायिका के विभिन्न कार्यों की संवैधानिक वैधता व उचित्ता की जांच की जा सके। किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में न्यायिक समीक्षा प्रजातंत्र की आत्मा होती है क्योंकि इसके बिना प्रजातंत्र और प्रजातांत्रिक नियम अनुरक्षित नहीं किए जा सकते। न्यायिक समीक्षा भारतीय संविधान का अखंड हिस्सा है जो इसका ‘‘आधारभूत ढांचा’’ बनाता है। न्यायिक समीक्षा की समस्त अवधारणा स्वयं न्यायाधीशों द्वारा हर तरह के तथ्यों के आधार पर विकसित की गई है। इसी तरह न्यायिक समीक्षा की मांग हरेक मामले में जुटाए गए तथ्यों पर निर्भर करती है। जो भी हो, किसी अमूर्त कानून की समीक्षा नहीं की जा सकती।
भले ही हमारे संविधान में न्यायिक समीक्षा का उल्लेख नहीं किया गया है मगर इस अधिकार को न्यायतंत्र ने संविधान के विभिन्न प्रावधानों द्वारा प्राप्त किया है। पहला यह कि संविधान की धारा 13(2) के अनुसार ऐसा कोई भी कानून जो मौलिक अधिकारों का हनन करें उसे अमान्य किया जाए। मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करना सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी है। अतः इसे धारा 32 के अंतर्गत संविधान में उल्लेखित न्यायिक समीक्षा के रूप में स्वीकार किया गया।
न्यायिक समीक्षा का सुप्रीम कोर्ट का अधिकार संवैधानिक संशोधनों तक प्रसारित होता है। हालांकि न्यायपालिका द्वारा संवैधानिक संशोधनों की समीक्षा और उनकी वैधता राजनैतिक दलों के लिए हमेशा से ही विवादस्पद मुद्दा रहा है। संसद किसी अधिनियम को संशोधित कर सकती है बशर्ते उससे किसी मौलिक अधिकार का हनन न होता हो अन्यथा धारा 13 के अंतर्गत उस नियम को अमान्य माना जाएगा। 1967 के गोलकनाथ मामले से पहले कोर्ट इस बात पर निश्चित था कि संवैधानिक संशोधनों को धारा 13 के अंतर्गत कानून नहीं माना जा सकता, अतः यदि उससे किसी मौलिक अधिकार का हनन भी होता हो तो उसे अमान्य नहीं किया जाएगा। गोलकनाथ मामले में इस बात का फैसला हुआ किः
- सारे संवैधानिक संशोधन धारा 13(3) के अंतर्गत कानून माने जाएंगे
- सभी मौलिक अधिकार अपरिवर्तनशील हैं अतः इनमें किसी भी तरह के परिवर्तन के लिए नई संविधान सभा का गठन किया जाना होगा, और
- संवैधानिक संशोधन वैधानिक सत्ता के अधिकार क्षेत्र का मामला है।
सन 1971 में 24वें संशोधन के अंतर्गत संसद ने गोलकनाथ निर्णय को यह कहते हुए उलट दिया था कि विभिन्न संवैधानिक संशोधन धारा 13 के अंतर्गत बाध्य कानून नहीं माने जाएंगे अतः इन पर धारा 368(3) के अंतर्गत कोई प्रश्न नहीं उठाए जा सकते। सन ‘72 में संसद ने 25वां संवैधानिक सुधार अधिनियम पारित किया जिसके अनुसार विधान मंडल ऐसे किसी भी मौलिक अधिकार में संशोधन या विचार कर सकता है यदि वह राज्य के नीति-निदेशक सिद्धातों को आगे बढ़ाने में सहायक हो। 28वें संशोधन में पुराने रियासतदारों को दिए जानेवाले अतिरिक्त अनुदान को समाप्त कर दिया गया। 1973 के प्रसिद्ध केशवनंद भारती मामले में कोर्ट ने सख्ती से कहा कि संसद मौलिक अधिकारों में भले ही संशोधन कर सकती है मगर यह संविधान के ‘मौलिक प्रारूप’ से छेडछाड़ नहीं कर सकती। सन ‘76 के 42वें संशोधन के अंतर्गत धारा 368 की खंड 4 व 5 जोड़कर यह घोषित किया गया कि धारा 368 द्वारा न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती। हालांकि 1980 के मिनर्वा मिल मामले में कोर्ट धारा 368 के आधार पर इस बात पर अड़ा रहा कि न्यायिक समीक्षा संविधान का आधारभूत लक्षण है जिसे किसी भी सुधार के तहत खत्म नहीं किया जा सकता। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्येक मामले में ‘बुनियादी संरचना’ का उल्लेख करना शुरु किया।
5.4 ‘न्यायिक समीक्षा’ का स्थान
स्वतंत्रता पश्चात के भारत में, संविधान में दिए गए व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकारों की स्वायत्ता और प्रभाव को बनाए रखने के लिए संविधान की धाराओं में न्यायिक समीक्षा का प्रावधान रखना जरुरी था। डा. अंबेडकर, जो संविधान सभा की ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष थे, उन्होंने समीक्षा के पक्ष को संविधान के हृदय के रूप में उल्लेखित किया। संविधान की धारा 13(2) स्पष्ट रूप से बताती है कि केन्द्र या राज्य ऐसे किसी नियम की स्थापना नहीं करेगा जिससे किसी भी मौलिक अधिकार का हनन होने की संभावना हो। यदि इसका उल्लंघन करते हुए किसी नियम को लागू किया जाता है तो वह तत्काल शून्य हुआ माना जाएगा।
जैसे प्रशासनिक कार्यों पर न्यायिक समीक्षा का क्रमिक विकास कानून के सिद्धांतों जैसे समानुपात, वैधानिक उम्मीद, युक्तियुक्तता, प्राकृतिक न्याय सिद्धांत आदि के अनुसार हुआ, सुप्रीम कोर्ट और अन्य उच्च न्यायालयों को विधायिका एवं कार्यपालिका की गतिविधियों की संवैधानिकता पर निर्णय देने के अधिकार मिल गये। अधिकांश मामलों में इन समीक्षा अधिकारों का उपयोग मौलिक अधिकारों की सुरक्षा हेतु ही किया गया। उच्च न्यायपालिका में विधायिका की क्षमताओं पर भी प्रश्न किए जा सकते हैं मुख्यतः राज्य और केन्द्र के रिश्तों के संबंध में। चूंकि संविधान की धारा 246 की सातवीं अनुसूची के द्वारा केन्द्र और राज्य की नियम निर्माण शक्तियों को स्पष्ट रूप से विभाजित किया गया है। अतः भारतीय न्यायालयों के समक्ष न्यायिक समीक्षा की संभावनाएं तीन दिशाओं में बनती हैं -
- प्रशासनिक कार्यवाही में निष्पक्षता को सुनिश्चित करना,
- संविधान द्वारा नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करना, और
- राज्य और केन्द्र के बीच वैधानिक क्षमता के प्रश्न का समाधान करना।
संविधान की धारा 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट को मौलिक अधिकारों की रक्षा का अधिकार दिया गया है। यह धारा नागरिकों को यह अधिकार देती है कि वे अपने अधिकारों के हनन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जा सकते हैं और इसके समाधान की मांग कर सकते हैं।
संवैधानिक हितों के हनन की ओर ध्यान दिलाकर उनका पालन करवाना भी एक मौलिक अधिकार है और इसे सामान्य कानून के तहत रिट दायर करके लागू किया जा सकता है। ये रिट निम्न विषयों के अंतर्गत लागू हो सकती है-
- हेबियस कॉर्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका) - (किसी व्यक्ति को नियम के खिलाफ कैद में रखने पर उसे छोड़ने का निर्देश)
- मेंडामसू (परमादेश याचिका) - (किसी जन अधिकारी को उसके कर्तव्यों का निर्वाह करने हेतु निर्देशित करना)
- को वारंटो (अधिकार पृच्छा याचिका) - (किसी व्यक्ति को गलत तरीके से लिए गये पद को खाली करने के लिए निर्देश)
- प्रोहिबिशन (निषेध याचिका) - (निचली अदालत को किसी मामले में सुनवाई हेतु प्रतिबंधित करना), व
- सर्टियोररी (उत्प्रेषण लेख याचिका) - (निचली अदालत में चल रहे किसी मामले को वहां से हटाकर हाई कोर्ट में सुनवाई हेतु निर्देशित करना)।
सुप्रीम कोर्ट के अलावा विभिन्न राज्यों में स्थित उच्च अदालतों (हाईकोर्ट) को भी संवैधानिक अदालतों का दर्जा दिया गया है और धारा 226 के तहत सामान्य नागरिक ऐसी ही याचिकाएं हाईकोर्ट में भी दायर कर सकते हैं। जनहित याचिका के चलन में आने से धारा 32 का रचनात्मक उपयोग बढा है और इसके द्वारा समस्याओं के अभिनव समाधान ढूंढे जा रहे हैं, जैसे सतत् मेंड़ामस के तहत कार्यकारी संस्थाओं को नियमानुसार कार्य करने हेतु बाध्य किया जा सकता है। इस श्रेणी की जनहित याचिकाओं पर निर्णय लेते समय न्यायाधीशों ने भी कई रचनात्मक तरीके जैसे स्टे आर्डर, निषेध आदि इस्तेमाल किये हैं। वैधानिक प्रावधानों के विरूद्ध सफल चुनौतियों की वजह से अनेक लाभ मिले हैं जैसे कि प्रावधानों को ही खारिज कर दिया गया है, या उन्हें हल्का किया गया है। अर्थात् प्रावधान को पूरी तरह निरस्त करने की बजाय उस पर पुनर्विचार किया गया।
1970 के दशक की कुछ प्रारंभिक घटनाओं के अलावा जनहित याचिकाओं ने अपने जनहित की रीति को कायम रखा है। सबसे बडा बदलाव यह हुआ कि जो लोग गरीब थे, अपने अधिकारों के बारे में सचेत नहीं थे या उनकी पहुंच कोर्ट तक नहीं थी उनके मामलों को किसी समाजसेवी संस्था के कार्यकर्ताओं या वकीलों द्वारा कोर्ट में विचारार्थ प्रस्तुत किए जाने को मान्यता मिली।
कई घटनाओं में कोर्ट ने स्वयं स्वप्रेरणा से मुद्दे संज्ञान में लिए हैं व पत्रों द्वारा न्यायाधीशों का ध्यान पीड़ितों द्वारा कई मुद्दों जैसे जेल में कैदियों की दशा, बंधुआ मजदूर आदि की ओर आकर्षित करवाया है। यह प्रक्रिया अब व्यवहार में आ चुकी है और इसे ‘‘पत्रोचित क्षेत्राधिकार‘‘ की श्रेणी में रखा जाने लगा है।
जनहित याचिकाओं की सुनवाई अन्य सामान्य मामलों की तरह नहीं होती है। इन याचिकाओं पर सुनवाई के समय कोर्ट के तौर तरीके अन्य याचिकाओं पर सुनवाई के तरीकों से बिलकुल भिन्न होते हैं। ऐसे मामले जिनमें शासन द्वारा किए गए गलत कार्यों को प्रकाश में लाया जाता है वहां न्यायाधीश भी सक्रिय भागीदारी निभाते हुए याचिका की सुनवाई में विशेष रुचि लेता है और दोनों पक्षों से सवाल-जवाब करके निर्णय पर आते हैं। विशेषकर ऐसे मामलों में जहां शासन के दायित्वों की या पर्यावरण सुरक्षा की बात की जा रही हो, उनपर निर्णय लेते समय किसी को दोषी या निर्दोष साबित करने की बजाय दोनों पक्षों को मिलजुलकर समस्या का समाधान खोजने के लिए कहा जाता है। चूंकि ये याचिकाएं सीधे ही सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट में दायर की जाती हैं अतः याचिकाकर्ता के पास सुनवाई शुरु होने से पहले साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर नहीं होता। इस कठिनाई के निराकरण हेतु हरेक मामले के लिए पृथक रूप से ‘फैक्ट फाइंडिंग कमीशन’ (तथ्य शोधक समिति) जैसी समिति की व्यवस्था की गई है जो केस से संबंधित बातों की जांच करके कोर्ट को अपनी रिपोर्ट देती है। इस समिति मे मामले से संबंधित विशेषज्ञ और कार्यकारी वकील शामिल होते हैं। इन्हें एमीकस क्यूरी अर्थात् ‘न्यायालय का मित्र’ कहा जाता है।
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