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राज्यों में प्रशासनिक तंत्र
1.0 संवैधानिक प्रावधान
अनुच्छेद 153 - राज्यों के राज्यपाल
प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होगाः
(परन्तु इस अनुच्छेद की कोई बात एक ही व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों के लिए राज्यपाल नियुक्त किए जाने से निवारित नहीं करेगी)।
अनुच्छेद 154 - राज्य की कार्यपालिका शक्ति
- राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह इसका प्रयोग इस संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा।
- इस अनुच्छेद की कोई बात -
- किसी विद्यमान विधि द्वारा किसी अन्य प्राधिकारी को प्रदान किए गए कृत्य राज्यपाल को अंतरित करने वाली नहीं समझी जाएगीः या
- राज्यपाल के अधीनस्थ किसी प्राधिकारी को विधि द्वारा कृत्य प्रदान करने से संसद् या राज्य के विधान-मंडल को निवारित नहीं करेगी।
अनुच्छेद 155 - राज्यपाल की नियुक्ति
राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करेगा।
अनुच्छेद 156 - राज्यपाल की पदावधि
- राज्यपाल, राष्ट्रपति के प्रसादपर्यत पद धारण करेगा।
- राज्यपाल,राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा।
- इस अनुच्छेद के पूर्वगामी उपबंधो के अधीन रहते हुए, राज्यपाल अपने पदग्रहण की तारीख से पांच वर्ष की अवधि तक पद धारण करेगाः
परन्तु राज्यपाल, अपने पद की अवधि समाप्त हो जाने पर भी, तब तक पद धारण करता रहेगा जब तक उसका उत्तराधिकारी अपना पद ग्रहण नहीं कर लेता है।
अनुच्छेद 157 - राज्यपाल नियुक्त होने के लिए अर्हताएं
कोई व्यक्ति राज्यपाल नियुक्त होने का पात्र तभी होगा जब वह भारत का नागरिक है और पैंतीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका है।
अनुच्छेद 158 - राज्यपाल के पद के लिए शर्ते
- राज्यपाल संसद के किसी सदन का या पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं होगा और यदि संसद के किसी सदन का या ऐसे किसी राज्य के विधान मंडल के किसी सदन का कोई सदस्य राज्यपाल नियुक्त हो जाता है तो यह समझा जाएगा कि उसने उस सदन में अपना स्थान राज्यपाल के रूप में अपने पद ग्रहण की तारीख से रिक्त कर दिया है।
- राज्यपाल अन्य कोई लाभ का पद धारण नहीं करेगा।
- राज्यपाल, बिना किराया दिए, अपने शासकीय निवासों के उपयोग का हकदार होगा अब ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का भी, जो संसद विधि द्वारा, अवधारित करे और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषधिकारों का, जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, हकदार होगा।
अनुच्छेद (3क) जहां एक ही व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया जाता है वहां उस राज्यपाल को संदेय उपलब्धियां और भत्ते उन राज्यों के बीच ऐसे अनुपात में आबंटित किए जाएंगे जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा अवधारित करे।
- राज्यपाल की उपलब्धियां और भत्ते उसकी पदावधि के दौरान कम नहीं किए जाएंगे।
अनुच्छेद 159 - राज्यपाल द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान
प्रत्येक राज्यपाल और प्रत्येक व्यक्ति जो राज्यपाल के कृत्यों का निर्वहन कर रहा है, अपना पद ग्रहण करने से पहले उस राज्य के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति या उसकी अनुपस्थिति में उस न्यायालय के उपलब्ध ज्येष्ठतम न्यायाधीश के समक्ष निम्नलिखित प्ररूप में शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा, अर्थात्
‘‘मैं, अमुक, ईश्वर की शपथ लेता हुॅ/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं कि मैं श्रद्धापूर्वक .............. (राज्य का नाम) के राज्यपाल के पद का कार्यपालन (अथवा राज्यपाल के कृत्यों का निर्वहन) करूंगा तथा अपनी पूरी योग्यता से संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूंगा और मैं .............. (राज्य का नाम) की जनता की सेवा और कल्याण में विरत रहूंगा।
अनुच्छेद 160 - कुछ आकस्मिकताओं में राज्यपाल के कृत्यों का निर्वहन
राष्ट्रपति ऐसी किसी आकस्मिकता में, जो इस अध्याय में उपबंधित नहीं है, राज्य के राज्यपाल के कृत्यों के निर्वहन के लिए ऐसा उपबंध कर सकेगा जो वह ठीक समझता है।
अनुच्छेद 161 - क्षमा आदि की और कुछ मामलों में दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की राज्यपाल की शक्ति
किसी राज्य के राज्यपाल को एस विषय संबंधी, जिस विषय पर एस राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है, किसी विधि के विरूद्ध किसी अपराध के लिए सिद्धदोष ठहराए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, उसका प्रविलंबन, विराम या परिहार करने की अथवा दंडादेश में निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति होगी।
अनुच्छेद 163 - राज्यपाल को सहायता और सलाह देने के लिए मंत्रि परिषद्
- जिन बातों में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने कृत्यों या उनमें से किसी को अपने विवेकानुसार करे उन बातों को छोड़कर राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रि परिषद होगी जिसका प्रधान, मुख्यमंत्री होगा।
- यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई विषय ऐसा है या नहीं जिसके संबंध में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे तो राज्यपाल का अपने विवेकानुसार किया गया विनिश्चय अंतिम होगा और राज्यपाल द्वारा की गई किसी बात की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि उसे अपने विवेकानुसार कार्य करना चाहिए था या नहीं।
- इस प्रश्न की किसी न्यायालय में जांच नहीं की जाएगी कि क्या मंत्रियों ने राज्यपाल को कोई सलाह दी, और यदि दी तो क्या दी।
अनुच्छेद 164 - मंत्रियों के बारे में अन्य उपबंध
- मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल, मुख्यमंत्री की सलाह पर करेगा तथा मंत्री, राज्यपाल के प्रसादपर्यंत अपने पद धारण करेंगेः परंतु बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा राज्यों में जनजातियों के कल्याण का भारसाधक एक मंत्री होगा जो साथ ही अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों के कल्याण का या किसी अन्य कार्य का भी भारसाधक हो सकेगा।
अनुच्छेद (1क) किसी राज्य की मंत्रि-परिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या उस राज्य की विधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या के पंद्रह प्रतिशत से अधिक नहीं होगीः परन्तु किसी राज्य में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की संख्या बारह से कम नहीं होगीः
परंतु यह और कि जाहं संविधान (इक्यानवेवां संशोधन) अधिनियम, 2003 के प्रारंभ पर किसी राज्य की मंत्रि परिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या, यथास्थिति, उक्त पंद्रह प्रतिशत या पहले परंतुक में विनिर्दिष्ट संख्या से अधिक है वहां उस राज्य में मंत्रियों की कुल संख्या ऐसी तारीख से, जो राष्ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा नियत करे छह मास के भीतर इस खंड के उपबंधों के अनुरूप लाई जाएगी।
अनुच्छेद (1ख) किसी राजनीतिक दल का किसी राज्य की विधान सभा का या किसी राज्य के विधान मंडल के किसी सदन का जसमें विधान परिषद है, कोई सदस्य जो दसवीं अनुसूची के पैरा 2 के अधीन उस सदन का सदस्य होने के लिए निरर्हित है, अपनी रिर्हता की तारीख से प्रारंभ होने वाली और उस तारीख तक जिसको ऐसे सदस्य के रूप में उसकी पदावधि समाप्त हो या जहां वह, ऐसी अवधि की समाप्ति के पूर्व, यथास्थिति, किसी राज्य की विधान सभा के लिए या विधान परिषद वाले किसी राज्य के विधान मंडल के किसी सदन के लिए कोई निर्वाचन लड़ता है उस तारीख तक जिसको वह निर्वाचित घोषित किया जाता हे, इनमें से जो भी पूर्वतर हो, की अवधि के दौरान, खंड (1) के अधीन मंत्री के रूप में नियुक्त किए जाने के लिए भी निरर्हित होगा।
- मंत्रि परिषद राज्य की विधान सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगी।
- किसी मंत्री द्वारा अपना पद ग्रहण करने से पहले, राज्यपाल तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्रारूपों के अनुसार उसको पद की और गोपनीयता की शपथ दिलाएगा।
- कोई मंत्री, जो निरंतर छह मास की किसी अवधि तक राज्य के विधान मंडल का सदस्य नहीं है, उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री नहीं रहेगा।
- मंत्रियों के वेतन और भत्ते ऐसे होंगे जो उस राज्य का विधान मंडल, विधि द्वारा, समय-समय पर अवधारित करे और जब तक उस राज्य का विधान मंडल इस प्रकार अवधारित नहीं करता है तब तक ऐसे होंगे जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं।
अनुच्छेद 165 - राज्य का महाधिवक्ता
- प्रत्येक राज्य का राज्यपाल, उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए अर्हित किसी व्यक्ति को राज्य का महाधिवक्ता नियुक्त करेगा।
- महाविधवक्ता का यह कर्तव्य होगा कि वह उस राज्य की सरकार को विधि संबंधी ऐसे विषयों पर सलाह दे और विधिक स्वरूप के ऐेसे अन्य कर्तव्यों का पालन करे जो राज्यपाल उसको समय-समय पर निर्देशित करे या सौंपे और उन कृत्यों का निर्वहन करे जो उसको इस संविधान अथवा तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा या उसके अधीन प्रदान किए गए हों।
- महाधिवक्ता, राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करेगा और ऐसा पारिश्रमिक प्राप्त करेगा जो राज्यपाल अवधारित करे।
अनुच्छेद 166 - राज्य की सरकार के कार्य का संचालन
- किसी राज्य की सरकार की समस्त कार्यपालिका कार्रवाई राज्यपाल के नाम से की हुई कही जाएगी।
- राज्यपाल के नाम से किए गए और निष्पादित आदेशों और अन्य लिखतों को ऐसी रीति से अधिप्रमाणित किया जाएगा जो राज्यपाल द्वारा बनाए जाने वाले नियमों में विनिर्दिष्ट की जाए और इस प्रकार अधिप्रमाणित आदेश या लिखत की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि वह राज्यपाल द्वारा किया गया या निष्पादित आदेश या लिखत नहीं है।
- राज्यपाल, राज्य की सरकार का कार्य अधिक सुविधापूर्वक किए जाने के लिए और जहां तक वह कार्य ऐसा कार्य नहीं है जिसके विषय में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे वहां तक मंत्रियों में उक्त कार्य के आबंटन के लिए नियम बनाएगा।
अनुच्छेद 167 - राज्यपाल को जानकारी देने आदि के संबंध में मुख्यमंत्री के कर्तव्य
प्रत्येक राज्य के मुख्यमंत्री का यह कर्तव्य होगा कि वह -
- राज्य के कार्यो के प्रशासन संबंधी और विधान विषयक प्रस्थापनाओं संबंधी मंत्रि परिषद् के सभी विनिश्चय राज्यपाल को संसूचित करेः
- राज्य के कार्यो के प्रशासन संबंधी और विधान विषयक प्रस्थापनाओं संबंधी जो जानकारी राज्यपाल मांगे, वह देः और
- किसी विषय को जिस पर किसी मंत्री ने विनिश्चय कर दिया है किंतु मंत्रि परिषद् ने विचार नहीं किया है, राज्यपाल द्वारा अपेक्षा किए जाने पर परिषद् के समक्ष विचार के लिए रखे।
2.0 राज्यपाल की संवैधानिक स्थिति
भारत का संविधान राज्य और केन्द्र की सरकारों के लिए एक संसदीय व्यवस्था की अनुशंसा करता है। फलस्वरूप राज्यपाल को केवल राज्य के प्रधान के रूप में नामांकित भर किया जाता है; प्रमुख कार्यकारी अंग वास्तव में मंत्रिमंड़ल ही होता है जिसका नेता मुख्यमंत्री होता है। दूसरे शब्दों में, राज्यपाल को अपनी शक्ति और कार्यकारी अधिकारों का उपयोग करने के लिए मुख्यमंत्री के नेतृत्व में संचालित होने वाले मंत्रिमंडल की राय लेनी होती है। जो भी हो, राज्यपाल स्वविवेक से निम्न मामलों में निर्णय का अधिकार रखते हैंः
- किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ प्रस्तुत करने हेतु अधिकृत करना
- राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुशंसा करना
- पास के केन्द्रशासित प्रदेश के प्रशासन को चलाना (अतिरिक्त कार्यभार की स्थिति में)
- स्वायत्तशासी राज्यों जैसे असम, मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम की सरकारों द्वारा जनजातीय जिला परिषद को देय धनराशि को तय करना जो खनिज अन्वेषण के लाइसेंसों से रॉयल्टी के रूप में प्राप्त हुई है (6ठीं अनुसूची)
- मुख्यमंत्री से राज्य के प्रशासनिक और वैधानिक मुद्दों की जानकारी लेना
- राज्य विधानसभा में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने की अवस्था में मुख्यमंत्री का चुनाव करना
- विधानसभा में मंत्रिमंडल द्वारा बहुमत सिद्ध न कर पाने की स्थिति में मंत्रिमंडल को बर्खास्त करना
- मंत्रिमंडल के बहुमत सिद्ध न कर पाने की स्थिति में राज्य विधानसभा को भंग करना
इसके साथ ही राज्यपाल को राष्ट्रपति के निर्देशों के अनुरूप कुछ उत्तरदायित्वों का भी निर्वाह करना होता है। इस तरह संविधान ने भारतीय संघीय व्यवस्था के तहत राज्यपाल के कार्यालय को दो तरह के कार्य सौंपे हैं। राज्यपाल एक ओर तो राज्य के संवैधानिक नेता हैं साथ ही केन्द्र के प्रतिनिधि भी हैं, अर्थात् राष्ट्रपति के।
3.0 मुख्यमंत्री
3.1 संवैधानिक स्थिति
संविधान द्वारा लागू किए गए विधानीय तंत्र में राज्यपाल तो केवल नामांकित कार्यकारी अधिकारी होता है जबकि मुख्यमंत्री वास्तविक अधिकारी होता है। दूसरे शब्दों में राज्यपाल राज्य का प्रमुख होता है जबकि मुख्यमंत्री सरकार का प्रमुख होता है। अतः राज्य में मुख्यमंत्री का पद केंद्र में प्रधानमंत्री के समान ही होता है। इस संदर्भ में संविधान द्वारा निम्न प्रावधान दिए गए हैंः
- हरेक राज्य में एक मंत्रिमंड़ल होगा जिसका नेतृत्व मुख्यमंत्री द्वारा किया जाएगा और यह राज्यपाल को उसके अधिकारों के उपयोग हेतु सलाह-मशविरा देगा (धारा 163 अनुसार विशेषाधिकार कार्यों को छोड़कर)।
- मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा होगी।
- अन्य मंत्री, मुख्यमंत्री की सलाह पर, राज्यपाल द्वारा नियुक्त किए जाएंगे। झारखंड़, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और उड़ीसा राज्यों में आदिवासी कल्याण मंत्री आवश्यक रूप से नियुक्त किए जाएंगे।
- मंत्रीगण अपने पद तब तक धारण करेंगे जब तक राज्यपाल ऐसा चाहें।
- राज्य विधानसभा के कार्यों हेतु मंत्रिमंड़ल संयुक्त रूप से जिम्मेदार होगा।
- मंत्रियों को पद और गोपनीयता की शपथ राज्यपाल द्वारा दिलाई जाएगी।
- यदि कोई मंत्री सतत छह महीने तक राज्य विधान सभा का सदस्य नहीं है तो उसका मंत्री पद समाप्त किया जाएगा।
- मंत्रियों का वेतन और भत्ते राज्य विधानसभा द्वारा तय किए जाएंगे।
91 वें संशोधन अधिनियम के अनुसार उपरोक्त संदर्भ में कुछ और प्रावधान भी किए गए
- किसी भी राज्य के मंत्रिमंडल में मंत्रियों की कुल संख्या (मुख्यमंत्री सहित) राज्य विधानसभा की सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। मगर यह संख्या 12 से कम भी नहीं होनी चाहिए।
- ऐसा सदस्य जो पक्ष या विपक्ष का हो, किसी भी दल का हो, यदि दल-बदल के कारण अयोग्य घोषित किया गया हो तो उसे मंत्री नहीं बनाया जा सकता।
- 2अधिकार और कार्य
मुख्यमंत्री के अधिकारों और कार्यों को निम्नानुसार समझा जा सकता हैः
3.2.1 मंत्रिमंडल के संदर्भ में
मंत्रिमंडल के नेता के रूप में मुख्यमंत्री निम्न अधिकार रखता हैः
- वह मंत्री पद पर नियुक्ति हेतु किसी उम्मीदवार के नाम को सुझाता है। दूसरे शब्दों में राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह से ही मंत्रियों को नियुक्त कर सकता है।
- मुख्यमंत्री मंत्रियों की जिम्मेदारियों और कार्यभार में बदलाव कर सकता है, व नए प्रभार आवंटित कर सकता है।
- मतभेद की स्थिति में वह किसी मंत्री से इस्तीफा मांग सकता है या राज्यपाल को उसे बर्खास्त करने का सुझाव दे सकता है।
- वह मंत्रिमंडल की बैठकों की अध्यक्षता करता है और इसके निर्णयों को प्रभावित कर सकता है।
- वह सभी मंत्रियों की गतिविधियों को निर्देशित, नियंत्रित और समन्वयित करता है।
- वह स्वयं इस्तीफा देकर मंत्रिमंडल को भंग कर सकता है, सरकार गिरा सकता है। चूंकि मुख्यमंत्री मंत्रिमंडल का प्रमुख होता है, अतः उसके इस्तीफा देने या उसकी मृत्यु की स्थिति में मंत्रिमंडल स्वयमेव ही भंग हो जाता है।
3.2.2 राज्यपाल के संदर्भ में
राज्यपाल के साथ कार्य करने हेतु मुख्यमंत्री को निम्न अधिकार प्राप्त होते हैंः
- वह राज्यपाल और मंत्रियों के बीच का प्रमुख संवाद सूत्र होता है। इस भूमिका के अंतर्गत धारा 167 के अनुसार वह निम्न कार्य करता हैः
- राज्य के मामलों में मंत्रिमंडल में लिए गए प्रशासनिक निर्णयों और कानून बनाने के लिए पारित प्रस्तावों की सूचना राज्यपाल को देना।
- राज्यपाल द्वारा राज्य के प्रशासनिक मामलों में और अधिनियमों के प्रस्तावों के मामलों में चाही गई सूचना उन्हें उपलब्ध करवाना।
- यदि किसी मंत्री द्वारा लिए गए किसी निर्णय को मंत्रिमंडल द्वारा पारित न किया गया हो तो राज्यपाल के निवेदन पर उसे मंत्रिमंडल में विचारार्थ भेजना।
- वह राज्य के प्रशासनिक अधिकारी जैसे एडवोकेट जनरल, लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्य, राज्य चुनाव आयोग के सदस्य आदि की नियुक्ति के लिए राज्यपाल को सलाह दे सकता है।
3.2.3 राज्य विधानसभा के संदर्भ में
विधानसभा का अध्यक्ष होने के नाते मुख्यमंत्री को निम्न अधिकार प्राप्त होते हैंः
- वह विधानसभा के सत्र को भंग करने या आगे बढाने के लिए राज्यपाल से अनुशंसा कर सकता है।
- वह कभी भी राज्यपाल से विधानसभा भंग करने की अनुशंसा कर सकता है।
- वह विधानसभा सत्र में किसी नई सरकारी नीति की घोषणा कर सकता है।
3.2.4 अन्य अधिकार और कार्य
इन कार्यों के अलावा मुख्यमंत्री राज्य के प्रशासनिक अधिकारी के रूप में निम्न कार्य करता हैः
- वह राज्य योजना आयोग का अध्यक्ष होता है।
- वह राज्य सरकार का प्रमुख प्रवक्ता होता है।
- वह प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली अंतर-राज्य समिति और राष्ट्रीय विकास समिति का सदस्य होता है।
- आकस्मिकता के समय वह राजनैतिक स्तर पर संकट प्रबंधक होता है।
- राज्य का प्रमुख होने के नाते वह लोगों से मिलता है, उनसे उनकी समस्याओं के बारे में जानता-समझता है।
- वह बहुमत वाले दल का अध्यक्ष होता है।
- वह सेवाओं का राजनीतिक प्रमुख होता है।
- वह संबद्ध क्षेत्रीय परिषद का उपाध्यक्ष होता है और एक बार में एक वर्ष के लिए कार्यभार संभालता है।
अतः मुख्यमंत्री राज्य के प्रशासन में बहुत ही महत्वपूर्ण और प्रमुख भूमिका निभाता है। हालांकि राज्यपाल के विशेषाधिकारों के कारण मुख्यमंत्री के अधिकार, प्रभाव, शक्ति व गरिमा में कमी देखी जा सकती है।
4.0 सचिवालय
4.1 अर्थ
हरेक राज्य का अपना सचिवालय होता है। यह राज्य सरकार के कई विभागों से मिलकर बना होता है। इन विभागों के राजनीतिक अधिकारी मंत्री होते हैं और प्रशासनिक अधिकार सचिवालय के पास होता है। मुख्य सचिव इसका नेता होता है जबकि सचिव एक या दो विभागों का प्रमुख होता है। सचिव सामान्य रूप से कोई आई.ए.एस. अधिकारी ही होता है। हां लोक कार्य विभाग इसका अपवाद है जिसका प्रमुख अभियंता होता है। यहां यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि सचिव राज्य सरकार का सचिव होता है न कि किसी संबंधित मंत्री का।
4.2 संगठन
हरेक राज्य की आवश्यकता के अनुसार सचिवालय में विभागों की संख्या का निर्धारण होता है। कुल 15 से 35 विभाग हो सकते हैं। कुछ प्रमुख विभाग निम्न हैंः
सामान्यतः, हरेक सचिव के पास एक से अधिक विभाग का प्रभार होता है। अतः सचिवों की तुलना में विभागों की संख्या अधिक होती है।
4.3 कार्मिक जानकारी
सचिवालय में कई अधिकरी होते हैं जो एक निश्चित अवधि के लिए नियुक्त किए जाते हैं। वरिष्ठता के अनुसार इनका क्रम इस प्रकार हैः
5.0 प्रशासनिक सुधार आयोग (ए.आर.सी.) की सिफारिशें
राज्य प्रशासन पर बनाई गई अपनी रिपोर्ट में ए.आर.सी. (1966-70) ने राज्य सचिवालय की कार्य प्रणाली में सुधार के मद्देनजर निम्न सिफारिशें कींः
- सचिवालय में विभागों की संख्या 13 से अधिक न हो।
- केवल मंत्रियों के पोर्टफोलियो में वृद्धि के लिए विभागों में विषय संख्या न बढ़ाई जाए।
- मुख्य सचिव की निगरानी में एक कार्मिक विभाग की स्थापना की जाए जिसका प्रमुख मुख्यमंत्री हो।
- विभागों के बीच विषयों (कार्य क्षेत्रों) का बंटवारा इस प्रकार किया जाए कि उन्हें किसी क्षेत्र विशेष के प्रशासानिक कार्यों को करने की सुविधा मिल सके।
- सचिवालय द्वारा किए जाने वाले कार्यकारी कामों को किसी अन्य कार्यकारी विभाग को सौंपा जाए।
- हर विभाग में दो स्टाफ सेल स्थापित हो (एक योजना और नीति निर्धारण हेतु, दूसरा वित्तीय मामलों हेतु) जो अपने प्रभार के कामों को पूर्ण करें।
- हरेक विभाग में नीति सलहकार समिति नियुक्त की जाए।
- मंत्री के नीचे केवल दो ही स्तर पर पदाधिकारी हों, जिन्हें डेस्क आफिसर सिस्टम के तहत कार्यों का आवंटन किया जाए।
6.0 प्रमुख सचिव
6.1 पद
केन्द्र सरकार में प्रमुख सचिव के दफ्तर का स्थान ब्रिटिश सरकार के समय से ही तय किया गया था। इसे 1799 में तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेस्ली द्वारा निर्मित किया गया था। जी.एस. बार्लो इस पद के पहले अधिकारी थे। समय बीतने के साथ केन्द्र सरकार से यह दफ्तर हट गया और स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले ही इसे राज्य सरकार में ले लिया गया।
प्रमुख सचिव, सचिवालय का प्रधान अधिकारी होता है। यह राज्य का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी होता है और वरिष्ठता के क्रम में सबसे ऊपर की पायदान पर होता है। उसका पद अन्य सचिवों से वरिष्ठ होता है। वह सचिवालय का प्रमुख होता है और सभी विभागों को नियंत्रित करता है। वह समस्त राज्य के प्रशासन को निर्देशित और नियंत्रित करता है। वह राज्य प्रशासन व्यवस्था में केन्द्रीय और प्रतिष्ठित स्थान रखता है। मंगत राय के शब्दों में ‘‘प्रमुख सचिव न तो कोई तकनीकी कार्य करता है न ही पेशेवर के समान, वह न तो विद्वान इंजीनियर है, न ही प्रथम श्रेणी जज। वह भारत सरकार का एक नुमाइंदा है और प्रजातंत्र की दृष्टि से मानव प्रक्रिया का एक हिस्सा है।’’
सन 1973 से प्रमुख सचिव सभी राज्यों में सबसे वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी माना जाता है। इससे पहले पंजाब में इसे वित्त आयुक्त से नीचे, व उत्तरप्रदेश में राजस्व मंडल के सदस्यों से नीचे का दर्जा मिला हुआ था। तमिलनाडु में इसे सबसे वरिष्ठ अधिकारी का दर्जा प्राप्त था। जो भी हो, प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिश के बाद 1973 में इस दफ्तर को श्रेष्ठता के क्रम में प्रथम स्थान मिला और प्रमुख सचिव के पद को केन्द्र सरकार के सचिव के बराबर का दर्जा और वेतन मिलने लगा। प्रमुख सचिव का चुनाव राज्य के प्रशासनिक अधिकारियों में से मुख्यमंत्री करता है।
प्रमुख सचिव के पद एवं दफ्तर का कोई निश्चित कार्यकाल नहीं है। भारतीय प्रशासनिक सुधार समिति ने प्रमुख सचिव का कार्यकाल 3 से 4 वर्ष रखने की अनुशंसा की है। मगर इस अनुशंसा के न माने जाने के कारण पुराने नियम अब तक लागू हैं।
6.2 अधिकार और कार्य
प्रमुख सचिव के अधिकार और कार्यों को राज्य सरकार द्वारा प्रकाशित ‘‘कार्य के नियम’’ पत्रक में विस्तृत रूप से प्रकाशित किया गया है। उसे मिले अधिकारों में कुछ अधिकार परंपरागत हैं। इनका वर्णन नीचे किया गया हैः
मुख्यमंत्री के सलाहकार के रूप मेंः प्रमुख सचिव राज्य के सभी प्रबंधकीय मामलों में प्रमुख सचिव के मुख्य सलाहकार का कार्य करता है। मुख्यमंत्री सचिव से राज्य के सभी नीतिगत मामलों में सलाह मशविरा करता है। सचिव राज्य के मंत्रियों द्वारा दिए गए सुझावों के क्रियान्वयन के तरीके की जानकारी मुख्यमंत्री को देता है। वह मुख्यमंत्री और राज्य के सचिवालय के अन्य विभागों के बीच कड़ी का कार्य करता है।
कैबिनेट के सचिव के रूप मेंः प्रमुख सचिव राज्य कैबिनेट के सचिव के रूप में कार्य करता है। वह कैबिनेट सचिवालय का प्रशासनिक प्रमुख होता है और आवश्यकता पडने पर कैबिनेट और इसकी उप समिति की बैठकों में भी भाग लेता है। वह कैबिनेट की मीटिंग की कार्यसूची तैयार करता है और इसके क्रियान्वयन का भी अभिलेख रखता है।
सिविल सर्विस (प्रशासनिक सेवा) के प्रमुख के रूप मेंः प्रमुख सचिव सिविल सर्विस के प्रमुख के रूप में कार्य करता है और वरिष्ठ सरकारी कर्मचारियों की नियुक्ति, स्थानांतरण और प्रमोशन आदि कार्यों का निर्णय लेता है। वह सिविल सर्विस के आत्मबल को बढ़ाए रखना का काम करता है और राज्य सेवा अधिकारियों की अंतरात्मा का चैतन्य बनाए रखने का काम करता है।
प्रमुख समन्वयनकर्ता के रूप मेंः प्रमुख सचिव राज्य प्रशासन का प्रमुख समन्वयक भी होता है। सचिवालय के स्तर पर वह सभी विभागों के आंतरिक समन्वय को नियंत्रित करता है और इसमें कठिनाई आने पर विभागों को निर्देशित भी करता है। विभागीय विवादों के निराकरण हेतु स्थापित की गई समिति का वह अध्यक्ष होता है। वह सचिवालय की विभागीय बैठकों की अध्यक्षता करता है। सचिवालय के निचले स्तर पर वह डिविजनल कमिश्नर, डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर और जिले के अन्य विभागों के प्रमुखों की बैठकों में भी अध्यक्ष के रूप में भाग लेता है और समन्वय बनाए रखने का कार्य करता है।
कुछ विभागों के प्रमुख के रूप मेंः प्रमुख सचिव सचिवालय के कुछ विभागों के प्रशासनिक प्रमुख का कार्य करता है। हालांकि इस विषय में हर राज्य के नियम अलग-अलग हैं, उनमें कोई एकरूपता देखने को नहीं मिलती। अधिकतर सामान्य प्रशासन, कार्मिक विभाग, योजना आयोग और प्रशासनिक सुधार विभाग सीधे तौर पर सचिव के अधिकार में होते हैं। सामान्य प्रशासन विभाग सचिवालय का सबसे महत्वपूर्ण विभाग होता है और इसका राजनीतिक प्रमुख स्वयं मुख्यमंत्री होता है। यह विभाग राज्य के समस्त कार्य-व्यवहार से संबंधित मामलों की देखरेख करता है। भारतीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिश के अनुसार सभी राज्यों में कार्मिक विभाग का प्रशासनिक अधिकारी प्रमुख सचिव को ही बनाया जाना चाहिए।
आपदा प्रबंधक के रूप मेंः बाढ़, सूखा, दंगे आदि जैसी आपदाओं के समय प्रमुख सचिव महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह राहत कार्य में लगे अधिकारियों और संस्थाओं को निर्देश देता है। वह सामन्यतः आपदा प्रबंधन हेतु गठित की गई समिति का अध्यक्ष या प्रमुख सदस्य होता है। वास्तव में आपदा के समय वह सारे राज्य के आपदा प्रबंधन अधिकारी के रूप में कार्य करता है और अन्य अधिकारी उसके दिशा-निर्देशों पर चलते हैं।
6.3 अन्य कार्य
प्रमुख सचिव निम्न कार्य भी करता हैः
- वह उन सभी मामलों को भी देखता है जो सचिवालय के किसी भी विभाग के अंतर्गत नहीं आते। इसे ‘‘अवशिष्ट रिक्थी’’ कहते हैं।
- उस पर सचिवालय के सामान्य निरीक्षण और नियंत्रण का दायित्व होता है।
- वह सचिवालय भवन, कर्मचारी, पुस्तकालय, अभिलेख शाखा, स्वच्छता विभाग और अन्य कर्मचारियों पर पूर्ण नियंत्रण रखता है।
- वह राज्य सरकार और केन्द्र सरकार तथा अन्य राज्यों की सरकारों के साथ संवाद का प्रमुख सूत्र होता है।
- वह राज्य में नियम और कानून लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- वह केन्द्र सरकार के कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में आयोजित प्रमुख सचिवालय की बैठक में भी हिस्सा लेता है।
- वह राज्य सरकार के प्रवक्ता के रूप में कार्य करता है।
- राज्य में राष्ट्रपति शासन लगने की स्थिति में तथा प्रमुख सलहाकार की नियुक्ति न होने की स्थिति में वह राज्यपाल के सलाहकार के रूप में काम करता है।
- वह राष्ट्रीय विकास समिति की बैठक में हिस्सा लेता है।
- वह राज्य सरकार के चीफ पब्लिक रिलेशन आफिसर (मुख्य जन संवाद अधिकारी) के रूप में काम करता है।
- वह जोनल काउंसिल के सचिव (रोटेशनल) का कार्य भी करता है।
6.4 प्रमुख सचिव और कैबिनेट सचिव
केन्द्र सरकार का ऐसा कोई भी दफ्तर नहीं है जो राज्य के प्रमुख सचिव के बराबर का दर्जा रखता हो। किसी हद तक, केन्द्रीय स्तर पर कैबिनेट सचिव को राज्य के प्रमुख सचिव के समतुल्य माना जा सकता है। किसी राज्य के प्रमुख सचिव द्वारा निभाए जा रहे दायित्वों और कार्यों की सूची इतनी बड़ी होती है कि केन्द्र में उन्हें पूरा करने का काम कैबिनेट सचिव, कार्मिक सचिव, गृह सचिव और वित्त सचिव के द्वारा किया जाता है।
प्रमुख सचिव और कैबिनेट सचिव के बीच की समानताएंः
- दोनों ही उनके संबंधित अधिकारियों के सलाहकार की भूमिका निभाते हैं।
- दोनों ही अपने प्रशासन के प्रमुख समन्वयक होते हैं।
- दोनों ही अपनी अपनी कैबिनेट के सचिव होते हैं।
- दोनों ही अपने सचिवालय के प्रशासनिक प्रमुख होते हैं।
- दोनों के ही दफ्तर केन्द्रीय स्तर से उपजे हैं।
- दोनों ही अपने कैबिनेट के निर्णयों की निगरानी करते हैं।
- दोनों ही अपनी अपनी सिविल सर्विसेस के प्रमुख होते हैं।
प्रमुख सचिव और कैबिनेट सचिव में अंतरः
- प्रमुख सचिव के अधिकार और शक्तियां कैबिनेट सचिव से अधिक होती हैं।
- प्रमुख सचिव राज्य सचिवालय का प्रशासनिक प्रमुख होता है मगर कैबिनेट सचिव केन्द्र सचिवालय का प्रशासनिक प्रमुख नहीं होता।
- प्रमुख सचिव सचिवालय का एकमात्र प्रमुख होता है मगर कैबिनेट सचिव समान ओहदेवाले अधिकारियों में प्रमुख होता है।
- प्रमुख सचिव राज्य में रेसिड्युअल लिगेटी (अवशिष्ट रिक्थी) की भूमिका निभाता है मगर केन्द्र में यह भूमिका कैबिनेट सचिव नहीं वरन प्रधानमंत्री का प्रिंसिपल सचिव (मुख्य सचिव) निभाता है, जो पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय) का प्रमुख भी होता है।
- राज्य के कुछ विभाग सीधे तौर पर प्रमुख सचिव के अधिकार में आते हैं जबकि कैबिनेट सचिवालय के अतिरिक्त केन्द्र का कोई भी प्रभार कैबिनेट सचिव के सीधे अधिकार में नहीं होता।
7.0 निदेशालय
7.1 अर्थ
राज्य स्तर पर मंत्री, सचिव और कार्यकारी अधिकारी, सरकार के तीन महत्वपूर्ण भाग होते हैं। मंत्री और सचिव मिलकर सचिवालय बनाते हैं। कार्यकारी अधिकारी का दफ्तर निदेशालय कहलाता है। निदेशालय सचिवालय के अंतर्गत कार्य करता है।
सचिवालय स्टाफ एजेंसी के रूप में काम करता है जबकि निदेशालय लाइन एजेंसी के रूप में, दूसरे शब्दों में सचिवालय नीति निर्धारण का काम करता है और निदेशालय नीतियों के क्रियान्वयन का। अतः निदेशालय राज्य सरकार का कार्यकारी विभाग है। उनका कार्य सचिवालय द्वारा बनाई गई नीतियों को कार्य रूप में परिवर्तित करना है। इन्हें कार्यकारी विभाग के रूप में भी जाना जाता है और कुछ मामलों को छोड दिया जाए तो हरेक सचिवालय का अपना कार्यकारी विभाग होता है।
7.2 अधिकारी (प्रमुख)
नियमानुसार निदेशालय सचिवालय से बाहर के क्षेत्र में आते हैं। ये अलग संगठनात्मक संस्थाओं के रूप में होते हैं जिनके प्रमुख निदेशक(डाइरेक्टर) होते हैं जिनके सहयोग हेतु एडिशनल (अतिरिक्त) डाइरेक्टर, ज्वाइंट (संयुक्त) डाइरेक्टर, डिप्टी (उप) डाइरेक्टर और असिस्टेंट (सहायक) डाइरेक्टर होते हैं। निदेशालय के प्रमुख को कमिश्नर, (आयुक्त), डाइरेक्टर जनरल (महानिदेशक), इन्स्पेक्टर जनरल (महानिरीक्षक), रजिस्ट्रार, कंट्रोलर, चीफ इंजीनियर आदि के नामों से जाना जाता है।
7.3 कार्य
निदेशालय के प्रमुख के निम्न कार्य होते हैंः
- मंत्रियों को तकनीकी सलाह देना।
- विभागीय बजट बनाना।
- नियमानुसार अधीनस्थ अधिकारियों पर नियंत्रण रखना।
- राज्य सेवा आयोग को प्रमोशन और अनुशासनात्मक कार्यवाही के मामलों में सलाह देना।
- विभागीय जिला समूहों द्वारा किए गए कार्यों का निरीक्षण करना।
- अनुदान देना और बजट का पुनर्विनियोजन करना।
- अपने अधिकार और नियमों के अनुसार अपने अधीनस्थ सभी अधिकारियों की नियुक्ति, प्रमोशन, पोस्टिंग, स्थानांतरण, नियमितीकरण अदि का निर्णय लेना।
- विभागीय अधिकारियों के लिए सेवाकालीन प्रशिक्षण की व्यवस्था करना।
- विभागों की कार्य क्षमता बढाने के लिए विभागों में शोध और अनुप्रयोग जैसे कार्यक्रमों को बढावा देना।
- अधीनस्थ कर्माचारियों को राज्य स्तरीय सम्मेलनों में शामिल होने की अनुमति देना।
8.0 जिलाधीशः बदलती भूमिका
8.1 स्थान
जिलाधीश को कर्नाटक, असम, जम्मू कश्मीर, हरियाणा और पंजाब में डिप्टी कमिश्नर कहा जाता है जबकि पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट कहा जाता है। जिलाधीश का दफ्तर कलेक्ट्रेट कहलाता है।
जिलाधीश जिले का प्रशासनिक प्रमुख होता है और जिले में राज्य सरकार का आधिकारिक एजेंट। कलेक्ट्रेट का दफ्तर कई मायनों में अनूठा है क्योंकि अन्य देशों के प्रशासनिक ढांचे में ऐसा कोई दफ्तर शामिल नहीं है। फ्रांस ऐसा देश है जहां प्रीफेक्ट ऐसा अधिकारी होता है जो सबसे बड़ा अधिकारी होता है और केन्द्र सरकार का आधिकारिक एजेंट भी।
8.2 स्थिति को समझना
2019-20 तक, भारत में 725 जिले थे। 2011 की जनगणना में यह संख्या 640, एवं 2001 की जनगणना में 593 थी। जिला कलेक्टर या उपायुक्त जिला प्रशासन का प्रमुख व्यक्ति होता है।
वह जिले में राज्य (या केंद्र-अप्रत्यक्ष) सरकार का प्रतिनिधि होता हैं। पद कार्यालय विकास की एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम है, जो 1772 में उस समय शुरू हुई, जब इसे ब्रिटिश शासन के दौरान मुख्य रूप से भूमि राजस्व के संग्रह, कानून और व्यवस्था के रखरखाव, अव्यवस्था की रोकथाम, पुलिस और जेलों की गतिविधियों को बनाए रखने, आपराधिक न्याय के मामलों को देखने एवं विशेष महत्व के मामलों को छोड़कर कुछ मामलों में अपीलीय शक्तियों का उपयोग करने के लिए बनाया गया। यह कार्यालय आज तक प्रासंगिक है!
यह भारतीय प्रशासनिक सेवा का अंग है। हालाँकि, समय के साथ इस पद की न्यायिक शक्तियों को कम कर दिया गया है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 50 न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करता है। जिले में अलग न्यायिक अधिकारियों की नियुक्तियों के कारण अब जिला कलेक्टर के पास पहले की तरह जिला मजिस्ट्रेट के अधिकार नही होते। पंचायती राज के रूप में हुए लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया ने भी कुछ राज्यों में इस पद की शक्तियों में भारी कमी की है।
जिला परिषद सत्ता के अलग केंद्रों के रूप में उभरे हैं, जो कलेक्टर कार्यालय से काफी हद तक स्वतंत्र हैं। कई तकनीकी विभागों जैसे श्रम, .षि, सहकारिता आदि को अब राज्य स्तर पर सीधे कार्यकारी अधिकारियों की नियुक्ति कर नियंत्रित किया जाता है, जिससे भी कलेक्टर के अधिकारों में कमी आई है। कुछ तकनीकी विभाग विशेषज्ञों के नेतृत्व में हैं।
जिला कलेक्टर (डीसी) - भूमिका और कार्य
राजस्व से संबंधित कार्य : डीसी जिले के राजस्व प्रशासन का प्रमुख होता है। उनका मुख्य कार्य भू-राजस्व का मूल्यांकन और संग्रह है।
- भू-राजस्व एकत्र करना
- अन्य सरकारी बकाया राशि एकत्र करना
- भूमि रिकॉर्ड बनाए रखना
- ग्रामीण आंकड़ें एकत्र करना
- भूमि अधिग्रहण अधिकारी की शक्ति का उपयोग करना, अर्थात् कॉलोनी-निर्माण, उद्योग व झुग्गी-झोपड़ी सफाई के लिए भूमि का अधिग्रहण करना, आदि।
- भूमि सुधारों को लागू करना
- कृषकों के कल्याण की देखभाल करना
- फसलों के नुकसान का आकलन करने और आग, और बाढ़ जैसी प्रा.तिक आपदाओं के दौरान राहत देने की सिफारिश करना, आदि
- राजकोष और उप कोषागार की निगरानी करना
- स्टैम्प अधिनियम, आदि को लागू करना।
कानून और व्यवस्था को बनाए रखना : जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) के रूप में कलेक्टर अपने जिले में कानून और व्यवस्था के रखरखाव के लिए जिम्मेदार होता है। इसमें तीन तत्व शामिल हैं अर्थात् - पुलिस, न्यायपालिका और जेल। जिला मजिस्ट्रेट के रूप में, वे निम्नलिखित कार्य करते हैं :
- अधीनस्थ मजिस्ट्रेट को नियंत्रित और उसका पर्यवेक्षण करना
- सार्वजनिक शांति के लिए खतरे की स्थिति में आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 144 को लागू करना
- जेलों का निरीक्षण करना
- कैदियों को पैरोल पर रिहा करने का निर्णय लेना
- कैदियों को बेहतर कक्षाएं देने का निर्णय करना
- सरकार को एक वार्षिक आपराधिक रिपोर्ट प्रस्तुत करना
- कई तरह के लाइसेंस जैसे हथियार, होटल, विस्फोटक इत्यादि को अनुदान देना, निलंबित या रद्द करना
- जिला पुलिस की कार्रवाई को नियंत्रित करना और निर्देशित करना
- मनोरंजन कर अधिनियम और प्रेस अधिनियम लागू करना
- फैक्ट्री अधिनियम और ट्रेड मार्क अधिनियम आदि के तहत अपराधियों पर मुकदमा चलाना।
नागरिक और आपराधिक न्यायालयों के आदेश, जिसमें जिले के बाहर की अदालतों से आपराधिक रिट भी शामिल है, का निष्पादन आमतौर पर जिला प्रशासन के मजिस्ट्रेट तत्वों के माध्यम से किया जाता है। वह अधीनस्थ मजिस्ट्रेट की निगरानी करता है और आवश्यकता पड़ने पर मजिस्ट्रेट नियुक्ति का आदेश देता है। जिला जेल उनके सामान्य नियंत्रण में होती है। वह जेल में समय-समय पर यह देखने के लिए जा सकते हैं कि सब कुछ ठीक है और विचाराधीन कैदियों के मामलों का शीघ्र निपटान सुनिश्चित करते हैं।
विभागों-कार्यालयों के समन्वयक : पहले, डीसी जिले की हर महत्वपूर्ण आधिकारिक गतिविधि में समग्र प्रभार से समन्वय एजेंसी के रूप से कार्य करता था। स्वतंत्रता के बाद, तकनीकी प्रकृति के कई विभागों के बनाए जाने के पश्चात् - जैसे कि सार्वजनिक स्वास्थ्य, सार्वजनिक कार्य, कृषि, सिंचाई, शिक्षा और सहयोग, जो कि विशेषज्ञों के नेतृत्व में हैं और कलेक्टर की निगरानी में नहीं हैं, अब जिला कलेक्टर कार्य निम्न प्रकार हैं :
- जिले की पूरी टीम को उसी तरह समर्पण की भावना से काम कराना जिस तरह एक सैनिक मोर्चे पर करता है
- जिला अधिकारी अभी भी कमांडर है जिसे विभिन्न विभागों को व्यवस्थित और समन्वयित कर लक्ष्य जो कि स्पष्ट रूप से निर्धारित किया जाना चाहिए, को प्राप्त करना होता है
- कलेक्टर को प्रत्येक एजेंसी को अपना कार्य करने की स्वतंत्रता देनी चाहिए, अड़चनों को दूर करना चाहिए, विभिन्न विभागों में स्वंय के प्रति विश्वास बनाना चाहिए एवं सभी विभागां में उद्देश्य की एकता लाना चाहिए
- कलेक्टर और उनके कर्मचारियों द्वारा कृषि ऋण वितरित किए जाते हैं, अकाल, बाढ़ आदि के मामले में राहत कार्यों को बड़े पैमाने पर किया जाता है
- भूमि अधिग्रहण कलेक्टर की एक और बड़ी जिम्मेदारी है। विभिन्न विकास परियोजनाओं, आवास योजनाओं, स्लम निकासी आदि के कारण सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए भूमि का अधिग्रहण किया जाता है।
पूर्ववर्ती आंध्र प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में, जिला राजस्व अधिकारी के रूप में नामित एक अन्य आईएएस अधिकारी को उनके राजस्व कार्य में सहायता के लिए नियुक्त किया जाता हैं।
संकट प्रबंधन : प्राकृतिक आपदाओं यथा बाढ़, अकाल, चक्रवात, आदि या मानव निर्मित संकट जैसे दंगे, आग या बाहरी आक्रामकता के कारण होने वाली आपात स्थितियों के दौरान, डीसी महत्वपूर्ण सुरक्षा उपायों को लागू करता है। वह घबराहट को रोकने एवं महत्वपूर्ण संस्थानों की सुरक्षा के लिए उत्तरदायी होता है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के विकास के साथ, विस्तृत जिला स्तरीय योजनाएं अग्रिम में ‘आकस्मिकता योजना’ के रूप में बनाई जाने लगी हैं।
विकास कार्य : डीसी विकास कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में एक महत्वपूर्ण आधार है। कई राज्यों में, उन्हें जिला विकास अधिकारी के रूप में भी नामित किया जाता है। उन्हें नियामक और विकास प्रशासन दोनों के लिए जिम्मेदार बनाया जाता है। जिले में कलेक्टर के प्रभाव का विकास के कार्य के लिए दोहन किया जाता हैं जिनमें से कुछ कार्य निम्न प्रकार हैं -
- कलेक्टर भारत में विकास योजना की शुरुआत के बाद उसके समन्वयन का केंद्र-बिंदु होता है
- सरकार द्वारा गरीबों के लिए शुरू किए गए कल्याण और लाभ कार्यक्रमों का समन्वयन
- ग्रामीण विकास कार्यक्रमों का उद्देश्य गरीबी उन्मूलन और जीवन स्तर में सुधार लाना है
- जिले के विस्तार और विकास गतिविधि में प्रमुख भूमिका निभाता है
- वह जिला ग्रामीण विकास एजेंसी का पदेन अध्यक्ष होता है
- 73 वें और 74 वें संशोधन और 1993 और 1994 की शुरुआत में विभिन्न राज्यों द्वारा पंचायती राज पर बनाए गए अधिनियमों ने विकास गतिविधियों के संबंध में कलेक्टर की भूमिका और जिम्मेदारियों को बदल दिया है।
अन्य कार्य इस प्रकार हैं :
- जिला स्तर पर संसद और विधानसभा क्षेत्रों के चुनाव कार्य के रिटर्निंग ऑफिसर और समन्वयक
- हर 10 साल में जनगणना संचालन आयोजित करना
- वृद्धावस्था पेंशन और गृह निर्माण ऋण का अनुदान
- जिला राजपत्रों की तैयारी और प्राचीन स्मारकों का संरक्षण
- जिले में नगरपालिकाओं पर पर्यवेक्षण और नियंत्रण
- एक प्रोटोकॉल अधिकारी के रूप में कार्य करना
- वह कई समितियों के अध्यक्ष हैं जैसे - परिवार नियोजन समिति, लोक शिकायत समिति, नियोजन समिति, सैनिक कल्याण कोष आदि
- चरित्र सत्यापन में भाग लेना, अधिवास, अनुसूचित जाति, पिछड़े वर्ग, राजनीतिक पीड़ित आदि के प्रमाण पत्र जारी करना।
भारत का संविधान संघ (केंद्र) और राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन का प्रावधान करता है। यह सभी विषयों को 3 सूचियों में विभाजित करता है - संघ सूची, राज्य सूची, और समवर्ती सूची। संघ सूची केंद्र सरकार के अधीन विषयों का वर्णन करती है, राज्य सूची राज्यों के अधिकार क्षेत्र के तहत विषयों का वर्णन करती है एवं समवर्ती सूची उन विषयों का वर्णन करती है जो हैं राज्यों एवं केंद्र के संयुक्त अधिकार क्षेत्र के तहत है। वे विषय जो इन सूचियों में नहीं आते हैं अर्थात् ‘अवशिष्ट विषय’ केंद्र को दिए गए हैं।
संघ सूची विषय (97 विषय) : संघ सूची तीनों सूचियों में सबसे लंबी है। इसमें 97 विषयों को सूचीबद्ध किया गया है, जिन पर केंद्रीय संसद कानून पारित कर सकती है। संघ सूची के प्रभाव में अब 98 विषय हैं। संघ सूची के मुख्य विषय हैं - रक्षा, विदेशी मामले, मुद्रा, युद्ध और शांति, परमाणु ऊर्जा, राष्ट्रीय संसाधन, रेलवे, पोस्ट, नागरिकता, नेविगेशन और शिपिंग , विदेशी व्यापार, अंतर-राज्य व्यापार और वाणिज्य, बैंकिंग, बीमा, राष्ट्रीय राजमार्ग, जनगणना, चुनाव, उच्च शिक्षा के संस्थान और अन्य।
राज्य सूची (66 विषय) : राज्य सूची में वे विषय हैं जिन पर प्रत्येक राज्य विधानमंडल कानून बना सकता है और ऐसे कानून प्रत्येक राज्य के क्षेत्र में संचालित होते हैं। राज्य सूची के मुख्य विषय हैं - सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस, राज्य न्यायालय शुल्क, जेल, स्थानीय सरकार, सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छता, अस्पताल और औषधालय, भारत के भीतर तीर्थयात्रा, शराब, विकलांगों और बेरोजगारों को राहत, पुस्तकालय, संचार, कृषि , पशुपालन, जल आपूर्ति, सिंचाई और नहरों, मत्स्य पालन, सड़क यात्री कर और माल कर, कैपिटेशन कर और अन्य।
समवर्ती सूची (47 विषय) : केंद्रीय संसद, साथ ही राज्य विधानसभाएं, भी इस सूची (समवर्ती सूची) में सूचीबद्ध विषयों पर कानून बनाने की शक्ति रखती हैं। इस सूची में सूचीबद्ध मुख्य विषय हैं - आपराधिक कानून, आपराधिक प्रक्रिया, राज्य की सुरक्षा संबंधित कारणों के लिए निवारक निरोध, विवाह और तलाक, .षि भूमि के अलावा संपत्ति का हस्तांतरण, अनुबंध, कार्रवाई योग्य गलतियाँ, दिवालियापन, ट्रस्ट एवं ट्रस्टी, न्यायिक प्रशासन, साक्ष्य और शपथ, नागरिक प्रक्रिया, न्यायालय की अवमानना, पागलपन, जानवरों के प्रति क्रूरता की रोकथाम, जंगलों, जंगली जानवरों और पक्षियों की सुरक्षा, जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन, ट्रेड यूनियन, शिक्षा, श्रम कल्याण, अंतर्देशीय शिपिंग और नेविगेशन, खाद्य सामग्री, मूल्य नियंत्रण, स्टाम्प शुल्क और अन्य। समवर्ती सूची में वास्तव में 52 विषय शामिल है क्योंकि 42 वीं संवैधानिक संशोधन द्वारा पाँच और प्रविष्टियाँ डाली गई थीं।
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