यूपीएससी तैयारी - भारत में शासन - व्याख्यान - 4

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आज़ादी पश्चात के महत्वपूर्ण कानून

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1.0 सूचना का अधिकार अधिनियम

1.1 सूचना के अधिकार के लिए अभियान 

सरकारी गोपनीयता अधिनियम पर आपत्तियां 1948 से उठाई जाती रही हैं, जब प्रेस कानून जाँच समिति ने इसमें कुछ संशोधनों की सिफारिश की थी। सरकारी गोपनीयता अधिनियम में संशोधन की संभावनाओं पर विचार करने के लिए 1977 में सरकार ने एक कार्य दल का गठन किया था। दुर्भाग्य से कार्यदल ने किसी संशोधन की सिफारिश नहीं की, क्योंकि उसे लगा कि यह अधिनियम देश की सुरक्षा की रक्षा से संबंधित था, और यह जनहित में सूचना प्रदान करने को प्रतिबंधित नहीं करता, जबकि इसके विरुद्ध भारी साक्ष्य उपलब्ध थे। 1989 में एक समिति का गठन किया गया जिसने उन क्षेत्रों को सीमित करने की सिफारिश की जहां सरकारी जानकारी को गोपनीय रखा जा सकता था, और बाकी क्षेत्रों को जानकारी की गोपनीयता से खोल दिया जाए। हालांकि इन सिफारिशों के परिणाम के रूप में कोई कानून नहीं बनाया गया। 

सरकारी गोपनीयता अधिनियम के दमनकारी वातावरण से एक ऐसे खुले वातावरण में, जहां नागरिक सूचना के अधिकार की मांग कर सकते हैं, परिवर्तित होने के लिए भारत को 77 वर्ष लग गए। सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम 2002 का अधिनियमन भारत के लोकतंत्र के लिए बडे़ बदलाव का परिचायक है, क्योंकि नागरिकों की सूचना तक पहुँच जितनी अधिक होगी उतनी ही नागरिकों की आवश्यकताओं के प्रति सरकार की प्रतिसादिता अधिक होगी। 

1990 के दशक के प्रारंभ में राजस्थान में ग्रामीण गरीबों के संघर्ष के दौरान मजदूर किसान शक्ति संगठन (एम.के.एस.एस.) को जन सुनवाई के माध्यम से व्यक्ति के जीवन में सूचना के महत्त्व को दिखाने का एक अभिनव विचार सूझा। मजदूर किसान शक्ति संगठन अभियान ने शासकीय अभिलेखों में पारदर्शिता, सार्वजनिक व्यय के सामाजिक लेखा परीक्षण और जिन लोगों को उनके अधिकार नहीं मिले हैं उनके लिए एक निवारण तंत्र की मांग की। इस अभियान ने समाज के विभिन्न स्तर के लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया जिनमें सामाजिक कार्यकर्ता, लोक सेवक और वकील भी शामिल थे। 

1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में गठित सूचना के अधिकार के लिए राष्ट्रीय अभियान व्यापक आधार का कार्य मंच बन गया। जैसे-जैसे यह अभियान गति पकड़ता गया, यह स्पष्ट हो गया कि सूचना का अधिकार कानूनी रूप से प्रवर्तनीय होना आवश्यक था। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप न केवल राजस्थान ने सूचना के अधिकार पर एक कानून पारित किया, बल्कि अनेक पंचायतों में भ्रष्टाचार उजागर हुआ और अधिकारियों को सजा हुई। 

1996 भारतीय प्रेस परिषद ने सूचना के अधिकार पर पहला प्रमुख मसौदा कानून तैयार किया। इस मसौदे ने इस बात की पुष्टि कर दी कि सभी नागरिकों को किसी भी सार्वजनिक निकाय से सूचना का अधिकार था। इसमें भी महत्वपूर्ण यह था कि ‘‘सार्वजनिक निकाय‘‘ में न केवल शासकीय निकायों को शामिल किया गया था, बल्कि इसमें निजी स्वामित्व वाले उद्यमों, गैर सांविधिक प्राधिकरणों, कंपनियों, और अन्य निकायों को भी शामिल किया गया था जिनकी गतिविधियाँ सार्वजनिक हितों को प्रभावित करती हैं। जो जानकारी संसद और राज्यों की विधायिकाओं को देने से इंकार नहीं किया जा सकता, वह किसी नागरिक को प्रदान करने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। मसौदे में चूककर्ता अधिकारियों दंड का प्रावधान भी किया गया था।

इसके बाद आया उपभोक्ता शिक्षा अनुसंधान परिषद का मसौदा, जिसे भारत का अब तक का सबसे विस्तृत प्रस्तावित सूचना स्वतंत्रता कानून माना जाता है। अंतर्राष्ट्रीय मानकों की ही पंक्ति में इसने ‘‘अजनबी शत्रुओं’’ को छोड़ कर सभी को सूचना का अधिकार प्रदान किया, चाहे वे इस देश के नागरिक हों या ना हों। 

इसमें संघीय और राज्यों के स्तर पर सार्वजनिक अभिकरणों के लिए यह अनिवार्यता की गई थी कि वे अपने ब्यौरों को सही स्थिति में बनाये रखें, उनके नियंत्रण के तहत आने वाले सभी ब्यौरों से संबंधित एक निर्देशिका प्रदान करें, ब्यौरों के परस्पर जुडे़ हुए नेटवर्क में कम्प्यूटरीकरण को प्रोत्साहित करें, सरकार से संबंधित और सरकारी विभागों द्वारा जारी किये गए सभी कानूनों, विनियमों, दिशा निर्देशों और कल्याणकारी योजनाओं से जुड़ी प्रत्येक जानकारी को प्रकाशित करें। इस मसौदे में सरकारी गोपनीयता अधिनियम के पूरी तरह से निरसन करने का भी प्रावधान किया गया था। हालांकि यह मसौदा संसद में पारित नहीं हो पाया। 

अंत में 1997 में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में संकल्प लिया गया कि राज्य सरकारें पारदर्शिता और सूचना के अधिकार पर मिलकर काम करेंगे। इसके बाद केंद्र इस बात पर सहमत हुआ कि राज्य सरकारों की सलाह के साथ 1997 के अंत से पहले सूचना की स्वतंत्रता कानून को शुरू करने और सरकारी गोपनीयता अधिनियम और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को संशोधित करने की दिशा में तत्काल कदम उठाये जायेंगे। केंद्र और राज्य सरकारें खुलेपन को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक उपाय करने पर भी सहमत हुईं, जिनमें आवश्यक सेवाओं से संबंधित जानकारी लोगो को प्रदान करने के लिए आसानी से उपलब्ध कम्प्यूटरीकृत सूचना केंद्रों की स्थापना और सरकारी कामकाज के कम्प्यूटरीकरण के पहले से जारी प्रयासों को और अधिक गतिशील बनाना शामिल थे। 

1.2 सूचना का अधिकार, 2005 

भारतीय संसद ने सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम, 2002 का निरसन करके सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 का अधिनियमन किया, ताकि सार्वजनिक प्राधिकरणों के नियंत्रण के तहत सूचना की पहुंच को अधिक विस्तृत और अधिक प्रभावी बनाना सुनिश्चित किया जा सके और प्रत्येक सार्वजनिक प्राधिकरण के कार्यों में पारदर्शिता और जवाबदेही को प्रोत्साहित किया जा सके। इस अधिनियम के प्रमुख उद्देश्य हैं प्रत्येक कार्यालय में एक लोक सूचना अधिकारी की नियुक्ति करना, लोक सूचना अधिकारी के निर्णयों की समीक्षा के लिए जांच के अधिकार के साथ एक अपीलीय तंत्र की स्थापना करना, कानून के अनुसार सूचना प्रदान करने में असफल रहने पर दंड़ का प्रावधान करना, न्यूनतम अपवाद और अधिकतम प्रकटीकरण सुनिश्चित करने का प्रावधान करना, और अधिकारियों द्वारा सूचना की पहुंच के लिए एक प्रभावी तंत्र का निर्माण करना। 

1.2.1 सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की प्रमुख विशेषतायें 

  1. सूचना के अधिकार के लिए वैधानिक प्रावधान बनाये गए 
  2. सभी नागरिकों को सूचना का अधिकार उपलब्ध है 
  3. सूचना में किसी भी प्रकार की सूचना किसी भी प्रकार के ब्यौरे में उपलब्ध होगी, जैसे दस्तावेज, ईमेल, परिपत्र, प्रेस विज्ञप्ति, अनुबंध, नमूना या इलेक्ट्रॉनिक डे़टा, इत्यादि
  4. सूचना के अधिकारों में काम, दस्तावेज, ब्यौरे, और उनकी प्रमाणित प्रति, और डिस्क, फ्लॉपी, टेप, वीडियो कैसेट, किसी भी इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में या कंप्यूटर में स्टोर की गई जानकारी इत्यादि का निरीक्षण शामिल है
  5. सामान्य मामले में, अनुरोध करने के 30 दन के अंदर जानकारी प्राप्त की जा सकती है 
  6. यदि जानकारी किसी व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता का मामला है, तो यह अनुरोध करने के 48 घंटे के अंदर प्राप्त की जा सकती है 
  7. प्रत्येक सार्वजनिक प्राधिकरण लिखित अनुरोध या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से किये गए अनुरोध पर जानकारी प्रदान करने के लिए बाध्य है। कुछ सूचनाएं और जानकारियां प्रतिबंधित हैं 
  8. तृतीय पक्षीय जानकारी पर कुछ प्रतिबंध लगाये गए हैं 
  9. केंद्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग के निर्णयों के विरुद्ध अपील पद में उनसे वरिष्ठ अधिकारी के समक्ष की जा सकती है 
  10. सूचना के लिए आवेदन प्राप्त करने से इंकार करने या सूचना नहीं प्रदान करने का दंड 250 रुपये प्रति दिन है, परंतु दंड की कुल राशि 25000 रुपये से अधिक नहीं होनी चाहिए 
  11. केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग केंद्र और संबंधित राज्य सरकारों द्वारा गठित किये जाने हैं
  12. इस अधिनियम के तहत जारी किये गए किसी भी आदेश के संबंध में कोई भी न्यायालय किसी प्रकार का मुकदमा, आवेदन या अन्य प्रक्रिया स्वीकार नहीं कर सकता है।

1.3 राज्यों द्वारा की गई महत्वपूर्ण पहलें 

केंद्र सरकार द्वारा किये गए कार्यों से प्रेरित और प्रोत्साहित होकर अनेक राज्य सरकारें जनता के दबाव के आगे झुक गईं और उन्होंने भी सूचना के अधिकार पर मसौदा कानून तैयार किये। जानकारी की स्वतंत्रता विधेयक अंतिमतः 25 जुलाई 2000 को लोकसभा में प्रस्तुत होने से पहले ही अनेक राज्यों ने अपने पारदर्शिता कानून जारी कर दिए थे। 

गोवाः गोवा राज्य का कानून सबसे पहले और सबसे प्रगतिशील कानूनों में से एक माना जाता है, जिसमें अपवादों की सबसे कम श्रेणियां रखी गई हैं, जीवन और स्वतंत्रता से संबंधित अनुरोधों का तत्काल प्रसंस्करण किया जाना है, और इसमें दंड़ का अनुच्छेद भी रखा गया है। यह सरकारी कार्य करने वाले निजी निकायों पर भी लागू था। इसकी एक कमजोरी यह थी कि सरकार द्वारा सक्रिय प्रकटीकरण का प्रावधान इसमें नहीं किया गया था। 

तमिलनाडुः यह कानून निर्धारित करता था कि जानकारी मांगे जाने के 30 दिन के अंदर अधिकारी मांगी गई जानकारी प्रदान करेंगे। इस कानून के बाद राज्य की सभी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत दुकानों को उपलब्ध स्टॉक प्रदर्शित करने के निर्देश दिए गए थे। सभी सरकारी विभागों ने नागरिक चार्टर निकाले थे जिनमें दर्शाया गया था कि जनता को क्या-क्या जानने और प्राप्त करने का अधिकार था।

कर्नाटकः इस राज्य के सूचना का अधिकार कानून में मानक अपवाद अनुच्छेद रखे गए थे जिनमें 12 श्रेणियों की जानकारी शामिल थी। सक्रिय प्रकटीकरण के लिए इसमें सीमित प्रावधान थे, दंड़ का एक अनुच्छेद था, और इसमें एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण के समक्ष अपील का प्रावधान शामिल था। 

दिल्लीः दिल्ली राज्य का कानून भी गोवा के कानून के अनुरूप ही था, जिसमें मानक अपवाद और एक स्वतंत्र निकाय के समक्ष अपील के प्रावधान थे, साथ इस इसमें सूचना के अधिकार की राज्य परिषद नामक एक सलाहकार निकाय की स्थापना का भी प्रावधान था। राजधानी के रहिवासी के नाममात्र शुल्क देकर कुछ अपवादों को छोड़ कर नागरिक निकाय से किसी भी प्रकार की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इस बात का भी स्पष्ट उल्लेख किया गया था कि यदि जानकारी गलत पायी जाती है, या जानबूझ कर इसमें छेड़छाड़ की गई हो, तो संबंधित अधिकारी पर प्रति आवेदन 1000 रुपये का जुर्माना लगाया जा सकता है। 

राजस्थानः पांच वर्ष की हिचकिचाहट के बाद अंततः सूचना का अधिकार कानून 2000 में पारित किया गया। आंदोलन जमीनी स्तर पर शुरू किया गया था। मजदूर किसान शक्ति संगठन द्वारा आयोजित ग्राम आधारित जन सुनवाई ने ग्रामीण गरीबों को अपनी प्राथमिकताएं स्पष्ट रूप से रखने और बदलाव सुझाने के लिए स्थान और अवसर प्रदान किया। इन जन सुनवाइयों से उभरी चार सामान्य मांगें थींः 1) पंचायत के कार्यों में पारदर्शिता, 2) अधिकारियों की जवाबदेही, 3) सामाजिक लेखा परीक्षण, और 4) शिकायतों का निराकरण। जब यह विधेयक अंततः पारित हुआ, तो इसने सूचना तक पहुंच के अधिकार पर कम से कम 19 प्रतिबंध लगा दिए। इसके अतिरिक्त इसके दंड़ के प्रावधान भी कमजोर थे, और इसने नौकरशाही को आवश्यकता से अधिक विवेकाधिकार प्रदान कर दिए थे। इसके बावजूद राजस्थान में सूचना का अधिकार आंदोलन मजबूत होता चला गया, इसका प्रमुख कारण यह था संबंधित समूहों द्वारा एक व्यवस्थित अभियान छेड़ा गया था, और सहभागी शासन में लोगों की भागीदारी के बारे में लोगों में जागरूकता में वृद्धि हुई थी। जन सुनवाई के कारण ही अनेक पंचायतों में भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए थे, और सूखे से तबाह जिलों में भूख और भुखमरी से हुई मौतों के आंकडे़ं प्रकाशित होने के बाद खाने के अधिकार पर भी व्यापक अभियान चलाया गया था।

महाराष्ट्रः सामाजिक कार्यकर्ता और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के अग्रणी अण्णा हजारे के लगातार चलते दबाव के बाद महाराष्ट्र विधानसभा ने महाराष्ट्र सूचना का अधिकार विधेयक 2002 में पारित किया। महाराष्ट्र का कानून अपनी तरह का सबसे प्रगतिशील कानून था इस कानून ने अपनी परिधि में केवल सरकारी और अर्ध-सरकारी निकायों को ही नहीं लिया था बल्कि राज्य के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, सहकारी संस्थाओं, पंजीकृत सोसाइटियों (शैक्षणिक संस्थाओं सहित) और सार्वजनिक न्यासों को भी इसमें शामिल किया था। जो सार्वजनिक सूचना अधिकारी अपने कर्तव्यों के निर्वहन में असफल होंगे उनपर विलंब होने वाले प्रत्येक दिन के लिए 250 रुपये प्रति दिन के हिसाब से जुर्माने का प्रावधान किया गया था। ऐसे मामलों में जहां सूचना अधिकारी कोई गलत या भ्रामक जानकारी प्रदान करते हैं, या अपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं, तो सुनवाई करने वाला अपीलीय प्राधिकरण उस अधिकारी पर 2000 रुपये तक का जुर्माना अधिरोपित कर सकता था। संबंधित सूचना अधिकारी के विरुद्ध आतंरिक विभागीय अनुशासनात्मक कार्रवाई भी की जा सकती थी। अधिनियम के कार्यों की निगरानी के लिए एक परिषद की स्थापना का प्रावधान भी किया गया था। इस परिषद के सदस्यों में सरकार के वरिष्ठ सदस्य, प्रेस के सदस्य, और गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधि शामिल थे। उनका कार्य अधिनियम की कार्यप्रणाली की समीक्षा कम से छह महीने में एक बार करना था।  

2.0 भारत का दलबदल विरोधी कानून

1985 में राजीव गांधी की सरकार ने संविधान के 52 वें संशोधन के माध्यम से संविधान में दसवीं अनुसूची को शामिल किया। इसने वे प्रावधान तय किये जिनके द्वारा निर्वाचित सदस्यों को दलबदल करके दूसरे राजनीतिक दल में जाने पर अयोग्य घोषित किया जाता था इसी कानून को आज दलबदल विरोधी कानून कहा जाता है। इस कानून के तहत अयोग्यता के निम्न आधार हैंः

  1. यदि कोई सदस्य स्वेच्छा से अपने राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है;
  2. यदि वह पूर्व अनुमति के बिना सदन में अपने दल या दल द्वारा अधिकृत किये गए व्यक्ति द्वारा दिए गए निर्देशों के विरुद्ध जाकर मतदान करता है, या सदन से अनुपस्थित रहता है। 

इस अयोग्यता की एक पूर्व शर्त के अनुसार उसकी अनुपस्थिति को पार्टी द्वारा या पार्टी के अधिकृत व्यक्ति द्वारा ऐसी घटना के 15 दिन के अंदर नहीं किया जाना चाहिए। 

2.1 इस अधिनियम की खामियां

1985 के अधिनियम के अनुसार पार्टी के एक तिहाई सदस्यों द्वारा किये गए ‘‘दल-बदल‘‘ को ‘‘विलय‘‘ माना जाता था। ऐसे दल-बदल पर कार्रवाई नहीं की जा सकती थी। चुनाव सुधारों पर बनी दिनेश गोस्वामी समिति, न्याय आयोग द्वारा ‘‘चुनाव कानून में सुधार‘‘ पर अपनी रिपोर्ट में और संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए बने राष्ट्रीय आयोग, सभी ने विभाजन की स्थिति में अयोग्यता में छूट से संबंधित दसवीं अनुसूची को हटाने की सिफारिश की थी। 

अंततः संविधान के 91 वें संशोधन अधिनियम, 2003 ने इसे परिवर्तित किया। अतः अब किसी राजनीतिक दल के कम से कम दो तिहाई सदस्यों को कानून की नजर में वैध बने रहने के लिए ‘‘विलय‘‘ के पक्ष में रहना होगा। दसवीं अनुसूची कहती है कि ‘‘मूल राजनीतिक दल या सदन के किसी सदस्य का विलय तब हुआ माना जायेगा यदि, और केवल यदि संबंधित राजनीतिक दल के विधायक दल के कम से कम दो तिहाई सदस्य इस विलय से सहमत हैं।‘‘

राजनीतिक दल का विभाजन तब दल-बदल नहीं माना जायेगा यदि संपूर्ण राजनीतिक दल का किसी दूसरे राजनीतिक दल में विलय होता है; यदि किसी राजनीतिक दल के कुछ निर्वाचित सदस्यों द्वारा एक नया राजनीतिक दल बनाया जाता है य यदि उसने या पार्टी के अन्य सदस्यों ने दोनों दलों के बीच विलय को स्वीकार नहीं किया है, और ऐसे विलय के समय से एक स्वतंत्र समूह के रूप में बने रहने का निर्णय किया है। 

सचेतक पार्टी के अधिकृत आदेश के रूप में सदन के अंदर पार्टी के निर्देशों को बनाये रखता है। उसकी पार्टी के सदस्यों के दल-बदल पर सचेतक तथाकथित दल-बदल पर अध्यक्ष या सभापति को उनकी अयोग्यता के लिए एक याचिका भेज सकता है। वह उन सदस्यों को पार्टी से निष्काषित भी कर सकता है। 

परंतु इसका अनिवार्य रूप से यह अर्थ नहीं है कि इस प्रकार से निष्काषित किये गए सदस्य सदन की अपनी सदस्यता गवां देते हैं। वे तब तक सदन के सदस्य बने रहते हैं जब तक अध्यक्ष या सभापति सदन से उनकी अयोग्यता पर सचेतक द्वारा प्रस्तुत की गई याचिका के आधार पर पूरी छानबीन के बाद अपना अंतिम निर्णय नहीं सुना देते। 

2.2 अयोग्य घोषित किये गए निर्वाचित सदस्यों के समक्ष उपलब्ध विकल्प 

इस प्रकार से अयोग्य घोषित किये गए सदस्य किसी भी राजनीतिक दल की ओर से उसी निर्वाचन क्षेत्र से उसी सदन के लिए चुनाव में खडे़ हो सकते हैं। परंतु स्वाभाविक रूप से उसे अपनी मूल पार्टी से टिकट नहीं प्राप्त होगा। दल-बदल के आधार पर अयोग्यता के प्रश्न पर निर्णय संबंधित सदन के अध्यक्ष या सभापति को प्रेषित किये जाते है और उनका निर्णय अंतिम होता है। इस अनुसूची के तहत सदन के सदस्य की अयोग्यता के किसी भी प्रश्न से संबंधित सभी प्रक्रियाएं संसद या राज्य की विधानसभा की प्रक्रियाएं मानी जाती हैं। इसपर किसी भी न्यायालय को किसी भी प्रकार का क्षेत्राधिकार नहीं है।

3.0 मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) अधिनियम 

यह अधिनियम 1986 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रसिद्ध शाह बानो मामले में दिए निर्णय की पृष्ठभूमि में अधिनियमित किया गया था जिसमें देश के सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि दंड प्रक्रिया संहिता के सामान्य प्रावधानों के तहत अन्य महिलाओं की ही तरह मुस्लिम महिलाओं को भी भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार है। जबकि यह निर्णय तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को दंड प्रक्रिया संहिता के तहत भरण-पोषण प्रदान करने वाला कोई पहला निर्णय नहीं था जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम पर्सनल लॉ का विस्तार से संदर्भ लिया था। अनेक मुस्लिम मौलवियों ने इस निर्णय को इस रूप में लिया कि यह मुस्लिमों के उनके निजी कानून के आधार पर शासित होने के अधिकार पर अतिक्रमण है। अनेक मुस्लिम समुदाय के नेताओं के कडे़ विरोध के बाद राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) अधिनियम पूर्ण बहुमत के साथ संसद में पारित करा लिया। अपने इस कदम के कारण राजीव गांधी को कडी आलोचना का सामना करना पड़ा, जहां विरोधी पक्षों ने इस कदम को कांग्रेस द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय का ‘‘तुष्टिकरण‘‘ बताया। 

3.1 मुख्य विशेषतायें 

इस अधिनियम के विशिष्ट प्रावधानों के तहत एक मुस्लिम तलाकशुदा महिला को चार अधिकारों के लिए पात्र बनाया हैः

  1. इद्दत की अवधि के दौरान निर्वाह व्यय का अधिकार (इद्दत या इद्दाह वह अवधि है जिस दौरान तलाक के बाद महिला पुनर्विवाह नहीं कर सकती);
  2. उसके संपूर्ण जीवन के लिए निष्पक्ष और यथोचित प्रावधान का अधिकार;
  3. तलाक से दो वर्षों तक बच्चे के लिए भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार;
  4. कुछ अपवादात्मक मामलों में राज्य वक्फ बोर्ड से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार। 

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का शिथिलीकरण करते हुए, अधिनियम का सबसे विवादित प्रावधान यह था कि यह यह मुस्लिम महिला को केवल इद्दत की अवधि के दौरान ही भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करता है, या इस्लामिक कानून के प्रावधानों के अनुसार 90 दिन तक। यह दंड प्रक्रिया संहिता के अनुच्छेद 125 - पत्नियों, बच्चों और मातापिता के भरण-पोषण का सामान्य प्रावधान - के ठीक विरुद्ध था, जो सभी धर्मों के व्यक्तियों पर लागू होता है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिनियम के प्रावधान की एक अधिक उदार व्याख्या की है। डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ राज्य, 2001 मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि कानून इस मायने में ठीक है कि इसने भरण-पोषण की अवधि को इद्दत अवधि तक सीमित रखा है। परंतु न्यायालय ने यह भी माना कि भरण-पोषण की राशि ‘‘निष्पक्ष और यथोचित‘‘ होना चाहिए, अतः यह उस महिला को पूरे जीवन काम आ सके। वास्तव में यह निर्णय शाह बानो मामले के प्रभाव और मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) अधिनियम के बीच एक संतुलन स्थापित करने का कार्य करता है। 

3.2 अधिनियम के उपयोग 

इसकी राशि की कोई सीमा नहीं की अनूठी विशेषता के बावजूद वकीलों में इसके बारे में ज्ञान के अभाव के कारण इस कानून का बहुत ही संयम से उपयोग हुआ है। वकील वर्ग आमतौर पर भरण-पोषण के मामलों में दंड़ प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों का ही उपयोग करते हैं, क्योंकि वे इसे सुविधाजनक मानते हैं।

4.0 घरेलू हिंसा अधिनियम

घरेलू हिंसा, जिसे घरेलू प्रताड़ना या अंतरंग साथी हिंसा भी कहा जाता है, को व्यापक रूप से विवाह, डेटिंग, परिवार, मित्रता या सहवास जैसे एक अंतरंग संबंध में एक साथी या दोनों साथियों के प्रताड़ना के व्यवहार के स्वरुप के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। घरेलू हिंसा के अनेक प्रकार हैं, जिनमें शारीरिक आक्रमण (मारना, लात मारना, काटना, धकेलना, रोकना, चीजें फेंकना), या उसकी धमकी देना; यौन-प्रताडना; भावनात्मक प्रताड़ना; नियंत्रण करना या रौब झाड़ना; डराना; पीछा करना; निष्क्रिय/स्पष्ट प्रताड़ना (उदाहरणार्थ, उपेक्षा); आर्थिक वंचन। घरेलू हिंसा अपराध है या नहीं यह अनेक बातों पर निर्भर होगा, जैसे स्थानीय कानून, विशिष्ट कृत्यों की तीव्रता और अवधि और अन्य प्रभावित करने वाले बातें। 

4.1 घरेलू हिंसा के प्रकार 

सभी प्रकार की घरेलू हिंसा का एक ही प्रयोजन होता हैः पीड़ित पर संपूर्ण नियंत्रण प्राप्त करना और उसे बनाये रखना। अपने साथी या जीवनसाथी पर अपनी शक्ति प्रस्थापित करने के लिए प्रताड़ना करने वाले अनेक युक्तियों का उपयोग करते हैंः वर्चस्व, अपमानित करना, अलगाव, धमकियाँ, डांट-डपट, इनकार और दोष लगाना। 

प्रत्यक्ष शारीरिक हिंसा जिसमें अनावश्यक शारीरिक संपर्क से लेकर बलात्कार और हत्या तक हो सकते हैं। अप्रत्यक्ष शारीरिक हिंसा में वस्तुओं की तोड़फोड़, पीड़ित को वस्तुएं फेंक कर मारना या उसके निकट फेंकना, या पालतू पशुओं को नुकसान पहुंचना इत्यादि शामिल हो सकते हैं। मानसिक या भावनात्मक प्रताड़ना जिसमें पीड़ित, स्वयं या बच्चों को शारीरिक हिंसा की मौखिक धमकी देना शामिल है, और मौखिक उत्पीडन जिसमें धमकी देना, अपमानित करना, दूसरों की नज़रों में गिराना, और हमला करना शामिल है। अशाब्दिक धमकियों में इशारे करना, चेहरे के भाव, और अंग विन्यास शामिल हैं। 

मानसिक प्रताड़ना में आर्थिक या सामाजिक नियंत्रण भी शामिल किया जा सकता है, जैसे पीड़ित के पैसे व अन्य आर्थिक संसाधनों पर अधिकार करना, पीड़ित को मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने से रोकना, सक्रियता से पीडित के सामाजिक संबंधों को ध्वस्त करना, और पीड़ित को सामाजिक संपर्क से अलग-थलग कर देना। 

शारीरिक हिंसाः शारीरिक हिंसा का अर्थ है चोट, नुकसान, अपंगता या मृत्यु के प्रयोजन से जानबूझ कर शारीरिक बल का प्रयोग करना, जैसे पीटना, धकेलना, काटना, रोकना, लातें मारना या किसी हथियार का उपयोग करना। 

यौन उत्पीड़नः प्रताड़ित संबंधों में यौन उत्पीड़न सामान्य घटना है। घरेलू हिंसा के विरुद्ध राष्ट्रीय गठबंधन बताता है कि पीड़ित महिलाओं में से एक तिहाई से आधी के बीच महिलाओं का उनके साथियों के साथ संबंधों के दौरान उनके साथियों द्वारा बलात्कार किया हुआ होता है। ऐसी कोई भी स्थिति जिसमें अवांछित, असुरक्षित या अपमानजनक यौन कृत्य में हिस्सा लेने के लिए बल का प्रयोग किया जाता है, वह यौन उत्पीड़न की श्रेणी में आता है। बलपूर्वक संभोग, चाहे वह जीवनसाथी या घनिष्ट साथी द्वारा ही क्यों न किया गया हो, जिसके साथ पूर्व में सहमति से संभोग हुआ हो, आक्रामकता या हिंसा है। इससे आगे, ऐसी महिलाएं जिनके साथी उन्हें शारीरिक या लैंगिक रूप से प्रताडित करते हैं उनका गंभीर रूप से घायल होने या उनकी हत्या होने का खतरा बहुत अधिक होता है।

भावनात्मक प्रताड़नाः भावनात्मक प्रताड़ना (जिसे मनोवैज्ञानिक प्रताड़ना या मानसिक प्रताड़ना भी कहा जाता है) में पीड़ित को निजी रूप से या सार्वजनिक रूप से अपमानित करना, पीड़ित क्या करे या क्या ना करे इस पर नियंत्रण रखना, पीड़ित से जानकारी छिपाना, जानबूझ कर ऐसे कृत्य करना जिनसे पीड़ित अपमानित महसूस करे पीड़ित को मित्रों या रिश्तेदारों से अलग-थलग करना, परोक्ष रूप से दूसरों को नुकसान पहुंचा कर पीड़ित को ब्लैकमेल करना जब पीड़ित स्वतंत्रता या खुशी व्यक्त करता है, या पीड़ित को पैसे या अन्य मूलभूत संसाधनों और आवश्यकताओं से वंचित रखना शामिल है। 

जो व्यक्ति भावनात्मक रूप से प्रताड़ित हैं वे अक्सर सोचते हैं कि उनका स्वयं पर कोई अधिकार नहीं है, वे यह भी मान सकते हैं कि उनके दूसरे प्रभावशाली साथी का उनपर लगभग पूर्ण नियंत्रण है। भावनात्मक प्रताड़ना झेल रहे पुरुष या महिलाएं आमतौर पर अवसाद के शिकार होते हैं, जो उनमें आत्महत्या, खाने के विकार, और नशीले पदार्थ या शराब के सेवन के खतरे को बढ़ा देते हैं। 

आर्थिक प्रताड़नाः आर्थिक प्रताड़ना तब होती है जब प्रताड़ित करने वाले व्यक्ति का पीड़ित के पैसे और अन्य आर्थिक संसाधनों पर पूर्ण नियंत्रण होता है। आमतौर पर इसमें पीड़ित को कठोर ‘‘भत्ते‘‘ पर रखा जाता है, मर्जी से कभी भी पैसा रोक दिया जाता है, और पीड़ित को पैसा मांगने के लिए मजबूर किया जाता है, और फिर प्रताड़ित करने वाला व्यक्ति उन्हें कुछ पैसा देता है। आवश्यकता से कम पैसा मिलना पीड़ित के लिए सामान्य बात हो जाती है। इसमें पीड़ित को शिक्षा पूर्ण करने, या नौकरी प्राप्त करने से रोकना, या जानबूझ कर संसाधनों का दुरूपयोग करना भी शामिल हो सकता है (यह यहीं तक सीमित नहीं रहता)।

पीछा करनाः इसे आमतौर पर मानसिक प्रताड़ना का एक प्रकार माना जाता है जिसके कारण पीड़ित को उच्च डर का अनुभव होता रहता है। ऐसे अनेक मामले सुनने में आये हैं जिनमें लड़कियां/महिलाएं उनका आत्मविश्वास खोने की शिकायत करती हैं जब लडके या पुरुष सड़क पर उनका पीछा करते हैं। उनमें से कुछ तो अपनी नौकरी भी छोड़ देती हैं, या घर से बाहर निकलना पूरी तरह बंद कर देती हैं। 

घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, जिसे अब से घरेलू हिंसा के विरुद्ध महिलाओं के लिए संरक्षण कहा जायेगा, इस उद्देश्य से पारित किया गया है, कि घरेलू मोर्चे पर महिलाओं की स्थिति में सुधार किया जा सके। घरेलू हिंसा के विरुद्ध महिलाओं के लिए संरक्षण अधिनियम, 2005 26 अक्टूबर 2006 से प्रभावशाली हुआ। ऐसी व्यापक संभावना है कि यह अधिनियम महिलाओं को घरेलू हिंसा से राहत प्रदान करने की दिशा में प्रभावी साबित होगा, और उनके जीने के अधिकार को प्रवर्तित करेगा। मूल रूप से घरेलू हिंसा के विरुद्ध महिलाओं के लिए संरक्षण अधिनियम का उद्देश्य पत्नियों या महिला लिव-इन भागीदारों को पतियों या पुरुष लिव-इन भागीदारों या रिश्तेदारों की घरेलू हिंसा से संरक्षण प्रदान करना है। घरेलू हिंसा के विरुद्ध महिलाओं के लिए संरक्षण अधिनियम ऐसी महिलाओं को भी संरक्षण प्रदान करता है जो बहनें हैं, विधवा हैं, या माताएं हैं।

4.2 अधिनियम की मुख्य विशेषतायें 

इस अधिनियम की मुख्य विशेषतायें निम्नानुसार हैंः

  1. ‘‘पीड़ित व्यक्ति‘‘ की परिभाषा भी उतनी ही विस्तृत है और यह केवल पत्नी को ही शामिल नहीं करती बल्कि उस महिला को भी शामिल करती है जो पुरुष की यौन भागीदार है, चाहे वह उसकी वैध पत्नी हो या ना हो। बेटी, माँ, बहन, बच्चा (स्त्री या पुरुष), विधवा रिश्तेदार, वास्तव में परिवार में रहने वाली कोई भी महिला जो प्रतिवादी से किसी न किसी रूप में संबंधित है, उसे इस अधिनियम में शामिल किया गया है। 
  2. अधिनियम में दी गई परिभाषा के तहत प्रतिवादी ‘‘कोई भी पुरुष, वयस्क व्यक्ति जो पीडित व्यक्ति से घरेलू रूप से संबंधित है या रहा है‘‘, परंतु इसके कारण उसकी माँ, बहन और अन्य रिश्तेदार मुक्त नहीं होते, पति या पुरुष भागीदार के रिश्तेदारों के विरुद्ध भी मामला दायर किया जा सकता है [अध्याय 1 - अनुच्छेद 2 (ए)]
  3. घरेलू हिंसा के कृत्य या कृत्यों के बारे में जानकारी पीड़ित द्वारा ही दायर की जाए ऐसा आवश्यक नहीं है, बल्कि यह किसी भी ऐसे व्यक्ति द्वारा दायर की जा सकती है ‘‘जिसके पास यह मानने का कारण है‘‘ कि ऐसा कृत्य किया गया है या किया जाता है। जिसका अर्थ है कि पडोसी, सामाजिक कार्यकर्ता, रिश्तेदार इत्यादि भी पीडित की ओर से पहल कर सकते हैं। [अध्याय 3 - अनुच्छेद 4]
  4. घर से बाहर निकाल दिया जायेगा इस डर ने अनेक महिलाओं को चुप करा दिया है, और उन्हें खामोश पीडित बना दिया है। इस नए अधिनियम के द्वारा न्यायालय अब आदेश दे सकता है कि वह न केवल उसी घर में रहेगी, बल्कि घर का एक भाग उसे उसके निजी उपयोग के लिए आवंटित भी किया जा सकता है, चाहे संपत्ति में उसका कोई कानूनी हिस्सा हो या ना हो। [अध्याय 4 - अनुच्छेद 17]
  5. इसी अध्याय का अनुच्छेद 18 मजिस्ट्रेट को अधिकार देता है कि वह पीडित महिला को घरेलू हिंसा से संरक्षण प्रदान करे, या ‘‘ऐसे कृत्यों से भी जो भविष्य में होने की संभावना है‘‘ और वह प्रतिवादी को पीडित को संपत्ति से बेदखल करने या किसी भी प्रकार से उसकी संपत्ति से छेड़छाड़ करने से, पीडित के कार्यस्थल में प्रवेश करने से प्रतिबंधित कर सकता है, यदि पीडित बच्चा है, तो उसके विद्यालय में प्रवेश से। 
  6. प्रतिवादी को पीड़ित से किसी भी प्रकार का संपर्क करने के प्रयास से प्रतिबंधित किया जा सकता है, इसमें व्यक्तिगत, मौखिक, लिखित, इलेक्ट्रॉनिक या टेलीफोन संपर्क शामिल है। यहां तक कि प्रतिवादी को पीड़ित के न्यायालय द्वारा आवंटित कमरे/क्षेत्र/घर में प्रवेश करने से भी प्रतिबंधित किया जा सकता है। 
  7. अधिनियम मजिस्ट्रेट को अधिकार प्रदान करता है कि वह आर्थिक राहत और जीवनयापन के लिए मासिक भुगतान अधिरोपित करे।  प्रतिवादी को यह भी आदेश दिया जा सकता है कि वह पीड़ित और किसी भी बच्चे द्वारा किये जाने वाले व्यय, घरेलू हिंसा के कारण उठाये गए नुकसान का वहन करे, इसमें आय का नुकसान, चिकित्सा व्यय, संपत्ति का नुकसान या क्षति भी शामिल है, साथ ही इसमें पीड़ित और उसके बच्चों का भरण-पोषण भी शामिल किया जा सकता है। 
  8. अनुच्छेद 22 मजिस्ट्रेट को अधिकार प्रदान करता है कि वह प्रतिवादी से पीडित को घरेलू हिंसा के कारण पहुंची चोट, मानसिक पीडा और भावनात्मक विपत्ति के लिए क्षतिपूर्ति और नुकसान भरपाई दिलवाए। 
  9. अनुच्छेद 31 इस अपराध के लिए व्यक्ति को एक वर्ष तक के कारावास की सजा और या 20,000 रुपये तक का जुर्माना देता है। इस अपराध को संज्ञेय और गैर-जमानती भी माना जाता है। 
  10. अनुच्छेद 32 (2) आगे जाता है और कहता है कि ‘‘पीड़ित व्यक्ति के अकेली साक्ष्य के तहत, न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि आरोपी ने अपराध किया है।‘‘
  11. अधिनियम तात्कालिक न्याय भी सुनिश्चित करता है, और इसकी पहली सुनवाई न्यायालय में शिकायत दायर होने के 3 दिन के अंदर की जानी है, और प्रत्येक मामला पहली सुनवाई से 60 दिन की अवधि के अंदर निपटाना है। 
  12. यह राज्य के लिए भी संरक्षण अधिकारी और अधिनियम को क्रियान्वित करने के लिए आवश्यक संपूर्ण तंत्र की नियुक्ति का प्रावधान करता है। 
  13. अधिनियम केंद्र और राज्य सरकारों के कुछ दायित्वों को प्रतिपादित करता है, कि वे इसका व्यापक प्रचार करें और पुलिस अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करें। 
  14. अधिनियम यह भी प्रावधान करता है कि यदि मजिस्ट्रेट को आवश्यकता महसूस हो तो वह कल्याण विशेषज्ञों की सहायता प्राप्त करें। 
  15. संरक्षण अधिकारी के कर्तव्यों का पालन नहीं करने पर अधिनियम उनके विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई का भी प्रावधान करता है।

4.3 वर्तमान प्रणाली की खामियां 

अस्पष्ट जिम्मेदारी और अपर्याप्त आधिकारिक संसाधनः घरेलू हिंसा अधिनियम के अनुसार संरक्षण अधिकारी को निर्धारित प्रारूप में घरेलू घटनाओं की रिपोर्ट तैयार करनी है, और मजिस्ट्रेट को आवेदन करना है। साथ ही यदि पीड़ित चाहे तो सेवा प्रदाताओं को डीआईआर दर्ज करने का अधिकार है। व्यवहार में दो वर्ष के क्रियान्वयन के बाद भी प्रत्येक भूमिका के दायित्व अस्पष्ट हैं। घरेलू हिंसा अधिनियम और प्रजनन अधिकार के परामर्श के दौरान (29-30 नवंबर 2008) भारत भर के पैरोकारों ने संरक्षण अधिकारियों की विशेषज्ञता हीनता के प्रति चिंता प्रकट की थी। 

पुलिस अधिकारियों और मजिस्ट्रेट को प्रशिक्षण का अभावः अनेक वकीलों ने पुलिस अधिकारियों और मजिस्ट्रेट्स के लिए अधिनियम की आवश्यकताओं और इसके उद्देश्य के अनुसार प्रशिक्षण के अभाव की ओर इशारा किया है, साथ ही उन्होंने घरेलू हिंसा के मामले में संवेदनशीलता प्रशिक्षण के अभाव की ओर भी इशारा किया है। प्रशिक्षण के इस आभाव ने न्याय व्यवस्था के अंदर महिलाओं के पुनउर्त्पीड़न को जन्म दिया है, यह पुलिस की मदद के लिए की गई पुकार के प्रति प्रतिक्रिया के अभाव के कारण हुआ है, जिसके कारण महिलाएं वापस अपने घर अपने प्रताड़कों के पास जाने के लिए मजबूर हैं, क्योंकि पुलिस उनके उत्पीड़न को केवल घरेलू विवाद। इसी प्रकार मजिस्ट्रेट एक ही समय अनेक मामले चलाने की अनुमति देते हैं, जिससे न्यायालय की कार्रवाई लंबी खिंचती चली जाती है, और यह पीडिताओं को बार-बार न्यायालय में आकर अपने मानसिक आघात को बार-बार सहन करने को मजबूर हैं। 

दोहरी व्यवस्था (परिवार न्यायालय और अपराध न्यायालय): जिन महिलाओं ने घरेलू हिंसा सही है उनके लिए दो .ष्टिकोण हैं, एक है परिवार न्यायालय के माध्यम से तलाक की अर्जी दायर करना, और दूसरी है घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत दायर करना, जो शायद अपराध न्याय व्यवस्था के अनुसार जाये। यह दोहरी व्यवस्था अनेक बार कानूनी प्रक्रिया को जटिल बना देती है। साथ ही प्रत्येक दृष्टिकोण के सामाजिक परिणाम भी उनपर अतिरिक्त दबाव डालते हैं। 

एकतरफा मामले के रूप में गुमराह किया जाता हैः अधिनियम बहुत ही विवादित है, क्योंकि पहली बात यह है कि यह मान कर चलता है कि घरेलू हिंसा करने वाला हमेशा पुरुष ही होगा, और दूसरी बात यह है कि आरोपी बन जाने के बाद स्वयं को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी पुरुष की ही होती है। अतः इस बात की काफी संभावना है कि अनैतिक महिलाओं द्वारा इस अधिनियम का दुरूपयोग किया जाए। 

आत्मभिमानी महत्वाकांक्षा और अनुपात का अभावः सभी पीडित महिलाओं को सभी संभव प्रकारों से संरक्षण प्रदान करने के प्रयास में कानून निर्माताओं ने इस बात पर विश्वास किया है कि सभी महिलाएं आवश्यक रूप से ईमानदार पीडित हैं, इसके लिए इस दावे के लिए किसी सबूत की भी चिंता नहीं की गई है। इसके कारण शायद हम देखेंगे कि यह कानून अपने आपको हंसी का पात्र बना लेगा। 

क्रियान्वयन में असमानताएंः विभिन्न राज्यों में कानून के क्रियान्वयन में बडे़ पैमाने पर असमानताएं हैं। उदाहरणार्थ, जबकि महाराष्ट्र ने 3687 संरक्षण अधिकारियों की नियुक्ति की है, असम में केवल 27 अधिकारी हैं, और गुजरात में केवल 25 आंध्र प्रदेश ने इसके क्रियान्वयन के लिए 100 मिलियन रुपये का प्रावधान किया है, वहीं ओडिशा जैसे अन्य राज्य काफी पीछे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि जिन राज्यों ने इस अधिनियम के क्रियान्वयन में धन और कर्मियों के रूप में अधिक निवेश किया है, उनमे अधिक मामले भी दर्ज हुए हैं। जुलाई 2007 और अगस्त 2008 के बीच महाराष्ट्र में 2751 मामले दर्ज हुए जबकि ओड़िशा में अक्टूबर 2006 से अगस्त 2008 के बीच केवल 64 मामले ही दर्ज हो पाये।

जनता का विरोधः रिपोर्ट जनता के विरोध की समस्य को भी उजागर करती है। कइयों ने इसपर एक ऐसा कानून का ठप्पा लगा दिया है जो असमानता को बढ़ावा देता है। वर्तमान में पीडब्लूडीवीए को चुनौती देने वाली 5 याचिकाएं विभिन्न उच्च न्यायालयों में दायर की हुई हैं, जिनका तर्क है कि यह अधिनियम समानता के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करता है, क्योंकि यह केवल महिलाओं को राहत प्रदान करता है। अभी तक दिल्ली उच्च न्यायालय ने केवल एक ही मामले में निर्णय दिया गया है (अरुणा प्रमोद शाह बनाम भारत संघराज्य)।

सेवा प्रदाताओं के रूप में गैर-सरकारी संगठनों का लुप्त होता प्रयासः बहुत थोडे़ गैर-सरकारी संगठनों ने इस अधिनियम के तहत स्वयं को सेवा प्रदाताओं के रूप में पंजीकृत किया है। पंजीकृत सेवा प्रदाताओं और संरक्षण अधिकारियों में घरेलू हिंसा के बारे में अनुभव का अभाव है। प्रत्येक जिले में मामलों के बोझ को सँभालने के लिए बहुत थोड़े संरक्षण अधिकारियों की नियुक्ति की गई है, और सरकारी सेवा प्रदाता जरूरतमंदों को बहुत ही घटिया सेवा प्रदान करते हैं। 

आपराधिक दंड़ की अनिवार्यता में असफलताः वकीलों और संरक्षण अधिकारियों ने इस अधिनियम की अन्य अपर्याप्तताओं को भी महसूस किया है, जिनमें नागरिक उपायों के साथ ही प्रताड़ना करने वालों को आपराधिक दंड़ अनिवार्य करने में अधिनियम असफल रहा है। अपीलीय सुनवाई के लिए अधिकतम अवधि प्रदान करने में अधिनियम असफल रहा है, जिसके कारण महिलाओं को राहत स्वीकृत होने में विलंब होता है। साझा परिवार में महिलाओं को संपत्ति में पर्याप्त अधिकार प्रदान करने की रिहायश के आदेश की असफलता (जो उन्हें केवल उसमें रहने का अधिकार प्रदान करता है), और कानून प्रवर्तन अधिकारियों, अधिनियम के तहत के अधिकारियों और सेवा प्रदाताओं को जोड़ने वाली बुनियादी अधोसंरचना का भी अभाव है, अतः वे पीड़िताओं को कुशल सेवा प्रदान करने में असमर्थ हैं। 

जिम्मेदारियों में अस्थिरताः आमतौर पर इस अधिनियम ने उन लोगों को प्रभावित किया है जिनके पास गुणवत्तापूर्ण कानूनी सहायत प्राप्त प्राप्त करने के साधन उपलब्ध हैं। हालांकि अधिनियम में राज्य की ओर से कानूनी सहायता प्रदान करने का प्रावधान है, ऐसे मामलों में सेवा की गुणवत्ता बहुत ही घटिया है। राज्य ने संपूर्ण जिम्मेदारी सेवा प्रदाताओं को सौंप दी है। उन्हें पीड़ित महिला को चिकित्सा सहायता प्रदान करनी है, अल्पावधि के आवास की व्यवस्था करनी है, और क्षतिपूर्ति की व्यवस्था करनी है। इन सेवा प्रदाताओं के लिए काफी बोझ हो जाता है, जिनके पास पर्याप्त साधन भी उपलब्ध नहीं हैं। 

अनुवर्ती कार्रवाई की कमीः कहने की आवश्यकता ही नहीं है कि अनुवर्ती कार्रवाई के अभाव के कारण पीडित की सुरक्षा को खतरा हो सकता है, साथ ही इसके संगठन के अंदर कारण भ्रष्टाचार और अकुशलता को बढ़ावा मिलता है। साथ ही 19 जुलाई 2009 को टाइम्स ऑफ इंड़िया में छपे के लेख ने पीडब्लूडीवीए के पूर्वलक्षी क्रिया के अभाव के बारे में बताया है, जिसके लिए मुंबई उच्च न्यायालय के निर्णय का उदाहरण दिया गया है, जहाँ उच्च न्यायालय ने पीड़ित महिला को अपने पति के लैट में रहने के आदेश को रद्द कर दिया है, क्योंकि उसका बेदखल करने का प्रयास इस अधिनियम अस्तित्व में आने से पहले से चकल रहा था।  

5.0 अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 

1989 में अधिनियमित किये गए अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम का उद्देश्य था अनुसूचित जाति एवं जनजाति के सदस्यों के विरुद्ध हो रहे अत्याचारों की रोकथाम करना, विशेष रूप से ऊंची जाति के प्रभावी लोगों द्वारा। इसमें अधिनियम के तहत तात्कालिक मुकदमों के लिए, और अधिनियम के तहत किये गए अपराधों के पीड़ितों को राहत और पुनर्वास प्रदान करने के लिए विशेष अदालतों के गठन का भी प्रावधान किया गया है। हालांकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के विरुद्ध इस अधिनियम के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती। 

5.1 अपराधों के प्रकार 

कोई भी व्यक्ति, चाहे वह निजी व्यक्ति हो या सरकारी कर्मचारी हो यदि अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य को धमकी देता है, अपमानित करता है, चोट पहुंचाता है, मौखिक या शारीरिक रूप से प्रताड़ित करता है, गलत तरीके से बंद रखता है, या उसकी जाति के नाम से गाली देता है, तो उस पर इस अधिनियम के तहत अपराध दायर किया जा सकता है। उदाहरणार्थ यदि एक ऊंची जाति का व्यक्ति किसी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य को उसकी मर्जी के विरुद्ध कुछ खाने या पीने के लिए मजबूर करता है, या उसे उसकी जमीन से बेदखल करने का प्रयास करता है, तो उसपर इस अधिनियम के तहत मुकदमा दायर किया जा सकता है। किसी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य को मुत में काम करने के लिए मजबूर करना, या चुनाव में किसी विशेष प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करने के लिए मजबूर करना भी इस अधिनियम के तहत अपराध है। इसी प्रकार यदि सरकारी कर्मचारी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य को संरक्षण प्रदान करने में असफल होता है, तो उसके विरुद्ध भी मुकदमा दायर किया जा सकता है। 

5.2 सजाएँ 

इस अधिनियम के तहत न्यूनतम सजा है छह महीने का कारावास और जुर्माना, परंतु ऐसे मामले में, जहां अपराध भारतीय दंड संहिता के तहत भी सजा के पात्र है, तो अधिकतम सजा आजीवन कारावास और जुर्माना हो सकती है। इस अधिनियम के तहत दूसरी बार सजा पाने वाले व्यक्ति की सजा की मात्रा अधिक है। सजा सुनते समय अदालत उसकी संपत्ति की जब्ती या कुर्की का आदेश भी दे सकती है। 

5.3 अन्य प्रावधान 

राज्य सरकार द्वारा स्थापित प्रत्येक विशेष अदालत के लिए वह एक वकील की भी नियुक्ति कर सकती है जिसे सरकारी वकील के रूप में कार्य करने का कम से कम सात वर्ष का अनुभव प्राप्त हो। जिला मजिस्ट्रेट या कोई भी अन्य नामित अधिकारी, यदि उसके पास यह मानने का पर्याप्त कारण है कि एक व्यक्ति या एक व्यक्तियों का समूह इस अधिनियम के तहत अपराध करने जा रहा है, या करने की धमकी दे रहा है, तो वह आवश्यक कार्रवाई कर सकता है।

5.4 हाल के मामले 

आम सहमति या प्रतीत होती है कि इस अधिनियम ने अ.जा./अ.ज.जा. के सदस्यों के उत्पीड़न को रोकने के लिए अधिक कुछ नहीं किया है। सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्रालय की 2002 की रिपोर्ट के अनुसार कुल दायर किये गए मामलों में से केवल 21.72 प्रतिशत ही निर्णीत हो पाये। इनमें से 2.31 प्रतिशत में सजा हुई। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस असंगति को दर्शाया है। पिछले वर्ष इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जिसमें यह आरोप लगाया था कि उत्तर प्रदेश में अ.जा/अ.ज.जा. के सदस्यों के विरुद्ध होने वाले अपराधों का इस अधिनियम के तहत संज्ञान नहीं लिया जा रहा है। संयोग सेइस अधिनियम के तहत उत्तरप्रदेश में सबसे अधिक मामले दायर किया गए हैं। पिछले वर्ष वर्तमान बीएसपी सरकार ने एक आदेश जारी किया था जिसमें कहा गया था कि जो व्यक्ति इस अधिनियम के तहत झूठे मामले दायर करेंगे उनके विरुद्ध भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 182 के तहत कार्रवाई की जाएगी। भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 182 में प्रावधान है कि जो लोग इस उद्देश्य से गलत जानकारी देते हैं ताकि लोक सेवक अपने कानूनी अधिकारों का किसी दूसरे व्यक्ति को चोट पहुंचाने के लिए उपयोग करे, ऐसे लोगों के विरुद्ध छह महीने तक के कारावास या 1000 रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है। 

हाल ही में आंध्र प्रदेश में एक कांग्रेस सांसद ने ऊंची जाति के एक बैंक प्रबंधक को धमकी दी कि वह उसके विरुद्ध अ.जा./अ.ज.जा. प्रताड़ना का मामला दायर करेंगे। सांसद के नाराज होने का कारण था कि बैंक प्रबंधक ने, जिसे उन्होंने चांटा भी मार था, एक काम नहीं किया था जो उनके घटक करवाना चाहते थे। 2012 में वाराणसी के महापौर पर इस अधिनियम के तहत मुकदमा दायर किया गया था, जिसके कारण लोग विरोध प्रदर्शन करने के लिए सड़कों पर उतर आये थे। 

मई 2013 में इस अधिनियम के तहत प्रमोद जायसवाल के विरुद्ध मुकदमा दायर किया गया था, जो पूर्व कोयला मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल के छोटे भाई हैं। पूर्व मंत्री के भाई पर अपने नौकर को उत्पीड़ित करने का आरोप था।

6.0 यौन अपराधों से बच्चों की सुरक्षा (पोक्सो) अधिनियम 2012 

भारत विश्व के सबसे बड़ी बच्चों की जनसंख्या का घर है, जहां लगभग 42 प्रतिशत जनसंख्या 18 वर्ष की आयु से कम है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि देश की प्रगति और विकास के किसी भी विचार के लिए देश के बच्चों का स्वास्थ्य और उनकी सुरक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण है। देश की भावी पीढ़ी के भविष्य के लिए एक गंभीर प्रतिकूल मुद्दा है बाल यौन शोषण। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा प्रकाशित किये गए आंकड़े दर्शाते हैं की बच्चों के विरुद्ध होने वाले यौन अपराधों में लगातार वृद्धि हो रही है। 

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा 2007 में किये गए एक अध्ययन के अनुसार सर्वेक्षण किये गए बच्चों में से आधे से अधिक बच्चों ने जानकारी दी कि उनका किसी न किसी रूप में यौन शोषण किया गया था, और उनका दर्द इस कारण और बढ़ जाता है कि इस प्रकार के अपराधों पर उपाय प्रदान करने के लिए उपयुक्त कानून का अभाव है। 

जबकि बलात्कार को भारतीय दंड संहिता के तहत एक गंभीर अपराध माना जाता है, अन्य प्रकार के यौन अपराधों को मान्यता प्रदान करने और सजा दिलवाने के मामले में कानून अपूर्ण है, जैसे यौन शोषण, पीछा करना, और बाल अश्लील साहित्य, जिनके लिए अभियोजकों को ‘‘महिला का शील भंग करना‘‘ जैसे प्रावधानों पर निर्भर रहना पडता था जो इन अपराधों की दृष्टि से सटीक नहीं थे। 

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने यह स्वीकारते हुए कि बाल यौन शोषण की समस्या का समाधान कम अस्पष्ट और अधिक कठोर कानूनी प्रावधानों के माध्यम से करना आवश्यक है, उसने इस अपराध से निपटने के लिए एक विशिष्ट कानून की शुरुआत करने का बीड़ा उठाया। 

अधिनियम बच्चे को परिभाषित करते हुए कहता है कि कोई भी व्यक्ति जो अठारह वर्ष से कम आयु का हो, और बच्चे का स्वस्थ शारीरिक, भावनात्मक, बौद्धिक और सामाजिक विकास सुनिश्चित करने के लिए बच्चे के सर्वोत्तम हितों और कल्याण को सबसे महत्वपूर्ण मानता है। 

यौन शोषण के विभिन्न प्रकारः यह यौन शोषण विभिन्न प्रकारों को परिभाषित करता है, जैसे छेदक और गैर छेदक हमला, और यौन उत्पीडन और अश्लील साहित्य। 

यौन शोषण को कब बढ़ा हुआ माना जायेगाः यह एक यौन हमले को ‘‘बढ़ा हुआ‘‘ कुछ स्थितियों में मानता है, जैसे जब पीडित बच्चा मानसिक रूप से बीमार है, या जब यौन शोषण एक ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया हो जो उस बच्चे के रूबररू विश्वास या अधिकार की स्थिति में हो, जैसे कोई पारिवारिक सदस्य, पुलिस अधिकारी, शिक्षक, या चिकित्सक। 

जो व्यक्ति बच्चों की यौन कारणों से तस्करी करते हैं वे भी अधिनियम में उकसाने से संबंधित प्रावधानों के तहत सजा के पात्र हैं। 

वर्गीकृत सजाः अधिनियम अपराध की गंभीरता के अनुसार कठोर सजा निर्धारित करता है, जिसमें अधिकतम सजा उम्रकैद और जुर्माना है। 

अनिवार्य रिपोर्टिंगः

  1. सर्वोत्कृष्ट आंतरराष्ट्रीय बाल संरक्षण मानकों के अनुरूप यह अधिनयम भी यौन अपराधों की अनिवार्य रिपोर्टिंग का प्रावधान करता है। 
  2. यह उस व्यक्ति पर जिम्मेदारी निर्धारित करता है जिसे इस बात की जानकारी है कि बच्चे का यौन शोषण हुआ है, कि वह अपराध की सूचना दे। 
  3. यदि वह ऐसा करने में असफल रहता है तो उसे भी छह महीने की कैद और या जुर्माने की सजा दी जा सकती है। इस प्रकार एक शिक्षक जो यह जानता है कि उसकी एक विद्यार्थी का उसके सहयोगी ने यौन शोषण किया है, तो वह कानूनन बाध्य है कि वह यह मामला अधिकारियों के संज्ञान में लाये।

गलत जानकारी प्रदान करने के लिएः

  1. दूसरी ओर अधिनियम उस व्यक्ति के लिए भी सजा निर्धारित करता है जो बच्चे सहित किसी को बदनाम करने के लिए गलत जानकारी प्रदान करता है। 

पुलिस बच्चे के संरक्षक के रूप मेंः

  1. पुलिस अधिकारियों के लिए भी आवश्यक है कि रिपोर्ट प्राप्त काटने के 24 घंटे के अंदर वे इस घटना की जानकारी बाल कल्याण समिति के संज्ञान में लाएं, ताकी बाल कल्याण समिति बच्चे की आगे की सुरक्षा की दृष्टि से व्यवस्थाएं कर सके। 

शिशु कल्याण समिति 

पुलिस अधिकारीयों के लिए यह भी अनिवार्य हैं की इस मामले को शिशु कल्याण समिति के समक्ष 24 घंटों में लाया जाए। इसके पश्चात शिशु कल्याण समिति शिशु के बचाव और सुरक्षा के समबन्ध में अतिरिक्त प्रबंध करे। 

पीड़ित का परीक्षणः

  1. अधिनियम यह भी प्रावधान करता है कि पीडित बच्चे का चिकित्सा परीक्षण इस प्रकार किया जाए जो पीडित बच्चे को कम से कम क्लेश दे। यह परीक्षण माता-पिता या किसी ऐसे व्यक्ति की उपस्थिति में किया जाना है जिसपर बच्चा भरोसा करता है, और यदि पीडित लडकी है तो परीक्षण महिला चिकित्सक द्वारा ही किया जाए। 
  2. अधिनियम यह भी प्रावधान करता है कि न्यायिक व्यवस्था के हाथों बच्चे के पुनः उत्पीडन से बचा जाए 

विशेष अदालतों की स्थापनाः

  1. इसमें विशेष अदालतों का प्रावधान किया गया है जो बच्चे की पहचान उजागर किये बिना मुकदमा बंद कमरे में चलाएंगी, और प्रयास करेगी कि यह प्रक्रिया बच्चे के अधिक से अधिक अनुकूल हो। 
  2. अतः गवाही देते समय बच्चे के साथ उसके माता-पिता में से कोई एक या कोई अन्य विश्वासप्राप्त व्यक्ति हो, और यदि गवाही देते समय वह चाहे तो वह एक दुभाषिये, विशेष शिक्षक या किसी अन्य पेशेवर की सहायता ले सकता है य साथ ही बच्चे को बार-बार गवाही के लिए अदालत में नहीं बुलाया जाए, और अदालत के ड़रावने वातावरण के बजाय वह वीडियो लिंक के माध्यम से भी गवाही दे सकता है। 
  3. सर्वोपरि, इसमें प्रावधान किया गया है कि बाल यौन-शोषण का मामला अपराध रिपोर्ट होने से एक वर्ष के अंदर निपटा लिया जायेगा। 
  4. अधिनियम का एक अन्य महत्वपूर्ण प्रावधान यह है कि यह यौन शोषण के शिकार हुए बच्चे को प्रदान किये जाने वाली क्षतिपूर्ति निर्धारित करने के लिए विशेष न्यायालय का प्रावधान करता है, ताकि बाद में यह राशि उसकी चिकित्सा और पुनर्वास के लिए उपयोग की जा सके।


Legal Provisions for Women and Children

Laws relating to women
  1. Commission of Sati (Prevention) Act, 1987
  2. Criminal Law (Amendment) Act, 1983
  3. Dowry Prohibition Act, 1961
  4. Immoral Traffic (Prevention) Act, 1956
  5. Indecent Representation of Women (Prohibition) Act, 1986
  6. National Commission for Women Act, 1990
  7. Prohbn of Sexual Harassment of Women at the Workplace Bill, 2010
  8. Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005
Laws relating to marriage & divorce
  1. Anand Marriage Act, 1909
  2. Arya Marriage Validation Act, 1937
  3. Births, Deaths & Marriages Registration Act, 1886
  4. Bangalore Marriages Validating Act, 1936
  5. Converts’ Marriage Dissolution Act, 1866
  6. Dissolution of Muslim Marriages Act, 1939
  7. Family Courts Act, 1984
  8. Foreign Marriage Act, 1969
  9. Hindu Marriage Act, 1955
  10. Hindu Marriages (Validation of Proceedings) Act, 1960
  11. Indian Christian Marriage Act, 1872
  12. Indian Divorce Act, 1869
  13. Indian Divorce Amendment Bill, 2001
  14. Indian Matrimonial Causes (War Marriages) Act, 1948
  15. Marriage Laws (Amendment) Act, 2001
  16. Marriages Validation Act, 1892
  17. Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986
  18. Parsi Marriage & Divorce Act, 1936
  19. Prohibition of Child Marriage Act, 2006
  20. Special Marriages Act, 1954
Laws relating to working women
  1. Contract Labour (Regulation and Abolition) Act, 1976
  2. Employees State Insurance Act, 1948
  3. Equal Remuneration Act, 1976
  4. Factories (Amendment) Act, 1948
  5. Maternity Benefit Act, 1961 (Amended in 1995)
  6. Plantation Labour Act, 1951
Laws relating to maintenance
  1. The Code of Criminal Procedure, 1973:
  2. Order for maintenance of wives, children and parents under section 125
  3. Procedure to be followed under section 125
  4. Alteration in allowance under section 125
  5. Enforcement of the order of maintenance
Laws Laws relating to abortion
  1. Medical Termination of Pregnancy Act, 1971
  2. Pre-Natal Diagnostic Techniques (Regulation & Prevention of Misuse) Act, 1994
  3. Pre-Natal Diagnostic Techniques (Regulation & Prevention of Misuse) Amendment Act, 2001
  4. Pre-Natal Diagnostic Techniques (Regulation & Prevention of Misuse) Amendment Act, 2002
Laws relating to property, succession, inheritance, guardianship & adoption
  1. Guardians & Wards Act, 1890
  2. Hindu Adoptions & Maintenance Act, 1956
  3. Hindu Inheritance (Removal of Disabilities) Act, 1928
  4. Hindu Minority & Guardianship Act, 1956
  5. Hindu Succession Act, 1956
  6. Hindu Succession (Amendment) Act, 2005
  7. Indian Succession Act, 1925
  8. Indian Succession (Amendment) Act, 2002 
  9.  Married Women’s Property Act, 1874
  10. Married Women’s Property (Extension) Act, 1959 
Sec-498 A I.P.C. – Its Use And Misuse

Introduction: Most of the people are not aware of the Section 498A of the IPC or what to do when a case related to Section 498A is registered. It is important to know more on what this law is all about. Section 498A was introduced in the year 1983 to protect a married woman from being subjected to cruelty. It claims to provide protection to women against dowry-related harassment and cruelty. On the other hand, it became an easy tool for women to misuse it and wreak revenge from their NRI husbands or to file a false case. Section 498A is one of the most controversial sections of the IPC.

What is Section 498A : Section 498A of the Indian Penal Code (IPC) deals with the violence done on women after her marriage by her husband or her in-laws or any relative of the husband. It prescribes punishment for 3 years and a fine. It gave a new definition to cruelty. Cruelty can be defined as –
  1. If the act done is of such a nature that the woman is enticed to commit suicide or cause an injury to herself, which may prove fatal. This was added in the case of Shobha Rani v. Medhukar Reddy.  It was held in the case that evidence is required to prove cruelty.
  2. If the act done is to harass women or any other person related to her to meet unlawful demands.
Need for Section 498A : Women have always been subject to cruelty by male society. Laws like these help women to fight back. Woman feel they are being heard. There is a lot of need for laws like these in a country like India –
  1. 9 out of 10 cases are always related to dowry. So, there is dire need for these laws to prevent women from the cruelty.
  2. Woman are continuously forced, tortured, threatened or abused for demand for something or the other. The Section 498A of the IPC helps the woman to approach the court of law and punish the wrongdoer.
  3. In many cases, the woman are also subject to mental cruelty. There is no law which can help the woman to ease the mental pain caused to her. Acts like these help woman in every possible ways.
  4. No matter if the laws are misused,they cannot be removed from the Indian Penal Code. As the laws can always be amended. There will be certain loopholes but always a provision can be added to rectify the problems.
The Indian Constitution is using the section 498A to protect married women from cruelty at the matrimonial home. The section was added to IPC to protect women from any domestic violence. Though there is wide misuse by the women. This section is the most fiercely debated section of the IPC. The IPC crimes against women have increased over the years. Most numbers of cases are reported from Delhi, India. A major number of crimes are committed against women every year :


Surely, there is a need for Section 498A because even if there may be misuse, but the actual cases cannot be foregone on this basis. Measures can be taken to overcome the loopholes but entirely scrapping the law can prove to be detrimental to the society.

Misuse of the law : Supreme Court calls the Section 498A as ‘Legal Terrorism’. The misuse or abuse of the law is mostly done by urban and educated women. Also, in most of the cases, the husband and two of his relatives are prosecuted.   
  1. Women use it as a weapon than to shield themselves. In Arnesh Kumar v. State of Bihar,[2] it was stated that bedridden grandfathers and grandmothers and even relatives living abroad were arrested. So, women have started using it as a weapon to get their husbands arrested if they are not satisfied with them. There are many false cases registered every year, as a result, it increases the pendency of cases in the courts.
  2. There have been a number of cases when the male is not of India and he comes to India to marry the lady. Due to extortion and fear of jail, he is made to do acts which he otherwise would not have done. He is under the fear of Section 498A.
  3. Police visit the office premises of men and his reputation is harmed. Police can also pick up the relatives if the complaint is harmed. Also, it does not require any proof before arrest. Even no investigation is required. So, if there is a small dispute woman can use the section to seek revenge.
  4. Gifts are sometimes misunderstood as dowry. So, this can again pose a problem.
So, pro-women laws should not become anti-man laws.

Past Records : The National Crime Record Bureau releases All India Crime Data every year. The cases registered under Section 498A are increasing every year, though the conviction rate each year is falling. The conviction rate under Section 498A is ¼ of the total crimes conviction rate.

Arguments on the Section 498A : The law can only be invoked by women and her relatives. This proves to be a demerit. The Justice Malimath Committee report says, “The harsh law, far from helping the genuine victimized women, has  become a source to blackmail and harassment of husbands and others. Once a complaint (FIR) is lodged with the Police under s.498A/406 IPC, it  becomes an easy tool in the hands of the Police to arrest or threaten to arrest the husband and other relatives named in the FIR without even considering the intrinsic worth of the allegations and making a preliminary  investigation.”

On the other hand, Section 428A  is useful too. This has been the only section which helps the women to fight against the atrocities by man. A woman can file a complaint if she has been subject to any kind of cruelty. The misuse can be curtailed, but the complete scrapping of the article will prove futile.  A married woman approaches the court only when she is left with no other option and no remedy. So, the existing law should be there rather than overhyping the misuse point. Also, in the procedure of mediation, the woman may face several threats. So, the section is important.
Grey areas under the Law

The judiciary has always ensured to provide equal rights to women and to protect them. It ensures that women do not get discriminated as it is also mentioned in our Constitution. The government has always been enthusiastic enough to protect the rights of women. Therefore, the government of India formed Domestic laws and section 498A. But there are certain grey areas in it. There are lacunas in the existing law which can hamper the successful implementation of the law. Some of the grey areas are –
  1. Judiciary acts as an ‘agents of wives’. There are cases in which wives side brutally hit husband and husband’s relatives. The attacks are fatal in nature. But there are no laws on this. The wife has got a free licence to hit the husband and have an easy escape. Also, the judiciary accepts this behaviour as normal.
  2. Judges do not dismiss the case if the wife does not attend the case proceedings. Even if she does not attend the proceedings for years, the case continues to go on. Also, judges take months and sometimes years to decide upon one bail petition. This makes the men neither free of charge nor lets him live a happy life.
  3. The Section 498A is non-bailable and a cognizable offence. The judiciary should change it to a bailable and non-cognizable offence. Bails should be granted to the husband so that if the case is filed on false grounds, there is a course of action left.
How can men protect themselves from false allegations : There is more number of women victims than compared to men. But there also cases when men fall prey to false allegations. There are also cases where women in order to demand maintenance after marriage, hides the fact that she is employed and if they fail, they threaten the husband to file false allegations in the courts. There are cases when men, even commit suicide, to which judiciary is responsible. So, men need to protect themselves against these unjust practices as women are not always the victims
  1. Men need to collect all the evidence and documents - One must collect as many evidence it can prove innocence in the court of law. Indian Judiciary is pro-women, so it may become quite difficult for men to prove the guilt. Men can even keep voice recordings as they can help in the court. Text messages or any conversation which can be claimed as a substantial proof can be kept by the man. Also, if there is any proof which shows that no demands were made by the husband’s side for dowry before and after marriage can prove to be a strong evidence.
  2. Try to get an anticipatory bail – if you feel that your wife is going to file a false case against you, hire a good criminal lawyer and get an anticipatory bail. This will help you and your family members from getting arrested. This was held in Rajesh Sharma v. Union of India[3], and allowed the men to take anticipatory bail.   
  3. Men also file an FIR case against your wife for false 498A complaint - Though the police in India do not file such cases, if you have full proofs, they will consider filing your case. Draft a complaint by a good criminal defence lawyer, so that the police does not reject it.
  4. Men can get the FIR quashed by approaching a High Court under Sec 482 of CrPc - Courts are hesitant to quash an FIR which has been filed by police, but if you have substantial evidence to claim your side you can easily get the FIR quashed.
  5. Man also file a defamation case against your wife for all the lost reputation - Man is a social animal so reputation is very important for him. So, a man can file a case of defamation under Sec 500 of IPC.
  6. Man also file a damage recovery case under Sec 9 of CPC - If your wife lies that you have physically or economically or emotionally harassed her and all her claims are false, you can file a suit against her, it has no risk involved.
  7. Also, prove that the wife moved out of the marriage on her own and without any valid reason.
Remember, evidences are everything in court of law. Without evidence, the court may favour the woman but if you want to be proven innocent, start collecting proofs.
  1. The Government has already formed: Family Welfare committees in every district. The committee will comprise of three members appointed by the District Legal Aid. The committee will be of volunteers, retired officers or any person who may be willing to work. The government should ensure that these committees function properly and  there is no corruption involved in the committees. Every received complaint will be looked by these committees. This will also ensure speedy trials for the complaints.
  2. The government should ensure that no frivolous cases are filed under the section 498A - For that, there should be stringent punishment prescribed by the government. This will help to stop the woman from filing false cases and take it as an easy escape.
  3. Also, there should be courts which can help for speedy redressals of the complaints - So, the complaints can be disposed of in a better way.
  4. The power to arrest should only be exercised after meeting certain standards - The police should not be free to arrest anyone solely on the complaint rather there should be standards fixed by the government.
Conclusion : 
  1. Section 498A can prove to be a weapon as well as a shield to a woman. It is necessary for the government to ensure that no false cases are filed and prove it to be a balanced act – both for husband and wife.
  2. Women’s emancipation is the need of the hour and every measure should be taken to stop harassment and dowry deaths.
  3. Also, Helpline Number for Women – 1091. The number can be called by the woman incase of emergency and there is a need for urgent help.
  4. Therefore, the section is much needed for the society though with certain amendments.
“All the strength and succor you want is within you. Do not be afraid.”  

Swami Vivekananda.

Section 3 in The Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005

Definition of domestic violence - For the purposes of this Act, any act, omission or commission or conduct of the respondent shall constitute domestic violence in case it—
  1. harms or injures or endangers the health, safety, life, limb or well-being, whether mental or physical, of the aggrieved person or tends to do so and includes causing physical abuse, sexual abuse, verbal and emotional abuse and economic abuse; or
  2. harasses, harms, injures or endangers the aggrieved person with a view to coerce her or any other person related to her to meet any unlawful demand for any dowry or other property or valuable security; or
  3. has the effect of threatening the aggrieved person or any person related to her by any conduct mentioned in clause (a) or clause (b); or
  4. otherwise injures or causes harm, whether physical or mental, to the aggrieved person. Explanation I - For the purposes of this section,—
  • “physical abuse” means any act or conduct which is of such a nature as to cause bodily pain, harm, or danger to life, limb, or health or impair the health or development of the aggrieved person and includes assault, criminal intimidation and criminal force;
  • “sexual abuse” includes any conduct of a sexual nature that abuses, humiliates, degrades or otherwise violates the dignity of woman;
  • “verbal and emotional abuse” includes—
  1. insults, ridicule, humiliation, name calling and insults or ridicule specially with regard to not having a child or a male child; and
  2. repeated threats to cause physical pain to any person in whom the aggrieved person is interested.
  • “economic abuse” includes 
  1. deprivation of all or any economic or financial resources to which the aggrieved person is entitled under any law or custom whether payable under an order of a court or otherwise or which the aggrieved person requires out of necessity including, but not limited to, household necessities for the aggrieved person and her children, if any, stridhan, property, jointly or separately owned by the aggrieved person, payment of rental related to the shared household and maintenance;
  2. disposal of household effects, any alienation of assets whether movable or immovable, valuables, shares, securities, bonds and the like or other property in which the aggrieved person has an interest or is entitled to use by virtue of the domestic relationship or which may be reasonably required by the aggrieved person or her children or her stridhan or any other property jointly or separately held by the aggrieved person; and
  3. prohibition or restriction to continued access to resources or facilities which the aggrieved person is entitled to use or enjoy by virtue of the domestic relationship including access to the shared household. 
Explanation II - For the purpose of determining whether any act, omission, commission or conduct of the respondent constitutes “domestic violence” under this section, the overall facts and circumstances of the case shall be taken into consideration. 

Legal Provisions for Children

Laws relating to children
  1. Child Labour (Prohibition & Regulation) Act, 1986
  2. Child Marriage Restraint Act, 1929
  3. Children Act, 1960
  4. Children (Pledging of Labour) Act, 1933
  5. Commissions for the Protection of Child Rights Act, 2005
  6. Infant Milk Substitutes Act, 1992
  7. Infant Milk Substitutes Act, 2003
  8. Infant Milk Substitutes, Feeding Bottles & Infant Foods (Regulation of Production, Supply & Distribution) Act, 1992
  9. Infant Milk Substitutes, Feeding Bottles & Infant Foods (Regulation of Production, Supply & Distribution) Amendment Act, 2003
  10. Juvenile Justice (Care & Protection of Children) Act, 2000
  11. Juvenile Justice (Care & Protection of Children) Amendment Act, 2006
  12. Prohibition of Child Marriage Act, 2006
  13. Reformatory Schools Act, 1897
  14. Young Persons (Harmful Publications) Act, 1956
Offences against women and children in the Indian Penal Code
The Indian Penal Code, 1860
  1. Abandoning of child under 12 years of age
  2. Adultery
  3. Assault or criminal force to a woman with intent to outrage her modesty
  4. Buying minor for purpose of prostitution
  5. Causing death of quick unborn child by act amounting to culpable homicide
  6. Causing miscarriage or miscarriage without the woman’s consent
  7. Cohabitation caused by a man deceitfully inducing a belief of lawful marriage
  8. Concealment of birth by secret disposal of dead body
  9. Concealment of former marriage
  10. Death caused by act done with intent to cause miscarriage
  11. Dowry death
  12. Enticing, detaining or taking away with criminal intent a married woman
  13. Fraudulent marriage ceremony without lawful marriage
  14. Husband or relative of a husband of a woman subjecting her to cruelty
  15. Importation of girl from foreign country
  16. Intercourse by man with his wife during separation
  17. Intercourse by a member of management or staff of a hospital with any woman in that hospital
  18. Intercourse by public servant with a woman in his custody
  19. Intercourse by superintendent of jail, remand home, etc
  20. Kidnapping, abducting or inducing woman to compel her marriage
  21. Marriage ceremony fraudulently gone through without lawful marriage
  22. Marrying again during lifetime of spouse (Also see here)
  23. Preventing a child from being born alive or causing its death after birth
  24. Procreation of minor girl
  25. Rape
  26. Selling minor for purpose of prostitution
  27. Word, gesture or act intended to insult the modesty of a woman

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01-01-2020,1,04-08-2021,1,05-08-2021,1,06-08-2021,1,28-06-2021,1,Abrahamic religions,6,Afganistan,1,Afghanistan,35,Afghanitan,1,Afghansitan,1,Africa,2,Agri tech,2,Agriculture,150,Ancient and Medieval History,51,Ancient History,4,Ancient sciences,1,April 2020,25,April 2021,22,Architecture and Literature of India,11,Armed forces,1,Art Culture and Literature,1,Art Culture Entertainment,2,Art Culture Languages,3,Art Culture Literature,10,Art Literature Entertainment,1,Artforms and Artists,1,Article 370,1,Arts,11,Athletes and Sportspersons,2,August 2020,24,August 2021,239,August-2021,3,Authorities and Commissions,4,Aviation,3,Awards and Honours,26,Awards and HonoursHuman Rights,1,Banking,1,Banking credit finance,13,Banking-credit-finance,19,Basic of Comprehension,2,Best Editorials,4,Biodiversity,46,Biotechnology,47,Biotechology,1,Centre State relations,19,CentreState relations,1,China,81,Citizenship and immigration,24,Civils Tapasya - English,92,Climage Change,3,Climate and weather,44,Climate change,60,Climate Chantge,1,Colonialism and imperialism,3,Commission and Authorities,1,Commissions and Authorities,27,Constitution and Law,467,Constitution and laws,1,Constitutional and statutory roles,19,Constitutional issues,128,Constitutonal Issues,1,Cooperative,1,Cooperative Federalism,10,Coronavirus variants,7,Corporates,3,Corporates Infrastructure,1,Corporations,1,Corruption and transparency,16,Costitutional issues,1,Covid,104,Covid Pandemic,1,COVID VIRUS NEW STRAIN DEC 2020,1,Crimes against women,15,Crops,10,Cryptocurrencies,2,Cryptocurrency,7,Crytocurrency,1,Currencies,5,Daily Current Affairs,453,Daily MCQ,32,Daily MCQ Practice,573,Daily MCQ Practice - 01-01-2022,1,Daily MCQ Practice - 17-03-2020,1,DCA-CS,286,December 2020,26,Decision Making,2,Defence and Militar,2,Defence and Military,281,Defence forces,9,Demography and Prosperity,36,Demonetisation,2,Destitution and poverty,7,Discoveries and Inventions,8,Discovery and Inventions,1,Disoveries and 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concepts,11,Inda,1,India,29,India Agriculture and related issues,1,India Economy,1,India's Constitution,14,India's independence struggle,19,India's international relations,4,India’s international relations,7,Indian Agriculture and related issues,9,Indian and world media,5,Indian Economy,1248,Indian Economy – Banking credit finance,1,Indian Economy – Corporates,1,Indian Economy.GDP-GNP-PPP etc,1,Indian Geography,1,Indian history,33,Indian judiciary,119,Indian Politcs,1,Indian Politics,637,Indian Politics – Post-independence India,1,Indian Polity,1,Indian Polity and Governance,2,Indian Society,1,Indias,1,Indias international affairs,1,Indias international relations,30,Indices and Statistics,98,Indices and Statstics,1,Industries and services,32,Industry and services,1,Inequalities,2,Inequality,103,Inflation,33,Infra projects and financing,6,Infrastructure,252,Infrastruture,1,Institutions,1,Institutions and bodies,267,Institutions and bodies Panchayati 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disasters,13,New Laws and amendments,57,News media,3,November 2020,22,Nuclear technology,11,Nuclear techology,1,Nuclear weapons,10,October 2020,24,Oil economies,1,Organisations and treaties,1,Organizations and treaties,2,Pakistan,2,Panchayati Raj,1,Pandemic,137,Parks reserves sanctuaries,1,Parliament and Assemblies,18,People and Persoalities,1,People and Persoanalities,2,People and Personalites,1,People and Personalities,189,Personalities,46,Persons and achievements,1,Pillars of science,1,Planning and management,1,Political bodies,2,Political parties and leaders,26,Political philosophies,23,Political treaties,3,Polity,485,Pollution,62,Post independence India,21,Post-Governance in India,17,post-Independence India,46,Post-independent India,1,Poverty,46,Poverty and hunger,1,Prelims,2054,Prelims CSAT,30,Prelims GS I,7,Prelims Paper I,189,Primary and middle education,10,Private bodies,1,Products and innovations,7,Professional sports,1,Protectionism and Nationalism,26,Racism,1,Rainfall,1,Rainfall and Monsoon,5,RBI,73,Reformers,3,Regional conflicts,1,Regional Conflicts,79,Regional Economy,16,Regional leaders,43,Regional leaders.UPSC Mains GS II,1,Regional Politics,149,Regional Politics – Regional leaders,1,Regionalism and nationalism,1,Regulator bodies,1,Regulatory bodies,63,Religion,44,Religion – Hinduism,1,Renewable energy,4,Reports,102,Reports and Rankings,119,Reservations and affirmative,1,Reservations and affirmative action,42,Revolutionaries,1,Rights and duties,12,Roads and Railways,5,Russia,3,schemes,1,Science and Techmology,1,Science and Technlogy,1,Science and Technology,819,Science and Tehcnology,1,Sciene and Technology,1,Scientists and thinkers,1,Separatism and insurgencies,2,September 2020,26,September 2021,444,SociaI Issues,1,Social Issue,2,Social issues,1308,Social media,3,South Asia,10,Space technology,70,Startups and entrepreneurship,1,Statistics,7,Study material,280,Super powers,7,Super-powers,24,TAP 2020-21 Sessions,3,Taxation,39,Taxation and revenues,23,Technology and environmental issues in India,16,Telecom,3,Terroris,1,Terrorism,103,Terrorist organisations and leaders,1,Terrorist acts,10,Terrorist acts and leaders,1,Terrorist organisations and leaders,14,Terrorist organizations and leaders,1,The Hindu editorials analysis,58,Tournaments,1,Tournaments and competitions,5,Trade barriers,3,Trade blocs,2,Treaties and Alliances,1,Treaties and Protocols,43,Trivia and Miscalleneous,1,Trivia and miscellaneous,43,UK,1,UN,114,Union budget,20,United Nations,6,UPSC Mains GS I,584,UPSC Mains GS II,3969,UPSC Mains GS III,3071,UPSC Mains GS IV,191,US,63,USA,3,Warfare,20,World and Indian Geography,24,World Economy,404,World figures,39,World Geography,23,World History,21,World Poilitics,1,World Politics,612,World Politics.UPSC Mains GS II,1,WTO,1,WTO and regional pacts,4,अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं,10,गणित सिद्धान्त पुस्तिका,13,तार्किक कौशल,10,निर्णय क्षमता,2,नैतिकता और मौलिकता,24,प्रौद्योगिकी पर्यावरण 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