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भारत में आर्थिक उदारीकरण
1.0 प्रस्तावना
जून 1991 में, भारतीय आर्थिक नीति की दिशा में एक निश्चित बदलाव शुरू हो गया। नियोजित अर्थव्यवस्था का प्रारूप जो 1950 के दशक के बाद से अपनाया गया, उसे बदल कर राज्य द्वारा एक और विनियामक की भूमिका अपनाई गई, जिसके कारण उद्यमियों और निजी क्षेत्र को अधिक स्वतंत्रता मिली और अर्थव्यवस्था खुलने लगी।
नियोजित आर्थिक विकास का युग इस विश्वास पर आधारित था कि यह देश को गरीबी से बाहर निकालकर समृद्धि की ओर ले जाएगा। दुर्भाग्य से, बंद अर्थव्यवस्था ने विकास को कुंठित कर दिया। भारतीय अर्थव्यवस्था पहले तीन दशकों में 3.5 प्रतिशत की वार्षिक औसत दर से बढ़ी।
1980 के दशक में अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण में ढील की जरूरत का अहसास हुआ। बहरहाल, इसके कारण नियंत्रण तंत्र में कुछ मामूली परिवर्तन ही हुए व अर्थव्यवस्था के एक मौलिक पुनर्गठन के कोई प्रयास नहीं हुए। हालांकि विकास बढ़ा, किंतु यह भारी सार्वजनिक खर्च के कारण हुआ, जिसके कारण विशाल राजकोषीय घाटा हुआ और बाह्य ऋण में वृद्धि हुई। अंत में 1990-91 में इसका एक पूर्ण विकसित संकट के रूप मेंं समापन हुआ जब खाड़ी युद्ध के कारण तेल की कीमतों में वृद्धि ने भारत के भुगतान संतुलन की स्थिति पर जबरदस्त दबाव डाला। विदेशी मुद्रा भंडार घट कर के आयात के सिर्फ दो सप्ताह के लिए पर्याप्त था और भारत अपने बाह्य ऋण पर पुनर्भुगतान चूक के गंभीर खतरे में था। आईएमएफ एक मदद के साथ आया था, लेकिन इस तथ्य से बचा नहीं जा सकता था कि भारतीय अर्थव्यवस्था को कठोर सुधारों की जरूरत है। ये सुधार 1991 में एक प्रमुख लाइसेंस मुक्तिकरण कार्यक्रम के साथ किये गये। औद्योगिक लाइसेंस व्यवस्था रद्द कर दी गई, आयात का उदारीकरण हुआ व विदेशी निवेश का स्तर बढ़ा। अगले कुछ वर्षों में एक क्षेत्र के बाद दूसरे क्षेत्र को धीरे-धीरे घरेलू और विदेशी प्रतियोगिता के लिए खोला गया।
उदारीकरण प्रक्रिया के अपने उतार और चढ़ाव रहे हैं। पहले चार वर्षों के लिए, वह अच्छी तरह से चली, लेकिन 1990 के दशक के मध्य में लड़खड़ाने लगी जब कांग्रेस पार्टी (जिसके मुखिया थे प्रधानमंत्री श्री पी.वी. नरसिंहराव) को चुनावी झटकां की एक श्रृंखला का सामना करना पड़ा एवं उसके लिए आर्थिक सुधारों को दोषी ठहराया गया। 1990 के दशक के अंत से फिर गति आई जब कर-सुधारों की पहल की गई, एक विनिवेश आयोग और बाद में विनिवेश मंत्रालय की स्थापना हुई, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) की सामरिक बिक्री, शहरी भूमि हदबंदी और विनियमन अधिनियम (यूएलसीआरए) का निरसन, आदि हुआ। 2004 से, हालांकि, सुधारों की गति मंथर हो गई और यहां तक कि कुछ मामलों में उलटी हो गयी। इससे भी बदतर यह है कि भारत पुनः एक खर्चीले कल्याणकारी राज्य बनने की ओर फिसल गया, कई कानूनी रूप से लागू हकों के साथ - काम से शिक्षा से भोजन तक - उनके वित्तीय या आर्थिक परिणामों की चिंता किए बिना।
2.0 उदारीकरण - उतार चढ़ाव उद्योग
औद्योगिक क्षेत्र पर आर्थिक सुधारों को ज्यादा लक्षित किया गया है। 1991 में, औद्योगिक लाइसेंसिंग प्रक्रिया को 18 उद्योगों को छोड़ सभी के लिए समाप्त कर दिया गया था; सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित क्षेत्रों की संख्या 12 से कम होकर 8 की गयी थी; आयात को उदार बनाया गया था और एकाधिकार तथा अवरोधक व्यापारिक व्यवहार (एमआरटीपी) अधिनियम को आसान किया गया था। इसके अलावा, कुछ क्षेत्र-विशेष उपायों को भी अपनाया गया। 1991 की ऑटोमोबाइल नीति ने विदेशी निर्माताओं के लिए ऑटो क्षेत्र को खोला और नई विद्युत नीति ने विद्युत उत्पादन में निजी भागीदारी की अनुमति दी। तब से लाइसेंस खत्म करने की प्रक्रिया जारी है। 1993 में, दूरसंचार क्षेत्र को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया था। यहां तक कि रक्षा उपकरणों को भी निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया। लघु उद्योग क्षेत्र आरक्षण, जिसने औद्योगिक इकाइयों को बड़ा बनने व कुशल उत्पादकता स्तर प्राप्त करने से हतोत्साहित किया था, अभी भी मौजूद है, लेकिन बहुत कम उद्योगों के लिए।
इन सब ने (इसके अलावा वित्तीय क्षेत्र और पूंजी बाजार में अन्य बहुत सारे सुधार, ब्याज दरों में ढ़ील, बाह्य वित्त की आसानी से उपलब्धता, आदि ने) उद्योगों को परिचालन के लिए अधिक से अधिक लचीलापन दिया। कंपनियां अब किस में निवेश करना चाहिए, अपने संयंत्रों का स्थान, उत्पादन कितना होना चाहिए जैसे क्षेत्रों के बारे में तय करने के लिए स्वतंत्र थीं। इसके कारण अच्छी तरह से स्थापित उद्योगों में और उभरते उद्योगों में नये खिलाड़ियों का उद्भव हुआ जैसे फार्मास्यूटिकल्स, जैव-प्रौद्योगिकी आदि। उद्यमिता को, विशेष रूप से सेवा क्षेत्र में, एक भारी बढ़ावा मिला। प्रतियोगिता का दबाव बढ़ा लेकिन उसका सामना करने के लिए कंपनियों की क्षमता भी बढ़ी। एक बार जिस उदारीकरण की प्रक्रिया को भारतीय कंपनियों द्वारा रोकने की काशिश की गई - “बराबरी पर खेल ख्ेलने की आड़ में“ (अपने विदेशी प्रतिद्वंदियों द्वारा पूरी तरह से उखाड़ फेंके जाने के ड़र से), शीघ्र ही वे अपने इन्हीं विदेशी प्रतिद्वंदियों से बेहतर प्रदर्शन करने लगे।
एक कदम आगे जाती भारतीय कंपनियां अब विदेशी कंपनियों को चुनौती दे रही हैं। 2000 के दशक के उत्तरार्ध, में भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रसार को देखा गया जब घरेलू कंपनियों ने वैश्विक उत्पादन केन्द्रों की स्थापना की और विदेशों कंपनियों को खरीदा, यहां तक कि जगुआर लैंड रोवर जैसे प्रतिष्ठित वैश्विक ब्रांडों को भी। इसका दूसरा पहलू यह है कि विदेशों में निवेश कर रही भारतीय कंपनियों के लिए घरेलू निवेश का माहौल चिंता का विषय है (यह नकारात्मक पहलू है)।
यद्यपि लाइसेंस मुक्तिकरण ने परमिट-कोटा राज को खत्म किया, तथापि इंस्पेक्टर राज का फलना-फूलना जारी रहा, विशेष रूप से राज्य स्तर पर जहां औद्योगिक इकाइयों को ढ़ेरों नियमों का पालन करना पड़ता है। कई नियमों का होना आवश्यक हो सकता है, विशेष रूप से सुरक्षा और इस तरह के संबंधित मामलों पर, परंतु कई सारे नियम इंस्पेक्टर को बहुत ज्यादा निर्णय लेने की शक्ति देते हैं जिसके कारण भ्रष्टाचार और इसलिए व्यापार की लागत बढ़ जाती है। श्रम कानूनों में ऐसे संशोधन जो औद्योगिक इकाइयों को जरूरत के अनुसार परिचालन का पुनर्गठन करने की स्वतंत्रता दें, कई सरकारों द्वारा नजरअंदाज़ कर दिये गये है। पहली बार, मोदी सरकार ने 2014 में इस मामले को सीधे-सीधे समझते हुए इशारा किया कि श्रम कानूनों में बड़े परिवर्तन किए जा सकते हैं ताकि विनिर्माण बढ़े व नौकरी-निर्माण को बल मिले।
2.1 कृषि
कृषि नियोजित विकास और उदारीकरण दोनों अवधियों के दौरान, एक उपेक्षित क्षेत्र रह गया है। सुधारों की अवधि कृषि के लिए बहुत अच्छी नहीं रही। कृषि विकास में 1980 के दशक के दौरान सालाना 3.72 फीसदी से, 1990 के दशक के दौरान प्रतिशत प्रति वर्ष 2.29 की गिरावट आई है (1989-90 से 1999-2000 तक)। 2000 के पहले दशक में इसमें प्रति वर्ष 2.7 फीसदी की मामूली सी बढ़त हुई। सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश कृषि-संबंधी बुनियादी ढांचे के विकास के लिए महत्वपूर्ण हो गये जैसे सिंचाई, बिजली, कृषि अनुसंधान, सड़कें, बाजार आदि। बहरहाल, यह सकल घरेलू उत्पाद के 0.5 फीसदी पर स्थिर बना हुआ है। कृषि पर खर्च किये जा रहे सार्वजनिक संसाधनों का बहुत सा हिस्सा बजाय उत्पादक परिसंपत्तियों के सृजन के सब्सिडी (अनुवृत्ति) की ओर जा रहा है। बिजली और पानी पर सब्सिडी, कृषि क्षेत्र को दी जा रही कुल सब्सिडी के 40 फीसदी के करीब है। मुफ्त बिजली और पानी या बहुत कम उपभोक्ता प्रभार ही इन संसाधनों के व्यर्थ उपयोग का कारण है, और अतिरिक्त समस्या पैदा करता है। उसी तरह, वर्षा की अनियमितता से कृषि की रक्षा करने में बहुत कम प्रगति हुई है। इसके अलावा, वृहद् सब्सिडी का केवल दुरूपयोग ही होता है। सब्सिडी का बड़े खेत मालिकों द्वारा ही नहीं बल्कि शहरी “फार्महाउस“ के मालिकों द्वारा भी (जहां कृषि गतिविधि नहीं है) उपभोग किया जा रहा है।
कृषि के लिए सब्सिड़ी पर कुल खर्च में ऐसे मामलों का प्रतिशत बहुत छोटा हो सकता है लेकिन समस्या को इस सिद्धांत की स्थापना के लिए सुलझाना होगा कि सब्सिडी केवल योग्य व्यक्ति तक ही जाना चाहिए। इसके अलावा, सरकारी खजाने पर बोझ को देखते हुए सब्सिड़ी बिल पर किसी भी बचत का पता लगाया जाना चाहिए और उसे अधिक उत्पादक उपयोग करने के लिए रखा जाए।
कृषि क्षेत्र के खराब प्रदर्शन व गैर-कृषि क्षेत्र में एक मजबूत वृद्धि का अभाव बड़े पैमाने पर ग्रामीण गरीबी के सतत् उच्च स्तर के लिए जिम्मेदार है। यदि समावेशी विकास के नारे को अर्थपूर्ण रखना है तो इस समस्या को सुलझाने की जरूरत है।
कृषि की खराब हालत के पीछे का तथ्य है कि इस क्षेत्र में सरकारी नियंत्रणों की एक बड़ी संख्या है-मूल्य निर्धारण और कृषि वस्तुओं का संचलन, विपणन और साख/उधार पर। उदारीकरण के पहले दशक में लाइसेंस की आवश्यकताओं को आसान किया गया और गेहूं, चावल, चीनी, खाद्य तिलहन और तेल के भंडारण और परिचलन पर नियंत्रण में कृषि वस्तुओं के निर्यात में और निर्यात के अंकुशों में नरमी लाई गई। लेकिन ये सब अंततः पलट दिए गए हैं और फिर एक तदर्थ तरीके से बहाल कर दिया गये हैं। घरेलू बाजार में जब किसी वस्तु की कमी होती है, तो सरकार तुरंत निर्यात पर दबाव ड़ालती है, भंडारण की सीमा को बढ़ा देती है, और आवश्यक वस्तु अधिनियम के प्रावधानों को लाती है, जो जमाखोरी की जांच करने के लिए बनाया गया है। लेकिन जब एक वस्तु की भरमार होती है, तो कोल्ड चेन (शीत भंडारण) और भंडारण की बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण परिणाम यह होता है कि किसानों को सस्ते दामों पर अपनी उपज बेचनी पड़ती है।
राज्य स्तर के कृषि उत्पादन विपणन समिति अधिनियम (ए.पी.एन.सी.) की आवश्यकता होती है कि केवल नामित मंडियों में ही किसान अपनी उपज बेचें, और ये जैसे के तैसे बने हुए हैं, भारी सबूत के बावजूद कि ये किसानों या उपभोक्ताओं को मदद नहीं करते हैं। एपीएमसी अधिनियम द्वारा लगाए गए प्रतिबंध कोल्ड़ स्टोरेज सुविधाओं में निजी क्षेत्र के निवेश और अन्य आपूर्ति और परिवहन के बुनियादी ढांचे और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग और संगठित खुदरा उद्योग जो किसानों को अपनी उपज के लिए बेहतर लाभांश दे सकते हैं, में निवेश को हतोत्साहित कर रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप 40 फीसदी के करीब फल और सब्जी उत्पादन बेकार चला जाता है। तदर्थवाद, जो कृषि निर्यात नीति की बानगी प्रतीत होता है, ने भारत को एक गैर-भरोसेमंद आपूर्तिकर्ता की प्रतिष्ठा दे दी है, और निर्यात बाज़ार से लाभ लेने से किसानों को रोका है।
ये सभी मिलकर किसानों को उपज के लिए बेहतर लाभांश पाने से रोकते हैं, चाहे कमी का या ज्यादा का समय हो। वाई. शिवाजी ने इस पहेली को अच्छा तरह समझा है जब वह कहते हैं, “अक्सर गिरती अंतरराष्ट्रीय कीमतों का बोझ किसानों पर तुरंत आ जाता है और बढ़ती अंतरराष्ट्रीय कीमतों का लाभ बिचौलियों द्वारा हथिया लिया जाता है।“ अपनी उपज के लाभकारी मूल्य प्राप्त करने में असमर्थता के कारण किसानों को उनके ऋण का भुगतान कठिन हो जाता है, जो बड़ी संख्या में किसानों की आत्महत्या के कारणों में से एक है।
2.2 सेवाएँ
सेवा क्षेत्र, जो मोटे तौर पर सरकार के भारी विनियमन और सूक्ष्म प्रबंधन से बच गया है, उदारीकरण के बाद उभरा है, एवं उद्योग और वित्तीय क्षेत्र पर नियंत्रण के मुक्त होने से लाभ में आया है। उदारीकरण की प्रक्रिया ने नए अवसर प्रदान किये हैं, और काफी सारी नई सेवाऐं कल्पनाशील उद्यमियों द्वारा पेश की गइंर्। भारत भी विशेष रूप से सूचना प्रौद्योगिकी और सूचना प्रौद्योगिकी समर्थित सेवाओं में, एक प्रमुख निर्यातक रहा है। भारतीय आईटी और आईटीईएस क्षेत्र को अधिक विकसित अर्थव्यवस्थाओं की कंपनियों के लिए एक खतरे के रूप में देखा जाता है। 2013-14 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार भारत का सेवा क्षेत्र विश्व का दूसरा सबसे तेज़ विकसित होने वाला क्षेत्र है। पिछले 11 वर्षों के दौरान इसकी सकल वृद्धि दर चीन के 10.9 प्रतिशत की तुलना में दूसरे क्रमांक पर 9 प्रतिशत रही है। भारत, जो उद्योग और कृषि पर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में संरक्षणवादी दांव खेलता है, सेवा क्षेत्र वार्ता में विकसित अर्थव्यवस्थाओं से अधिक खुलेपन की मांग में आक्रामक है। इस के साथ ही, वह संरक्षणवादी भी है जब कानून और शिक्षा जैसे कुछ क्षेत्रों को खोलने की बात आती है।
2.3 वित्तीय क्षेत्र
बैंकिंग क्षेत्र में सुधार 1992 में शुरू हुए थे और उसके बाद से जारी हैं। विदेशी बैंकों सहित निजी बैंकों को भी संचालित करने के लिए अनुमति दी गई है और उनकी पहुंच अब व्यापक है। इस के साथ ही इस क्षेत्र में ज़रूरी प्रतियोगिता ने प्रवेश किया है व सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सेवाओं में सुधार हुआ है। ब्याज दरों को विनियंत्रित किया गया हैं। जमा दरों और उधार दरों दोनों को नियंत्रण मुक्त कर दिया गया है। बैंकों को पहले से और अधिक परिचालन स्वतंत्रता दी जा रही है और सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश के लिए अनिवार्य आवश्यकताऐं, प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र में उधार आदि में ढ़ील दी गई है।
हालांकि, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक अभी भी सरकार के नियंत्रण और राजनीतिक हस्तक्षेप से पूरी तरह मुक्त नहीं हैं। एक विधेयक 1999 में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी 33 प्रतिशत तक कम करने के लिए पेश किया गया था, लेकिन कुछ हो न सका।
बीमा उद्योग में सार्वजनिक क्षेत्र के एकाधिकार को 1999 में समाप्त कर दिया गया था। इसके अलावा 2000 में जब क्षेत्र को खोला गया था केवल छह सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनियां ही थीं, लेकिन अब 50 बीमा कंपनियां हैं और और उनके बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा है जो उपभोक्ताओं के लिए एक वरदान है। एक मजबूत नियामक - बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण - ने बीमा कंपनियों के लिए सख्त दिशा-निर्देश तय किए हैं। हालांकि, बीमा कंपनियों में विदेशी निवेश की सीमा पर अभी भी प्रतिबंध है।
भारतीय पूंजी बाजार ने दूरगामी सुधारों को देखा है, जिसमें 1992 में सबसे बड़ा था एक सांविधिक नियामक, भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड़ की स्थापना। इसके कारण शेयर बाजार में प्रशासन बेहतर हुआ है और पहले की तुलना में कहीं अधिक पारदर्शिता आई है। वित्तीय क्षेत्र में एक सुधार जो अभी भी लंबित है वह है पूर्ण पूंजी खाता परिवर्तनीयता, हालांकि पूंजी खाते को चरणों में काफी बड़े पैमाने पर उदार बनाया गया है। लेकिन यह अभी भी एक मुद्दा है जिस पर काफी थोड़ी आम-सहमति है, उन अर्थशास्त्रियों के बीच भी जो उदारीकरण के पक्ष में हैं।
2.4 अधोसंरचना
1991 के बाद से जब इस बात का अंदाज़ा हुआ कि तेज़ आर्थिक विकास गुणवत्तापूर्ण बुनियादी ढ़ांचे के बिना संभव नहीं है, और अकेले सरकार द्वारा एक बढ़ती अर्थव्यवस्था की सभी ढ़ांचागत जरूरतों को प्रदान करना संभव नहीं है, तो यह क्षेत्र निजी कंपनियों के लिए धीरे-धीरे खोल दिया गया। सड़क, बिजली, बंदरगाह, नागरिक विमानन, दूरसंचार जो कभी राज्य के एकाधिकार थे, अब नही हैं। कुछ क्षेत्रों में, जैसे सड़कों और राजमार्गों, जहां निजी क्षेत्र की निवेश इच्छा कम है, सरकार सार्वजनिक-निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहित कर रही है।
एक नया विद्युत अधिनियम, जो विविध और पुराने कानूनों को बदल बिजली के उत्पादन और वितरण में निजी भागीदारी की अनुमति देता है, लाया गया है। लेकिन कुल मिलाकर बुनियादी ढ़ांचा क्षेत्र उपलब्धियों की एक मिश्रित तस्वीर प्रस्तुत करता है।
बिजलीः एक समय राज्य का एकाधिकार रहे इस क्षेत्र को उत्पादन के साथ ही पारेषण व वितरण दोनों में निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया है। अंतरराज्यीय ट्रांसमिशन स्तर पर एक खुली उपयोग प्रणाली है जो बिजली के खरीददारों और विक्रेताओं के लिए चुनाव की स्वतंत्रता देता है। वितरण भी अब सार्वजनिक क्षेत्र के एकाधिकार में नहीं है। दिल्ली जैसे कुछ शहरों में निजीकरण किया गया है व अन्य जगहो पर फ्रेंचाइज़िंग - जहां एक निजी फर्म वितरण नेटवर्क का प्रबंधन और राजस्व एकत्र करती है। हालांकि, इस क्षेत्र में कोई प्रतियोगिता नहीं है और सार्वजनिक क्षेत्र के एकाधिकार को निजी क्षेत्र के एकाधिकार द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है। केन्द्र में यह क्षेत्र स्वतंत्र केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग द्वारा, और राज्य स्तर पर राज्य विनियामक आयोग जो दरें तय करते हैं, द्वारा नियंत्रित किया जाता है। लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप दर निर्धारण में अब भी है और राज्य स्तर के नियामकों द्वारा सिफारिश की गई दरों की बढ़ोतरी को सरकारों द्वारा पलट दिया जाता है, ऐसा भी ज्ञात है। शुल्कों को गैर-राजनीतिक बनाने के विचार ने काम नहीं किया है।
सड़केंः भारतीय सड़कों की खराब हालत राज्य औद्योगिक और कृषि विकास के लिए एक बाधा है। निजी क्षेत्र ने बहुत उत्साह से उन प्रयासों को प्रतिसाद नहीं दिया है जो सड़कों के क्षेत्र में निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए किए गए हैं। टोल सड़कों की अवधारणा को अब सड़क क्षेत्र में शुरू किया गया है। कुछ प्रारंभिक प्रतिरोध के बाद, सड़क उपयोगकर्ताओं को अब सड़क उपयोग के लिए भुगतान करने के विचार के लिए खुद को तैयार करना पड़ रहा है।
दूरसंचारः दूरसंचार क्षेत्र बुनियादी ढांचे में निजी क्षेत्र की भागीदारी की सफलता की कहानी है, और गवाही देती है कि मुक्त प्रतियोगिता अंततः उपभोक्ता को ही लाभ कैसे पहुंचाती है। 1991 में निजी क्षेत्र के लिए ईमेल, वॉइस मेल और सेल्युलर सेवाओं को शुरू करने के बाद अब बुनियादी सेवाओं और राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय लंबी दूरी की सेवाओं में भी प्रतियोगिता की अच्छी तरह से अनुमति दी गई है। इन सब के कारण कनेक्टिविटी (संयोजकता) में एक जबरदस्त वृद्धि हुई है। मार्च 1991 में टेली-घनत्व जो 1 फीसदी से कम था, अब 70 फीसदी से अधिक है। सेल्युलर फोन, जिन्हें कभी विलासिता की वस्तु माना जाता था, अब छोटे-छोटे उद्यमियों के लिए एक जीवन रेखा है। देश भर में अब 80 करोड़ से अधिक मोबाइल फोन कनेक्शन हैं।
दुर्भाग्य से, दूरसंचार एक ऐसा क्षेत्र है जो घोटालों से ग्रसित रहा है। लेकिन यह एक बार फिर लाइसेंस और स्पेक्ट्रम की बिक्री से संबंधित है, जो राज्य के कार्यक्षेत्र में है। फिर भी, यह कहना ठीक नहीं होगा कि राज्य का इसमें कोई दखल ही ना हो।
3.0 बाह्य क्षेत्र
1991 के बाद से, भारतीय अर्थव्यवस्था का संपर्क वैश्विक अर्थव्यवस्था से बडे़ पैमाने पर बढ़ गया है।
आयातों पर शुल्कों में चरणबद्ध कटौती और मात्रात्मक प्रतिबंधों के उन्मूलन के कारण घरेलू उद्योगों पर प्रतिस्पर्धा का दबाव काफी बढ़ा है (हालांकि कुछ औद्योगिक क्षेत्रों को संरक्षण प्रदान करने के लिए सरकार का हस्तक्षेप समय-समय पर होता रहता है)। विश्व व्यापार संगठन के दायित्वों के तहत कीमतों में कमी करने की अनिवार्यता के चलते शुल्कों की बाधाओं का उपयोग बहुत ही सीमित रह गया है, फिर भी गैर-शुल्क बाधाओं का उपयोग अभी भी काफी सामान्य है। इससे जबकि विनिर्माण उद्योगों को सहायता मिलती है, परंतु उपयोग उद्योगों और सामान्य उपभोक्ताओं के लिए यह हानिकारक सिद्ध होते हैं।
सशक्त घरेलू उद्योग निर्यात बाजार में निर्माण होने वाले अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम हुआ है।
सुधार-पूर्व काल की तुलना में आज भारतीय अर्थव्यवस्था विदेशी निवेश के प्रति अधिक ग्रहणशील बनी है। विदेशी निवेश के प्रति अधिक खुले दृष्टिकोण के पहले कदमों की शुरुआत 1991 से हुई, जब उस वर्ष की औद्योगिक नीति में उच्च प्राथमिकता वाले उद्योगों में 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति प्रदान की गई। विदेशी संविभाग (पोर्टफोलियो) निवेशों की अनुमति इसके कुछ समय पश्चात, सितंबर 1992 में प्रदान की गई।
उस समय से, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश शासन प्रणाली का उत्तरोत्तर उदारीकरण किया गया है, जबकि केवल केवल नौ क्षेत्रों को विदेशी निवेश स्वीकार करने से मुक्त रखा गया है। यहां तक कि रक्षा क्षेत्र में भी 49 प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति प्रदान की गई है। अधिकांश क्षेत्रों के लिए स्वतः अनुमोदित मार्ग पर 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति प्रदान की गई है। कुछ क्षेत्रों के लिए विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड का अनुमोदन आवश्यक है तो, दूरसंचार, नागरिक विमानन और बीमा जैसे कुछ अन्य क्षेत्रों के लिए निवेश की सीमा अस्तित्व में है। जबकि और भी कुछ अन्य क्षेत्रों के लिए निवेशकों के लिए अहर्ताएं निर्धारित की गई हैं। फिर भी, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खुदरा व्यापार जैसे कुछ क्षेत्रों में अभी भी कड़ा विरोध जारी है। यह विरोध मुख्य रूप से घरेलू व्यापार लॉबियों और अन्य वर्गों की ओर से ही है, जिनकी किराये की मांग की कार्यवाहियां अपना औचित्य खो देंगी। कोई भी सरकार इस विरोध से राजनीतिक पद्धति से निपटने में सक्षम रही है, या यूं कहें कि वे निपटना चाहती ही नहीं हैं। यूपीए द्वितीय के जाने व श्री मोदी की सरकार के आने के बाद, सभी पक्षों की अपनी-अपनी उम्मीदें बंधी हैं। हालांकि वर्ष 2015-16 भारतीय निर्यात की दृष्टि से काफी खराब साबित हुआ, फिर भी संभावना यह है कि परिस्थिति में शीघ्र ही सुधार होगा।
4.0 सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण
उदारीकरण का यह सबसे निराशाजनक पहलू है, एक ऐसा पहलू जिसमें कुछ कदम पीछे भी उठे हैं। भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम, जिन्हें अक्सर भारत के मुकुटमणि कहा जाता है, वे वास्तव में रक्त-बहते फोडे़ हैं (कुछ सही ढ़ंग से चल रहे उपक्रमों को छोड़ कर)। शुरुआत में, सार्वजनिक क्षेत्र उन क्षेत्रों में अस्तित्व में आया, जिन क्षेत्रों में निजी क्षेत्र बड़ा निवेश करने में या तो अक्षम था, या करना नहीं चाहता था (हालांकि यह विवाद का विषय हो सकता है)। किंतु समय के साथ इनका कार्यक्षेत्र होटल खोलने से लेकर ब्रेड़ उत्पादन करने तक विस्तारित होता गया।
देश के संसाधनों के अपव्यय और क्षय को देखते हुए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में सरकार की हिस्सेदारी का विनिवेश करने का प्रस्ताव पहली बार 1991 में आया था। शुरुआत में सरकारी हिस्सेदारी का विक्रय टुकड़ों में किया गया। यह रणनीति 1998 में बदल दी गई, जब सरकार ने अपनी अधिकांश हिस्सेदारी के साथ ही व्यवस्थापन का नियंत्रण भी सामरिक भागीदारों को बेचना शुरू किया। इस विषय में एनडीए सरकार ने सबसे साहसिक कदम उठाया, जब तत्कालीन वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने अपने बजट भाषण में निजीकरण शब्द का उपयोग किया। सार्वजनिक क्षेत्र की ब्रेड़ बनाने वाली मॉड़र्न बेकरी से लेकर दूरसंचार की प्रमुख कंपनी विदेश संचार निगम, खनन कंपनियां बाल्को, हिंदुस्तान जिंक और पेट्रो रसायन कंपनी आईपीसीएल सहित पंद्रह कंपनियों का निजीकरण किया गया।
परंतु 2004 में संप्रग सरकार के सत्ता में आने के बाद से निजीकरण की प्रक्रिया रूक गई। उस सरकार ने सत्ता में आने के बाद पहला एक काम जो किया वह यह था कि उसने विनिवेश मंत्रालय की वेबसाइट पर से उस भाग को हटा दिया, जो निजीकरण के औचित्य को दर्शाता था। रणनीतिक विक्रय को सिरे से खारिज करते हुए सरकार ने कहा कि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में अपनी हिस्सेदारी को 51 प्रतिशत से नीचे नहीं जाने देगी। इसके परिणामस्वरूप, विनिवेश एक बार फिर से सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों से टुकडों में सरकार की हिस्सेदारी की बिकवाली के रूप में रह गया।
यह प्रक्रिया भी एक मज़ाक बन कर रह गई - और राजकोषीय घाटे की पूर्ति के रूप में एक नई प्रक्रिया अस्तित्व में आई - जिसके तहत नकद-समृद्ध उपक्रमों को उनकी हिस्सेदारी पुनः क्रय करने के लिए कहा जाता है, या जब निवेशकों की रूचि कम होती है, तो भारतीय जीवन बीमा निगम जैसे अन्य उपक्रम दूसरे उपक्रमों के समभाग क्रय करते हैं। इस सारी प्रक्रिया का अर्थ केवल इतना-सा है कि सरकार एक जेब से पैसा निकाल कर उसे दूसरी जेब में रखती है। निजीकरण/विनिवेश का तर्क यह होना चाहिए कि सार्वजनिक क्षेत्र के ऐसे उपक्रमों से सरकार का नियंत्रण कम करना या पूर्णतः समाप्त करना है, जो सरकारी तिजोरी में राजस्व प्रदान नहीं कर पा रहे हैं।
2014 के बजट में, वित्त मंत्री श्री अरूण जेटली ने 2014-15 के लिये विनिवेश के लक्ष्य को बढ़ाकर रू. 58,425 करोड़ कर दिया। हालांकि केवल 24,348 करोड़ रूपये ही प्राप्त किये जा सके। उसी प्रकार वर्ष 2015-16 के लिये निर्धारित लक्ष्य 69,500 करोड़ रूपये था परंतु प्रदर्शन काफी खराब रहा।
5.0 स्वतंत्र विनियामक
मुक्त बाजार में उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा और बाजार की विकृतियों को नियंत्रित करने के लिए स्वतंत्र विनियामक आवश्यक हैं। इसी उद्देश्य से 1991 से कई स्वतंत्र क्षेत्रीय विनियामकों का गठन किया गया है। इनमें प्रमुख हैं, शेयर बाजार को शासित करने के लिए भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी), दूर संचार क्षेत्र के लिए भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण (ट्राई), केंद्रीय और राज्य विद्युत विनियामक प्राधिकरण, बीमा विनियामक एवं विकास प्राधिकरण (इरडा), पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस नियामक बोर्ड, प्रतिस्पर्धी विरोधी प्रथाओं को नियंत्रित करने के लिए भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग और निवृत्ति वेतन क्षेत्र को विनियमित करने के लिए पेंशन फंड नियामक एवं विकास प्राधिकरण।
हालांकि इनमें से कई विनियामकों का कार्य संतोषजनक नहीं रहा है। इन विनियामकों द्वारा विनियमित किये जाने वाले क्षेत्रों से अपने नियंत्रण को कम करने के लिए सरकार अनिच्छुक है, और उन्हें वास्तविक स्वतंत्रता भी नहीं दी गई है, क्योंकि वे वित्तीय और मूलभूत पूर्वावश्यकताओं के लिए पूर्ण रूप से सरकार पर निर्भर हैं। इन विनियामकों के अध्यक्ष और अन्य कर्मचारी मुख्य रूप से सेवा निवृत्त या सेवारत नौकरशाह हैं, और वे भी उन्हीं मंत्रालयों से हैं जिनकी वे निगरानी कर रहे हैं। सरकार की यह भी प्रवृत्ति रही है कि जब भी उसे उचित लगता है, तब वह इन विनियामकों की सलाह को नजरअंदाज कर देती है। जब भी विनियामक शुल्क लागू करते हैं, जैसा कि विद्युत क्षेत्र के शुल्कों के मामले में हुआ है, शुल्क वृद्धि के आदेशों को अमान्य कर दिया जाता है।
6.0 टैक्स युक्तिकरण
टैक्स युक्तिकरण निर्विवाद रूप से सुधार प्रक्रिया की एक महत्वपूर्ण सफलता के रूप में माना जा सकता है। हालांकि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही करों के मामले में विभिन्न आधारों पर कई अपवाद और रियायतें मौजूद हैं। जबकि कुछ रियायतें बचत को बढ़ावा देने, और कुछ क्षेत्रों को प्रोत्साहन देने के लिए आवश्यक हैं, एक व्यापक सिद्धांत के रूप में रियायतें कर संरचना की जटिलता को बढ़ाती हैं, सरकार के राजस्व को कम करती हैं, कराधान का भार गैर-रियायत समूहों पर हस्तांतरित करती हैं और निहित स्वार्थ वाले गुटों द्वारा पैरवी को बढ़ावा देती हैं।
6.1 प्रत्यक्ष कर
व्यक्तिगत आय पर आयकर की अधिकतम दर सुधार लागू किये जाने के समय की 56 प्रतिशत से घटा कर 30 प्रतिशत कर दी गई है। निगम कर, जो 1991-92 के दौरान 51.75 से 57.5 प्रतिशत के बीच हुआ करते थे, वे अब समान रूप से 30 प्रतिशत हैं। व्यक्तिगत आयकर के अब तीन ही स्तर हैं (10-20-30 प्रतिशत) और कंपनी आयकर के लिए एक ही श्रेणी है (30 प्रतिशत)।
निम्न संग्रहण में परिणामित होने के बजाय कर राजस्व उछाल पर है, और वास्तव में इसमें वृद्धि हुई है, जो इस बात को सिद्ध करता है कि कर की कम दर इसके अनुपालन में वृद्धि करती है। यह सही है कि कर की दरों में कटौती करने के साथ ही इसके क्षेत्र में विस्तार किया गया है, परंतु यह विवादस्पद विषय है कि क्या यह कर की दरों में कटौती किये बिना और कर संरचना का सरलीकरण किये बिना संभव था? कुल कर राजस्व में प्रत्यक्ष करों का हिस्सा 1990-91 के 19.1 प्रतिशत से 2010-11 में बढ़ कर 56.6 प्रतिशत हो गया। सकल घरेलू उत्पाद में भी इसका हिस्सा इसी अवधि के लिए 1.9 प्रतिशत से बढ कर 5.4 प्रतिशत हो गया।
सरकार ने एक प्रत्यक्ष कर संहिता विधेयक संसद में पेश किया, जो आयकर अधिनियम 1961 का स्थान लेगा। प्रत्यक्ष कर संहिता का उद्देश्य कर आधार को विस्तृत करना, करों की दर को मर्यादित करना और रियायतों में कटौती करना है, ताकि कर संग्रह और कर राजस्व को बढ़ाया जा सके। परन्तु दूरसंचार कंपनी वोडाफोन का मामला हार जाने के बाद कॉर्पोरेट अधिग्रहणों में कुछ पूंजीगत लाभों पर कराधान करने के उद्देश्य से आयकर अधिनियम 1962 को भूतलक्षी प्रभाव से संशोधित करने की सरकार की कार्रवाई चिंताजनक रही। कर कानूनों को भूतलक्षी प्रभाव से संशोधित करने से कर कानूनों की पूर्वकथनीयता और विश्वसनीयता के बारे में संदेह और अनिश्चितता निर्माण होती है। यह विवादास्पद मामला 2014 में नई सरकार के गठन पश्चात् भी अनसुलझा रहा।
6.2 अप्रत्यक्ष कर
अप्रत्यक्ष करों का सरलीकरण और युक्तिकरण, विशेष रूप से उत्पाद शुल्क का, सुधार प्रक्रिया की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। 2000-2001 के बजट में, उत्पाद शुल्क संरचना का 16 प्रतिशत की एकल दर केंद्रीय योजित मूल्य कर प्रणाली (सेनवेट) के रूप में युक्तिकरण किया गया।
2001-2002 के बजट में तीन दरों, 8 प्रतिशत, 16 प्रतिशत और 24 प्रतिशत, का स्थान 16 प्रतिशत की एकल दर ने लिया। वर्तमान में, तीन दरें हैं - 12 प्रतिशत की उच्चतम दर, 6 प्रतिशत की योग्यता दर और 2 प्रतिशत की न्यूनतम दर। परंतु फिर भी, कर की दरों पर उद्योगों के अनुरोध के आधार पर वित्त मंत्री कुछ विचार अब भी करते हैं।
महत्वपूर्ण तथ्य यह है, कि पूरा देश आज अखिल भारतीय स्तर पर एकल योजित मूल्य कर प्रणाली की ओर बढ़ गया है। एकल माल और सेवा कर का दूसरा कदम राज्य सरकारों के संभाव्य राजस्व नुकसान के भय के कारण विलंबित हो गया है।
आयात प्रतिस्थापन की नीति के अनुसरण की दिशा में, भारत के आयात शुल्क विश्व में सबसे अधिक थे। एक जमाने में भारत में शुल्क 300 प्रतिशत की दर जितने अधिक थे। अब, गैर कृषि माल पर अधिकतम सीमा शुल्क 10 प्रतिशत है। हालांकि 2012-13 के बजट में स्वर्ण पर आयात शुल्क को दुगना करके 4 प्रतिशत करना एक प्रतिगामी कदम था। इस वृद्धि का स्पष्टीकरण यह कह कर दिया गया था कि लोगों को उनका पैसा स्वर्ण में निवेश करने से परावृत्त करने के कदम के रूप में था, जिसे वित्तीय बाजार की बजाय एक अनुत्पादक किंतु सुरक्षित और अधिक लाभ देने वाला निवेश माना जाता है। हालांकि सरकार का तर्क था कि 4 प्रतिशत की दर इतनी ऊंची नहीं है कि यह स्वर्ण तस्करी को प्रोत्साहित कर सके (यह सुधार पूर्व काल में काफी सामान्य था, जब स्वर्ण नियंत्रण अधिनियम 1962 स्वर्ण धारण पर कई प्रतिबंध निर्धारित करता था)। इस प्रकार के उपाय सरकार की व्यक्तिगत, और शायद बाद में कंपनियों के, आर्थिक निर्णयों में हस्तक्षेप की प्रवृत्ति को दर्शाते हैं।
कृषि के रूप में अर्थव्यवस्था का एक बड़ा क्षेत्र आज भी कर संरचना से बाहर है। कृषि पर आयकर का क्षेत्र एक ऐसी राजनीतिक बारूदी सुरंग है जिसपर कोई भी राजनीतिक दल बात करने का इच्छुक नहीं है।
7.0 उदारीकरण का प्रभाव
7.1 स्थूल आर्थिक स्थिरता
1991 में जो सुधार शुरू किये गए थे, उनका अर्थव्यवस्था पर खासा प्रभाव हुआ। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि 1991-92 की 0.8 प्रतिशत से 1992-93 में उछल कर 5.3 प्रतिशत हो गई। सकल घरेलू उत्पाद ने यह उच्च चक्राकार कायम रखा और 1990 के दशक में यह औसत 5.5 प्रतिशत रहा। मुद्रास्फीति की दर जो पूर्व में 13.7 प्रतिशत तक बढ़ गई थी, वह जल्दी ही एकल अंक में आ गई, और तब से उसी स्तर पर बनी हुई है, कुछ अवसरों पर तो यह 2 प्रतिशत तक नीचे पहुँच गई थी। आर्थिक सुधारों ने भारत के बाह्य क्षेत्र को भी काफी मजबूती प्रदान की। सकल घरेलू उत्पाद में आयात और निर्यात दोनों की हिस्सेदारी में वृद्धि हुई। निर्यात के मामले में, उदारीकरण और वास्तविक विनिमय दर में गिरावट के कारण निर्यात को प्रोत्साहन मिला, और आयात के मामले में, मजबूत घरेलू मांग और शुल्क और गैर-शुल्क बाधाओं में कमी ने आयातों को प्रोत्साहित किया। जो चालू खाता घाटा 1990-91 में सकल घरेलू उत्पाद के 3.1 प्रतिशत पर था, वही 2001-02 में सकल घरेलू उत्पाद के 0.8 प्रतिशत के चालू खाता अधिशेष में परिवर्तित हो गया, जो स्थिति 23 वर्षों में पहली बार हासिल हुई थी, हालांकि वर्तमान में चालू खाते का घाटा चिंताजनक स्तर पर है।
अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव आते रहे। 1990 के दशक के अंत में पूर्वी एशियाई वित्तीय संकट के चलते, और फिर 2000 के दशक के प्रारंभ में वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी के चलते देश की अर्थव्यवस्था की वृद्धि में मंदी का वातावरण था। किंतु 2000 के दशक के मध्य में अर्थव्यवस्था में फिर से उछाल आया और वृद्धि दर लगातार तीन वर्षों तक 9 प्रतिशत को पार कर गई। 2010 और 2012 के दौरान पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं में निर्माण हुए एक अधिक गंभीर आर्थिक संकट ने वृद्धि दर को पहले 8 प्रतिशत और फिर 6.9 प्रतिशत तक गिरा दिया। हालांकि, यह इस बात का एक निश्चित संकेत है कि अब भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था के साथ पहले की तुलना में कहीं अधिक समाकलित है। 2012-13 में वृद्धि दर 5 प्रतिशत के नीचे चली गई और वहीं बनी रही। 2014 में बनी नई सरकार के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती है।
7.2 सार्वजनिक वित्त
सार्वजनिक वित्त चिंता का प्रमुख कारण बने हुए हैं। 1991 के वित्तीय संकट का महत्वपूर्ण कारण 1980 के दशक का राजकोषीय घाटा था, जो विशाल सार्वजनिक व्यय के कारण निर्मित हुआ था। केंद्र और राज्यों का संयुक्त वित्तीय घाटा संकटग्रस्त वर्ष में 10 प्रतिशत के चिंताजनक स्तर पर पहुँच गया था। इसीलिए राजकोषीय समेकन सुधार प्रक्रिया का एक अनिवार्य तत्व बन गया था। शुरुआत में, केंद्र का वित्तीय घाटा अवश्य 1990-91 के सकल घरेलू उत्पाद के 8.3 प्रतिशत से 1991-92 में घट कर 5.9 के स्तर पर आ गया था, किंतु 1993-94 में पुनः यह बढ कर 7.4 प्रतिशत स्तर पर पहुँच गया। तब से, यह कई वर्षों तक 5 प्रतिशत के स्तर पर बना रहा, परंतु 2008-09 से यह फिर से बढ़ना शुरू हो गया।
राजकोषीय सुधारों दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम तब उठाया गया जब एनडीए सरकार ने 2000 में राजकोषीय जवाबदेही तथा बजट प्रबंध विधेयक (एफआरबीएम) प्रस्तुत किया। इसे 2003 में अधिनियमित किया गया और एफआरबीएम नियम 2004 में अधिसूचित किये गए। इस अधिनियम के अंतर्गत 2003 से केंद्र सरकार को उसका राजस्व घाटा प्रतिवर्ष सकल घरेलू उत्पाद के 0.5 प्रतिशत घटाना था, और 31 मार्च 2008 तक इसे पूर्णतः समाप्त किया जाना था। उसी प्रकार 31 मार्च 2008 तक राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 3 प्रतिशत तक नीचे लाना था, जो कि 2003 से 0.3 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से कम किया जाना था।
वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा, जिन्होंने एफआरबीएम विधेयक 2000 में प्रस्तुत किया था, उन्होंने इस विधेयक के अधिनियम बनने से पहले ही इन लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में कार्य करना शुरू कर दिया। समय सीमा वर्ष में 2007-2008 में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 2.5 प्रतिशत के स्तर तक नीचे आया, जबकि राजस्व घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 1.1 प्रतिशत तक।
यह इसलिए हुआ क्योंकि तत्कालीन वित्त मंत्री श्री पी चिदंबरम ने 2005-06 में एफआरबीएम लक्ष्यों को एक वर्ष पीछे धकेलने का निर्णय लिया, क्योंकि केंद्र से राज्यों को हस्तांतरित किये जाने वित्तों की पद्धति में परिवर्तन किया गया था। ऐसी उम्मीद की जाती थी कि कुछ वित्तीय अनुशासन की सहायता से सरकार एफआरबीएम लक्ष्यों को 2008-09 में प्राप्त कर लेगी और आने वाली सरकारें वित्तीय ऋजुता के मार्ग का कड़ाई से पालन करेंगी।
हालांकि वित्तीय अनियमितताएं अगले वर्ष से ही शुरू हो गईं, जब 2008-09 के दौरान राजकोषीय घाटा 6 प्रतिशत तक बढ़ गया। इसका कारण कर राहतों के रूप में दिए गए प्रोत्साहन पैकेजों और उद्योगों को वैश्विक आर्थिक संकट का सामना करने के लिए बुनियादी ढ़ांचे पर किये गए बडे़ खर्चों को बताया गया। इसके साथ ही राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जैसी कल्याणकारी परियोजनाओं पर भी बडे़ पैमाने पर व्यय किया गया, जिसके कारण परिव्यय में 144 प्रतिशत की वृद्धि हुई। राजस्व घाटा भी सकल घरेलू उत्पाद के 4.5 प्रतिशत तक पहुँच गया।
हालांकि वित्त मंत्री कहते रहे कि यह चिंता का विषय था, और सरकार ‘‘इस समस्या पर पूरी गंभीरता से विचार करेगी, ताकि वित्तीय समेकन की राह पर फिर से वापस लौटा जा सके‘‘, फिर भी यह हो ना सका। इस मामले में राज्यों का प्रदर्शन बेहतर रहा है, फिर भी केंद्र और राज्य सरकारों का एकत्रित घाटा 2011-12 के दौरान 7 प्रतिशत के आसपास रहा।
इस पर एक दृष्टिकोण है - हालांकि यह काफी बहस का विषय रहा है - कि उच्च वित्तीय घाटा क्षम्य है, यदि इसके कारण भौतिक परिसम्पत्तियों और बुनियादी ढांचे का निर्माण होता है। परंतु दुर्भाग्य से भारत में उच्च वित्तीय घाटा अक्सर रियायतों या कल्याणकारी योजनाओं जैसे अनुत्पादक व्ययों के कारण है, जो सरकारी खैरात पर निर्भरता निर्माण करते हैं।
7.3 अनुवृत्तियां
भारत में अनुवृत्तियों को पूर्णतः समाप्त करने की उम्मीद करना शायद अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकता है। शायद गरीबों को कुछ हद तक सरकार की सहायता की आवश्यकता होती है, हालांकि इस प्रकार की सहायता का परिमाण बहस का विषय हो सकता है। कल्याणकारियों का विचार यह है, कि गरीबों को अधिकांश वस्तुएं मुफ्त दी जानी चाहियें, या सरकार को उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आगे आना चाहिए क्योंकि बाज़ार उनकी सहायता नहीं करता। परंतु इस बात की पुष्टि करने के पर्याप्त वास्तविक उदाहरण मौजूद हैं, जो दर्शाते हैं कि गरीब लोग भी बाज़ार द्वारा प्रदान की जा रही वस्तुओं और सेवाओं के लिए भुगतान करने के लिए तैयार हैं। किसी भी दृष्टि से, भारत में अनुवृत्तियों का परिमाण - जो 2011-12 के दौरान सरकार के राजस्व के 28 प्रतिशत रही हैं - दर्शाता है कि ये अनुवृत्तियां आर्थिक रूप से सक्षम, और यहाँ तक कि आर्थिक रूप से समृद्ध लोगों को भी प्रदान की जा रही हैं। वर्ष 2015-16 में कच्चे तेल की कीमतों में हुई गिरावट वरदान के रूप में साबित हुई जिसने अनुवृत्ति के समग्र भार में काफी कमी कर दी।
अनुवृत्तियों का स्वरुप आमतौर पर कीमतों पर सरकारी नियंत्रण के रूप में होता है, ताकि वस्तु की लागत दो पूर्ण रूप से भिन्न आय वर्ग के लोगों के लिए समान रहे। यदि सरकार उत्पादकों को भरपाई के रूप में सहायता करती है, तो यह सरकार के खजाने पर अतिरिक्त भार बढ़ाता है, और करदाताओं के पैसे का अपव्यय है। यदि हानि सहन करके दी गई वस्तुओं के लिए उत्पादकों को क्षतिपूर्ति नहीं प्रदान की जाती, तो उसे अधिक उत्पादन के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं रह जाता, जिसके परिणामस्वरूप बाजार में वस्तुओं की कमी की संभावना पैदा हो जाती है, जिसके कारण कालाबाजारी विकसति हो सकती है। यदि दोहरी मूल्य नीति अपनायी जाती है - एक गरीबों के लिए (उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से) और एक आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्तियों के लिए - तो इसका परिणाम अपवर्तन और कालाबाजारी में होता है।
2002 में, पेट्रोलियम उत्पादों की प्रशासित मूल्य निर्धारण नीति (ए.पी.एम.) को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम की शुरुआत की गई। सार्वजनिक क्षेत्र की तेल विपणन कंपनिया कुछ पेट्रोलियम उत्पाद बाजार द्वारा निर्धारित मूल्यों पर विक्रय करने के लिए स्वतंत्र थीं। यह कार्यक्रम दो वर्षों तक ठीक ढंग से जारी रहा, परंतु 2004 से सरकार ने तेल कंपनियों को इस स्वतंत्रता से वंचित कर दिया, और जब और जितनी आवश्यक है उतनी मूल्य वृद्धि की अनुमति भी नहीं दे रही है। यह वास्तव में, सार्वजनिक वित्त की दृष्टि से (सरकार तेल कंपनियों को हुए नुकसान के एक भाग की अनुवृत्ति के रूप में भरपाई करती है) और सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों के वित्तीय स्वास्थ्य की दृष्टि से भी (वे एक भाग की अल्पप्राप्ति के कारण नुकसान सहन करती हैं) एक अत्यंत आवश्यक सुधार उपाय को वापस पलटने के समान है।
यह निजी क्षेत्र के लिए भी हतोत्साहित करने वाला कदम साबित हो रहा है, क्योंकि वे सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों द्वारा दी जा रही उच्च रियायती दरें पेश करने में अपने आपको असमर्थ पाती हैं, जिसके कारण ग्राहक उनके पास आना ही नहीं चाहते। रिलायंस पेट्रोलियम ने खुदरा पेट्रोलियम उत्पाद बाजार में प्रवेश अवश्य किया था, किंतु उसे इसी एक कारण से अपना कारोबार समेटना पड़ा था (ऐसा दावा कंपनी ने किया)। अतः खुदरा क्षेत्र पर सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार जारी है।
अनुवृत्तियों को वितरित करने का एक बेहतर तरीका है - एक ऐसा तरीका जो चोरी और विचलन को समाप्त करता है, और यह सुनिश्चित करता है कि यह केवल गरीबों को ही प्राप्त हो - प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण को लागू करना। भारत में लंबे समय तक यह विषय अकादमिक और आदर्शवादी चर्चा का विषय ही रहा। हालांकि 2010-11 के बजट से यह एक नीति के रूप में उभरता हुआ दिखाई दे रहा है। जमीनी स्तर पर नकद हस्तांतरण किस प्रकार काम कर रहा है यह देखने के लिए कुछ प्रायोगिक परियोजनाएं शुरू की जा रही हैं।
8.0 उपसंहार
इस प्रकार भारत में आर्थिक उदारीकरण उपलब्धियों और असफलताओं का एक मिश्रित अनुभव रहा है। असफलताओं ने उदारीकरण और वैश्वीकरण के प्रति काफी अविश्वास पैदा किया है। 2008 में पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं में आये आर्थिक संकट के कारण यह अविश्वास अधिक मजबूत हुआ है, और इसने मुक्त बाजार के औचित्य पर ही सवालिया निशान लगा दिया है।
परंतु जिस तथ्य को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है वह यह कि असफलता के अधिकांश कारण हैं विशुद्ध सुधारों का अभाव, अधूरे मन से किये गए सुधार, या गलत सुधार, जो केवल विशिष्ट समुदायों को ही लाभ पहुंचाते हैं। सुधार केवल उन्ही क्षेत्रों में किये गए हैं जिनका लाभ या तो बडे उद्योगों को मिला, यह कुछ मुखर समूहों को, और वे सुधार जो कम मुखर वर्गों को प्रभावित करते हैं - छोटे किसान, लघु और मध्यम उद्योग, असंगठित क्षेत्र - वे शायद इसलिए लंबित रखे गए है, कि वे अधिक प्रभावी समूहों को चोट पहुंचाते हैं।
2004 से आर्थिक सुधारों की सुस्त गति का दोष गठबंधन की राजनीति को देना एक फैशन बन गया है। परंतु हाल का भारत का इतिहास दिखाता है, कि गठबंधन कठोर आर्थिक उपायों के मार्ग में रोड़ा नहीं बनते। यूपीए गठबंधन के कार्यकाल में, जो न केवल एक अस्थिर गठबंधन था, बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी उसका हिस्सा थी, पी चिदंबरम ने एक उदारवादी के रूप में ख्याति अर्जित की थी। एनडीए सरकार ने भी कई साहसिक कदम उठाये थे, विशेष रूप से निजीकरण के क्षेत्र में, और पेट्रोलियम उत्पादों के लिए प्रशासित मूल्य तंत्र के क्षेत्र में।
सुधारों के मार्ग में रुकावटें पैदा करने का कुछ दोष भारतीय उद्योगों को अपने ऊपर भी लेना होगा, हालांकि सुधारों के अभावों के विषय में सबसे अधिक आवाज वे ही उठाते रहे है। जिन उद्योगों और व्यवसायों को उदारीकरण और प्रतिस्पर्धा का सर्वाधिक मिला है, उन्हें उन नीतियों और उपायों का विरोध करने का कोई मलाल नहीं है जो उनके लिए अधिक प्रतिस्पर्धा निर्माण करेंगी। वे राजनीतिक दल और अन्य समूह जो अधिक मुक्त बाजार का विरोध करते है, वे आम जनता की ओर से आवाज उठाने का ढोंग करते हैं, और इस बात पर जोर देते हैं कि अनुवृत्तियां समाप्त करने से और विदेशी निवेश के लिए अधिक क्षेत्रों को खोलने से वे सबसे अधिक प्रभावित होंगे। यही वह मानसिकता है, जो सुनिश्चित करती है कि कोई भी सुधार या कठोर आर्थिक निर्णय चुनाव के समय तक के लिए टाल दिए जाएं। यह राजनीतिक प्रबंधन की आवश्यकता की ओर इशारा करता है - लोगों के सामने जाएं और उन्हें समझाएं कि कुछ उपाय, चाहे वे कठोर ही क्यों न हों, लेकिन क्यों आवश्यक हैं, किस प्रकार थोडे समय की कठिनाई लंबे समय के फायदे के लिए आवश्यक है, और किस प्रकार वर्त्तमान आर्थिक रूप से कमजोर नीतियां आधारणीय हैं।
यह कार्य करने की उम्मीद राजनेताओं से नहीं की जा सकती। उसे तो आम जनता के अज्ञान से ही फायदा है, जिसके कारण वे अपने निहित स्वार्थ साध्य करने में सफल हो पाते हैं। दुर्भाग्य से, अर्थशास्त्री और अन्य बुद्धिजीवी वर्ग भी, जो अधिक खुली राजनीति और अर्थव्यवस्था की पैरवी करते हैं, उन्होंने भी उस विशाल समुदाय को
संबोधित नहीं किया है, जिनके नाम पर सुधारों का विरोध किया जाता है। इसे बदलने की आवश्यकता है। सुधारों के लिए एक विस्तृत आधार का निर्माण करना आवश्यक है।
इसमें कोई संदेह नहीं है, कि उदारीकरण ना केवल अपरिहार्य है, बल्कि वह वांछनीय भी है, और इसे आगे बढाना आवश्यक है। आज देश को ऐसे सुधारों की आवश्यकता है जो अर्थव्यवस्था में वास्तविक प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित कर सकें।
2014-2019 वह काल रहेगा जो तय करेगा कि एनडीए की सरकार कितनी मजबूती से भारत को पुनः विकास पथ पर लाती है, व आर्थिक सुधारों के प्रति प्रतिबद्ध रहती है। आधा रास्ता तय करने के बाद वर्ष 2016-17 में इरादे काफी मजबूत हैं परंतु इसके परिणाम अभी देखे जाने शेष हैं।
विश्व ने भारतीय आर्थिक सुधार प्रक्रिया को कैसे देखा
- 1991 में भारत ने तीन दशक के समाजवाद तथा चौथे दशक में धीरे-धीरे उदारीकरण के बाद अपनी अर्थव्यवस्था को उदार बनाने के लिए बड़े सुधारों की शुरुआत की। आज तीस वर्षों बाद, परिणाम कई मोर्चों पर उत्कृष्ट रहे हैं, लेकिन कुल मिलाकर यह एक मिश्रित सामाजिक-राजनीतिक सफलता रही है। भारत 2019 में एक गरीब, धीमा देश होने के साथ-साथ दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था बन गया है, लेकिन भारी सामाजिक विषमता के साथ।
- एक समय पर विश्व में दया का पात्र भारत अब विकासशील देशों के बीच ईर्ष्या का विषय बन गया है। इसे अक्सर एक संभावित महाशक्ति कहा जाता है एवं इसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा एक सीट का सर्मथन प्राप्त है। फिर भी ये सफलताएँ नीतियों एवं संस्थानों में कई महत्वपूर्ण विफलताओं एवं कमजोरियों के साथ हैं।
- पिछले 30 वर्षों के उदारीकरण की कहानी मुख्य रूप से निजी क्षेत्र की सफलता, सरकारी विफलता एवं संस्थागत क्षरण द्वारा धूमिल सफल आर्थिक सुधार की कहानी है। यहां तक कि पुराने नियंत्रणों को समाप्त कर दिया गया है, नए नियंत्रणों का निर्माण किया गया है, इसलिए वामपंथी आलोचक जिसे नव-उदारवाद कहते हैं, उसे अधिक सटीक रूप से नव-गैर-उदारवाद कहा जा सकता हैं।
- •सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता अत्यंत खराब है, एवं सामाजिक संकेतकों में बहुत धीरे-धीरे सुधार हुआ है। सार्वजनिक वस्तुओं के प्रावधान में पुलिस, न्यायपालिका, सामान्य प्रशासन, बुनियादी स्वास्थ्य एवं शिक्षा, एवं बुनियादी ढाँचे - आर्थिक प्रदर्शन के पैमाने के सापेक्ष गंभीर कमियाँ हैं। इनमें से कई एचडीआई एवं आईडीआई रैंकिंग से पता चलती हैं।
- राजनीतिक नियुक्तियां एवं सरकारी हस्तक्षेप अदालतों एवं विश्वविद्यालयों से लेकर स्वास्थ्य एवं सांस्.तिक संगठनों तक की स्वतंत्रता एवं गुणवत्ता को नष्ट करते हैं। भारत के आर्थिक सुधार देश को निम्न-आय से मध्यम-आय की स्थिति में स्थानांतरित करने में अत्यधिक सफल रहे हैं, बावजूद इसके संस्थानों एवं सार्वजनिक वस्तुओं की गुणवत्ता में थोड़ा ही सुधार हुआ है।
- तीव्र विकास को बनाए रखने एवं उच्च आय वाला देश बनने के लिए, भारत को उदारीकरण को गहरा करने एवं उच्च गुणवत्ता वाले संस्थानों के निर्माण के लिए बड़े सुधारों की आवश्यकता होगी। यह न तो स्वचालित होगा एवं न ही एक अनुमानित परिणाम वाला होगा।
- 1991 तक कई महाशक्तियों (विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका) ने विदेशी मामलों में पाकिस्तान की आबादी भारत की आबादी से बमुश्किल आठवां भाग होने के बावजूद, उससे भारत की तुलना की । भारत की धीमी प्रगति समाजवाद नीतियों ने इसे वैश्विक रूप से महत्वहीन बना दिया, एवं भारत की छवि केवल एक सहायता प्राप्तकर्ता की बन गई। संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ पाकिस्तान के सैन्य संबंधों ने उस देश को अधिक महत्वपूर्ण वैश्विक देश बना दिया। लेकिन आज, संयुक्त राज्य अमेरिका भारत को एक संभावित महाशक्ति के रूप में देखता है।
- राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने परमाणु क्लब में भारत के प्रवेश का समर्थन किया, जब डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तब राष्ट्रपति बराक ओबामा ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक सीट के लिए भारत का समर्थन किया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत को एशिया में संभावित रूप से एकमात्र देश के रूप में देखा जो 21 वीं शताब्दी में बढ़ते चीनी प्रभाव को रोक सकता है। राष्ट्रपति ट्रम्प के आने पर, दृष्टिकोण थोड़ा बदल गया।
- एक बार आर्थिक रूप से कमज़ोर होने के बाद, भारत अब चीन एवं संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद शक्ति समता की शर्तों में दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा जीडीपी वाला राष्ट्र है। प्रति व्यक्ति आय 1991 के स्तर डॉलर 375 से उपर आई है। विश्व बैंक जिस डॉलर 1045 की सीमा को निम्न - आय परिभाषित करता है, भारत अब उससे आगे निकल, एक मध्यम आय देश बन चुका है। भारत की वार्षिक जीडीपी वृद्धि दर 1950-80 में 3.5 प्रतिशत एवं 1980-92 में 5.5 प्रतिशत थी जो 2003 के बाद से बढ़कर 8 प्रतिशत के औसत पर पहुंच गई, जो कि 2005-08 के तीन वर्षों में 9 प्रतिशत से अधिक थी। यह 2018 - 2020 के दौरान कम भी हुई।
- एक अप्रत्याशित नया विकास विकासशील देशों के लिए भारत की ओर से सहायता के रूप में रहा है (हालांकि कुछ इसे भारतीय उपकरण बेचने के लिए अर्ध-वाणिज्यिक ऋण कहते हैं)। भारत की शुद्ध सहायता अब प्रति वर्ष डॉलर 1 बिलियन से अधिक है, भूटान (डॉलर 813 मिलियन) 2014-15 में सबसे बड़ा लाभार्थी। प्रधान मंत्री मोदी ने अफ्रीकी देशों को 10 बिलियन डॉलर की संयुक्त लाइन ऑफ क्रेडिट एवं बांग्लादेश को 2 बिलियन डॉलर की पेशकश की। जो देश पहले सहायता के लिए हाथ फैलाता था वह अब एक उदार वित्तदाता है। सन् 2020 तक, यह सहायता श्रीलंका आदि को भी दी गई।
- पुराने बुरे दिनों में, किसी भी बड़े सूखे के होने पर भारत खाद्य सहायता पर निर्भर था। जब एक साथ दो लगातार वर्षों 1965 एवं 1966 में, सूखा पड़ा तो भारत केवल संयुक्त राज्य अमेरिका से रिकॉर्ड खाद्य सहायता के कारण बच पाया। विलियम एवं पॉल पैडॉक की 1967 की बेस्टसेलिंग किताब ने घोषणा की कि सभी जरूरतमंद देशों को बचाने के लिए खाद्य सहायता मौजूद नहीं है, एवं भारत जैसे निराशाजनक देशों को भूखे रहने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए, एवं जीवित रहने में सक्षम देशों के लिए खाद्य सहायता बचा ली जानी चाहिए। हरित क्रांति ने भारत को पहले आत्मनिर्भर बनाया एवं फिर भोजन का अधिशेष उत्पादक।
- भारत ने 2014 एवं 2015 में लगातार दो सूखे झेले, फिर भी कृषि उत्पादन वास्तव में थोड़ा बढ़ा। भारत 2015 में 10.23 मिलियन टन का निर्यात करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा चावल निर्यातक बन गया। भारत हाल के वर्षों में गेहूं एवं मक्का का बड़ा निर्यातक भी बन गया है। यह इसके कृषि परिवर्तन का एक मानक है। पैडॉक एवं पैडॉक ने कभी सोचा न था कि 1960 के दशक के
- मध्य में भारत, जिसने दुनिया की लगभग पूरी खाद्य सहायता को निगल लिया था, 2010 में उत्तर कोरिया को खाद्य सहायता देने वाला राष्ट्र बन जाएगा। 2020 तक, कृषि एवं बागवानी दोनों प्रक्रियाएं अपने पहले के स्तरों से आगे निकल गईं, हालांकि कृषि तनाव बना रहा।
- 1991 में भारत का मुख्य निर्यात कपड़ा एवं कट-पॉलिश रत्न थे। आज, इसका मुख्य निर्यात कंप्यूटर सॉटवेयर, अन्य व्यावसायिक सेवाएं, फार्मास्यूटिकल्स, ऑटोमोबाइल एवं ऑटो घटक हैं। अधिकांश विकासशील देशों ने सस्ते श्रम का उपयोग करके तेजी से विकास किया। भारत ने ऐसा कभी नहीं किया, क्योंकि इसके कठोर श्रम कानूनों ने श्रम लचीलेपन को बाधित किया, एवं वे आज भी ऐसा करते हैं।
- सॉफ्टवेयर एवं व्यावसायिक सेवाओं से अब सालाना लगभग 100 बिलियन डॉलर, 1991 के लगभग ना के स्तर से, आसानी से प्राप्त होते हैं। व्यापारिक सेवाओं की सीमा का विस्तार कॉल सेंटरों एवं लिपिकीय कार्यों से लेकर उच्च-अंत वित्तीय, चिकित्सा एवं कानूनी कार्यों तक है। मूडीज एवं स्टैंडर्ड एंड पूअर्स जैसी क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां, जो कभी भारत को बहुत खराब रेटिंग देती थीं, अब अपने महत्वपूर्ण काम भारत से करती हैं।
- भारत अब एक कम लागत वाला वाणिज्यिक उपग्रह प्रक्षेपणकर्ता है। 2019 तक, इसने अलग-अलग पेलोड के साथ, विदेशों के लिए सैकड़ों उपग्रह लॉन्च किए थे।
- भारत अब एक जनसांख्यिकीय लाभांश प्राप्त करने वाला है जो इसे प्रतिद्वंद्वियों पर एक बडी बढ़त देगा। 15 एवं 60 वर्ष के बीच, काम करने वाले लोगों की संख्या 2013 एवं 2050 के मध्य 28 करोड़ से तक बढ़ने की उम्मीद है, जहां चीन का कार्यबल जल्द ही आबादी के 72 प्रतिशत से घट कर 61 प्रतिशत रह जाएगा। सभी एशियाई शक्तियों ने अपने प्रगति के वर्षों में जनसांख्यिकीय लाभांश का आनंद लिया, एवं अब सभी की उम्र बढ़ने लगी है।
- भारत की कामकाजी आबादी बढ़ती जा रही है, फिर भी कार्यबल में भागीदारी वास्तव में हाल के वर्षों में गिर गई है, खासकर महिलाओं के लिए। यह सामाजिक स्थिरता के लिए एक गंभीर चिंता का विषय है। विश्वसनीय रोजगार-बेरोजगारी के आंकड़ों की कमी से योजनाओं को बेहतर बनाने के प्रयासों को नुकसान होगा।
- 1991 से पहले बहुत उच्च कर दर (1991 में 58 प्रतिशत कॉरपोरेट टैक्स तक) के साथ साथ एक उच्च संपत्ति कर का मतलब था कि व्यवसायी आय को खातों से दूर रखते थे। कई सूचीबद्ध कंपनियों ने अल्पसंख्यक शेयरधारकों को धोखा देकर, संदिग्ध तरीकों से मुनाफे को इन व्यापारों को नियंत्रित करने वाले परिवारों की तरफ मोड़ दिया। शेयरधारक मूल्य में सुधार का मतलब शेयर बाजार की उच्च कीमतें हैं, जिनका अन्य देशों में स्वागत किया गया होता, लेकिन भारत में यह व्यक्तिगत दिवालियापन का नुस्खा का था। उच्च शेयर की कीमतों का मतलब उच्च धन कर देनदारियां हैं जिन्हें चुकाने के लिए नियंत्रण खोने की संभावना के साथ, प्रमोटरों को टैक्स का भुगतान करने के लिए शेयरों को बेचने की आवश्यकता होती थी।
- नरसिम्हा राव से नरेंद्र मोदी तक के 30 वर्षों ने भारत को निम्न आय से निम्न-मध्य आय में स्थानांतरित कर दिया। उच्च-आय की स्थिति तक पहुंचने के लिए, भारत को एक बेहतर शासित देश बनना चाहिए जो विभिन्न बाजारों को अधिक खोल दे, प्रतिस्पर्धा में सुधार करे, नागरिकों को सशक्त बनाए, सरकारी सेवाओं एवं अन्य सभी संस्थानों की गुणवत्ता में सुधार करे, राजनीतिक एवं व्यावसायिक अपराधियों को जल्दी से जेल में डाले, एवं नागरिक शिकायतों का त्वरित निवारण प्रदान करे। यह एक लंबा एवं कठिन एजेंडा है। इसे शीर्ष करने के लिए, सामाजिक एवं सांप्रदायिक सद्भाव को बरकरार रखने की आवश्यकता है, क्योंकि जैसा कि दुनिया का इतिहास दिखाता है, सद्भाव के बिना जीडीपी हमेशा अपनी अधिकतम क्षमता से कम हो जाता है।
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