यूपीएससी तैयारी - भारत में शासन - व्याख्यान - 17

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भारत में निर्वाचन व्यवस्था

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1.0 प्रस्तावना 

भारतीय संविधान के खंड XV के अनुच्छेद 324-329 भारत की चुनाव प्रक्रिया के प्रावधानों से संबंधित हैं। अनुच्छेद 324 घोषित करता है कि मतदाता सूचियों के निर्माण की देख-रेख, दिशानिर्देशन और नियंत्रण और संविधान के तहत संसद और प्रत्येक राज्य की विधानसभा के लिए चुनाव के आयोजन और राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के पदों के लिए चुनाव के आयोजन का कार्य निर्वाचन आयोग में निहित होगा। अनुच्छेद 325 घोषित करता है कि संसद के दोनों सदनों के प्रत्येक संसदीय निर्वाचन क्षेत्र के लिए या प्रत्येक राज्य के विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र के लिए या राज्य विधायिका के किसी भी सदन के लिए एक सामान्य मतदाता सूची होगी, और कोई भी व्यक्ति धर्म, वर्ग, जाति, लिंग या इनमें से किसी भी आधार पर ऐसी मतदाता सूची में अपना नाम शामिल किये जाने के लिए अपात्र या अयोग्य नहीं होगा, और न ही इनमें से किसी भी आधार पर किसी विशेष सूची में जुड़ने का दावा करने हेतु पात्र होगा। यह अनुच्छेद, जो अनुच्छेद 326 के साथ पढ़ा जाता है, इस देश के प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार प्रदान करता है कि उसे मतदाता सूची में शामिल किया जाए बशर्ते उसने निर्दिष्ट दिनांक तक 18 वर्ष की आयु पूर्ण कर ली है, और संविधान के किसी भी अन्यप्रावधान के तहत या संसद द्वारा निर्मित या किसी उपयुक्त विधायिका द्वारा निर्मित किसी भी कानून के तहत वह अन्यथा अयोग्य नहीं है। अनुच्छेद 327 संसद को अधिकार प्रदान करता है वह संसद के दोनों सदनों के लिए या राज्यों की विधायिकाओं के किसी भी सदन के लिए मतदाता सूचियों की निर्मिति, निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन, और सदन या सदनों के उचित गठन के लिए आवश्यक सभी निर्वाचन कार्यों के लिए कानूनी प्रावधान प्रदान करे। 

1.1 भारत का निर्वाचन आयोग 

भारतीय संविधान के निर्माताओं ने चुनावों के आयोजन के लिए एक स्वतंत्र निर्वाचन तंत्र के गठन को विशेष महत्त्व प्रदान किया था। भारतीय संविधान एक निर्वाचन आयोग का प्रावधान करता है जो सभी चुनावों की देख-रेख, दिशानिर्देशन और नियंत्रण के लिए उत्तरदायी होगा। यह संसद और राज्यों की विधायिकाओं के दोनों सदनों के और राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के पदों पर चुनाव आयोजित करने के लिए उत्तरदायी है। इसके अतिरिक्त वह मतदाता सूचियों के निर्माण, संशोधन, अद्यतन और रखरखाव के लिए भी उत्तरदायी होगा। वह संसद और राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचन के लिए निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन भी करता है, चुनाव कार्यक्रमों का निर्धारण करता है, और चुनावी विवादों का निवारण भी करता है। वह चुनाओं से संबंधित कई और कार्य भी करता है। 

1.1.1 गठन 

निर्वाचन आयोग में एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त और ऐसे अन्य निर्वाचन आयुक्त होंगे जैसे राष्ट्रपति द्वारा समय-समय पर निर्धारित किये जाते हैं। 1950 में पहले मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति के बाद से 1989 तक अन्य कोई निर्वाचन आयुक्त नहीं था। मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सहायता के लिए बड़ी संख्या में अधिकारी प्रदान किये गए थे। 16 अक्टूबर 1989 को निर्वाचन आयोग एक बहु-सदस्यीय निकाय बना, जब राष्ट्रपति द्वारा दो और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति की गई। दोनों निर्वाचन आयुक्तों में से वरिष्ठ सदस्य की मुख्य निर्वाचन आयुक्त के रूप में नियुक्ति की जाती है। 

1.1.2 कार्यकाल एवं पदच्युति 

मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति छह वर्षों या 65 वर्ष की आयु तक के लिए, उपरोक्त में से जो पहले हो, की जाती है। यह महत्वपूर्ण है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्त सभी प्रकार के राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त हों। अतः हालांकि उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, परंतु राष्ट्रपति उन्हें पदच्युत नहीं कर सकते। और उनकी नियुक्ति के बाद उनकी सेवा शर्तों या या पद के कार्यकाल में ऐसे कोई भी परिवर्तन नहीं किये जा सकते जो उनके लिए हानिकारक हों। मुख्य निर्वाचन आयुक्त को केवल उन्ही शर्तों या पद्धति के अनुसार पदच्युत किया जा सकता है जो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की पदच्युति के लिए लागू होती हैं। हालांकि चूंकि अन्य निर्वाचन आयुक्त और क्षेत्रीय निर्वाचन आयुक्त मुख्य निर्वाचन आयुक्त के अधीन कार्यरत होते हैं, अतः उन्हें मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा पदच्युत किया जा सकता है। 

निर्वाचन आयोग के अधिकार एवं कर्तव्य 

निर्वाचन आयोग का प्राथमिक कर्तव्य है स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों का आयोजन करना। इस प्रयोजन से निर्वाचन आयोग के निम्न कार्य होते हैंः

1.2 निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन 

किसी भी निर्वाचन प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिए देश को विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित करना आवश्यक है, अर्थात एक ऐसा प्रादेशिक क्षेत्र जहां से कोई उम्मीदवार चुनाव लड़ सके। 

आमतौर पर निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन का कार्य परिसीमन आयोग द्वारा किया जाता है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के पांच कार्यरत या सेवा निवृत्त न्यायाधीश और मुख्य निर्वाचन आयुक्त शामिल होते हैं। मुख्य निर्वाचन आयुक्त इस आयोग के पदेन सदस्य होते हैं। परिसीमन आयोग को सभी प्रकार की सचिव स्तर की सहायता (सभी स्तरों पर राष्ट्रीय, राज्य या जिला स्तर पर) निर्वाचन आयोग द्वारा प्रदान की जाती है। सरकार द्वारा समय-समय पर परिसीमन आयोग का गठन किया जाता है। 

1.3 मतदाता सूचियों का निर्माण 

प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं की एक व्यापक सूची होती है, जिसे मतदाता सूची कहा जाता है। आयोग संसदीय चुनावों और विधानसभाओं के चुनावों के लिए मतदाता सूचियों का निर्माण करता है। किसी निर्वाचन क्षेत्र की मतदाता सूची में ऐसे सभी व्यक्तियों के नाम शामिल किये जाते हैं जिन्हें उस निर्वाचन क्षेत्र में मतदान करने का अधिकार प्राप्त है। मतदाता सूचियों में समय-समय पर संशोधन किये जाते है, आमतौर पर प्रत्येक आम चुनाव, और निर्वाचन क्षेत्र में होने वाले उप-चुनाव और मध्यावधि चुनाव के पहले तो किये ही जाते हैं। 

मतदाता सूचियों में संशोधन निर्वाचन आयोग द्वारा नियुक्त प्रगणकों द्वारा घर-घर जाकर किये जाते हैं, और निर्वाचन क्षेत्र के प्रत्येक पात्र व्यक्ति का नाम मतदाता सूची में पंजीकृत किया जाता है। किसी व्यक्ति का नाम मतदाता सूची में पंजीकृत किये जाने के लिए व्यक्ति को निम्न अहर्ताओं की पूर्ति करना आवश्यक हैः

  1.  वह भारत का/की नागरिक है। 
  2.  उसने 18 वर्ष की आयु प्राप्त कर ली है। 
  3.  वह संबंधित निर्वाचन क्षेत्र का/की निवासी है। 

1.4 राजनीतिक दलों को मान्यता 

निर्वाचन आयोग के कार्यों में एक महत्वपूर्ण कार्य है विभिन्न राजनीतिक दलों को अखिल भारतीय (राष्ट्रीय) राजनीतिक दल, या राज्य (क्षेत्रीय) स्तरीय राजनीतिक दल के रूप में मान्यता प्रदान करना। यदि किसी आम चुनाव में किसी राजनीतिक दल को किन्ही भी चार राज्यों में हुए मतदान के कुल वैध मतों में से चार प्रतिशत मत प्राप्त होते हैं, तो उस राजनीतिक दल को अखिल भारतीय (राष्ट्रीय) राजनीतिक दल के रूप में मान्यता प्राप्त हो जाती है। यदि किसी राजनीतिक दल को राज्य में हुए कुल मतदान में प्रतिशत मत प्राप्त हो जाते हैं तो उस राजनीतिक दल को एक रक्य स्तरीय या क्षेत्रीय दल के रूप में मान्यता प्राप्त हो जाती है।

1.5 चुनाव चिन्हों का आवंटन

प्रत्येक राजनीतिक दल का अपना एक चुनाव चिन्ह होता है जो उसे निर्वाचन आयोग द्वारा आवंटित किया जाता है। उदाहरणार्थ, हाथ का पंजा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिन्ह है, कमल भारतीय जनता पार्टी का चुनाव चिन्ह है, जबकि हाथी बहुजन समाज पार्टी चिन्ह है। ये चुनाव चिन्ह निम्न कारणों से महत्वपूर्ण होते हैंः

  1. ये चुनाव चिन्ह उन निरक्षर और अनपढ़ मतदाताओं के लिए सहायक होते हैं, जो प्रत्याशियों के नाम पढ़ नहीं सकते। 
  2. ये चुनाव चिन्ह एक ही नाम के दो प्रत्याशियों के बीच अंतर को स्पष्ट करते हैं। 

2.0 निर्वाचन कार्य में संलग्न अधिकारी 

चुनाव की प्रक्रिया मुक्त और निष्पक्ष हों यह यह सुनिश्चित करने के लिए मतदान में सहायता के लिए निर्वाचकं आयोग हजारों मतदान कर्मचारियों की नियुक्ति करता है। ये सभी कर्मचारी मजिस्ट्रेटों, पुलिस अधिकारियों, लोक सेवकों, लिपिकों, टंक लेखकों, विद्यालयीन शिक्षकों, वाहन चालकों, चपरासियों इत्यादि में से लिए जाते हैं। इन सभी में से तीन ऐसे प्रमुख अधिकारी होते हैं, जिनकी भूमिका मुक्त और निष्पक्ष मतदान की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। ये हैं निर्वाचन अधिकारी (Returning Officer), पीठासीन अधिकारी (Presiding Officer) और मतदान अधिकारी (Polling Officer)।  

2.1 निर्वाचन अधिकारी 

प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में निर्वाचन आयोग द्वारा संबंधित राज्य सरकार की सलाह पर एक अधिकारी की निर्वाचन अधिकारी के रूप में नियुक्ति की जाती है। हालांकि किसी अधिकारी का निर्वाचन अधिकारी के रूप में नामांकन एक से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों के लिए भी किया जा सकता है। प्रत्याशियों द्वारा उनके नामांकन पत्र निर्वाचन अधिकारी के समक्ष ही प्रस्तुत किये जाते हैं। निर्वाचन आयोग के दिशानिर्देशों के अनुसार ही प्रत्याशियों को चुनाव चिन्ह जारी किये जाते हैं। निर्वाचन अधिकारी प्रत्याशियों के नाम वापसी के आवेदन भी स्वीकार करते हैं, और तदानुसार प्रत्याशियों की अंतिम सूची जारी करते हैं। वे सभी मतदान केंद्रों का पर्यवेक्षण करते हैं, मत गणना का कार्य संपन्न कराते हैं, और अंतिम चुनाव परिणाम घोषित करते हैं। वास्तव में किसी निर्वाचन क्षेत्र में कुशल, मुक्त एवं निष्पक्ष रूप से चुनाव संपन्न कराने का संपूर्ण प्रभार निर्वाचन अधिकारी का होता है। 

2.2 पीठासीन अधिकारी 

प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में बडी संख्या में मतदान केंद्र होते हैं। प्रत्येक मतदान केंद्र, औसत कुछ हजार मतों की आवश्यकता की पूर्ति करता है। ऐसा प्रत्येक मतदान केंद्र एक अधिकारी के प्रभार में होता है जिसे पीठासीन अधिकारी कहा जाता है। पीठासीन अधिकारी अपने मटन केंद्र में मतदान की संपूर्ण प्रक्रिया का पर्यवेक्षण करता है, और यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक मतदाता को निष्पक्ष और स्वतंत्र रूप से मतदान करने की सुविधा उपलब्ध हो। मतदान संपन्न हो जाने के बाद वह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की पेटियों को मुहर बंद करते हैं, और सभी मत पेटियों को निर्वाचन अधिकारी को प्रेषित करते हैं। 

2.3 मतदान अधिकारी 

प्रत्येक पीठासीन अधिकारी की सहायता के लिए तीन या चार मतदान अधिकारी होते हैं। वे मतदाता सूचियों में मतदाताओं के नामों की जांच करते हैं, मतदाताओं की उँगलियों पर अमिट स्याही लगाते हैं, और ऐसे मतदान कक्षों की निर्मिति करते हैं जहां इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें रखी होती हैं, और मतदाताओं को गोपनीय ढ़ंग से मतदान करने की सुविधा प्राप्त होती है। 

अमिट मतदान निर्देशक स्याही - इस स्याही को आसानी से मिटाया नहीं जा सकता। इसे मतदाता के सीधे हाथ की पहली ऊँगली पर लगाया जाता है, ताकि कोई भी व्यक्ति दोबारा मतदान करने के लिए नहीं आ सके। यह कार्य प्रतिरूपण से बचने के लिए किया जाता है। 

3.0 मतदान प्रक्रिया 

भारत में मुक्त और निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने के लिए निम्न प्रक्रिया निर्धारित की गई है। 

3.1 चुनाव की अधिसूचना 

चुनाव की प्रक्रिया आधिकारिक रूप से तब शुरू होती है जब निर्वाचन आयोग की सिफारिश के अनुसार लोक सभा चुनाव के लिए राष्ट्रपति द्वारा, और विधान सभा चुनाव के लिए राज्य के राज्यपाल द्वारा चुनाव की अधिसूचना जारी की जाती है। प्रत्याशी को नामांकन पत्र दाखिल करने के लिए सात दिन का समय प्रदान किया जाता है। नामांकन प्रक्रिया का सातवां दिन, रविवार को छोड़कर, अंतिम दिन होता है। नामांकन पत्र दाखिल किये जाने के अंतिम दिन के दूसरे दिन बाद नामांकन पत्रों की जांच की जाती है। आमतौर पर चुनाव की तारीख नाम वापसी की अंतिम तारीख के बीस दिन पहले की नहीं हो सकती। 

जो व्यक्ति चुनाव लड़ना चाहता है उसे निर्धारित प्रपत्र में अपना चुनाव नामांकन पत्र दाखिल करना होता है, जिसमें प्रत्याशी का नाम, आयु, पता, और मतदान सूची का क्रमांक शामिल होता है। प्रत्येक प्रत्याशी के लिए संबंधित निर्वाचन क्षेत्र से कम से कम दो मतदाताओं को प्रस्तावक और अनुमोदक के रूप में होना अनिवार्य है। प्रत्येक प्रत्याशी को एक शपथ पत्र संलग्न करना अनिवार्य है। फिर ये दस्तावेज निर्वाचन आयोग द्वारा प्राधिकृत निर्वाचन अधिकारी को प्रस्तुत कर दिए जाते हैं। 


3.2 जमानत की राशि 

नामांकन पत्र दाखिल करते समय प्रत्येक प्रत्याशी को जमानत राशि जमा करनी होती है। लोक सभा चुनाव के नामांकन के लिए प्रत्याशियों को 10,000 रुपये की राशि जमानत राशि के रूप में जमा कराना आवश्यक है, वहीं राज्य की विधानसभा के चुनाव के लिए जमानत की राशि 5,000 रुपये निर्धारित है। हालांकि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के प्रत्याशियों के लिए लोकसभा के लिए जमानत की राशि 5,000 रुपये और विधानसभा चुनाव के लिए 2,500 रुपये निर्धारित की गई है। यदि संबंधित प्रत्याशी को कुल पडे़ हुए वैध मतों में से कम से कम एक बटा छह प्रतिशत मत प्राप्त नहीं हो पाते तो उनकी जमानत की राशि जब्त हो जाती है। 

3.3 नामांकन पत्रों की जांच एवं नाम वापसी (Scrutiny and Withdrawal)

निर्वाचन अधिकारी द्वारा प्राप्त किये गए सभी नामांकन पत्रों की जांच निर्वाचन आयोग द्वारा निर्धारित की गई तारीख को की जाती है। यह करना इसलिए आवश्यक है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्राप्त किये गए सभी नामांकन पात्र निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार दाखिल किये गए हैं और प्रत्येक नामांकन के साथ निर्धारित जमानत की राशि जमा की गई है। निर्वाचन अधिकारी को निम्न में से किसी भी कारण से किसी भी नामांकन पत्र को खारिज़ करने का अधिकार हैः

  1.  यदि प्रत्याशी की आयु 25 वर्ष से कम है। 
  2.  यदि संबंधित प्रत्याशी ने जमानत की राशि जमा नहीं की है। 
  3.  यदि प्रत्याशी किसी भी लाभ के पद पर आसीन है। 
  4.  यदि प्रत्याशी भारत के किसी भी निर्वाचन क्षेत्र में मतदाता के रूप में पंजीकृत नहीं है। 

नामांकन पत्र की जांच के बाद का दूसरा दिन नाम वापस लेने की अंतिम तिथि होती है। यदि नाम वापसी की तारीख सार्वजनिक अवकाश या रविवार के दिन आती है तो उसके तुरंत अगला दिन नाम वापसी की अंतिम तिथि के रूप में घोषित कर दिया जाता है। 

3.4 चुनाव अभियान 

चुनाव अभियान वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से प्रत्याशी मतदाताओं से अन्य प्रत्याक्षियों की अपेक्षा उसके पक्ष में मतदान करने का अनुरोध करता है। इस अवधि के दौरान प्रत्याशी अपने निर्वाचन क्षेत्र के विभिन्न भागों के दौरे करते हैं, सभाओं और रैलियों का आयोजन करते हैं ताकि अधिक से अधिक मतदाताओं को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए प्रेरित किया जा सके। निर्वाचन आयोग ने सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को राज्यों के स्वामित्व वाले इलेक्ट्रॉनिक मीड़िया, ऑल इंड़िया रेड़ियो और दूरदर्शन पर चुनाव प्रचार के लिए मुक्त प्रवेश की अनुमति प्रदान की हुई है। मुक्त समय का निर्धारण निर्वाचन आयोग द्वारा किया जाता है, जो सभी राजनीतिक दलों के बीच विभाजित किया जाता है। मतदान के दिनांक से 48 घंटे पूर्व चुनाव प्रचार बंद हो जाता है। चुनाव दौरान प्रचार के विभिन्न तरीकों को अपनाया जाता है।

3.5 आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct)

निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव की घोषणा के साथ ही निर्वाचन क्षेत्र में आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है, और चुनाव प्रचार के दौरान प्रत्याशियों से उम्मीद की जाती है कि वे राजनीतिक दलों की सहमति से भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा निर्धारित की गई आदर्श आचार संहिता का पालन करें। आदर्श आचार संहिता निम्नानुसार हैः

  1. राजनीतिक दल और प्रत्याशी चुनाव प्रचार के लिए धार्मिक स्थलों का उपयोग नहीं करेंगे। 
  2. राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों द्वारा ऐसे भाषण नहीं दिए जाएंगे जो विभिन्न धर्मों, जातियों, समुदायों या भाषाओं इत्यादि के बीच वैमनस्य या घृणा निर्माण करते हों। 
  3. चुनाव प्रचार के कार्यों के लिए सरकारी मशीनरी का उपयोग नहीं किया जायेगा। 
  4. चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के बाद कोई भी नए अनुदान घोषित नहीं किये जायेंगे, और कोई भी नई योजनाएं या परियोजनाएं शुरू नहीं की जा सकेंगी। 
  5. दलगत प्रचार के लिए व्यापक जनसंपर्क के साधनों का दुरूपयोग नहीं किया जा सकेगा। 

3.6 चुनाव व्यय की जांच 

भारत में चुनाव प्रक्रिया राज्य द्वारा वित्तपोषित नहीं है। हालांकि निर्वाचन आयोग प्रत्येक मान्यताप्राप्त राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दल को चुनाव प्रचार के लिए मुत सीमित समय का आवंटन करता है, फिर भी चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक दल और प्रत्याशी चुनाव प्रचार पर विशाल धन राशि व्यय करते हैं। निर्वाचन आयोग को अधिकार है कि वह राजनीतिक दल या प्रत्याशी द्वारा चुनाव प्रचार पर किये गए खर्च की जांच करे। संसदीय और विधानसभा चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों द्वारा किये जाने वाले व्यय की अधिकतम सीमा आयोग द्वारा निर्धारित की। प्रत्येक प्रत्याशी के लिए अनिवार्य है कि चुनाव परिणाम घोषित होने के 45 दिन के अंदर वह अपने चुनाव खर्च का ब्यौरा निर्वाचन आयोग के समक्ष प्रस्तुत करे। यदि प्रत्याशी चुनावी व्यय का ब्यौरा निर्धारित तिथि तक प्रस्तुत करने में असफल होता है, या यदि यह पाया गया कि किसी प्रत्याशी द्वारा निर्धारित सीमा से अधिक व्यय किया है तो निर्वाचन आयोग ऐसे प्रत्याशी के विरुद्ध उचित कार्रवाई कर सकता है, जिसमें संबंधित प्रत्याशी को अयोग्य घोषित करके उसका चुनाव रद्द भी किया जा सकता है। 

4.0 मतदान, मत गणना और परिणामों की घोषणा 

मतदान संपन्न कराने के लिए प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में बड़ी संख्या में मतदान केंद्र स्थापित किये जाते हैं। प्रत्येक मतदान केंद्र एक पीठासीन अधिकारी के प्रभार के तहत रखा जाता है, जिसकी सहायता के लिए अनेक मतदान अधिकारी उपस्थित होते हैं। मतदान गुप्त मतदान की प्रक्रिया के तहत संपन्न होता है। मतदान संपन्न होने के बाद मत पेटियों को प्रत्याशियों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में मुहरबंद किया जाता है। प्रत्याशियों के प्रतिनिधि यह सुनिश्चित करते हैं कि किसी भी मतदाता को मतदान से वंचित नहीं रखा गया है, बशर्ते कि मतदाता निर्धारित समय सीमा के अंदर मतदान केंद्र पर मतदान के लिए उपस्थित है।

4.1 इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM)

निर्वाचन आयोग ने मुक्त और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए छेड़-छाड़ रोधी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का उपयोग शुरू किया है। प्रत्येक मशीन पर संबंधित निर्वाचन क्षेत्र के प्रत्येक प्रत्याशी का नाम और चुनाव चिन्ह अंकित होता है। एक इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर अधिकतम 16  नाम हो सकते हैं। परंतु यदि किसी निर्वाचन क्षेत्र में प्रत्याशियों की संख्या 16 से अधिक होती है, तो एक से अधिक इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का उपयोग किया जा सकता है। परंतु यदि निर्वाचन क्षेत्र में प्रत्याशियों की संख्या बहुत ही अधिक है, तो ऐसी स्थिति में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के बजाय मतपत्रों का उपयोग किया जा सकता है। अपनी पसंद के प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करने के लिए मतदाता को प्रत्याशी के नाम के समक्ष के बटन को दबाना होता है। मशीन का उपयोग आसान है, और इसके उपयोग के कारण मतपत्रों और मत पेटियों के उपयोग से छुटकारा मिल गया है। जब मशीन का उपयोग किया जाता है, तो मतगणना अत्यंत आसान हो जाती है, और इसकी गति भी काफी बढ जाती है। 1999 में दिल्ली के सभी सातों लोक सभा निर्वाचन क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का उपयोग किया गया था, और बाद में सभी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में भी इनका उपयोग किया गया था। 2004 के आम चुनाव के दौरान देश के सभी लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का उपयोग किया गया था। 

मुहर-बंद मत पेटियां या इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें कड़ी सुरक्षा में मत गणना केंद्रों पर स्थानांतरित की जाती हैं। निर्धारित तिथि को निर्वाचन अधिकारी के पर्यवेक्षण में और प्रत्याशियों और उनके प्रतिनिधियों की उपस्थिति में मत गणना का कार्य शुरू किया जाता है। यदि किसी मत की वैधता या अन्य किसी बारे में संदेह होता है, तो ऐसी स्थिति में निर्वाचन अधिकारी का निर्णय अंतिम होता है। जैसे ही मत गणना समाप्त होती है, तो सबसे अधिक मत प्राप्त वाले प्रत्याशी को निर्वाचन अधिकारी द्वारा निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। यदि किसी मान्यताप्राप्त राजनीतिक दल के विधिवत नामांकित प्रत्याशी की नामांकन दाखिल करने की तिथि के बाद और मतदान संपन्न होने से पहले मृत्यु हो जाती है तो निर्वाचन आयोग उस निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव को प्रत्यादिष्ट करने (रद्द करने) का आदेश देता है। इसका अर्थ केवल मतदान को स्थगित करना नहीं है। इस स्थिति में संबंधित निर्वाचन क्षेत्र में नामांकन से लेकर संपूर्ण चुनाव प्रक्रिया दुबारा शुरू की जाती है।

5.0 भारतीय चुनाव व्यवस्था की कमियां 

भारतीय चुनाव व्यवस्था की विश्व भर में व्यापक स्तर पर काफी प्रशंसा हुई है। भारत में जिस प्रकार से चुनाव संपन्न कराये जाते हैं, उसकी लोगों ने व्यापक प्रशंसा की है। परंतु इस व्यवस्था की भी अपनी कमजोरियां और कमियां हैं। ऐसा देखा गया है कि मुक्त और निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने के निर्वाचन आयोग के व्यापक प्रयासों के बावजूद हमारी चुनाव व्यवस्था में कुछ कमियां हैं। इनमें से कुछ उल्लेखनीय कमियों की चर्चा नीचे की गई हैः

5.1 धन बल 

चुनाव में बेहिसाब धन का उपयोग एक गंभीर समस्या बन गई है। राजनीतिक दल कंपनियों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों से धन एकत्रित करते हैं, और फिर इस धन का उपयोग मतदाताओं को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए करते हैं। व्यापारिक प्रतिष्ठानों द्वारा दिया गया धन का योगदान आमतौर नकद में होता है, और इस धन का हिसाब भी नहीं रखा जाता है। चुनाव के दौरान और भी अनेक भ्रष्ट पद्धतियों का अनुसरण किया जाता है, जैसे मतदाताओं को रिश्वत देना, हेराफेरी करना, या मतदाताओं को डराना-धमकाना, प्रतिरूपण और मतदाताओं को मतदान केंद्रों पर लाने के लिए परिवहन के साधन उपलब्ध कराना, या किराया अदा करना। चुनाव के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में मतदाताओं के बीच शराब के वितरण के समाचार भी बड़े पैमाने पर सामने आते हैं। 

5.2 बाहुबल का उपयोग 

पुराने समय में अपराधी किस्म के लोग किसी विशिष्ट प्रत्याशी के समर्थन में मतदाताओं को बंदूक की नोक पर उनके निर्देशों के अनुसार मतदान करने के लिए डराते-धमकाते थे। अब वे लोग ही खुले रूप में चुनाव में प्रत्याशी के रूप में सामने आने लगे हैं, जिसके कारण राजनीति का अपराधीकरण हो गया है। इसके परिणामस्वरूप चुनाव के दौरान हिंसा के मामलों में भी काफी वृद्धि हुई है। 

5.3 जाति और धर्म 

आमतौर पर राजनीतिक दल प्रत्याशियों को टिकट वितरित करते समय इस बात का आकलन करते हैं कि वह संख्या की दृष्टि से बड़े समुदायों पर प्रभाव रखता है या नहीं, और पर्याप्त मत जुटा पायेगा या नहीं, साथ ही उसके पास चुनाव के लिए आवश्यक पर्याप्त साम्पत्तिक संसाधन उपलब्ध हैं या नहीं। यहां तक कि मतदाता भी जाति या धर्म के अनुसार मतदान करते हैं। प्रचार अभियान के दौरान मतदाताओं की धार्मिक निष्ठा का भी व्यापक उपयोग किया जाता है। 

5.4 सरकारी तंत्र का दुरूपयोग 

संसाधनों के उपयोग की दृष्टि से सभी राजनीतिक दलों को समान अवसर उपलब्ध नहीं होते। सत्तारूढ़ दल विपक्षी दलों की तुलना में अधिक लाभदायक स्थिति में होते हैं। व्यापक स्तर पर यह आरोप लगाया जाता है कि चुनाव के दौरान सत्तारूढ़ दल सरकारी तंत्र का व्यापक दुरूपयोग करता है।  इन सभी विशेषताओं का परिणाम चुनावी हिंसा में, निर्वाचन केंद्रों पर कब्जा करने में, हेराफेरी करने में, फर्जी मतदान में, और मतपत्रों और मत पेटियों को निकालने या बदलने में और वाहनों में आग लगाने इत्यादि में होता है, जिसके कारण जनता का चुनाव पर से विश्वास उठ जाता है। 

5.5 चुनाव सुधार

लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया के प्रति जनता का विश्वास वापस लाने के लिए तारकुंडे समिति और गोस्वामी समिति द्वारा समय-समय पर अनेक चुनाव सुधारों की सिफारिश की गई है, जिनकी नियुक्ति क्रमशः 1974 और 1990 में विशेष रूप से चुनाव सुधारों की योजना के अध्ययन के लिए की गई थी। इन सिफारिशों में से कुछ सिफारिशों का क्रियान्वयन किया गया है। वास्तव में तत्कालीन मुख्य निर्वाचन आयुक्त टी.एन. शेषन की अध्यक्षता में मुक्त और निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने के लिए अनेक उपाय किये गए थे। जो सिफारिशें लागू की जा चुकी हैं, उनमें से कुछ निम्नानुसार हैंः

  1. मतदान की आयु को 21 वर्ष से घटा कर 18 वर्ष कर दिया गया है। इसके कारण मतदाताओं की संख्या में भी वृद्धि हुई है, और युवाओं में देश की निर्वाचन प्रक्रिया के प्रति विश्वास में भी वृद्धि हुई है। 
  2. एक और ऐतिहासिक परिवर्तन जमानत की राशि में वृद्धि के रूप में हुआ है, जिसके कारण किसी गुप्त उद्देश्य से चुनाव लडने वाले ऐसे प्रत्याशियों की संख्या में काफी कमी हुई है जो चुनाव के प्रति गंभीर नहीं हैं 
  3. फर्जी मतदान या प्रतिरूपण को प्रतिबंधित करने के लिए सभी मतदाताओं के लिए फोटोयुक्त मतदाता परिचयपत्र जारी किये गए हैं। 
  4. इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के उपयोग के शुरू होने के साथ ही मतदान केंद्रों पर कब्जा करने की घटनाएं, हेराफेरी की घटनाएं, और फर्जी मतदान की की घटनाएं संभव नहीं रही हैं। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के उपयोग का दूरगामी परिणाम चुनाव व्यय में कमी के रूप में भी होगा, साथ ही मतगणना के दौरान हेराफेरी पर भी प्रतिबंध लगेगा। 
  5. यदि कुल पडे़ हुए मतों, और कुल गिने गए मतों में अंतर दिखाई देता है, तो ऐसे मामलों की सूचना निर्वाचन अधिकारी तुरंत निर्वाचन आयोग को देते हैं। ऐसी सूचना प्राप्त होने पर निर्वाचन आयोग या तो संबंधित मतदान केंद्र के मतदान को अवैध घोषित कर देगा, या संपूर्ण निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव को रद्द करके निर्वाचन के लिए नई तिथियों की घोषणा करेगा। 
  6. भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा अधिक लोगों को मतदान के लिये प्रेरित करने के लिये एसवीईईपी (SVEEP) कार्यक्रम शुरू किया गया है। एसवीईईपी = सिस्टमेटिक वोटर्स एजुकेशन एंड इलेक्टोरल पार्टीसिपेशन। इसके उत्साहवर्धक परिणाम मिले हैं। वर्ष 2014 के आम चुनाव में मतदान का प्रतिशत 66.4 रहा, जो अब तक का सर्वाधिक है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत को तत्काल व्यापक चुनाव सुधारों की आवश्यकता है, परंतु इसीके साथ इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आमतौर पर भारत में चुनाव निष्पक्ष और मुक्त वातावरण में संपन्न हुए हैं। विश्व का सबसे बडा लोकतंत्र होने की हमारी प्रतिष्ठा मुख्य रूप से हमारे मुक्त और निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने की क्षमता पर टिकी हुई है।

6.0 निर्वाचनों का संचालन नियम (Conduct of Election Rules) 

भारत में लोकतंत्र केवल जीवित रहने के लिए नहीं है, यह देश और देश के लोगों के हित में फलना-फूलना चाहिए। स्वतंत्र, निर्भीक और निष्पक्ष चुनाव जहां प्रत्येक व्यक्ति को अपने मताधिकार का उपयोग करने का अवसर मिले, लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। लोकतंत्र और चुनाव की सफलता को सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि चुनाव में धन के गलत उपयोग पर रोक लगा दी जाये। पूर्व सतर्कता आयुक्त, श्री एन. विट्ठल के अनुसार “काला धन भ्रष्टाचार के लिए प्राणवायु के समान है और भ्रष्टाचार काले धन के लिए। भ्रष्टाचार के लिए विरूद्ध किसी भी लड़ाई की रणनीति देश में सुशासन की स्थापना होनी चाहिए।“ जैसा कि लोकसभा सचिवालय के एक शोध अध्ययन में सामने आया है, “संसद से यह अपेक्षा की जाती है कि वह देश की अनेकता को प्रतिबिंबित करे। आर्थिक रूप से कमजोर वर्गो को दुश्वारियों का सामना नहीं करना पड़े।“

6.1 लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951, और चुनाव आचरण नियम 1961 में सक्षमता प्रावधान

चुनाव में खर्च को नियंत्रित करना और उम्मीदवारों द्वारा किये जा रहे चुनाव खर्चों की सख्त निगरानी लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है। इसलिए, लोकतंत्र में राजनीतिक वित्तीय सुधारों की पूरे विश्व में चली मुहिम के 4 प्रमुख गुणधर्म निम्नानुसार हैंः

  1. पूर्ण या आंशिक रूप से चुनाव में सरकारी निधि का प्रयोग
  2. खर्च की सीमा तय करना (किसी निश्चित खर्च की उपसीमा भी तय करना)
  3. व्यक्तिगत और संगठनों से योगदान की सीमा तय करना
  4. किसी फोरम पर चुनाव, पार्टी और उम्मीदवार को मिलने वाले धन की पूर्ण पारदर्शी रिपोर्टिंग

लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के खण्ड 77 में कहा गया है, “किसी भी चुनाव में प्रत्येक उम्मीदवार को या तो स्वयं या उसके चुनाव प्रतिनिधि के द्वारा किये गये सारे खर्चां का एक पृथक और सही-सही लेखा तैयार करना होगा जिसमें उसके प्रत्याशी घोषित होने के दिनांक से परिणाम घोषित होने के दिनांक तक, जिसमें दोनों ही तिथियां भी शामिल होंगी, उसके या उसके द्वारा नियुक्त चुनाव प्रतिनिधि द्वारा किये गये सारे चुनावी खर्च का ब्यौरा होना चाहिए।“

खण्ड़ 78 में कहा गया है कि जिला निर्वाचन अधिकारी के कार्यालय में यह लेखा प्रस्तुत होना चाहिए। इसके अनुसार, “चुनाव लड़ रहे प्रत्येक उम्मीदवार को चुनाव के दिनांक से 30 दिनों के भीतर जिला निर्वाचन अधिकारी के सम्मुख चुनावी खर्चों का ब्यौरा प्रस्तुत करना होगा जो खण्ड 77 के अंतर्गत स्वयं या उसके प्रतिनिधि द्वारा तैयार लेखा कि एक सत्य प्रमाणित प्रतिलिपि होगी।“

खण्ड 77 के उल्लंघन में व्यय करना या व्यय के लिए नामांकित करना लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के खण्ड़ 123(6) के अंतर्गत एक भ्रष्ट आचरण माना गया है। एल. आर. शिवरामगौड़ा वि. टी.एम. चंद्रशेखर मामले (1998) में माननीय उच्चतम न्यायालय ने निर्णय देते हुए कहा कि भारतीय चुनाव आयोग उम्मीदवार द्वारा दर्शाये गये चुनाव व्यय लेखा की जांच कर सकता है और यदि उम्मीदवार चुनाव में किये गये किसी खर्च के लेखा को प्रस्तुत करने में असफल होता है या अनुचित लेखा प्रस्तुत करता है तो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के खण्ड 10-अ के अधीन उसे 3 वर्ष के लिए अयोग्य घोषित किया जा सकता है। प्रत्येक दिन किये गये व्यय का सही-सही लेखा प्रस्तुत नहीं करने पर किसी भी उम्मीदवार को, चुनाव जीतने के पश्चात भी, अयोग्य करार दिया जा सकता है। प्रत्येक उम्मीदवार के लिए यह आवश्यक है कि वह, उसे चुनाव के नामांकन पत्र भरते समय निर्वाचन अधिकारी द्वारा दिये गये रजिस्टर म,ें प्रत्येक दिन के चुनाव व्यय का लेखा प्रस्तुत करे। चुनाव आचरण संहिता, 1961 के नियम 86 में इस संबंध में विस्तृत ब्यौरा दिया गया है, जिसके अनुसार प्रत्येक दिन के व्यय को लेकर विस्तृत ब्यौरा निम्नलिखित तरीके से लिखा जाना चाहिए।

वे निम्नानुसार हैंः

  1. वह दिनांक जब व्यय किया गया,
  2. व्यय की प्रकृति (उदाहरण के लिए यात्रा, ड़ाक व्यय या मुद्रण जैसे व्यय),
  3. व्यय की गई राशि,
  4. भुगतान की गई राशि,
  5. बकाया राशि,
  6. भुगतान की तिथि,
  7. अदाता का नाम और पता,
  8. सनद/रसीद का क्रमांक,
  9. बिल का क्रमांक, यदि राशि का भुगतान बकाया हो तो, और
  10. उस व्यक्ति का नाम और पता जिसे बकाया भुगतान किया जाना है।

प्रत्येक खर्च के लिए एक रसीद/सनद प्राप्त की जानी चाहिए। 

चुनाव आयोग ने यह स्पष्ट किया है कि उम्मीदवार की न्यायसंगत के लिए उसे इस बात के लिए अनुमति दी जाती है की वह अपने चुनाव व्यय का ब्यौरा अंग्रेजी, हिन्दी या किसी भी स्थानीय भाषा या भाषाओं में दे सकता है जिनमें भी मतदान पत्र मुद्रित होते हैं। 

इसमें निहित नियम 87 कहता है कि जिला निर्वाचन अधिकारी, उसके कार्यालय में व्यय लेखा प्राप्त होने के दो कार्य दिवस के भीतर अपने नोटिस बोर्ड़ पर एक नोटिस चस्पा  करेगा जिसमे लेखा समर्पित करने का दिनांक तथा वह समय तथा स्थान अंकित होना चाहिए जहां नियम 88 के तहत इस लेखा का परिक्षण किया जायेगा, कोई भी व्यक्ति एक रू. शुल्क के भुगतान करने पर इस व्यय लेखा का परीक्षण करने के लिए अधिकृत होगा। नियम 90 के तहत अधिकतम चुनाव व्यय की राशि दी गई है, जिसे केरल चुनावों हेतु 2011 से, बढ़ाकर प्रत्येक विधान सभा क्षेत्र के लिए 16 लाख कर दी गई है।

7.0 भारतीय दण्ड़ विधान के प्रावधान

खण्ड़ 171 बी में यह अनुबंध किया गया है कि जो भी कोई किसी भी व्यक्ति को अपने मताधिकार का उपयोग करने के लिए किसी भी प्रकार का पारितोषण प्रस्तुत करेगा या ऐसे किसी अधिकार का उपयोग करेगा उसे रिश्वतखोरी का अपराध माना जायेगा। खण्ड़ 117 एफ के तहत चुनाव में अनुचित प्रभाव या प्रतिरूपण करने पर दण्ड़ का प्रावधान है। खण्ड 171 एच में चुनाव के दौरान अवैध भुगतान के संबंध में निर्देश दिये गये है जबकि 171 आय कहता है, ‘‘कोई भी जो कानून द्वारा अपेक्षित हो या किसी भी नियम के तहत एक चुनाव के सिलसिले में किए गए खर्च का हिसाब रखने या ऐसे खाते रखने में विफल रहता है पर पांच सौ रुपए तक का दंड़ हो सकता है।’’

7.1 विशिष्ट बैंक खाते

2010 में बिहार विधानसभा के लिए सम्पन्न हुए आम चुनावों में, चुनाव आयोग ने चुनाव व्यय की निगरानी करने के लिए एक नया प्रयोग किया। इसमें कहा गया कि प्रत्येक उम्मीदवार चुनाव व्यय के लिए बैंक में एक पृथक खाता प्रारंभ करेगा। यह खाता उम्मीदवार के द्वारा नामांकन भरे जाने के कम से कम एक दिन पूर्व खोला जाना आवश्यक है। इस बैंक खाते का खाता क्रमांक निर्वाचन अधिकारी के समक्ष लिखित में प्रस्तुत करना अनिवार्य होता है। उम्मीदवार के द्वारा किये जाने वाले समस्त चुनाव व्यय इसी खाते से संचालित किये जाने चाहिए। चुनाव प्रक्रिया में खर्च की जाने वाली समस्त धन राशि इसी खाते में जमा की जानी चाहिए चाहे उस धनराशि का स्रोत्र कुछ भी हो। इस खाते के विवरण की एक सत्यापित प्रतिलिपि उम्मीदवार के द्वारा जिला निर्वाचन अधिकारी को प्रस्तुत करना अनिवार्य होता है। यदि कोई उम्मीदवार एक से ज्यादा चुनाव क्षेत्रों से चुनाव लड़ रहा है तो उसे अपने दोनों निर्वाचन क्षेत्रों के लिए पृथक-पृथक लेखों का ब्यौरा जमा कराना होगा। 

व्यय संवेदनशील चुनाव क्षेत्र की अवधारणा तुलनात्मक रूप से नई है। पिछले अनुभवों के आधार पर, प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र का एक ब्यौरा तैयार किया जाता है तथा मुख्य निर्वाचन अधिकारी को उच्च खर्च और भ्रष्ट आचरण वाले निर्वाचन क्षेत्रों का पता लगाने के लिए निर्देशित किया जाता है। उम्मीदवारों को भी यह निर्देशित किया जाता है कि वे नामांकन पत्रों के साथ शपथ पत्र भी प्रस्तुत करें जिसमें निम्नलिखित दस्तावेज भी सम्मिलित किये जाने चाहिए

  1. उम्मीदवार, उसके पति/पत्नी और उस पर निर्भर सदस्यों के पैन क्रमांक 
  2. चल-अचल सम्पत्ति का ब्यौरा, अचल सम्पत्ति की खरीदते समय की कीमत और वर्तमान कीमत, सम्पत्ति का वर्तमान बाज़ार मूल्य
  3. देयताएं (सरकारी देयक, बैंक के ऋण और वित्तीय संस्थाओं के कर्ज)

7.2 व्यय निरीक्षक और सूक्ष्म-निरीक्षक

2009 और 2010 में हुये अधिकांश चुनावों में केवल एक प्रकार के निरीक्षक ही सम्पूर्ण व्यय का निरीक्षण करते थे। बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान चुनावी खर्च की निरीक्षण प्रक्रिया में व्यय निरीक्षकां की नियुक्ति की अवधारणा के साथ एक बड़ा बदलाव देखने को मिला। इसका उद्देश्य मतदाता को प्रभावित करने के लिए छल और असम्बद्ध तरीकां से किये गये खर्च की निगरानी करना है। व्यय निरीक्षक लोक-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 20ब के तहत नियुक्त किये जाते हैं। सूक्ष्म व्यय निरीक्षकों की नियुक्ति, व्यय निरीक्षकों के द्वारा केन्द्र सरकार के उन कर्मचारियों की सूची से की जाती है जो उन्हें जिला निर्वाचन अधिकारी द्वारा उपलब्ध करायी जाती है। सिद्धांत रूप में प्रति उम्मीदवार कम से कम एक सूक्ष्म व्यय निरीक्षक नियुक्त किया जाना चाहिए। विडियो निरीक्षण दल, विडियो समीक्षा दल, व्यय निगरानी समूह और शिकायत निगरानी पद्धति चुनावी खर्चों के निरीक्षण के नये तरीके है। यह विनियमित किया गया है कि उम्मीदवार, अपने व्यय रजिस्टर को व्यय निरीक्षक के सामने चुनाव अभियान के दौरान कम से कम तीन मर्तबा प्रस्तुत करें। इस नियम का प्रेस के माध्यम से व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। 

7.3 वैध एवं अवैध चुनाव व्यय 

चुनाव व्यय को मुख्यतः दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता हैः 

1.नियम अनुसार अनुमति योग्य व्यय (सभा, वाहन, बैनर, पोस्टर आदि)

2.नियम अनुसार अनुमति नहीं देने योग्य व्यय (धन या पैसा, शराब आदि मतदाताओं के बीच वितरित करना)।

व्यय खर्च के निरीक्षण का उद्देश्य दो-तरफा होता है। जहां तक पहली श्रेणी का सवाल है, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि सारे व्यय का ब्यौरा सत्यनिष्ठा पूर्वक दिया जा रहा है। उदाहरण के लिए, जहां तक रैलियों का सवाल है, उम्मीदवारों के लिए यह आवश्यक होता है कि अनुमति के साथ अनुमानित व्यय का ब्यौरा भी प्रस्तुत करें। जहां तक वाहनों का सवाल है, चुनाव अभियान के लिए उपयोग किये जाने वाले वाहनों का सम्पूर्ण विवरण (दो पहिया वाहन और साइकल रिक्शा सहित) भी उम्मीदवार द्वारा प्रस्तुत किया जाना चाहिए। यदि कोई वाहन चुनाव अभियान में प्रयुक्त होता पाया जाता है और इसके बारे में विवरण प्राधिकृत अधिकारियों को नहीं दिया जाता है, तो यह भादवि की धारा 171 एच के तहत अनाधिकृत चुनाव प्रचार माना जावेगा और इस वाहन का खर्च उम्मीदवार के चुनाव खर्च में जोड़ दिया जायेंगा। जहां तक द्वितीय श्रेणी का सवाल है, भारतीय चुनाव आयोग ने यह स्पष्ट निर्देश दिया है कि इस प्रकार के व्ययों को पकड़ने के लिए तंत्र पर्याप्त रूप से मजबूत होना चाहिए। इसे न केवल चुनावी खर्चों के लेखा में सम्मिलित किया जाना चाहिए, बल्कि इसके विरूद्ध उचित कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए। व्यय की जानी वाली अवैध चीजों में शामिल हैः 1. दोनों ही और से परिवर्तनशील मतदाताओं को खरीदने के लिए बूथ स्तर पर एजेंट नियुक्त करना, 2. क्लब के सदस्यों को प्रभावित करने के लिए दान, 3. पार्टी की सभाओं के लिए किराये की भीड़ इकट्ठी करना, 4. उम्मीदवार का विवाह समारोह या भोजन वितरण कार्यक्रमों में उपस्थित होना जहां उम्मीदवार की ओर से उपहार वितरित किये जाते हैं, 5. टी.वी., मोटरसाईकल आदि की निःशुल्क खरीदी के लिये कूपन वितरित करना।

7.4 अघोषित नकदी की जब्ती

सामान्यतः मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए अघोषित नगदी का उपयोग किया जाता है। आयकर अधिनियम की धारा (खण्ड 132) के तहत किसी भी अघोषित नगदी को जब्त किया जा सकता है। यदि यह किसी अवैध विदेशी विनिमय के द्वारा देश में आती है तो इसे प्रवर्तन निदेशालय द्वारा जब्त किया जाता है। यदि ऐसी शंका उत्पन्न होती है कि इसका उपयोग रिश्वत देने के लिए हो सकता है तो पुलिस अधिकारी भी इसे जब्त कर सकते हैं। भारत के किसी भी कानून के तहत नगदी पैसा साथ में रखना अवैध नहीं है और नियमित व्यापार के लिए यह कोई अभिशाप नहीं है। किंतु यदि इसका अंतिम उद्देश्य संदेहास्पद लगता है तो इसे जब्त किया जा सकता है। जैसा कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने राजेन्द्रन चिंगारवैलु वि. आर. के. मिश्रा (2009 की दीवानी अपील नम्बर 7914) में निर्णय देते हुए कहा, “जनहित में लिये गये कोई भी सद्भावी कदमों और जनता को सुरक्षा मुहैया कराने के लिए या काले धन के वितरण को रोकने के लिए उठाये कदमों को नागरिकां की व्यक्तिगत स्वतंत्रता या निजी मामलों में हस्तक्षेप नहीं माना जा सकता। बड़ी मात्रा में नगदी साथ में रखना ही अपने आप में ही अवैध शंकाओं को जन्म देता है, इसलिए खुफिया अधिकारियों को न केवल यह अधिकार है कि अपने आप को सतुंष्ट करें की वह धन वैध स्रोत से प्राप्त हुआ है या नहीं, बल्कि यह भी कि यह बड़ी मात्रा में प्राप्त धन राशिवैध उद्देश्य के लिए ले जाई जा रही है या नहीं।“ 

वास्तव में, माननीय न्यायालय ने चुनाव आयोग को ऐसा निर्देश देकर जहां कोई भी कानूनी दिशा निर्देश उपलब्ध नहीं थे वहां चुनाव सुधारों की दिशा में उत्साहित ही किया है (जे.एम. लिंगदोह)। जैसा कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने मोहिन्दर सिंग गिल विरूद्ध मुख्य चुनाव आयुक्त (1978), आय.एस.एस.सी 405 में निर्णय देते हुए कहा “जब राष्ट्रपति द्वारा एक बार नियुक्त कर दिया जाता है तो चुनाव आयोग ने बाह्य प्रभावों से अछूता रहना चाहिए। और ऐसा तभी होगा जब उसे चुनाव संचालन की सभी शक्तियां दी जाएं। किंतु यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाए कि कोई मुश्किल से निपटना ही पड़े, व उसके लिए कानून उपलब्ध ना हों, तो मुख्य चुनाव आयुक्त हाथ जोड़े प्रभु से हस्तक्षेप की उम्मीद न करें। वे अपनी शक्तियों का स्पतंत्र उपयोग करें।  

इन निर्णयों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए, भारत के चुनाव आयोग ने निम्न आदेश जारी कियेः 

  1. मुख्य मार्गों पर उड़न दस्तों की नियुक्ति इस तरह की जानी चाहिए की वे सतत निगरानी कर सकें और एक लाख या उससे अधिक की संदेहास्पद राशि जिसकी वाहक द्वारा संतोषप्रद व्याख्या न दी जा सके, को वोटरों को दी जाने वाली रिश्वत मानकर जब्त कर ली जाये
  2. सभी प्रमुख रेल्वे स्टेशनों, विमान पत्तनों और होटलों और आदि में निगरानी रखने के लिए जांच निदेशालय की टीमों का गठन किया जाना चाहिए
  3. प्रमुख वित्तीय दलालों, गिरवी दलालों, नगद वाहकों आदि को निगरानी में रखा जाना चाहिए
  4. बैंकों को दिशा निर्देश जारी किये जाने चाहिए कि 1 लाख से उपर संदेहास्पद आहरणों की रिपोर्ट दें
  5. होटलों को कहा जाना चाहिए की वे उन ग्राहकों की रिपोर्ट दें जो बड़ी मात्रा में नगदी लेकर आते हैं

इसके अतिरिक्त स्वःसहायता समूहों या गैर-सरकारी संगठनों के खातों में संदेहास्पद संग्रहणों की निगरानी रखी जानी चाहिए की ताकि मतदाताओं को नगदी भुगतान करने के इस पद का दुरूपयोग ना हो सके।

इस तथ्य को भी ध्यान में रखकर कि मनरेगा जैसी योजनाओं में श्रमिकों को उनकी निश्चित मजदूरी से अधिक का भुगतान हो सकता है, उसे रिश्वत माना जाये, एवं इस हेतु भारतीय चुनाव आयोग ने आदेश दिया है कि सरकारी योजनाओं के अधीन की जाने वाली मजदूरी का भुगतान केवल सरकारी कार्योलयों के माध्यम से ही किया जाना चाहिए। इस अवसर पर किसी भी प्रकार के पार्टी कर्मचारी उपस्थित ना हों।

7.5 खर्च के आकलन के लिए मानक

जिला चुनाव अधिकारी चुनाव की घोषणा के तीन दिन के भीतर अपने जिले के लिए चुनाव खर्च की विभिन्न वस्तुओं की दरों को सूचित करेगा। इन दरों में माईक, मंच/पाण्डाल का निर्माण, बैनर, पोस्टर आदि की दरें शामिल होती हैं। यदि किसी उम्मीदवार को लगता है कि घोषित दरें तर्क-सम्मत नहीं है तो वह अधिसूचना के 24 घण्टों के भीतर जिला निर्वाचन अधिकारी को लिखित में इस संबंध में आवेदन दे सकता है और जिला निर्वाचन अधिकारी ऐसे किसी भी आवेदन के प्राप्त होने के 24 घण्टे के भीतर उचित कार्यवाही कर आदेश जारी करेगा। 

7.6 छाया व्यय रजिस्टर

प्रत्येक उम्मीदवार के लिए लेखा-समूह  द्वारा एक छाया व्यय रजिस्टर में व्यय के ब्यौरे दर्ज किये जायेंगे, इस रजिस्टर का रूप भी व्यय रजिस्टर के समान ही होगा। यह जनता के साथ-साथ उम्मीदवार के लिए भी खुला होगा। उम्मीदवार के द्वारा तैयार किये गये व्यय रजिस्टर और छाया व्यय रजिस्टर के बीच में यदि कोई विसंगति प्रतीत होती है तो निरीक्षण के दौरान इसे उम्मीदवार के समक्ष रखा जायेगा। चुनाव परिणामों के घोषित होने के बाद, जिला निर्वाचन अधिकारी द्वारा उम्मीदवार द्वारा समर्पित व्यय लेखा की सत्यता के बारे में अपना अभिमत बनाते समय, उसे जारी किये गये नोटिस और प्राप्त प्रति उत्तरों को ध्यान में रखा जायेगा। 

7.7 अनुमानित व्यय

लोक-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 77(1) की व्याख्या 1 में यह घोषित किया गया है कि

“किसी भी राजनीतिक दल के नेताओं द्वारा अपने दल के कार्यक्रमों के प्रचार के लिए की गई हवाई यात्रा या किसी अन्य साधन से की गई यात्रा के व्यय को उस दल के उम्मीदवार या चुनाव एजेण्ट के खर्च में सम्मिलित नहीं माना जायेगा।“

व्याख्या 2 में यह स्पष्ट किया गया है कि राजनीतिक दल के नेताओं से आशय है कि

“राजनीतिक दल ने मान्यता प्राप्त होना चाहिए और तब राजनीतिक दल के प्रचारकों की संख्या 40 से अधिक नहीं होनी चाहिए, और यदि कोई राजनीतिक दल मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल नहीं है तो यह संख्या 20 से अधिक नहीं होनी चाहिए।

ऐसे नेताओं के नाम चुनाव की अधिसूचना जारी होने के 7 दिनों के भीतर संबंधित राजनीतिक दल द्वारा चुनाव आयोग तथा राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को प्रस्तुत कर दी जानी चाहिए .....“

यदि इस तरह की सूचना राजनीतिक दल के द्वारा समय सीमा के भीतर चुनाव आयोग के सम्मुख प्रस्तुत नहीं की जाती है तो ऐसे नेताओं के द्वारा की गई हवाई यात्राओं का व्यय भी उम्मीदवार के व्यय में सम्मिलित माना जावेगा। माननीय उच्चतम न्यायालय ने कंवरलाल गुप्ता बनाम अमरनाथ चावला के अपने निर्णय में कहा है कि राजनीतिक दल द्वारा किया गया ऐसा व्यय जिसे दिये गये उम्मीदवार के चुनाव के साथ जोड़कर देखा जा सके और जो दल के सामूहिक प्रचार-प्रसार से भिन्न प्रतीत हो ऐसे सारे खर्चों को उम्मीदवार के निजी खर्च में जोड़ा जावेगा। “यदि किसी उम्मीदवार के चुनावी व्यय को नियंत्रित किया जाता है किंतु उसे प्रायोजित करने वाले राजनीतिक दल या उसके मित्रों और समर्थकों को चुनाव के सबंध में जितना चाहे उतना खर्च करने की अनुमति दी जाती है, तो खर्च को नियंत्रित करने की यह पद्धति पूर्णतः अर्थहीन हो जाएगी और लोकतांत्रिक प्रक्रियां में यथार्थता लाने के सारे प्रावधान और प्रक्रियाएें पूर्णतः नपुंसक हो जायेंगे“।

इस सबंध में, यह भी उल्लेखनीय है कि खण्ड 77 की व्याख्या 1 की वैधता को पी.नाल्ला थैम्पी तेरा बनाम भारत सरकार के एक मामले में चुनौती दी गई थी। इस मामले में एक संवैधानिक पीठ ने पाया कि याचिकाकर्ता व्याख्या 1 में निहित प्रावधानों की आलोचना करते हुए अन्यायोचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि इससे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांत को ठेस पहुंचती है। सी. नारायण स्वामी वि. सी. के. जाफर शरीफ मामले में उच्चतम न्यायालय का कहना है कि, “जैसा कि आज भारत में कानून लागू है, कोई भी व्यक्ति जिसमें अपराधी, तस्कर या कोई भी असामाजिक तत्व है, अपने पसंदीदा उम्मीदवार जिसमें उसकी रूचि है को चुनाव जितवाने के लिए कोई भी धनराशि खर्च कर सकता है।‘‘ गजानंद बापट बनाम दत्ताजी मेघे मामले में उच्चतम न्यायालय का कहना है कि राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव व्यय के लेखा को नहीं लिखे जाने की परम्परा के कारण लोक-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 77 की व्याख्या 1 अपना अर्थ खो चुकी है। धारा 77 की व्याख्या 1 ही भारत सरकार के विरूद्ध एक जनहित याचिका का मुख्य मुद्दा थी।

जब कोई राजनीतिक दल का नेता जिसका अनुरक्षण धारा 77 (1) की व्याख्या 2 के तहत होता है, तो चुनाव आयोग के द्वारा उम्मीदवार की वैधानिक स्थिति को स्पष्ट किया गया हैः “जब कोई स्टार प्रचारक अपने निर्वाचन क्षेत्र से बाहर जाता है या अन्य निर्वाचन क्षेत्रां से अपने निर्वाचन क्षेत्र से बाहर आता है तो उसके द्वारा की गई इन यात्राओं के व्यय उसके चुनाव खर्च में शामिल नहीं किये जायेंगे। जब वह अपने निर्वाचन क्षेत्र में पहुंच जाता है और केवल अपने निर्वाचन क्षेत्र के भीतर ही यात्रा करता है तो उसके द्वारा की गई ऐसी यात्राओं के व्यय उसके चुनाव खर्च में शामिल किये जायेंगे।“

7.8 ज़मीनी वास्तविकता

एक अनुमान के अनुसार, भारत में 5 वर्षों के दौरान लोकसभा और राज्य विधान सभा के चुनावों के लिए प्रमुख राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के द्वारा 7 हजार करोड़ रूपये खर्च किये जाते हैं। इस जमीनी वास्तविकता को स्वयं तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त, जेम्स माइकल लिंगदोह ने व्यक्त करते हुए कहा, “हर कोई उम्मीदवार का वास्तविक खर्च जानता है, एक विधान सभा चुनाव में भी आजकल करोड़ो रूपये खर्च होते हैं। दूसरे शब्दों में, अधिकांश उम्मीदवार चुनाव नियमों के अधीन भ्रष्ट आचरण करते हैं। दुर्भाग्य से, उम्मीदवार मतदाताओं को खिला-पिलाकर (शराब) मत हासिल करते है। 40 राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के यात्रा व्यय जो उम्मीदवार को चुनाव जिताने के लिए ही किये जाते हैं चुनाव खर्च से अलग होते हैं। इन नेताओं के हवाई यात्रा के व्यय ही करोड़ों में होते हैं। राजनीतिक दलों को दिया जाने वाला दान पूर्णतः कर मुक्त होता है, राजस्व विभाग के निर्देशों के अनुसार यह एक अनुमोदक कदम है। लोक-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में सुधार की आवश्यकता है जिससे चुनाव आयोग को यह अधिकार मिले की वह राष्ट्रीय नेताओं के यात्रा व्यय सहित चुनावी खर्चों और दलों को प्राप्त होने वाले चंदों का ब्यौरा मांग सके और वार्षिक अंकेक्षण भी कर सके तथा इसमें अनियमितता पाये जाने पर पार्टी की मान्यता समाप्त कर सके।“

7.9 माननीय उच्चतम न्यायालय की टिप्पणियां

‘‘सैंकड़ां, हजारों वाहन सड़कों पर लाये जाते हैं ....., लाखों की संख्या में पैम्प्लेट और मुद्रित कागज वितरित किये जाते हैं या देशभर में ड़ाक से जाते हैं। हजारों की संख्या में बैनर लहराये जाते हैं। झण्डे लहराये जाते है, दिवारों पर नारे लिखे जाते हैं तथा सैकड़ों-हजारों की मात्रा में लाउड़स्पीकर बजाकर लोगों को उत्तेजित किया जाता है और अतिरंजनापूर्ण वादे किये जाते हैं। विशिष्ट और अतिविशिष्ट नेता आते-जाते हैं, जिनमें से कुछ हैलिकाप्टर और हवाई टैक्सी का उपयोग भी करते हैं। राजनीतिक पार्टियां अपनी सत्ता की भूख मिटाने के लिए आम चुनावों में एक हजार करोड़ से ज्यादा खर्च करती हैं, तो भी इतनी बड़ी मात्रा में खर्च किये गये धन का कोई हिसाब नहीं होता और नही इसके लिए कोई जिम्मेदार होता है। कोई भी धन का स्रोत घोषित नहीं करता है। न कोई व्यवस्थित लेखा होता है और न ही अंकेक्षण। कोई नहीं जानता कि यह धन कहां से आता है। एक लोकतंत्र में जहां कानून का शासन होता है काले धन का यह नग्न प्रदर्शन जिसमें आवश्यक कानूनी प्रावधानां का उल्लंघन होता है की अनुमति नहीं दी जा सकती। जब तक लोकतंत्र में पारदर्शिता लाने के लिए सांविधि प्रावधान दृढ़तापूर्वक लागू नहीं किये जाते, और चुनावी चंदे की प्रक्रिया को पारदर्शी नहीं बनाया जाता, तब तक इस विषैले चक्र को तोड़ा नहीं जा सकता। 

उच्च चुनाव व्यय, मतदाताओं को खरीदना और मतदान सबंधित अनियमितताऐं, हमारी मौजूदा वेस्टमिंस्टर शैली में, चुनाव जीतने के लिए अनिवार्य अंग हो गये हैं। यह उच्च व्यय राजनीतिक दलों को उत्तेजित करता है कि वे कई प्रकार के स्रोतों से धन हासिल करें, यह भ्रष्टाचार को वैधता प्रदान करता है, उन लोगों का राजनीति में प्रवेश आसान बनाता है जो बड़ी मात्रा में काले धन को खर्च करने के इच्छुक हैं। लोकहित से भरे हुए नागरिकों को राजनीति में आने से रोकता है और भ्रष्टाचार, लालच और जबरन वसूली के चक्र को सुगम बनाता है, जिससे हमारा लोकतंत्र कमज़ोर होता है। राजनीतिक दलों को तीन गतिविधियों के लिए धन की जरूरत होती हैः चुनाव अभियान, अपने संगठन के आतंरिक चुनावों के लिए और राजनीतिक गतिविधियों तथा अधांसंरचनागत साथ के लिए। 

इस परिदृश्य में, अनुपातिक प्रतिनिधित्व के बारे में सोचना चाहिए, जिसमें किसी दल का प्रतिनिधित्व प्रत्येक राज्य में प्राप्त कुल मत प्रतिशत पर निर्भर करता है। इस तरह का बदलाव चुनावी अनियमितताओं को हतोत्साहित करेगा, यह एक कदम होगा जिसमें उम्मीदवार स्थानीय स्तर पर अनुचित लाभ लेने की अपेक्षा अपनी पार्टी के लिये पूरे राज्य में अधिकतम मत प्राप्त करने का उद्देश्य लेकर चलेगा। शायद हमें राजनीतिक दलों के लिए जर्मन कानून, 1967 की धारा 5 के प्रावधानों का सहारा लेना पड़ेगा जिसमें सभी राजनीतिक दलों के लिए यह एक सांविधिक मजबूरी होती है कि वे अपने चुनाव व्यय का स्पष्ट और सही-सही लेखा तैयार करें तथा उसे अंकेक्षण के पश्चात जर्मनी के राष्ट्रपति को समर्पित करें। या फ्रांस के अनुभव का साहारा लेना पड़ेगा जहां यह प्रावधान है कि प्रत्येक उम्मीदवार को चुनाव खर्च के लिए सरकारी कोष धन उपलब्ध कराया जाता है, वह एक अनुबंध के साथ बैंक ग्यारण्टी प्रस्तुत करता है जिसमें कहा गया होता है कि यदि उसे कुल मतों के 8 प्रतिशत से कम मत प्राप्त होते है तो वह अपने अनुबंध के अनुसार जुर्माना भरेगा। या अमेरिकी अनुभव से यह सीखना होगा कि उच्च चुनाव खर्च के बावजूद सारा चुनावी कोष पूर्णतः वैध होता है और आम जनता के लिए खुला भी होता है। यहीं वह समय है जहां हम भारतीय और अमेरिकी चुनावों में होने वाले व्यय की सांख्यिकी के बारे मे बैठकर सोचें जो यह दर्शाती है कि क्रय शक्ति के अर्थो में, भारतीय चुनाव व्यय सम्भवतः, अमेरिकी चुनाव व्यय की तुलना में 5 गुना ज्यादा है, जिसके कारण हमारी प्रतिव्यक्ति व्यय की सीमा उच्चतर हो जाती है, जो कि निम्न प्रतिव्यक्ति आय की स्थिति में एक बेहूदा स्थिति है (जयप्रकाश नारायण)।

8.0 अनुच्छेद 8 (4) को लेकर बहस

लोक-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(4) के अवैध होने संबंधित उच्चतम न्यायालय के निर्णय से एक विवाद की स्थिति तैयार हो गई है। विधि विशेषज्ञ रहे हैं कि कैसे एक खण्डपीठ ने ऐसे आदेश जारी कर दिये जबकि एक संवैधानिक पीठ ने पहले ही घोषित कर रखा है कि यह प्रावधान “अतार्किक नहीं था“। अनुच्छेद 8 (4) में आरोपित सांसदां और विधान परिषद के सदस्यों को अपने पदों पर बने रहने का अधिकार होता है, यदि वे उनके विरूद्ध लगे आरोपों/सज़ा के विरूद्ध तीन माह के भीतर उपरी न्यायालय में याचिका दायर कर दें। 

वरिष्ठ वकील और डी.एम.के. पूर्व राज्य सभा सदस्य आर. षणमुगसुन्दरम ने द हिन्दू को दिये एक साक्षात्कार में कहा कि उन्हें शंका है कि हाल ही में दिया गया यह फैसला, कानून की कसौटी पर खरा उतरेगा। क्योंकि के. प्रभाकरण बनाम पी. जय राजन मामले में, संविधान पीठ ने 11 जनवरी 2005 को कहाः “दो समूहों में रखे जाने वाले (वह जो चुनाव के पहले ही अभिसंशित हो और दूसरे वह जो सांसद/विधायक/विधान परिषद सदस्य बनने के बाद अभिसंशित हुए हो) व्यक्ति सुपरिभाषित है और इसलिए ये दो अलग-अलग समूहों से आते हैं। ऐसे किसी वर्गीकरण को अतार्किक नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह ऐसे अंतरों और बंधनों पर आधारित है जिसका उद्देश्य लोकहित है।“

तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति आर.सी. लाहोटी की अध्यक्षता में गठित पीठ जिसके अन्य सदस्य-शिवराज वी. पाटिल, के. जी. बालकृष्णन, बी. एन. श्रीकृष्ण और जी. पी. माथुर थे - ने भी माना था कि अनुच्छेद 8(4) एक अपवाद है। उपअनुच्छेद 4 भी एक अपवाद पर आधारित है जो कि लोक-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के खण्ड़ 8 के उप-खण्ड़ां (1), (2) और (3) से निकला है। 

विधि विशेषज्ञों का कहना है कि 2005 में संवैधानिक पीठ ने अनुच्छेद 8(4) के बारे में निर्णय देते हुए कहा थाः

“जैसे ही चुनाव सम्पन्न होते है और सदन अस्तित्व में आता है, तो यह हो सकता है कि एक सदस्य को सजा दी जाये और उसे जैल भेज दिया जाये। ऐसी परिस्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि उसे भिन्न तरीके से निपटा जाये। यहां जोर केवल इस बात पर नहीं है कि किसी व्यक्ति को चुनाव लड़ने का अधिकार होता है या सदस्यता जारी रखने का अधिकार होता है, किंतु यहां सवाल यह उठता है कि सदन का अस्तित्व लोकतांत्रिक तरीके से बना रहे“।

“यदि किसी सदस्य को अयोग्य करार दिया जाता है तथा उसे सदन में बैठने और सदन की कार्यवाही में वंचित तरीके से किया जाता है तो, जैसे ही आरोप प्रमाणित होते हैं और उसके बाद सजा घोषित की जाती है, तो सदस्य की सदस्यता समाप्त घोषित होगी और इसके दो परिणाम होंगे। पहला, सदन की सदस्य संख्या कम होगी, इसलिए उस राजनीतिक दल के सदस्यों की संख्या भी कम होगी जिसका की वह आरोपित सदस्य है। सरकार में शामिल दल यदि कमजोर संख्या के साथ बहुमत में है जहां प्रत्येक सदस्य बहुत महत्वपूर्ण होता है और केवल एक सदस्य की अयोग्यता भी सरकार के कामकाज को नकारात्मक तरिके से प्रभावित कर सकती है।“

“दूसरा, ऐसी परिस्थितियों में एक उपचुनाव कराना पड़ेगा जो कि एक व्यर्थ की कसरत सिद्ध हो सकती है, और एक जटिल परिस्थिति भी तैयार कर सकती है यदि ऐसे आरोपित सदस्य को वरिष्ठ न्यायालय द्वारा बरी कर दिया जाता है। इन तर्कों को ध्यान में रखते हुए संसद को विचार करना चाहिए की वह सदन में ऐसे सदस्यों की एक पृथक श्रेणी घोषित कर दे।“  “अयोग्यता प्रावधानों के लिए उन उद्देश्यों के साथ जिन्हें हासिल किया जाना है के साथ, एक उचित और तर्कपूर्ण सबंध होना चाहिए और उन प्रावधानों की व्याख्या उद्देश्य को ध्यान में रखकर वास्तविकता के मद्देनजर होना चाहिए।“

“उप-खण्ड (4) भी एक अपवाद पर आधारित है जो कि लोक-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के खण्ड 8 के उप-खण्डों (1), (2) और (3) से निकला है। स्पष्ट तौर पर उप-खण्डो (1), (2) और (3) के उपयोग से बचना सदन की सदस्यता के तथ्यों पर आधारित है। ऐसे अपवादों को टालने का उद्देश्य किसी व्यक्ति विशेष का लाभ नहीं बल्कि सदन की गरिमा की रक्षा करना है।“ 

उपरोक्त सारे तथ्य 13 जुलाई 2013 के द हिन्दू नामक समाचार पत्र से लिये गये हैं।

9.0 निष्कर्ष

माननीय उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि 

“यदि राजनीतिक प्रशासन में जनता की सतत् भागीदारी होती है और विभिन्न सक्रिय चरणों में चर्चा के बाद लोकप्रिय उम्मीदवार चुने जाने में भागीदारी होती है तो, आज खर्च किया जाने वाला अधिकांश धन बचाया जा सकता है। उम्मीदवारों को बहुत ज्यादा यात्रा नहीं करनी पड़ेगी और ना ही उनके राजनीतिक सिपाहासालारों को चोरी-छिपे ऐसा करना पड़ेगा, ना ही प्रचारवादियों को कुशलतापूर्वक जनता को नशा देना पड़ेगा और ना ही हिंसक प्रदर्शनों की कोशिशे होंगी। एक के बाद एक होने वाले भाषण, और बड़ी-बड़ी रैलियां, पोस्टरों और पैम्प्लेट की बाढ़ तथा यात्राओं सहित अन्य दूसरे प्रबंध स्वतः निरर्थक हो जायेंगे। बढ़े प्रचार अभियान कोष मतदाताओं के मानस को प्रभावित नहीं कर पायेंगे यदि उम्मीदवार का चयन और चुनाव जनता की इच्छा के अनुसार होता है और ना ही एक मजबूरीवश निर्णय।‘‘







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