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भारत में गरीबी भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
गरीबी को ऐसी घटना के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसमें समाज का एक वर्ग अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में भी असमर्थ होता है। जब समाज का एक बड़ा भाग न्यूनतम स्तर के जीवन से भी वंचित रह जाता है, और निर्वाह मात्र स्तर पर जीता रहता है, तो उस समाज को जन गरीबी से ग्रसित समाज कहा जाता है। तीसरे विश्व के कई देश निरपवाद रूप से जन गरीबी के अस्तित्व का प्रदर्शन करते हुए दिखाई देते हैं, हालांकि गरीबी के छोटे टुकडे़ अमेरिका और यूरोप के कई विकसित देशों में भी पाये जाते हैं। न्यूनतम विकसित देश (एल.डी.सी.) गरीबी के मजबूत रुझान प्रदर्शित करते हैं।
गरीबी को परिभाषित करने के प्रयास लगभग सभी समाजों में किये गए हैं, परंतु वे सभी समाज में उपलब्ध न्यूनतम या अच्छे जीवन की शर्तों की दूरदृष्टि से अनुकूलित हैं। उदाहरणार्थ, अमेरिका में गरीबी की संकल्पना भारत की गरीबी की संकल्पना से काफी भिन्न होगी, क्योंकि अमेरिका में एक औसत व्यक्ति काफी उच्च स्तर के जीवन को जुटाने में सक्षम होता है। गरीबी की सभी परिभाषाओं में यह प्रयास है कि समाज में एक औसत स्तर के जीवन को प्राप्त किया जा सके, और इसलिए ये सभी परिभाषाएं समाज में असमानताओं के अस्तित्व को, और किस हद तक समाज उसे सहन करने के लिए तैयार है, प्रतिबिंबित करती हैं।
2.0 मूलभूत अवधारणाएं
2.1गरीबी की परिभाषाएं
आर्थिक साहित्य में गरीबी को परिभाषित करने के लिए दो प्रकार के मानक आम हैंः निरपेक्ष और सापेक्ष।
निरपेक्ष मानक में, निर्वाह स्तर को निर्धारित करने के लिए अनाज, दालें, दूध, मक्खन, इत्यादि की न्यूनतम भौतिक मात्राएँ निर्धारित की गई हैं, और फिर इनकी कीमतें इन भौतिक मात्राओं को मौद्रिक रूप में परिवर्तित करती हैं। सभी मात्राओं को मिलाकर उनका योग जो आंकड़ा होता है, वह प्रतिव्यक्ति उपभोक्ता व्यय के निर्धारण के रूप में व्यक्त किया जाता है। जनसंख्या का जो भाग इस न्यूनतम आय (या व्यय) के नीचे होता है, उसे गरीबी रेखा के नीचे माना जाता है।
सापेक्ष मानक के अनुसार, जनसंख्या के अलग-अलग समूहों में आय के वितरण का आंकलन किया जाता है, और समाज के उच्च जीवन स्तर की 5 से 10 प्रतिशत जनसंख्या के जीवन स्तर की तुलना सबसे निचले स्तर के 5 से 10 प्रतिशत जनसंख्या के जीवन स्तर से की जाती है जो गरीबी के सापेक्ष मानकों को प्रतिबिंबित करती है। इस दूसरे दृष्टिकोण का दोष यह है कि यह जनसंख्या के विभिन्न वर्गों की सापेक्ष स्थिति को आय के क्रमानुक्रम के अनुसार इंगित करता है। संपन्न समाजों में भी गरीबी के इस प्रकार के वर्ग अस्तित्व में होते हैं। परंतु अल्पविकसित देशों के लिए, जन गरीबी की स्थिति अधिक चिंताजनक और चिंता का कारण है।
गरीबी रेखाः गरीबी रेखा दहलीज आय को परिभाषित करती है। जो परिवार इस दहलीज आय से कम आय अर्जित कर रहे हैं, उन्हें गरीब माना जाता है। दहलीज आय को परिभाषित करने के लिए स्थानीय सामाजिक-आर्थिक आवश्यकताओं के अनुसार अलग-अलग देशों में अलग-अलग पद्धतियाँ हैं।
भारत में गरीबी अनुमानः योजना आयोग भारत में गरीबी के अनुमानों को प्रकाशित करता है। गरीबी की गणना राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एन.एस.एस.ओ.) के उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षणों के आधार पर की जाती है। एक गरीब परिवार वह है जिसका व्यय स्तर एक निश्चित गरीबी रेखा से कम हो।
भारत व अन्य देशों में गरीबी रेखाः प्रारंभ में भारत में गरीबी रेखा की परिभाषा 1979 के एक कार्य दल द्वारा परिभाषित पद्धति के आधार पर की जाती थी। यह उस व्यय पर आधारित थी जो ग्रामीण क्षेत्र में 2400 कैलोरी के मूल्य के खाद्यान्न खरीदने के लिए और शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी मूल्य के खाद्यान्न खरीदने के लिए आवश्यक था। 2011 में सुरेश तेंदुलकर समिति ने गरीबी रेखा की परिभाषा भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और परिवहन के मासिक व्यय के आधार पर की। इनके अनुमानों के अनुसार, एक व्यक्ति, जो ग्रामीण क्षेत्र में 27.2 रुपये, और शहरी क्षेत्र में 33.3 रुपये दैनिक व्यय करता है, उसे गरीबी रेखा के नीचे माना गया।
जुलाई 2014 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में रंगराजन समिति, जिसने गरीबी को निर्धारित करने के लिए उपभोग व्यय को ही आधार के रूप में बनाये रखा है, ने देश में कुल गरीबों की संख्या 363 मिलियन या कुल जनसंख्या के 29.6 प्रतिशत आंकी है, जबकि सुरेश तेंदुलकर समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में यही आंकडे 269.8 मिलियन (21.9 प्रतिशत थे)।
एक पांच सदस्यों का परिवार, जो ग्रामीण क्षेत्रों में और शहरी क्षेत्रों में क्रमशः 4080 रूपए और 5000 रुपये व्यय करता है उसे गरीबी रेखा के नीचे माना गया है। इसकी यह कह कर आलोचना की गई कि गरीबी की रेखा बहुत ही निचले स्तर पर निर्धारित की गई है। पूर्व रिजर्व बैंक गवर्नर सी. रंगराजन (बाद में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष) की अध्यक्षता में एक समिति ने गरीबी रेखा की गणना के लिए एक नई पद्धति विकसित करने पर कार्य किया। इस समिति की रिपोर्ट 2014 में आई। इसने ग्रामीण व शहरी इलाकों में गरीबी रेखा को क्रमशः रू. 32 व रू. 47 पर रखा।
देश में गरीब लोगों की संख्या की गणना करने के लिए अर्थशास्त्रियों ने एक दहलीज आय निर्धारित की है। जो परिवार इस दहलीज, या गरीबी रेखा के नीचे आय अर्जित कर रहे हैं, उन्हें गरीबी रेखा के नीचे के रूप में निर्धारित किया गया है। दहलीज आय की परिभाषा के लिए भिन्न-भिन्न देशों में स्थानीय सामाजिक-आर्थिक आवश्यकताओं के अनुरूप भिन्न-भिन्न पद्धतियों का इस्तेमाल किया जाता है।
यूरोप के अधिकांश भागों में, एक परिवार जिसकी शुद्ध आय ‘‘औसत प्रयोज्य आय‘‘ के 60 प्रतिशत से कम है - करों को काट कर राष्ट्रीय औसत आय की एक व्यापक गणना - उसकी गिनती गरीब के रूप में की गई है। इसका निष्कर्ष यह होगा कि इंग्लैंड का एक परिवार गरीब माना जायेगा यदि उसकी साप्ताहिक वर्तमान आय 250 पौंड़ (लगभग 22,500 रुपये) से कम है। राष्ट्रीय औसत के ‘सापेक्ष’ गरीबी रेखा असमानता की स्थिति का अनुमान भी देती है। समृद्धतम वर्ग की आय में एक तीव्र वृद्धि राष्ट्रीय औसत आय को बढ़ा कर गरीबी की रेखा को ऊपर उठा देगी। यह स्थिति गरीबों को उनकी आय में वृद्धि के बावजूद और अधिक गरीब प्रतीत कराएगी।
अमेरिका में एक अधिक सरल पद्धति का उपयोग किया जाता है। गरीबी रेखा एक परिवार की मूलभूत भोजन की लागत को तीन से गुणा करके प्रदर्शित करती है। दहलीज स्तर को प्रति वर्ष मुद्रास्फीति के अनुसार समायोजित किया जाता है। यदि किसी परिवार की आय इस दहलीज स्तर से कम है, तो उसे गरीब माना जाता है। 2011 में, (वह नवीनतम वर्ष जिसके लिए आंकडे़ उपलब्ध हैं) चार सदस्यों वाले एक परिवार के लिए गरीबी दहलीज स्तर डॉलर 22,811 (उस समय के लगभग 11 लाख रुपये) था।
अमेरिका में ऐसे 46 मिलियन परिवार थे, जो अमेरिका की कुल जनसंख्या का 15 प्रतिशत था। भारत जैसे विकासशील देशों में गरीबों की गणना इस प्रकार से सुसंगठित नहीं है, आंशिक रूप से अत्यंत गतिशील नकद अर्थव्यवस्था के कारण, जो आय के आंकड़े जुटाने में कठिनाइयां पैदा करती है। इसके बजाय, नीति निर्माता भोजन, स्वास्थ्य और बिजली जैसी मूलभूत सुविधाओं जैसे पारिवारिक व्यय के आंकडों पर निर्भर रहते हैं। अर्थशास्त्री इस बात की ओर इशारा करते हैं, कि एशिया और अफ्रीका के न्यूनतम विकसित और मध्यम आय देशों में, यदि यह मान कर चला जाये कि गरीबतर लोग अपनी संपूर्ण आय मात्र जीवित रहने पर व्यय करते हैं, तो उपभोग व्यय आय का विश्वसनीय प्रतिनिधित्व करता है। एक तुलना दर्शाती है कि भारत में गरीबी रेखा बहुत ही निम्न है। उदाहरणार्थ, दक्षिण अफ्रीका में तीन गरीबी रेखाएं थीं - भोजन, मध्यम और उच्च - और ये तीनों भारत से ऊंची थीं।
2010 में भोजन गरीबी रेखा भारतीय रुपयों में 1,841 रुपये प्रति व्यक्ति, प्रति माह थी, मध्यम गरीबी रेखा 2,445 रुपये, और उच्च गरीबी रेखा 3,484 रुपये थी। एक ग्रामीण रवांडाई वयस्क की भारतीय रुपयों में प्रति व्यक्ति गरीबी रेखा 892 रुपये प्रति माह आती है, जो एक ग्रामीण भारतीय की 816 रुपये से कुछ अधिक है। वहां की गरीबी रेखा 118,000 रवांडाई फ्रैंक थी और यह 2011 में, 2011 के मूल्य स्तर पर किये गए एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण पर आधारित थी। यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रवांडा में खाद्य वस्तुओं की कीमतें भारत की तुलना में कम हैं।
भारत में गरीबी रेखा की आलोचनाएँः आलोचकों के अनुसार, सरकार ने जान बूझ कर गरीबी रेखा को नीचे रखा है। एक नीची गरीबी रेखा सरकार को यह दर्शाने में सहूलियत प्रदान करती है कि लाखों लोग गरीबी रेखा से ऊपर लाये जा चुके हैं। आलोचकों के अनुसार, यह वास्तव में गलत है, क्योंकि गरीबी रेखा की परिभाषा विवादित है। उनका यह भी कहना है कि दिए गए आंकडों में सांख्यिकीय परिशुद्धता का अभाव है, और यह केवल राजनीतिक लाभ उठाने के लिए प्रकाशित किये गए हैं।
3.0 भारत में गरीबी का अध्ययन
भारत में गरीबों की गणना का इतिहास 19 वीं सदी तक जाता है। गरीबों की संख्या के आंकलन का सबसे पहला प्रयास था दादाभाई नौरोजी की ‘गरीबी और भारत में गैर ब्रिटिश शासन’ जिसमें उन्होंने 1867-68 की कीमतों पर निर्वाह आधारित गरीबी रेखा का अनुमान किया था। ‘प्रवासी कुलियों को उनकी यात्रा के दौरान शांति की एक अवस्था में आवश्यक सामग्री की आपूर्ति’ के लिए निर्धारित आहार का उपयोग करते हुए, जिसमें चांवल, आटा, दाल, मांस, सब्जियां, घी, वनस्पति तेल और नमक शामिल थे, उन्होंने जिस निर्वाह आधारित गरीबी रेखा का निष्कर्ष निकाला था वह भारत के विभिन्न क्षेत्रों में 16 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष से लेकर 35 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष के बीच थी।
योजना आयोग-उपभोग की गणनाः योजना आयोग छठी पंचवर्षीय योजना से ही राष्ट्रीय और राज्यों के स्तर पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एन.एस.एस.ओ.) के एक भाग के रूप में एकत्रित उपभोक्ता व्यय की जानकारी के आधार पर गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के अनुमान निकालता चला आ रहा है। इस प्रकार के सर्वेक्षणों से उपलब्ध नवीनतम आंकड़े 2004-05 में आयोजित एनएसएसओ सर्वेक्षण से हैं।
1971 से, योजना आयोग ने अपने वर्गीकरण का आधार ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के कैलोरी उपभोग को बनाया है। 1999-2000 में, एनएसएसओ ने गणना की एक नई पद्धति का उपयोग करना शुरू किया है जिसे ‘मिश्रित संदर्भ अवधि’ कहा जाता है। इसमें पांच निम्न आवृत्ति उपभोग वस्तुओं (कपडे़, जूते, टिकाऊ वस्तुए, शिक्षा, और संस्थागत स्वास्थ्य व्यय) के व्यय की गणना पिछले वर्ष के सापेक्ष की जाती है, और अन्य सभी वस्तुओं की गणना पिछले 30 दिन के सापेक्ष की जाती है। 1993-94 तक, एनएसएसओ सभी प्रकार के उपभोग की गणना 30 - दिवस अवधि के आधार पर करता था। इसने पिछले गरीबी अंकलनों के साथ तुलना को अप्रासंगिक बना दिया।
1990 के दशक तक, उपभोग व्यय का निर्धारण राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी के आधार पर किया जाता था। राष्ट्रीय लेखा किसी वस्तु के उपभोग का अनुमान उसके कुल उत्पादन, आयात, निर्यात, और सरकार या व्यवसाय जैसे विशिष्ट वर्गों द्वारा उपभोग जैसे कारकों को ध्यान में रखते हुए करता है। योजना आयोग राष्ट्रीय लेखा के उपभोग के अनुमानों को ‘नियंत्रण‘ कुल के रूप में इस्तेमाल करता है। दूसरे शब्दों में, यदि राष्ट्रीय लेखा के अनुमान उपभोग के सर्वेक्षण अनुमानों से अधिक हैं, तो योजना आयोग गरीबों की संख्या की गणना करने से पहले प्रत्येक परिवार के कुल व्यय को उस अनुपात से गुणाकार कर देगा। इसके कारण गरीबी रेखा के नीचे आने वाले लोगों की संख्या बडे़ पैमाने पर कम हो जाती है, और विशेष रूप से तब जब दोनों अनुमानों के बीच का अंतर अधिक हो।
जबकि 1960 के दशक में दोनों अनुमान तुलनीय थे, किंतु बाद के वर्षों में दोनों अनुमानों के बीच का अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है। 1990 के दशक में, औसत उपभोग के राष्ट्रीय लेखा अनुमान सर्वेक्षण की तुलना में काफी अधिक तीव्रता से बढे़। 2005 तक, उपभोग के सर्वेक्षण के अनुमान राष्ट्रीय अनुमानों के दो तिहाई के आसपास थे।
बीते वर्षों में, अनुसंधानकर्ताओं और चिकित्सकों ने राष्ट्रीय लेखा आधारित गरीबी अनुमानों की पुनर्गणना (स्केलिंग) के विरोध में यह कहते हुए तर्क दिए हैं कि सर्वेक्षण अनुमान भी कम सटीक नहीं हैं। विशेष रूप से इन चुनौतियों को उजागर किया गया थाः उपभोग की राष्ट्रीय लेखा और सर्वेक्षण दृष्टिकोण की परिभाषा में अंतर, दोनों प्रक्रियाओं के क्रियान्वयन की समयावधि में अंतर, और राष्ट्रीय लेखा पद्धति की विभिन्न दरों और अनुपातों पर अत्यधिक निर्भरता, जो प्रत्यक्ष किंतु अप्रासंगिक मात्राओं को अप्रत्यक्ष किंतु प्रासंगिक से जोड़ती है। अंततः 1990 के दशक के दौरान योजना आयोग द्वारा इस पद्धति को समाप्त कर दिया गया।
तेंदुलकर रिपोर्ट - आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की गिनतीः तेंदुलकर समिति के दृष्टिकोण और योजना आयोग के दृष्टिकोण में मूलभूत अंतर यह था, कि तेंदुलकर समिति इस आधार पर आगे बढ़ रही थी कि लोगों को केवल खाद्यान्नों पर ही व्यय नहीं करना पडता बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षा, टिकाऊ वस्तुओं और मनोरंजन जैसी सेवाओं पर भी व्यय करना पड़ता है। समिति ने 1973-74 की प्रति व्यक्ति प्रति दिन कैलोरी उपभोग आवश्यकताओं को भी शहरी क्षेत्रों में 2100 से 1776 कैलोरी, और ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 से 1999 कैलोरी तक घटा दिया। इसके लिए तर्क यह दिया गया कि ग्रामीण क्षेत्रों में आज की उसी आय में लोग 1970 के दशक की तुलना में काफी कम कैलोरी का उपभोग करते हैं।
इस समिति की रिपोर्ट के विरुद्ध यह प्रमुख आलोचनाओं में से एक थी। खाद्य एवं कृषि संगठन ने ‘हल्के शारीरिक कार्य’ करने वाले व्यक्तियों के लिए न्यूनतम आहार-विषयक ऊर्जा अनिवार्यता मानक को 1770 तक घटा दिया। इस प्रकार के कार्य का एक उदाहरण है, ‘शहरी क्षेत्रों का एक पुरुष कार्यालय कर्मचारी जिसे कभी-कभी ही कार्यालयीन समय में या उसके बाद में शारीरिक थकावट पैदा करने वाले कार्य करने पडते हैं’। साथ ही तेंदुलकर रिपोर्ट ने गरीब की श्रेणी में बूढों, निराश्रितों, आदिम जनजातीय समूहों, अपंगों, एकल महिलाओं, विधवा महिलाओं, और गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं की भी उपेक्षा की है - ये वे समूह हैं जिनके स्वतः समावेश के लिए सर्वोच्च न्यायालय भारत सरकार को निर्देश दे चुका है।
ग्रामीण विकास मंत्रालय- गरीबी रेखा से नीचे के लिए सर्वेक्षणः ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों की पहचान करने के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय 1992 में किये गए गरीबी रेखा सर्वेक्षण के बाद से प्रत्येक दस वर्षों में ऐसे सर्वेक्षण/जनगणना करवाता चला आ रहा है। इन जनगणना के परिणामों का उपयोग ग्रामीण विकास मंत्रालय और अन्य विभागों द्वारा चलाये जाने वाले कार्यक्रमों के लिए लाभार्थियों को लक्षित करने के लिए किया जाता है।
पहले गरीबी रेखा से नीचे की जनगणना (1992) ने गरीब के वर्गीकरण के लिए आय का सहारा लिया, और परिवार की आय के आकलन के लिए दिशानिर्देश जारी किये गए। इस दृष्टिकोण की काफी आलोचना की गई, क्योंकि यह ग्रामीण क्षेत्रों में परिवारों द्वारा स्वयं-घोषित आय पर आधारित था। आय समझाने या गणना करने की दृष्टि से स्पष्ट और सीधी नहीं थी, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में जहां अनेक लोग कृषि में स्वयं-रोजगार में संलग्न हैं। 1997 की जनगणना ने मापदंड को आय से बदल कर उपभोग कर दिया। हालांकि बहिष्करण के कुछ मापदंड बहुत ही कठोर थे। उदाहरणार्थ, यदि परिवार के पास छत में लगने वाला पंखा है तो उसका समावेश गरीबी रेखा के नीचे की सूची में नहीं किया जायेगा, वैसे ही दो हेक्टेयर जमीन होने पर भी परिवार गरीबी रेखा से ऊपर होगा, जबकि भारत के कई क्षेत्रों में जमीन बहुत ही अनुपजाऊ है।
2002 की जनगणना प्रत्येक परिवार की स्कोर के आधार पर रैंकिंग पर आधारित थी, जो उनके जीवन की गुणवत्ता को दर्शाती थी। 13 मापदंड़ों के आधार पर परिवारों की पहचान की गई। गरीब परिवारों की पहचान के लिए इन संकेतकों पर आधारित उनके कुल स्कोर्स की राज्यों के दहलीज स्कोर्स के साथ तुलना की गई। इसकी अंतर्निहित जटिलता और परिवारों की पहचान में पारदर्शिता के अभाव के चलते गरीबी रेखा के नीचे की जनगणना दृष्टिकोण की चारों ओर से आलोचना हुई। मापदंडों में स्पष्टता का अभाव था, स्कोरिंग और एकत्रीकरण में त्रुटियां थीं और गलत चयन की संभावनाएं काफी अधिक थीं। उदाहरणार्थ, वस्त्रों की उपलब्धता जैसे मानदंडों को प्रत्यक्ष रूप से देखा या सत्यापित नहीं किया जा सकता था। साथ ही, सर्वेक्षण ने गरीब की पहचान करने के लिए शौचालय का प्रावधान, घर, और शिक्षा जैसे कारकों का उपयोग किया था। भय इस बात का व्यक्त किया जा रहा है कि गरीबी रेखा के नीचे की सूची से बहिष्कृत किये जाने के डर से ग्रामीण परिवार इन आवश्यकताओं में निवेश करने से परावृत्त होंगे। नागरिक अधिकारों के लिए पीपुल्स यूनियन द्वारा दायर एक याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए स्थगन आदेश के कारण इस जनगणना को 2006 तक क्रियान्वित नहीं किया जा सका।
एन.सी. सक्सेना समिति रिपोर्टः 2002 के दृष्टिकोण की आलोचना के चलते, एन सी सक्सेना समिति ने अगली बीपीएल जनगणना (एसईसीसी 2011) के लिए एक सुधारित पद्धति प्रस्तावित की, जिसमें स्कोरिंग पद्धति का सरलीकरण करके उसे जारी रखा गया था। प्रत्येक के लिए 0 से 4 पैमाने के साथ 13 संकेतकों की बजाय समिति ने केवल पांच संकेतक प्रस्तावित किये थे (जो मुख्य रूप से समुदाय, भूमि स्वामित्व, व्यवसाय, शिक्षा, और वृद्धावस्था या बीमारी पर केंद्रित थे), जिसमें कुल स्कोर की सीमा 0 से 10 तक रखी गई थी। रिपोर्ट ने समाज के सबसे कमजोर वर्गों (उदा. बेघर, या अपंग) के लिए स्वसमावेश का मापदंड़ प्रस्तावित किया था, जिन्हें अपनेआप बीपीएल कार्ड प्राप्त हो जायेगा। बीपीएल दर्जा निर्धारित करने के लिए समिति ने एक दहलीज रेखा प्रस्तावित की थी, जो निम्नानुसार थीः ‘ग्रामीण क्षेत्रों के लिए रू. 700 और शहरी क्षेत्रों के लिए रू. 1000, क्योंकि विद्यमान ‘ग्रामीण क्षेत्रों में 365 प्रति व्यक्ति प्रति माह और शहरी क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति रू. 539 का परिणाम यह दिखाता है कि लोग केवल लगभग 1820 केकैलोरी आहार का सेवन कर रहे हैं, जबकि इसका मानक 2100-2400 केकैलोरी (ग्रामीण-शहरी) है।
जबकि एन.सी. सक्सेना रिपोर्ट की इस बात के लिए प्रशंसा की गई कि उसने एक ऐसा दृष्टिकोण प्रस्तावित किया था जो 2002 की बीपीएल जनगणना की क्लिष्ट पद्धति की तुलना में काफी सरल था, उसकी इस बात के लिए आलोचना की गई कि उसने एक विशिष्ट क्षेत्र या राज्य के लिए बीपीएल की व्याप्ति पर पूर्व-परिभाषित ‘शर्तें’ जारी रखी थीं। लागू करने की शर्तों का परिणाम उन लोगों के बहिष्करण की त्रुटियों में होगा, जो बीपीएल कार्ड प्राप्त करने के लिए पात्र हैं। साथ ही, यह स्वीकार करते हुए कि एक विशिष्ट स्कोर संकेतकों के विभिन्न संयोजनों द्वारा पाया जा सकता है, अतः प्रस्तावित पद्धति सहभागितापूर्ण कार्यान्वयन या सत्यापन की दृष्टि से अनुपयुक्त थी।
योजना आयोग बनाम ग्रामीण विकास मंत्रालयः एक अन्य आवर्ती प्रतिमान है ग्रामीण विकास मंत्रालय और योजना आयोग के अनुमानों के बीच का विशाल अंतर - दोनों पद्धतियों से प्राप्त अनुमान हमेशा ही बहुत भिन्न रहे है, कभी-कभी तो 2 के कारक जितने।
जब एन.सी. सक्सेना रिपोर्ट ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा जारी की गई, तो योजना आयोग ने अध्ययन के परिणामों को मान्य करने से इस आधार पर इंकार कर दिया, कि बीपीएल का प्रतिशत तय करना वर्तमान समिति के ‘क्षेत्राधिकार के बाहर था, और इस पर दूसरी समिति द्वारा विचार किया जा रहा था’ और ग्रामीण गरीबी को 50 प्रतिशत पर तय करने के ‘जबरदस्त वित्तीय निहितार्थ होंगे, जो एक बार दे देने के बाद कम नहीं किये जा सकेंगे।’ हालांकि एन सी सक्सेना रिपोर्ट तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट से पहले जारी की गई थी, फिर भी सक्सेना समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों को तेंदुलकर समिति की सिफारिशों में प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया था।
3 अक्टूबर 2011 को योजना आयोग के उपाध्यक्ष और ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा दिए गए एक संयुक्त बयान में इस बात की पुष्टि की गई थी कि ‘वर्तमान राज्य वार गरीबी अनुमान, जो योजना आयोग की पद्धति का उपयोग करके निर्धारित किये गए हैं, वे विभिन्न शासकीय कार्यक्रमों और योजनाओं के लिए समाविष्ट किये जाने वाले परिवारों की संख्या पर कोई अधिकतम सीमा अधिरोपित करने के लिए इस्तेमाल नहीं किये जाएंगे।’ यह पूर्व की जनगणनाओं (और एन.सी. सक्सेना रिपोर्ट) से एक विचलन है, जहाँ राज्य द्वारा चिन्हित की गई गरीबों की संख्या पर योजना आयोग के अनुमानों द्वारा एक सीमा अधिरोपित की गई है।
विश्वबैंक का दृष्टिकोणः विश्व बैंक ‘‘मनी मेट्रिक’’ (मुद्रा माप) दृष्टिकोण का उपयोग करती है, जिसके अनुसार वह ‘एक डॉलर प्रति दिन’ की अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा को ‘क्रय - शक्ति समता’ रूपांतरण कारकों का उपयोग करके स्थानीय मुद्राओं में परिवर्तित करती है। इसके पश्चात् वह राष्ट्रीय कुटुंब सर्वेक्षणों का उपयोग ऐसे व्यक्तिओं की संख्या को चिन्हित करने के लिए करती है, जिनकी स्थानीय आय राष्ट्रीय गरीबी रेखाओं से कम है। $1.25 प्रति दिन के उपाय दर्शाते हैं कि 1980 के दशक से भारत ने गरीबी के विरुद्ध निरंतर प्रगति की है, और गरीबी की दर में गिरावट प्रति वर्ष एक प्रतिशतता अंक से कुछ की दर से होती रही है। इसका अर्थ यह है, कि अत्यधिक गरीब व्यक्तियों की संख्या, जो 2005 में एक डॉलर प्रति दिन से नीचे बसर करते थे, 1981 के 296 मिलियन की तुलना में 2005 में 267 मिलियन तक कम हुई है। हालांकि ऐसे गरीबों की संख्या, जो $1.25 प्रति दिन से कम में बसर करते थे, उनकी संख्या में 1981 की 421 मिलियन की तुलना में 2005 में 456 मिलियन तक की वृद्धि हुई है। यह इस बात की ओर इशारा करता है कि ऐसे लोगों की संख्या, जो इस अभाव रेखा के ठीक ऊपर (एक डॉलर प्रति दिन) रह रहे हैं, काफी अधिक है, और वह कम नहीं हो रही है।
गरीबी की गणना करने वाले विश्व बैंक दृष्टिकोण की भी अनेक प्रकार से आलोचना हुई है। संजय जी रेड्डी और थॉमस डब्लू पोग्गे अपने शोध पत्र ‘हाउ नॉट टू काउंट द पुअर’ में तीन कारणों को रेखांकित करते हैं, जो दर्शाते हैं कि क्यों विश्व बैंक का गरीबी मापन का दृष्टिकोण ‘न तो अर्थपूर्ण है, और ना ही विश्वसनीय’:
‘‘पहली समस्या यह है कि विश्व बैंक एक ऐसी मनमानी अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा का उपयोग करती है, जो वास्तविक मानवीय आवश्यकताओं की किन्हीं भी विनिर्देशों में पर्याप्त रूप से स्थापित नहीं है। दूसरी समस्या यह है कि यह क्रय शक्ति ‘समतुल्यता’ की अवधारणा को लागू करती है जो गरीबी के मूल्यांकन की दृष्टि से न तो व्यवस्थित रूप से परिभाषित है, और ना ही उपयुक्त है। तीसरी समस्या यह है कि विश्व बैंक सीमित आंकड़ों से गलत ढंग से बहिर्वेशित करती है, और इस प्रकार परिशुद्धता का आभास निर्माण करती है जो उसके आकलन की त्रुटि की उच्च संभाव्यता को छिपा देती है। इन तीन दोषों से निर्माण होने वाले वैश्विक गरीबी अनुमानों में त्रुटियों के स्वरुप और सीमा पर राय बनाना बहुत ही कठिन है।’’ (एस.जी. रेड्डी एवं थॉमस पोग्गे)
पहला, बैंक की पद्धति इसलिए अविश्वसनीय है, क्योंकि इसके निष्कर्ष चुने हुए पीपीपी आधार वर्ष पर बहुत अधिक निर्भर हैं। बैंक किसी एक देश के व्यक्ति के किसी एक वर्ष के उपभोग व्यय की तुलना किसी अन्य देश के व्यक्ति के किसी अन्य वर्ष के उपभोग व्यय से करती है, वह भी राष्ट्रीय उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का उपयोग करके, जो दो मुद्रा राशियों को स्फीति द्वारा या अपस्फीति द्वारा एक समान आधार वर्ष की समकक्ष राशि बना देते हैं, और फिर इस आधार वर्ष के लिए पीपीपी का इस्तेमाल परिणामी राष्ट्रीय मुद्रा राशियों की तुलना के लिए करती है। भिन्न आधार वर्षों के पीपीपी और भिन्न देशों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक अंतर्निहित वस्तुओं की कीमतों को भिन्न रूप में भारांशित करते हैं, क्योंकि वे विशिष्ट वैश्विक और राष्ट्रीय उपभोग पैटर्न्स को प्रतिबिंबित करते हैं। परिणामतः समय और स्थान पर एक साथ तुलनाएं मार्ग निर्भर होती हैं। यदि वे भिन्न पद्धति से की गईं तो शायद वे भिन्न परिणाम दें।
दूसरा, व्यक्तिगत स्वाद के कारणों से उपभोग के स्वरुप एक देश से दूसरे देश बदलते हैं, क्योंकि वास्तविक उपभोग के स्वरुप विद्यमान आय के वितरण और कीमतों द्वारा अत्यधिक प्रभावित रहते हैं। विद्यमान ‘व्यापक प्रमापी’ पीपीपी गरीबी के आकलन के लिए अनुपयुक्त हैं, क्योंकि उनमें अपने सूचनात्मक आधार पर उपयुक्त रूप से केंद्रित होने की क्षमता का अभाव होता है। समस्या इस कारण और अधिक जटिल हो जाती है कि उपयोग की गई जानकारी का इस प्रकार से एकत्रीकरण किया जाता है, कि वह उन विकृतियों को ओर अधिक बढा देती है जो अनुपयुक्त जानकारी के उपयोग में निहित हैं।
तीसरा, बैंक के वैश्विक गरीबी के अनुमानों में बैंक के दृष्टिकोण के अंतर्गत उपयोग किये गए आंकड़ों से संबंधित गणना की समस्याओं के कारण त्रुटियाँ समाविष्ट हैं।
4.0 भारत में गरीबी के कारण
भारत में गरीबी के मूलभूत कारण निम्नानुसार हैंः
- औपनिवेशिक शोषणः ब्रिटिश प्रशासन के दौरान, अर्थव्यवस्था की औद्योगिक क्षेत्र पूरी तरह से नष्ट हो गया था। लोग कृषि पर निर्भर रहने के लिए मजबूर थे। मनुष्य-भूमि अनुपात कम होता चला गया, जिसके परिणामस्वरूप बडे पैमाने पर अल्परोजगार और छिपी हुई बेरोजगारी निर्मित हुई। साथ ही, ब्रिटिश गरीब किसानों को अपने उत्पाद कम कीमतों पर बेचने के लिए मजबूर करते थे, वहीं दूसरी ओर अपने ब्रिटिश उत्पाद भारत में ऊंची कीमतों पर बेचते थे, और इस प्रकार भारतीयों का शोषण करते थे। धीरे-धीरे देश कंगाल होता चला गया, और ब्रिटिश शासन के दौरान गरीबी और अधिक व्यापक होती चली गई। प्रचलित व्यापारिक नीतियों से प्रेरित ईस्ट इंडिया कंपनी का एक ही उद्देश्य था - भारतीय संसाधनों को रिक्त करना और औपनिवेशिक स्वामियों को समृद्ध बनाना।
- अल्प विकासः अल्प विकास के कारण, और प्राकृतिक और मानव संसाधनों के गैर आर्थिक उपयोग के कारण लोगों के लिए दो जून की रोटी जुटा पाना भी कठिन है।
- असमानताः देश की घोर गरीबी की स्थिति के लिए जिम्मेदार एक और कारण है आय और संपत्ति का असमान वितरण। जब कि एक बड़ा वर्ग गरीबों का है, वहीं संपत्ति और उत्पादक परिसंपत्तियां कुछ थोडे हाथों में केंद्रित हैं।
- बेरोजगारीः रोजगार के अवसरों का अभाव भी गरीबी के मूलभूत कारणों में से एक है। बेरोजगारी के कारण लोगों में क्रय शक्ति और अर्थव्यवस्था में प्रभावी मांग का अभाव है। इसका परिणाम अल्प निवेश, अल्प उत्पादन और पुनः अल्प आय में होता है। अतः न्यूक्स ने ठीक ही कहा हैः ‘‘एक देश गरीब है क्योंकि वह गरीब है’’।
- जनसंख्या की ऊंची वृद्धि दरः जनसंख्या वृद्धि भी गरीबी का एक और मुख्य कारण है। आय में अल्प वृद्धि के साथ जनसंख्या में तीव्र वृद्धि, प्रति व्यक्ति आय और उपभोग व्यय को कम कर देती है, और इस प्रकार गरीबी में वृद्धि करती है।
- क्षेत्रीय असमानताः देश में चरम क्षेत्रीय असमानताएं हैं जिनका परिणाम है कि दूसरे देशों की समृद्धि के विपरीत देश की जनता गरीबी में पिसती जा रही है। पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात और हरियाणा जैसे राज्य बिहार, ओडिशा और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों की तुलना में अधिक समृद्ध हैं।
- पूँजी का अभावः पूँजी की अल्पता के कारण, अर्थव्यवस्था में उत्पादन की नई, विकसित और अच्छी तकनीकों का उपयोग नहीं किया जा सका है। इसके परिणामस्वरूप, श्रम की उत्पादकता और कौशल कम होते चले गए, जिसका परिणाम अल्प आय और बढी हुई गरीबी में हुआ।
- न्यून तकनीकः चूंकि देश में न्यून स्तर की तकनीक का प्रयोग किया गया है, अतः इसका विपरीत परिणाम उत्पादन की मात्रा और श्रमिकों की उत्पादकता में कमी के रूप में हुआ है, जिसने देश में जन गरीबी की स्थिति निर्मित की है।
- सामाजिक कारकः सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों के कारण भारत के लोग अपनी आय का एक बडा भाग उच्छृंखलता से व्यय करते हैं। विवाहों, धार्मिक समारोहों इत्यादि पर होने वाला व्यय उन्हें गैर संस्थागत स्रोतों से उच्च ब्याजदर पर उधार लेने पर मजबूर कर देता है। कम उम्र में विवाह प्रथा, संयुक्त परिवार व्यवस्था, अल्प शिक्षा, ये सभी मिलकर भी गरीबी की स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं।
- संपत्ति का निर्माण बनाम संपत्ति का पुनर्वितरणः भारत गरीब इसलिए नहीं है कि उसके पास संपत्ति नहीं है, बल्कि भारत इसलिए गरीब है, क्योंकि उसके पास पूँजी नहीं है। भारत एक जीवंत, स्थायी लोकतंत्र है, जहां कानून का राज चलता है। हमने खाद्यान्नों में पर्याप्तता प्राप्त कर ली है। किंतु चूंकि कृषि हमारी जनसंख्या के 58.4 प्रतिशत भाग के जीवन यापन का साधन है, जो बची हुई जनसंख्या की खाद्यान्न की आवश्यकताओं के आधे से कुछ कम का भी उत्पादन करते हैं, विडंबना यह है कि इस वर्ग की प्रयोज्य आय अन्य लोगों के खाद्यान्न बजट से भी कम है।
मनरेगा से लेकर एनआरएलएम तक रोजगार से संबंधित सभी अधिनियमों का लक्ष्य है रोजगार निर्माण के माध्यम से आय की निर्मिति। अनुत्पादक नौकरियों को बनाये रखने के बुद्धिहीन निर्णय शायद भारत को रोजगार की दृष्टी से जड़वत बना देगा। महत्वपूर्ण यह है की नैतिक उत्पादक लाभ की अथक खोज हो, ना कि अनुत्पादक नौकरियों का स्थायीकरण, जो उन्हें अबाध्य बनाता है।
जैसा कि कँवल रेठी ने कहा है, ‘हमारा समाजवादी और राज्यवादी राष्ट्रीय एजेंडा विनाशकारी साबित हो गया है, और इसे एक उद्यमी एजेंडा द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना चाहिए, जहां उद्योग और वाणिज्य एक संबंध में सरकार की भूमिका न्यूनतम होनी चाहिए।’
आर्थिक स्वतंत्रताः व्यापक अवपीडक विनियमों के साथ और व्यापार पर बाधाओं पर बाधाएं निर्माण करने वाले लाइसेंस राज के अवशेषों के साथ, लोगों से उम्मीद की जाती है कि वे कुछ नया करें और उसमे विशेषज्ञता हासिल करें। सड़क विक्रेताओं के लिए विस्तार करना, एक औसत व्यक्ति के लिए एक विद्यालय या महाविद्यालय शुरू करना, विद्यालय की मान्यता के लिए बजट निर्माण करना, और रिक्शा चालक के लिए सपने देखना काफी कठिन काम है। सपने जब मूल चरण में ही कुचल दिए जाते हैं, तो लोग सपने देखना भी भूल जाते हैं।
आज हम बाजार में जो विभिन्न संगठनात्मक ढ़ांचे देखते हैं, वे सभी सहयोग के बीज बोने और आपसी लाभ को प्रकट करने के प्रयासों के रूप में हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता, कानून का राज, निजी संपत्ति और सीमित सुशासन की प्रणाली सहयोग के लिए अधिकतम प्रयोगशीलता को बढ़ावा देती है। सहयोग के लिए प्रतिस्पर्धा और प्रतिस्पर्धा के लिए सहयोग।
रोजगार को बनाये रखने के माध्यम से नहीं, बल्कि रोजगार की निर्मिति के माध्यम से संपत्ति का निर्माण, लाभ का सम्मान, कृषि से अलग हटकर समय और प्रयासों का शिक्षा, प्रौद्योगिकी, खेल-कूद, मनोरंजन, बैंकिंग, बीमा, यात्रा, पर्यटन और इससे भी अधिक कई अन्य क्षेत्रों में निवेश, प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना, समाज में गतिशीलता बढ़ाने के लिए उद्यमिता विकसित करना, और विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने से ही ‘जागरूक पूंजीवाद’ निर्मित हो पायेगा, जो सामाजिक सहयोग और बदलाव का एक आश्चर्यजनक साधन है।
5.0 समाधान
भारत में गरीबी उन्मूलन के लिए दो आयामी रणनीति की आवश्यकता है -
- उन क्षेत्रों का विस्तार करना होगा जिनमे अधिक श्रम को अवशोषित करने की क्षमता है, और
- गरीबों को शिक्षा, कौशल्य विकास और स्वास्थ्य के माध्यम से सशक्त करना होगा, ताकि वे ऐसे क्षेत्रों में भी समाविष्ट हो सकें जिनमें अधिक योग्यता की आवश्यकता होती है, और जो अधिक पारिश्रमिक देते हैं, जिससे गरीब लोग गरीबी की रेखा के ऊपर जाने में सक्षम हो सकें। निम्नलिखित रणनीति गरीबी की समस्या का समाधान कर सकती हैः
सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि और उदारीकरण की नीति पर जोर देने की बजाय गरीब-उन्मुख रणनीति को अपनाना होगाः भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त 2001) के संदेश में खुलकर स्पष्ट रूप से कहा था की ‘उदारीकरण के फल पर्याप्त रूप से गरीबों और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों तक नहीं पहुँच पाये हैं। असमानताएं बढी हैं।’ अतः उदारीकरण की नीति को जारी रखना निष्फल होगा, जो संगठित क्षेत्र के केवल 8 प्रतिशत श्रम शक्ति पर केंद्रित है, जबकि समय की मांग यह है कि असंगठिक क्षेत्र में कार्यरत 92 प्रतिशत श्रम शक्ति पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। उदारीकरण ने अधिकाधिक श्रम शक्ति को संगठित क्षेत्र से असंगठित क्षेत्र की ओर धकेल दिया है। इस प्रक्रिया को उलटी दिशा में घुमाना आवश्यक है, और यह भी आवश्यक है कि असंगठित की अधिक से अधिक इकाइयों को विकसित किया जाय और इस प्रकार से सशक्त और सक्षम बनाया जाय, ताकि वे संगठित क्षेत्र में परिवर्तित हो सकें। सरकार को उनका पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए, और बेरोजगारी के उन्मूलन को प्राथमिकता प्रदान करनी चाहिए, साथ ही ‘काम के अधिकार’ को मूलभूत मानव अधिकार के रूप में मान्यता देनी चाहिए। इसके लिए सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि और बेरोजगारी के समन्वय के साथ एक नया विकास मॉडल विकसित करना चाहिए।
इस मॉडल में जन भागीदारी सुनिश्चित करते हुए सिंचाई और जल विभाजकों के विकास पर जोर दिया जाना चाहिए। इसी प्रकार, पंचायतों की सहभागीदारी से अवक्रमित और बंजर भूमि को कृषि भूमि में परिवर्तित और विकसित करने के प्रयास किये जाने चाहिए। खाद्य प्रसंस्करण के कार्यों को हाथ में लेने की दृष्टी से कृषि क्षेत्र की सहकारी संस्थाओं को सशक्त बनाने की आवश्यकता है, और विपणन की जिम्मेदारी केवीजेसी को सौंप दी जानी चाहिए। एस.पी. गुप्ता अध्ययन दल द्वारा सुझाई गई दिशा में लधु उद्योग क्षेत्र को मदद की जानी चाहिए। गरीबों और आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्गों के लिए आवास पर अधिक बल देने की आवश्यकता है। सड़कें, कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों को बिजली जैसी ढ़ांचागत बुनियादी सुविधाएँ मजबूत बनाना चाहिए, और सामाजिक ढांचे से संबंधित कार्यक्रम चलाना चाहिए।
इसके अलावा, अनौपचारिक क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की नितांत आवश्यकता है, जो स्वयं रोजगार और आकस्मिक श्रम का अवशोषण करने का एक अत्यंतमहत्वपूर्ण साधन है।
कृषि विकास को प्रोत्साहन देनाः 2014 में कृषि वृद्धि की दर 4.6 प्रतिशत रहने की संभावना है। इस वर्ष खाद्यान्नों का कृषि उत्पादन 2011-12 के रिकॉर्ड 259 मिलियन टन से भी अधिक होने की संभावना है अधिक महत्वपूर्ण है कि .षि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्यों में रिकॉर्ड वृद्धि के साथ सभी फसलों को समाविष्ट करके कृषि की लाभप्रदता पिछले दशक की तुलना में बढ़ी है। पिछले दस वर्षों के दौरान, अर्थात, 2004-05 से 2014-15 तक न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि गेहूं और चांवल जैसे अनाजों के 125 प्रतिशत से मूंग दाल जैसी दालों के 200 प्रतिशत तक भिन्न हैं।
भारत खाद्यान्न उत्पादन में अब तक का रिकॉर्ड उत्पादन करने के लिए तैयार है। भारत सरकार ने यह कहते हुए अपने अनुमानों में परिवर्तन किया है कि संयुक्त रूप से देश पिछले वर्ष के 257.13 मिलियन टन के उत्पादन की तुलना में इस वर्ष 264.28 मिलियन खाद्यान्नों का उत्पादन करेगा।
रचनात्मक विपणन रणनीतियों, पैकेजिंग में नवोन्मेष, गुणवत्ता की मजबूती और एक मजबूत वितरण संजाल के बल पर भारत का मसाला निर्यात 2016-17 तक 3 बिलियन डॉलर तक पहुँचने की संभावना है। भारत मसाला बाजार वार्षिक 40,000 करोड रुपये (6.61 बिलियन डॉलर) का आंका गया है, जिसमें से ब्रांडेड सेगमेंट 15 प्रतिशत है।
केआरबीएल लिमिटेड़ और एलटी फूड्स लिमिटेड जैसी भारतीय बासमती चांवल प्रसंस्करण और विपणन कंपनियों के लाभ बढे़ हैं। दक्षिण अफ्रीका, मिस्र, अजरबैजान, तंजानिया, पोलैंड और यूक्रेन जैसे देशों को बासमती चांवल का निर्यात पिछले तीन वर्षों के दौरान तिगुने से भी अधिक बढ़ा है।
असंगठित क्षेत्र की उत्पादकता और कार्य की गुणवत्ता में वृद्धि करनाः एनडीए सरकार ने तत्कालीन योजना आयोग के सदस्य डॉ एस.पी. गुप्ता की अध्यक्षता में ‘एक करोड़ रोजगार के अवसरों को लक्ष्यित करने पर विशेष समूह’ की नियुक्ति की थी, जिसने अपनी रिपोर्ट 2002 में प्रस्तुत की। विशेष समूह ने इस बात पर जोर दिया था कि असंगठित क्षेत्र के विकास पर बल देकर विकास की कार्यनीति में एक बदलाव करने की आवश्यकता थी, क्योंकि यह बेरोजगारी और गरीबी को कम करने का सबसे पक्का मार्ग था।
उद्धृत करते हुए ‘इस स्थिति का एकमात्र उत्तर है असंगठित क्षेत्र की उत्पादकता और कार्य की गुणवत्ता बढाना। इसका अर्थ यह है कि उन नीतियों को लागू करने के सभी प्रयास किये जाने चाहिए जो विकास की प्राथमिक बाधाओं को समाप्त कर देंगी और इस क्षेत्र को समान अवसर उपलब्ध कराएंगी। श्रमिकों की उत्पादकता बढ़ाने के प्रयास में इस क्षेत्र के विकास पर अधिक जोर दिया जाना चाहिए ना कि श्रम को पूँजी से प्रतिस्थापित करने पर। साथ ही, कार्य की गुणवत्ता और उसकी सुरक्षितता में वृद्धि करने के लिए कानूनों में प्रमुख बदलाव करने होंगे, जैसे सामाजिक सुरक्षा के उपाय, काम की शर्तें और कार्यस्थल की स्थिति, न्यूनतम मजदूरी और श्रमिकों के हितों की रक्षा।’
विशेष समूह की सिफारिशों को तुरंत लागू करना अनिवार्य है, ताकि सकल घरेलू उत्पाद की उच्च दर के साथ गरीबी में कमी की कम दर को रोका जा सके और इस प्रवृत्ति को पलट कर इससे उलटी प्रवृत्ति विकसित की जा सके।
विकास की प्रक्रिया में मजदूरी की हिस्सेदारी बढ़ा कर गरीबी में कमी के उद्देश्य को प्राप्त करनाः ग्यारहवीं योजना के दृष्टिकोण पत्र का सबसे दुखद पहलू यह है किः उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण के अनुसार, संगठित क्षेत्र में भी वास्तविक मजदूरी कम हुई है, हालांकि प्रबंधन और तकनीकी कर्मचारियों को काफी वृद्धि प्राप्त हुई है। 1980 के दशक से हमारे संगठित औद्योगिक क्षेत्र में भी मजदूरी की हिस्सेदारी लगभग आधी हो गई है, और वर्तमान में यह विश्व की न्यूनतम में से एक है।
इस संबंध में, संयुक्त राष्ट्र की 2006 के लिए आर्थिक और सामाजिक परिषद की महासचिव की रिपोर्ट ने स्थायी विकास और गरीबी उन्मूलन के लिए रोजगार की केन्द्रीयता को उजागर किया है। गरीबी के उन्मूलन के लिए रोजगार में वृद्धि करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, और जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है, श्रमिकों की आय गरीबों की आय का मुख्य स्रोत है।
वास्तव में, उदारवाद की संपूर्ण नीति ‘योग्यतम की अतिजीविता’ के सिद्धांत पर या जंगल राज पर आधारित है, जबकि एक सभ्य समाज में समावेशी विकास की नीति की बानगी के रूप में ‘कमजोरतम की अतिजीविता’ के सिद्धांत का पालन किया जाना चाहिए। इस नीति ने लाभ की असीमित वृद्धि का समर्थन किया है, जबकि श्रमिकों को ‘उचित काम’ से वंचित रखा है, जो कि मजदूरी की न्यायसंगत हिस्सेदारी को सुनिश्चित करने के माध्यम से आयएलओ का उद्देश्य था। इसमें सरकार को औद्योगिक क्षेत्र के साथ एक करार के माध्यम से हस्तक्षेप करना चाहिए कि वे उच्च विकास और उत्पादकता लाभों को श्रमिकों के साथ साझा करेंगे।
गरीबों को शिक्षा और कौशल विकास के माध्यम से सशक्त बनानाः स्थायी विकास में शिक्षा व्यय के परिणामस्वरूप, सभी स्तरों-प्राथमिक, माध्यमिक और तृतीयक - पर शिक्षा संस्थानों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। देश ने प्राथमिक स्तर पर 96 प्रतिशत सकल नामांकन अनुपात प्राप्त किया है, हालांकि, कक्षा 1 से कक्षा 5 की ड्रॉप आउट दर 51 प्रतिशत थी, जो कि काफी अधिक है। माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर, 14 से 18 के आयु समूह में कुल नामांकन लगभग 40 प्रतिशत था, हालांकि कक्षा 1 से कक्षा 10 की ड्रॉप आउट दर लगभग 62 प्रतिशत जितनी अधिक थी।
उच्च शिक्षा में सकल नामांकन दर 2004-05 में लगभग 11 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई थी, हालाँकि वैश्विक औसत लगभग 23.2 प्रतिशत है। 2013-14 में यह बढ़ कर 20 प्रतिशत हुआ, जो अभी भी 23.2 प्रतिशत के विश्व औसत से पीछे है। देश में शिक्षा के क्षेत्र में विशाल अधोसंरचना उपलब्ध है देश इंजीनियरिंग, चिकित्सा, प्रबंधन के क्षेत्रों में उत्कृष्ट संस्थान स्थापित करने में सफल रहा है, साथ ही कृषि और विज्ञान के अखिल भारतीय स्तर के अनुसंधान केंद्र भी स्थापित किये गए हैं। इसके परिणामस्वरूप हम चीन के बाद दूसरे क्रमांक पर रहते हुए विश्व के दूसरे सबसे अधिक कुशल मानव संसाधन निर्माण करने में भी सफल रहे हैं।
378 विश्वविद्यालयों, 18,064 महाविद्यालयों, 1.52 लाख माध्यमिक और उच्चत्तर माध्यमिक विद्यालयों और 10.43 लाख प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों जैसी विशाल शिक्षा अधोसंरचना विकसित करना निश्चित रूप से देश के लिए गौरव का विषय है।
बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के माध्यम से सशक्तिकरणः गरीबी और स्वास्थ्य के बीच के गहरे संबंध को समझना और पहचानना बहुत आवश्यक है। लंबी अवधि की और महंगी बीमारियां अपेक्षाकृत सक्षम लोगों को भी गरीबी में धकेल देती हैं स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें व्यक्तिगत स्वास्थ्य, सार्वजनिक स्वास्थ्य, साफ-सफाई, स्वच्छ पीने का पानी, और स्वच्छता संबंधी और बच्चों के पालन-पोषण संबंधी जानकारी शामिल है।
हालांकि भारत ने जीवन प्रत्याशा, शिशु और मातृ मृत्यु दर, जैसे विभिन्न स्वास्थ्य संकेतकों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं, फिर भी भारत जितनी ही विकास विकास स्तर वाले चीन, इंडोनेशिया और श्रीलंका जैसे देशों ने भारत की तुलना में अधिक अच्छा प्रदर्शन किया है।
देश के शहरी क्षेत्रों में 42.6 मिलियन लोग मलिन बस्तियों में रहते हैं, जो शहरी जनसंख्या का 15 प्रतिशत है। इन मलिन बस्तियों में स्वच्छता का अभाव और साफ पीने के पानी के अभाव के चलते इन बस्तियों के अधिकांश लोग बीमारियों के शिकार हैं, और इनमें बीमारियों की घटनाएं बहुत अधिक देखने में आती हैं।
आवास की सुविधा के माध्यम से गरीबों का सशक्तिकरणः ग्रामीण और शहरी, दोनों क्षेत्रों में पक्के मकानों की कमी को दूर करने की भी बहुत आवश्यकता है। केवल यही नहीं, बल्कि आवश्यकता इस बात की भी है कि लोगों को साफ पीने के पानी, शौचालय, और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी उपलब्ध करायी जाएँ। देश में आवास और बुनियादी नागरिक सुविधाएँ प्रदान करने की दिशा में एक विशाल अभियान चलने की आवश्यकता है।
शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति और भी खराब है। सरकार को गरीबों और कमजोर वर्गों के लोगों के लिए आवास रियायती दरों पर उपलब्ध कराना चाहिए, और इसकी लागत 20 वर्षों की अवधि में किराये के रूप में आसान किश्तों में वसूल करना चाहिए।
चूंकि ग्रामीण रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध नहीं करा पाते, अतः एक धक्का तंत्र काम करता है, जिसके परिणामस्वरूप शहरी आबादी बढती चली जा रही है। शहरी क्षेत्रों में, मकानों की कीमतें इतनी अधिक बढ़ चुकी हैं, कि मकान अब अधिकांश जनसंख्या की पहुँच के बाहर हो गए हैं। इसमें भी जमीन की लागत सबसे महत्वपूर्ण है, जो लगभग आसमान छू रही हैं। इसके लिए एक रास्ता यह हो सकता है, कि सरकार जमीन का अधिग्रहण करे, उन पर मकान बनवाए और ये मकान, जमीन की कीमत समाविष्ट किये बिना गरीबों और कमजोर वर्गों के लोगों को बेचे, और इस प्रकार का एक विशाल आवास अभियान शुरू करे।
हमारे तीव्र गति से विस्तारित होते सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के लिए कौशल्य विकास के माध्यम से सशक्तिकरणः जीवन के सभी क्षेत्रों में कम्प्यूटर्स और सूचना प्रौद्योगिकी के बढ़ते उपयोग के चलते, कुशल कामगारों की मांग निरंतर बढती जा रही है। चूंकि इसके लिए उच्च शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण तक पहुँच आवश्यक है, अतः रोजगार के इन बढते अवसरों का लाभ वे ही उठा पा रहे हैं, जो उच्च शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त करने में आर्थिक रूप से सक्षम हैं। अतः गरीब इस सूची से बाहर ही रह जाते हैं, क्योंकि वे महँगी उच्च शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए आवश्यक और पर्याप्त आर्थिक साधन नहीं जुटा पाते। इस प्रकार सरकार को निम्न बिन्दुओं पर विचार करना चाहिएः
- गरीबों को रियायती दरों पर उच्च शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा की सुविधा उपलब्ध कराये
- गरीबों के लिए योग्यता व साधन आधारित शिष्यवृत्तियां बडे पैमाने पर उपलब्ध कराये, और
- और ऐसे संस्थानों को आर्थिक एवं अन्य सहायता उपलब्ध कराये, जो गरीबों को शिक्षा प्रदान कर रहे हैं।
इस प्रकार के उपाय यदि एक राष्ट्रीय प्राथमिकता के तौर पर शीघ्र से शीघ्र शुरू किये गए, तो ये गरीबों को जीवन में ऊपर उठने के लिए बहुत ही सहायक होंगे।
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (एनआरईजीएस) के माध्यम से रोजगार उपलब्ध करानाः एनआरईजीएस की शुरुआत यूपीए सरकार द्वारा एक राष्ट्रीय कार्यक्रम के रूप में की गई थी। इसके अंतर्गत, शुरुवाती दौर में परिसंपत्ति निर्मिति आधारित सार्वजनिक कामों में शारिरिक रूप से सक्षम प्रत्येक ग्रामीण गरीब परिवार के एक सदस्य को प्रति वर्ष 100 दिनों का अनिवार्य रोजगार न्यूनतम मजदूरी पर उपलब्ध कराया जाता है। मोदी सरकार ने इसे युक्तिसंगत बनाने का प्रयास किया है।
6.0 भारत में गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, भारत की विकास नीति गरीबी उन्मूलन को केंद्र में रख कर इस प्रकार से बनाई गई है, कि सामान्य विकास प्रक्रिया से, और सामान्य विकास प्रक्रिया के पूरक के रूप में प्रत्यक्ष आय अर्जित करने के लिए शुरू किये गए कार्यक्रमों के माध्यम से गरीबों की आय में होने वाली वृद्धि गरीबी को कम करने में परिणामित होगी। फिर भी, भारत द्वारा आय की कमी से संबंधित गरीबी को कम करने की दृष्टि से किये गए प्रयासों को मिश्रित सफलता मिली है, क्योंकि गरीबी के कारण हमेशा अनिवार्य रूप से ‘पर्याप्त आय का अभाव’ नहीं रहे हैं, बल्कि इसमें ऐसे भी कई कारक शामिल हैं जो आय और क्रय क्षमता से बाहर के हैं।
वर्तमान नीति गरीबी उन्मूलन और देश में गरीबी में कमी करने के त्री-सूत्री कार्यक्रमों पर आधारित है, ये हैंः
- आर्थिक विकास को गतिशील बनाना
- रोजगार और आय निर्मिति के कार्यक्रमों और गरीबों के लिए परिसंपत्ति निर्मिति के माध्यम से गरीबी पर प्रत्यक्ष प्रहार, और
- गरीबों और वंचित वर्गों के लिए मानव और सामाजिक विकास नीतियां। आर्थिक वृद्धि की गति को बढाने की नीति गणितीय मॉडल के एक समूह के समाधानों के माध्यम से ली गई है।
वर्तमान समय में गरीबों के लिए चलाये जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों का मोटे तौर पर निम्न श्रेणियों में वर्गीकरण किया जा सकता हैः
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली और पोषण कार्यक्रम
- स्वयं रोजगार कार्यक्रम
- मजदूरी रोजगार कार्यक्रम
- सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम
गरीब परिवारों की पहचान करने के लिए दसवीं योजना (2002-2007) में की गई बीपीएल जनगणना में संपत्ति और निधि जैसे अन्य संकेतकों के साथ ही बुनियादी जरूरी आवश्यकताओं को भी समाविष्ट किया गया था। यह जनगणना लोक कल्याण के तेरह संकेतकों पर आधारित है। ये संकेतक हैंः (1) भू-धारण (2) आश्रय (3) वस्त्र, (4) खाद्य सुरक्षा (5) साफ-सफाई, (6) टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं का स्वामित्व, (7) शिक्षा, (8) श्रम विशेषतायें, (9) व्यवसाय की श्रेणी, (10) बच्चों की स्थिति,
(11) ऋणग्रसिता, (12) प्रव्रजन, व (13) राज्य सहायता की दिशा में वरीयता।
इन सभी तेरह संकेतकों के लिए परिवारों को पांच बिंदुओं के पैमाने पर स्कोर दिए गए हैं, जैसे 0, 1, 2, 3 और 4। ये स्कोर किसी परिवार की गरीबी और वंचितता से विपरीत संबंधित हैं। निम्न स्कोर उच्च गरीबी और वंचितता का प्रतिनिधित्व करता है और उच्च स्कोर निम्न गरीबी और वंचितता का प्रतिनिधत्व करता है। अतः किसी परिवार का स्कोर जितना होगा, उतनी ही उसकी लाभार्थी के रूप में चयन होने की संभाव्यता अधिक होगी।
प्रत्येक परिवार के लिए, इन 13 संकेतकों के आधार पर दिए गए स्कोर्स को जोडा जाता है, और यह योग परिवार का सकल योग बनाता है, जो शून्य (न्यूनतम संभाव्य स्कोर, जब किसी परिवार को सभी तेरह संकेतकों में शून्य प्राप्त हुआ हो) और 52 (अधिकतम स्कोर, जब किसी परिवार को सभी तेरह संकेतकों में 4 अंक प्राप्त हुए हैं) के बीच है जिस परिवार का स्कोर सबसे कम है, उसे सहायता की दृष्टि से पहली वरीयता दी जाती है। उसके पश्चात दूसरे न्यूनतम अंकों वाले परिवार का चयन किया जाता है। इस पद्धति का पालन करते हुए, जिस परिवार के अंकों का योग अधिकतम है, अंत में उसे लिया जाता है। इस प्रकार, इस पद्धति में, ग्रामीण परिवारों को बुनियादी जरूरी आवश्यकताओं की वंचितता के आधार पर चयनित किया जाता है, जो एक सामान्य जीवन जीने की दृष्टि से आवश्यक हैं।
6.1 गरीबी और 12वीं योजना
यूपीए-2 सरकार का निर्विवाद और स्पष्ट योगदान यह था कि पिछले 20 वर्षों में पहली बार, भारत के लोगों की पात्रता के लिए गरीबी रेखा को नहीं जोड़ा गया है। वास्तव में, 12वीं योजना के साथ इस सरकार ने यह स्वीकार करने की दिशा में पहला कदम उठाया था, कि गरीबी एक बहु - आयामी संकल्पना है, जिसे केवल उपभोग व्यय तक सीमित नहीं रखा जा सकता। उदाहरण के तौर पर, अभी तक यदि आपको इंदिरा आवास योजना या संपूर्ण स्वच्छता अभियान के लाभार्थी के रूप में माना जाना है, तो आपके पास बीपीएल कार्ड का होना आवश्यक था। इन कार्ड़ों का वितरण समावेश अथवा बहिष्करण की मानवी त्रुटियों से ग्रस्त था, यह इस हद तक था कि कई वास्तव में गरीब लोगों को इससे वंचित रहना पड़ता था, और स्थानीय स्तर पर कई व्यक्ति जो वास्तब में गरीब नहीं थे, वे भी बाहुबल से ये कार्ड हस्तगत करने में सफल हो जाते थे।
12वीं योजना के दौरान, यह सब इस सिद्धांत के आधार पर परिवर्तित होने वाला है कि -‘कार्यक्रम विशिष्ट हकों के लिए कार्यक्रम विशिष्ट संकेतक’ यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि गरीबी बहु-आयामी है, और इन सभी से भिन्न-भिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से निपटना है, और सभी कार्यक्रमों के लाभ या तो सार्वभौमिक होंगे (जैसे मनरेगा, स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा, साफ-सफाई, मध्यान्ह भोजन, इत्यादि) या विशिष्ट वंचितता से संबंधित आंकड़ों पर आधारित होंगे, जैसे बेघर।
भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों की सहभागिता में की गई सामाजिक-आर्थिक और जातीय जनगणना (एसईसीसी) एक मील का पत्थर था। इसके आंकड़ें देश की सभी ग्राम सभाओं और वार्ड सभाओं में प्रस्तुत किये जाएंगे, और ये एक प्रकार के सामाजिक लेखा को संभव बनाएंगे और इससे नागरिक जागरूकता और जन सहभागिता को बढ़ावा मिलेगा। एसईसीसी में बेघर लोगों, मैला ढोने, अपंगता, और ढे़रों अन्य वंचितताओं पर महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध है, जो सभी गरीबी के महत्वपूर्ण कारण हैं। इसका उपयोग विशिष्ट लाभों के लिए लोगों के चयन के लिए किया जायेगा। इस प्रकार बेघर लोग आयएवाय योजना के लाभार्थी होंगे और अपंगों को अपंगता पेंशन मिलना शुरू हो जाएगी, बावजूद इसके कि उनके पास बीपीएल कार्ड है, या नहीं। खाद्य सुरक्षा कानून 67 प्रतिशत जनसंख्या को शामिल करता है, जो उपभोग गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या (22 प्रतिशत) से तिगुनी है।
क्या उपभोग गरीबी की रेखा 1.25 डॉलर जितनी कम होनी चाहिए, यह प्रश्न प्रासंगिक है। यह पूर्ण गरीबी की अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त परिभाषा है। एक मध्यम गरीबी की संकल्पना भी है जो 2 डॉलर पर रखी गई है। परंतु प्रति प्रश्न हैं किः यदि हम गरीबी रेखा को 2 डॉलर तक बढ़ा भी देते हैं, फिर भी क्या ऐसी रेखा के आधार पर लोगों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसे सरकारी कार्यक्रमों से वंचित रखना सही है? और किसी भी स्तर पर एक समान रेखा का उपयोग विवेकहीन पद्धति से सभी कार्यक्रमों के लिए किया ही क्यों जाना चाहिए? जैसा की अब तक दशकों से किया जा रहा है? अक्टूबर 2015 में, विश्व बैंक ने अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा में संशोधन करके इसे 1.90 डॉलर प्रतिदिन कर दिया। वास्तव में, 12वीं योजना यह स्पष्ट रूप से मान्य करती है, कि यदि उपभोग गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या का आंकड़ा शून्य पर भी आ जाये, फिर भी भारत में गरीबी तब तक एक चुनौती बनी रहेगी जब तक प्रत्येक भारतीय को सुरक्षित पीने का पानी, साफ-सफाई, आवास, पोषण, स्वास्थ्य और शिक्षा उपलब्ध नहीं हो जाता। हमें गरीबी के एकमात्र अनुमान पर झगड़ने के बजाय अपना ध्यान इस चुनौती पर केंद्रित करने की आवश्यकता है।
7.0 सशक्तिकरण रेखा
मैकिंजे वैश्विक संस्थान ;डब ज्ञपदेमल ळसवइंस प्देजपजनजमद्ध द्वारा एक नया मापदंड़ जिसे सशक्तिकरण रेखा कहा जाता है, विकसित की गई, जिसका उद्देश्य निर्धनता में कमी लाने हेतु वृहद नीतिगत ढ़ाँचा बनाना है। यह संगणना करता है कि मूलभूत तत्व प्राप्त करने हेतु एक भारतीय गृहस्थी को कितनी लागत आएगी एवं फिर उनकी अपूर्ण आवश्यकताएँ को आकलित करके वास्तविक उपभोग हेतु इन मापदंड़ों से तुलना करता है। भारत में गरीबी की प्रकृति के बारे में बहुत सारी गलतफमियों को यह परिणाम असल आईना दिखाता है।
मिथक # 1ः भारतीयों का सिर्फ 22 प्रतिशत ही गरीब है। यह भारत की आधिकारिक गरीबी दर है, किंतु यह केवल उन्हीं की गणना करती है जो बहुत निकृष्ट परिस्थितयों में हैं। भारत के मानव विकास संकेतकों का एक सरसरी अवलोकन भी व्यापक अभाव बतलाता है। सशक्तिकरण रेखा से पता चलता है कि भारतीयों का 56 प्रतिशत, लगभग 68 करोड़ अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरी करने के लिये साधनों के अभाव में हैं। आधिकारिक गरीबी रेखा से ठीक ऊपर, लगभग 43 करोड़ इसकी ’’चपेट में’’’ हैं। उनके तुलनात्मक बेहतर जीवन स्तर पर सिर्फ एक कमज़ोर पकड़ है, एवं बीमारी अथवा नौकरी खोना उन्हें एक आघात के रूप में सरलता से वापस विषम परिस्थिती में धकेल देता है।
मिथक # 2ः भारत के निर्धनों की बड़ी अपूर्ण आवश्यकता भोजन है। भूख, गरीब से भी घोर गरीब के लिए जीवन की एक दैनिक सच्चाई के रूप में बनी हुई है। किंतु स्वास्थ्य देखभाल, पेयजल एवं स्वच्छता जनसंख्या के 40 प्रतिशत के लिए मूल्य के मान से अपूर्ण आवश्यकता निर्मित कर रही है। इन महत्वपूर्ण सेवाओं के बजाय भारत की निर्धनता प्रवृत्त राष्ट्रीय बहस कैलोरी प्रचुरता पर केंद्रित हो कर रह गई हैं। औसतन भारतीय स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढ़ाँचे एवं वांछित सेवाओं की आधे से अधिक सुगमता में अभावग्रस्त हैं।
मिथक # 3ः बढ़ती आय एक बेहतर जीवन गुणवत्ता की कुँजी है। यह विचार सत्य है - किंतु सिर्फ एक हद तक। उच्च आय एवं क्रय शक्ति के साथ, लोग अच्छे रहवास को जुटा सकते है, इसकें साथ स्वच्छता, पेयजल एवं खाना पकाने तथा प्रकाश हेतु ईंधन भी जुटा सकते हैं। किंतु खर्च करने का यह सामर्थ्य समीकरण का एक ही पहलू हैं। गरीब लोग इसके साथ ही समुदाय स्तरीय बुनियादी ढ़ाँचों जैसे विद्यालय एवं स्वास्थ्य देखभाल तंत्र पर निर्भर होते हैं। औसतन, भारतीय बुनियादी सेवाओं की 46 प्रतिशत सुगम प्राप्ती में अभावग्रस्त हैं एवं ये आँकड़ें उत्तरप्रदेश एवं बिहार के सबसे वंचित जिलों में 59 प्रतिशत तक पहुँच जाते हैं।
मिथक # 4ः गरीबी में कमी लाने में विगत लोक कल्याणकारी बजट काफी महत्वपूर्ण थे। भारत सामाजिक उत्थान हेतु अधिक स्त्रोतों के प्रति प्रतिबद्ध हो रहा हैं बुनियाद सेवाओं की प्राप्ती हेतु जनता का खर्च 2005 से 2015 की वास्तविक अवधि में प्रतिवर्ष 11 प्रतिशत के लगभग बढ़ा है। अतंतः $118 बिलियन विस्तृत हुआ हैं किंतु खर्च का आधे के लगभग भाग अनुवादित नहीं किया जा सकता कि वास्तविक गरीबोत्थान में हुआ है क्षति के कारण, भ्रष्टाचार अथवा साधारणः नालायकी। सरकारी खर्च बढ़ने से एक चौथाई निर्धनता-न्यूनता सन् 2005 से 2012 के बीच आई है, किंतु नौकरियाँ एवं बढ़ती आय प्राप्त किए गए अधिकांश विकास हेतु महत्वपूर्ण हैं।
मिथक # 5ः अधिक अनुवृत्तियों एवं सामाजिक अंतरण से भविष्य में निर्धनता उन्मूलन हो सकेगा। सशक्तिकरण रेखा के मापदंड़ के लिए 68 करोड़ भारतीयों के उत्थान हेतु अतिरिक्त खपत की आवश्यकता है, जो जीड़ीपी के 4 प्रतिशत के बराबर है। इतने परिमाण में खर्च बढ़ने को समर्थन देने हेतु राजकोषीय स्त्रोतों की भारत में कमी है और अगर इसे धन मिल भी जाता है, तो इसका विगत रिसावभरा रिकार्ड एवं प्रभावहीन खर्च गरीबों के फायदे को सीमित कर देता है। यह 58 करोड़ के लगभग लोगों को इस दशक तक सशक्तिकरण रेखा के ऊपर ले जाएगा, ऐसा अभी तक असंभव लग रहा हैं इससे प्रभावित लगभग 90 प्रतिशत लोग गैर-प्रपत्र नौकरी उत्पत्ती, तीव्र कृषि उत्पादकता विकास एवं सेवाओं की अधिक प्रभावी प्राप्ती पर निर्भर हैं। नीति-निर्माता ढ़ाँचागत प्राप्ती पर ध्यान केंद्रितकर व्यापार कार्य पर पड़ रहे विनियामक भार को सरल कर, करों एवं उत्पाद बाज़ार का पुनर्रूपीकरण कर, श्रमिक बाज़ार को लचीला कर एवं कार्यशक्ति कौशल इस प्रक्रिया को गति में ला सकते हैं। इन परिवर्तनों द्वारा विकास का गुणी-चक्र स्थापित किया जा सकता है जिससे अधिक राजस्व, भारत को अपने राजकोषीय लक्ष्यों की प्राप्ती में सक्षम बनाने, यहाँ तक कि यह सामाजिक सेवाओं में पुनः अतिरिक्त कोष का हल हो सकता हैं।
8.0 भारतीय गरीबी विवादित
भारत के ’’गरीब’’ की परिभाषा पर विकास अर्थशास्त्रियों एवं सक्रिय कार्यकर्ताओं द्वारा गर्मागर्म बहस की गई, कईयों ने तो आधिकारिक गरीबी रेखा को बहुत नीचे पाया तथा बहुत बड़ी संख्या में वे लोग जो अभी तक सरकारी सहायता की आवश्यकता में हैं, उन्हें बाहर पाया। 2014 में भारत सरकार की एक रिपोर्ट में योजना आयोग ने आकलन लगाया था कि 36.3 करोड़, कुल जनसंख्या के 29.5 प्रतिशत से ज्यादा भारतीय सन् 2011-12 में गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे थे। रंगराजन विशेषज्ञ समूह द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट अनुसार 2009-10 तथा 2011-12 के मध्य भारत का गरीबी अनुपात 38.2ः से गिरकर 29.5 प्रतिशत होने का अनुमान भी लगाया गया था, जिसमें 9.16 करोड़ व्यक्ति गरीबी से बाहर हो गए।
भारतीय योजना आयोग की $2.40 प्रतिदिन की गरीबी रेखा से दो गुने पर जीवन-यापन कर रहे लोगों को अभी भी पोषण संबंधी एवं अन्य विकसित आर्थिक स्तरों पर कई जरूरतों से कोई सारोकार नहीं होगा। कई गरीब लोग ’’गरीबी से बाहर हो गए है’’ जो अभी तक $2.40 की बजाय $10 प्रतिदिन के स्तर के करीब जीवन यापन कर रहे हैं। प्यू रिपोर्ट अनुमान लगाती है कि प्रस्तावित रंगराजन गरीबी रेखा अनुसार सिर्फ भोजन खपत ही एक ग्रामीण परिवार का 57 प्रतिशत और शहरी परिवार के बजट का 47 प्रतिशत ले लेता है।
भारत खपत आँकड़ों पर आधारित गरीबी रेखा (एवं जन कल्याण अदायगी) को पुरानी परिपाटी पर रखता था, जबकि सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना (एस.ई.सी.सी) द्वारा गृहस्थी स्तर के आँकड़ें अधिक विस्तृत रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। रंगराजन विशेषज्ञ समूह द्वारा यह भी अनुशंसा की गई कि एसईसीसी के आँकड़ें एवं जनगणना का पात्रता निर्धारण हेतु उपयोग होना चाहिए एवं गरीबी अनुपातों का उपयोग केवल राज्यों के बीच आवंटन निर्धारण हेतु ही होना चाहिए।
भारत की कल्याण दशा की प्रकृति एवं बनावट राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन सरकार के अधीन अपनी अवस्था बदलती जा रही है। नई सरकार ने अपने केन्द्रीय बजट जो इस वर्ष के प्रारंभ में प्रस्तुत किया था, में कल्याणकारी योजनाओं के वित्तपोषण में कटौती की है। राज्यों का कर ढ़ाँचे से बड़ा प्राप्तांश है एवं अब उनसे अपेक्षा की गई है कि अपने स्वयं के कोष से वर्तमान स्तरों पर कल्याण कार्य संधारित करें, तथा केन्द्र सरकार से आवंटनों पर कुछ नहीं कहें। जहाँ ये अनुवृत्तियाँ राज्यों को और अधिक स्वायत्तता देगी, वहीं यह चिंतनीय है कि वर्तमान स्तरों पर जनकल्याणकारी योजनाओं को सिद्ध करने में राज्य सरकारों के लिए यह परेशानी होगी कि अब अपने बजट में आवश्यकतानुसार परिवर्तन करें। अधिक गरीब राज्य जो जनल्याणकारी भुगतानों हेतु केन्द्रीय वित्त पोषण पर अधिक आश्रित हैं, वे इन आवंटनों को संधारित रखने में चुनौती पाएगें।
उसी समय, केन्द्र ने नए कल्याणकारी कार्यक्रमों पर चलना प्रारंभ किया। संभव है कि अति महत्वाकांक्षा एवं अति राजनैतिक उत्कृष्टता इसमें सवार हो, जो प्रधानमंत्री की जन-धन योजना की पहल है, ताकि सभी गृहस्थियों को वित्तीय सेवाएँ सुगम्य होकर उद्देश्यपूरित हो। इस योजना के तहत् जनवरी 2015 में 115 मिलियन खाते खोले गए थे। रू. 91.8 बिलियन ($1.4 बिलियन) जुटाए गए, इतने कम समय सीमा में इतने सारे खाते खुलने का गिनीज रिकार्ड स्थापित हो रहा है।
मई 2015 में, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक पेंशन योजना तथा दो बीमा योजनाएँ प्रारंभ की, जो सभी भारतीयों के लिए एक समान सामाजिक सुरक्षा प्रणाली निर्मित करने को लक्ष्यांकित है। आशा यह है कि वित्तीय सेवाओं के साथ, मोबाईल फोन एवं विशिष्ट पहचान संख्या सभी भारतीयों के लिए जगह ले ले, यह गरीबों तक सीधे कल्याणकारी भुगतानों को सरल बना देगा। एसईसीसी आँकड़ें दर्शाते हैं कि ग्रामीण भारत की 71 प्रतिशत जनसंख्या एक मोबाईल फोन की मालिक है। यह खुशी जताने का कम से कम कुछ कारण तो है।
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