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भारत में विवाद निवारण तंत्र
1.0 प्रस्तावना
‘‘मैंने कानून का सच्चा पेशा सीख लिया था। मैंने मनुष्य स्वभाव के बेहतर हिस्से का पता लगाना और लोगों के दिलों में उतरना सीख लिया था। मैंने महसूस किया कि एक वकील का सच्चा कार्य पक्षों को आपस में मिलाना था। यह पाठ मेरे अंतर्मन में इतने अमिट ढ़ंग से बैठ गया था, कि बीस वर्षों के अपने वकीली के पेशे में से मेरे समय का काफी बड़ा भाग सैकड़ों मामलों में निजी सुलह करवाने में ही व्यतीत हुआ। मेरा कोई नुकसान नहीं हुआ, यहां तक कि पैसे का नुकसान भी नहीं हुआ, और निश्चित रूप से मैंने अपनी आत्मा तो नहीं खोई।‘‘
महात्मा गांधी
भारत में वैकल्पिक विवाद निवारण तंत्रों के सबसे सामान्य प्रकार हैं पंचनिर्णय, मध्यस्थता, सुलह, लोक अदालतें और न्याय पंचायतें। वास्तविक और त्वरित न्यायदान के लिए वैकल्पिक विवाद निवारण तंत्रों की संभावनाएं खोजी जानी चाहियें। पंचनिर्णय का पहला और सबसे महत्वपूर्ण लाभ यह है कि इसका उपयोग कभी भी किया जा सकता है, यहां तक कि उस समय भी जब मामला न्यायालय में लंबित हो।
2.0 भारतीय न्याय व्यवस्था की लंबमानता
भारत का सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालय मिलकर एकल एकीकृत स्वतंत्र न्यायपालिका का गठन करते हैं, जिनके विशिष्ट मूल और अपीलीय क्षेत्राधिकार हैं। उच्च न्यायालयों के अधीनस्थ न्यायालय संपूर्ण न्यायिक संरचना की पहली सीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक सामान्य नियम के रूप में, दीवानी मामलों का निपटारा न्यायालयों के एक क्रमानुक्रम द्वारा किया जाता है जिसे दीवानी न्यायालय कहा जाता है, जबकि फौजदारी (आपराधिक) मामलों का निपटारा एक अन्य क्रमानुक्रम द्वारा किया जाता है जिसे फौजदारी न्यायालय कहा जाता है। न्याय व्यवस्था की इस संरचना की उत्पत्ति का श्रेय भारत में ब्रिटिश शासन के आगमन को दिया जा सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों की कुल संख्या लगभग 60,000 हैं, और इनमें से 1200 मामले 10 वर्श से भी अधिक समय से लंबित हैं।
अगले तीन दशकों के दौरान - जैसा कि एक न्यायिक अनुमान है - मामलों की लंबमानता में पांच गुना वृद्धि हो सकती है, जिससे लंबित मामलों की संख्या 15 करोड़ के आंकडे़ को छू लेगी, परंतु न्यायाधीशों की संख्या केवल चौगुनी होगी, जो बढ़ कर 75,000 हो जाएगी।
लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के जवाब में केंद्रीय कानून मंत्री ने लंबमानता में वृद्धि के कारणों के बारे में बताया। जिनमें निम्न कारण शामिल हैंः
- नए मामलों में हुई वृद्धि
- न्यायाधीशों की अपर्याप्त संख्या और न्यायाधीशों के रिक्त पद
- अपर्याप्त भौतिक अधोसंरचना और कर्मचारी वर्ग, और
- निरंतर स्थगन।
उच्च न्यायालय और निचली अदालतों में काम का भारी बोझ है, और उन्हें बड़ी संख्या में लंबित और प्रतिदिन दायर होने वाले नए, दोनों प्रकार के मामलों का निपटारा करना पड़ रहा है। यह सही है कि उच्च न्यायालय और राज्य सरकारें, जिन्हें न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति के अधिकार प्राप्त हैं, वे समय पर निचली अदालतों में विद्यमान रिक्त पदों पर नियुक्तियां करने के मामले में बहुत सुस्त हैं।
दंड़ प्रक्रिया संहिता, दीवानी प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम जैसे प्रक्रियात्मक कानूनों की खामियों के कारण ये विलंब चिरस्थाई हैं। फौजदारी मामलों में दोषसिद्धि की दर बहुत ही निराशाजनक है, जिसके कारण लोगों का न्याय व्यवस्था पर विश्वास उठ गया है।
संवैधानिक प्रत्याभूति, न्यायिक निर्णयों और विभिन्न उच्च अधिकार प्राप्त समितियों की रिपोर्ट के बावजूद त्वरित न्याय की संकल्पना एक असंभव-सा लक्ष्य बना हुआ है। मामलों को निपटाने में जमाव हमेशा से एक बड़ी समस्या रहा है, जो अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण, और उदारीकरण की चुनौतियों का सामना करने और कल्याणकारी राज्य के आदर्शों की प्राप्ति के अनुरूप नहीं है।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान सरकार द्वारा मामलों को शीघ्रता से निपटाने के उद्देश्य से कुछ उपाय किये गए हैं। इनमें कम्प्यूटरीकरण की योजना, अधोसंरचनात्मक वृद्धि, वैकल्पिक विवाद निराकरण तंत्र, फास्ट ट्रॅक अदालतें, स्थाई लोक अदालतें इत्यादि शामिल हैं।
विवाद मूल रूप से ‘‘लिस इंटर पार्टेस‘‘ होता है - एक लैटिन शब्द, जिसका अर्थ है पक्षों के बीच मुकदमेबाजी। विरोधात्मक मुकदमेबाजी व्यवस्था में दो पक्ष मामले में पक्षकार होते हैं, जिनमे से एक पक्ष मुकदमा जीतता है और दूसरे पक्ष की हार होती है। भारत की न्यायदान व्यवस्था ने दीवानी प्रक्रिया संहिता के अनुच्छेद 89 के अनुसार वैकल्पिक विवाद निवारण तंत्र के रूप में विरोधात्मक मुकदमेबाजी व्यवस्था के विकल्प की खोज की है, जिसे चार व्यापक भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है, जो निम्नानुसार हैंः
- पंचनिर्णय
- मध्यस्थता
- सुलह, और
- न्यायिक निपटान, जिसमें लोक अदालत के माध्यम से किया गया निपटारा भी शामिल है।
3.0 मध्यस्थता
‘‘एक वैकल्पिक विवाद निराकरण तंत्र के रूप में मध्यस्थता अदालतों में मामलों की लंबमानता को कम करने में सहायक हो सकती है - इसके बिना (वैकल्पिक विवाद निवारण तंत्र) संपूर्ण न्यायिक व्यवस्था - जो न्यायिक अधोसंरचना हमारे पास है, उसमें समस्याएं होंगी।‘‘
मध्यस्थता एक स्वैच्छिक, पक्ष केंद्रित और संरचित बातचीत प्रक्रिया है जिसमें एक निष्पक्ष तृतीय पक्ष संबंधित पक्षों को विशेषीकृत संवाद और बातचीत तकनीक का उपयोग करके उनके विवाद को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाने में सहायता करता है। मध्यस्थता में पक्षों को यह निर्णय करने का अधिकार होता है कि विवाद को निपटाना है या नहीं, और यदि निपटाना है तो किन शर्तों के तहत निपटाना है। हालांकि मध्यस्थ उनके संवाद और बातचीत को सुविधाजनक बनाता है, फिर भी विवाद के परिणाम का नियंत्रण संबंधित पक्षों के पास ही होता है।
3.1 मध्यस्थता के प्रकार
न्यायालय द्वारा प्रेषित मध्यस्थताः यह उन मामलों पर लागू होती है जो अदालतों में लंबित हैं और जिन्हें न्यायालय दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1908 के अनुच्छेद 89 के तहत मध्यस्थता के लिए प्रेषित करता है।
निजी मध्यस्थताः निजी मध्यस्थता में योग्य और प्रशिक्षित मध्यस्थ सेवा-के लिए-शुल्क के आधार पर न्यायालयों को व्यक्तियों, वाणिज्यिक क्षेत्र और सरकारी क्षेत्र के लिए मध्यस्थता के माध्यम से विवाद निवारण के लिए अपनी सेवाएं प्रदान करते हैं। निजी मध्यस्थता का उपयोग न्यायालयों में लंबित मामलों के साथ ही मुकदमा पूर्व विवादों के लिए भी किया जा सकता है।
3.2 मध्यस्थता/सुलह के लाभ
मध्यस्थ में पक्षों का निम्न की दृष्टि से नियंत्रण होता हैः
- इसका दायरा (अर्थात, मध्यस्थता की प्रक्रिया के दौरान संदर्भित मामलों या मुद्दों को सीमित भी किया जा सकता है और विस्तारित भी किया जा सकता है), और
- इसका निष्कर्ष (अर्थात पक्षों को यह अधिकार प्राप्त है कि वे मामले को सुलझाते हैं या नहीं, और यदि सुलझाते हैं तो किन शर्तों के तहत)
मध्यस्थता भगीदारीपूर्ण होती है। पक्षों को अपने शब्दों में आपमे मामले को प्रस्तुत करने का अवसर मिलता है, और वे बातचीत में सीधी भागीदारी भी करते हैं।
यह प्रक्रिया ऐच्छिक है, और किसी भी समय यदि किसी पक्ष को लगता है कि इससे उसे सहायता नहीं मिल रही तो वह पक्ष इससे बाहर जाने के लिए स्वतंत्र है। मध्यस्थता का स्वनिर्धारण का स्वरुप यह सुनिश्चित करता है कि सुलह की शर्तों का पालन किया जायेगा।
यह प्रक्रिया त्वरित, कुशल और मितव्ययी होती है।
यह प्रक्रिया आसान और लचीली होती है। यह प्रत्येक मामले की आवश्यकता के अनुरूप संशोचित की जा सकती है। लचीला समय निर्धारण पक्षों को अपने दैनंदिन कार्य संपन्न करने की सुविधा प्रदान करता है। यह प्रक्रिया अत्यंत अनौपचारिक, सौहार्दपूर्ण और अनुकूल वातावरण में संपन्न होती है, और यह पूर्णतः निष्पक्ष प्रक्रिया होती है। मध्यस्थ एक निष्पक्ष, तटस्थ और स्वतंत्र व्यक्ति होता है। मध्यस्थ यह सुनिश्चित करता है कि पक्षों के बीच यदि कोई पूर्व उपस्थित असमान संबंध हैं तो वे बातचीत को प्रभावित नहीं करेंगे।
यह प्रक्रिया गोपनीय होती है। यह प्रक्रिया संबंधित पक्षों के बीच बेहतर और प्रभावी बातचीत को सुविधाजनक बनाती है, जो रचनात्मक और सार्थक बातचीत की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। मध्यस्थता संबंधित पक्षों के बीच के संबंधों को पुनर्स्थापति करने, सुधारने और बनाये रखने में सहायक होती है।
विवाद निवारण के प्रत्येक चरण में मध्यस्थता संबंधित पक्षों के दूरगामी और निहित हितों को ध्यान में रखती है - विकल्पों का परीक्षण करने में, नवीन विकल्प प्रस्तावित करने और विकल्पों के मूल्यांकन में, और अंततः विवाद के निराकरण में। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान सारा ध्यान वर्तमान और भविष्य पर केंद्रित किया जाता है, न कि भूतकाल पर। यह संबंधित पक्षों अवसर प्रदान करती है कि वे अपने सभी मतभेद विस्तार से सुलझा लें।
मध्यस्थ में सारा ध्यान विवाद के परस्पर लाभदायक निराकरण पर केंद्रित होता है। कई बार मध्यस्थता पक्षों के बीच मामले से संबंधित और जुडे़ हुए मामले सुलझाने में भी सहायक होती है।
मध्यस्थता विवाद निवारण में रचनात्मकता लाने में सहायक होती है। संबंधित पक्ष ऐसे रचनात्मक और गैर पारंपरिक उपायों को स्वीकार कर सकते हैं जो उनके दूरगामी और निहित हितों को संतुष्ट करते हैं, यहां कई बार वे अपने न्यायिक अधिकारों और दायित्वों को भी नजरअंदाज कर सकते हैं। जब संबंधित पक्ष सुलह की शर्तों पर स्वयं हस्ताक्षर करते हैं, जो उनके दूरगामी और निहित हितों को संतुष्ट करती हैं, तो इसका पालन करना एक जिम्मेदारी बन जाती है।
मध्यस्थता विवाद के निवारण या अंत को प्रेरित करती है। विवाद पूर्णतः और अंतिमतः सुलझ जाते हैं, क्योंकि यहां किसी अपील या पुनरीक्षण या आगे मुकदमेबाजी की कोई संभावना नहीं होती। न्यायालय द्वारा प्रेषित मध्यस्थता के मामलों में मामले के निवारण की स्थिति में नियमानुसार न्यायालयीन शुल्क वापस मिल जाता है।
4.0 पंचनिर्णय
पंचनिर्णय वैकल्पिक विवाद निवारण का एक सुस्थापित प्रकार है, और ऐसा प्रकार है जो न्यायालयीन न्यायनिर्णय को सबसे निकट से प्रतिबिंबित करता है। पंचनिर्णय तकनीकी और वाणिज्यिक विषयों से संबंधित विविध श्रेणियों के विवादों के निवारण के लिए सबसे पसंदीदा उपाय है। न्यायालयीन न्याय निर्णय की तुलना में पंचनिर्णय के प्रमुख चर हैं प्रक्रिया में अनौपचारिकता का स्तर और अपील के अधिकार की सीमा।
विवाचन एवं सुलह अधिनियम, 1996 के अधिनियमन से पहले पंचनिर्णय का कानून निम्न अधिनियमों द्वारा अधिशासित होता थाः
- 1940 का विवाचन अधिनियम,
- विवाचन विवाचन (प्रोटोकॉल एवं कन्वेंशन) अधिनियम, 1937 और
- विदेशी पंचनिर्णय (मान्यता एवं प्रवर्तन) अधिनियम, 1961
1985 में संयुक्त राष्ट्र व्यापार कानून आयोग (यूएनसीआईटीआरएएल) ने अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक पंचनिर्णय पर यूएनसीआईटीआरएएल मॉडल कानून को अपनाया। यूएनसीआईटीआरएएल मॉड़ल कानून और नियमों को ध्यान में रखते हुए संसद नो विवाचन एवं सुलह अधिनियम, 1996 अधिनियमित किया। इस अधिनियम ने घरेलू पंचनिर्णय से संबंधित कानून में व्यापक परिवर्तन किया।
नए अधिनियम के अनुच्छेद 85 के द्वारा, उपरोक्त तीन अधिनियम समाप्त हो गए। पंचनिर्णय का कानून का अद्यतन करने के अलावा अधिनियम ने सुलह के लिए एक सांविधिक रूपरेखा प्रदान की है। नए कानून के तहत पंचनिर्णय और सुलह स्वतंत्र और स्वायत्त प्रक्रियाएं बन गई हैं, जिन्हे न्यायालयों से समर्थन प्राप्त होता है, हालांकि उनके लिए न्यायालय के निरंतर पर्यवेक्षण और नियंत्रण की आवश्यकता नहीं है।
4.1 पंचनिर्णय के लाभ
वाणिज्यिक विवादों के निवारण की दृष्टि से, विशेष अंतर्राष्ट्रीय व्यापकता वाले विवादों के निवारण की दृष्टि से पंचनिर्णय एक अत्यंत प्रभावी विवाद निवारण साधन के रूप में अधिकाधिक मान्यता प्राप्त कर रहा है। खर्चीले और अत्यधिक समय लेने वाले व्यापारिक विवादों में बहुत अधिक समय और धन का व्यय होता है। अतः अधिक से अधिक कंपनियां भारतीय पंचनिर्णय परिषद की ओर आकर्षित हो रही हैं। यह न्यायिक मुकदमें की तुलना में समान न्याय अधिक शीघ्र प्रदान करता है, और वह भी अत्यल्प लागत में य मतभेद सुलझाने के लिए यह संबंधित पक्षों को अपनी मर्जी से प्रक्रिया चयन की अनुमति प्रदान करता है, साथ ही उन्हें यह तय करने की अनुमति भी प्रदान करता है कि उनके विवादों की सुनवाई कहाँ होगी।
एक परिष्कृत और सुव्यवस्थित न्यायिक व्यवस्था के साथ भारत न्यूयॉर्क समझौते में भी एक सहभागी है (पंचनिर्णय के पंचाट का प्रवर्तन), जिसके माध्यम से विश्व के लगभग सभी देशों के न्यायालयों द्वारा पंचाट के प्रवर्तन की सुविधा प्राप्त है।
4.2 भारत में पंचनिर्णय के लिए कानूनी रूपरेखा
अंतर्राष्ट्रीय पंचनिर्णय का समर्थन करने के लिए भारत में एक व्यापक, समकालीन और प्रगतिशील न्यायिक रूपरेखा विद्यमान है जो विश्व की प्रमुख और महत्वपूर्ण पंचनिर्णय संस्थाओं के समकक्ष है। पक्षों की स्वायत्तता और न्यूनतम न्यायिक हस्तक्षेप के साथ अधिकतम न्यायिक सहायता नए विवाचन एवं सुलह अधिनियम, 1996 की स्थाई विशेषतायें हैं, जो न्यूनतम हस्तक्षेप के साथ अधिकतम न्यायिक सहायता उपलब्ध कराता है।
अधिकतम न्यायालयीन समर्थनः भारतीय न्यायालय पंचनिर्णय के लिए पूर्ण समर्थन और प्रोत्साहन प्रदान करते हैं। किसी पक्ष के अनुरोध परः
- किसी पंचनिर्णय समझौते के उल्लंघन में वे मुकदमे को रोक देते हैं
- वे न्यूयॉर्क सम्मेलन देशों द्वारा किये गए विदेशी पंचनिर्णय पंचाटों का प्रवर्तन करते हैं
- भारत में होने वाले अंतर्राष्ट्रीय पंचनिर्णयों में वे पंचाटों का प्रवर्तन करते हैं
- वे विविध प्रकार के अंतरिम सुरक्षा उपाय जारी करते हैं, जिनमें निम्न उपाय शामिल हैंः
- विवाद की विषयवस्तु का संरक्षण और अंतरिम अभिरक्षा
- यथास्थिति बनाए रखने के लिए अंतरिम निषेधाज्ञा
- रिसीवर की नियुक्ति
- विवादित राशि का संरक्षण
- पंचनिर्णय के खर्च का संरक्षण
- वे ऐसी प्रक्रियाएं जारी करते हैं जिनके द्वारा गवाहों की पंचनिर्णय की प्रक्रिया में उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है
न्यूनतम न्यायालयीन हस्तक्षेपः भारतीय न्यायालय पंचनिर्णय के पंचाट के गुणदोषों की समीक्षा तब तक नहीं करते, जब तक कि इसके लिए किसी पक्ष की ओर से अनुरोध प्राप्त नहीं हुआ है, और यह हस्तक्षेप भी विवाचन अधिनियम द्वारा निर्धारित सीमित आधारों पर ही किया जाता है। उसी प्रकार एक विदेशी पंचाट की समीक्षा भी इसी प्रकार के सीमित आधारों पर की जाती है।
भारतीय पंचनिर्णय विवादित पक्षों को निम्न लाभ प्रदान करता है
- योग्य, प्रशिक्षित पंच
- समाधान की शीघ्रता
- न्यून लागत आधार
- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रवर्तनीय आदेश
5.0 लोक अदालतें
लोक अदालतों की संकल्पना विश्व न्यायशास्त्र को दिया गया एक अभिनव भारतीय योगदान है। लोक अदालतों की शुरुआत ने इस देश की न्याय दान की व्यवस्था में एक नया अध्याय शुरू किया है जिसने पीड़ितों को उनके विवादों के समाधान के लिए एक पूरक मंच प्रदान किया है। यह प्रणाली गांधीवादी सिद्धांतों पर आधारित है, और यह वैकल्पिक विवाद निवारण प्रणाली का एक महत्वपूर्ण घटक है।
न्यायिक सेवा प्राधिकार अधिनियम, 1987 लोक अदालतों के आयोजन का प्रावधान करता है। लोक अदालतें उन लंबित मामलों को निपटा सकती हैं जो इन्हें निर्धारण के लिए प्रेषित किये जाते हैं। लोक अदालतें नियमित अंतराल से आयोजित की जाती हैं, स्थाई लोक अदालतों की स्थापना के उद्देश्य से न्यायिक सेवा प्राधिकार अधिनियम को 2002 में संशोधित किया गया था। अधिनियम का अनुच्छेद स्थाई लोक अदालतों की स्थापना का प्रावधान करता है।
किसी क्षेत्र के लिए स्थापित लोक अदालत में निम्न व्यक्तियों का समावेश किया जायेगाः
- ऐसा कोई व्यक्ति जो पूर्व में जिला न्यायाधीश या अतिरिक्त जिला न्यायाधीश रहा है, या उसने किसी ऐसे न्यायिक पद पर कार्य किया है, जो पदक्रम में जिला न्यायाधीश के ऊपर का पद है। यह व्यक्ति स्थाई लोक अदालत के अध्यक्ष होंगे।
- दो ऐसे व्यक्ति जिन्हें लोक सुविधाओं का पर्याप्त अनुभव प्राप्त है। उनका नामांकन केन्द्री या राज्य प्राधिकरण की सिफारिश पर केंद्र या राज्य सरकार द्वारा किया जायेगा।
किसी विवाद के न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किये जाने से पूर्व विवाद से संबंधित कोई भी पक्ष विवाद के निराकरण के लिए स्थाई लोक अदालत के समक्ष आवेदन प्रस्तुत कर सकता है। लोक अदालत को किसी ऐसे अपराध के मामले के संबंध में क्षेत्राधिकार प्राप्त नहीं होता जो किसी भी कानून के तहत संयोजनीय नहीं है। उसे किसी ऐसे विवाद के मामले में भी क्षेत्राधिकार प्राप्त नहीं है जिसका मूल्य दस लाख रुपये से अधिक है। स्थाई लोक अदालत में आवेदन करने के बाद आवेदन करने वाला पक्ष, उसी विवाद के संबंध में किसी अन्य न्यायालय के क्षेत्राधिकार का आह्वान नहीं कर सकता।
जब लोक अदालत में आवेदन किया जाता है, तो लोक अदालत संबंधित पक्षों को विवाद और उससे जुडे़ तथ्यों के लिखित विवरण प्रस्तुत करने की मांग करेगी। लिखित विवरण प्रस्तुत होने के बाद स्थाई लोक अदालत सुलह की प्रक्रिया शुरू करेगी। स्थाई लोक अदालत संबंधित पक्षों को विवाद के सौहाद्पूर्ण समाधान तक पहुंचने में सहायता करेगी। यदि सुलह प्रक्रिया से विवाद का समाधान निकल जाता है, तो लोक अदालत एक समाधान समझौता तैयार करेगी, और उस समझौते पर संबंधित पक्षों के हस्ताक्षर प्राप्त करने के बाद, समझौते की शर्तों के तहत अपना निर्णय सुनाएगी। समझौते की एक प्रति प्रत्येक संबंधित पक्ष को प्रदान की जाएगी। यदि संबंधित पक्ष किसी समाधान तक पहुंचने में असफल होते हैं, तो स्थाई लोक अदालत विवाद के संबंध में अपना निर्णय सुनाएगी। स्थाई लोक अदालत द्वारा निर्णीत किया गया पंचाट अंतिम होगा और यह विवाद से संबंधित सभी पक्षों और उनके तहत दावा करने वाले व्यक्तियों पर बंधनकारक होगा। लोक अदालत के प्रत्येक पंचाट को एक दीवानी न्यायालय की आज्ञप्ति की मान्यता प्राप्त होगी। लोक अदालत उसके द्वारा दिए गए सभी पंचाट स्थानीय क्षेत्राधिकार प्राप्त दीवानी न्यायालय को उनके क्रियान्वयन के लिए प्रेषित करेगी।
5.1 लोक अदालतों का दायरा और प्रयोजन
न्यायिक सेवा प्राधिकार अधिनियम, 1987 के आगमन के साथ लोक अदालतों को एक सांविधिक दर्जा प्राप्त हो गया। भारत के संविधान के अनुच्छेद 39-ए की संवैधानिक अनिवार्यता के अनुसार लोक अदालतों के माध्यम विवादों के समाधान के लिए विभिन्न प्रवधान किये गए हैं।
लोक अदालतों के लिए उपयुक्त मामलेः लोक अदालतों को विभिन्न प्रकार के मामले निपटाने की क्षमता प्राप्त है, जैसेः
- संयोजनीय दीवानी, राजस्व और आपराधिक मामले।
- मोटर वाहन दुर्घटना क्षतिपूर्ति दावों के मामले
- बंटवारा दावे
- हर्जाना दावे
- वैवाहिक और पारिवारिक विवाद
- भूमि के उत्परिवर्तन मामले
- भूमि पट्टों के मामले
- बंधुआ मजदूरों के मामले
- भूमि अधिग्रहण विवाद
- बैंक ऋणों के पुनर्भुगतान से संबंधित विवादित मामले
- सेवा निवृत्ति लाभ की बकाया राशियों से संबंधित मामले
- परिवार न्यायालय के मामले
- ऐसे मामले जो न्यायाधीन नहीं हैं।
जैसा कि न्यायमूर्ति रामास्वामी ने कहा थाः ‘‘लोक अदालतों के माध्यम से मामलों को निपटाने से न केवल मुकदमे का खर्च कम होता है, बल्कि यह संबंधित पक्षों और उनके गवाहों के अमूल्य समय की भी बचत करता है, साथ ही यह प्रक्रिया दोनों पक्षों को उनकी संतुष्टि के अनुसार सस्ता और त्वरित न्याय प्राप्त करने की सुविधा भी प्रदान करती है।‘‘
स्थाई लोक अदालतः 2002 में संसद ने न्यायिक सेवा प्राधिकार अधिनियम, 1987 में कुछ संशोधन किये। इस संशोधन के माध्यम से मुकदमा पूर्व सुलह और समाधान नामक अध्याय 6-ए की शुरुआत हुई। अनुच्छेद 22-बी सार्वजनिक उपयोगिता सेवाओं से संबंधित मामलों के विचार के लिए विभिन्न स्थानों पर ‘‘स्थाई लोक अदालतों की स्थापना‘‘ का प्रावधान करता है। केंद्रीय या राज्यों के प्राधिकरण एक अधिसूचना के माध्यम से किसी भी स्थाई लोक अदालत में संबंधित सार्वजनिक उपयोगिता सेवा से संबंधित मामलों के समाधान के लिए स्थाई लोक अदालतों की स्थापना कर सकते हैं।
सार्वजनिक उपयोगिता सेवाओं में निम्न सेवाएं शामिल हैंः
- परिवहन सेवाएं
- डाक, तार या टेलीफोन सेवाएं
- जनता के लिए बिजली, रौशनी, और पानी की आपूर्ति
- सार्वजनिक सफाई या स्वच्छता व्यवस्था, और
- बीमा सेवाएं, या ऐसी कोई भी अन्य सेवाएं जो केंद्र या राज्य सरकारों द्वारा अधिसूचित की गई हैं।
स्थाई लोक अदालतों को भी वही अधिकार प्राप्त होते हैं, जो लोक अदालतों में निहित हैं। किसी भी स्थाई लोक अदालत की स्थापना राष्ट्रीय न्यायिक सेवा प्राधिकरण या राज्य न्यायिक सेवा प्राधिकरण द्वारा ही की जा सकती है। इसमें तीन सदस्य होंगे - एक अध्यक्ष, जो पूर्व में या तो जिला न्यायाधीश या अतिरिक्त जिला न्यायाधीश रहे हैं, या जिन्होंने किसी ऐसे पद पर कार्य किया हो जो जिला न्यायाधीश के पद के ऊपर का हो, और दो अन्य सदस्य, जिन्हें सार्वजनिक उपयोगिता सेवाओं के संबंध में पर्याप्त अनुभव प्राप्त है।
संबंधित सार्वजनिक उपयोगिता सेवा के अनुसार ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति संबंधित सरकारों द्वारा नामांकन के पश्चात केंद्रीय या राज्य प्राधिकरणों द्वारा की जाएगी। परंतु इस प्रकार के नामांकन केंद्रीय या राज्य प्राधिकरण की सिफारिशों के आधार पर ही किये जायेंगे।
जून 2013 तक संपूर्ण देश भर में आयोजित राष्ट्रीय लोक अदालत ने विभिन्न न्यायालयों में लंबित रिकॉर्ड़ 28.26 लाख मामलों को ‘‘प्रभावी रूप से समाप्त कर‘‘ दिया था।
6.0 राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 एक उदार सामाजिक कानून है, जो उपभोक्ता अधिकारों को निर्धारित करता है, और उपभोक्ता अधिकारों के संरक्षण को प्रोत्साहित करने का प्रावधान करता है। भारत में अपनी तरह के इस पहले और एकमात्र अधिनियम ने सामान्य उपभोक्ताओं को उनकी शिकायतों के सस्ते और आमतौर पर त्वरित निवारण की सुविधा प्रदान की है। अब तक संगठित विनिर्माताओं, वस्तु व्यापार से जुडे़ व्यापारियों और विभिन्न प्रकार की सेवाएं प्रदान करने वाले सेवा प्रदाताओं के पूर्णतः अधीन रहे बाजार में उपभोक्ताओं के अधिकारों और उनके संरक्षण के लिए उन्हें उपलब्ध उपायों के प्रचार-प्रसार के माध्यम से इस अधिनियम ने ‘‘क्रेता सावधान‘‘ की उक्ति को भूतकाल की बात बना दिया है।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत प्राप्त उपाय उन उपायों के अतिरिक्त हैं जो पीड़ित व्यक्ति/उपभोक्ता को दीवानी मुकदमे के माध्यम से पहले से ही प्राप्त है। इस अधिनियम के तहत प्रस्तुत शिकायत/अपील/याचिका के लिए उपभोक्ता को किसी प्रकार के न्यायालयीन शुल्क के भुगतान की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि उसे एक नाममात्र फीस का भुगतान करना होता है। उपभोक्ता मंच की प्रक्रिया संक्षिप्त स्वरुप की होती है। अधिनियम के प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए इसमें प्रयास यही किया जाता है कि पीडित उपभोक्ता को जहां तक संभव हो शीघ्र से शीघ्र राहत प्राप्त हो सके, क्योंकि अधिनियम मामलों के निपटारे के लिए समय सीमा निर्धारित करता है। यदि उपभोक्ता जिला उपभोक्ता मंच के निर्णय से संतुष्ट नहीं है, तो वह राज्य आयोग में अपील कर सकता है। राज्य आयोग के आदेश के विरुद्ध उपभोक्ता राष्ट्रीय आयोग के पास पहुंच सकता है।
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