यूपीएससी तैयारी - भारतीय अर्थव्यवस्था के आधारभूत तत्व - व्याख्यान - 3

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आर्थिक उन्नति व मानव विकास

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1.0 प्रस्तावना

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के अनुसार, मानव विकास ”व्यक्तियों के विकल्पों को विस्तारित करने की एक प्रक्रिया” के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। लोगों की सभी स्तर पर मुख्य आवश्यकताएँ हैं, एक लंबा व स्वस्थ जीवन जीना, बेहतर ज्ञान प्राप्त करना, तथा एक संतोषजनक जीवन स्तर के लिए जरूरी संसाधनों तक पहुँच होना। इन ज़रूरी विकल्पों की अनुपस्थिति में, जीवन की गुणवत्ता  को सुधारने के अन्य अवसर भी पहुँच से बाहर रहेंगे। 

मानव विकास के दो पहलू हैंः 

  1. मानवीय क्षमताओं को प्राप्त करना, एवं
  2. इन क्षमताओं से लैस मनुष्यों द्वारा इनका उपयोग लाभकारी/उपयोगी, आराम व अन्य उद्देश्यों के लिए करना।

मानव विकास के लाभ, आय विस्तार व संपत्ति संचय से कहीं अधिक होते हैं, क्योंकि मानव विकास के मूलतत्व को मानव ही गठित करते हैं।

मानव विकास, एवं मानव संसाधन विकास में अंतर होता है। मानव संसाधन विकास लोगों को उत्पादन का एक कारक मानता है (जैसे अन्य कारक होते हैंः पूंजी, प्राकृतिक संसाधन आदि)। अतः मानव पूंजी में निवेश का अंतिम लक्ष्य होता है उत्पादन एवं आय में वृद्धि। 

1.1 मानव विकास के घटक 

UNDP  के अनुसार मानव विकास के मूलतः चार घटक होते हैंः

समानताः अवसरों की समान पहुँच के रूप में परिभाषित इस धारणा का तात्पर्य समान पहुँच वाली उत्पादक परिसंपित्त  व ज्ञान-युक्त प्रतिस्पर्धात्मक बाज़ारों व प्रतिस्पर्धा का विद्यमान होना है।

उत्पादनशीलताः मानव विकास आर्थिक वृद्धि के सिध्दांत के विरूद्ध नहीं है। बल्कि वह इस दावे पर निर्भर है कि आर्थिक वृद्धि व उत्पादनशीलता को मानव संसाधन व विकास में वृद्धि तथा ऐसे हितकारी वातावरण के निर्माण से जिसमें लोग अपनी क्षमताओं का उपयोग पूर्णरूप से कर सकें, प्राप्त किया जा सकता है। विशेष ज़ोर विकास के संख्यात्मक पक्ष के बजाय उसके गुणात्मक पक्ष पर ध्यान दिया गया है।  

धारणीयताः भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं को समाने के लिए विकल्पों की निरंतरता निश्चित करना।

सशक्तिकरणः सशक्तिरकण व सहभागिता का तात्पर्य ऐसे पर्याप्त सामाजिक वातावरण की व्यवस्था से है जिसमें लोग एक बेहतर जीवन की उपलब्धि के लिए हिस्सेदार बनते हैं।  

अतः मानव विकास, लोगों को मानव विकास के अंतिम लक्ष्य के रूप में एक बेहतर जीवन का आनंद उठाने योग्य बनाने के अपने लक्ष्य के साथ-साथ, यह भी विशिष्ट रूप से दर्शाता है कि यह लक्ष्य केवल आय में बेहतरी या भौतिक सामर्थ्य मात्र से ही नहीं पाया जा सकता। इसके आगे, मानव कल्याण के मुख्य घटकों में एक अंतरनिर्भरता है। उदाहरण के तौर पर, पर्याप्त आय के अभाव में एक व्यक्ति को कई शैक्षणिक व स्वास्थ्य संबंधी सेवाएँ उपलब्ध नहीं हो सकती तथा अच्छी शिक्षा के अभाव में अच्छी नौकरियाँ तथा आमदनी के सुअवसर उपलब्ध नही हो सकते।

इसलिए, मानव विकास के इन घटकों को एक वृहद ढाँचे के अंतर्गत ही समझना होगा। हालांकि व्यक्तियों द्वारा उनका मूल्यांकन समय के साथ बदल सकता है व देशों के बीच या देश के भीतर ही समूहों के बीच भिन्नमत हो सकते हैं, लेकिन मानव विकास के मूल अवयवों - आय, शिक्षा व स्वास्थ्य - को तब भी विकास के सभी स्तरों पर आवश्यक माना गया है।

मानव विकास की पहली आवश्यकताओं का विस्तृत कार्यक्षेत्र, जैसा कि ऊपर चिन्हित किया गया है, एक मुख्य बिंदु को उभारता है। कुछ मानव विकास नीतियाँ प्रत्येक व्यक्तिगत देश के लिए विशिष्ट होंगी जो कि उनकी धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक मूल्यों से प्रभावित होंगी।

हाल की विश्व बैंक की एक रिपोर्ट ने विभिन्न देशों के निर्धनता अनुपात प्रकाशित किये हैं। इन अनुमानों के अनुसार यदि हम ‘‘संशोधित मिश्रित संदर्भ अवधि‘‘ का उपयोग करें तो वर्ष 2011-12 में भारत की निर्धनता 12.4 प्रतिशत जितनी कम हो सकती है, जिसमें मदों के स्वरुप के अनुसार तीन प्रत्याह्वान अवधियां हैं। यह रंगराजन समिति के 29.5 प्रतिशत के अनुमानों के विपरीत है। भारत के लिए रंगराजन समिति द्वारा उपयोग की गई निर्धनता रेखा थी प्रति व्यक्ति 1,105 रुपए प्रति माह। क्रय शक्ति समता की दृष्टि से डॉलर में इसकी गणना 2.44 डॉलर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन होती है। अतः विश्व बैंक की 1.90 डॉलर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन की निर्धनता रेखा रंगराजन समिति द्वारा उपयोग की गई निर्धनता रेखा का लगभग 78 प्रतिशत होती है। न्यून निर्धनता रेखा ही विश्व बैंक द्वारा अनुमानित न्यून निर्धनता अनुपातों का कारण है। 

हालांकि विश्व बैंक की रिपोर्ट व्यक्ति समकक्ष सिर गणना की दृष्टि से निर्धनता की गहराई की भी बात करती है। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1990 और 2012 के बीच वैश्विक स्तर पर गहराई की लोच 1.18 थी। दूसरे शब्दों में, पारंपरिक सिर-गणना में गिरावट के साथ ही व्यक्ति-समकक्ष निर्धनता अनुपातों में इससे भी कहीं अधिक गिरावट हुई थी। यह उन क्षेत्रों के संबंध में सही हैं जहां अधिकांश निर्धन लोग निवास करते हैं जैसे दक्षिण एशिया। 

1.2 मानव विकास रिपोर्ट (HDRs)   

मानव विकास रिपोर्ट प्रतिवर्ष संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा प्रकाशित की जाती है। 

प्रत्येक रिपोर्ट, जो कि मानव विकास सूचकांक (HDI) की जानकारी लिए हुए है, ऐसे कार्यवाही-स्थापक आँकडे़ं व विश्लेषण प्रस्तुत करती है, जिससे विकास की आज की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक चुनौतियों से पार पाने के लिए ऐसे नीति विकल्प व मामले जो कि व्यक्तियों को रणनीति के केन्द्र में रखें, की ओर अंतर्राष्ट्रीय खींचती है।

UNDP द्वारा क्षेत्रीय मानव विकास रिपोर्ट को काफी प्रोत्साहित किया जाता है, जिसके द्वारा प्रत्येक क्षेत्र प्रासंगिक व अत्यावश्यक विषयों पर विवरण प्रस्तुत करता है। वो मानव विकास को नापने का तथा परिवर्तन कार्यवाही शुरू करने का उपकरण हैं। वे परिवर्तन को प्रभावित करने के लिए क्षेत्र विशेष संबंधी मानव विकास रवैये की क्षेत्रीय भागीदारी बढा़ने में सहायता करती हैं तथा मानवाधिकार, गरीबी, शिक्षा, आर्थिक सुधार, HIV/AIDS तथा वैश्विकरण जैसे मुद्दों को समझती हैं।

UNDP/RBAS  (Regional Bureau for Arab States) - सन् 2002 से स्थापित है तथा यह एक वार्षिक क्षेत्रीय रिपोर्ट प्रदर्शित करता है।

राष्ट्रीय मानव विकास रिपोर्ट (NHDR) राष्ट्रीय नीति चर्चा के लिए एक ऐसा यंत्र प्रदान करता है जो कि राष्ट्रीय राजनैतिक कार्यक्रम में मानव विकास को केन्द्र में रखता है। इससे लोगों की प्राथमिकताओं को प्रदर्शित करने, राष्ट्रीय क्षमताओं को मजबूत करने, राष्ट्रीय भागीदार नियुक्त करने, पक्षपात का पता लगाने तथा विकास को नापने में सहायता मिलती है।

1.3 मानव विकास सूचकांक (HDI)

मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) का प्रारम्भ मूल-रूप से संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की वार्षिक विकास रिपोर्ट में पाया जाता है। मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) को 1990 में पाकिस्तानी अर्थशास्त्री महबूब उल हक द्वारा ईज़ाद किया गया था। इसका उद्देश्य ‘‘विकास अर्थशास्त्र का ध्यान राष्ट्रीय आय लेखा से हटाकर लोक-केन्द्रित नीतियों‘‘ पर केंद्रित करना था। मानव विकास रिपोर्ट बनाने के लिए, महबूब उल हक ने पॉल स्ट्रीटेन, फ्रांसिस स्टीवर्ट, गुस्ताव रनिस, कीथ ग्रिफिन, सुधीर आनंद, और मेघनाद देसाई सहित विकास अर्थशास्त्रियों के एक समूह का गठन किया। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के साथ, समूह ने उन क्षमताओं और कार्यों पर काम किया जिन्होंने अंतर्निहित वैचारिक ढ़ांचा प्रदान किया।

हक को यकीन था कि जनता, शिक्षाविदों व राजनेताओं को यह समझाना कि वे विकास के मूल्यांकन हेतु केवल आर्थिक प्रगति ही नहीं वरन् मानव कल्याण सुधारों को भी इस्तेमाल करें, इस हेतु उन्हें मानव विकास दर्शाते हुए एक सरल सूचकांक की आवश्यकता थी। सेन ने शुरू में इस विचार का विरोध किया, लेकिन उन्होंने जल्द ही हक की सूचकांक विकसित करने में मदद करना प्रारम्भ कर दिया। सेन चिंतित थे कि मानव क्षमताओं की संपूर्ण जटिलता को एक एकल सूचकांक में समाविष्ट करना मुश्किल हो रहा था, लेकिन हक ने उन्हें आश्वस्त किया कि राजनेताओं का तत्काल ध्यान आर्थिक से मानव भलाई की ओर परिवर्तित करने हेतु ‘‘एक नंबर ही‘‘ चाहिए था।

यह सूचकांक एक ऐसा प्रारंभिक कार्यरत औज़ार देता है जिसे आगे और विकसित व संशोधित किया जा सकता है, तथा वह राष्ट्रीय प्रयासों का मार्गदर्शन, संबंधित आधारभूत आंकड़ों को स्थापित करके कर सकता है। HDI (मानव विकास सूचकांक) पर आधारित अतिरिक्त सूचकांक विकसित हो चुके हैं, जिनका उद्देश्य विशेष मामलों को अधिक गहराई में जाकर परखना है, जैसे कि - लिंग-संबंधी विकास सूचकांक, लिंग-सशक्तिकरण पैमाना, मानव गरीबी सूचकांक। कुछ देशों ने विशिष्ट राष्ट्रीय मसलों से निपटने में नीति निर्माताओं की मदद के लिए कुछ संपूरक सूचकांक बनाए है।

1.4 मानव विकास सूचकांक की गणना की नयी विधि

जीवन गुणवत्ता  के आकलन के लिए, जिसे मानव विकास कहा गया है, मानव विकास सूचकांक तीन मापदंड़ां पर बना है, जो कि इस प्रकार हैंः 

  1. जीवन प्रत्याशा
  2. शिक्षा या ज्ञान उपलब्धता
  3. किसी देश के व्यक्तियों की प्रतिव्यक्ति आय।

1.4.1. नई मानव विकास सूचकांक गणनाविधि द्वारा जीवन प्रत्याशा सूचकांक का मूल्यांकन

न्यूनतम व अधिकतम जीवन प्रत्याशा मापदंड के परिवर्तन से नए जीवन सूचकांक मूल्यांकन प्रदर्शित हुए हैं। जीवन प्रत्याशा के मूल्यों के लिए 1980-2010 तक के वर्षों को स्वीकार किया है। नए मूल्यांकन में जीवन प्रत्याशा का मूल्य 20 वर्ष तय हुआ है। जीवन सूचकांक का अधिकतम मूल्य 83.2 साल तक किया गया है।

जीवन प्रत्याशा सूचकांक की गणना के लिए सूत्र =  LE-20/85-20

जहां  LE = एक देश का अनुमानित जीवनकाल

1.4.2 नई मानव विकास सूचकांक गणनाविधि द्वारा शिक्षा सूचकांक का निर्धारण

शिक्षा सूचकांक निर्धारण दो सूचियों का मिश्रण है। वे हैंः

  1. पाठशाला शिक्षा के औसत वर्ष सूचकांक (MYSI)
  2. पाठशाला शिक्षा के अपेक्षित वर्ष सूचकांक (EYSI)

’औसत वर्षों’’ का तात्पर्य 25 या उससे अधिक वर्ष के व्यक्ति द्वारा पाठशाला में बिताए गए वर्षों से है। पाठशाला शिक्षा के वर्षों का अधिकताम मूल्य 13.2 तथा न्यूनतम मूल्य 0 रखा गया है। इन मूल्यों को विभिन्न देशों के वर्ष 1980-2010 के आँकड़ां के अध्ययन के बाद लिया गया है। 

इसका सूत्र हैः 

जहां MYS= शिक्षा के औसत वर्ष

’पाठशाला सूचकांक के संभावित वर्ष’’ से तात्पर्य किसी देश के 5 वर्ष के बालक द्वारा स्कूल में बिताए जाने वाले अपेक्षित वर्षों से है, एवं इसमें दोहराए वर्ष शामिल हैं।

शिक्षा के औसत वर्ष का सूत्र हैः 

 

जहां EYS = शिक्षा के अपेक्षित वर्ष

पाठशाला शिक्षा के अपेक्षित वर्षों के अधिकतम तथा न्यूनतम मूल्यों का आकलन भी विभिन्न देशों के 1980-2010 के आँकड़ां के अध्ययन के बाद ही किया गया है। पाठशाला शिक्षा के अपेक्षित वर्षों का अधिकतम तथा न्यूनतम मूल्य 20.6 तथा 0 लिया गया है।

अंत में, शिक्षा सूचकांक (E1) होगाः   

1.4.3 नई मानव विकास सूचकांक मूल्यांकन विधि द्वारा आय सूचकांक का निर्धारण 

इस सूचकांक की गणना के लिए न्यूनतम-अधिकतम मूल्यों को विभिन्न देशां में 1980-2010 में किए गए अध्ययन के आधार पर निर्धारित किया गया है। नए मानव विकास सूचकांक में नए आय सूचकांक की गणना के लिए, राष्ट्रीय प्रतिव्यक्ति आय को मानक के रूप में लिया गया है। न्यूनतम आय $ 163 तथा अधिकतम आय $ 1,08,211 ली गई है।


1.4.4 अंततः मानव विकास सूचकांक [HDI]  होगा 

नया मानव विकास सूचकांक, जीवन प्रत्याशा सूचकांक, शिक्षा सूचकांक तथा आय सूचकांक का ज्यामीतिय मध्यक (ज्योमेट्रिक मीन) है।

इन गणनाओं के पश्चात्, HDI का अंतिम मूल्य 0 व 1 के बीच होगा। प्राप्त मूल्यों के आधार पर देशों को विभिन्न वर्गों में रखा जाएगा। उन्हें अति उच्च मानव विकास, उच्च मानव विकास, मध्यम मानव विकास, तथा निम्न मानव विकास के देशों के रूप में वर्णित किया जाएगा



1.5 आर्थिक वृद्धि एवं मानव विकास

आर्थिक उन्नतिः आर्थिक उन्नति को एक विशिष्ट समयावधि के दौरान अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों द्वारा उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के मौद्रिक मूल्य में हुई वृद्धि के रूप में परिभाषित किया जाता है। यह वह मात्रात्मक साधन है जो अर्थव्यवस्था में हुए वाणिज्यिक लेन-देनों की संख्या में हुई वृद्धि को दर्शाता है। 

आर्थिक उन्नति को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीएनपी) के रूप में व्यक्त किया जा सकता है, और यह अर्थव्यवस्था के आकार की गणना करने में सहायक होते हैं। यह हमें निरपेक्ष और प्रतिशत परिवर्तन में तुलना करके गणना करने में सहायता करता है कि पिछले वर्ष की तुलना में अर्थव्यवस्था ने कितनी प्रगति की है। यह संसाधनों की गुणवत्ता और मात्रा में हुई वृद्धि और प्रद्योगिकी में हुई उन्नति का परिणाम है। 

आर्थिक विकासः आर्थिक विकास को प्रौद्योगिकी में हुए सुधार के साथ ही उत्पादन के परिमाण में हुई वृद्धि, जीवन यापन के स्तर में हुई वृद्धि, संस्थागत परिवर्तनों इत्यादि की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है। सारांश में इसे अर्थव्यवस्था की सामाजिक-आर्थिक संरचना में हुई प्रगति कहा जा सकता है। 

मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) अर्थव्यवस्था में हुए विकास को जांचने का उपयुक्त साधन है। विकास के आधार पर ही एचडीआई आंकडे़ं विभिन्न देशों का क्रम निर्धारित किया जाता है। यह जीवन स्तर, जीडीपी, जीवन की स्थिति, प्रौद्योगिकीय प्रगति, आत्मसम्मान की आवश्यकताओं में सुधार, अवसरों की निर्मिति, प्रतिव्यक्ति आय, अधोसंरचनात्मक और औद्योगिक विकास और इससे भी कहीं अधिक के संबंध में अर्थव्यवस्था में हुए समग्र विकास का विचार करता है। 

आर्थिक उन्नति और आर्थिक विकास के बीच मुख्य अंतर 

आर्थिक उन्नति और आर्थिक विकास के बीच के बुनियादी अंतर निचे दिए गए बिन्दुओं में दिए गए हैंः

  1. आर्थिक उन्नति एक विशिष्ट आर्थिक समयावधि के दौरान देश के वास्तविक उत्पादन में हुआ सकारात्मक परिवर्तन है। आर्थिक विकास में अर्थव्यवस्था के उत्पादन स्तर में हुई वृद्धि के साथ ही प्रौद्योगिकी, जीवन-यापन के स्तर में हुई प्रगति इत्यादि को भी शामिल किया जाता है। 
  2. आर्थिक उन्नति आर्थिक विकास का ही एक  गुण -धर्म है। 
  3. आर्थिक उन्नति एक योजनाबद्ध और परिणाम उन्मुख गतिविधियों का परिणाम है। आर्थिक उन्नति एक स्वयंचलित प्रक्रिया है। 
  4. आर्थिक उन्नति जीडीपी, प्रति व्यक्ति आय इत्यादि जैसे संकेतकों में वृद्धि को सुविधाजनक बनाती है। दूसरी ओर, आर्थिक विकास जीवन प्रत्याशा दर, शिशु मृत्यु दर, साक्षरता दर और निर्धनता दरों में सुधार को सुविधाजनक बनाता है। 
  5. जब राष्ट्रीय आय में एक सकारात्मक परिवर्तन होता है तो आर्थिक उन्नति की गणना की जा सकती है, जबकि आर्थिक विकास को तब देखा जा सकता है जब वास्तविक राष्ट्रीय आय में वृद्धि हुई है। 
  6. आर्थिक उन्नति एक अल्प-कालिक प्रक्रिया है जो अर्थव्यवस्था की वार्षिक वृद्धि का विचार करती है। आर्थिक विकास एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है। 
  7. आर्थिक उन्नति का परिणाम मात्रात्मक परिवर्तनों में होता है, परंतु आर्थिक विकास मात्रात्मक और गुणात्मक, दोनों प्रकार के परिवर्तन लाता है। 
  8. आर्थिक उन्नति की गणना एक विशिष्ट समयावधि में की जा सकती है। इसके विपरीत आर्थिक विकास एक निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया है, अतः इसे दीर्घकाल में देखा जा सकता है। 

आर्थिक विकास और मानव विकास एक दूसरे से जुडे़ हुए हैं। मजबूत आर्थिक विकास ऐसे संसाधनों का निर्माण करता है जो गरीबी कम करने, मानव विकास और पर्यावरण संरक्षण के मामलों में सहायता करते हैं। इसलिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और विकास के संकेतक जैसे कि जीवन प्रत्याशा, शिशु मृत्यु दर, साक्षरता, राजनीतिक और नागरिक अधिकार और पर्यावरण की गुणवत्ता के कुछ संकेतकों में आपस में निकट संबंध है। लेकिन यह स्वतः नहीं होता है। सुचारु रुप से कार्य करने वाले नागरिक संस्थानों, सुरक्षित व्यक्तिगत अधिकार, सम्पत्ति के अधिकार और व्यापक आधार वाली स्वास्थ्य और शैक्षणिक सेवाएं भी समग्र जीवन स्तर को उंचा उठाने में जीवंत भूमिका निभाती हैं।

पिछले 25 वर्षों में, यद्यपि औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं ने ही आर्थिक गतिविधियों का नेतृत्व किया है तो भी विकासशील देशों विशेषकर पूर्वी और दक्षिणी एशिया की घनी जनसंख्या वाली अर्थव्यवस्थाओं की उभरती प्रवृत्तियों ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इन पूर्व में बंद अर्थव्यवस्थाओं का विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत हो जाना, इस विकास का एक महत्वपूर्ण कारक रहा है। अंतर्राष्ट्रीय विŸाय बाजारों और नई तकनीकों के विस्तार ने अंतर्राष्ट्रीय संचार में क्रांतिकारी परिवर्तन कर उत्पादन और उपभोग की वैश्विक पद्धति को प्रोत्साहित किया और पिछले एक दशक से विकासशील और संक्रमणकालीन अर्थव्यवस्थाओं में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में वृद्धि भी इसका एक कारक रहा है।

इसी समय, विकासशील देशों में असमानताएं भी बढ़ रही हैं। कुछ देश वैश्विकरण का लाभ लेने की स्थिति में नहीं आ पाए हैं। 1980 से ही एशिया और लैटिन अमेरिका की तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं की विशेषताएं रही हैं - उच्च दर की घरेलू बचतें, कृषि पर कम होती निर्भरता और व्यापार में त्वरित वृद्धि विशेषकरः औद्योगिक क्षेत्र के निर्यात के आधार पर। विकासशील देशों जैसे कि ब्राजील, चीन, इण्डोनेशिया और मेक्सिको की उदयमान अर्थव्यवस्थाएं निजी वैत्तिक संस्थानों के लिए आकर्षक रही है। 1995 में अमेरिका के 95.5 बिलियन डॉलर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई.) का दो-तिहाई मात्र छः विकासशील देशों में लगा। विकासशील देशों में लगभग 12 लाख नई नौकरियां निगमों द्वारा निर्मित की गई हैं।

यद्यपि लगभग 100 देशों ने आर्थिक पतन या अर्थव्यवस्था का अवरुद्ध होना महसूस किया है; उनमें से 70 देशों में 1980 की तुलना में औसत आय में कमी आई है। इस पतन के कारणों मे प्राथमिक उत्पादों के निर्यातों पर अत्यधिक निर्भरता, और इनकी कीमतों में भारी गिरावट, उच्च ऋण दरें, व्यापक आर्थिक और राजनीतिक सुधारों की धीमी गति और कुछ देशों मे राजनीतिक अस्थिरता और सशस्त्र संघर्ष भी रहे हैं।

इन परस्पर विपरीत प्रवृत्तियों का कुल परिणाम यह हुआ कि 1980 के स्तर की तुलना में 3.8 बिलियन (380 करोड़) लोगों की आय में 3 प्रतिशत या अधिक की वृद्धि हुई है, किन्तु लगभग 1 बिलियन, की स्थिति बदतर है। वास्तव में, गर्व करने लायक नहीं है।

पिछले 50 वर्षों में भारी गिरावट के बावजूद गरीबी दुनियाभर में एक बड़ी समस्या बनी हुई है। विकासशील देशों में, लगभग एक तिहाई जनसंख्या 1 अमेरिकन डालर प्रतिदिन से भी कम में गुजारा करती है। विश्व बैंक की परिभाषा के अनुसार प्रतिदिन 1.25 डालर से कम आय वाला व्यक्ति गरीब कहलाता है। इस पैमाने के अनुसार, यद्यपि गरीबी में जीवन यापन करने वाली विश्व जनसंख्या का प्रतिशत 1987 से 1993 के बीच (30.1% से 29.4%) थोड़ा सा कम हुआ है, तो भी गरीबी में जीवन-यापन करने वाले लोगों की संख्या 1.2 अरब से बढ़कर 1.3 अरब हो गई है। यद्यपि कुछ एशियाई देशों जैसे इण्डोनेशिया ने गरीबी को कम करने की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया है, फिर भी दक्षिण एशिया में विकास दर धीमी है। अफ्रीका के उप-सहारा देश, लैटिन अमेरिका और केरिबियाई द्वीपों में गरीबी में जीवन-यापन करने वाली जनसंख्या में वास्तव में बढ़ोतरी दर्ज की गई है।

1.6 भारत का मानव विकास सूचकांक

भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और मानव विकास सूचकांक (एच.डी.आई) के बीच की प्रतियोगिता, भारत के प्रदर्शन को मापने के सबसे उपयुक्त आंकड़ें के रूप में, काफी समय से चल रही है। जहां जीडीपी आय का पैमाना है, वहीं एचडीआय एक समग्र आंकड़ा है जिसका उपयोग ’मानव विकास’ के क्षेत्र में देशों का स्तर मापन करने के लिए किया जाता है, जिसे सामान्यतः ’जीवन स्तर’ और/या ’जीवन की गुणवत्ता’ का पर्यायवाची कहा जाता है। पहली मानव विकास रिर्पोट समग्र मानव विकास सूचकांक (एच डी आई) में जीवन-प्रत्याशा, शिक्षा प्राप्ति, आय जैसे संकेतकां को मिलाकर विकास को मापने का एक नया पैमाना प्रस्तुत करती है। इस एकल सांख्यिकी की रचना एचडीआई के लिए वह शानदार शुरुआत थी जो कि सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए एक संदर्भ बिन्दु था। एचडीआई प्रत्येक दिशा में न्यूनतम व अधिकतम का एक लक्ष्य निर्धारित करता है, जिन्हें गोलपोस्ट कहा जाता है, और फिर दर्शाता है कि इन गोलपोस्ट, जिन्हें 0 और 1 के मान से अभिव्यक्त किया जाता हैं, के सापेक्ष प्रत्येक देश कहां खड़ा है।

1.7 मानव विकास सूचकांक क्रमानुक्रम 2017 

वर्ष 2017 में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) में भारत 189 देशों की सूची में 130 वें स्थान पर रहा। वर्ष 2018 में वह एक स्थान ऊपर चढ़कर 129 वें रैंक पर पहुंचा (2019 की रिपोर्ट के अनुसार)। 

भारत का एचडीआई पिछले दो वर्षों में 1.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष की तुलना में धीमी गति, 0.63 प्रतिशत की दर से बढ़ा, तथा 2017 में, 2016 के स्तर 0.636 से बढ़कर 0.64 हो गया। यह वैश्विक स्तर पर धीमी एचडीआई वृद्धि के संगत है, जो पिछले दो वर्षों के 0.5 प्रतिशत से घटकर 2017 में 0.3 प्रतिशत थी।

इसकी तुलना में, हालांकि, यूरोप एवं मध्य-एशिया - जो कि विकसित देशों की सबसे बड़ी संख्या वाले क्षेत्र हैं - में पिछले वर्ष यह, 2016 के 0.36 प्रतिशत की तुलना में बढ़कर 0.5 प्रतिशत हो गया।

भारत में एचडीआई की धीमी वृद्धि का श्रेय एचडीआई के प्रमुख घटकों में धीमी तरक्की को दिया जा सकता है। 

2017 में स्कूली शिक्षा पूर्ण करने के लिए 12.3 वर्ष अपेक्षित थे जो कि 2016 के समान ही थे। इसी प्रकार स्कूली शिक्षा के औसत वर्षों की संख्या भी 2017 में अपने पिछले वर्ष की समान 6.4 ही रही।

रिपोर्ट सुझाती है कि ऐसी स्थिति में विद्यालयों में उम्र-विशिष्ट नामांकन की दरों में सुधार की आवश्यकता है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, स्कूल नामांकन प्राथमिक स्तर (कक्षा 8) में 94 प्रतिशत से माध्यमिक स्तर (कक्षा 10) तक 80 प्रतिशत और उच्चतर माध्यमिक स्तर (कक्षा 10+2) तक 55 प्रतिशत के स्तर तक गिर जाता है।

इसके अलावा, देश की प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय में वृद्धि 2017 में, 2016 में 5.9 प्रतिशत से घटकर, 2.6 प्रतिशत रह गई। संशोधित अनुमानों के अनुसार, भारत की अर्थव्यवस्था में वृद्धि की गति पिछले दो वर्षों में धीमी हुई है तथा यह, 2015-16 के 8.2 प्रतिशत से घटकर, 2016-17 में 7.1 प्रतिशत एवं 2017-18 में 6.7 प्रतिशत रह गई है।

विकास दर का संपूर्ण जनसंख्या में वितरण असमान है। असमानता के कारण, इस मोर्चे पर भारत का एचडीआई 26.8 प्रतिशत की असमानता हानि दर्शाते हुए, 0.64 से कम हो कर 0.47 रह गया, जो पड़ोसी देशों और क्षेत्रीय औसत से कम है। असमानता के कारण हुआ औसत नुकसान मध्यम एचडीआई तथा दक्षिण-एशियाई देशो के लिए क्रमशः 25.1 एवं 26.1 प्रतिशत था। सबसे तेजी से बढ़ती विकासशील अर्थव्यवस्था होने के बावजूद, भारत का एचडीआई विकसित देशों के एचडीआई 0.68 की तुलना में 0.64 पर रूक गया जो यह दर्शाता है कि कि मानव विकास एवं आर्थिक विकास थोड़ी दूरी बनाते हुए मूलतः साथ-साथ चलते हैं।

अपने निकटतम पड़ोसियों की तुलना में, भारत आयस्तर एवं समग्र आर्थिक सशक्तिकरण में आगे है। हालांकि, यह आय की असमानता के संदर्भ में भी आगे है, जिसके कारण भारत की असमानता-समायोजित एचडीआई में बड़ी गिरावट आती है।


2.0  2019 परिदृश्य 

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा जारी 189 देशों की नवीनतम 2018 रैंकिंग के अनुसार, भारत मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) में पिछले साल के 130 वें स्थान से बढ़कर इस वर्ष 129 वें स्थान पर पहुंच गया है।

अन्य दक्षिण-एशियाई देशों में, श्रीलंका 0.78 के एचडीआई मूल्य के साथ (71 वें स्थान पर) तथा मालदीव 0.719 एचडीआई मूल्य के साथ (104 वें स्थान पर) भारत से आगे थे। दूसरी ओर, पड़ोसी बांग्लादेश और पाकिस्तान क्रमशः 135 और 152 वें स्थान पर थे। भारत का एचडीआई मान 0.647 के क्षेत्रीय औसत से अधिक है। एचडीआई मानव विकास के प्रमुख आयामों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन-स्तर में प्रगति को मापता है।

नवीनतम सूचकांक के अनुसार, 2018 में भारत का एचडीआई मूल्य 0.647 था, जिससे देश मध्यम मानव विकास श्रेणी में शामिल रहा। यूएनडीपी के अनुसार, 1990 और 2018 के बीच, भारत का एचडीआई मूल्य 0.427 से बढ़कर 0.647 हो गया, जो कि लगभग 50 प्रतिशत की वृद्धि है। लगभग इसी अवधि में, जन्म के समय भारत की जीवन प्रत्याशा भी लगभग 11 वर्ष बढ़ गई है।

साथ ही, देश की सकल प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय (जीएनआई) 1990 और 2018 के मध्य 30 प्रतिशत बढ़ी है।

वैश्विक एचडीआई रैंकिंग में शीर्ष पांच देश नॉर्वे (0.954), स्विट्जरलैंड (0.946), आयरलैंड (0.942), जर्मनी (0.939) व हांगकांग (0.939) थे। दूसरी ओर, नाइजर (0.377), सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक (0.381), व चाड (0.401) का एचडीआई मूल्य सबसे कम है। 

2.1 भारत के निम्न एच.डी.आई. के कारक

स्वास्थ्यः उदारीकरण और वैश्विकरण की नीति सामाजिक विकास की तुलना में आर्थिक विकास के प्रति पक्षपाती रही है। फरवरी 2010 तक के छः माह में लोक स्वास्थ्य के लिए आवंटन में 1 प्रतिशत से 1.4 प्रतिशत की आंशिक वृद्धि की गई है। परिणामस्वरुप, स्वास्थ्य खर्च का एक बड़ा हिस्सा - जीडीपी का लगभग 4 प्रतिशत - निजी आय से वहन होता है, जिससे असमानता आती है।

शिक्षाः भारत, एक लम्बे समय से, शिक्षा पर खर्च के मामले में सतर्क रहा है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई) इस आधार पर कि यह सरकार के लिए बहुत महंगा होगा, खतरे में पड़ गया था। देश में अभी भी दुनिया की निरक्षर आबादी का 30ः है जिनमें से 70ः महिलाएं हैं।

शहरी गरीबीः राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एन.एच.आर.एम.) या राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना (मनरेगा) जैसे कोई कार्यक्रम शहरों के गरीबों के लिए नहीं हैं। शहरी गरीबों के लिए सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था का अभाव हमारे खराब एच.डी.आई. प्रदर्शन हेतु जिम्मेदार है।

पर्यावरण प्रदर्शनः येल विश्वविद्यालय के पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में, 132 देशों की सूची में भारत, पाकिस्तान, मालदीव और किर्गिस्तान के भी पीछे 125 वें स्थान पर है।






               

3.0 मानव विकास के लिए उपाय 

मानव विकास के लिए कार्य मात्र रोजगार से कहीं अधिक है, परंतु मानव विकास का अर्थ, लोगों के विकल्पों में विस्तार करना और यह सुनिश्चित करना कि अवसर उपलब्ध हैं, भी है। इसमें यह सुनिश्चित करना भी शामिल है कि पर्याप्त और गुणवत्तापूर्ण भुगतान वाले कार्य के अवसर भी उन लोगों के लिए उपलब्ध हैं जिन्हें वेतन प्रदान करने वाले काम की आवश्यकता है और वे इन्हें करना चाहते हैं। अनेक देशों में काम की जटिल चुनौतियों को संबोधित करने के लिए राष्ट्रीय रोजगार रणनीतियां आवश्यक हैं, अन्य 18 यह कर रहे हैं और नई रोजगार चुनौतियों पर प्रतिक्रिया देने के लिए 5 देश अपनी नीतियों में संशोधन कर रहे हैं। राष्ट्रीय रोजगार रणनीति के प्रमुख नीतिगत उपायों में संभवतः निम्न उपायों को शामिल किया जा सकता हैः

एक रोजगार लक्ष्य निर्धारित करनाः होंडुरस और इंडोनेशिया सहित एक दर्जन से अधिक देशों में रोजगार के लक्ष्य निर्धारित हैं। केंद्रीय बैंकें दोहरे लक्ष्य-निर्धारण का मार्ग अपना सकती हैं - मूल रूप से मुद्रास्फीति नियंत्रण पर ध्यान केंद्रित करने के पार जाकर रोजगार लक्ष्यों पर बल देना। वे विशिष्ट मौद्रिक नीति साधनों का भी विचार कर सकती हैं (जैसे ऋण आवंटन तंत्र) ताकि काम के अधिक अवसर निर्मित किये जा सके, जैसा चिली, कोलंबिया, भारत, मलेशिया और सिंगापुर में किया गया है। 

रोजगारजनित वृद्धि रणनीति का निर्माणः अब रोजगार को केवल आर्थिक वृद्धि का व्युत्पन्न नहीं माना जा सकता कुछ नीतिगत हस्तक्षेप लघु और मध्यम आकार वाले उपक्रमों, जिन्हें पूँजी की आवश्यकता है, के बीच की कडी में मजबूती ला सकते हैं और बडे़ पूँजी सघन उद्योग रोजगार को बढ़ावा दे सकते हैं, जो जीवनचक्र के दौरान श्रमिकों के कौशल का उन्नयन कर सकते हैं, उन क्षेत्रों में निवेश और निविष्टियों पर ध्यान केंद्रित कर सकते है जहां गरीब लोग काम करते हैं (जैसे कृषि), और रोजगार-जनित वृद्धि के लिए महत्वपूर्ण बाधाओं को समाप्त कर सकते हैं (जैसे ऋण प्रदाय में लघु और मध्यम आकार के उपक्रमों के प्रति पक्षपात को दूर करना), ठोस कानूनी और विनियामक रूपरेखा का क्रियान्वयन और सार्वजनिक व्यय में पूँजी और श्रम के वितरण को संबोधित करना, ताकि ऐसी प्रौद्योगिकियों पर जोर दिया जा सके जो रोजगार निर्माण करती हों। 

वित्तीय समावेश की दिशा में बढ़नाः संरचनात्मक परिवर्तन और रोजगार निर्माण के लिए एक समावेशी वित्तीय तंत्र आवश्यक है। विकासशील देशों में उपक्रम परिचालन और वृद्धि के लिए वित्तीय संसाधनों तक पहुँच एक प्रमुख बाधा है, विशेष रूप से महिलाओं के लिए। नीति विकल्प संभवतः बैंकिंग सेवाओं का विस्तार वंचित और हाशिये पर रहे समूहों तक करने का विचार कर सकते हैं (जैसा इक्वेडोर में किया गया है), ऋण को अननुपालित क्षेत्रों, सुदूर क्षेत्रों और लक्ष्यित क्षेत्रों की ओर मोड सकते हैं (जैसा अर्जेंटीना, मलेशिया और कोरिया गणराज्य में किया गया है), ब्याज दरों में कमी कर सकते हैं और लघु और मध्यम आकार के उपक्रमों और निर्यात उन्मुख क्षेत्रों के लिए ऋण अदायगी गारंटी और अनुवृत्तियां प्रदान कर सकते हैं। 

एक सहायक स्थूल आर्थिक रूपरेखा का निर्माण करनाः अस्थिरता को कम करने और सुरक्षित रोजगार निर्माण करने के लिए कुछ नीतिगत उपायों में वास्तविक विनिमय दर को स्थिर और प्रतिस्पर्धी रखना, पूँजी खातों को सावधानीपूर्वक बनाये रखना, बजट को रोजगार निर्माण करने वाले क्षेत्रों की दिशा में पुनर्रचित करना, व्यापारिक वातावरण को संवर्धित करना और सुविधाजनक बनाना, उच्च गुणवत्तापूर्ण अधोसंरचना सुनिश्चित करना, और प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने वाली विनियामक रूपरेखा को अपनाना, कौशल में वृद्धि करना और व्यापार के लिए पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना इत्यादि को शामिल किया जा सकता है। 

काम के बदलते विश्व में लोगों को नए कार्य के वातावरण में आसानी से बनाये रखने की दृष्टि से अवसरों को हासिल करने के लिए नीतिगत कार्रवाई आवश्यक है। व्यक्ति तभी संपन्न हो सकते हैं जब उनके पास नई प्रौद्योगिकियों का दोहन करने योग्य कौशल, ज्ञान और योग्यताएं और क्षमताएं और उभरते अवसरों का लाभ उठाने की क्षमता होंगी। यहां कुछ नीतिगत कार्रवाइयों के लिए निम्न की आवश्यकता होगीः

सबसे नीचे की ओर जाने की दौड की दिशा में बढ़नाः काम के लिए वैश्वीकरण ने जो प्राप्त और संभावित लाभ प्रदान किये हैं, सर्वाधिक न्यून मजदूरी स्तर और कार्य स्थितियों की ओर दौड़ - ही केवल एकमात्र परिणाम नहीं है। सम्मानजनक मजदूरी, श्रमिकों की सुरक्षा के रखरखाव और उनके अधिकारों के संरक्षण के प्रति वैश्विक ध्यान इस प्रकार की दौड को रोक सकता है और दीर्घ अवधि में व्यापार व्यवसाय को अधिक धारणीय बना सकता है, उसी प्रकार निष्पक्ष व्यापार भी कर सकता है क्योंकि उपभोक्ताओं के मन में कार्य की परिस्थितियां अधिकाधिक महत्वपूर्ण बनती जा रही हैं। 

श्रमिकों को नए कौशल और नई शिक्षा प्रदान करनाः विज्ञान और अभियांत्रिकी संबंधी नौकरियों और अन्य अनेक प्रकार की नौकरियों में उच्च और विशिष्ट कौशल की आवश्यकता होगी, इसी के साथ रचनात्मकता, समस्या समाधान और आजीवन सीख के लिए अभिवृत्ति की भी आवश्यकता होगी। 

4.0 सेन-भगवती बहस

सेन-भगवती बहस मानव विकास के मुद्दे पर दो अलग अलग दृष्टिकोण पर प्रकाश डालती है। 

जबकि सेन का मानना है कि भारत को अपने लोगों की उत्पादकता को बढ़ावा देने के लिए अपने सामाजिक बुनियादी ढांचे में अधिक निवेश करना चाहिए, जिससे विकास बढ़ेगा, वहीं भगवती का तर्क है कि केवल विकास पर ध्यान देने से सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं में निवेश करने के लिए पर्याप्त संसाधन जुटाए जा सकते हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में निवेश मानव क्षमताओं में सुधार करने हेतु प्रमुख कारक होगा, ऐसा सेन का मानना है। इस तरह के निवेश के बिना, असमानता बढ़ेगी और विकास की प्रक्रिया लड़खडाएगी, ऐसा सेन का मानना है। भगवती का तर्क है कि विकास के शुरुआती दौर में असमानताएं बढ़ सकती हैं, लेकिन अनवरत वृद्धि अंततः राज्य हेतु प्रारंभिक असमानता के प्रभाव को कम करने के लिए पर्याप्त संसाधन जुटा देगी।

एक ओर भगवती तथा अरविंद पनगढ़िया के मध्य, और दूसरी ओर सेन तथा ज्यां द्रेज़ के बीच बहस इनके द्वारा भारत पर लिखी नई किताबों के जारी करने पर बढ़ गई है। ‘विकास क्यों महत्वपूर्ण हैः भारत में आर्थिक विकास ने किस प्रकार गरीबी कम की तथा अन्य विकासशील देशों के लिए सबक’ नामक किताब में भगवती और पनगढ़िया ने विकास को भारत की सभी बीमारियों का रामबाण इलाज बताया है। भगवती और पनगढ़िया का तर्क है कि 1990 के दशक के बाद से भारत की आर्थिक वृद्धि ने गरीबी वास्तव में काफी हद तक कम कर दी हैः योजना आयोग के आंकड़ों के अनुसार गरीब आबादी का अनुपात, 44.5 (1983) से 27.5 (2004-5) प्रतिशत तक गिर गया। इस अवधि के दौरान जनसंख्या वृद्धि के मद्देनजर, अनुमान है कि इसी अवधि में 18.75 करोड़ लोग गरीबी की अवस्था से बाहर हो चुके हैं (कम से कम अपने सबसे चरम रूप में)। भगवती और पनगढ़िया ने फिर भारत के भविष्य के विकास में आ रही लगातार बाधाओं को पहचाना एक अनम्य श्रम कानून जो कंपनियों के बढ़ने के  खिलाफ काम कर रहा है; सार्वजनिक और निजी उद्योगों और आवास के लिए भूमि अधिग्रहण की कठिनाइयां; सार्वजनिक बुनियादी ढांचे की दयनीय स्थिति खासकर बिजली की आपूर्ति के क्षेत्र में सबसे नाटकीय रूप से।

इस किताब का प्रकाशन सेन और द्रेज़ की किताब ‘‘एन अनसर्टन ग्लौरीः इंडिया एंड इट्स कोंट्राडिक्शन‘‘ के कुछ पहले हुआ जिसमें सेन और द्रेज़ ने राज्य निर्देश्ति पुर्नः वितरण प्रयासों को भारत की समस्या का समाधान बताया है। द्रेज़ और सेन हेतु भारत का मुख्य विरोधाभारत यह है कि गरीबी जढ़वद बनी है और साथ ही साथ बढ़ती असमता भी है हालांकि तीव्र आर्थिक विकास हो रहा है। भारत में गरीबी के आंकड़ों को मापना बेहद मुश्किल बना हुआ है, यह स्पष्ट है कि भगवती और पनगढ़िया (ऊपर) के समान ही योजना आयोग के आंकड़ों का उपयोग करते हुए, गरीबी में भारतीयों की कुल संख्या अब तक उच्च जीडीपी विकास दर की तुलना में उतनी कम नहीं हुई है जैसा दिखता है।

नाममात्र के आर्थिक विकास के बजाय, द्रेज़ और सेन मुख्य रूप से मानव क्षमता विकसित करने की आवश्यकता के रूप में विकास की प्रक्रिया को देखते हैं, और प्रणालियां वे हैं जो इसे उपलब्ध कराने में मदद करती हैंः शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक समर्थन सेवाएं। वे उन भीषण कमियों की ओर इशारा करते हैं जिसकी वजह से भारत जनसांख्यिकी लाभांश गवा सकता है जैसे कि खराब शिक्षा व्यवस्था (कुछ ही संसाथनों को छोड़ दें तो) और साथ ही साथ स्वास्थ्य और पोषण से जुड़े भीषण मुद्दे जो जीवन छीन लेने के अलावा जनसंख्या के बड़े हिस्सो को बहुत कम उत्पादकता देने पर विवश कर देते हैं।

भगवती ने सेन के विकास के प्रति प्रेम को उन उदाहरणों के साथ आलोचना की है जहां सेन ने दुसरो को विकास पर बहुत ज्यादा लक्ष्य केंद्रित करने के लिए आलोचना की थी। जहां भगवती का तर्क है कि लोकलुभावन बंदरबांट और राजकोषीय फिजूलखर्ची जो मुद्रास्फीति में वृद्धि करती हैं, हेतु बौद्धिक नींव प्रदान करके, सेन वास्तव में गरीबों के जीवन के अवसरों को चोट पहुंचा रहे हैं। भगवती कहते हैं कि विकास से पहले पुनर्वितरण हो, यह तर्क देकर, सेन नुकसान पहुंचाते हैं। 

सेन के अनुसार विकास और कल्याण दोनों कार्यक्रमों की जरूरत है, पर एक दूसरे की कीमत पर नहीं। सेन के अनुसार विकास और जनकल्याण कार्यक्रम दोनों की ही आवश्यकता है लेकिन एक-दुसरे की किमत पर नहीं और वे अनुवृत्तियां जो गरीबो की मदद न करें उन्हें समाप्त कर देना चाहिए। सेन भगवती के उस विचार पर भी सवाल उठाते हैं कि पुनःवितरण प्रयास जो मानव क्षमताओं को बढ़ाये उनसे पहले विकास हो जाना चाहिए। 

भगवती का तर्क है कि 1991 के सुधारों ने समाज के सबसे निचले वर्गों को आज और अधिक समृद्ध बनाया है। इसलिए, उन सुधारों को और मजबूत किया जाना चाहिए। भारत के विकास के अनुभव की आलोचना करने वालों की खबर लेते हुए, भगवती ने तर्क दिया है कि मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) पर एक निचली  रैंक के ज्यादा मायने नहीं हैं। एचडीआई सेन और प्रसिद्ध पाकिस्तानी अर्थशास्त्री महबूब उल हक के मूल प्रयासों से जन्मा है। भगवती ने यह कह कर की इस सूचकांक के पीछे विज्ञान मूढ़ नहीं है, विकास सूचकांक के व्यापक उपयोग पर ही सवाल उठा दिया है।

2020 तक, यह स्पष्ट होता जा रहा था कि विश्व भर में बढ़ती असमानताऐं - जैसा कि विभिन्न वैश्विक रिपोर्टों ने दिखाया (आक्सफेम, विश्व आर्थिक मंच, विश्व बंक आदि) - ने उस पुराने ट्रिकल-डाउन प्रभाव सिद्धांत पर काली छाया डाल दी थी जो कहता था कि आर्थिक उन्नति से अपने आप मानव विकास हो ही जायेगा। आज, हमे समझ रहे हैं कि किसी देश में अधिक जी.डी.पी. विकास के प्रभाव से मानव विकास स्वतः नहीं हो जाता, किंतु कुछ दिशाओं में लगातार प्रयासो से ही वह संभव होता है। यही कारण है कि भारतीय राजनीति में भी सार्वभौमिक मूल आय (यूबीआई) का विचार उसके अनेक रंगों व अवतारों में प्रकट होने लगा है (पीएम-किसान, न्याय आदि)।

5.0 सहस्राब्दि विकास लक्ष्य

सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (एमडीजी) आठ अंतर्राष्ट्रीय विकास लक्ष्य हैं जो कि 2000 में संयुक्त राष्ट्र के सहस्राब्दी शिखर सम्मेलन के बाद ‘संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दि घोषणा’ गोद लेने के बाद स्थापित किए गए थे। उस समय के सभी 189 संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश (वर्तमान में 193 हैं), और कम से कम 23 अंतरराष्ट्रीय संगठन, 2015 तक निम्नलिखित सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों को हासिल करने में मदद करने के लिए प्रतिबद्ध थेः

  1. अत्यधिक गरीबी और भूख के उन्मूलन के लिए
  2. सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए
  3. लैंगिक समानता को बढ़ावा देने और महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए
  4. बाल मृत्यु दर को कम करने के लिए
  5. मातृ स्वास्थ्य में सुधार करने के लिए
  6. एचआईवी/एड्स, मलेरिया और अन्य बीमारियों का मुकाबला करने के लिए
  7. पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए
  8. विकास के लिए एक वैश्विक साझेदारी विकसित करने के लिए

हालांकि एमडीजी लक्ष्य पूर्ण रूप से हासिल नहीं हुए, फिर भी इनमें बड़ी प्रगति और सुधार हुआ है। हालांकि, देशों के बीच प्रगति असमान रही है। 2012 में ‘‘2015 पश्चात् संयुक्त राष्ट्र विकास के एजेंडे पर संयुक्त राष्ट्र प्रणाली कार्यबल’’ संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा स्थापित किया गया। संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों का सतत विकास पर काम करने हेतु ध्यान केंद्रित करने के लिए इसने 60 से अधिक देशों को एकत्रित किया।

एमडीजी शिखर सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य राज्यों ने 2015 पश्चात् विकास एजेंडा पर चर्चा की तथा विचार-विमर्श की प्रक्रिया आरंभ की। नागरिक समाज संगठन भी, 2015 के बाद की प्रक्रिया में  ‘थिंक टैंक‘ सहित शैक्षणिक और अन्य अनुसंधान संस्थानों के साथ संलग्न रहे। सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) भविष्य के अंतरराष्ट्रीय विकास से संबंधित लक्ष्यों के रूप में प्रस्तावित किये गए। 2014 में, महिलाओं की स्थिति संबंधित संयुक्त राष्ट्र आयोग एक ऐसे दस्तावेज पर सहमत हुआ जिसने सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में प्रगति का त्वरण आवश्यक बतलाया, और लैंगिक समानता व महिला सशक्तिकरण हेतु अकेले लक्ष्य की आवश्यकता की पुष्टि की।








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