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पंचायती राज
1.0 प्रस्तावना
भारत में ‘पंचायती राज‘ से आशय है स्थानीय स्वशासन। भारत में सभी राज्यों में, राज्य विधायिका अधिनियम के द्वारा स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र की स्थापना के लिए इसे स्थापित किया गया है। इसमें ग्रामीण विकास के क्षेत्र में आवश्यक कर्तव्यों को विस्तार दिया है। सत्र 1992 में 73वें संविधान संशोधन विधेयक के द्वारा इसे संवैधानिक रूप दिया गया। केन्द्रीय स्तर पर, पंचायती राज मंत्रालय पूरे भारत में, पंचायती राज निकायों से संबंधित मुद्दों को देखता है।
भारतीय संघीय व्यवस्था की शक्तियों को विभाजित करने की योजना में, ‘स्थानीय-सरकार‘ पद का उपयोग राज्य सरकारों के लिए किया जाता है। इस प्रकार भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची जो राज्यों से संबंधित है, में पांचवां अधिनियम ‘स्थानीय सरकार‘ से संबंधित है।
2.0 भारत में पंचायती राज निकायों का विकास
2.1 बलवंत राय मेहता समिति
जनवरी 1957 में, भारत सरकार ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम (1952) और राष्ट्रीय विस्तार सेवा (1953) की कार्यप्रणाली के परीक्षण के लिए और इनके बेहतर तरीके से कार्यक्षम्य होने के लिए प्रस्ताव आमंत्रित करने के लिए एक समिति का गठन किया। इस समिति के अध्यक्ष बलवंतराय जी. मेहता नियुक्त किये गये। समिति ने अपनी रिपोर्ट नवंबर 1957 में प्रस्तुत की, जिसमें ‘लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण‘ योजना की स्थापना की अनुशंसा की गई थी, जिसे अंततः पंचायती राज के नाम से जाना जाता है। समिति के द्वारा दी गई इन अनुशंसाओं को जनवरी 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद के द्वारा स्वीकार किया गया। समिति ने किसी एक दृढ़ प्रणाली पर जोर देने की अपेक्षा यह मुद्दा राज्यों के लिए छोड़ दिया कि वे अपने यहां की स्थानीय परिस्थिति के अनुसार उचित पद्धति का विकास करें। किंतु आधारभूत सिद्धांत राष्ट्रीय स्तर पर एक समान होने चाहिए।
राजस्थान पहला राज्य था जिसने पंचायती राज प्रणाली की स्थापना की। इस योजना का शुभारंभ 2 अक्टूबर 1959 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा, नागौर जिले से किया गया। राजस्थान के पश्चात् आंध्र प्रदेश दूसरा राज्य बना जिसने 1959 में इस प्रणाली को स्वीकार किया। इसके पश्चात् कई राज्यों ने इस प्रणाली को स्वीकारा।
यद्यपि 1960 के मध्य तक अधिकांश राज्यों ने पंचायती राज संस्थाओं की स्थापना कर ली थी, तो भी प्रत्येक राज्य में इनके स्तरों की संख्या, समिति और परिषद की सापेक्ष स्थिति, उनके कार्यकाल, संरचना, कार्यक्षेत्र, वित्तीय अधिकार आदि को लेकर बहुत अंतर थे। उदाहरण के लिए, राजस्थान में त्रि-स्तरीय प्रणाली को स्वीकार किया गया जबकि तमिलनाडु में द्वि-स्तरीय प्रणाली का विकास किया गया। दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल में चार स्तरीय प्रणाली को स्वीकार किया गया। इसके अतिरिक्त राजस्थान और आंध्र प्रदेश प्रणाली में, विकास खण्ड स्तर की पंचायत समिति ज्यादा शक्तिशाली थी क्योंकि वहां विकासखण्ड़ योजना और विकास गतिविधियों की इकाई थी, जबकि महाराष्ट्र और गुजरात पद्धति में, जिला परिषद इन अर्थो में शक्तिशाली थी की वहां योजना और विकास से संबंधित जिला स्तर से ही संचालित होती थी। कुछ राज्यों ने न्याय पंचायत की भी स्थापना की, जिसका कार्यक्षेत्र छोटे दिवानी और फौजदारी मुद्दों का निवारण था।
2.2 अशोक मेहता समिति
दिसम्बर 1977 में, जनता पार्टी सरकार ने पंचायती राज निकायों हेतु अशोक मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इस समिति ने देश में पंचायती राज संस्थाओं को मजबूत बनाने के लिए, अगस्त 1978 में, 132 अनुशंसाओं के साथ एक रिपोर्ट प्रस्तुत की।
इसकी प्रमुख अनुशंसाएं निम्नानुसार थींः
- त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को समाप्त कर द्वि-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली लागू की जानी चाहिए। इसमें जिला स्तर पर जिला परिषद और इसके नीचे मण्डल पंचायत का गठन किया जाना चाहिए जो 15000-20000 तक की जनसंख्या के गाँवों का कार्यक्षेत्र हो।
- राज्य स्तर के अधीन जिला स्तर पर विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए।
- जिला परिषद एक सर्वाधिकार सुरक्षित निकाय होना चाहिए जो जिला स्तर पर योजनाओं के लिए जिम्मेदार हो।
- पंचायती राज निकायों के निर्वाचन में राजनीतिक पार्टियों को अधिकारिक रूप से भाग लेने की अनुमति होनी चाहिए।
- पंचायती राज संस्थाओं को वित्तीय रूप से साधन सम्पन्न बनाने के लिए उनके पास कर निर्धारण का अधिकार होना चाहिए।
- जिला स्तर पर नियमित रूप से जिला स्तरीय अभिकरण और विधायको की समिति के द्वारा एक सामाजिक और आर्थिक अंकेक्षण प्रक्रियाएं होनी चाहिए जो यह जाँच करे कि दी गई राशि का उपयोग सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों के लिए किया गया है या नहीं।
- राज्य सरकार ने पंचायती राज निकायों के कार्य क्षेत्र में दखल अंदाजी नहीं करना चाहिए। यदि किसी पंचायत को भंग किया जाता है तो छः माह के अंदर चुनाव होने चाहिए।
- पंचायती राज संस्थाओं की कार्यप्रणाली को नियंत्रित करने के लिए राज्य स्तर के केबीनेट में पंचायतीराज मंत्री का पद होना चाहिए।
अशोक मेहता समिति के द्वारा दी गई अनुशंसाओं पर, जनता पार्टी सरकार के समय से पूर्व भंग हो जाने के कारण, केन्द्रीय स्तर पर कोई कार्यवाही नहीं हो सकी। हालांकि कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश ने अशोक मेहता समिति की अनुशंसाओं को ध्यान में रखते हुए, पंचायती राज संस्थाओं को जीवन्त बनाने के लिए कुछ कदम उठाये।
2.3 जी.वी.के राव समिति
योजना आयोग ने 1985 में, जी.वी.के. राव की अध्यक्षता में ग्रामीण विकास और गरीबी निवारण कार्यक्रमों में प्रशासनिक प्रबंधन हेतु एक समिति का गठन किया। समिति ने यह निष्कर्ष निकाला कि विकास प्रक्रिया धीरे-धीरे नौकरशाहों के हाथ में दे देनी चाहिए और इसे पंचायती राज प्रणाली से अलग किया जाना चाहिए। विकास परियोजनाओं के नौकरशाहीकरण की यह घटना पंचायती राज संस्थाओं के लोकतांत्रिकरण के विरूद्ध थी, जिसका परिणाम इन संस्थाओं के हित में नहीं था।
समिति ने जमीनी स्तर के प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण की योजना में, स्थानीय पंचायती राज संस्थाओं को योजना और विकास की गतिविधियों में एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की। इन अर्थों में जी.वी.के राव समिति (1986) की रिपोर्ट, विकास खण्ड स्तर की योजना के बारे मे दी गई दांतवाला समिति (1978), की रिपोर्ट से भिन्न है और जिला योजना के बारे में दी गई हनुमंतराव समिति (1984) की रिपोर्ट से भी अलग है। दोनों ही समितियों ने यह सुझाया था कि आधारभूत विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया जिला स्तर पर की जानी चाहिए। हनुमंतराव समिति ने या तो जिलाधीश या एक मंत्री के अधीन अलग से जिला योजना निकायों का समर्थन किया था। दोनों ही मॉड़लों में, विकेन्द्रीकरण की इस प्रक्रिया के लिए जिलाधीश एक महत्वपूर्ण भूमिका में था, जबकि राव समिति की रिर्पार्ट में इस प्रक्रिया के लिए पंचायती राज संस्थाओं को जिम्मेदार बनाया था। समिति ने अनुशंसा कि की जिला स्तर पर सभी विकास और योजना गतिविधियों का संयोजन जिलाधीश द्वारा किया जाना चाहिए। इस प्रकार, हनुमन्तराव समिति, इन अर्थों में, बलवन्तराय समिति, प्रशासनिक सुधार आयोग, अशोक मेहता समिति और अनंतः जी.वी.के राव समिति से भिन्न है कि इसने विकास गतिविधियों में जिलाधिश की भूमिका को कम किया और विकास प्रशासन की अधिकांश जिम्मेंदारिया पंचायती राज संस्थाओं को स्थानांतरित की।
2.4 एल.एम सिंघवी समिति
1986 में, राजीव गाँधी सरकार ने एल.एम. सिंघवी की अध्यक्षता में, ‘‘लोकतंत्र और विकास हेतु पंचायती राज संस्थाओं को पुनर्जिवित करने के लिए‘‘ एक समिति का गठन किया। इस समिति ने निम्नलिखित अनुशंसाओं को प्रस्तुत कीः
- पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा देते हुए संरक्षित किया जाना चाहिए। इस उद्देश्य के लिए, भारतीय संविधान में एक नया अध्याय जोड़ा जाना चाहिए। इसके द्वारा उनकी पहचान और व्यक्तित्व का निर्माण हो सकेगा। इस समिति ने पंचायती राज निकायों के नियमित, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए संवैधानिक प्रावधानों का सुझाव भी दिया।
- गाँवों के एक निश्चित समूह पर न्याय पंचायत का गठन भी किया जाना चाहिए।
- ग्राम पंचायत को अधिक कार्यक्षम्य बनाने के लिए गाँवों को पुनर्गठित किया जाना चाहिए। इसने ग्राम सभा के महत्व को भी रेखांकित किया और इसे प्रत्यक्ष लोकतंत्र के प्राण कहा।
- ग्राम पंचायत को अधिक वित्तीय अधिकार मुहैया कराये जाने चाहिए, और
- प्रत्येक राज्य में पंचायती राज संस्थाओें में उत्पन्न निर्वाचन विसंगतियों और इनके कार्यक्षेत्र से जुड़े अन्य मुद्दों के निवारण के लिए एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण का गठन किया जाना चाहिए।
3.0 संवैधानिकीकरण
एल.एम सिंघवी समिति के द्वारा की गई अनुशंसाआें के आधार पर, राजीव गाँधी सरकार ने, जुलाई 1989 में पंचायती राज संस्थाओं को शक्तिशाली बनाने के लिए लोकसभा में 64वां संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया। यद्यपि, लोकसभा ने इस बिल को अगस्त 1989 में पारित किया, इसे राज्य सभा में पारित नहीं किया जा सका। विपक्ष के द्वारा इस विधेयक का इस आधार पर तीखा विरोध किया गया कि संघीय व्यवस्था में यह केन्द्रीयकरण की प्रक्रिया को सशक्त करता है।
3.1 नरसिंह राव सरकार
पी.वी नरसिंह राव के प्रधानमंत्री काल में कांग्रेस सरकार ने पुनः एक बार पंचायती राज निकायों के संवैधानिकीकरण की प्रक्रिया का मुद्दा उठाया। इसमें विवादास्पद पक्षों को हटा दिया गया और प्रस्तावों में आमूल-चुल परिवर्तन कर दिया गया। अंततः, सितम्बर 1991 में संवैधानिक संशोधन विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया गया। लोकसभा के द्वारा इसे 22 दिसम्बर 1992 और राज्य सभा के द्वारा 23 दिसम्बर 1992 को पारित किया गया। बाद में, इसे 17 राज्यों की विधान सभा द्वारा सहमति मिलने पर राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजा गया और 20 अप्रैल 1993 को यह विधेयक कानून बन गया। इस प्रकार 73 वें संविधान संशोधन विधेयक का उदय हुआ और यह 24 अप्रेल, 1993 से अस्तित्व में आया।
3.2 73 वां संविधान संशोधन अधिनियम - 1992
इस अधिनियम को भारतीय संविधान के 9वें हिस्से में जोड़ा गया इसे ‘पंचायत‘ शीर्षक दिया गया और यह धारा 243 से 243-व् तक है। इसके अतिरिक्त, इस अधिनियम ने संविधान में ग्यारहवीं सूची को भी जोड़ा। इसमें पंचायत की कार्यप्रणाली के 29 बिन्दु विस्तार से दिये गये तथा यह धारा 243-जी से भी संबंधित है।
इस अधिनियम के द्वारा संविधान की धारा 40 को कार्यात्मक स्वरूप प्रदान किया गया है, जो कहता है, ‘‘राज्य ग्राम पंचायतों को संगठित करने और उन्हें ऐसे अधिकारों और प्राधिकारों से सम्पन्न करें जो उन्हें स्वशासन की एक कार्यात्मक इकाई बनाने के लिए आवश्यक है।‘‘ यह धारा राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के साथ भी जोड़ी गई है।
इस अधिनियम के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है। इस अधिनियम के माध्यम से उन्हें संविधान के तहत वाद योग्य संस्थाएं भी बनाया गया है। दूसरे शब्दों में, राज्य सरकारों को इस अधिनियम के माध्यम से नई पंचायती राज प्रणाली को स्वीकार करने के लिए संवैधानिक बंधन भी प्रदान किये गये है। परिणामस्वरूप, अब न तो पंचायतां के गठन की प्रक्रिया और ना ही निश्चित समयावधि पर उनके चुनाव को रोकने के अधिकार राज्य सरकार के पास होगें।
इस अधिनियम के प्रावधानों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है - आवश्यक और एच्छिक। आवश्यक प्रावधानों को राज्य सरकारों द्वारा नवीन पंचायती राज प्रणाली के कानून में शामिल किया जाना अनिवार्य है। दूसरी ओर, एच्छिक प्रावधानों को शामिल करना राज्यों की इच्छा पर निर्भर करता है। इस प्रकार अधिनियम के एच्छिक प्रावधानों में यह सुनिश्चित किया गया है कि राज्य सरकार स्थानीय परिस्थितियों जैसे भौगोलिक, राजनैतिक-प्रशासनिक, अन्य मुद्दों को पंचायती राज प्रणाली लागू करते समय ध्यान में रख सकती है। दूसरे शब्दों में, यह अधिनियम भारतीय संघीय व्यवस्था में केन्द्र और राज्यों के बीच संवैधानिक संतुलन को भी नहीं बिगाड़ता है। यद्यपि यह राज्य की अनुसूची में एक केन्द्रीय कानून है, (संविधान की 7वीं अनुसूची में स्थानीय प्रशासन राज्य की सूची में शामिल किया गया है) तो भी यह अधिनियम राज्य के कार्यक्षेत्र में अतिक्रमण नहीं करता है क्योंकि इसमें राज्यों को पंचायतों से सम्बंधी पर्याप्त एच्छिक अधिकार दिये गये हैं।
यह अधिनियम ग्रामीण स्तर पर लोकतांत्रिक सस्थाओं के निर्माण के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ। इसके माध्यम से प्रतिनिधि लोकतंत्र की अवधारणा को सहभागिता लोकतंत्र की अवधारणा में बदल दिया गया। यह वास्तव में एक क्रांतिकारी कदम था।
इस अधिनियम के महत्वपूर्ण गुणधर्म निम्नानुसार हैः
3.3.1 ग्राम सभा
इस अधिनियम में ग्राम सभा को पंचायती राज प्रणाली की नींव कहा गया है। यह ग्राम स्तर पर पंचायत के कार्यक्षेत्र के अधीन पंजीकृत मतदाताओं से निर्मित एक संस्था है। इस प्रकार, यह ग्राम स्तर की एक ऐसी सभा होती है जिसमें पंचायत के पंजीकृत मतदाता भाग ले सकते है। यह ग्रामीण स्तर पर उसी तरह अधिकारों का उपयोग कर सकती है और कार्य का र्निवहन कर सकती है जिस प्रकार राज्य स्तर पर विधानसभा।
त्रि-स्तरीय प्रणालीः इस अधिनियम के माध्यम से प्रत्येक राज्य में त्रि-स्तरीय पंचायती राज का गठन किया गया है। ग्राम स्तर पर पंचायत, विकास खण्ड स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद।
सदस्यों का चुनाव और अध्यक्षः पंचायत के सभी सदस्य, माध्यमिक स्तर और जिला स्तर की पंचायत के सभी सदस्य प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली द्वारा चुने जाते है। इसके अतिरिक्त, माध्यमिक स्तर और जिला स्तर की पंचायत के अध्यक्ष संबंधित सदस्यों के द्वारा, अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली से चुने जाते हैं। हालांकि, ग्राम स्तर पर पंचायत का मुखिया वैसे ही चुना जाता है जैसे कि संबंधित राज्य की विधान सभा चाहती है।
सीटों में आरक्षणः इस अधिनियम के माध्यम से, पंचायत के तीनों ही स्तरों पर, अनुसूचित जाति और जनजाति के उम्मीद्वारों हेतु उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटें आरक्षित किये जाने का प्रावधान है। इसके अतिरिक्त, राज्य विधान सभा पंचायत के तीनों ही स्तरों पर इसके मुखिया के पद हेतु भी अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण उपलब्ध कराती है।
अधिनियम के माध्यम से पंचायतों में महिलाओं के लिए भी एक तिहाई आरक्षण का प्रावधान रखा गया है, किंतु यह अनुसूचित जाति और जनजाति की सीटों को मिलाकर होता है। इसके अतिरिक्त, पंचायतों के मुखिया का पद भी सभी स्तर पर कुल संख्या का एक तिहाई महिलाओं से भरा जाता है।
इस अधिनियम के माध्यम से राज्य विधानसभा को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह किसी भी पंचायत या पंचायतों या उनके अध्यक्षों आदि में भी, अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीद्वारां हेतु भी आरक्षण का प्रावधान कर सकती है।
पंचायतों का कार्यकालः प्रत्येक स्तर की पंचायत के लिए, इस अधिनियम के माध्यम से पाँच वर्ष का कार्यकाल तय किया गया है। हालांकि इसे इसके कार्यकाल के पूर्व भी भंग किया जा सकता है और नये चुनाव करा कर पंचायत का गठन किया जा सकता है। किसी भी पंचायत के गठन के लिए चुनाव -
- पाँच वर्ष की समयावधि पूर्ण होने के पूर्व, या
- पंचायत को भंग करने की स्थिति में, उसके भंग होने के छः महीने के बीच होने चाहिए।
अयोग्यताः किसी भी व्यक्ति को किसी भी स्तर पर पंचायत चुनाव में निम्न परिस्थितियों के आधार पर अयोग्य घोषित किया जा सकता है
- राज्य विधान सभा द्वारा बनाये गये किसी कानून के द्वारा, या
- चुनाव को देखते हुए राज्य विधान सभा के द्वारा किसी निश्चित समयावधि के लिए बनाये गये कानून के तहत। अयोग्यता से संबंधित सभी मुद्दे राज्य विधान सभा के द्वारा गठित किसी प्राधिकरण को भेजे जाते है।
3.3.2 राज्य निर्वाचन आयोग
पंचायत चुनाव हेतु निर्वाचन नामावली को तैयार करने और राज्य में पंचायत चुनाव के अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण के सारे अधिकार राज्य निर्वाचन आयोग में निहित होते है। राज्यपाल के द्वारा राज्य निर्वाचन आयोग की नियुक्ति की जाती है। उसकी सेवा शर्ते और कार्यकाल आदि का निर्धारण भी राज्यपाल के द्वारा होता है। उसे उसकी नियुक्ति के बाद तब तक हटाया नहीं जा सकता जब तक कि राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने जैसी प्रक्रिया का पालन न कर लिया जाये।
अधिकार और कार्य क्षेत्रः राज्य विधान सभा पंचायतों को उन सभी अधिकारों और शक्तियों से सम्पन्न करती है जो स्वशासन संस्थानों के सुचारू संचालन के लिए आवश्यक होते है। उचित स्तर पर पंचायतों को उनके अधिकार और जिम्मेदारियों के वितरण के लिए ऐसी योजना तैयार की जाती है जो - ;पद्ध आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के सिद्धांत के अनुरूप हो; ;पपद्ध आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की योजनाओं को लागू करने के लिए आवश्यक उपकरण प्रदान किये जाते है, जिनमें ग्यारहवीं अनुसूची में निदर्शित 29 बिन्दु भी होते हैं।
वित्तः राज्य विधान सभा
- किसी पंचायत को कर निर्धारण, संग्रहण और शुल्क निर्धारण के लिए प्राधिकृत कर सकती है;
- राज्य सरकार द्वारा लगाये गये कर, शुल्क आदि को पंचायत को दे सकती है;
- राज्य की समेकित निधि से पंचायतो को अनुदान दे सकती है, और
- पंचायतों में कोष निर्धारण के लिए ऋण दे सकती है।
3.3.3 वित्त आयोग
राज्य के राज्यपाल के द्वारा, प्रत्येक पाँच वर्ष पश्चात्, पंचायतों की आर्थिक स्थिति की समीक्षा के लिए एक वित्त आयोग गठित किया जाता है। यह निम्न अनुशंसाएं कर सकता है।
- 1.मुख्य तथ्य जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिएः
- राज्य के द्वारा निर्धारित करों और शुल्कों का राज्य और पंचायतों के बीच वितरण
- पंचायतों के द्वारा लगाये जा सकने वाले कर शुल्क आदि
- राज्य की समेकित निधि से पंचायतो को दिया जाने वाला अनुदान
- पंचायतों की वित्तीय स्थिति सुधारने हेतु उठाये जाने वाले कदम
- लोक हित में राज्यपाल के द्वारा वित्त आयोग को संदर्भित कोई भी अन्य महत्वपूर्ण बिन्दु।
राज्य विधान सभा के द्वारा आयोग के गठन, इसके सदस्यों के लिए आवश्यक योग्यता और उचित चयन विधि का निर्धारण किया जाता है। राज्यपाल आयोग की अनुशंसाओं और उन पर उठाये गये कदमों की रिपोर्ट राज्य विधानसभा में प्रस्तुत करता है। केन्द्रीय वित्त आयोग भी राज्य के समेकित निधि से पंचायतों को संसाधन मुहैया कराये जाने के तौर तरीकों पर राज्य वित्त आयोग को सलाह दे सकता है।
लेखाओं का अंकेक्षणः राज्य विधान सभा पंचायतो के द्वारा किये जाने वाले लेखा संधारण हेतु दिशा निर्देश जारी करने के साथ-साथ इनके अंकेक्षण का प्रावधान भी करती है।
केन्द्रशासित प्रदेशां के प्रावधानः इस अधिनियम के माध्यम से भारत का राष्ट्रपति यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि यह अधिनियम भारत के सभी केन्द्र शासित प्रदेशों पर भी लागू होता है।
वर्तमान कानूनों और पंचायतों का सातत्यः पंचायतों से संबंधित राज्यों के सारे कानून, इस अधिनियम के लागू होने के एक वर्ष तक, यथावत लागू रहेंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो, राज्यों को इस अधिनियम के अनुसार नवीन पंचायती राज प्रणाली को, इसके लागू होने के दिनांक 24 अप्रैल, 1993 के एक वर्ष के भीतर अपनाना होगा। हालांकि इस अधिनियम के लागू होने के पूर्व अस्तित्व में सभी पंचायतें अपना कार्यकाल पूर्ण करेगी, यदि उन्हें राज्य सभा के द्वारा भंग नहीं कर दिया जाता है तो। परिणामस्वरूप, अधिकांश राज्यों ने पंचायती राज अधिनियम 1993 और 1994 के नवीन प्रावधानों को 73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 के अनुसार स्वीकार कर लिया।
न्यायालयों द्वारा दखलअंदाजी पर प्रतिबंधः पंचायतों के निर्वाचन सबंधी विषयों में इस अधिनियम के द्वारा न्यायलय की दखल अंदाजी पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। यह अधिनियम घोषणा करता है कि निर्वाचन क्षेत्रों के पुनर्सीमांकन के किसी कानून की वैधता या किसी निर्वाचन क्षेत्र में आंबटित सीटों की संख्या आदि जैसे विषयों को न्यायालय के समक्ष नहीं उठाया जा सकता। इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया है कि पंचायत चुनाव से संबंधित किसी भी विषय को, विधानसभा या लोकसभा चुनाव के समान न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
सातवीं अनुसूचीः सातवीं अनुसूची में पंचायतों से संबंधित 29 कार्याधिकार क्षेत्र शामिल किये गये हैं।
4.0 पंचायती राज के समक्ष बड़ी चुनौती
ग्राम पंचायतों पर विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि क्या ये संस्थान हितों के समान वितरण को सुनिश्चित करने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त पंचायती राज संस्थाओं के प्रदर्शन से संबंधित किसी भी मुद्दे को वाद-विवाद के लिए अक्सर उठाया जाता है, राजनीतिक पार्टियों से प्रत्यक्ष रूप से जोर दिये जाने का मुद्दा भी प्रभावी है।
उदाहरण के लिए, पश्चिम-बंगाल में पंचायती राज प्रणाली की समीक्षा 1978 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया के सत्ता में आने के एक वर्ष बाद की गई, जो एक दशक की तीव्र राजनीतिक हिंसा के बाद हुआ था। उस वर्ष चुनाव सम्पन्न कराने और प्रत्येक पाँच वर्ष पश्चात् भी चुनाव कराने के बाद राज्य सरकार ने ग्राम पंचायतों को संसाधनों के नियंत्रण के वैसे ही सारे अधिकार सौप दिये थे जैसे कि आज हम देखते हैं।
कुछ विश्लेषक यह भी मानते है कि विकेन्द्रीकरण के इस सुधारां के प्रारम्भिक वर्षों में, बहुत सारे गरीब कृषि और भूमि सुधारों के लागू होने के कारण अपनी स्थिति सुधारने में सफल हुए। राज्य के आंतरिक हिस्सों में आज भी ऐसे जिले है जो देश के किसी भी हिस्से की तुलना में ज्यादा गरीब हैं।
इसी के साथ-साथ पश्चिम बंगाल में पंचायत स्तर पर एक बहुत बड़ी समस्या यह है कि वहा इस स्तर पर राजनीतिकरण हो गया है। घरों को उनके राजनीतिक अनुबंध के आधार पर जाना जाता है और यह प्रभाव न केवल खाद्य सुरक्षा, पेंशन आदि जैसी योजनाओं के हितों के वितरण में दिखाई देता है बल्कि कानून और व्यवस्था तथा सम्पत्ति की सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी इसका प्रभाव दिखाई पड़ता है।
शायद यह ग्राम स्तर पर बढ़ते आर्थिक प्रवाह के कारण भी हो रहा है, यह स्पष्ट है कि पश्चिम बंगाल जैसी विध्वंसात्मक राजनीतिक प्रतियोगी स्थितियाँ राजनीतिक पार्टियों द्वारा दूसरे हिस्सों में भी निर्मित कर दी जायें, क्योंकि अब आधारभूत स्तर पर राजनीतिक गतिशीलता का विकास हो रहा है।
पंचायत निर्वाचन में राजनीतिक पार्टियों के आधार पर चुनाव नहीं होने का निर्देशक सिद्धांत व्यवहारिकता के तकाजे से, न केवल पश्चिम बंगाल में किंतु सभी राज्यों में जहाँ स्थानीय सरकारें चल रही हैं, नकार दिया गया है। 2008 के पंचायत चुनाव में, जब लगभग तीन दशकों के बाद त्रणमूल कांग्रेस ने सीपीआई.(एम) को हराया तो यह त्रिणमूल के हित में पहला संकेत था। त्रिणमूल कांग्रेस ने फिर 2009 के लोकसभा चुनाव और 2011 के विधानसभा चुनाव में बड़ी जीत हासिल की। पिछले दशक में त्रिणमूल कांग्रेस ने लगभग वही रणनीति अपनाई जो सी.पी.आई.(एम) पिछले 25 वर्षां से अपनाती रही थी, ग्रामीण स्तर पर लोगों को राजनीतिक रूप से विभाजित करना। ऐसे कई व्यक्तिगत अनुभव सामने आये हैं जब पश्चिम बंगाल में किसी भी व्यक्ति का पुलिस या न्यायालय तक पहुँचना विरोधी राजनीतिक पार्टी के गुस्से को आमंत्रित करता है। कई अवसरों पर तो पुलिस ने सत्ताधारी दल के सदस्यों के अतिरिक्त लोगों की रिपोर्ट लिखने से भी इंकार किया है। अतः, एैसे माहौल में, ग्राम पंचायतें राज्य के दमन का माध्यम बन जाती हैं।
5.0 पेसा (PESA)
1996 में पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम अधिनियमित किया जिसके द्वारा कुछ उन क्षेत्रों को शामिल किया गया जिन्हें पंचायती राज अधिनियम में सम्मिलित नहीं किया गया था। इस अधिनियम का उद्देश्य था स्थानीय शासन के विचार को भारत के जनजातीय क्षेत्रों तक विस्तारित करना। इसने एक व्यवस्था का निर्माण किया जिसके द्वारा जनजातीय लोग अपने क्षेत्रों और संसाधनों को शासित कर सकते थे। इस अधिनियम के माध्यम से पंचायतों के प्रावधान नौ राज्यों के जनजातीय क्षेत्रों में विस्तारित हुए जो पांचवी अनुसूची क्षेत्र हैं। अधिकांश उत्तर पूर्वी राज्य छठी अनुसूची क्षेत्र हैं (जहां स्वायत्त परिषदें विद्यमान हैं)। अतः वे पेसा के तहत सम्मिलित नहीं हैं। जिन नौ राज्यों में पेसा विस्तारित किया गया है, वे हैं आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान और मध्यप्रदेश। हालांकि इस अधिनियम का क्रियान्वयन अपेक्षा के अनुरूप नहीं हो पाया है। इसके प्रमुख कारण हैंः
- धोखे और जबरदस्ती कब्जे के माध्यम से जनजातीय भूमि का व्यापक स्तर पर गैर जनजातीय भूमि में स्थानांतरण।
- आर्थिक हितों में उद्योगों को प्रमुखता प्रदान करना, जिसके कारण निजी उद्यमियों को उदारतापूर्वक अनुमति प्रदान की जा रही है।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण अनेक क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों को असंवैधानिक घोषित किया गया है, इससे ऐसा प्रतीत होता है कि अब पेसा का क्रियान्वयन अधिक प्रभावी ढंग से किया जा सकेगा।
5.1 पीईएसए अधिनियम के प्रावधान
- अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायतों पर राज्य के कानून को समुदाय संसाधनों के रीति-रिवाजों, धार्मिक प्रथाओं और पारंपरिक प्रबंधन प्रथाओं का ध्यान रखना चाहिए
- प्रत्येक गांव में एक ग्राम सभा होगी जिसके सदस्य ग्राम स्तर पर पंचायतों के लिए बनी मतदाता सूची में शामिल हों
- लघु जल निकायों के नियोजन और प्रबंधन का कार्य ग्राम पंचायतों को सौंपा जाना चाहिए
पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 (पीईएसए) की मुख्य विशेषताएं और देश में आदिवासियों को अधिकार प्रदान करने के लिए निर्मित तौर-तरीके निम्नानुसार हैंः
- पंचायतों पर कानून प्रथागत कानूनों, सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं और समुदाय संसाधनों के पारंपरिक प्रबंधन प्रथाओं के अनुरूप होंगे
- बस्ती या बस्तियों का समूह या उपग्राम या उपग्रामों का समूह, जिसमें एक विशिष्ट समुदाय निवास करता है और जो परंपराओं और प्रथाओं के अनुसार अपने कार्यकलापों का प्रबंधन करता है उसकी एक स्वतंत्र ग्राम सभा होगी
- प्रत्येक ग्राम सभा लोगों के रीति-रिवाजों, उनकी सांस्कृतिक पहचान, सामुदायिक संसाधनों और विवाद निवारण के प्रचलित तौर-तरीकों का संरक्षण करेगी
- गांव के सभी विकासात्मक कामों के अनुमोदन में ग्रामसभा की भूमिका और जिम्मेदारी होगी, वह लाभार्थियों की पहचान करेगी, निधियों के उपयोग के प्रमाण-पत्र जारी करेगी; उसे सभी सामाजिक क्षेत्रों और स्थानीय योजनाओं में संस्थाओं और पदाधिकारियों पर नियंत्रण रखने का अधिकार होगा।
- उपयुक्त स्तर पर ग्रामसभा या पंचायतों को लघु जल निकायों के प्रबंधन का भी अधिकार होगा; भूमि अधिग्रहण के मामलों में अनिवार्य परामर्श का अधिकार; लघु खनिजों के पुनः स्थापन, पुनर्वास और पूर्वेक्षण अनुज्ञप्ति/खनन पट्टेदारी; भूमि के अलगाव को रोकने का अधिकार और अलग की गई भूमि को पुनः प्राप्त करने का अधिकार; मदिरा की बिक्री/उपभोग को विनियमित और नियंत्रित करना; गांव के बाजारों का प्रबंधन, अनुसूचित जनजातियों को उधार दी जाने वाली धनराशि को नियंत्रित करना; और लघु वनोपज का स्वामित्व।
सभी राज्यों में ग्रामसभाओं का गठन संबंधित राज्यों के पंचायत राज अधिनियम/पीईएसए नियमों के अनुसार किया गया है। पीईएसए के क्रियान्वयन के लिए केवल चार राज्यों ने अपने नियम बनाए हैं। ये राज्य हैं आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान।
5.2 पीईएसए अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए समितियां
पीईएसए के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए पंचायती राज मंत्रालय द्वारा निम्नलिखित समितियां गठित की गई थीं ताकि दायर की गई वास्तविकताओं का आकलन किया जा सकेः
- मुंगेकर समितिः आदिवासी विकास से संबंधित अंतर-क्षेत्रीय मुद्दों पर स्थाई समिति का गठन प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा 30 अक्टूबर 2004 की किया गया था जिसके अध्यक्ष योजना आयोग के सदस्य डॉ भालचंद्र मुंगेकर थे। पंचायती राज मंत्रालय ने रिपोर्ट पर अपनी टिप्पणियां आदिवासी मामलों के मंत्रालय को दी थीं।
- तीन उप-समितियांः पंचायती राज मंत्रालय ने तीन उप-समितियों का भी गठन किया था जिनके नाम थे 10 जुलाई 2006 को ‘‘पीईएसए में परिकल्पित किये अनुसार ग्राम सभा को अधिकार देने के लिए आदर्श दिशानिर्देशों‘‘ पर गठित बी डी शर्मा उप-समिति; 14 जुलाई 2014 को ‘‘भूमि अलगाव, विस्थापन, पुनर्वास और पुनःस्थापन‘‘ पर गठित राघव चंद्रा उप-समिति और ‘‘लघु वनोपज‘‘ पर 3 अगस्त 2006 को गठित ए के शर्मा उप-समिति। राघव चंद्रा उप-समिति की रिपोर्ट भूमि संसाधन विभाग को भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनःस्थापन अधिनियम के अधिनियमन विचारार्थ प्रेषित की गई थी। उप-समितियों की सिफारिशें पीईएसए राज्यों को भी प्रेषित की गई हैं।
- लघु वनोपज पर समितिः 23 अगस्त 2010 को सरकार द्वारा डॉ टी हक की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था जिसे लघु वनोपज के स्वामित्व, मूल्य निर्धारण, मूल्य संवर्धन और विपणन पर उपयुक्त सुझाव देने थे। समिति ने मई 2011 में अपनी रिपोर्ट दी थी। सरकार ने ‘‘लघु वनोपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और मूल्य श्रृंखला के माध्यम से लघु वनोपज के विपणन‘‘ के लिए एक केंद्रीय प्रायोजित योजना शुरू की है यह योजना संग्राहकों को लघु वनोपज के लिए उचित मौद्रिक लाभ सुनिश्चित करने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के निर्धारण के माध्यम से एक तंत्र स्थापित करने का प्रयास करती है। साथ ही यह लघु वनोपज के प्राथमिक मूल्य संवर्धन में भी सहायता प्रदान करती है, और शीत भंडार, गोदाम इत्यादि जैसी आपूर्ति श्रृंखला अधोसंरचना भी प्रदान करती है। साथ ही यह लघु वनोपज की वैज्ञानिक कटाई पर भी जोर देती है। शुरुआत में यह योजना निम्न आठ राज्यों में 12 लघु वनोपजों के क्रियान्वित की जा रही हैः आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, झारखंड, राजस्थान और गुजरात। 12 लघु वनोपज हैं तेंदु, बांस, महुवा बीज, साल की पत्तियां, साल के बीज, लाख, चिरोंजी, जंगली शहद, आंवला, इमली, गोंद और करंज।
- अनुकूलीकरण समितिः केंद्रीय कानूनों के पीईएसए के साथ अनुकूलीकरण के लिए 14 दिसंबर 2011 को केंद्रीय कानून सचिव की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई है जहाँ पंचायती राज मंत्रालय को प्रतिनिधित्व दिया गया है। समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी है जिसमें केंद्रीय कानूनों में कुछ संशोधन सुझाए गए हैं। समिति की सिफारिशों पर शीघ्र कार्यवाही करने के लिए भारत सरकार के संबंधित मंत्रालयों से अनुरोध किया जा रहा है।
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