यूपीएससी तैयारी - भारत में शासन - व्याख्यान - 10

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संसदीय प्रक्रियाएं

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1.0 प्रस्तावना

संसद या केंद्रीय विधायिका (या कानून निर्माता) का, उसके एक प्रमुख कार्य के रूप में कार्य है कानून का निर्माण करना। कोई भी विधायी प्रस्ताव संसद के समक्ष लाया जा सकता है। एक विधायी प्रस्ताव का मसौदा विधेयक कहलाता है। एक विधेयक, चाहे वह सरकार द्वारा प्रस्तुत किया गया हो या किसी निजी सदस्य द्वारा, को कानून या संसद का अधिनियम बनने के लिए इसका भारत के राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदन किया जाना आवश्यक है।

संसदीय विधेयकों के प्रकार 

मोटे तौर पर विधेयक दो प्रकार के होते हैंः

  1. सरकारी विधेयकः कोई भी विधेयक जो सरकार द्वारा प्रस्तुत किया गया हो, उसे सरकारी विधेयक कहा जाता है। 
  2. निजी सदस्य का विधेयकः यदि कोई विधेयक संसद के किसी भी सदन में किसी निजी सदस्य द्वारा प्रस्तुत किया जाता है (संसद का कोई भी सदस्य, जो मंत्री परिषद का सदस्य नहीं है उसे निजी सदस्य के रूप में संदर्भित किया जाता है) तो उसे निजी सदस्य का विधेयक कहा जाता है। 

हालांकि अधिकांश कानून सरकारी विधेयकों के माध्यम से ही बनाये जाते हैं, फिर भी निजी सदस्यों के विधेयक विद्यमान कानून में यदि परिवर्तन की आवश्यकता है तो उसे उजागर करने के उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। 

विधेयकों को उनमें अंतर्निहित विषयों के आधार पर भी वर्गीकृत किया जा सकता है। 

  • साधारण विधेयकः कोई भी विधेयक जो संविधान संशोधन विधेयक, या धन विधेयक नहीं है, तो उसे साधारण विधेयक के वर्गीकृत किया जाता है। 

  1. मूल विधेयक (इसमें नए प्रस्ताव, विचार या नीतियां समाविष्ट हैं)
  2. संशोधन विधेयक (विद्यमान अधिनियमों में सुधार, संशोधन या पुनरीक्षण के लिए)
  3. समेकन विधेयक (किसी विशेष विषय पर कानून को समेकित करने के लिए)
  4. अवसान कानून (निरंतरता) विधेयक (किसी अवसान होते कानून को जारी रखने के लिए), और 
  5. राष्ट्रपति द्वारा जारी अध्यादेश को प्रस्थापित करने के लिए विधेयक 

  • धन एवं वित्तीय विधेयकः इनकी विशिष्ट विशेषताओं के कारण धन एवं वित्तीय विधेयकों को इन विधेयकों से अलग माना जाता है। 
  • संविधान (संशोधन) विधेयकः इनका संबंध उन विधेयकों से होता है जो भारत के संविधान में संशोधन करने के उद्देश्य से प्रस्तुत किये जाते हैं।


2.0 विधेयक के पारित होने के चरण 

2.1 संसदीय विधेयक का मसौदा  

विधायी प्रस्ताव या विधेयक का मसौदा विभिन्न राजनीतिक, प्रशासनिक, वित्तीय, न्यायिक और संवैधानिक निहितार्थों का अध्ययन करने के पश्चात संबंधित मंत्रालय द्वारा तैयार किया जाना चाहिए। यह कार्य अन्य मंत्रालयों या राज्य सरकारों से परामर्श करने के बाद किया जाता है। कानून मंत्रालय, भारत के महान्यायवादी और अन्य हित समूहों से भी परामर्श किया जाता है। इसके बाद मंत्रालय एक प्रस्ताव तैयार करता है, और मंत्रिमंडल को प्रस्तुत करने से उसका अच्छी तरह से परीक्षण करता है। मंत्रिमंडल द्वारा प्रस्ताव का अनुमोदन करने के बाद इसे सदन में प्रस्तुत करने के लिए विधेयक का स्वरुप प्रदान किया जाता है।  

2.2 साधारण विधेयक का संसद में पारित होना  

किसी भी विधेयक के अधिनियम बनने से पहले संसद के दोनों सदनों में इसके तीन पठन किये जाते हैं।  

प्रथम पठनः प्रथम पठन के दौरान सभापति द्वारा अनुमति प्रदान किये जाने के बाद प्रभारी मंत्री द्वारा विधेयक सदन में प्रस्तुत किया जाता है। इसके बाद विधेयक भारत के राजपत्र में प्रकाशित किया जाता है। यदि विधेयक पहले ही राजपत्र में प्रकाशित किया जा चुका है, तो सभापति की अनुमति से विधेयक की प्रस्तुति के चरण को छोडा जा सकता है।  

द्वितीय पठनः द्वितीय पठन किसी भी विधेयक का सबसे महत्वपूर्ण चरण होता है, क्योंकि इस दौरान इसकी अच्छी तरह से संवीक्षा की जाती है। यह पठन दो चरणों में बंटा होता है।  

द्वितीय पठन का पहला चरणः शुरुआत में केवल विधेयक के सिद्धांतों पर चर्चा होती है। इस दौरान विधेयक के विस्तृत विवरण पर कोई गंभीर और गहरी चर्चा नहीं होती। इस दौरान या तो विधेयक को 

  1. लोक सभा की प्रवर समिति को प्रेषित किया जा सकता है,
  2. राज्य सभा की सहमति से दोनों सदनों की संयुक्त समिति को प्रेषित किया जा सकता है, और या 
  3. राय जानने के उद्देश्य से वितरित किया जा सकता है।  

इन समितियों की नियुक्ति अस्थायी तौर पर उन्हें प्रेषित किये गए विशेष विधेयकों पर विचार करने के उद्देश्य से की जाती है। 

इस समय संसद का कोई भी सदन इस विधेयक को विभागीय रूप से संबंधित दोनों सदनों की स्थायी समिति को प्रेषित कर सकता है। यह समिति भी विधेयक पर अनुच्छेद वार विचार करती है, और इस समिति के सदस्य विभिन्न अनुच्छेदों में संशोधन प्रस्तावित कर सकते हैं। समिति विशेषज्ञों, संगठनों, या सार्वजनिक निकायों की राय भी ले सकती है, जिनकी इस विषय में रूचि है। प्रत्येक अनुच्छेद और सूची पर विचार अकरने के बाद और समिति द्वारा उन्हें अपनाने के बाद लोकसभा सचिवालय एक ब्यौरा तैयार करता है। यह ब्यौरा विचार के लिए सदन को प्रस्तुत किया जाता है।  

राय जाननाः संसद एक प्रस्ताव पारित कर सकती है कि राय जानने के लिए विधेयक को स्थानीय निकायों, संगठनों, व्यक्तियों या संस्थाओं को वितरित किया जाए। ऐसे मामले में सदन का सचिवालय राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को पत्र लिखता है कि वे विधेयक को अपने-अपने स्थानीय राजपत्रों में प्रकाशित करें। राय जाने की अवधि का उल्लेख आमतौर पर प्रस्ताव में किया जाता है। यदि इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं किया गया है, तो राज्य सरकारों को प्रस्ताव स्वीकृत होने के तीन महीनों के अंदर अपनी राय प्रेषित करनी होती है। प्राप्त राय को संसद में प्रस्तुत किया जाता है। विधेयक एक बार फिर से समिति चरण से गुजरता है। इस समय, जैसा कि समिति ने ब्यौरा प्रस्तुत किया है, सदन विधेयक पर बहस कर सकता है। बहस केवल उन्हीं बिन्दुओं तक सीमित होती है जिनपर समिति ने ब्यौरा प्रस्तुत किया है। 

 द्वितीय चरणः समिति द्वारा प्रस्तुत ब्योरे के अनुसार सदन द्वारा विधेयक पर बहस करने का निर्णय लिए जाने के बाद सदस्य विधेयक के प्रत्येक अनुच्छेद पर स्वतंत्र रूप से चर्चा करते हैं। वे अनुच्छेदों में संशोधन भी कर सकते हैं। यह एक लंबी प्रक्रिया है, जहां प्रत्येक अनुच्छेद और संशोधन पर विस्तार से चर्चा होती है, और या तो सदन द्वारा उसे स्वीकृत कर लिया जाता है, या अस्वीकृत कर दिया जाता है। यदि कोई संशोधन स्वीकार कर लिया जाता है, तो वह विधेयक का एक भाग बन जाता है।  

तृतीय पठनः इस चरण पर विधेयक पर केवल इसी विषय पर चर्चा होती है कि विधेयक को स्वीकार किया जाए या इसे अस्वीकार किया जाए। इस चरण में केवल कुछ मौखिक, औपचारिक और अनुवर्तीय संशोधन प्रस्तुत करने की ही अनुमति प्रदान की जाती है। एक साधारण विधेयक को पारित होने के लिए उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है।

संसद के जिस सदन में विधेयक का उद्भव हुआ है वहां से अनुमोदन प्राप्त होने के बाद उसे संसद के दूसरे सदन को भेजा जाता है। एक बार फिर से विधेयक पूर्व के तीनों चरणों से गुजरता है। यदि कोई विधेयक इसके उद्भव के सदन द्वारा पारित कर दिया गया है, और दूसरे सदन द्वारा अस्वी.त कर दिया गया है, तो राष्ट्रपति को संसद का संयुक्त अधिवेशन बुलाने का अधिकार है। ऐसे समय में विधेयक को पारित करना है या अस्वीकृत करना है इसका निर्णय संसद के दोनों सदनों के कुल उपस्थित सदस्यों के मतदान से प्राप्त बहुमत के आधार पर किया जाता है।  

जब किसी विधेयक को संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया जाता है, तो इसे राष्ट्रपति के समक्ष उनके अनुमोदन के लिए प्रस्तुत किया जाता है। यदि राष्ट्रपति विधेयक पर हस्ताक्षर करने की स्वीकृति प्रदान नहीं करते, तो विध्वयक अस्वीकृत हो जाता है। हालांकि आमतौर पर राष्ट्रपति मंत्री परिषद की सलाह के अनुसार ही कार्य करते हैं, अतः वे मंत्रियों की सलाह के बाद विधेयक पर स्वीकृति को रोकते नहीं हैं। उन्हें विधेयक के संबंध में जानकारी और स्पष्टीकरण मांगने का अधिकार है। यदि राष्ट्रपति विधेयक को अपनी स्वीकृति प्रदान कर देते हैं, तो विधेयक अधिनियम बन जाता है।  

2.3 धन विधेयक  

भारत के संविधान के अनुसार एक विधेयक को धन विधेयक तब माना जाता है जब उसमें निम्न मामलों से संबंधित सभी या कोई भी प्रावधान विद्यमान हैं। ये मामले हैंः

  1. किसी भी कर का अधिरोपण, समाप्ति, छूट, रद्दोबदल या विनियमन;
  2. भारत सरकार द्वारा उधार लिए गए धन या सरकार द्वारा प्रदान की गई किसी भी प्रत्याभूति का विनियमन। विधेयक भारत सरकार द्वारा लिए गए या भविष्य में लिए जाने वाले किसी वित्तीय दायित्व के संबंध में कानून में संशोधन पर भी विचार कर सकता है;
  3. भारत की समेकित निधि या भारत की आकस्मिकता निधि की अभिरक्षा, ऐसे किसी भी कोष में किये गए भुगतान, या उनमें से निकाला गया धन;
  4. भारत की समेकित निधि में से विनियोजित किया गया धन;
  5. किसी नए मद की घोषणा जिसका व्यय भारत की समेकित निधि पर प्रभारित किया जाना है। साथ ही ऐसे किसी व्यय की राशि में वृद्धि हुई है। 
  6. भारत की समेकित निधि या भारत के लेखा खाते में हुई किसी धन की प्राप्ति, या ऐसे धन की अभिरक्षा या ऐसे धन को जारी करना, या संघ या राज्य के खातों का लेखा परीक्षण; या 
  7. ऐसा कोई मामला जो उपखंड़ (ए) से (एफ) में निर्दिष्ट किसी मामले से प्रासंगिक है।

 महत्वपूर्ण : केवल राष्ट्रपति की सिफारिश पर ही एक धन विधेयक को केवल लोकसभा में ही प्रस्तुत किया जा सकता है। साथ ही सदन के सभापति को अंतिम अधिकार है कि वह इस बात का निर्णय करे कि कोई विधेयक धन विधेयक है अथवा नहीं। धन विधेयक राज्यसभा में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता, न ही इसे संयुक्त समिति को प्रेषित किया जा सकता है, और न ही इस पर दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में विचार किया जा सकता है।  

लोकसभा में पारित होने के बाद विधेयक को राज्यसभा में प्रस्तुत किया जाता है। राज्यसभा धन विधेयक में संशोधन नहीं कर सकती, परंतु वह इसमें संशोधन की सिफारिश कर सकती है धन विधेयक को 14 दिन के अंदर लोकसभा को वापस भेजना पड़ता है अन्यथा यह विधेयक उसी स्थिति में संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किया हुआ जाता है जिस स्थिति में प्रारंभ में लोक सभा में पारित किया गया था। राज्यसभा द्वारा सिफारिश किये गए संशोधन स्वीकृत करने हैं या अस्वीकृत करने हैं यह निर्णय करने का विशेषाधिकार लोकसभा को होता है। साधारण विधेयक की तरह धन विधेयक पुनर्विचार के लिए वापस भेजने का राष्ट्रपति को अधिकार नहीं है। सन् 2016 में पारित आधार (वित्तीय और अन्य सब्सिडी, लाभ और सेवओं का लक्षित वितरण) अधिनियम (2016) एक धन विधेयक के रूप में पारित हुआ, और उसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई, जहां सितंबर 2018 में आये फैसले ने उसके कुछ हिस्से खारिज कर दिये, किंतु उस कानून को संवैधानिक ठहराया गया।  

2.4 वित्तीय विधेयक  

कोई भी विधेयक जो राजस्व या व्यय से संबंधित होता है उसे वित्तीय विधेयक कहा जाता है। जो विधेयक धन विधेयक में निर्दिष्ट किये गए किन्ही भी मामलों के लिए प्रावधान करते हैं, परंतु जिनमें केवल वे मामले ही नहीं होते, उन्हें वित्तीय विधेयक कहा जाता है। उदाहरणार्थ, किसी विधेयक में करारोपण का अनुच्छेद है, परंतु यह पूर्णतः करारोपण से संबंधित नहीं है। वित्तीय विधेयकों में समेकित निधि में से किये गए व्यय के मामले भी शामिल होते हैं।  

 2.5 धन विधेयक और वित्तीय विधेयक में अंतर 

  • सभी वित्तीय विधेयक धन विधेयक नहीं होते। 
  • किसी वित्तीय विधेयक को धन विधेयक तभी माना जाता है जब इसमें वे मामले शामिल हैं जो संविधान में धन विधेयकों के लिए निर्दिष्ट किये गए हैं। 
  • केवल वे वित्तीय विधेयक ही धन विधेयक माने जाते हैं जो सभापति द्वारा प्रमाणित किये जाते हैं। 
  • एक वित्तीय विधेयक जिसमें धन विधेयक के लिए निर्दिष्ट मामले शामिल हैं, परंतु जो पूर्ण रूप से ऐसे मामलों से सरोकार नहीं रखता, इसकी दो विशेषतायें धन विधेयकों के समान होती हैंः

    1. यह राज्यसभा में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता 
    2. यह राष्ट्रपति की सिफारिश के बिना प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। 

  • परंतु विधेयक को धन विधेयक के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है, तो राज्य सभा को उसे अस्वीकार करने का और उसे  का पूर्ण अधिकार प्राप्त है, जैसा कि वह साधारण विधेयक के मामले में करती है। सदन में यदि किसी विधेयक पर असहमति बनी हुई है, तो इस गतिरोध को सुलझाने के लिए राष्ट्रपति दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुला सकते हैं। 
  • एक वित्तीय विधेयक जिसमें भारत की समेकित निधि में से किया गया व्यय समाविष्ट है, तो एक साधारण विधेयक की तरह ही माना जाता है। इस प्रकार यह संसद के दोनों सदनों में जा सकता है, और राज्यसभा को इसे  का या संशोधित करने का पूर्ण अधिकार है। इसके प्रस्तुतीकरण के लिए राष्ट्रपति की सिफारिश आवश्यकता नहीं होती। हालांकि विधायक के दोनों सदनों द्वारा पारित किये जाने से पहले राष्ट्रपति की सिफारिश आवश्यक है।

2.6 विनियोग विधेयक 

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, विनियोग विधेयक सरकार को भारत की समेकित निधि में से व्यय के विनियोग का कानूनी अधिकार प्रदान करता है संविधान कहता है कि समेकित निधि में से कोई भी धन संसद द्वारा कानून अधिनियमित किये बिना नहीं निकाला जा सकता। एक विधेयक जिसमें लोकसभा द्वारा मतदान की गई अनुदान मांगों का समावेश होता है, साथ ही जिसमें समेकित निधि पर प्रभारित किया गया व्यय भी शामिल है, यह लोकसभा में ही प्रस्तुत किया जा सकता है। इस विधेयक को विनियोग विधेयक कहा जाता है। यह भी उसी तरह पारित किया जाता है जैसे अन्य विधेयक पारित किये जाते हैं। परंतु इस विधेयक में कोई भी संशोधन प्रस्तावित नहीं किये जा सकते। लोकसभा में विधेयक पारित होने के बाद सभापति इसे धन विधेयक के रूप में प्रमाणित करते हैं। राज्यसभा इस विधेयक पर सिफारिश कर सकता है, परंतु उसके पास इसे संशोधित करने या अस्वीकृत करने के अधिकार नहीं हैं। इसके पश्चात विधेयक को राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए प्रस्तुत किया जाता है।  

2.7 वित्त विधेयक (बजट)  

 वित्त विधेयक में सरकार के अगले वित्तीय वर्ष के लिए सभी वित्तीय प्रस्तावों का समावेश होता है। आमतौर पर इसे बजट प्रस्तुत किये जाने के तुरंत बाद लोकसभा में प्रस्तुत किया जाता है। इस विधेयक पर होने वाली चर्चा केवल केंद्र सरकार की जिम्मेदारी के दायरे में आने वाले सामान्य प्रशासन और लोक शिकायतों के मामलों तक ही सीमित रह सकती है। विशिष्ट अनुमानों के विवरण पर चर्चा की अनुमति नहीं होती। इस विधेयक के प्रस्तुतीकरण से 75 दिन के अंदर इसे संसद द्वारा पारित करके राष्ट्रपति का अनुमोदन प्राप्त करना अनिवार्य है। फिर इसे धन विधेयक के रूप में प्रमाणित किया जाता है। इस प्रकार राज्यसभा इस विधेयक पर केवल सिफारिशें ही कर सकती है। इन सिफारिशों को स्वीकार करना या अस्वीकार करना लोकसभा का विशेषाधिकार होता है। 

 2.8 विधेयक का अधिनियम बनना  

एक बार जब कोई विधेयक संसद द्वारा अनुमोदित हो जाता है, तो इसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति के बिना कोई भी विधेयक अधिनियम नहीं बन सकता। 

3.0 अन्य प्रक्रियाएं 

3.1 भारत के संविधान का संशोधन  

संसद को अनुच्छेद 368 में निर्धारित की गई प्रक्रिया के माध्यम से भारतीय संविधान में संशोधन करने का अधिकार है। इस प्रक्रिया की शुरुआत संसद के किसी भी सदन में एक विधेयक की प्रस्तुति से शुरू होती है। यह विधेयक सरकार द्वारा भी प्रस्तुत किया जा सकता है और एक निजी सदस्य द्वारा भी प्रस्तुत किया जा सकता है। आमतौर पर एक मंत्री द्वारा प्रेषित संविधान (संशोधन) विधेयक लोक सभा में प्रस्तुत किये जाते हैं। पारित होने से पहले संविधान (संशोधन) विधेयक पठन के तीन चरणों से होकर गुजरता है। संशोधन के उद्देश्य से संविधान के अनुच्छेदों को तीन श्रेणियों में वर्गी.त किया गया हैः

  1. साधारण बहुमत द्वारा संशोधित किये जाने वाले अनुच्छेद; 
  2. ऐसे अनुच्छेद जिनके संशोधन के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है, अर्थात, सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत और सदन में उपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है;
  3. ऐसे अनुच्छेद जिनके संशोधन के लिए संसद के विशेष बहुमत के अलावा कम से कम 50 प्रतिशत राज्यों के अनुमोदन की आवशकता होती है राज्यों को अनुमोदन के लिए प्रेषित किये गए संविधान (संशोधन) विधेयक पर राज्यों को कितने समय में अपना अनुमोदन प्रदान करना है इसके लिए संविधान द्वारा कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है। 

3.2 संसदीय विशेषाधिकार बनाम सदन की अवमानना 

संसदीय विशेषाधिकारों को विशेष अधिकारों के उस समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो संसद के प्रत्येक सदन और उनकी समितियों को में संयुक्त रूप से संसद के एक घटक भाग के रूप में, और प्रत्येक सदन के सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से प्राप्त हैं। उदाहरणार्थ, संसद के सदस्य को संसद में उसके द्वारा कथन किये गए किसी भी शब्द या वाक्यांश के संबंध में, और संसद में उसके द्वारा किये मतदान के संबंध में देश के किसी भी न्यायालय की प्रक्रिया से प्रतिरक्षा प्राप्त है। जब ऐसे किन्ही अधिकारों या प्रतिरक्षा की किसी व्यक्ति या प्राधिकरण द्वारा अवहेलना की जाती है या उनपर आक्रमण किया जाता है तो ऐसे अपराध को विशेषाधिकार हनन कहा जाता है, और कानून के तहत यह अपराध सजा का पात्र है। हालांकि इन विषाधिकारों को कानून द्वारा संहिताबद्ध नहीं किया गया है।  

यदि कोई भी कार्रवाई संसद के किसी भी सदन या उसकी समिति को उनके कर्तव्यों का निर्वहन करने से अवरुद्ध करती है तो यह सदन की अवमानना में गिना जाता है। उदाहरणार्थ, सदस्यों के संसदीय आचरण को प्रभावित करने के लिए यदि सदस्यों को रिश्वत की पेशकश की जाती है तो यह भी संसद की अवमानना का एक प्रकार है। 

3.3 संसद का प्रश्न काल  

संसद के दोनों सदनों की प्रत्येक बैठक के पहले घंटे को प्रश्न काल कहा जाता है। प्रश्न काल के दौरान सदस्यों को सरकार की राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर की किसी भी प्रशासनिक या शासकीय नीति पर प्रश्न उठाने का अधिकार होता है। संसद के दोनों सदनों में सदस्यों द्वारा पूछे गए गए प्रश्न आमतौर पर मंत्रियों को संबोधित किये जाते हैं। इन प्रश्नों को तारांकित प्रश्न, अतारांकित प्रश्न, और अल्प सूचना प्रश्न के रूप में वर्गी.त किया जा सकता है। सदस्य को प्रश्न पूछने से पहले संबंधित सदन के महासचिव को सूचना देनी होती है कि वे सदन में प्रश्न पूछना चाहते हैं। 

 3.4 अन्य विधायिकाओं में प्रश्न काल  

वह प्रक्रिया जिसमें निर्वाचित प्रतिनिधि प्रश्न पूछते हैं और उनके जवाब प्रधान मंत्री या सरकार के अन्य मंत्रियों द्वारा दिए जाते हैं यह संसदीय परंपरा के एक भाग के रूप में कई अन्य देशों में भी विद्यमान है। भारतीय संसद का प्रश्न काल यूनाइटेड किंगडम की कॉमन्स सभा के प्रधानमंत्री के प्रश्न, स्कॉटिश संसद और वेल्स की राष्ट्रीय असेंबली के प्रथम मंत्री के प्रश्न, कनाड़ा की संघीय संसद और प्रांतीय विधायिकाओं की प्रश्न अवधि और ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के प्रश्न समय के समान है।  

3.5 संसदीय प्रश्नों के प्रकार 

मंत्रियों को संबोधित किये जाने वाले प्रश्न तीन प्रकार के होते हैं  

तारांकित प्रश्नः वे प्रश्न जिनके मौखिक उत्तर सदन के पटल पर दिए जाते हैं और जिन पर तारे का चिन्ह बना होता है, उन्हें तारांकित प्रश्न कहा जाता है। संबंधित मंत्री के उत्तर के बाद संबंधित सदस्य को पूरक प्रश्न पूछने की भी अनुमति होती है।  

अतारांकित प्रश्नः वे प्रश्न जिनके जवाब लिखित में दिए जाते हैं और जिनपर तारे का चिन्ह नहीं बना होता उन्हें अतारांकित प्रश्न कहा जाता है। मंत्री द्वारा उत्तर दिए जाने के बाद पूरक प्रश्न पूछने की अनुमति नहीं होती। 

अल्प सूचना प्रश्नः आमतौर पर संसद में प्रश्न पूछने के लिए कम से कम 10 दिन पूर्व सूचना देनी होती है। हालांकि यदि कोई सदस्य तत्काल कोई प्रश्न पूछना चाहता है और वह 10 दिन नहीं रुक सकता, तो ऐसे मामलों में उसे 10 दिन के पहले भी प्रश्न पूछने की अनुमति दी जाती है। ऐसे प्रश्नों को अल्प सूचना प्रश्न कहा जाता है।

3.6 प्रश्न काल के बाद का कामकाज 

प्रश्न काल की समाप्ति के बाद सदन के मुख्य कार्य को शुरू करने से पहले सदन प्रकीर्ण कामकाज करता है। इनमें निम्न में से एक या एक से अधिक कार्य शामिल हो सकते हैंः स्थगन प्रस्ताव, विशेषाधिकार हनन के प्रश्न, सदन के पटल पर रखे जाने वाले कागज, राज्यसभा से प्राप्त संदेशों की सूचना राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों को प्रदान की गई सहमति की जानकारी, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, नियम 377 के तहत मामले, संसदीय समितियों द्वारा रिपोर्ट्स का प्रस्तुतीकरण, याचिकाओं का प्रस्तुतीकरण, मंत्रियों द्वारा विविध वक्तव्य, समितियों के लिए चुनाव के प्रस्ताव, वापस लिए जाने वाले या प्रस्तुत किये जाने वाले विधेयक। 

3.7 संसद का शून्य काल  

शब्दकोशों में शून्य काल का वर्णन उस काल के रूप में किया गया है ‘‘जब कोई नियोजित कार्रवाई करना, विशेष रूप से सैन्य कार्रवाई, करने का समय निर्धारित किया गया है‘‘ या ‘‘आक्रमण शुरू करने का निर्धारित किया गया समय।‘‘ 

शून्य काल उस काल को इंगित करता है जो संसद के दोनों सदनों में प्रश्न काल के तुरंत बाद शुरू होता है। यह दोपहर 12.00 बजे शुरू होता है। इसे ‘‘काल‘‘ इसलिए कहा जाने लगा क्योंकि यह आमतौर पर यह संपूर्ण एक घंटा जारी रहता है, जब तक कि दोपहर 1.00 बजे सदन दोपहर के भोजन के लिए नहीं उठ जाता। हालांकि बीते वर्षों के दौरान शून्य काल का समय परिवर्तित होता रखा है। यह अनुमान लगाना कठिन है कि शून्य काल के दौरान सदन में किस प्रकार के मामले उठाये जायेंगे, क्योंकि संसद की नियमावली में ‘‘शून्य काल‘‘ का किसी प्रकार का उल्लेख नहीं मिलता। यह शब्द प्रेस द्वारा 1960 के दशक में ‘‘शून्य काल‘‘ के रूप में प्रचलित किया गया, जब सार्वजनिक सृष्टि से महत्वपूर्ण मुद्दे बिना किसी पूर्व सूचना के सदन में उठाये जाने लगे थे। हालांकि शिष्ट भाषा में इसे शून्य काल कहा जाता है फिर भी आवश्यक नहीं है कि यह पूरे एक घंटे तक जारी रहे य यह ऐसे समय के लिए जारी रहता है जो लगभग आधे घंटे या उसके आसपास के समय तक जारी रहता है। कभी-कभी यह पूरे एक घंटे, या उससे भी अधिक समय तक जारी रह सकता है, जो उन मामलों पर निर्भर करता है जो किसी विशिष्ट दिन सदस्य सदन में उठाते हैं, और उन मामलों के महत्त्व और गंभीरता क्या है। यह भी आवश्यक नहीं है कि सत्र के दौरान सदन में प्रत्येक दिन शून्य काल का निर्धारण किया ही जाए। 

4.0 चर्चा के प्रकार 

4.1 आधे घंटे की चर्चा  

सार्वजनिक दृष्टि से कोई भी महत्वपूर्ण मामला, जिस पर हाल ही में लोकसभा में प्रश्न उठाये गए हैं, उसपर आधे घंटे की चर्चा के दौरान चर्चा की जा सकती है। आमतौर पर यह चर्चा सोमवार, बुधवार और शुक्रवार के सदन के अंतिम आधे घंटे के दौरान की जाती है। चर्चा के दौरान जिस सदस्य ने सूचना दी है वह एक छोटा सा वक्तव्य करता है और अधिकतम चार सदस्यों को, जिन्होंने पहले से ही प्रश्न पूछने का अपना अधिकार सुरक्षित कर लिया है, उन्हें प्रश्न पूछने का अवसर दिया जाता है, ताकि विषय के तथ्यों पर समग्र रूप से चर्चा की जा सके। उसके बाद संबंधित मंत्री प्रश्नों के जवाब देते हैं। इस दौरान सदन के समक्ष कोई औपचारिक प्रस्ताव नहीं होता, और ना ही मतदान कराया जाता है।  

4.2 सार्वजनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मामलों पर चर्चा  

सदस्य सभापति की अनुमति से सार्वजनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मामलों पर चर्चा उठा सकते हैं। ऐसी चर्चा सप्ताह में दो बार की जा सकती है। ऐसी चर्चा का न तो कोई औपचारिक प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाता है, और ना ही इसपर मतदान किया जाता है। 

 4.3 संसद की बहस 

 जिस सदस्य ने सदन की कार्रवाई में समाविष्ट किसी विषय पर चर्चा की शुरुआत की है, उसका कथन समाप्त होने के बाद अन्य सदस्य चर्चा में हिस्सा ले सकते हैं और विषय पर अपनी बात कह सकते हैं। सदस्यों को बोलने का अवसर सभापति द्वारा निर्धारित क्रम के अनुसार दिया जाता है। एक समय में एक ही सदस्य बोल सकता है, और सभी वक्तव्य सभापति को संबोधित किये जाते हैं। जब किसी मामले पर सदन के निर्णय की आवश्यकता होती है, तो यह सभापति द्वारा सदस्य द्वारा उठाये गए विषय पर एक प्रश्न पूछ कर सदन की राय ली जाती है। 

 5.0 बहुमत का निर्धारण 

 5.1 विभाजन 

विभाजन सदन का निर्णय निर्धारित करने का एक तरीका है। आमतौर पर जब सदन में कोई प्रस्ताव पेश किया जाता है, तो प्रस्ताव के पक्ष और विरोध में सदस्य अपने स्थान पर बैठे-बैठे ‘‘हां‘‘ या ‘‘ना‘‘ कहकर अपनी राय प्रदर्शित करते हैं। सभापति ध्वनिमत के अनुसार निर्णय करते हैं और घोषित करते हैं कि प्रस्ताव स्वीकार किया गया है या अस्वीकार किया गया है। उसके बाद विभाजन की घंटी बजे जाती है, और संसद भवन के विभन्न कमरों में, और अन्य स्थानों पर लगी हुई सभी घंटियां एकसाथ बजने लगती हैं, और ये सभी घंटियां लगातार साढे तीन मिनट तक बजती रहती हैं। चारों ओर से मंत्री और अन्य सदस्य अपने अपने कक्षों से सभाग्रह की ओर शीघ्र गति से दौड़ते हैं। जब घंटियां बजना बंद हो जाती हैं तो सभाग्रह के सभी द्वार बंद कर दिए जाते हैं, और किसीको भी अंदर आने या बाहर जाने की तब तक अनुमति नहीं होती जब तक कि मत विभाजन की कार्रवाई पूरी नहीं हो जाती। फिर सभापति दूसरी बार विभाजन का प्रश्न पूछते हैं और अपनी राय घोषित करते हैं कि प्रस्ताव पर ‘‘हाँ‘‘ की विजय हुई है अथवा ‘‘ना‘‘ की। यदि घोषित निर्णय को चुनौती दी जाती है, तो सभापति मत दर्ज करने के स्वचालित उपकरण पर मत दर्ज करने का आदेश देते हैं।  

5.2 स्वचालित मत दर्ज करने की प्रणाली 

सभापति की मत दर्ज करने की घोषणा के साथ ही महासचिव की बोर्ड़ पर लगा हुआ बटन दबाते हैं। फिर घंटे के बजने की आवाज आती है, जो सदस्यों के लिए मतदान का संकेत होता है। मतदान करने के लिए सदन में उपस्थित प्रत्येक सदस्य को कक्ष में लगा हुआ एक स्विच दबाना होता है, और उनके आसन पर लगे हुए तीन बटनों में से एक बटन दबाना होता है। इस बटन को तब तक दबाये रखना पडता है जब तक कि 10 सेकंड बाद घंटी दुबारा नहीं बज जाती। 

सभापति के आसन के दोनों ओर की दीवारों पर दो संकेतक बोर्ड लगे होते हैं। सदस्य द्वारा दिया गया मत इन बोर्ड पर चमकता है। मतदान होने के तुरंत बाद मशीन से मतों की गिनती की जाती है और परिणाम सभापति और राजनयिकों के कटघरे पर लगे हुए परिणाम बोर्ड पर इंगित किया जाता है। मत विभाजन आमतौर पर स्वचालित मत दर्ज करने के उपकरण की सहायता से किया जाता है। जहां सभापति द्वारा लोकसभा के नियमों और प्रक्रियाओं के आधार पर दिए गए निर्देशों के अनुसार मत विभाजन या तो ‘‘हाँ‘‘ या ‘‘ना‘‘ या ‘‘अनुपस्थित‘‘ की सदस्यों को दी गई पर्चियों के आधार पर किया जाता है, या सदस्यों द्वारा लॉबी में जा कर दर्ज किये गए मतों के आधार पर किया जाता है। 

मशीन कक्ष में एक संकेतक बोर्ड लगा होता है, जिस पर प्रत्येक सदस्य का नाम दिखाई देता है। मत विभाजन का परिणाम, और प्रत्येक सदस्य द्वारा डाला गया मत इस बोर्ड पर इंगित होता है। तुरंत इस बोर्ड का छायाचित्र लिया जाता है। बाद में इस छायाचित्र को बडा किया जाता है, और किन सदस्यों ने ‘‘हाँ‘‘ या ‘‘ना‘‘ कहा है इसका निर्धारण इस छायाचित्र की सहायता से किया जाता है, और इसे लोकसभा की बहस में समाविष्ट कर लिया जाता है।

6.0 अन्य आवश्यकताएं

6.1 संसद के सदन की गणपूर्ति 

लोकसभा के किसी भी सत्र की शुरुआत 55 सदस्यों की गणपूर्ति के साथ की जा सकती है (कुल सदस्यता का दसवां भाग), जिनमें सभापति, या सभापति का दायित्व निभाने वाले सदस्य  शामिल हैं। सदन की प्रत्येक दिन की बैठक शुरू होने से पहले, और सभापति द्वारा अपना आसान ग्रहण करने से पहले गणपूर्ति सुनिश्चित की जाती है। राज्यसभा की बैठक के लिए गणपूर्ति है सदन की कुल सदस्यता का दसवां भाग, अर्थात, 25 सदस्य। 

6.2 संसद के सदन का सत्रावसान 

सत्रावसान का अर्थ है राष्ट्रपति का एक आदेश जो सदन के सत्र का अवसान करता है। सत्रावसान किसी भी समय किया जा सकता है। हालांकि आमतौर पर सत्रावसान सदन की बैठक स्थगित होने के बाद किया किया जाता है, जिसमें सदन के अगले सत्र की तिथि निश्चित नहीं की जाती। सदन के सत्रावसान और इसके पुनः आयोजन के बीच की अवधि को ‘‘सत्रावकाश की अवधि‘‘ कहा जाता है। 

सदन को स्थगित करने के अपने अधिकार का उपयोग करने से पहले राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह के अनुसार कार्य करते हैं। राष्ट्रपति को सलाह प्रस्तुत करने से पहले प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल से परामर्श कर सकते हैं। 

6.3 ध्यानाकर्षण 

प्रत्येक सदस्य को (सभापति की पूर्व अनुमति के साथ) सार्वजनिक महत्त्व के किसी तत्काल महत्वपूर्ण मामले पर संबंधित मंत्री का ध्यान आकर्षित करने का अधिकार है। यह संकल्पना भारत के लिए अद्वितीय है। ‘‘ध्यानाकर्षण‘‘ सदस्य को यह अनुमति प्रदान करता है कि वह किसी महत्वपूर्ण सार्वजनिक महत्त्व के विषय पर सरकार द्वारा की गई कार्रवाई की अपर्याप्तता को उजागर कर सकते हैं। निंदा के पहलू को छोड़ कर यह संकल्पना स्थगन प्रस्ताव के समान ही है। मंत्री संबंधित विषय पर एक संक्षिप्त बयान देते हैं, या बयान देने के लिए तिथि निश्चित करने का अनुरोध करते हैं। 

7.0 प्रस्ताव

संसद में सदस्य प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकते हैं। इस प्रकार, सदन में प्रस्तुत किये गए प्रस्ताव सदन के समक्ष लाये गए सार्वजनिक महत्त्व के विषय होते हैं जिनपर सदन की राय या सदन का निर्णय प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। सदन द्वारा स्वी.त किये गए किसी भी प्रश्न को सदन में एक ‘‘प्रस्ताव‘‘ के रूप में ही प्रस्तुत किया जा सकता है। एक प्रस्ताव लाने के लिए सदन के अध्यक्ष या सभापति की सहमति  आवश्यक है। 

सभी प्रस्तावों को, जिनके विषय में नियमानुसार लोकसभा के सचिवालय को सूचना प्राप्त हो चुकी है, निम्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता हैः

  1. मौलिक प्रस्ताव 
  2. स्थानापन्न प्रस्ताव, और 
  3. पूरक प्रस्ताव, जिसे अन्य तीन श्रेणियों में वर्गी.त किया जा सकता हैः अनुषंगी प्रस्ताव, अधिक्रमण प्रस्ताव, और संशोधन। 

एक प्रस्ताव चार चरणों से गुजरता हैः

  1. प्रस्ताव लाना,
  2. सभापति/अध्यक्ष द्वारा प्रश्न प्रस्तावित करना 
  3. जहां अनुमति है वहां बहस या चर्चा 
  4. मतदान या सदन का निर्णय।  

आमतौर पर सरकार द्वारा प्रस्तुत किये गए प्रस्तावों का उद्देश्य किसी सरकारी नीति या सरकार द्वारा की गई किसी कार्रवाई के विषय में सदन का अनुमोदन प्राप्त करना होता है। जबकि निजी सदस्यों द्वारा प्रस्तुत किये गए प्रस्तावों का उद्देश्य किसी विशिष्ट मामले पर सदन की राय प्राप्त करने का होता है। 

इन प्रस्तावों को अधिशासित करने वाले नियम निम्नानुसार हैंः

मौलिक प्रस्तावः मौलिक प्रस्ताव या मूल प्रस्ताव सदन में प्रस्तुत किया गया एक आत्मनिहित स्वतंत्र प्रस्ताव होता है, जो सदन की सहमति के उद्देश्य से प्रस्तुत किया जाता है। इनका मसौदा इस प्रकार से तैयार किया जाता है जो सदन के निर्णय को अभिव्यक्त करने की क्षमता रखता है, उदाहरणार्थ सभी संकल्प मौलिक प्रस्ताव होते हैं। 

स्थानापन्न प्रस्तावः किसी नीति या स्थिति या वक्तव्य या किसी भी अन्य मामले पर ध्यान देने के उद्देश्य से मूल प्रस्ताव के बदले प्रस्तुत किये गए प्रस्तावों को स्थानापन्न प्रस्ताव कहा जाता है। ऐसे प्रस्ताव हालांकि इस प्रकार तैयार किये जाते हैं कि वे अपने आप में राय व्यक्त करने में सक्षम होते हैं परंतु सच पूछा जाए तो वे मूल प्रस्ताव होते क्योंकि कहीं न कहीं वे मौलिक प्रस्ताव पर निर्भर होते हैं। 

पूरक प्रस्तावः वे अन्य प्रस्तावों पर निर्भर होते हैं, या उनसे संबंधित होते हैं। उनका अपना कोई अर्थ नहीं होता, और मूल प्रस्ताव, या सदन की पिछली किसी कार्रवाई का संदर्भ लिए बिना वे सदन का निर्णय व्यक्त करने में असमर्थ होते हैं। पूरक प्रस्तावों को निम्न वर्गों में वर्गी.त किया जा सकता हैः

  • अनुषंगी प्रस्तावः ये वे प्रस्ताव होते हैं जिनकी पहचान सदन की प्रथा के अनुसार विभिन्न विषयों पर सदन में नियमित रूप से होने वाली कार्रवाई से होती है। अर्थात, वे सदन की नियमानुसार होने वाली कार्रवाई के अनुषंगी होते हैं। अनुषंगी प्रस्तावों के कुछ उदाहरण निम्नानुसार हैंः

    1. किसी विधेयक को विचारार्थ लेना। 
    2. विधेयक को पारित करना। 

  • अधिक्रमण प्रस्तावः ये वे प्रस्ताव होते हैं जो स्वरुप में तो स्वतंत्र होते हैं, परंतु वे बहस के दौरान किसी अन्य प्रश्न पर प्रस्तुत किये जाते हैं, और चाहते हैं कि उस प्रश्न का अधिक्रमण किया जाए। इस श्रेणी में सभी विलंबित प्रस्ताव समाविष्ट होते हैं। किसी विधेयक को विचारार्थ लेने के लिए निम्न प्रस्ताव अधिक्रमण प्रस्ताव होते हैंः

    1. विधेयक को दुबारा प्रवर समिति को भेजना।
    2. विधेयक को दुबारा संसद की संयुक्त समिति को भेजना। 
    3. सदन की राय जानने के लिए विधेयक को पुनः वितरित करना। 
    4. विधेयक पर विचार या बहस को अनिश्चित काल के लिए स्थगित करना किसी अगली तिथि तक के लिए स्थगित करना। 

  • संशोधनः ये पूरक प्रस्ताव होते हैं, जो मुख्य प्रश्न और निर्णय के बीच में प्रश्नों या निर्णय की एक नई प्रक्रिया का हस्तक्षेप करते हैं। संशोधन किसी विचाराधीन विधेयक के अनुच्छेद के लिए हो सकते हैं, किसी संकल्प या प्रस्ताव के लिए हो सकते हैं, या विधेयक के किसी अनुच्छेद के संशोधन के लिए हो सकते हैं। 

प्रस्ताव सदन में प्रस्तुत किस प्रकार किया जाता हैः सभापति संबंधित सदस्य को प्रस्ताव प्रस्तुत करने, और एक नियत तिथि को उस पर वक्तव्य देने के लिए आमंत्रित करते हैं। उसके बाद सभापति प्रस्ताव को सदन के पटल पर रखते हैं। जिन सदस्यों ने पूर्व में सूचना दी हुई है, वे स्थानापन्न प्रस्ताव या संशोधन प्रस्ताव लाते हैं, और चर्चा शुरू होती है। चर्चा समाप्त होने पर स्थानापन्न प्रस्ताव या संशोधन प्रस्ताव सदन में मतदान के लिए रखे जाते हैं, और इस प्रकार उन पर निर्णय लिया जाता है। 

स्थगन प्रस्तावः संसदीय सम्भाषण में ‘‘स्थगन‘‘ का अर्थ है किसी प्रस्ताव/विधेयक पर बहस को खंडित करना या समाप्त करना। सदन का स्थगन सदन की बैठक को समाप्त करने के लिए किया जाता है। इसका अर्थ सदन की बैठक की कार्रवाई के बीच एक संक्षिप्त अवकाश भी हो सकता है। अनिश्चित काल के लिए स्थगित करने का अर्थ है अगली बैठक की तिथि निश्चित किये बिना सदन की कार्रवाई को स्थगित या समाप्त करना होता है। 

अनियत दिन वाला प्रस्तावः यदि सभापति किसी प्रस्ताव की सूचना को स्वीकार कर लेते हैं परंतु इसके प्रस्तुतीकरण की कोई तिथि निर्धारित नही करते तो उसे अनियत दिन वाला प्रस्ताव कहा जाता है। इन्हें कार्य मंत्रणा समिति के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, जो सदन में चर्चा के लिए प्रस्तावों का चयन करती है, और इसके लिए तिथि और समय निर्धारित करती है। सरकारी प्रस्तावों को निजी सदस्यों के प्रस्तावों पर तरजीह दी जाती है, क्योंकि अनियत दिन वाले प्रस्तावों पर सरकार के समय के दौरान चर्चा होती है। 

7.1 विश्वास प्रस्ताव और अविश्वास प्रस्ताव 

संसद के परिवर्तित होते राजनीतिक गठन ने एक नई प्रक्रिया को जन्म दिया है, जिसे मंत्रिमंडल पर विश्वास प्रस्ताव कहा जाता है। यह प्रथा हाल के समय में विकसित हुई है, जहां किसी एक दल को सदन में बहुमत प्राप्त नहीं होता अपनाई जाने वाली प्रक्रिया निम्नानुसार होती हैः नियम 184 के तहत एक पंक्ति का एक प्रस्ताव ‘‘कि सदन मंत्री परिषद पर अपना विश्वास व्यक्त करता है‘‘ प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रपति के निर्देश पर प्रस्तुत किया जाता है। 

मंत्री परिषद अपने पद पर तभी तक बनी रह सकती है जब तक उसे लोकसभा का विश्वास प्राप्त है। यदि लोकसभा मंत्री परिषद पर विश्वास का अभाव व्यक्त करती है, तो संवैधानिक रूप से सरकार को त्यागपत्र देना अनिवार्य है। विश्वास प्राप्त करने के लिए नियमों में इस प्रकार का प्रस्ताव लाने का प्रावधान किया गया है, जिसे अविश्वास प्रस्ताव कहा जाता है। अविश्वास प्रस्ताव को स्वीकार किये जाने के बाद 10 दिन के अवकाश के बाद इसे चर्चा के लिए लेना अनिवार्य है। राज्यसभा को अविश्वास प्रस्ताव लाने का अधिकार नहीं है। 

7.2 निंदा प्रस्ताव

निंदा प्रस्ताव एक विशेष प्रकार का अविश्वास प्रस्ताव होता है। जबकि अविश्वास प्रस्ताव में इसके आधार के लिए कोई कारण देने की आवश्यकता नहीं है, जबकि निंदा प्रस्ताव में वे कारण देना अनिवार्य है जिनपर यह प्रस्ताव आधारित है। निंदा प्रस्ताव मंत्री परिषद के विरुद्ध, किसी कार्य या संबंधित नीति पर कार्य करने में असफल रहने पर किसी मंत्री विशेष के विरुद्ध भी लाया जा सकता है, और इसमें मंत्री द्वारा अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं कर पाने के विरुद्ध सदन के खेद, रोष, या आश्चर्य की भावना की अभिव्यक्ति होती है।

7.3 संसद में संकल्प 

संकल्प आम जनता के हितों से जुडे हुए किसी विषय पर चर्चा शुरू करने के लिए दिया गया एक प्रक्रियात्मक साधन या मौलिक प्रस्ताव होता है। इस पर सरकार के किसी कार्य या नीति के विषय में सदन सम्मति भी दर्ज कर सकता है या असम्मति भी दर्ज कर सकता है, या संदेश, प्रशंसा की अभिव्यक्ति कर सकता है, या सरकार से आग्रह या अनुरोध कर सकता है। साथ ही किसी मामले या स्थिति पर कार्रवाई करने के लिए सरकार का ध्यान आकर्षित भी कर सकता है। 

इसी प्रकार राज्यसभा में संकल्प राय की घोषणा के स्वरुप में भी हो सकता है, या सभापति जैसा उचित समझें उस प्रकार इसे व्यक्त किया जा सकता है। संकल्पों को निजी सदस्यों के संकल्प, सरकार के संकल्प या सांविधिक संकल्पों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। प्रत्येक पखवाडे़ के शुक्रवार के अंतिम ढाई घंटे निजी सदस्यों के संकल्पों पर चर्चा के लिए आवंटित किये गए हैं। 

सरकारी संकल्प मंत्रियों द्वारा उन अंतर्राष्ट्रीय संधियों और समझौतों, सम्मेलनों पर सदन के अनुमोदन के लिए प्रस्तुत किये जाते हैं जिनमें भारत सरकार एक पक्ष होती है। सांविधिक संकल्प किसी मंत्री द्वारा या निजी सदस्य द्वारा प्रस्तुत किये जा सकते हैं। ऐसे संकल्प सदन के पटल पर संविधान या किसी संसद के अधिनियम के प्रावधानों के अनुसरण में प्रस्तुत किये जाते हैं। 

7.4 प्रस्ताव और संकल्प के बीच अंतर 

सभी संकल्प मौलोक प्रस्तावों की श्रेणी में आते हैं। परंतु प्रत्येक प्रस्ताव मौलिक प्रस्ताव हो ऐसा आवश्यक नहीं है। उसी प्रकार सभी प्रस्ताव सदन के समक्ष मतदान के लिए प्रस्तुत नहीं किये जाते, जबकि सभी संकल्पों पर मतदान कराया जाना अनिवार्य है। 

7.5 कटौती प्रस्ताव 

कटौती प्रस्ताव लोकसभा सदस्यों को सरकार द्वारा वित्तीय विधेयकों की मांगों पर की जाने वाली चर्चा के दौरान इन मांगों का विरोध करने के लिए प्रदान किया गया एक निषेधाधिकार है। इसे सरकार की शक्ति को रोकने के लिए एक साधन के रूप में माना जा सकता है। यदि सदन द्वारा कोई कटौती प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है, और सरकार के पास पर्याप्त संख्याबल नहीं है, तो उसे त्यागपत्र देना पड़ सकता है। 

किसी मांग को कम करने के लिए प्रस्ताव निम्न तरीकों से लाया जा सकता हैः

  • 1.‘‘मांग की गई राशि में 1 रुपये की कटौती की जाए‘‘, इस प्रकार का कटौती प्रस्ताव मांग को रेखांकित करने वाली नीति के विरोध को प्रदर्शित करता है। इस प्रकार के प्रस्ताव को ‘‘नीति कटौती की असम्मति‘‘ कहा जायेगा। 

  1. इस प्रकार के प्रस्ताव की सूचना देने वाले सदस्य को संक्षेप में यह इंगित करना होता कि नीति के किन विशेष मुद्दों पर वे चर्चा करना चाहते हैं। 
  2. चर्चा केवल सूचना में उल्लेख किये गए उन्हीं विशेष बिन्दुओं पर की जाएगी, और सदस्यों को किसी भी वैकल्पिक नीति की पैरवी करने की छूट होगी। 

  • ‘‘कि मांग की गई राशि में से एक निर्दिष्ट राशि कम की जाये‘‘, यह उस मितव्ययिता को प्रदर्शित करता है, जो इस मार्ग से प्राप्त की जा सकती है। 

  1. यह निर्दिष्ट राशि या तो एकमुश्त कटौती हो सकती है या मांग में किसी मद को या तो पूरी तरह से हटाने या उसमें कमी करने के संबंध में हो सकती है। 
  2. इस प्रस्ताव को ‘‘मितव्ययिता कटौती‘‘ कहा जायेगा 
  3. सूचना में विशेष मामला संक्षेप में इंगित किया जायेगा जिस पर चर्चा चाही गई है, और वक्तव्य केवल इसी बिंदु पर केंद्रित रहेंगे कि इससे मितव्ययिता किस प्रकार प्राप्त की जा सकती है। 

  • ‘‘कि मांग की राशि में 100 रुपये की कटौती की जाएष्, यह एक विशिष्ट शिकायत को आवाज देने का प्रयास है, जो भारत सरकार की जिम्मेदारी के तहत आती है। 

  1. ऐसे प्रस्ताव को ‘‘प्रतीकात्मक कटौती‘‘ कहा जायेगा, और 
  2. और इस पर चर्चा केवल सूचना में निर्दिष्ट शिकायत तक ही सीमित रहेगी। 

कटौती प्रस्तावों की स्वीकार्यताः मांगों में कटौती के लिए प्रस्तुत किये जाने वाले प्रस्ताव की सूचना की स्वीकार्यता के लिए इन्हें कुछ शर्तों को पूर्ण करना होता है, जो  निम्नानुसार हैंः

  1. यह केवल एक मांग से संबंधित होना चाहिए 
  2. यह स्पष्ट रूप से व्यक्त की जाएगी इसमें तर्क, निष्कर्ष, व्यंगात्मक अभिव्यक्ति, आरोप, विशेषण या मानहानिकारक वक्तव्य नहीं होंगे। 
  3. यह इक्वल एक विशिष्ट सिमट होगा, और संक्षेप में व्यक्त किया गया होगा। 
  4. यह किसी व्यक्ति के चरित्र या व्यवहार पर प्रतिबिंबित नहीं होना चाहिए, जिसके व्यवहार को केवल मौलिक प्रस्ताव पर ही चुनौती दी जा सकती है। 
  5. इसमें विद्यमान कानूनों में किसी संशोधन या उसे निरस्त करने का सुझाव नहीं होना चाहिए।
  6. इसका संदर्भ किसी ऐसे विषय से नहीं होना चाहिए जो भारत सरकार से संबंधित नहीं है 
  7. इसका संबंध भारत की समेकित निधि पर प्रभारित व्यय से नहीं होना चाहिए;
  8. यह किसी ऐसे मामले से संबंधित नहीं होना चाहिए जो भारत के क्षेत्राधिकार में किसी भी न्यायालय में विचाराधीन है
  9. इसके कारण कोई विशेषाधिकार का का प्रश्न नहीं निर्माण होना चाहिए
  10. यह किसी ऐसे विषय पर पुनः चर्चा के लिए नहीं लाया जायेगा जिसपर इसी सत्र में पहले ही चर्चा हो चुकी है, और न ही किसी ऐसे विषय पर जिस पर निर्णय लिया जा चुका है
  11. यह किसी ऐसे मामले की पूर्वकल्पना नहीं करेगा जिसकी नियुक्ति विचार के लिए इसी सत्र में की जा चुकी है
  12. सामान्यतः यह किसी ऐसे मामले पर चर्चा नहीं उघयेगा जो किसी सांविधिक न्यायाधिकरण या सांविधिक प्राधिकरण के समक्ष लंबित है, जो न्यायिक याअर्ध-न्यायिक कार्य निष्पादित कर रहे हैं, या किसी आयोग या जाँच अदालत, जिसकी नियुक्ति किसी मामले की जाँच या अन्वेषण के लिए की गई है
  13. सभापति अपने विवेकाधिकार के तहत सदन में ऐसे मामलों को उठाने की अनुमति प्रदान कर सकते हैं, जो प्रक्रिया या जांच के स्तर से संबंधित हैं, यदि वे इस बात से संतुष्ट हैं कि इसके कारण सांविधिक न्यायाधिकरण या सांविधिक प्राधिकरण, आयोग या जाँच अदालत की कार्रवाई पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पडे़गा, और 
  14. यह किसी नगण्य मामले से संबंधित नहीं होना चाहिए।

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मुद्दे,15,बोधगम्यता के मूल तत्व,2,भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास,47,भारत का स्वतंत्रता संघर्ष,19,भारत में कला वास्तुकला एवं साहित्य,11,भारत में शासन,18,भारतीय कृषि एवं संबंधित मुद्दें,10,भारतीय संविधान,14,महत्वपूर्ण हस्तियां,6,यूपीएससी मुख्य परीक्षा,91,यूपीएससी मुख्य परीक्षा जीएस,117,यूरोपीय,6,विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं,16,विश्व एवं भारतीय भूगोल,24,स्टडी मटेरियल,266,स्वतंत्रता-पश्चात् भारत,15,
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PT's IAS Academy: यूपीएससी तैयारी - भारत में शासन - व्याख्यान - 10
यूपीएससी तैयारी - भारत में शासन - व्याख्यान - 10
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