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राज्य विधानमंडल - संरचना, शक्तियां और कार्य
1.0 राज्य विधान मंडलां के संबंध में संवैधानिक प्रावधान
भारत के संविधान के अनुसार प्रत्येक राज्य में विधायिका का प्रावधान किया गया है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत राज्यपाल तथा एक सदन (विधानसभा), अथवा द्वि-सदन व्यवस्था - राज्यपाल व विधानसभा तथा विधान परिषद - का प्रावधान किया गया है।
अनुच्छेद 84 - संसद की सदस्यता के लिये अर्हता - कोई व्यक्ति संसद के किसी स्थान को भरने के लिये चुने जाने के लिये अर्हित तभी होगा जब -
- वह भारत का नागरिक है और निर्वाचन आयोग द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्ररूप के अनुसार शपथ लेता है या प्रतिज्ञान करता है और उस पर अपने हस्ताक्षर करता है;
- वह राज्य सभा में स्थान के लिए कम से कम तीस वर्ष की आयु का और लोक सभा में स्थान के लिए कम से कम पच्चीस वर्ष की आयु का है; और
- उसके पास ऐसी अन्य अर्हताएं हैं जो ससंद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस निमित्त विहित की जाएं।
अनुच्छेद 157 - राज्यपाल नियुक्त होने के लिये अर्हताएं
कोई व्यक्ति राज्यपाल नियुक्त होने का पात्र तभी होगा जब वह भारत का नागरिक है और पैंतीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका है।
अनुच्छेद 158 - राज्यपाल के पद के लिए शर्ते
- राज्यपाल संसद के किसी सदन का या पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं होगा और यदि संसद के किसी सदन का या ऐसे किसी राज्य के विधान मंडल के किसी सदन का कोई सदस्य राज्यपाल नियुक्त हो जाता है तो यह समझा जाएगा कि उसने उस सदन में अपना स्थान राज्यपाल के रूप में अपने पद ग्रहण की तारीख से रिक्त कर दिया है।
- राज्यपाल अन्य कोई लाभ का पद धारण नहीं करेगा।
- राज्यपाल, बिना किराया दिए, अपने शासकीय निवासों के उपयोग का हकदार होगा अब ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का भी, जो संसद विधि द्वारा, अवधारित करे और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषधिकारों का, जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, हकदार होगा। अनुच्छेद (3क) जहां एक ही व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया जाता है वहां उस राज्यपाल को संदेय उपलब्धियां और भत्ते उन राज्यों के बीच ऐसे अनुपात में आबंटित किए जाएंगे जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा अवधारित करे।
- राज्यपाल की उपलब्धियां और भत्ते उसकी पदावधि के दौरान कम नहीं किए जाएंगे।
अनुच्छेद 159 - राज्यपाल द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान
प्रत्येक राज्यपाल और प्रत्येक व्यक्ति जो राज्यपाल के कृत्यों का निर्वहन कर रहा है, अपना पद ग्रहण करने से पहले उस राज्य के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति या उसकी अनुपस्थिति में उस न्यायालय के उपलब्ध ज्येष्ठतम न्यायाधीश के समक्ष निम्नलिखित प्ररूप में शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा, अर्थात् ‘‘मैं, अुमक, ................................................................कि मैं श्रद्धापूर्वक ........................................................ (राज्य का नाम) के राज्यपाल के पद का कार्यपालन (अथवा राज्यपाल के कृत्यों का निर्वहन) करूंगा तथा अपनी पूरी योग्यता से संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूंगा और मैं .................. (राज्य का नाम) की जनता की सेवा और कल्याण में विरत रहूंगा।
अनुच्छेद 160 - कुछ आकस्मिकताओं में राज्यपाल के कृत्यों का निर्वहन
राष्ट्रपति ऐसी किसी आकस्मिकता में, जो इस अध्याय में उपबंधित नहीं है, राज्य के राज्यपाल के कृत्यों के निर्वहन के लिए ऐसा उपबंध कर सकेगा जो वह ठीक समझता है।
अनुच्छेद 161 - क्षमा आदि की और कुछ मामलों में दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की राज्यपाल की शक्ति
किसी राज्य के राज्यपाल को एस विषय संबंधी, जिस विषय पर एस राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है, किसी विधि के विरूद्ध किसी अपराध के लिए सिद्धदोष ठहराए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, उसका प्रविलंबन, विराम या परिहार करने की अथवा दंडादेश में निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति होगी।
अनुच्छेद 162 - राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार
इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए किसी राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार उन विषयों पर होगा जिनके संबंध में उस राज्य के विधान मंडल को विधि बनाने की शक्ति हैः
परंतु जिस विषय के संबंध में राज्य के विधान मंडल और संसद को विधि बनाने की शक्ति है उसमें राज्य की कार्यपालिका शक्ति इस संविधान द्वारा, या संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा, संघ या उसके प्राधिकारियों को अभिव्यक्त रूप से प्रदत्त कार्यपालिका शक्ति के अधीन और उससे परिसीमित होगी।
मंत्रि-परिषद्
अनुच्छेद 163 - राज्यपाल को सहायता और सलाह देने के लिए मंत्रि परिषद्
- जिन बातों में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने कृत्यों या उनमें से किसी को अपने विवेकानुसार करे उन बातों को छोड़कर राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रि परिषद होगी जिसका प्रधान, मुख्यमंत्री होगा।
- यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई विषय ऐसा है या नहीं जिसके संबंध में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे तो राज्यपाल का अपने विवेकानुसार किया गया विनिश्चय अंतिम होगा और राज्यपाल द्वारा की गई किसी बात की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि उसे अपने विवेकानुसार कार्य करना चाहिए था या नहीं।
- इस प्रश्न की किसी न्यायालय में जांच नहीं की जाएगी कि क्या मंत्रियों ने राज्यपाल को कोई सलाह दी, और यदि दी तो क्या दी।
अनुच्छेद 164 - मंत्रियों के बारे में अन्य उपबंध
- मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल, मुख्यमंत्री की सलाह पर करेगा तथा मंत्री, राज्यपाल के प्रसादपर्यंत अपने पद धारण करेंगेः परंतु बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा राज्यों में जनजातियों के कल्याण का भारसाधक एक मंत्री होगा जो साथ ही अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों के कल्याण का या किसी अन्य कार्य का भी भारसाधक हो सकेगा।
अनुच्छेद (1क) किसी राज्य की मंत्रि-परिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या उस राज्य की विधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या के पंद्रह प्रतिशत से अधिक नहीं होगीः परन्तु किसी राज्य में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की संख्या बारह से कम नहीं होगीः
परंतु यह और कि जाहं संविधान (इक्यानवेवां संशोधन) अधिनियम, 2003 के प्रारंभ पर किसी राज्य की मंत्रि परिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या, यथास्थिति, उक्त पंद्रह प्रतिशत या पहले परंतुक में विनिर्दिष्ट संख्या से अधिक है वहां उस राज्य में मंत्रियों की कुल संख्या ऐसी तारीख से, जो राष्ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा नियत करे छह मास के भीतर इस खंड के उपबंधों के अनुरूप लाई जाएगी।
अनुच्छेद (1ख) किसी राजनीतिक दल का किसी राज्य की विधान सभा का या किसी राज्य के विधान मंडल के किसी सदन का जसमें विधान परिषद है, कोई सदस्य जो दसवीं अनुसूची के पैरा 2 के अधीन उस सदन का सदस्य होने के लिए निरर्हित है, अपनी रिर्हता की तारीख से प्रारंभ होने वाली और उस तारीख तक जिसको ऐसे सदस्य के रूप में उसकी पदावधि समाप्त हो या जहां वह, ऐसी अवधि की समाप्ति के पूर्व, यथास्थिति, किसी राज्य की विधान सभा के लिए या विधान परिषद वाले किसी राज्य के विधान मंडल के किसी सदन के लिए कोई निर्वाचन लड़ता है उस तारीख तक जिसको वह निर्वाचित घोषित किया जाता हे, इनमें से जो भी पूर्वतर हो, की अवधि के दौरान, खंड (1) के अधीन मंत्री के रूप में नियुक्त किए जाने के लिए भी निरर्हित होगा।
- मंत्रि परिषद राज्य की विधान सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगी।
- किसी मंत्री द्वारा अपना पद ग्रहण करने से पहले, राज्यपाल तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्रारूपों के अनुसार उसको पद की और गोपनीयता की शपथ दिलाएगा।
- कोई मंत्री, जो निरंतर छह मास की किसी अवधि तक राज्य के विधान मंडल का सदस्य नहीं है, उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री नहीं रहेगा।
- मंत्रियों के वेतन और भत्ते ऐसे होंगे जो उस राज्य का विधान मंडल, विधि द्वारा, समय-समय पर अवधारित करे और जब तक उस राज्य का विधान मंडल इस प्रकार अवधारित नहीं करता है तब तक ऐसे होंगे जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं।
राज्य का महाधिवक्ता
अनुच्छेद 165 - राज्य का महाधिवक्ता
- प्रत्येक राज्य का राज्यपाल, उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए अर्हित किसी व्यक्ति को राज्य का महाधिवक्ता नियुक्त करेगा।
- महाविधवक्ता का यह कर्तव्य होगा कि वह उस राज्य की सरकार को विधि संबंधी ऐसे विषयों पर सलाह दे और विधिक स्वरूप के ऐेसे अन्य कर्तव्यों का पालन करे जो राज्यपाल उसको समय-समय पर निर्देशित करे या सौंपे और उन कृत्यों का निर्वहन करे जो उसको इस संविधान अथवा तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा या उसके अधीन प्रदान किए गए हों।
- महाधिवक्ता, राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करेगा और ऐसा पारिश्रमिक प्राप्त करेगा जो राज्यपाल अवधारित करे।
सरकारी कार्य का संचालन
अनुच्छेद 166 - राज्य की सरकार के कार्य का संचालन
- किसी राज्य की सरकार की समस्त कार्यपालिका कार्रवाई राज्यपाल के नाम से की हुई कही जाएगी।
- राज्यपाल के नाम से किए गए और निष्पादित आदेशों और अन्य लिखतों को ऐसी रीति से अधिप्रमाणित किया जाएगा जो राज्यपाल द्वारा बनाए जाने वाले नियमों में विनिर्दिष्ट की जाए और इस प्रकार अधिप्रमाणित आदेश या लिखत की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि वह राज्यपाल द्वारा किया गया या निष्पादित आदेश या लिखत नहीं है।
- राज्यपाल, राज्य की सरकार का कार्य अधिक सुविधापूर्वक किए जाने के लिए और जहां तक वह कार्य ऐसा कार्य नहीं है जिसके विषय में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे वहां तक मंत्रियों में उक्त कार्य के आबंटन के लिए नियम बनाएगा।
अनुच्छेद 167 - राज्यपाल को जानकारी देने आदि के संबंध में मुख्यमंत्री के कर्तव्य
प्रत्येक राज्य के मुख्यमंत्री का यह कर्तव्य होगा कि वह -
- राज्य के कार्यों के प्रशासन संबंधी और विधान विषयक प्रस्थापनाओं संबंधी मंत्रि परिषद के सभी विनिश्चय राज्यपाल को संसूचित करे;
- राज्य के कार्यो के प्रशासन संबंधी और विधान विषयक प्रस्थापनाओं संबंधी जो जानकारी राज्यपाल मांगे, वह दे; और
- किसी विषय को जिस पर किसी मंत्री ने विनिश्चय कर दिया है किंतु मंत्रि परिषद ने विचार नहीं किया है, राज्यपाल द्वारा अपेक्षा किए जाने पर परिषद के समक्ष विचार के लिए रखे।
राज्य विधायिका सामान्य
अनुच्छेद 168 - राज्यों के विधान मंडलों का गठन
- प्रत्येक राज्य के लिए एक विधान मंडल होगा जो राज्यपाल और अन्य राज्यों में एक सदन से मिलकर बनेगा।
- जहां किसी राज्य के विधान मंडल के दो सदन हैं वहां एक का नाम विधान परिषद और दूसरे का नाम विधान सभा होगा और जहां केवल एक सदन है वहां उसका नाम विधान सभा होगा।
अनुच्छेद 169 - राज्यों में विधान परिषदों का उत्सादन या सृजन
- अनुच्छेद 168 में किसी बात के होते हुए भी, संसद विधि द्वारा विधान परिषद वाले राज्य में विधान परिषद के उत्सादन के लिए या ऐसे राज्य में, जिसमें विधान परिषद नहीं है, विधान परिषद के सृजन के लिए उपबंध कर सकेगी, यदि उस राज्य की विधान सभा ने इस आशय का संकल्प विधान सभा की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों की संख्या के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित कर दिया है।
- खंड (1) में विनिर्दिष्ट किसी विधि में इस संविधान के संशोधन के लिए ऐसे उपबंध अंतर्विष्ट होंगे जो उस विधि के उपबंधों को प्रभावी करने के लिए आवश्यक हों तथा ऐसे अनुपूरक, आनुषंगिक और पारिणामिक उपबंध भी अंतर्विष्ट हो सकेंगे जिन्हें संसद आवश्यक समझे।
- पूर्वोक्त प्रकार की कोई विधि अनुच्छेद 368 के प्रयोजनकों के लिए इस संविधान का संशोधन नहीं समझी जाएगी।
अनुच्छेद 170 - विधान सभाओं की संरचना
- अनुच्छेद 333 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, प्रत्येक राज्य की विधान सभा उस राज्य में प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने हुए पांच सौ से अनधिक और साठ से अन्यून सदस्यों से मिलकर बनेगी।
- खंड (1) के प्रयोजनों के लिए, प्रत्येक राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में ऐसी रीति से विभाजित किया जाएगा कि प्रत्यक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या का उसको आबंटित स्थानों की संख्या से अनुपात समस्त राज्य में यथासाध्य एक ही हो।
स्पष्टीकरण - इस खंड में ‘‘जनसंख्या’’ पद से ऐसी अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना में अभिनिश्चित की गई जनसंख्या अभ्रिपेत है जिसके सुसंगत आंकड़ें प्रकाशित हो गए हैं। परंतु इस स्पष्टीकरण में अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना के प्रति जिसके सुसंगत आंकड़ें प्रकाशित हो गए हैं, निर्देश का, जब तक सन् 2026 के पश्चात की गई पहली जनगणना के सुसंगत आंकड़ें प्रकाशित नहीं हो जाते हैं, यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह 2001 की जनगणना के प्रतिनिर्देश है।
- प्रत्येक जनगणना की समाप्ति पर प्रत्येक राज्य की विधान सभा में स्थानों की कुल संख्या और प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन का ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसी रीति से पुनःसमयोजन किया जाएगा जो संसद विधि द्वारा अवधारित करेंः परंतु ऐसे पुनः समयोजन उस तारीख से प्रभावी होगा जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा विनिर्दिष्ट करे और ऐसे पुनः समायोजन के प्रभावी होने तक विधान सभा के लिए कोई निर्वाचन उन प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों के आधार पर हो सकेगा जो ऐसे पुनः समायोजन के पहले विद्यमान हैंः
परंतु यह और भी कि जब तक सन् 2026 के पश्चात की गई पहली जनगणना के सुसंगत आंकड़ें प्रकाशित नहीं हो जाते हैं तब तक इस खंड के अधीन,
- प्रत्येक राज्य की विधान सभा में 1971 की जनगणना के आधार पर पुनः समयोजित स्थानों की कुल संख्या का; और
- ऐसे राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन का, जो 2001 की जनगणना के आधार पर पुनः समायोजित किए जाएं, पुनः समायोजन आवश्यक नहीं होगा।
अनुच्छेद 171 - विधान परिषदों की संरचना
- विधान परिषद वाले राज्य की विधान परिषद के सदस्यों की कुल संख्या उस राज्य की विधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या के एक-तिहाई से अधिक नहीं होगी, परंतु किसी राज्य की विधान परिषद के सदस्यों की कुल संख्या किसी भी दशा में चालीस से कम नहीं होगी।
- जब तक संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक किसी राज्य की विधान परिषद की संरचना खंड (3) में उपबंधित रीति से होगी।
- किसी राज्य की विधान परिषद के सदस्यों की कुल संख्या का
- यथाशक्य निकटतक एक-तिहाई भाग उस राज्य की नगरपालिकाओं, जिला बोर्डों और अन्य ऐसे स्थानीय प्राधिकारियों के, जो संसद विधि द्वारा विनिर्दिष्ट करें, सदस्यों से मिलकर बनने वाले निर्वाचक मंडलों द्वारा निर्वाचित होगा;
- यथाशक्य निकटतम बारहवां भाग उस राज्य में निवास करने वाले ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनने वाले निर्वाचक मंडलो द्वारा निर्वाचित होगा, जो भारत के राज्यक्षेत्र में किसी विश्वविद्यालय के कम से कम तीन वर्ष के स्नातक हैं या जिनके पास कम से कम तीन वर्ष से ऐसी अर्हताएं हैं जो संसद् द्वारा बनाई गई किसी विधि या एसके अधीन ऐसे विश्वद्यिलय के स्नातक की अर्हताओं के समतुल्य विहित की गई हों;
- यथाशक्य निकटतम बारहवां भाग ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनने वाले निर्वाचक मंडलो द्वारा निर्वाचित होगा जो राज्य के भीतर माध्यमिक पाठशालाओं से अनिम्न स्तर की ऐसी शिक्षा संस्थाओं में, जो संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाएं, पढ़ाने के काम में कम से कम तीन वर्ष से लगे हुए हैं;
- यथशक्य निकटतम एक-तिहाई भाग राज्य की विधान सभा के सदस्यों द्वारा ऐसे व्यक्तियों में से निर्वाचित होगा जो विधान सभा के सदस्य नहीं है;
- खंड (3) के उपखंड (क), उपखंड (ख), और उपखंड (ग) के अधीन निर्वाचित होने वाले सदस्य ऐसे प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में चुने जाएंगे, जो संसद द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन विहित किए जाएं तथा उक्त उपखंडों के और उक्त खंड के उपखंड (घ) के अधीन निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होंगे।
- राज्यपाल द्वारा खंड (3) के उपखंड (ड) के अधीन नामनिर्देशित किए जाने वाले सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हें निम्नलिखित विषयों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव है, अर्थात - साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारी आंदोलन और समाज सेवा।
अनुच्छेद 172 - राज्यों के विधान मंडलो की अवधि
- प्रत्येक राज्य की प्रत्येक विधान सभा, यदि पहले ही विघटित नहीं कर दी जाती है तो, अपने प्रथम अधिवेशन के लिए नियत तारीख से 5 वर्ष तक बनी रहेगी, इससे अधिक नहीं ओर पांच वर्ष की उक्त अवधि की समाप्ति का पिरणाम विधान सभा का विघटन होगाः
परंतु उक्त अवधि को, जब आपात् की उद्घोषणा प्रवर्तन में है, तब संसद् विधि द्वारा, ऐसी अवधि के लिए बढ़ा सकेगी, जो एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं होगी और उद्घोषण के प्रवर्तन में न रह जाने के पश्चात किसी भी दशा में उसका विस्तार छह मास की अवधि से अधिक नहीं होगा।
- राज्य की विधान परिषद का विघटन नहीं होगा, किंतु उसके सदस्यों में से यथासंभव निकटतम एक-तिहाई सदस्य संसद द्वारा विधि द्वारा इस निमित बनाए गउ उपबंधों के अनुसार, प्रत्येक द्वितीय वर्ष की समाप्ति पर यथाशक्य शीघ्र निवृत्त हो जाएंगे।
अनुच्छेद 173 - राज्य के विधान मंडल की सदस्यता के लिए अर्हता
कोई व्यक्ति किसी राज्य में विधान मंडल के किसी स्थान को भरने के लिए चुने जाने के लिए अर्हित तभी होगा जब -
- वह भारत का नागरिक है और निर्वाचन आयोग द्वारा इस निमित प्राधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लए दिए गए प्ररूप के अनुसार शपथ लेता है या प्रतिज्ञात करता है और उस पर अपने हस्ताक्षर करता है;
- वह विधान सभा के स्थान के लिए कम से कम पच्चीस वर्ष की आयु का और विधान परिषद के स्थान के लिए कम से कम तीस वर्ष की आयु का है; और
- उसके पास ऐसी अन्य अर्हताएं हैं जो इस निमित्त संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाएं।
अनुच्छेद 174 - राज्य के विधान मंडल के सत्र, सत्रावसान और विघटन
- राज्यपाल, समय-समय पर, राज्य के विधान मंडल के सदन या प्रत्येक सदन को ऐसे समय और स्थान पर, जो वह ठीक समझे, अधिवेशन के लिए आहूत करेगा, किंतु उसके एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के लिए नियत तारीख के बीच छह मास का अंतर नहीं होगा।
- राज्यपाल, समय-समय पर,
- सदन का या किसी सदन का सत्रावसान कर सकेगा;
- विधान सभा का विघटन कर सकेगा।
अनुच्छेद 175 - सदन या सदनों में अभिभाषण का और उनको संदेश भेजने का राज्यपाल का अधिकार
- राज्यपाल, विधान सभा में या विधान परिषद वाले राज्य की दशा में उस राज्य के विधान मंडल के किसी एक सदन में या एक साथ समवेत दोनों सदनों में, अभिभाषण कर सकेगा और इस प्रयोजन के लिए सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा क सकेगा।
- राज्यपाल, राज्य के विधान मंडल में उस समय लंबित किसी विधेयक के संबंध में संदेश या कोई अन्य संदेश, उस राज्य के विधान मंडल के सदन या सदनों को भेज सकेगा और जिस सदन को कोई संदेश इस प्रकार भेजा गया है वह सदन उस संदेश द्वारा विचार करने के लिए अपेक्षित विषय पर सुविधानुसार शीघ्रता से विचार करेगा।
अनुच्छेद 176 - राज्यपाल का विशेष अभिभाषण
- राज्यपाल, विधान सभा के लिए प्रत्येक साधारण निर्वाचन के पश्चात् प्रथम सत्र के आरंभ में और प्रत्येक वष्र के प्रथम सत्र के आरंभ में विधान सभा में या विधान परिषद वाले राज्य की दशा में एक साथ समवेत दोनों में अभिभाषण करेगा और विधान मंडल को उसके आहवान के कारण बातएगा।
- सदन या प्रत्येक सदन की प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियामों द्वारा ऐसे अभिभाषण में निर्दिष्ट विषयों की चर्चा के लिए समय नियत करने के लिए उपबंध किया जाएगा।
अनुच्छेद 177 - सदनों के बारे में मंत्रियों और महाविधवक्ता के अधिकार
प्रत्येक मंत्री और राज्य के महाधिवक्ता को यह अधिकार होगा कि वह उस राज्य की विधान सभा में या विधान परिषद वाले राज्य की दशा में दोनों सदनों में बोले और उनकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग ले और विधान मंडल की किसी समिति में, जिसमें उसका नाम सदस्य के रूप में दिया गया है, बोले और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग ले, किंतु इस अनुच्छेद के आधार पर वह मत देने का हकदार नहीं होगा।
अनुच्छेद 178 - विधान सभा का अध्यक्ष और उपाध्यक्ष
प्रत्येक राज्य की विधान सभा, यथाशक्य शीघ्र, अपने दो सदस्यों को अपना अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनेगी और जब-जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद रिक्त होता है तब-तब विधान सभा किसी अन्य सदस्य को, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष चुनेगी।
अनुच्छेद 179 - अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का पद रिक्त होना, पदत्याग और पद से हटाया जाना
विधान सभा के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के रूप में पद धारण करने वाला सदस्य -
- यदि विधान सभा का सदस्य नहीं रहता है तो अपना पद रिक्त कर देगा;
- किसी भी समय, यदि वह सदस्य अध्यक्ष है तो उपाध्यक्ष को संबोधित और यदि वह सदस्य उपाध्यक्ष है तो अध्यक्ष को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा; और
- विधान सभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगाः
परंतु खंड (ग) के प्रयोजन के लिये कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई होः परंतु यह और कि जब कभी विधान सभा का विघटन किया जाता है तो विघटन के पश्चात् होने वाले विधान सभा के प्रथम अधिवेशन के ठीक पहले तक अध्यक्ष अपने पद को रिक्त नहीं करेगा।
अनुच्छेद 180 - अध्यक्ष के पद के कर्तव्यों का पालन करना या अध्यक्ष के रूप में कार्य करने की उपाध्यक्ष या अन्य व्यक्ति को शक्ति
- जब अध्यक्ष का पद रिक्त है तो उपाध्यक्ष, या यदि उपाध्यक्ष का पद भी रिक्त है तो विधान सभा का ऐसा सदस्य, जिसको राज्यपाल इस प्रयोजन के लिये नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा।
- विधान सभा की किसी बैठक से अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष, या यदि वह भी अनुपस्थित है तो ऐसा व्यक्ति, जो विधान सभा की प्रक्रिया के नियमों द्वारा अवधारित किया जाए, या यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं है तो ऐसा अन्य व्यक्ति, जो विधान सभा द्वारा अवधारित किया जाए, अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा।
अनुच्छेद 181 - ज्ब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष को पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उसका पीठासीन न होना
- विधान सभा की किसी बैठक में, जब अध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब अध्यक्ष, या जब उपाध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उपाध्यक्ष, उपस्थित रहने पर भी, पीठासीन नहीं होगा और अनुच्छेद 180 के खंड (2) के उपबंध ऐसी प्रत्येक बैठक के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वह उस बैठक के संबंध में लागू होते हैं जिससे, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष अनुपस्थित है।
- जब अध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विधान सभा में विचाराधीन है तब उसको विधान सभा में बोलने और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग लेने का अधिकार होगा और वह अनुच्छेद 189 में किसी बात के होते हुए भी, ऐसे संकल्प पर या ऐसी कार्यवाहियों के दौरान किसी अन्य विषय पर प्रथमतः ही मत देने का हकदार होगा किंतु मत बराबर होने की दशा में मत देने का हकदार नहीं होगा।
अनुच्छेद 200 - विधेयकों पर अनुमति
जब कोई विधेयक राज्य की विधान सभा द्वारा या विधान परिषद वाले राज्य में विधान मंडल के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया है तब वह राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा और राज्यपाल घोषित करेगा कि वह विधेयक पर अनुमति देता है या अनुमति रोक लेता है अथवा वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित रखता हैः
परंतु राज्यपाल अनुमति के लिये अपने समक्ष विधेयक प्रस्तुत किए जाने के पश्चात यथाशीघ्र उस विधेयक को, यदि वह धन विधेयक नहीं हैं तो, सदन या सदनों को इस संदेश के साथ लौटा सकेगा कि सदन या दोनों सदन विधेयक पर या उसके किन्हीं विनिर्दिष्ट उपबंधों पर पुनर्विचार करें और विश्ष्टितया किन्हीं ऐसे संशोधनों के पुरःस्थापन की वांछनीयता पर विचार करें जिनकी उसने अपने संदेश में सिफारित की है और जब विधेयक इस प्रकार लौटा दिया जाता है तब सदन या दोनों सदन विधेयक पर तदनुसार पुनर्विचार करेंगे और यदि विधेयक सदन या सदनों द्वारा संशोधन सहित या उसके बिना फिर से पारित कर दिया जाता है और राज्यपाल के समक्ष अनुमति क लिये प्रस्तुत किया जाता है तो राज्यपाल उस पर अनुमति नहीं रोकेगा
परंतु यह और कि जिस विधेयक से, उसके विधि बन जाने पर, राज्यपाल की राय में उच्च न्यायालय की शक्तियों का ऐसा अल्पीकरण होगा कि वह स्थान, जिसकी पूर्ति के लिये वह न्यायालय इस संविधान द्वारा परिकल्पित है, संकटापन्न हो जाएगा, उस विधेयक पर राज्यपाल अनुमति नहीं देगा, किंतु उसे राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित रखेगा।
अनुच्छेद 201 - विचार के लिए आरक्षित विधेयक
जब कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित रख लिया जाता है तब राष्ट्रपति घोषित करेगा कि वह विधेयक पर अनुमति देनता है या अनुमति रोक लेता हैः परंतु जहां विधेयक धन विधेयक नहीं है वहा राष्ट्रपति राज्यपाल को यह निदश दे सकेगा ि कवह विधेयक को, यथास्थिति, राज्य के विधान मंडल के सदन या सदनों को ऐसे संदेश के साथ, जो अनुच्छेद 200 के पहले परंतुक में विर्णित है, लौटा दे और जब कोई विधेयक इस प्रकार लौटा दिया जाता है तब ऐसा संदश मिलने की तारीख से छह मास की अवधि के भतीर सदन या सदनों द्वारा उस पर तदनुसार पुनर्विचार किया जाएगा आर यदि वह सदन या सदनों द्वारा संशोधन सहित या उसके बिना फिर से पारित कर दिया जाता हे तो उसे राष्ट्रपति के समक्ष उसके विचार के लिये फिर से प्रस्तुत किया जाएगा।
2.0 विधानमंडल में द्विसदनात्मक व्यवस्था
राज्य में एक सदनात्मक व्यवस्था, विधानसभा कहलाती है। यह आवश्यक नहीं की प्रत्येक विधायिका द्विसदनात्मक हो। राज्य विधायिका एक सदनीय हो सकती है। कुछ राज्यों को छोड़कर, शेष सभी राज्यों में एक सदनीय व्यवस्था विद्यमान है। कुछ पुराने राज्यों को छोड़कर, जहां वर्तमान में द्विसदनात्मक व्यवस्था प्रचलित है, अन्य नये गठित राज्यों में एक सदनात्मक व्यवस्था प्रचलन में है। वर्तमान में 29 में से केवल 6 राज्यों में द्विसदनात्मक व्यवस्था प्रचलन में है।
जिन राज्यों में द्विसदनात्मक व्यवस्था प्रचलन में है, वहां निचला सदन विधानसभा जबकि उपरी सदन विधान मंडल (परिषद) कहलाता है। विधि अनुसार उपरी सदन में सदस्यों की संख्या निचले सदन की संख्या के 1/3 से ज्यादा नहीं हो सकती किंतु 40 सीटें तो होनी ही चाहिए। एकमात्र अपवाद है जम्मू व कश्मीर जहां विधान परिषद में 40 से कम सीटें हैं।
उच्च सदन-विधान परिषद-को संविधान द्वारा सीमित अधिकार प्राप्त है, तथा वह प्रमुख रूप से विचार विमर्श तक सीमित है। यह विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को अधिक अवधि तक नहीं रोक सकता। निचले सदन-विधानसभा में निर्वाचन क्षेत्र की जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों का समावेश होता है, जबकि उच्च सदन में निचले सदन के सदस्य द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से चुने गये सदस्यों, व राज्य सरकार द्वारा नामांकित सदस्यों का समावेश होता है।
आंध्रप्रदेश राज्य ने इस अनुच्छेद के अन्तर्गत वर्ष 1957 में राज्य विधान परिषद का गठन किया था। बाद में संसद ने विधान परिषद विधेयक 1957 पारित किया। आंध्रप्रदेश ने 1985 में विधान परिषद को भंग कर दिया।
2.1 विधान परिषद का निर्माण तथा समाप्ति
अनुच्छेद 169 के अन्तर्गत विधान परिषद को समाप्त तथा निर्माण करने का प्रावधान किया गया है। संविधान की उपरोक्त व्यवस्था को अंगीकृत करने हेतु राज्य विधानसभा को, इस आशय का प्रस्ताव पूर्ण बहुमत तथा सदन के प्रत्यक्ष उपस्थिति एवं मतदान कर रहे सदस्यों के 2/3 बहुमत के द्वारा पास करवाना अनिवार्य है।
3.0 विधानसभाएं
राज्य की विधानसभा में निर्वाचन क्षेत्र की जनता द्वारा चुने गये सदस्यों की संख्या 500 से अधिक तथा 60 से कम नहीं होनी चाहिये। (अनु. 170)
राज्यपाल को यह अधिकार है कि आंग्ल-भारतीय समुदाय सदस्य को सदन में प्रतिनिधित्व देने के प्रायोजन से, वह समुदाय के एक सदस्य को सदन में नामांकित करने करने के लिए अधिकृत हैं। (अनु. 333)
विधानसभा की कार्यावधि 5 वर्षों की होती है, यद्यपि राज्यपाल द्वारा इस अवधि के पूर्व भी सभा को समाप्त किया जा सकता है। आपातकाल की स्थिति में इस अवधि को 6 माह तक बढ़ाने का प्रावधान भी संविधान में उल्लेखित है, लेकिन यह अवधि 6 माह से अधिक नहीं होनी चाहिये। विधान परिषद, राज्यसभा की तरह एक स्थायी सदन है, तथा इसे भंग नहीं किया जा सकता। इस सदन के 1/3 सदस्यों के प्रत्येक 2 वर्षों में सेवानिवृत्ति का प्रावधान संविधान में विद्यमान है। (अनु. 172(2))
विधान परिषद का स्वरूप, विधानसभा के मान से तय होता है। विधान परिषद में सदस्यों की संख्या उस राज्य की विधानसभा के सदस्यों के 1/3 से अधिक नहीं होनी चाहिये, अतिरिक्त इसके, इस सदन के सदस्यों की संख्या 40 से कम कभी नहीं होनी चाहिये। (अनु. 171)
विधान परिषद में सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष विधि द्वारा सम्पन्न - (1/3 सदस्यों का चुनाव विधानसभा के सदस्यों द्वारा), विशेष निर्वाचन (उदाहरणार्थ - स्नातक तथा शिक्षकों का निर्वाचन) तथा अंशतः नामांकन द्वारा मनोनीत सदस्यों के समावेश द्वारा सम्पन्न होता है। राज्यपाल, साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारी आंदोलन तथा सामाजिक क्षेत्र की विभूतियों को परिषद में नामांकित करने के लिए संविधान द्वारा अधिकृत हैं। (अनु. 171 (2)(म),(5))
विधान परिषद के सदस्यों की योग्यता का निर्धारण, यथा आवश्यक परिवर्तन सहित, वही रखा गया है, जो संसद सदस्यों के लिए अनुच्छेद 84 में उल्लेखित है।
राज्यपाल, राज्य विधायिका के अभिन्न अंग हैं, तथा इनकी राज्य विधायिका में वही उपयोगिता है जो संसद के लिए राष्ट्रपति की होती है। केन्द्र में राष्ट्रपति की तरह, राज्यपाल विधायिका को बुला, संबोधित तथा उसका सत्रावसान कर सकते हैं। प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम 1951 द्वारा अनुच्छेद 174 में यह उल्लेखित किया गया है कि राज्यपाल राज्य की विधानसभा को भंग कर सकते हैं। यद्यपि विधान परिषद को भंग नही किया जा सकता है (अनु. 174,175,176)। उपरोक्त अनुच्छेद विवादास्पद रहा है तथा समय समय पर न्यायालय के निर्णयों का विषय भी रहा है।
विधानसभा के सभापति तथा उपसभापति के लिए भी वही योग्यता निर्धारित की गई है जो संसद के सन्दर्भ में संविधान में उल्लेखित है (अनु. 178,179,180,181)। विधान परिषद के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष का चुनाव सदन के सदस्यों द्वारा, परिषद के गठन के तुरन्त बाद कर लिया जाता है। देश के उपराष्ट्रपति राज्यों की परिषद (राज्यसभा) के पदेन अध्यक्ष होते हैं।
उप-राष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन अध्यक्ष होते हैं। पदेन अध्यक्ष के पद की रिक्तता तथा निष्कासन सबंधी प्रावधान का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। विधान परिषदों के सभापति तथा उपसभापति हेतु वही योग्यता निर्धारित है, जो लोकसभा के सन्दर्भ मे संविधान में लोकसभा अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष के लिए उल्लेखित है (अनुच्छेद 89-92 तथा 182-185)।
दोनों सदनों - विधानसभा तथा विधान परिषद-के किसी राज्य के अस्तित्व में होने पर भी संविधान में विधानसभा तथा विधान परिषद के संयुक्त अधिवेशन का कोई प्रावधान नहीं है।
राज्य के राज्यपाल को, अनुच्छेद 200 के अन्तर्गत, किसी राज्य विधायिका द्वारा स्वीकृति के लिए प्रस्तुत बिल के सम्बन्ध में निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं
राज्यपाल
- स्वीकृति दे दें
- स्वीकृति को रोकदें
- राष्ट्रपति की सहमति हेतु संबंधित बिल को सुरक्षित रख लें
- बिल को वापस संदेश के साथ पुनर्विचार के लिए भेजदें (बशर्ते वह धनविधयेक न हो)। इस हेतु कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है। यह प्रस्तुति के बाद किया जा सकता है।
इस सन्दर्भ में राज्यपाल का निर्णय गैर-न्यायोचित करार दिया जाता है।
अनुच्छेद 201 में उल्लेखित प्रावधानों के अन्तर्गत, जब राज्यपाल द्वारा कोई बिल राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखा जाता है, तब राष्ट्रपति संबंधित बिल को स्वीकृति या रोकने हेतु स्वतंत्र हैं। यहां बिल धन विधेयक न होने की स्थिति मे राष्ट्रपति, राज्यपाल को उपरोक्त बिल या इसके कुछ अशों पर पुनर्विचार के आशय का संदेश लिखकर पुनः वापसी हेतु आर्देशत कर सकते हैं। तत्पश्चात उपरोक्त सदन, द्वारा प्रस्तुत बिल को 6 माह के अन्दर पुनर्विचार कर तथा बिना किसी संशोधन के भी राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए पुनः प्रस्तुत किया जा सकता है।
4.0 राज्य विधायिका की शक्तियां तथा कार्य
राज्य विधायिका की शक्तियां तथा कार्यों को विभिन्न वर्गां में वर्गीकृत किया गया है।
4.1 वैधानिक शक्तियां
राज्य की विधायिका को समवर्ती सूची तथा राज्य सूची में उल्लेखित विषयों पर कानून बनाने का अधिकार है। यद्यपि राज्य विधायिका द्वारा, समवर्ती सूची में उल्लेखित विषयों पर केन्द्र द्वारा बनाये गये किसी विद्यमान कानून से टकराव दशा में उपरोक्त विषयों पर राज्य द्वारा निर्मित कानून अमान्य होंगे यदि राज्य द्वारा, राष्ट्रपति से उपरोक्त विषय पर स्वीकृति नहीं ली गई हो तो। अतः संविधान द्वारा राज्य के अधिकारों को सीमित किया गया है। इसके अतिरिक्त, आपातकाल लागू होने की स्थिति में संसद को राज्य सूची में उल्ल्ेखित विषयों पर कानून बनाने के लिए संवैधानिक अधिकार प्राप्त है।
संविधान के अनुच्छेद 249 के अन्तर्गत, यदि राज्यसभा द्वारा 2/3 बहुमत से ऐसा प्रस्ताव पारित कर दिया जाए कि राष्ट्रहित में संसद राज्य-सूची के किसी विषय पर कानून बनाए, तो संसद ऐसा कर सकती है।
इसके अतिरिक्त राज्यपाल अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए निजी सम्पत्ति के अधिग्रहण, मुक्त व्यापार तथा धंधों पर प्रतिबंध संबंधी बिल, एवं ऐसे बिल जो उच्च न्यायालय के अधिकारों को प्रभावित करते हां, आदि पर राष्ट्रपति की सहमति हेतु सुरक्षित रख सकते हैं। संबंधित बिलों पर राष्ट्रपति अपनी सहमति प्रदान कर सकते हैं, अन्यथा उपरोक्त बिलां को पुनर्विचार हेतु राज्य विधायिका को वापस कर सकते हैं। राष्ट्रपति इन बिलों पर अपनी सहमति देने हेतु बाध्य नही हैं। अतः उपरोक्त बिलों पर राष्ट्रपति, पूर्णतः अपने विशेषाधिकार शक्ति का उपयोग कर सकते हैं। अतः राज्य विधायिका के अधिकार सीमित है।
4.2 वित्तीय शक्तियां
राज्य की विधायिका, वित्त मामलों को भी नियंत्रित करती है। राज्य की विधायिका में बजट प्रत्येक वर्ष प्रस्तुत किया जाता है। विधायिका रखी गई मांगों को स्वीकार, आंशिक सहमति या पूर्णतः अस्वीकार कर सकती है। यह विधायिका का दायित्व है कि बजट व्ययों की पूर्ति, करों में कमी या वृद्धि के प्रस्ताव को सदन में प्रस्तुत कर पारित करा सके।
द्विसदनीय व्यवस्था में वित्तीय मामलों में निर्णय लेने हेतु विधानसभा, विधान परिषद की तुलना में अधिक अधिकार संपन्न है। संचित निधि पर किये जाने वाले व्ययों को छोडकर, शेष सभी व्ययों को अनुदान मांगों के रूप में विधानसभा में प्रस्तुत करना होता है। अतः वित्तीय मामलों के क्रियान्वयन हेतु राज्य विधानसभा को उच्चता की स्थिति प्राप्त है।
4.3 मंत्री परिषद पर नियंत्रण
संविधान में केन्द्र तथा राज्यों में संसदीय सरकार के गठन की व्यवस्था की गई है। फलस्वरूप, मंत्री परिषद संयुक्त रूप से राज्य की विधायिका के प्रति उत्तरदायी है। विधायिका मंत्री परिषद पर नियंत्रण तथा निगरानी हेतु स्वतंत्र है। मंत्री परिषद को विधायिका के प्रति उत्तरदायी बनाने की प्रक्रिया प्रश्नों, निंदा प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव तथा सरकारी नीति में संशोधन आदि द्वारा सम्पादित की जाती है।
इसके अतिरिक्त विधायिका की ओर से कुछ समितियों का गठन सरकार पर नियंत्रण रखने के प्रयोजन से किया जाता है। मंत्री परिषद पर नियंत्रण रखने हेतु विधानसभा, विधान परिषद की तुलना में अधिक अधिकार सम्पन्न है। विधान परिषद में अविश्वास प्रस्ताव गिर जाने पर भी मंत्री परिषद त्यागपत्र देने के लिए बाध्य नहीं है। इसके विपरीत समान प्रस्ताव, विधानसभा में गिर जाने पर मंत्री परिषद अपना त्यागपत्र देने हेतु बाध्य है।
4.4 चुनावी कार्य
विधानसभा के लिए चुने गये सदस्य भारत के राष्ट्रपति के निर्वाचन हेतु जनता द्वारा चयनित लोक प्रतिनिधियोंं के एक समूह का निर्माण करते हैं। विधानसभा, राज्य की ओर से राज्यसभा तथा राज्य परिषद में 1/3 सदस्यों का चुनाव भी संपादित करती है। इसके अतिरिक्त यह सभापति तथा उप-सभापति के चुनाव में भी अपने दायित्व का निर्वाह करती है। जबकि विधान परिषद हेतु अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष का चुनाव परिषद के सदस्यों में से ही किया जाता है जो इनकी बैठकों की अध्यक्षता करते हैं।
4.5 संवैधानिक कार्य
राज्य विधायिका को संविधान में संशोधन हेतु किसी प्रकार का प्रस्ताव प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं है। संविधान संशोधन का संपूर्ण दायित्व संसद में निहित है।
अमेरिका में संविधान संशोधन के संदर्भ में राज्य विधायिका तथा संसद को समान अधिकार प्राप्त हैं। यद्यपि भारतीय संविधान में कुछ संशोधन ऐसे हैं (जैसे भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन, उच्च न्यायालय, संसद में राज्यों को प्रतिनिधित्व, संविधान के अनुच्छेद 368, आदि) जहां आधी या अधिक विधायिकाओं के अनुमोदन की आवश्यकता होती है। ऐसी दशा में राज्य की विधायिका भी संसद में संविधान संशोधन की प्रक्रियाओं मे भाग ले सकती है। उदाहरणार्थ, 15 तथा 16 वां संशोधन बिल ने राज्य विधायिकाओं को संविधान संशोधन की प्रक्रिया में प्रतिभागी बनाया था। यद्यपि ऐसे संशोधन कुल विधायिकाओं की आधी संख्या के अनुमोदन के पश्चात ही संविधान का भाग बन सकते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के उलट, भारत में राज्य विधायिका को संविधन संशोधन में बहुत सीमित अधिकार प्राप्त हैं।
5.0 राज्यपाल के अधिकार
राज्य में राज्यपाल को राष्ट्रपति की तरह अधिकार प्राप्त हैं। सभी वैधानिक गतिविधियों का संचालन राज्य में राज्यपाल के नाम से किया जाता है। निर्वाचन संबंधी अन्तर यह है कि राष्ट्रपति का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से जबकि राज्यपाल का निर्वाचन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। सामान्यतः राज्यपाल की नियुक्ति केवल एक राज्य के लिए होती है किन्तु आवश्यकतानुसार उसे अन्य दो राज्यों का कार्यभार सौंपा जा सकता है।
राज्यपाल के पद पर नियुक्ति हेतु किसी भी नागरिक हेतु योग्यता मापदंड़ों का उल्लेख संविधान में किया गया है। इन योग्यताओं का उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 157 तथा 158 में उल्लेख किया गया है। राज्यपाल बनने हेतु किसी व्यक्ति को भारत का नागरिक होना अनिवार्य है तथा उसके द्वारा 35 वर्ष की आयु पूर्ण कर ली गई हो। कोई व्यक्ति एक ही समय पर राज्य विधायिका या संसद का सदस्य तथा राज्यपाल नही हो सकता। यदि संसद या विधायिका सदस्य, राज्यपाल के पद हेतु नियुक्त होता है तो उसे शपथ ग्रहण करने के पूर्व संबंधित सदन की सदस्यता से त्यागपत्र देना होता है। राज्यपाल की नियुक्ति 5 वर्षों के लिए होती है, किन्तु राष्ट्रपति समयावधि के पूर्व भी राज्यपाल को हटा सकता है।, राज्यपाल को पद से हटाने के कारणों का उल्लेख संविधान में नहीं है। राष्ट्रपति, राज्यपाल को हटाये जाने संबंधी निर्णय लेने हेतु सक्षम प्राधिकारी हैं।
5.1 निर्वाचित या नामांकित?
संविधान सभा में राज्यपाल को जनता द्वारा निर्वाचन का प्रस्ताव रखा गया था, जो कि लंबी बहस के बाद अस्वीकार हुआ। फलस्वरूप, नामांकित राज्यपाल के पक्ष में निर्णय लिया गया। इस हेतु यह दलील रखी गई कि यदि राज्यपाल का निर्वाचन होगा तो मुद्दों के अभाव में चुनाव केवल व्यक्तिगत स्तर तक सीमित रह जाएंगे जो कि जनता में भ्रम की स्थिति का निर्माण करेगी। इसके अतिरिक्त यह शंका जताई गई कि राज्यपाल के निर्वाचन होने पर मुख्यमंत्री जो स्वयं निर्वाचित प्रतिनिधि है, से सत्ता के सघंर्ष को जन्म देगा। तीसरा महत्वपूर्ण कारण यह रखा गया कि देश के सीमित वित्तीय संसाधनों पर एक अन्य अनावश्यक चुनावी व्यय वित्तीय बोझ में बढ़ोतरी करेगा। चौथा कारण, कुशल व्यक्ति जो साधारण व्यक्तित्व का हो सकता है, के राज्यपाल पद पर निर्वाचन के अवसर को कम करेगा। पांचवा कारण, चुनाव होने की दशा में क्षेत्रवाद की स्थिति का निर्माण जो देश की एकता को प्रभावित करेगा, को बताया गया। अंततः सदस्यों ने यह आशा जताई कि राज्यपाल का नामांकन राज्य तथा केन्द्र के मध्य मधुर संबंध स्थापित करने के सन्दर्भ में सेतु का कार्य करेगा।
5.2 राज्यपाल की कार्यकारी, विधायी, वित्तीय तथा न्यायिक शक्तियां
कार्यकारी शक्तियांः राष्ट्रपति कि तरह, राज्य में राज्यपाल उच्च पदों पर नियुक्ति हेतु प्राधिकृत है। वह राज्य के मुख्यमंत्री तथा अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है तथा मुख्यमंत्री की अनुशंसा पर उन्हें विभागों का बंटवारा करता है। वास्तव मे राज्यपाल का इस प्रक्रिया में कोई प्रत्यक्ष दखल नहीं होता है। महाअधिवक्ता, राज्य लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति भी राज्य के राज्यपाल द्वारा संपादित होती है। वह केवल महाधिवक्ता को उनके पद से हटा सकते हैं। राज्य लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों को राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय की रिपार्ट के आधार पर हटा सकते हैं। वे यदि यह समझते हैं, कि राज्य विधायिका में आंग्ल भारतीयों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, तो वह ऐसी स्थिति में एक आंग्ल भारतीय सदस्य का मनोनयन राज्य विधायिका में कर सकते हैं। द्विसदनात्मक प्रणाली की दशा में राज्यपाल, कला, विज्ञान, साहित्य, सामाजिक सेवा तथा सहकारी आन्दोलन से संबंधित 1/6 सदस्यों का मनोनयन राज्य विधान परिषद मे कर सकते है।
ओड़िशा, बिहार तथा मध्यप्रदेश में किसी मंत्री के आदिवासी मामलों के इंचार्ज पद पर नियुक्ति को आश्वस्त करने का अतिरिक्त दायित्व भी उन पर होता है। कार्यपालिका के मुखिया होने के नाते, उन्हें प्रशासन संबंधी मामलों को जानने का पूर्ण अधिकार है। राज्यपाल, प्रशासन से जुडी किसी भी मामले के संबंध में मुख्यमंत्री से जानकारी प्राप्त कर सकता है।
विधायी शक्तियांः राष्ट्रपति की तरह, राज्यपाल भी राज्य विधायिका का अभिन्न भाग होता है। बिना राज्यपाल के बुलाए, के, विधान सदनों का संचालन नही किया जा सकता। विधानसभा तथा द्विसदनात्मक व्यवस्था में, प्रथम अधिवेशन की शुरूआत राज्यपाल के भाषण या संदेश से होती है। सदनों में पास कोई भी बिल, राज्यपाल के हस्ताक्षर के बाद ही कानून बन पाता है। राज्यपाल द्वारा किसी बिल को स्वीकृति की प्रक्रिया वैसी ही है, जैसे संसद के सन्दर्भ में राष्ट्रपति की। यद्यपि कुछ विषयों या उन पर प्रस्तावित बिल होते हैं, जो संघीय ढ़ांचें या राष्ट्रीय प्रशासन को प्रभावित करते हैं। ऐसे बिल राज्यपाल द्वारा, राष्ट्रपति की सहमति के लिए सुरक्षित रखे जाते हैं। यद्यपि राष्ट्रपति, ऐसे बिल जो समय समय पर उनकी सहमति के लिए प्रस्तुत होते आये हैं, को अपनी सहमति देने के लिए बाध्य नही हैं। राज्यपाल सत्रों के बीच की अवकाश अवधि में अध्यादेश जारी कर कर सकते हैं। ऐसे अध्यादेश सत्र शुरू होने के 6 सप्ताह तक वैध रहते हैं। यदि निर्धारित समय में ऐसे अध्यादेश विधायिका द्वारा पारित नही होते हैं, तो वे अपने आप प्रभावहीन हो जाते हैं।
वित्तीय शक्तियांः बजट प्रशासन का महत्वपूर्ण भाग होता है। यह कार्यपालिका द्वारा निर्मित आय तथा व्यय का वित्तीय दस्तावेज होता है। इसके माध्यम से अनुदानों की मांगें सदन के समक्ष रखी जाती हैं। राज्यपाल के निर्देशानुसार बजट प्रस्ताव सदन के समक्ष रखे जाते हैं। यद्यपि धन विधयेक को सदन में प्रस्तुत करने के पूर्व राज्यपाल की पूर्व सहमति आवश्यक होती है। एक आपातकालीन कोष राज्यपाल के विशेषाधिकार में स्थापित रहता है, जिसके द्वारा सभी अदिष्टगत व्ययों की पूर्ति उनकी सहमति से पूर्ण किये जाते हैं।
न्यायिक शक्तियांः राज्यपाल का न्यायिक अधिकार क्षेत्र, राज्य सरकार की कार्यकारी शक्तियों तक सीमित है। राज्यपाल को न्यायालय द्वारा दोषी ठहराये गये व्यक्ति की सजा को माफ करने का अधिकार होता है। राज्यपाल को दोषी व्यक्ति की सजा में कमी या वृद्धि करने का अधिकार होता है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के पूर्व राज्यपाल से परामर्श लिया जाता है। अपने कार्यकाल के दौरान संवैधानिक अधिकार के अन्तर्गत, उन पर दीवानी या फौजीदारी का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।
6.0 विधान परिषदें
जैसा कि संविधान में उल्लेख किया गया है, विधान परिषद की कुल सदस्य संख्या चालीस से कम नहीं होगी और संबंधित राज्य की विधानसभा की कुल सदस्य संख्या के एक तिहाई से अधिक नहीं होगी। विधान परिषद के सभी सदस्य या तो अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होंगे या वे राज्यपाल द्वारा मनोनीत होंगे। हम देखते हैं कि राज्य विधान परिषद का गठन किस प्रकार होता है।
- इस सदन के एक तिहाई सदस्य विधानसभा द्वारा उन व्यक्तियों में से निर्वाचित किये जाते हैं जो इसके सदस्य नहीं हैं।
- जैसा संसद के कानून द्वारा निर्धारित किया गया है, इसके एक तिहाई सदस्य ष्नगरपालिकाओं,जिला बोर्डों या अन्य किन्हीं स्थानीय प्राधिकरणों जैसे स्थानीय निकायों द्वारा निर्वाचित किये जाते हैं।
- सदन के एक बटा बारह सदस्य कम से कम तीन वर्ष पुराने स्नातकों द्वारा निर्वाचित किये जाते हैं।
- सदन के एक बटा बारह सदस्य तीन वर्ष के अनुभव प्राप्त माध्यमिक विद्यालयों के शिक्षकों द्वारा निर्वाचित किये जाते हैं।
- सदन के लगभग एक बटा छह सदस्य राज्यपाल द्वारा उन व्यक्तियों में से मनोनीत किये जाते हैं जिनके पास कला, विज्ञान, साहित्य, सामाजिक सेवा और सहकारी आंदोलनों के क्षेत्र में विशेष ज्ञान और अनुभव हो।
ऐसा कोई भी भारतीय नागरिक जिसकी आयु 30 वर्ष या उससे अधिक है, और जिसके पास संसद द्वारा निर्धारित योग्यताएं हैं, विधान परिषद का सदस्य बन सकता है। हालांकि कोई व्यक्ति एक ही समय विधान परिषद और केंद्रीय संसद या राज्य विधानसभा, दोनों का सदस्य नहीं बन सकता। राज्यसभा के समान ही राज्य विधान परिषद भी एक स्थायी सदन है, जिसे भंग नहीं किया जा सकता। सदस्यों का निर्वाचन छह वर्ष के कार्यकाल के लिए किया जाता है और राज्यसभा के ही समान इसके एक तिहाई सदस्य प्रत्येक दूसरे वर्ष सेवा निवृत्त होते हैं। राज्य विधान परिषद के सभापति और उप सभापति का निर्वाचन विधान परिषद के सदस्यों द्वारा इसके सदस्यों में से ही किया जाता है।
हालांकि सैद्धांतिक रूप से विधान परिषद की शक्तियां विधानसभा के समान ही होती हैं, परंतु वास्तव में विधान परिषद राज्य विधायिका की कमजोर सहायक होती है। सामान्य विधेयक राज्य विधायिका के किसी भी सदन में उठाये जा सकते हैं। किसी विधेयक को अधिनियम में परिवर्तित होने के लिए दोनों सदनों की मंजूरी और राज्यपाल की सहमति आवश्यक है। राज्यपाल विधेयक को अपनी सहमति प्रदान कर सकते हैं या वे इसे अनुमोदन के बिना अपनी टिप्पणियों के साथ वापस भी भेज सकते हैं। राज्यपाल द्वारा वापस किये गए विधेयक पर पुनर्विचार करते समय राज्य की विधायिका विधेयक के संबंध में राज्यपाल द्वारा की गई टिप्पणियों पर विचार कर सकते हैं या उन्हें नजरअंदाज भी कर सकते हैं। यदि विधेयक दूसरी बार राज्यपाल के पास अनुमोदन के लिए भेजा जाता है तो राज्यपाल को इसका अनुमोदन करना अनिवार्य है। यदि राज्य की विधान परिषद राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयक से सहमत नहीं है फिर भी अंततः राज्य की विधानसभा के विचार ही प्रभावी माने जायेंगे। राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयक पर सलाह देने का अधिकार विधान परिषद को नहीं है। और पहली बार में वह केवल विधेयक को 3 महीने के लिए और दूसरी बार में एक महीने के लिए विलंबित कर सकती है। सामान्य विधेयक पर संसद में असहमति होने की स्थिति में संयुक्त अधिवेशन का कोई प्रावधान नहीं है। अंतिम विश्लेषण में, जहाँ तक सामान्य कानून का प्रश्न है, विधान परिषद केवल एक विलंबकारी सदन है। यह किसी विधेयक को अधिक से अधिक चार महीने के लिए विलंबित कर सकती है।
वित्त के क्षेत्र में इसकी शक्तियां लगभग नगण्य हैं। राज्यसभा की ही तरह वित्तीय मामलों में इसकी स्थिति कनिष्ठ है। धन विधेयक केवल विधानसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं। विधानसभा द्वारा पारित होने पर इन्हें विधान परिषद को भेजा जाता है। विधान परिषद धन विधेयक को अधिक से अधिक 14 दिन के लिए अपने पास रख सकती है। यदि इस अवधि के दौरान वह इसे पारित नहीं करती तो इसे विधायिका का अनुमोदन प्राप्त माना जाता है।
विधान परिषद मंत्रियों से प्रश्न पूछने के माध्यम से, बहस के मुद्दे उठाके तथा सदन स्थगित करने की मांग उठा के कार्यपालिका पर नियंत्रण कर सकती है और सरकार की खामियों को उजागर कर सकती हैं परन्तु सरकार को सत्ता से हटा नहीं सकती। विधानसभा की ऊपर उल्लेख की गई शक्तियों के अतिरिक्त विधानसभा के पास सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने की भी शक्ति होती है जिसके आधार पर वह सरकार को त्यागपत्र देने को बाध्य कर सकती है। कार्यपालिका के नियंत्रण का जहाँ तक प्रश्न है तो इस मामले में अंतिम अधिकार राज्य विधानसभा के पास ही होता है।
संविधान निर्माताओं ने जानबूझ कर राज्य विधान परिषदों को निचला दर्जा प्रदान किया है ताकि राज्य विधायिका के दोनों सदन वर्चस्व के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा न कर सकें। राज्यों की विधान परिषदों के गठन का मुख्य उद्देश्य यह था कि विभिन्न व्यावसायिक हितों को विधान परिषद में प्रतिनिधित्व दिया जा सके, जो अपने अनुभव के आधार पर राज्य विधानसभा के लिए मित्र, हितैषी और मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकें।
विद्यमान स्थिति यह है कि देश के सात (कुल उनतीस राज्यों में से) राज्यों में राज्य विधान परिषदें हैंः आंध्र प्रदेश, बिहार, जम्मू एवं कश्मीर, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना। विधान परिषद में दो निर्वाचित अधिकारी होते हैं रू सभापति और उप-सभापति। इनका चुनाव विधान परिषद के सदस्यों द्वारा परिषद के सदस्यों के बीच से ही किया जाता है। सभापति, और उनकी अनुपस्थिति में उप-सभापति विधान परिषद की बैठकों की अध्यक्षता करते हैं।
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