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भारत में महत्वपूर्ण निकाय
1.0 प्रस्तावना
भारत के ‘‘संवैधानिक निकाय‘‘ सरकारी तंत्र के अंदर गठित स्थाई या अस्थायी संगठन होते हैं जो भारतीय संविधान के तत्संबंधी अनुच्छेदों द्वारा बनाए जाते हैं। ये निकाय विशिष्ट कार्यों के प्रशासन के लिए उत्तरदायी होते हैं। इन निकायों के कार्य आमतौर पर कार्यकारी स्वरुप के होते हैं। साथ ही, विभिन्न प्रकार के संगठनों या आयोगों का उपयोग सलाहकारी कार्यों के लिए किया जाता है। ये निकाय राष्ट्रीय महत्त्व के संगठन होते हैं, और सरकार के कार्यों को प्रभावी बनाने में सहायता प्रदान करते हैं। भारत एक ‘‘समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र‘‘ है, और स्वतंत्रता के बाद सरकार के एक भाग के रूप में स्वतंत्र निकायों का गठन देश को इन उदात्त उद्देश्यों की पूर्ति में सहायता प्रदान करने के लिए किया गया था। इन संवैधानिक या स्वतंत्र निकायों के व्यापक प्रशासनिक कार्य होते हैं। इन निकायों के प्रमुखों की नियुक्ति या तो राष्ट्रपति द्वारा की जाती है या प्रधानमंत्री के द्वारा की जाती है
2.0 वित्त आयोग (FC) (संवैधानिक निकाय)
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 280 में वित्त आयोग का एक अर्ध-न्यायिक निकाय के रूप में प्रावधान किया गया है। इसका गठन भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रत्येक पांच वर्षों में, या यदि राष्ट्रपति उचित समझें, तो इससे पहले अन्य किसी भी समय किया जा सकता है।
2.1 वित्त आयोग की रचना
वित्त आयोग में एक अध्यक्ष और चार अन्य सदस्य होते हैं जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। वे उस समय तक अपने पद पर बने रहते हैं जैसा कि राष्ट्रपति के आदेश में निर्दिष्ट किया गया है। वे पुनर्नियुक्ति के लिए भी पात्र होते हैं।
संविधान संसद को आयोग के सदस्यों की योग्यता निर्धारित करने का अधिकार प्रदान करता है, और उनकी चयन प्रक्रिया निर्धारित करने का भी अधिकार प्रदान करता है। इसी के अनुरूप संसद ने आयोग के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों की योग्यता निर्दिष्ट की है। इसका अध्यक्ष ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जिसके पास सार्वजनिक मामलों का पर्याप्त अनुभव हो, और अन्य सदस्यों का चयन निम्न व्यक्तियों में से किया जायेगाः
- उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, या ऐसे व्यक्ति जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने की योग्यता और अहर्ता रखते हैं
- ऐसे व्यक्ति जिन्हें सरकारी वित्त और सरकारी खातों का पर्याप्त विशेषज्ञ ज्ञान है
- ऐसे व्यक्ति जिन्हें वित्तीय मामलों और प्रशासनिक मामलों का व्यापक और समृद्ध अनुभव प्राप्त है
- ऐसे व्यक्ति जिन्हें अर्थशास्त्र का विशेष ज्ञान प्राप्त है
2.2 वित्त आयोग के कार्य
वित्त आयोग भारत के राष्ट्रपति को निम्न मामलों में सिफारिशें करने के लिए उत्तरदायी हैः
- केंद्र और राज्यों के बीच साझा की जाने वाली शुद्ध कर प्राप्तियों का वितरण, और ऐसी प्राप्तियों का संबंधित राज्यों के बीच उनके हिस्से का आवंटन
- केंद्र द्वारा राज्यों को प्रदान की जाने वाली अनुदान सहायता राशियों (अर्थात, भारत के संचित कोष में से) को शासित करने वाले सिद्धांतों का निर्धारण
- किसी राज्य के संचित कोष में वृद्धि करने के लिए आवश्यक उपाय, ताकि राज्य अपनी पंचायतों और नगरपालिकाओं के संसाधनों का राज्य के वित्त आयोग द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर अनुपूरण करने में सक्षम बन सके
- मजबूत वित्त व्यवस्था के हित में राष्ट्रपति द्वारा आयोग को प्रेषित किये गए अन्य मामले।
1960 तक आयोग असम, बिहार, ओड़िशा और पश्चिम बंगाल राज्यों को उन अनुदान राशियों के आवंटन के सुझाव भी केंद्र को देता था जो उन्हें जूट या जूट उत्पादों की प्रति वर्ष होने वाली शुद्ध निर्यात शुल्क प्राप्तियों के हिस्से के बदले प्रदान की जानी थीं। ये अनुदान राशियां संविधान के लागू होने के दस वर्षों तक की अस्थायी अवधि के दौरान प्रदान की जानी थीं।
आयोग अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को प्रस्तुत करता है। राष्ट्रपति इस रिपोर्ट को आयोग द्वारा की गई सिफारिशों पर की जाने वाली कार्रवाई के स्पष्टीकरणात्मक ज्ञापन के साथ संसद के दोनों सदनों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
2.3 सलाहकारी भूमिका
वित्त आयोग द्वारा की जाने वाली सिफारिशें केवल सलाह के रूप में होती हैं, अतः वे सरकार पर बंधनकारक नहीं होतीं। आयोग की सिफारिशों को लागू करना या नहीं करना यह पूर्णतः केंद्र सरकार पर निर्भर करता है।
इसी को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है, ‘‘संविधान में यह कहीं भी निर्दिष्ट नहीं किया गया है कि आयोग की सिफारिशें भारत सरकर पर बंधनकारक हैं, या ये लाभार्थी राज्यों को ऐसा कोई कानूनी अधिकार प्रदान नहीं करती हैं जिसके द्वारा वे आयोग द्वारा सिफारिश की गई राशियों को प्राप्त करने के लिए कानूनी रूप से अधिकारी हैं।‘‘
चौथे वित्त आयोग के अध्यक्ष डॉ. पी.वी. राजमन्नार ने सही टिप्पणी की है, ‘‘चूंकि वित्त आयोग एक संवैधानिक निकाय है, और इससे अर्ध न्यायिक होने की उम्मीद की जाती है, अतः केंद्र सरकार को इसकी सिफारिशों को अस्वीकार नहीं करना चाहिए जब तक कि उसके पास ऐसा करने के लिए ठोस कारण ना हों।‘‘
2.4 नियुक्त किये गए आयोग
अभी तक चौदह वित्त आयोग गठित किये जा चुके हैं। जिन वर्षों के दौरान उनका गठन किया गया था, उन्होंने अपनी रिपोर्ट कब प्रस्तुत की, और उनके क्रमशः अध्यक्षों के नाम नीचे की तालिका में दिए गए हैंः
2.5 तत्कालीन योजना आयोग का वित्त आयोग पर प्रभाव
भारत का संविधान वित्त आयोग को वित्तीय संघवाद के एक संतुलन चक्र के रूप में प्रतिपादित करता है। हालांकि केंद्र-राज्य वित्तीय संबंधों में इसकी भूमिका योजना आयोग के उभरने के कारण कमजोर होती गई है, जबकि योजना आयोग एक गैर-संवैधानिक और गैर-सांविधिक निकाय है। चौथे वित्त आयोग के अध्यक्ष डॉ. पी.वी. राजमन्नार ने संघीय वित्तीय हस्तांतरण में वित्त आयोग और योजना आयोग के बीच कार्यों और उत्तरदायित्वों के अतिव्यापी होने पर निम्न प्रकार से प्रकाश डाला हैः
‘‘वह योजना आयोग का गठन ही है जिसने व्यवहार में वित्त आयोग के क्षेत्र और इसके कार्यों को प्रतिबंधित किया है। मैं यहां ‘‘व्यवहार में‘‘ इसलिए कहता हूँ क्योंकि संविधान में ऐसा कोई संशोधन नहीं हुआ है जिसके कारण वित्त आयोग के कार्य केवल राज्य द्वारा प्रस्तुत किये गए राजस्व और व्यय के अनुमानों की समीक्षा के आधार पर प्रत्येक राज्य के राजस्व अंतराल को सुनिश्चित करने और उसकी भरपाई करने तक सीमित हो गए हैं। अनुच्छेद 275 का राज्यों के राजस्व से अनुदान सहायता का संदर्भ केवल राजस्व व्ययों तक ही सीमित नहीं है। सभी पूंजीगत अनुदानों को वित्त आयोग के कार्यक्षेत्र से बाहर करने की भी कोई कानूनी बाध्यता नहीं है य अनुच्छेद 275 के तहत राज्यों की पूंजीगत आवश्यकताओं की पूर्ति भी वित्त आयोग द्वारा की गई सिफिरशों के आधार पर अनुदान सहायता के माध्यम से की जा सकती है।
अतः कानूनी स्थिति यह है कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो वित्त आयोग को हस्तांतरण की कोई योजना बनाने और उसके अनुसार संविधान के अनुच्छेद 275 के तहत अनुदान की सिफारिशें करने के लिए राज्यों की पूंजी और राजस्व आवश्यकताओं पर विचार करने से प्रतिबंधित कर सके। परंतु योजना आयोग के गठन ने निश्चित रूप से कार्यों को अनुलिपि और अतिव्यापी करने का कार्य किया है, जिससे बचने के लिए एक ऐसी प्रथा विकसित हुई है जिसका परिणाम वित्त आयोग के कार्यों में कटौती करने में हुआ है।
क्योंकि नीति और कार्यक्रम के संबंध में संपूर्ण योजना बनाना योजना आयोग के कार्यक्षेत्र में आता है, और क्योंकि अनुदान या ऋण के माध्यम से नियोजित परियोजनाओं के लिए केंद्र द्वारा दी जाने वाली सहायता व्यवहारिक दृष्टि से योजना आयोग की सिफारिशों पर निर्भर है, अतः यह स्पष्ट है कि वित्त आयोग जैसा निकाय उसी क्षेत्र में परिचालित नहीं किया जा सकता। अब वित्त आयोग के मुख्य कार्यों में प्रत्येक राज्य के राजस्व अंतराल को निर्धारित करना और हस्तांतरण की एक योजना के माध्यम से इस अंतराल को आंशिक रूप से अनुदान के माध्यम से और आंशिक से ऋण प्रदान करके भरने के लिए सिफारिश करना शामिल है। अतः हम यह सिफारिश करते हैं कि भविष्य में वित्त आयोग से उन सिद्धांतों के बारे में सिफारिश करने के लिए कहा जाये जिनके द्वारा राज्यों को योजना अनुदान वितरित किया जायेगा। वित्त आयोग को ये सिफारिशें करने की दृष्टि से आवश्यक है कि वित्त आयोग के समक्ष योजना आयोग द्वारा तैयार की गई पंच वर्षीय योजना की रूपरेखा उपलब्ध हो। अतः वित्त आयोग की नियुक्ति के समय को इस प्रकार रखना होगा कि अपनी सिफारिशों को अंतिम रूप देने से पहले वित्त आयोग के समक्ष यह रूप रेखा उपलब्ध हो। जबकि योजना अनुदान के वितरण को शासित करने वाले सिद्धांत वित्त आयोग द्वारा निर्धारित किये जायेंगे, वहीं वर्ष-दर-वर्ष इन्हें लागू करने का कार्य योजना आयोग और संबंधित राज्य सरकारों द्वारा किया जायेगा।‘‘
3.0 राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग(NCSC) (संवैधानिक निकाय)
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग इस अर्थ में एक संवैधानिक निकाय है कि इसकी स्थापना सीधे संविधान के अनुच्छेद 338 द्वारा की गई है। दूसरी ओर, राष्ट्रीय महिला आयोग (1992), राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (1993), राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (1993), राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (1993), और राष्ट्रीय बाल अधिकार सुरक्षा आयोग (2007) जैसे आयोग इस अर्थ में सांविधिक आयोग हैं कि उनकी स्थापना संसद के अधिनियमों द्वारा की गई है।
3.1 आयोग की उत्क्रांति
प्रारंभ में संविधान के अनुच्छेद 338 में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के संवैधानिक संरक्षणों से संबंधित सभी मामलों की जांच, और उनकी कार्यप्रणाली पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति का प्रावधान था। उन्हें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयुक्त के रूप में नामित किया गया था, और उन्हें ये सारे कर्तव्य सौंपे गए थे।
1987 में सरकार ने (एक प्रस्ताव के माध्यम से) अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए एक बहु सदस्यीय गैर-सांविधिक आयोग गठित किया; अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयुक्त का अस्तित्व भी जारी रहा। 1987 में ही (एक अन्य प्रस्ताव के माध्यम से) आयोग कार्यों में संशोधन किया और इसका पुनर्नामकरण अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति आयोग के रूप में किया गया।
बाद में 1990 के 65 वें संविधान संशोधन द्वारा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए एकल विशेष अधिकारी के स्थान पर एक उच्च स्तरीय बहुसदस्यीय राष्ट्रीय आयोग की स्थापना का प्रावधान किया गया। इस संवैधानिक निकाय ने अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति आयुक्त, और 1987 द्वारा गठित आयोग का स्थान लिया।
फिर से, संविधान के 89 वें संशोधन अधिनियम, 2003 द्वारा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति संयुक्त आयोग का दो स्वतंत्र निकायों में विभाजन किया गया, जिनके नाम हैं राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (अनुच्छेद 338 के तहत) और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (अनुच्छेद 338-ए के तहत) रखे गए।
अनुसूचित जातियों के लिए स्वतंत्र आयोग 2004 में अस्तित्व में आया। इसमें एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और तीन अन्य सदस्य होते हैं। उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा अपने हस्ताक्षर और मुहर के साथ एक आदेश द्वारा की जाती है। उनकी सेवा शर्तों और कार्यकाल की अवधि का निर्धारण भी राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है।
3.2 राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के कार्य
इस आयोग के कार्य निम्नानुसार हैंः
- अनुसूचित जातियों के संवैधानिक और अन्य संरक्षणों से संबंधित सभी मामलों की छानबीन करना और उनके कार्यचालन का मूल्यांकन करना
- अनुसूचित जातियों को प्रदत्त अधिकारों और संरक्षणों की वंचितता से संबंधित विशिष्ट शिकायतों की जांच करना
- अनुसूचित जातियों के सामाजिक-आर्थिक विकास की नियोजन प्रक्रिया में भाग लेना और उनपर सलाह देना, और संघ या राज्यों के तहत उनके विकास की प्रगति का मूल्यांकन करना
- इन संरक्षणों के क्रियान्वयन बारे में राष्ट्रपति को एक वार्षिक, या जब भी आयोग को ठीक लगे ऐसे किसी भी समय, रिपोर्ट प्रस्तुत करना
- इन संरक्षणों के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए संघ या राज्यों द्वारा कौन से उपाय किये जाने चाहियें इसपर, और राष्ट्रपति द्वारा निर्दिष्ट अनुसूचित जातियों के संरक्षण, कल्याण और विकास और प्रगति से संबंधित अन्य उपायों से संबंधित सिफारिशें करना और
- राष्ट्रपति द्वारा निर्दिष्ट अनुसूचित जातियों के संरक्षण, कल्याण, विकास और प्रगति से संबंधित सभी कार्यों का निर्वहन करना।
3.3 राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की रिपोर्ट
आयोग अपनी वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करता है। आयोग ऐसे किसी भी समय अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर सकता है जब ऐसा करना आयोग की दृष्टि से आवश्यक है। राष्ट्रपति ऐसी सभी रिपोर्टें, आयोग की सिफारिशों के अनुसार की गई कार्रवाई के स्पष्टीकरण के साथ, संसद के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। इस ज्ञापन में आयोग द्वारा की गई किन्ही सिफारिशों को अस्वीकृत करने के कारणों का समावेश भी किया जाना चाहिए। राज्यों के संबंध में आयोग द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट को राष्ट्रपति द्वारा संबंधित राज्यों के राज्यपालों को भी प्रेषित किया जाता है। राज्यपाल उन रिपोर्ट को राज्य की विधानसभा के समक्ष प्रस्तुत करते हैं, जिनके साथ आयोग की सिफारिशों पर की गई कार्रवाई से संबंधित ज्ञापन भी संलग्न किया जाता है। इस ज्ञापन में भी आयोग द्वारा की गई किन्ही सिफारिशों को अस्वीकृत करने के कारणों का समावेश किया जाना आवश्यक है।
3.4 राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अधिकार
अपनी प्रक्रियाओं को विनियमित करने के अधिकार आयोग में निहित हैं।
किसी भी मामले का अन्वेषण करते समय या किसी शिकायत की जांच करते समय आयोग को मुकदमा चलाने वाले एक दीवानी न्यायालय के सभी अधिकार प्राप्त हैं, विशेष रूप से निम्नलिखित मामलों मेंः
- भारत के किसी भी भाग से किसी भी व्यक्ति को आहूत करने, उसकी उपस्थिति को प्रवर्तित करने, और शपथ पर उसका परीक्षण करने का
- किसी भी दस्तावेज की खोज और उसका प्रस्तुतीकरण
- शपथ-पत्र पर साक्ष्य स्वीकार करना
- किसी भी न्यायालय या कार्यालय से किसी भी सार्वजनिक रिकॉर्ड़ की मांग करना
- गवाहों या दस्तावेजों के परीक्षण के लिए समन जारी करना और
- राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित कोई भी अन्य मामला।
अनुसूचित जातियों को प्रभावित करने वाले सभी नीतिगत मामलों में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को आयोग से परामर्श करना आवश्यक है। साथ ही आयोग को अन्य पिछडे़ वर्गों और एंग्लो-इंडियन समुदाय के संबंध में भी इसी प्रकार के कार्यों का निर्वहन करना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, आयोग को अन्य पिछडे़ वर्गों और आंग्ल-भारतीय समुदाय के संवैधानिक और अन्य कानूनी सुरक्षा उपायों से संबंधित सभी मामलों की जांच करना, और उनके क्रियान्वयन पर राष्ट्रपति को रिपोर्ट प्रस्तुत करना भी आवश्यक है।
4.0 राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) (संवैधानिक निकाय)
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की ही तरह राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग भी इस अर्थं में एक संवैधानिक निकाय है कि इसकी स्थापना भी 2003 में संविधान के अनुच्छेद 338 के 89वें संशोधन के माध्यम से संविधान में अनुच्छेद 338-ए को प्रविष्ट करके की गई है।
4.1 अनुसूचित जनजातियों के लिए स्वतंत्र आयोग
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति आयोग 1990 के 65 वें संविधान संशोधन अधिनियम के पारित होने के बाद अस्तित्व में आया। इस आयोग की स्थापना अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को संविधान या अन्य कानूनों के तहत प्रदान किये गए सभी सुरक्षा उपायों की निगरानी करने के उद्देश्य से की गई थी।
भौगोलिक दृष्टि से और सांस्कृतिक दृष्टि से अनुसूचित जनजातियां अनुसूचित जातियों से भिन्न होती हैं। 1999 में अनुसूचित जनजातियों के कल्याण और विकास पर विशेष ध्यान देने के लिए एक नए जनजातीय मामलों के मंत्रालय का निर्माण किया गया। इस बात की आवश्यकता महसूस की गई कि जनजातीय मामलों के मंत्रालय को अनुसूचित जनजातियों से संबंधित सभी मामलों का समन्वय करना चाहिए, क्योंकि सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय के लिए इस भूमिका का निर्वहन करना प्रशासनिक दृष्टि से व्यवहार्य नहीं था।
अतः अनुसूचित जनजातियों के हितों को अधिक प्रभावी ढ़ंग से संरक्षित करने के उद्देश्य से यह सुझाव दिया गया कि विद्यमान राष्ट्रीय अनुसूचित जाति अनुसूचित्त जनजाति आयोग का विभाजन करके अनुसूचित जनजातियों के लिए एक स्वतंत्र आयोग की स्थापना की जाए। यह कार्य 2003 का 89 वां संविधान संशोधन अधिनियम पारित करके किया गया। इस अधिनियम ने अनुच्छेद 338 को आगे संशोधित करके संविधान में एक नया अनुच्छेद 338-ए प्रविष्ट किया।
स्वतंत्र राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग 2004 में अस्तित्व में आया। इसमें एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और तीन अन्य सदस्य होते हैं। इनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उनके हस्ताक्षर और मुहर के तहत जारी आदेश के द्वारा की जाती है। उनकी सेवा शर्तों और कार्यकाल की अवधि का निर्धारण भी राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है।
4.2 राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के कार्य
राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के कार्य निम्नानुसार हैंः
- अनुसूचित जनजातियों को प्रदत्त सभी संवैधानिक और कानूनी संरक्षणों से संबंधित सभी मामलों की जाँच और उनकी निगरानी करना, और उनके क्रियान्वयन का मूल्यांकन करना
- अनुसूचित जनजातियों को प्रदत्त अधिकारों और संरक्षणों की वंचितता से संबंधित विशिष्ट शिकायतों की जांच करना
- अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक विकास की नियोजन प्रक्रिया में भाग लेना और उनपर सलाह देना, और संघ या राज्यों के तहत उनके विकास की प्रगति का मूल्यांकन करना
- इन संरक्षणों के क्रियान्वयन के बारे में राष्ट्रपति को एक वार्षिक, या ऐसे किसी भी समय जब आयोग को इसकी आवश्यकता महसूस हो, एक रिपोर्ट प्रस्तुत करना
- इन संरक्षणों के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए संघ या राज्यों द्वारा कौन से उपाय किये जाने चाहियें इसपर, और राष्ट्रपति द्वारा निर्दिष्ट अनुसूचित जनजातियों के संरक्षण, कल्याण और विकास और प्रगति से संबंधित अन्य उपायों से संबंधित सिफारिशें करना और
- राष्ट्रपति द्वारा निर्दिष्ट अनुसूचित जनजातियों के संरक्षण, कल्याण, विकास और प्रगति से संबंधित सभी कार्यों का निर्वहन करना।
4.3 आयोग के अन्य कार्य
2005 में अनुसूचित जनजातियों के संरक्षण, कल्याण और विकास के संबंध में राष्ट्रपति ने आयोग के निम्नलिखित अन्य कार्य निर्दिष्ट कियेः
- वनीय क्षेत्रों में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों को लघु वनोपज के संबंध में स्वामित्व के अधिकार प्रदान करने के लिए किये जाने वाले उपाय
- कानून के अनुसार खनिज संसाधनों, जल संसाधनों इत्यादि के संबंध में जनजातीय समुदायों के अधिकारों के संरक्षण के लिए किये जाने वाले उपाय
- जनजातियों के विकास और उन्हें अधिक व्यवहार्य आजीविका प्रदान करने के लिए बनायीं जाने वाली रणनीतियों के लिए किये जाने वाले उपाय
- परियोजनाओं के कारण विस्थापित हुए जनजातीय समुदायों के राहत और पुनर्वास उपायों की प्रभावकारिता में सुधार के लिए किये जाने वाले उपाय
- जनजातियों के लोगों में भूमि के हस्तांतरण की भावना निर्मित होने से रोकने के लिए किये जाने वाले उपाय, और जिन जनजातियों का भूमि से पहले ही विस्थापन हो चुका है उनके प्रभावी पुनर्वास के लिए किये जाने वाले उपाय
- वनों के संरक्षण और सामाजिक वनीकरण के कार्यों में जनजातीय समुदायों का अधिक से अधिक सहयोग प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले उपाय
- पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों का विस्तारण) अधिनियम, 1996 प्रावधानों का पूर्ण कियान्वयन सुनिश्चित करने के लिए किये जाने वाले उपाय
- जनजातियों द्वारा अपनायी जाने वाली हस्तांतरण .षि की पद्धति को कम करने और अंततः उसे पूर्ण रूप से समाप्त करने के लिए किये जाने वाले उपाय, जिसके कारण उनका निरंतर निःशक्तिकरण हो रहा है, और भूमि और पर्यावरण का अपक्षय हो रहा है
राष्ट्रपति ऐसी सभी रिपोर्ट, आयोग की सिफारिशों के अनुसार की गई कार्रवाई के स्पष्टीकरण के साथ, संसद के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। इस ज्ञापन में आयोग द्वारा की गई किन्ही सिफारिशों को अस्वीकृत करने के कारणों का समावेश भी किया जाना चाहिए।
राज्यों के संबंध में आयोग द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट को राष्ट्रपति द्वारा संबंधित राज्यों के राज्यपालों को भी प्रेषित किया जाता है। राज्यपाल उन रिपोर्ट को राज्य की विधानसभा के समक्ष प्रस्तुत करते हैं, जिनके साथ आयोग की सिफारिशों पर की गई कार्रवाई से संबंधित ज्ञापन भी संलग्न किया जाता है। इस ज्ञापन में भी आयोग द्वारा की गई किन्ही सिफारिशों को अस्वीकृत करने के कारणों का समावेश किया जाना आवश्यक है।
4.4 राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अधिकार
अपनी प्रक्रियाओं को विनियमित करने के अधिकार आयोग में निहित हैं
किसी भी मामले का अन्वेषण करते समय या किसी शिकायत की जांच करते समय आयोग को मुकदमा चलाने वाले एक दीवानी न्यायालय के सभी अधिकार प्राप्त हैं, विशेष रूप से निम्नलिखित मामलों मेंः
- भारत के किसी भी भाग से किसी भी व्यक्ति को आहूत करने, उसकी उपस्थिति को प्रवर्तित करने, और शपथ पर उसका परीक्षण करने का
- किसी भी दस्तावेज की खोज और उसका प्रस्तुतीकरण
- शपथ-पत्र पर साक्ष्य स्वीकार करना
- किसी भी न्यायालय या कार्यालय से किसी भी सार्वजनिक रिकॉर्ड़ की मांग करना
- गवाहों या दस्तावेजों के परीक्षण के लिए समन जारी करना और
- राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित कोई भी अन्य मामला।
अनुसूचित जनजातियों को प्रभावित करने वाले सभी नीतिगत मामलों में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को आयोग से परामर्श करना आवश्यक है।
5.0 भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अधिकारी (संवैधानिक निकाय)
5.1 संवैधानिक प्रावधान
प्रारंभ में भारत के संविधान में भाषाई अल्पसंख्यकों के संदर्भ में किसी विशेष अधिकारी की नियुक्ति का प्रावधान नहीं किया गया था। बाद में राज्य पुनर्रचना आयोग (1953-55) द्वारा इस संदर्भ में सिफारिश की गई थी। तदनुसार सातवें संविधान संशोधन अधिनियम, 1956 द्वारा संविधान के खंड़ 17 में नए अनुच्छेद 350-बी की प्रविष्टि की गई। इस अनुच्छेद में निम्न प्रावधान समाविष्ट हैंः
- भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए एक विशेष अधिकारी होना चाहिए। उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी।
- विशेष अधिकारी की यह जिम्मेदारी होगी कि वह संविधान द्वारा भाषाई अल्पसंख्यकों को प्रदान किये गए संरक्षणों से संबंधित सभी मामलों की जाँच करेंगे। इन मामलों की रिपोर्ट वे राष्ट्रपति को राष्ट्रपति द्वारा निर्दिष्ट अंतराल में प्रस्तुत करेंगे। राष्ट्रपति ऐसी सभी रिपोर्ट्स संसद के दोनों सदनों के समक्ष प्रस्तुत करेंगे और संबंधित राज्यों की सरकारों को प्रेषित करेंगे।
यहां यह तथ्य विचारणीय है कि संविधान में भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए नियुक्त विशेष अधिकारी की योग्यताओं, कार्यकाल की अवधि, वेतन एवं भत्तों, सेवा शर्तों, और उन्हें पद से हटाने की प्रक्रिया के संबंध में कोई प्रावधान नहीं किये गए हैं।
5.2 भाषाई अल्पसंख्यकों के आयुक्त
संविधान के अनुच्छेद 350-बी के प्रावधानों के अनुसार 1957 में भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अधिकारी के कार्यालय का निर्माण किया गया। इन्हें भाषाई अल्पसंख्यक आयुक्त के नाम से जाना जाता है। आयुक्त का मुख्यालय इलाहाबाद (उत्तरप्रदेश) में स्थित है। इसके तीन क्षेत्रीय कार्यालय बेलगांव (कर्नाटक), चेन्नई (तमिलनाडु) और कोलकाता (पश्चिम बंगाल) में स्थित हैं। इन प्रत्येक क्षेत्रीय कार्यालयों के प्रमुख सहायक आयुक्त हैं।
मुख्यालय पर आयुक्त की सहायता के लिए एक उपायुक्त और एक सहायक आयुक्त नियुक्त किये गए हैं। वे राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा नियुक्त नोड़ल अधिकारीयों के माध्यम से राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों के साथ संपर्क बनाये रखते हैं। केंद्रीय स्तर पर आयुक्त अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के तहत आते हैं। अतः वे राष्ट्रपति को अपनी वार्षिक रिपोर्ट और अन्य रिपोर्ट्स अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के माध्यम से भेजते हैं। वर्तमान में इस पद पर नियुक्ति नहीं हुई है।
5.3 भूमिका
आयुक्त ऐसे सभी मामलों को देखते हैं जो संवैधानिक दृष्टि से और राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत योजना के तहत भाषाई अल्पसंख्यकों को प्रदान किये गए संरक्षण के क्रियान्वयन नहीं होने के कारण उत्पन्न होते हैं, जो उनके संज्ञान में आते हैं या राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के सर्वोच्च राजनीतिक या प्रशासनिक स्तर के भाषाई अल्पसंख्यक व्यक्तियों, समूहों, संघों या संगठनों द्वारा उनकी जानकारी में लाये जाते हैं, और वे इनपर की जाने वाली कार्रवाई के विषय में सिफारिशें करते हैं।
भाषाई अल्पसंख्यकों के संरक्षण और प्रोत्साहन के लिए केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों से अनुरोध किया है कि वे भाषाई अल्पसंख्यकों को प्रदान किये गए संरक्षणों का व्यापक प्रचार-प्रसार करें, और इसके लिए आवश्यक प्रशासनिक उपाय करें। राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों से आग्रह किया गया है कि वे भाषाई अल्पसंख्यकों को प्रदान किये गए संरक्षण की योजनाओं को सर्वोच्च प्राथमिकता से क्रियान्वित करें। भाषाई अल्पसंखयकों की भाषा और संस्कृति के संरक्षण के लिए किये जा रहे सरकारी प्रयासों को नई निविष्टियां प्रदान करने के लिए आयुक्त ने एक 10 सूत्री कार्यक्रम की शुरुआत की है।
5.4 दूरदृष्टि और विशेष कार्य
दूरदृष्टि (विज़न)
भाषाई अल्पसंख्यकों को संविधान द्वारा प्रदत्त संरक्षण के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए क्रियान्वयन तंत्र और इसकी पद्धतियों को सुसंगत बनाना, ताकि अल्पसंख्यक भाषा बोलने वालों के अधिकारों का संरक्षण सुनिश्चित किया जा सके, और उन्हें समावेशी और एकीकृत विकास के समान अवसर उपलब्ध हो सकें।
विशेष कार्य (मिशन)
भाषाई अल्पसंख्यकों को समावेशी विकास के समान अवसर प्रदान करने के लिए संवैधानिक संरक्षण और राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत योजना का राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित करना।
5.5 कार्य एवं उद्देश्य
अधिक विस्तार से आयुक्त के कार्य एवं उद्देश्य निम्नानुसार हैंः
कार्य
- भाषाई अप्ल्संख्यकों को प्रदान किये गए संरक्षण से संबंधित सभी मामलों की जांच करना
- भाषाई अल्पसंख्यकों को प्रदान किये गए संवैधानिक संरक्षण और राष्ट्रीय स्तर पर स्वीत योजना के क्रियान्वयन की स्थिति के बारे में राष्ट्रपति को रिपोर्ट प्रस्तुत करना
- प्रश्नावलियों, दौरों, सम्मेलनों, कार्यशालाओं, बैठकों, समीक्षा तंत्रों इत्यादि के माध्यम से संरक्षण के क्रियान्वयन की निगरानी करना
उद्देश्य
- समावेशी विकास और राष्ट्रीय एकात्मता के लिए भाषाई अल्पसंख्यकों को समान अवसर प्रदान करना
- भाषाई अल्पसंख्यकों के बीच उन्हें प्राप्त संरक्षण के विषय में जागरूकता का प्रचार-प्रसार करना
- भाषाई अल्पसंख्यकों को संविधान द्वारा प्रदत्त संरक्षण और राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा स्वीकृत अन्य संरक्षण के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करना
- भाषाई अल्पसंख्यकों के संरक्षण से संबंधित शिकायतों के निराकरण के लिए प्राप्त अभ्यावेदनों का निपटारा करना
6.0 भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग - CAG) (संवैधानिक निकाय)
भारत का संविधान (अनुच्छेद 148) भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) के एक स्वतंत्र कार्यालय का प्रावधान करता है। वे भारतीय लेखा परीक्षण एवं लेखा विभाग के प्रमुख होते हैं। वे सार्वजनिक धन के अभिभावक होते हैं और केंद्र और राज्य, दोनों स्तरों पर संपूर्ण वित्तीय व्यवस्था को नियंत्रित करते हैं। उनका कर्तव्य है वित्तीय प्रशासन में भारत के संविधान और संसद के कानूनों की मर्यादा को बनाये रखना। यही कारण था कि डॉ. बी.आर. आंबेड़कर ने कहा था कि कैग भारतीय संविधान के तहत सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी होंगे। वे भारत सरकार की लोकतान्त्रिक व्यवस्था के कवचों में से एक हैं; इसके अलावा अन्य हैं सर्वोच्च न्यायालय, निर्वाचन आयोग और संघ लोक सेवा आयोग।
6.1 नियुक्ति एवं कार्यकाल की अवधि
कैग की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा उनके हस्ताक्षर और मुहर के तहत एक आदेश के द्वारा की जाती है। अपना कार्यभार ग्रहण करने से पहले कैग राष्ट्रपति के समक्ष एक शपथ या प्रतिज्ञान लेते हैंः
- भारत के संविधान के प्रति सच्ची निष्ठां और श्रद्धा रखेंगे
- भारत की संप्रभुता और एकात्मता को बनाये रखेंगे
- वे अपने कर्तव्य अपनी पूर्ण क्षमता, ज्ञान और मूल्यांकन के अनुसार बिना किसी भय या अनुग्रह, अनुराग या दुर्भावना के श्रद्धापूर्वक निष्पादित करेंगे और
- संविधान और कानून का पालन करेंगे।
वे अपने पद पर छह वर्षों तक या 65 वर्ष की आयु तक, इनमें से जो भी पहले हो, बने रहेंगे। वे अपना कार्यकाल पूर्ण होने से पहले किसी भी समय अपना त्यागपत्र राष्ट्रपति को संबोधित करके प्रस्तुत कर सकते हैं। राष्ट्रपति द्वारा उन्हें भी उसी प्रक्रिया के तहत हटाया जा सकता है जो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के लिए अपनायी जाती है। दूसरे शब्दों में, सिद्ध दुर्व्यवहार या अक्षमता के आधार पर उन्हें उनके पद से संसद के दोनों सदनों द्वारा इस उद्देश्य से विशेष बहुमत द्वारा पारित एक प्रस्ताव के आधार पर राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है।
6.2 स्वतंत्रता
कैग की स्वतंत्रता संरक्षित और सुनिश्चित करने के लिए संविधान में निम्न प्रावधान किये गए हैंः
- उन्हें कार्यकाल की अवधि की सुरक्षा प्रदान की गई है। उन्हें संविधान में उल्लिखित प्रक्रिया के अनुसार ही राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है। इस प्रकार, वे राष्ट्रपति की इच्छा के अनुसार अपने पद पर नहीं बने रहते, हालांकि उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। (यह एक महत्वपूर्ण सुरक्षा उपाय है)
- अपने पद से निवृत्त होने के बाद वे केंद्र सरकार के तहत या किसी भी राज्य सरकार के तहत किसी भी अधिकार के पद पर नहीं रह सकते।
- उनका वेतन और अन्य सेवा शर्तें संसद द्वारा निर्धारित होते हैं। उनका वेतन सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के वेतन के समकक्ष होता है।
- उनकी नियुक्ति के बाद उनके वेतन, या उनके अवकाश लेने के अधिकार, निवृत्ति वेतन, या सेवा निवृत्ति की आयु में किसी भी प्रकार का ऐसा संशोधन नहीं किया जा सकता जो उनके लिए हानिकारक हो।
- भारतीय लेखा परीक्षण एवं लेखा विभाग में कार्यरत कर्मचारियों की सेवा शर्तों और कैग के प्रशासनिक अधिकारों का निर्धारण राष्ट्रपति द्वारा कैग की सलाह के बाद किया जाता है।
- कैग के कार्यालय के प्रशासनिक व्यय, जिनमें उस कार्यालय में कार्यरत सभी कर्मचारियों के वेतन, भत्ते और निवृत्ति वेतन शामिल हैं, भारत के संचित कोष पर प्रभारित किये जाते हैं। इस प्रकार वे संसद के मतदान के अधीन नहीं होते।
साथ ही, कोई भी मंत्री संसद में (दोनों सदनों में) कैग का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, और किसी भी मंत्री को कैग द्वारा की गई कार्रवाई के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
6.3 उत्तरदायित्व एवं अधिकार
भारत का संविधान (अनुच्छेद 149) संसद कैग के संघ और राज्यों के या किसी भी अन्य प्राधिकरण या निकाय के लेखा संबंधी कर्तव्यों और अधिकारों को निर्धारित करने का अधिकार प्रदान करता है। तदनुसार, संसद ने कैग (कर्तव्य, अधिकार और सेवा शर्तें) अधिनियम, 1971 को अधिनियमित किया है। इस अधिनियम में केंद्र सरकार में लेखा एवं लेखा परिक्षण को पृथक करने के लिए 1976 में संशोधन किया गया था।
संसद और संविधान द्वार निर्धारित किये गए कैग के कर्तव्य एवं अधिकार निम्नानुसार हैंः
- वे भारत की संचित निधि, सभी राज्यों और ऐसे केंद्र शासित प्रदेशों के, जहां विधानसभाएं हैं, संचित निधियों से संबंधित व्ययों के खातों का लेखा परीक्षण करते हैं।
- वे भारत की आकस्मिकता निधि और सभी राज्यों की आकस्मिकता निधियों और सार्वजनिक खातों में से किये गए सभी व्ययों का लेखा परीक्षण करते हैं।
- वे केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के सभी विभागों के सभी व्यापार खातों, लाभ-हानि खातों, तुलन पत्रों और पूरक खातों का लेखा परीक्षण करते हैं।
- वे केंद्र और सभी राज्यों की प्राप्तियों और व्ययों का इस उद्देश्य से लेखा परीक्षण करते हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनके संदर्भ में बनाये गए सभी नियम और प्रक्रियाएं राजस्व के मूल्यांकन, संग्रहण और उचित आवंटन पर प्रभावी नियंत्रण को सुनिश्चित करते हैं।
- वे निम्न संस्थाओं की प्राप्तियों और व्ययों का लेखा परीक्षण करते हैंः
- केंद्र या राज्यों के राजस्व से पर्याप्त वित्तपोषण प्राप्त सभी निकायों और प्राधिकरणों;
- सरकारी कंपनियों; और
- अन्य निगमों एवं निकायों, जब संबंधित कानूनों के द्वारा आवश्यक हो।
- वे केंद्र और राज्य सरकारों के कर्ज, निक्षेप निधि, जमाओं, ऋणों, उंचत खातों और प्रेषण व्यापार के सभी लेनदेनों का लेखा परीक्षण करते हैं। राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद, या राष्ट्रपति के आदेशानुसार वे प्राप्तियों, शेयर एवं अन्य खातों का लेखा परीक्षण भी करते हैं।
- राष्ट्रपति या राज्यपाल के अनुरोध पर वे अन्य प्राधिकरणों के खातों का लेखा परीक्षण भी करते हैं। उदाहरणार्थ स्थानीय निकायों का लेखा परीक्षण।
- वे राष्ट्रपति को इस विषय में सलाह भी प्रदान करते हैं कि केंद्र और राज्यों के खाते किस प्रकार से रखे जाने चाहियें (अनुच्छेद 150)।
- केंद्र सरकार से संबंधित खातों की लेखा परीक्षण रिपोर्ट वे राष्ट्रपति को प्रस्तुत करते हैं, जो इसे संसद के दोनों सदनों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं (अनुच्छेद 151)।
- राज्य सरकार से संबंधित खातों की लेखा परीक्षण रिपोर्ट वे राज्य के राज्यपाल को प्रस्तुत करते हैं, जो इसे राज्य की विधानसभा के समक्ष प्रस्तुत करते हैं (अनुच्छेद 151)।
- वे किसी भी कर या शुल्क की शुद्ध प्राप्तियों की जांच करते हैं और उसे प्रमाणित करते हैं (अनुच्छेद 279)। उनका प्रदान किया हुआ प्रमाणपत्र अंतिम होता है। कर या शुल्क की ‘‘शुद्ध प्राप्ति’’ का अर्थ है कुल प्राप्ति में से संग्रहण लागत को घटाने के बाद बची हुई राशि।
- वे संसद की लोक लेखा समिति के मार्गदर्शक, मित्र और दार्शनिक के रूप में कार्य करते हैं।
- वे राज्य सरकारों के खातों का संकलन करते हैं और उन्हें बनाये रखते हैं। 1976 में उन्हें केंद्र सरकार के खातों के संकलन और उन्हें बनाये रखने के कार्य से मुक्त कर दिया गया था, क्योंकि उसी वर्ष लेखा और लेखा परीक्षण का पृथक्करण किया गया था, अर्थात खातों का विभागीकरण।
कैग राष्ट्रपति को तीन लेखा परीक्षण रिपोर्ट्स प्रस्तुत करते हैं - (1) विनियोग खातों की लेखा परीक्षण रिपोर्ट, (2) वित्त खातों की लेखा परीक्षण रिपोर्ट, और (3) सार्वजनिक उपक्रमों की लेखा परीक्षण रिपोर्ट। राष्ट्रपति इन सभी रिपोर्ट को संसद के दोनों सदनों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। इसके बाद लोक लेखा समिति उनकी जांच करती है और अपने निष्कर्ष संसद को प्रेषित करती है।
विनियोग खाते वास्तविक व्यय की तुलना उस व्यय से करते हैं जो संसद द्वारा विनियोग अधिनियम के माध्यम से मंजूर किये गए हैं, जबकि वित्तीय खाते केंद्र सरकार की वार्षिक प्राप्तियों और आवंटन की राशियों को दर्शाते हैं।
6.4 भूमिका
कैग की भूमिका वित्तीय प्रशासन के क्षेत्र में भारत के संविधान और संसद के कानूनों की गरिमा को बनाये रखने की है। वित्तीय प्रशासन के क्षेत्र में कार्यपालिका (अर्थात, मंत्री परिषद) की संसद के प्रति जवाबदेही कैग की रिपोर्ट के माध्यम से निर्धारित होती है। कैग संसद के प्रतिनिधि होते हैं, और संसद की ओर से व्ययों का लेखा परीक्षण करते हैं। अतः वे केवल संसद के प्रति उत्तरदायी हैं।
कैग को प्राप्तियों, भंड़ारों और स्टॉक की तुलना में व्ययों के लेखा परीक्षण में अधिक स्वतंत्रता प्राप्त है। जहां व्ययों के बारे में वे लेखा परीक्षण के क्षेत्र और अपने स्वयं की लेखा परीक्षण संहिताओं और नियमावलियों का निर्धारण करते हैं, वहीं अन्य लेखा परीक्षण के मामले में उन्हें लेखा परीक्षण के नियमों और पद्धति के अनुमोदन के लिए कार्यपालिका पर निर्भर रहना पड़ता है।
कैग को ‘‘यह निर्धारित करना होता है कि खातों में दर्शाया गया वितरित धन कानूनी रूप से उपलब्ध था और वह उसी सेवा या प्रयोजन के लिए व्यय किया गया था जिसके लिए उसका आवंटन या उसे प्रभारित किया गया था, साथ ही उस धन को शासित करने वाले प्राधिकरण के अनुरूप है अथवा नहीं।‘‘ इस कानूनी और विनियामक लेखा परीक्षण के अतिरिक्त कैग औचित्य लेखा परीक्षण भी कर सकता है, अर्थात, वह सरकारी व्यय की ‘‘बुद्धिमत्ता, सत्यता और मितव्ययिता‘‘ का परीक्षण भी कर सकते हैं, और वे सरकती धन के व्यर्थ और अपव्यय पर भी टिप्पणी कर सकते हैं। हालांकि कानूनी और विनियामक लेखा परीक्षण के विपरीत, जो कैग के लिए अनिवार्य है, औचित्य लेखा परीक्षण विवेकाधीन है।
कैग की लेखा परीक्षण भूमिका में गोपनीय सेवा व्यय एक रूकावट है। इस मामले में कैग कार्यकारी अभिकरणों द्वारा किये गए व्यय की जानकारी नहीं मांग सकते, बल्कि उन्हें सक्षम प्रशासनिक अधिकारी द्वारा प्रदान किये गए प्रमाणपत्र को स्वीकार करना पड़ता है, कि संबंधित व्यय उसके अधिकार के तहत किया गया है।
संविधान में कैग की भूमिका एक नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के रूप में निर्धारित की गई है। हालांकि व्यवहार में कैग केवल महालेखा परीक्षक की भूमिका ही निभा रहा है, और नियंत्रक के रूप में उसकी भूमिका नहीं है। दूसरे शब्दों में, ‘‘संचित कोष से धन जारी करने के मामले में कैग का कोई नियंत्रण नहीं है, और अनेक विभागों को कैग से विशिष्ट अधिकार प्राप्त किये बिना भी चेक जारी करके धन निकालने का अधिकार प्राप्त है, कैग का संबंध केवल लेखा परीक्षण के समय आता है, जब कि संबंधित धन का व्यय पहले ही हो चुका होता है।‘‘ इस संबंध में भारत का कैग ब्रिटेन के कैग से पूर्णतः भिन्न है, जिनके पास नियंत्रक और महालेखा परीक्षक, दोनों अधिकार हैं। दूसरे शब्दों में, ब्रिटेन में कार्यपालिका सरकारी राजकोष से धन केवल कैग के अनुमोदन के बाद ही निकाल सकती है।
6.5 कैग और निगमसार्वजनिक निगमों के लेखा परीक्षण के संबंध में कैग की भूमिका अत्यंत सीमित है। व्यापक रूप से कहा जाए तो सार्वजनिक निगमों के संबंध में उनका संबंध निम्न तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता हैः
- कुछ निगमों का पूर्ण और सीधा लेखा परीक्षण कैग द्वारा किया जाता है। उदाहरणार्थ, दामोदर घाटी निगम, तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम, एयर इंडिया, इंडियन एयरलाइन्स इत्यादि।
- कुछ अन्य निगमों का लेखा परिक्षण निजी पेशेवर लेखा परीक्षकों द्वारा किया जाता है, जिनकी नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा कैग की सलाह के अनुसार की जाती है। यदि आवश्यक हुआ तो कैग इनका पूरक लेखा परीक्षण कर सकता है। इसके उदाहरण हैं केंद्रीय वेयरहाउसिंग निगम, औद्योगिक वित्त निगम एवं अन्य।
- कुछ अन्य निगम हैं जो पूर्णतः निजी लेखा परीक्षण पर निर्भर हैं। दूसरे शब्दों में, उनका लेखा परीक्षण पूर्णतः निजी पेशेवर लेखा परीक्षकों द्वारा किय जाता है, और इसमें कैग की कोई भी भूमिका नहीं होती। वे अपनी वार्षिक रिपोर्ट सीधे संसद को प्रस्तुत करते हैं। ऐसे निगमों के उदाहरण हैं भारतीय जीवन बीमा निगम, भारतीय रिजर्व बैंक, भारतीय स्टेट बैंक, भारतीय खाद्य निगम, इत्यादि।
सरकारी कंपनियों के लेखा परीक्षण के मामले में भी कैग की लेखा परीक्षण की भूमिका सीमित है। उनका लेखा परीक्षण कैग की सलाह से सरकार द्वारा नियुक्त निजी लेखा परीक्षकों द्वारा किया जाता है। इन कंपनियों के मामले में भी कैग केवल पूरक लेखा परीक्षण या जांच लेखा परीक्षण ही कर सकता है।
1968 में कैग के सहायक कार्यालय के रूप में एक लेखा परीक्षण बोर्ड़ की स्थापना की गई थी, जिसके माध्यम से कैग अभियांत्रिकी, लोहा एवं इस्पात, रसायन इत्यदि जैसे विशेषज्ञ उद्योगों के लेखा परीक्षण के तकनीकी पहलूओं के लिए बाहरी विशेषज्ञों की सहायता ले सकता है। इस बोर्ड़ की स्थापना प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों के आधार पर की गई थी। इसमें कैग द्वारा नियुक्त एक अध्यक्ष और दो अन्य सदस्य होते हैं।
6.6 एप्पलबी की आलोचना
भारतीय प्रशासन पर अपनी रिपोर्ट में पॉल. एच. एप्पलबी ने कैग की भूमिका पर काफी आलोचनात्मक टिप्पणी की है, और उन्होंने उनके कार्य के महत्त्व पर प्रहार किया है। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि कैग को इसके लेखा परीक्षण के कार्य की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में, उन्होंने कैग के कार्यालय की समाप्ति की सिफारिश की थी। भारतीय लेखा परीक्षण पर उनकी आलोचना के प्रमुख बिंदु निम्नानुसार थेः
- भारत में कैग का कार्य व्यापक रूप से औपनिवेशिक शासन की विरासत भर है।
- आज कैग निर्णय लेकर कार्य करने की व्यापक और लकवाग्रस्त अनिच्छा का कारण बन गया है। लेखा परीक्षण का एक नकारात्मक और दमनकारी प्रभाव पड़ रहा है।
- संसद की ऐसी अतिवादी धारणा है कि लेखा परीक्षण संसदीय जिम्मेदारी है, अतः भारतीय संविधान की कैग के कार्यों के प्रति जो मंशा थी उसके अनुरूप कैग के कार्यों का निर्धारण करने में संसद पूर्णतः विफल रही है।
- वास्तव में कैग का कार्य कोई बहुत अधिक महत्वपूर्ण कार्य नहीं है। क्योंकि लेखा परीक्षक सुशासन के बारे में बहुत कम जानकारी रखते हैं, और अधिक जानकारी रखने की उनसे उम्मीद भी नहीं की जाती।
- लेखा परीक्षक यह जानते हैं कि लेखा परीक्षण क्या है, जो प्रशासन नहीं है; यह एक आवश्यक परंतु अत्यंत साधारण कार्य है, जिसकी अत्यंत संकुचित अवधारणा और अत्यंत सीमित उपयोग है।
- किसी विभाग का उप सचिव भी कैग और उनके संपूर्ण कार्यालयीन कर्मचारियों की तुलना में अपने विभाग की समस्याओं के बारे में अधिक जानकारी रखता है।
7.0 संघ लोक-सेवा आयोग (सं.लो.से.आ.-UPSC) (संवैधानिक निकाय)
श्रेष्ठ लोक सेवाओं का भारतीयकरण राजनीतिक आंदोलन की एक प्रमुख मांग बन गई थी, जिसके कारण इस क्षेत्र में लोकसेवा भर्तियों के लिए एक लोकसेवा आयोग का गठन ब्रिटिश भारतीय सरकार की मजबूरी बन गया। पहला लोकसेवा आयोग 1 अक्टूबर 1926 को गठित हुआ था। हालांकि इसके सीमित सलाहकारी कार्य लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति करने में असफल हुए, और इस पहलू पर हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के नेतृत्व के निरंतर दबाव का परिणाम भारत शासन अधिनियम, 1935 के तहत एक संघीय लोक सेवा आयोग के गठन में हुआ। इस अधिनियम के तहत पहली बार प्रांतीय स्तर पर भी लोक सेवा आयोगों के गठन का प्रावधान किया गया।
स्वतंत्रता के बाद संविधान सभा को संघ और प्रांतीय, दोनों स्तरों पर लोक सेवा आयोग को एक सुरक्षित और स्वायत्त दर्जा प्रदान करने की आवश्यकता महसूस हुई ताकि लोक सेवाओं में निष्पक्ष भर्तियां और सेवा हितों का संरक्षण सुनिश्चित किया जा सके। 26 जनवरी 1950 को स्वतंत्र भारत के लिए एक नए संविधान की उद्घोषणा के साथ ही संघीय लोक सेवा आयोग को एक संवैधानिक निकाय का दर्जा प्रदान किया गया और इसका नाम संघ लोक सेवा आयोग कर दिया गया।
संघ लोक सेवा आयोग की स्थापना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 315 के तहत की गई है। इस आयोग में एक अध्यक्ष और दस अन्य सदस्य होते हैं। आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की सेवा शर्तें संघ लोक सेवा आयोग (सदस्य) विनियम, 1969 द्वारा शासित होती हैं।
आयोग की सहायता के लिए इसे एक सचिवालय प्रदान किया गया है, जिसके प्रमुख एक सचिव होते हैं जिनकी सहायता के लिए दो अतिरिक्त सचिव, बड़ी संख्या में संयुक्त सचिव, उप सचिव और सहायक कर्मचारीवर्ग होता है।
संविधान के तहत संघ लोक सेवा आयोग को निम्नलिखित दायित्व और भूमिकाएं सौंपी गई हैंः
- प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से संघ के तहत सेवाओं और पदों पर भर्तियां एवं नियुक्तियां;
- साक्षात्कारों के माध्यम से केंद्र सरकार के तहत सेवाओं और पदों पर भर्तियां एवं नियुक्तियां;
- पदोन्नति या प्रतिनियुक्तियों पर स्थानांतरण पर नियुक्तियों के संबंध में योग्यता पर सलाह प्रदान करना;
- विभिन्न सेवाओं और पदों पर भर्तियों और नियुक्तियों के तरीकों के मामले में सरकार को सलाह प्रदान करना;
- विभिन्न लोक सेवाओं में अनुशासन से संबंधित मामले; और
- असाधारण निवृत्ति वेतन प्रदान करना, न्यायिक व्ययों की प्रतिपूर्ति इत्यादि से संबंधित विविध मामले।
आयोग की मुख्य भूमिका विभिन्न केंद्रीय लोक सेवाओं और पदों और संघ और राज्यों के लिए समान (अर्थात अखिल भारतीय) सेवाओं के लिए उपयुक्त और योग्य व्यक्तियों के चयन की होती है।
8.0 भारत के महान्यायवादी (AG) (संवैधानिक निकाय)
भारतीय संविधान की धारा-76 में भारत में महान्यायवादी के पद का सृजन किया गया है। वह भारत में सर्वोच्च न्यायिक अधिकारी माना गया है।
8.1 नियुक्ति तथा शर्तें
भारत में महान्यायवादी की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। इस पद पर नियुक्त किये जाने वाले व्यक्ति की योग्यता सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान होनी चाहिए।
भारतीय संविधान के अनुसार महान्यायवादी पद हेतु कोई अवधि निश्चित नहीं की गई है। इसके अतिरिक्त, संविधान में उसे पदच्युत करने की किसी प्रक्रिया का भी उल्लेख नहीं है। वह राष्ट्रपति की इच्छानुसार पद पर रह सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि राष्ट्रपति उसे किसी भी समय पद से हटा सकते हैं। वह भी किसी भी समय अपना त्यागपत्र राष्ट्रपति को सौंपकर पद छोड़ सकता है।
परम्परागत रूप से, वह मंत्रीपरिषद के साथ ही त्यागपत्र देता हैं, क्योंकि वह मंत्री परिषद की सलाह पर ही नियुक्त किया जाता है।
8.2 कर्तव्य एवं दायित्व
भारत के मुख्य न्यायिक अधिकारी होने के नाते, महान्यायवादी के कर्तव्य निम्नानुसार हैः
- भारत सरकार को उन वैधानिक मामलों में सलाह देना, जिसे राष्ट्रपति के द्वारा अवलोकनार्थ उसके पास भेजा गया हो।
- वैधानिक प्रवृत्तियों के उन सब कर्तव्यों का निर्वहन करना जो राष्ट्रपति द्वारा उसे भेजे गये हों।
- उन सारे कर्तव्यों का पालन करना जो संविधान द्वारा महान्यायावादी के लिए सुनिश्चित हैं।
भारत के राष्ट्रपति ने महान्यायावादी के लिए निम्नलिखित कर्तव्य सुनिश्चित किये हैः
- भारत सरकार से संबंधित उन सभी मामलों में, जिनमें भारत सरकार एक पक्ष हो, सरकार की ओर से उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत होना।
- संविधान की धारा 143 के अंतर्गत भारत सरकार का प्रतिनिधित्व उच्चतम न्यायालय द्वारा करना।
- जब भारत सरकार को आवश्यकता हो तब वह किसी भी मामले को लेकर सरकार की ओर से किसी भी उच्च न्यायालय में प्रस्तुत हो।
8.3 अधिकार और सीमाएं
अपने कार्यालयीन कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान, भारत के महान्यायवादी को भारतीय सीमा के अंदर किसी भी न्यायालय में एक श्रोता के रूप में उपस्थित रहने का अधिकार होता है। इसके अतिरिक्त, उसके पास संसद के दोनों ही सदनों की कार्यवाहीं में भाग लेने या संबोधित करने का अधिकार होता है और वह संसद की किसी भी समिति का पदेन सदस्य हो सकता है, किंतु उसके पास कार्यवाही के दौरान मताधिकार नहीं होता है। वह उन प्रत्येक सुविधाओं के लिए नामांकित होता है जो भारत में संसद सदस्य को प्राप्त होती हैं।
भारत के महान्यायवादी के लिए निम्नलिखित सीमाएं तय की गई हैं ताकि कर्तव्यों को लेकर किसी प्रकार की जटिलता या विवाद उत्पन्न ना हो
- उसे भारत सरकार के विरूद्ध किसी भी प्रकार का मत नहीं रखना चाहिए।
- उसे किसी भी ऐसे मामलें में जिसमें भारत सरकार ने उससे सलाह मांगी हो सरकार के विरूद्ध अभिमत प्रस्तुत नहीं करना चाहिए।
- बिना भारत सरकार की अनुमति के उसे किसी भी आपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्ति के पक्ष में न्यायालय में मत नहीं रखना चाहिए।
- भारत सरकार की अनुमति के बिना उसे किसी भी कम्पनी या निगम में कोई भी पद जैसे कि निदेशक आदि स्वीकार नहीं करना चाहिए।
यद्यपि, महान्यायवादी भारत सरकार के लिए पूर्णकालिक सलाहकार नहीं होता है। वह सरकारी सेवक की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। इसके अतिरिक्त, उसे निजी कानूनी सेवा करने से भी नहीं रोका जा सकता।
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