यूपीएससी तैयारी - भारतीय अर्थव्यवस्था के आधारभूत तत्व - व्याख्यान - 4

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भारत में समावेशी विकास भाग - 1

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1.0 समावेशी विकास का अर्थ

समावेशी विकास वह आर्थिक विकास होता है जो जनसंख्या के सभी वर्गों के लिए अवसरों का निर्माण करता है और संवर्धित मौद्रिक और गैर-मौद्रिक, दोनों प्रकार की समृद्धि को समस्त समाज में लगभग एक समान वितरित करता है। आर्थिक वृद्धि के लाभ समाज के सभी वर्गों को उनके आर्थिक वर्गीकरण, लिंग, विकलांगता और धर्म का भेद किये बिना मिलने चाहिये। यदि धारणीय विकास प्राप्त करना है तो इसके लिए समावेशी विकास अनिवार्य है। समावेशी विकास गरीब और वंचित समूहों की आय में वृद्धि करने के लिए उत्पादक रोजगार पर एक साधन के रूप में ध्यान केंद्रित करता है। 

समावेशी विकास के कुछ अर्थ इस प्रकार हैंः

  1. समावेशी विकास से आशय उस विकास से है जो प्रत्येक व्यक्ति को लाभकृत करते हुए, सबसे कमजोर व्यक्ति की परेशानियों को कम करता है।
  2. समावेशी विकास से आशय हिस्सेदारी के अवसरों का विस्तार है, जिसमें उत्पादक कार्यों में हिस्सदारी के साथ, विकास प्रक्रिया के दिशा-निर्धारण में सहभागिता भी है। 
  3. समावेशी वृद्धि से आशय उस वृद्धि से है जो विकास का मार्ग प्रशस्त करे, और विकास का अर्थ उस बहुदिशात्मक समावेशी उन्नति से है जिसमें जीवन स्तर और सशक्तिकरण दोनों शामिल हो।

1.1 समावेशी वृद्धि के गुणधर्म 

समावेशी वृद्धि की मुख्य विशेषताएंः

  • समावेशी विकास आर्थिक वृद्धि पर ध्यान केन्द्रित करता है जो गरीबी निवारण के लिए आवश्यक शर्त है। दीर्घावधि समावेशी विकास के लिए स्थाई विकास आवश्यक है।
    • ऐसी वृद्धि जो दीर्घ अवधि के लिए स्थाई रहे, इसका आधार सभी क्षेत्रों में और व्यापक होना चाहिए। इसलिए आर्थिक परिवर्तन के लिए सरंचनागत रूपान्तरण के मुद्दे प्रमुख हो जाते हैं। अपवाद-स्वरूप कुछ देश अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के कारण लगातार विशेशज्ञ होते चले जाते हैं जैसे कि छोटे देश।
    • देश की विशाल श्रम शक्ति के लिए भी समावेशी विकास होना चाहिए, जहां आशय उस समावेशी विकास से है जिसमें शामिल हैं बाजार व संसाधनों की उपलब्धता, और व्यापार तथा व्यक्तियों के लिए पक्षपात रहित विनियामक वातावरण।
  • समावेशी विकास, वृद्धि की गति और पद्धति दोनों पर ध्यान केन्द्रित करता है। वृद्धि किस तरह पैदा की जाती है यह गरीबी निवारण को गति प्रदान करने के लिए ज़रूरी होता है, और कोई भी समावेशी वृद्धि योजना देश की विशिष्ट परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बनानी चाहिए। 
  • समावेशी विकास आय के पुनर्वितरण की अपेक्षा उत्पादक रोजगार पर ध्यान केन्द्रित करता है। अतः केवल रोजगार वृद्धि की अपेक्षा, उत्पादन वृद्धि पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है।
  • समावेशी विकास केवल व्यापारिक इकाई का ही नहीं, अपितु व्यक्तिगत स्तर पर भी विश्लेषण करता है। 
  • समावेशी विकास को किसी विशिष्ट लक्ष्य जैसे रोजगार निर्माण या आय वितरण के सापेक्ष परिभाषित नहीं किया जाता हैं। यह सब क्षमतामूलक परिणाम है न कि विशिष्ट लक्ष्य।
  • समावेशी विकास बाजार-संचालित संसाधनों द्वारा पोषित होता है और सरकार इसमें सुविधा-प्रदायक की भूमिका में होती है।

2.0 भारत में समावेशी विकास की आवश्यकता

समावेशी विकास, संपत्ति के न्यायसंगत वितरण और स्थाई विकास के लिए आवश्यक है। भारत जैसे देश में समावेशी विकास का लक्ष्य हासिल करना एक बड़ी चुनौती है। 60 करोड़ ग्रामीण भारतीयों को मुख्य-धारा से जोड़ना सबसे बड़ी चिंता है। समाज के सभी वर्गों को राष्ट्रीय स्तर पर इसे एक चुनौती के रूप में लेना होगा। लोगों में कौशल विकास के द्वारा समावेशी विकास को सरलता से हासिल किया जा सकता है। विकास का लक्ष्य हासिल करने के लिए शिक्षा और विकास के प्रति बहुमुखी पहुँच की जरूरत है।

2.1 समावेशी विकास पर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता

स्वतंत्रता के समय से ही, भारत की अर्थव्यवस्था और सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण सुधारों ने देश का उल्लेखनीय विकास किया है। निम्नलिखित कारकों ने भारत को समावेशी विकास पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए प्रोत्साहित कियाः

  1. क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत विश्व का 7वां और जनसंख्या की दृष्टि से दूसरा सबसे बड़ा देश है। भारत, बाजार विनिमय दरों के अनुसार 10वीं और पीपीपी के अनुसार 3री सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। तब भी, भारत पड़ोसी देश चीन के विकास के स्तर से बहुत दूर है।
  2. धीमी कृषि विकास दर, गुणवत्ता पूर्ण रोजगार का अभाव, कम मानव-विकास, ग्रामीण और शहरी विभाजन, लिंग और सामाजिक असमानताओं आदि ने भारत के लिए महत्वपूर्ण चुनौतियाँ प्रस्तुत की हैं।
  3. गरीबी और असमानताओं का निवारण करते हुए आर्थिक विकास का लक्ष्य प्राप्त करना, समावेशी विकास का मुख्य उद्देश्य है।
  4. देश का राजनीतिक नेतृत्व देश के समावेशी विकास में जीवंत भूमिका निभाता है। किन्तु कई अध्ययनों से पता चला है कि भारत के राजनीतिज्ञों में वैज्ञानिक समझ का अभाव है।
  5. अध्ययनों से यह भी ज्ञात हुआ है कि भारत में भ्रष्टाचार की कीमत दर सकल घरेलू उत्पाद की 10 प्रतिशत तक है। समावेशी विकास में भ्रष्टाचार बहुत बड़ी बाधा है।
  6. यद्यपि कानून के अनुसार भारत में बाल-श्रम प्रतिबंधित है और इस अमानवीय प्रथा को रोकने के लिए कड़े प्रावधान हैं, तो भी, भारत में अभी भी अनेक बच्चे अपनी रोजी रोटी के लिए दैनिक मजदूरी के लिए बाध्य हैं।
  7. उच्च वृद्वि दर के लिए आवश्यक कुशल-श्रम के निर्माण के लिए साक्षरता दर बढ़ाना जरूरी है।
  8. कई अवसरों पर आर्थिक सुधारों का, पुरातन दर्शन और आरोप-प्रत्यारोप के आधार पर राजनीतिज्ञों व विपक्षी दलों द्वारा विरोध किया जाता है।
  9. 9 प्रतिशत जीडीपी वृद्धि दर की उपलब्धि की संभावना, एक असरदार कारक है जो ’समावेशी विकास’ की अवधारणा को विश्वास प्रदान करता है।
  10. आय और गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला एवं बाल विकास, अधोसंरचना और पर्यावरण से संबंधित संख्यात्मक उपलब्धि लक्ष्यों के अनुसार सामवेशी विकास को मापा जाना चाहिए।

2.2 भारत में विकास और समावेशन 

1980 के दशक के मध्य से भारतीय अर्थव्यवस्था विकास के एक उच्च मार्ग की ओर बढ़ी हुई है। वर्ष 1990-92 के दौरान विकास में आई एक शिथिलता के बाद 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ने के लिए शुरू किये गए उदारीकरण ने न केवल अर्थव्यवस्था को वृद्धि के उच्च मार्ग पर वापस ला दिया बल्कि  2000 के दशक तक इस वृद्धि को बनाये भी रखा। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की दूसरी सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बनी हुई है। हालांकि पिछले दो दशकों की उच्च वृद्धि के बावजूद इस बात पर चिंता व्यक्त की गई है कि यह वृद्धि समाज के सभी वर्गों के बीच समान रूप से विर्तित नहीं हुई है। नीति निर्माताओं ने वर्ष 2007 की 11 वीं पंचवर्षीय योजना में समावेशी विकास की इन चिंताओं का संज्ञान लिया।

विकास की साझेदारीः केंद्रीय सांख्यिकी संगठन द्वारा नियमित रूप से प्रकाशित किये जाने वाले सकल अनुमान एक ‘‘फील गुड फैक्टर‘‘ दर्शाते हैं - यह कि वास्तविक प्रति व्यक्ति आय तेजी से बढ़ती चली आ रही है। हालांकि निम्न विषयों पर अनेक प्रश्न उठाये जाते हैंः

  1. शहरी भारत बनाम ग्रामीण भारत के परिवारों के बीच इस विकास की साझेदारी किस प्रकार हुई है, और 
  2. क्या विभिन्न सामाजिक-धार्मिक समूहों के परिवारों का विकास एकसाथ हुआ है। 

वर्ष 2004-05 से वर्ष 2011-12 के बीच राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण उपभोक्ता व्यय के सर्वेक्षणों के तीन चक्र दर्शाते हैं कि पारिवारिक व्यय में असाधारण वृद्धि हुई है और इसके परिणामस्वरूप निर्धनता में गिरावट हुई है। इन अनुमानों का निहितार्थ यह है कि विकास के कुछ लाभों का हिस्सा भेद्य परिवारों तक भी पहुंचा था। 

परंतु ये आंकडे़ं यह स्पष्ट नहीं करते कि निर्धनता में हुई गिरावट नए सामाजिक सुरक्षा संजालों के कारण हुई थी या इस कारण कि भेद्य परिवार सामान्य आर्थिक विकास में सहभागी हुए हैं। 

भारत मानव विकास सर्वेक्षण - राष्ट्रीय अनुप्रयुक्त आर्थिक अनुसंधान परिषद और मेरीलैंड विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं द्वारा किये गए 42,000 परिवारों के राष्ट्रव्यापी प्रातिनिधिक सर्वेक्षण ने कुछ दिलचस्प तथ्य उजागर किये हैं। 

सभी स्रोतों से इन परिवारों की मध्यिका वास्तविक आय वर्ष 2004-05 में लगभग 28,200 रुपये रही थी; वर्ष 2011-12 में यह कुछ हद तक बढ़कर 37,500 रुपये हुई, जो वार्षिक औसत के रूप में 4.7 प्रतिशत है। सीएसओ द्वारा जारी किये गए सकल विकास के आंकड़ों के विपरीत आईएचडीएस के आंकडे़ं परिवारों के निवास के स्थान के आधार पर परिवारों की आय की गणना करते हैं। 

आईएचडीएस के ये आंकडें पहली बार यह बताते हैं कि ग्रामीण भारत के परिवारों की औसत आय में प्रति वर्ष 5.0 प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई है - यह शहरी भारत के परिवारों की आय में हुई 2.6 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि से लगभग दुगनी है। 

इसके कारण पारिवारिक आय के बीच की खाई का काफी संकुचन हुआ है - वर्ष 2004-05 के 2.26 गुना से वर्ष 2011-12 के 1.97 गुना तक। ये आंकडे संबंधित एनएसएस सीई (61 वां और 68 वां चक्र) के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के मासिक प्रति व्यक्ति व्यय वृद्धि द्वारा गणना की गई प्रति व्यक्ति व्यय वृद्धि के साथ सुसंगत हैं। 

इस बढ़ती असमानता के बावजूद भेद्य क्षेत्रों की अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि संभवतः यह इंगित करती है कि शायद 11 वीं पंचवर्षीय योजना में क्रियान्वित की गई समेकित विकास नीति काम कर रही है। संभवतः महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, जननी सुरक्षा योजना, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन इत्यादि जैसी सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं ने इस समावेशी विकास में अपना योगदान दिया हो। 

3.0समावेशी विकास के घटक

ग्रामीण क्षेत्रों, ग्रामीण अधोसरंचना एवं कृषि निवेश में वृद्धि, किसानों को ऋण के लिए सहज उपलब्धता, सामाजिक सुरक्षा के साथ रोजगार में वृद्धि और शिक्षा व स्वास्थ्य मद में बजट की बढ़ोतरी जैसे उपाय समावेशी विकास की रणनीति के मुख्य तत्व हैं।

3.1 विषमताएं एवं विभाजन

यद्यपि उपर विशिष्ट चुनौतियों का उल्लेख है, इस धारणा को हमें समझना होगा कि विकास के कारण असमानता कम नहीं हुई है, बल्कि शायद बढ़ी है। ऐसी कुछ धारणाएं अतिशयोक्ति हो सकती हैं किंतु वे सभी गलत नहीं होंगी। 

भारत में कई प्रकार के विभाजन हैं। इनमें सबसे प्रमुख है गरीब एवं अमीर के बीच विभाजन। एक व्याख्या अनुसार, गरीबी घट रही है लेकिन इसकी घटने की दर स्वीकारणीय नहीं है क्योंकि गरीबी रेखा पहले से ही न्यूनतम स्तर के आसपास ही परिभाषित है। उन लोगों के बीच भी स्पष्ट विभाजन दिखाई देता है जिनके लिए आवश्यक सेवाएं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल, सफाई आदि सहज उपलब्ध हैं, और उनके जिन्हें ये सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं।

3.2 रोजगारविहीन विकास (Jobless growth)

‘‘रोजगारविहीन विकास‘‘ शब्द का संबंध उस अवधारणा से है जिसमें अर्थव्यवस्थाएं विकसित तो होती हैं परंतु उनके रोजगार के स्तर केवल स्थिर बने रहते हैं और कुछ मामलों में उनमें गिरावट होती है। यह उस समय होता है जब अपेक्षाकृत बड़ी संख्या में लोगों का रोजगार छूट जाता है और आगे होने वाली बहाली बेरोजगारों, अर्ध-बेरोजगारों और श्रम बल में नए से जुड़ने वाले नए सदस्यों को अवशोषित करने की दृष्टि से अपर्याप्त है। ऐसा होने का एक अन्य कारण स्वचालन भी हो सकता है। 

विश्व आर्थिक मंच की हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार रोजगारविहीन विकास एक वैश्विक घटना है। विश्व भर में लगभग 20 करोड से अधिक बेरोजगार व्यक्ति हैं। आय की असमानता और रोजगारविहीन विकास संभवतः आज विश्व के समक्ष उपस्थित हुई दो सबसे महत्वपूर्ण चुनौतियाँ हैं। गहरी होती हुई आय की असमानता और रोजगारविहीन विकास वर्ष 2015 व 2016 के 10 शीर्ष रुझानों में सबसे आगे थीं/हैं।

भारत के बेरोजगारी के अनुभव विकसित देशों में हो रही तेज गति की प्रौद्योगिकीय प्रगति से संबंधित संरचनात्मक परिवर्तन और रोजगार विस्थापन से अलग हैं। 1930 के दशक के दौरान आई महा मंदी को छोड़कर अमेरिका जैसे देशों ने कभी भी व्यापक बेरोजगारी का अनुभव नहीं किया है। आर्थिक सर्वेक्षण ने यह चेतावनी दी है कि वर्ष 2020 तक भारत संभवतः 1.67 करोड़ ‘‘लापता नौकरियों‘‘ का सामना कर रहा होगा। 

हालांकि वर्ष 2004-05 और 2009-10 के बीच भारत में वार्षिक 8.7 प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई, फिर भी इसका रोजगार निर्माण पर बहुत कम प्रभाव पड़ा। इस अवधि के दौरान देश के कुल रोजगार में कृषि का हिस्सा 57 प्रतिशत से घटकर 53 प्रतिशत रह गया, जहां 1.5 करोड़ श्रमिक काम की तलाश में नगरों और शहरों में पलायन कर गए। हालांकि विनिर्माण क्षेत्र और सेवा क्षेत्र उन्हें पूर्ण रूप से अवशोषित करने में असफल हुए जिसके कारण इनमें से अधिकांश प्रवासी अनौपचारिक क्षेत्र का हिस्सा बन गए। भारत की अनौपचारिकता की उच्च दर उसके आर्थिक विकास में एक अवरोध और व्यापक असमानता का एक स्रोत है और भारत में अनौपचारिकता (रोजगार की) और निर्धनता के बीच गहरा संबंध है। संगठित उद्योगों में नौकरियां नियमित से परिवर्तित होकर अनुबंध रोजगार बन गई हैं जिसके कारण श्रम का आकस्मिकीकरण हुआ है। विनिर्माण क्षेत्र में पचास लाख रोजगार कम हुए हैं जबकि सेवा क्षेत्र में वर्ष 2004-10 के दौरान केवल 35 लाख लोगों को रोजगार प्राप्त हुआ।  

वर्ष 2005 और 2010 के बीच श्रम बाजार में शामिल होने वाले लगभग 6 करोड़ नए लोगों के लिए केवल 10 लाख रोजगार निर्मित हुए। वास्तव में यह निर्माण विकास का खिंचाव था जिसके कारण श्रमिकों का कृषि क्षेत्र से बाहर पलायन हुआ। और निर्माण क्षेत्र का यह उछाल अस्थिर और क्षणिक था। भारत केवल न्यून उत्पादकता वाले निर्माण रोजगार का निर्माण कर रहा है न कि विनिर्माण क्षेत्र के उच्च उत्पादकता वाले औपचारिक रोजगार का, जिसके लिए उच्च क्षमता वाले कौशल की भी आवश्यकता होती है। स्वयं कृषि क्षेत्र भी छिपी बेरोजगारी से ग्रस्त है।

नव उदारवादी नीतियों को अपनाने के साथ ही, श्रम-सघन क्षेत्र पृष्ठभूमि में चले गए थे और पूँजी सघन, श्रम को प्रतिस्थापित करने वाले क्षेत्रों को प्रोत्साहित किया गया। रोजगार निर्माण के मूल्य पर पूँजी सघनता में बढोतरी हुई है। 

मजदूरी में उत्पादकता के अनुपात में वृद्धि नहीं हुई है जिसका निहितार्थ यह है कि श्रमिक उत्पादकता में हुई परिणामी वृद्धि का एक बड़ा भाग नियोक्ताओं द्वारा बरकरार रखा गया। और इस प्रकार एक वर्ग के रूप में श्रमिकों की, अतिरिक्त रोजगार और संगठित विनिर्माण क्षेत्र में मिलने वाली मजदूरी, दोनों दृष्टि से भारी हानि हुई।

नव-उदारवादी नीतियों का परिणाम श्रम अवशोषण की दर में हुई गिरावट और एफआईआरई (वित्त, बीमा, और रियल इस्टेट क्षेत्र) की अर्थव्यवस्था की तीव्र वृद्धि के रूप में हुआ। एफआईआरई अर्थव्यवस्थाओं ने केवल कुशल श्रमिकों के लिए रोजगारों का सृजन किया ताकि सौदों और समझौतों को अंतिम रूप प्रदान किया जा सके। बहुचर्चित सूचना प्रौद्योगिकी और आईटीईएस क्षेत्रों ने श्रम बल के बहुत छोटे प्रतिशत को रोजगार प्रदान किया।

अतः रोजगारविहीन विकास के आर्थिक और सामाजिक तनाव काफी गंभीर हैं। बेरोजगारी की मूलभूत आर्थिक लागत है खो चुका उत्पादन। रोजगार और आय के अभाव में घरेलू उपभोक्ता व्यय में गिरावट होगी और इसका निवेश पर निराशाजनक प्रभाव होगा। 

4.0 भारत में वित्तीय समावेशन 

भारत में वित्तीय समावेशन अपेक्षाकृत एक नई सामाजिक-आर्थिक अवधारणा है जिसका लक्ष्य वंचित वर्गों को सस्ती दरों पर वित्तीय सेवाएं प्रदान करके इस गतिकी को परिवर्तित करना है, जो अन्यथा शायद इनके बारे में अनभिज्ञ रहें या उनमें इन सेवाओं को प्राप्त करने की क्षमता न हो। हालांकि हाल के वर्षों में भारत अधिकांश विकसित देशों की आर्थिक विकास दर से अधिक उच्च विकास दर का दंभ भरता आ रहा है, फिर भी वास्तविकता यह है कि देश की अधिकांश जनसंख्या बैंकिंग सेवाओं से वंचित है।

वैश्विक रुझानों ने दर्शाया है कि समविशी वृद्धि और विकास प्राप्त करने के लिए वित्तीय सेवाओं का समाज के सभी वर्गों तक विस्तार अत्यंत महत्वपूर्ण आवश्यकता है। समग्र रूप से देखा जाए तो ग्रामीण क्षेत्रों में और शहरी क्षेत्रों के आर्थिक रूप से पिछडे क्षेत्रों का वित्तीय समावेशन सभी संबंधित लोगों की दृष्टि से एक फायदे का सौदा है - बैंकों/ गैर-बैंकिंग वित्तीय निगमों की मध्यवर्ती संस्थाओं, और इससे छूटी हुई शहरी जनसंख्या की दृष्टि से। 

वर्ष 2006 में भारतीय रिजर्व बैंक ने एक विनियम बनाया जिसके तहत लोगों को उनके घरों तक बैंकिंग सेवाएं पहुंचाने के लिए बैंकों को तृतीय पक्ष गैर-बैंक अभिकर्ताओं के उपयोग की अनुमति प्रदान की गई। बैंकें मूलभूत अधोसंरचना और सेवाओं का संचालन करेंगी और व्यापार संवाददाता (BC) नामक मध्यस्थ अंतिम उपभोक्ता के लिए निष्पादक और इन बैंकिंग और वित्तीय संस्थाओं के चेहरे के रूप में कार्य करेंगे। व्यापार संवाददाता मौके पर अपनी ऑनलाइन बैंकिंग गतिविधियों के संचालन के लिए हाथ में पकडे जा सकने वाले टैबलेट (जीएसएम सक्षम) जैसे टर्मिनल के साथ ही पोर्टेबल बायोमेट्रिक स्कैनर, छोटी  कार्ड स्वाइप मशीनें और थर्मल ब्लूटूथ प्रिंटर्स अपने साथ रखेंगे। जब कोई संस्था अधिकृत यूआईडीएआई उपयोगकर्ता बन जाती है तो प्रमाणीकरण और ग्राहक जानकारी एनपीसीआई या एनएसडीएल के माध्यम से यूआईडीए द्वारा प्रदान की जाती है। जैसे-जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में आय स्तर, और इसके परिणामस्वरूप बचत, में वृद्धि होगी, तो आवश्यक है कि अर्जकों को उनकी धनराशि के प्रबंधन में सहायता प्रदान की जाए और आने वाले और संबंधित क्षेत्रों के लोगों द्वारा किये जाने वाले भुगतानों को सुविधाजनक बनाया जाए। लोगों को आसान बिना शेष राशि के चालू और बचत खातों को खोलने की अनुमति देने, केवाइसी मानदंडों को शिथिल करने और सामाजिक लाभों की राशि सीधे लाभार्थियों के खातों में जमा करने की अनुमति प्रदान करने से ग्रामीण क्षेत्रों में वित्त एवं बैंकिंग सेवाओं के समावेशी दृष्टिकोण को बढ़ावा मिलेगा। 

वित्तीय समावेशन के लाभः वित्तीय समावेशन की प्रवृत्ति में वृद्धि करता है और इस प्रकार से देश में पूँजी निर्माण में वृद्धि करने के साथ ही आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देता है। ग्रामीण जनता को नकद प्राप्ति, नकद भुगतान, शेष राशि संबंधी पूछताछ और खाते का लेखा-जोखा प्राप्त करने जैसी बैंकिंग सेवाएं प्राप्त होंगी और इन्हें अंगुली की छाप से प्रमाणित किया जा सकेगा। पूर्ति का विश्वास ग्राहक को एक ऑनलाइन रसीद प्रदान करके प्रदान किया जा सकता है। 

जैसे-जैसे बैंकिंग पर्यावरण में अधिक धनराशि आती जाएगी वैसे वैसे नकद अर्थव्यवस्था में कमी आएगी। 

अनुवृत्तियों का नकद भुगतान करने के बजाय लाभार्थी के खाते में सीधे राशि का हस्तांतरण संभव हो जायेगा। इससे यह भी सुनिश्चित होगा कि धनराशि बीच में ही अनधिकृत व्यक्तियों द्वारा चोरी किये जाने के बजाय वास्तव में अभिप्रेत प्राप्तकर्ता के हाथ में ही पहुँचती है। 

औपचारिक बैंकिंग संस्थाओं के माध्यम से पर्याप्त और पारदर्शी ऋण की उपलब्धता ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पादन और समृद्धि में वृद्धि करने के लिए जनता की उद्यमी भावनाओं को प्रोत्साहित करेगी। 

अतः ऐसा माना जाता है कि वित्तीय समावेशन विकास और समृद्धि की एक नई क्रांति की शुरुआत कर सकता है। 21 वीं सदी में भारत अपने तंत्र को गति प्रदान करने के लिए स्वयं अपनी संस्थाओं का सुचारू संचालन करके वित्तीय समावेशन और आर्थिक नागरिकता को आगे बढाने के लिए सभी सही उपाय अपना रहा है। आर्थिक अधिरोहण की दिशा में भारत की यात्रा इस बात पर निर्भर है कि भारत की 65 प्रतिशत बैंकिंग सेवा वंचित जनसंख्या (विश्व बैंक के 2012 के अनुदार अनुमान) को वित्तीय अधोसंरचना के साथ किस प्रकार से समृद्ध और सशक्त बनाया जाए।

5.0 भारत में समावेशी विकास रणनीति बनाने में आने वाली समस्याएं

जैसे कि कहा जा सकता है कि भारत जैसे एक विकासशील देश के लिए, सम्पूर्ण विकास प्राप्त करने के समावेशी विकास की सख्त जरूरत है। यद्यपि यह वृहद आर्थिक स्थायित्व के लिए अच्छा है, तो भी 2008-09 में तुलनात्मक दृष्टि से विकास की गति धीमी रही, क्योंकि वैश्विक आर्थिक गतिविधियों के कमजोर होने का प्रभाव और अनिश्चित वित्तीय बाज़ारों ने इसे प्रभावित किया। भारत जैसे विकासशील देश के लिए समावेशी विकास हासिल करने में निम्नलिखित समस्याएं सामने आती हैं।

  1. गरीबी
  2. रोजगार
  3. कृषि
  4. सामाजिक विकास में समस्याएं
  5. क्षेत्रीय असमानताएं आईये इनका विश्लेषण करें।

5.1 गरीबी

गरीबी रेखा के नीचे जीवन व्यापन करने वाली जनसंख्या का प्रतिशत भारत में बहुत ऊँचा है। विश्व बैंक के एक अनुमान के अनुसार 45 करोड़ 60 लाख भारतीय (कुल जनसंख्या का 42 प्रतिशत) वैश्विक गरीबी रेखा अर्थात 1.25 अमेरिकी डालर प्रतिदिन (पी.पी.पी.) के नीचे जीवन व्यापन करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि विश्व की कुल गरीबी का एक-तिहाई से भी ज्यादा भारत में रहता है। हालांकि, भारत में गरीबी आकलन खामियों से भरा है। 

अनुपातिक रूप से गरीबों का बड़ा हिस्सा निम्न जातियों से है। कई लोग जाति प्रथा को एक ऐसी पद्धति मानते हैं जिसमें उच्च जाति के सम्पन्न लोग निम्नजाति के गरीबों का शोषण करते हैं। भारत के कई हिस्सों में, जमीन के मालिक उच्च जाति के सम्पन्न लोग होते हैं, जो निम्न जाति के भूमिहीन मजदूरों और गरीब कारीगरों का आर्थिक शोषण करते हैं, और उन्हें उनके धार्मिक रीतिरिवाजों से इस आधार पर दूर रखते हैं कि उन्होंने ईश्वर-प्रदत्त तथाकथित निम्न जातियों में जन्म लिया है।

ग्रामीण क्षेत्र में अभी भी जातिवाद फैला हुआ है और इसने दलितों को समाज से विलगित कर रखा है। हालांकि यह भी देखा गया है कि सामाजिक सुधारों और रोजगार के अवसरों ने दलितों को सशक्त बनाया है, और यह लाभ वास्तविकता में दिखाई देने लगा है ।

5.2 रोजगार

पूर्णकालिक भुगतान वाला रोजगार भारत में समावेशी विकास के लिए एक बड़ी समस्या माना जाता है। स्वतंत्रता के बाद से उच्च दर से बढ़ती हुई जनसंख्या का प्रभाव रोजगार पर दिखाई देता है। विकास की दृष्टि से बेरोजगारी सबसे बड़ी चिंता बन गई है। चूंकि गरीबी बेरोजगारी की तुलना में बहुत ज्यादा है इसलिए गरीबी को दूर करने का एक मात्र मंत्र रोजगार है। असाक्षरता और कृषि रोजगार पर निर्भरता के कारण भारत में रोजगार की गुणवत्ता और संख्या, दोनों ही निम्न हैं। रोजगार की गुणवत्ता भी एक बहुत बड़ी समस्या है। साथ ही, भारत अपर्याप्त कौशल्य विकास की समस्या का भी सामना कर रहा है जिसका परिणाम अनियोज्यता में होता है। राष्ट्रीय कौशल्य विकास निगम (एनएसडीसी) का गठन 2022 तक भारत के 500 मिलियन व्यक्तियों के कौशल्य उन्नयन के उद्देश्य से किया गया था। 

असंगठित रूप से नौकरी करने वाले लोग भारत में 85 प्रतिशत के करीब हैं। इस क्षेत्र के कर्मचारियों के पास सामाजिक सुरक्षा नहीं है। अर्थव्यवस्था में श्रम शक्ति के लिए उत्पादक रोजगार सृजन, रोजगार के रूप में समग्र विकास की कुंजी है। देश के सभी क्षेत्रों में, सामाजिक आर्थिक समूह विशेषकर बेहद गरीब जनसंख्या, पिछड़े क्षेत्र एवं एस.सी./एस.टी./ओ.बी.सी./महिला इत्यादि रोजगार सृजन हेतु चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। 

विश्व अर्थव्यवस्था में लगातार मंदी इस बात का संकेत है कि औपचारिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण रोजगार का निर्माण नहीं हो सकता, किन्तु चूंकि भारत में श्रम शक्ति को ज़्यादातर रोजगार अनौपचारिक क्षेत्र में मिलता है, शायद हम इस बड़े सामाजिक झटके से बचे रहेंगे।

5.3 कृषि 

परम्परागत रूप से भारत एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था रही है। बहुत बड़ी संख्या में भारतीय अपने रोजगार के लिए कृषि पर निर्भर रहते हैं। दूसरे क्षेत्रों में हुए विकास ने इस क्षेत्र के विकास को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। भारतीय कृषि की कुछ समस्याएं इस प्रकार हैं :

  1. दीर्घकालीन कारक जैसे-प्रति व्यक्ति भूमि उपलब्धता में आई कमी और खेतों का सिकुड़ता आकार
  2. रोजगार की हिस्सेदारी में धीमी कमी
  3. कृषि में निम्न श्रम उत्पादकता और कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के बीच बढ़ती दूरी
  4. जमीन और जल की समस्याओं के कारण कम होती उत्पादन दर और किसानों की आत्महत्याएं
  5. क्षेत्रों के अनुसार विकास में असमानताएं जैसे-कि सूखे क्षेत्रों में विकास दर घटी है

इस प्रकार उपरोक्त समस्याएं देश के कृषि क्षेत्र के आर्थिक विकास में बाधाएं बनकर उभरी हैं।

5.4 सामाजिक विकास की समस्याएं

समावेशी विकास की उपलब्धि में सामाजिक विकास एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। सामाजिक क्षेत्र की कुछ समस्याएं इस प्रकार हैः

  1. क्षेत्रीय सामाजिक व लिंग के आधारों पर बड़ी असमानताएं
  2. सार्वजनिक खर्च (विशेषकर स्वास्थ्य मद में) का निम्न स्तर व धीमा विकास
  3. निम्न गुणवत्ता वितरण प्रणाली
  4. अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लिए निम्नतम सामाजिक संकेतक
  5. बच्चों का कुपोषण एक बड़ी समस्या है
  6. बीपीओ भारत में बहुराष्ट्रीय संस्कृति लाये हैं, लेकिन वैश्विक मंदी के कारण यह क्षेत्र भारी दबाव में है
  7. सांस्कृतिक और धार्मिक असमानताओं के सख्त प्रभाव के कारण भारत में सामाजिक विकास अभी भी निम्न स्तर पर है

समावेशी विकास का दृष्टिकोण गरीबी निवारण के परम्परागत उद्देश्य के परे अवसरों की समानता होना चाहिए, और साथ ही समाज के सभी वर्गों विशेषकर अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के लिए सकारात्मक प्रभाव के साथ आर्थिक व सामाजिक गतिशीलता होना चाहिए। सभी के लिए स्वतंत्रता और गरिमा के साथ बिना किसी राजनीतिक या सामाजिक भेदभाव के अवसरों की समानता होनी चाहिए। इसके साथ ही आर्थिक व समाजिक प्रगति के लिए भी अवसरों में सुधार होना चाहिए। विशेष तौर पर, पिछड़े समूहों के लोगों को विकास प्रक्रिया में भागीदार बनाने के लिए उन्हें कौशल विकास के अवसर उपलब्ध कराये जाने चाहिए।

हमें एक ऐसे सशक्तिकरण की आवश्यकता है जो सहभागिता की भावना सुनिश्चित करे, जो लोकतांत्रिक नीतियों की आवश्यकता है। इसलिए पिछड़े व अब तक दबे-कुचले समूहों का सशक्तिकरण समावेशी विकास का एक महत्वपूर्ण भाग है। भारत की लोकतांत्रिक नीतियां का उद्देश्य पंचायती राज संस्थानों की स्थापना के साथ ही, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं के लिए आरक्षण के साथ, समाज के सभी समूहों को अवसर उपलब्ध करना और सशक्तिकरण करना है। इन संस्थानों को स्थानीय स्तर पर और ज्यादा अधिकार और जिम्मेदारियां देकर ज्यादा प्रभावी बनाना चाहिए।

5.5 क्षेत्रीय असमानताएं 

भारत के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र में सांस्कृतिक एवं परम्परागत भिन्नताओं के कारण क्षेत्रीय असमानताएं बड़ी चिन्ता का विषय है। परम्परागत संस्कृति, जातिप्रथा और अमीरों और गरीबों के बीच के अंतर ने एतिहासिक रूप से कुछ वर्गों का समर्थन किया है। इसके परिणामस्वरूप क्षेत्रीय असमानतायें उत्पन्न हुईं, और यहाँ तक की, स्वतंत्रता के पश्चात भी यह जारी है। कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों के असमान क्षेत्रीय विकास के कारण कुछ क्षेत्रों का विकास बहुत तीव्रता से हुआ है।

6.0 भारत में समावेशी विकास रणनीतियों के समक्ष चुनौतियाँ 

ग्रामीण क्षेत्रों, ग्रामीण अधोसंरचना एवं कृषि में निवेश में क्रांतिकारी वृद्धि, किसानों को सहज ऋण उपलब्धता, सामाजिक सुरक्षा के साथ रोजगार में वृद्धि और शिक्षा और स्वास्थ्य मद में बजट में भारी बढ़ोŸारी के उपाय, समावेशी विकास की रणनीति के मुख्य तत्व हैं। सरकार को भी विधायी कानून बनाकर पिछड़े समूहों को सशक्त करने की कोशिश करनी चाहिए। 

बढ़ती गरीबी एक बहुत बड़ी चुनौती है। भारत में गरीबी निवारण एक दीर्घावधि लक्ष्य माना जाता है। यह आशा की जाती है कि पिछले वर्षों की तुलना में अगले 50 वर्षों में गरीबों की स्थिति में उन्नति होगी क्योंकि मध्यम वर्ग का प्रभाव बढ़ रहा है। एवं उससे एक ‘‘ट्रिकल-ड़ाऊन‘‘ प्रभाव पैदा होगा। शिक्षा पर ज़ोर, सरकारी नौकरियों में आरक्षण और महिलाओं तथा समाज के कमजोर तबको का बढ़ता सशक्तिकरण जैसे कारकों से भी गरीबी निवारण की उम्मीद है। कृषि विकास के लिए निजी निवेशक सूक्ष्म वित्तीय मदद से खाई पाटने में हिस्सेदारी कर सकते हैं। निजी क्षेत्र पर्यटन केन्द्रों और एतिहासिक इमारतों को विकसित कर सकते हैं तथा ग्रामीण उद्यमियों के साथ संयुक्त रूप से परम्परागत कलाओं एवं कौशलों को प्रोत्साहित कर सकते हैं। ब्याज दरों में बढ़ोतरी को रोकना, कृषि़ ऋण दरों को कम करना कृषि विकास के लिए आवश्यक है। गरीबी और बेरोजगारी निवारण की सरकारी योजनाएं (जिन्हांने पिछले दशकों में करोड़ों गरीबों और अकुशल श्रमिकों को आजीविका के लिए शहरी क्षेत्रां में भेजा है), व्यापार के लिए विŸाय सहायता प्रदान करना, कौशल विकास, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की स्थापना, सरकारी क्षेत्र में आरक्षण आदि के द्वारा समस्या को हल करने के प्रयास करने की जरूरत है। उदारीकरण के बाद सार्वजनिक क्षेत्र की घटती भूमिका ने बेहतर शिक्षा की आवश्यकता को रेखांकित किया हैं और आगे के सुधारों के लिए राजनैतिक दबाव भी बनाया है।

बाल श्रम गरीबी के साथ जुड़ी हुई एक जटिल समस्या है। भारत सरकार विश्व का सबसे बड़ा बाल श्रम निवारण कार्यक्रम चला रही है जिसमें लगभग ढ़ाई करोड़ बच्चों की प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य रखा गया है। इस योजना में अनेक गैर-सरकारी और स्वैच्छिक संगठन भी शामिल हैं। 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को जोखिम भरे उद्योगों में रोजगार देना प्रतिबंधित है और इस कानून को लागू करने के लिए विशेष जाँच प्रकोष्ठ भी राज्यों में गठन गठित हुए हैं। 

कानून को लागू करने में असमर्थता और गलत पुनर्वास नीतियों पर शीघ्र ध्यान देने की आवश्यकता है, जो कि समावेशी विकास हासिल करने में भारत के समक्ष एक चुनौती है। महिला सशक्तिकरण और क्षेत्रीय असमानताओं को दूर कर सामाजिक विकास संभव है। यद्यपि सरकार महिलाओं को आरक्षण देकर नारी सशक्तिकरण पर जोर दे रही है, तो भी इस दिशा में एक लम्बी दूरी तय करनी है। भारतीय महिलाओें ने राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष और रेलमंत्री जैसे बड़े पद हासिल कर वास्तव में एक रिकार्ड बनाया है, किंतु यदि समग्रता से देखा जाये तो स्थिति अच्छी नहीं है।

समावेशी विकास के लिए यह आवश्यक है कि महिलाओं को शिक्षा देकर उनकी क्षमता का विकास किया जाये ताकि उन्हें रोजगार के अवसर मिल सकें और वे आत्मनिर्भर बनें। भारत सरकार ने कई सुधारवादी कार्यक्रम लागू किये हैंः

  1. ग्रामीण अधोसरंचना (भारत निर्माण)
  2. रोजगार (माहात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार ग्यारण्टी योजना)
  3. क्षेत्रीय विकास (पिछड़ा जिला विकास कार्यक्रम)
  4. शिक्षा (सर्व शिक्षा अभियान)
  5. ग्रामीण स्वास्थ्य (राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन)
  6. शहरी अधोसरंचना (राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन)

7.0  11वीं पंचवर्षीय योजना और समावेशी विकास 

11वीं योजना में सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी) वृद्धि दर 10 वीं योजना की 7.7 प्रतिशत की तुलना में 7.9 प्रतिशत रही। किंतु समावेशी विकास की अच्छी गति नहीं देखने मिली। 11वीं योजना ने समावेशी विकास को परिभाषित करते हुए कहा, ‘’एक ऐसी विकास प्रक्रिया जो एक बड़े वर्ग के लिए विकास के रास्ते खोले और सभी के लिए समान अवसर प्रदान करे’‘। किन्तु अपेक्षानुरुप समग्रता कहीं दिखाई नहीं दी। यह समावेशी विकास कृषि वृद्धि, गरीबी की दर का घटना, शिक्षा, स्वास्थ्य, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के विकास आदि में दिखाई देना चाहिए, किन्तु फिर भी समावेशी विकास आशानुरुप नहीं रहा। इसकी व्याख्या में कहा जा सकता है किः 

  1. भारत, शायद गरीबी को छोड़कर, सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य से दूर है। 
  2. वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य बहुत अनिश्चित है।
  3. खाद्य पदार्थों, तेल और दूसरी आवश्यक साम्रगी की कीमतों पर वैश्विक दबाव बना हुआ है। (2014 में तेल पर दबाव कम हुआ)
  4. यूरोप, अमेरिका में संप्रभुऋण संबंधित समस्याओं, और अत्यधिक व्यापार-असंतुलन के कारण, विŸाय स्थितियों और विनिमय दरों का अनिश्चित होना।
  5. साक्षरता वृद्धि दर का लक्ष्य समाज के पिछड़े वर्गों और कमजोर तबकों के बीच हासिल नहीं होना।
  6. कृषि विकास दर का कमज़ोर होना।
  7. मनरेगा जैसी रोजगार योजना का भी सही नहीं होना। लालफीताशाही और भ्रष्टाचार का अनियंत्रित होना।

8.0  12 वीं पंचवर्षीय योजना और समावेशी विकास का प्रारूप

बारहवीं योजना के लिए योजना आयोग का दृष्टिकोण समावेशी विकास पैदा करने पर केंद्रित था। इसे प्राप्त करने की व्यापक रणनीति है कृषि उत्पादन को बढ़ावा देना और भारत के विनिर्माण क्षेत्र को विकसित कर रोजगार की निर्मिति करना। ग्रामीण अधोसंरचना का विकास एक और चुनौती है जिसका निवारण करना आवश्यक है। 

योजना आयोग ने भारतीय सरकारी कंपनी कोल इण्डिया के लिए एक वृहद् भूमिका की कल्पना की हैः ‘’कोल इण्डिया न केवल एक उत्खनन कंपनी होना चाहिए बल्कि इसे कोयले का वितरण भी करना होगा। हमें कोयला मांगों की पूर्ति करने के लिए कोयला आयात करने कि योजना बनाना चाहिए। और इस आयातित और घरेलू कोयले की आपूर्ति कोल इण्डिया द्वारा की जाना चाहिये।‘’

कुल मिलाकर 12वीं पंचवर्षीय योजना के प्रारंभिक चरण में ग्रामीण विकास और वृद्धि का वादा किया गया है। इन अर्थां में यह चीन की पंचवर्षीय योजना के समान ही है जिसमें चीन के ग्रामीणों की दशा सुधारने के लिए सरकार मध्य और पश्चिमी चीन में शहरीकरण और औद्योगिकीकरण को लगातार बढ़ावा दे रही है। वहीं भारत सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ आधुनिक सुविधायें उपलब्ध करवाकर उल्टे प्रवजन की नीति को बढ़ाने की कोशिश कर रही है किन्तु इसके साथ अराजकता न आए, यह ध्यान रखना होगा।

योजना आयोग के प्रस्तुतीकरण का मुख्य उद्देश्य ’‘गतिशील, अधिक समावेशी और स्थायी विकास‘‘ है। यह भी कहा गया कि 12 वीं पंचवर्षीय योजना का प्राथमिक उद्देश्य किसानों, लघु एवं कुटीर उद्योगों की तरक्की होगा। 

योजना आयोग द्वारा यह भी दावा किया गया कि समावेशी विकास के लिये हमें चाहिएः

  1. कृषि में उत्कृष्ट प्रदर्शन
  2. रोजगार के अवसरों, विशेष तौर पर विनिर्माण क्षेत्र में, का शीघ्रतापूर्वक निर्माण
  3. स्वास्थ्य, शिक्षा और दक्षता-विकास में मजबूत प्रयास
  4. गरीबी निवारण के कार्यक्रमों की प्रभावशीलता बढ़ाना
  5. सामाजिक रुप से कमजोर समूहों के लिए विशेष कार्यक्रम
  6. पिछड़े क्षेत्रों के लिए विशेष कार्यक्रम

12वीं पंचवर्षीय योजना के लक्ष्य ’समावेशी विकास’ की उपलब्धियों पर जोर देते हैं, किन्तु अभी भी ज्वलंत प्रश्न यह है कि क्या भारत इस बार समावेशी विकास की उपलब्धियों के लिए निर्धारित लक्ष्य हासिल कर पायेगा। 

साथ ही, योजना आयोग को समाप्त करने के पश्चात भारत में नियोजन का भविष्य भी अनिश्चित हो गया है। हम श्रेष्ठ की कामना कर सकते हैं।  


9.0 आक्सफैम वर्ल्ड इनक्लेवलिटी रिपोर्ट 2018

आर्थिक असमानता व्यापक एवं कुछ हद तक अपरिहार्य भी है। यदि बढ़ती असमानता पर निगरानी न रखी जाए, या इसका सामना ठीक तरह से ना किया जाता है तो यह विभिन्न प्रकार की राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक विनाश का कारण बन सकती है। आय-असमानता दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में अत्यंत भिन्न होती है। यह यूरोप में सबसे कम एवं मध्य-पूर्व में सबसे अधिक है।

2016 में, शीर्ष 10 प्रतिशत आय अर्जित करने वालों का हिस्सा, यूरोप में कुल राष्ट्रीय आय का 37 प्रतिशत, चीन में 41 प्रतिशत, रूस में 46 प्रतिशत, यूएस-कनाड़ा में 47 प्रतिशत था, एवं उप-सहारा अफ्रीका, ब्राजील एवं भारत में लगभग 55 प्रतिशत था। मध्य-पूर्व, हमारे अनुमानों के अनुसार जो दुनिया का सबसे असमान क्षेत्र है जहाँ, शीर्ष 10 प्रतिशत आय अर्जित करने वाले का हिस्सा कुल राष्ट्रीय आय का 61 प्रतिशत तक हैं।

9.1 तथ्य

हाल के दशकों में, लगभग सभी देशों में आय-असमानता बढ़ी है, लेकिन विभिन्न गति से, इससे पता चलता है कि असमानता को आकार देने में संस्थान एवं नीतियां मायने रखती हैं। 1980 के बाद से, उत्तरी अमेरिका, चीन, भारत एवं रूस में आय असमानता तेजी से बढ़ी है। यूरोप में असमानता में मामूली वृद्धि हुई है। एक व्यापक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से, यह असमानता में वृद्धि युद्धोपरांत समतावादी शासन के अंत का प्रतीक है, जिसने इन क्षेत्रों में अलग-अलग रूप धारण किए है।

वैश्विक स्तर पर, चीन में मजबूत वृद्धि के बावजूद, 1980 के बाद से असमानता तेजी से बढ़ी है। वैश्विक आबादी के सबसे गरीब आधे लोगों ने एशिया (विशेष रूप से चीन एवं भारत में) में उच्च विकास की दर देखी है। हालांकि, देशों में उच्च एवं बढ़ती असमानता के कारण, दुनिया के शीर्ष 1 प्रतिशत सबसे अमीर व्यक्तियों के पास 1980 के बाद से सबसे गरीब 50 प्रतिशत व्यक्तियों के धन के दोगुने के बराबर धन है। विश्व के सबसे गरीब 50 प्रतिशत लोगो एवं सबसे अमीर 1 प्रतिशत लोगों के बीच आय में वृद्धि सुस्त या शून्य भी रही है। इसमें सभी उत्तरी अमेरिकी एवं यूरोपीय निम्न-एवं मध्यम-आय वर्ग शामिल हैं।

9.2 गरीब सरकारें

पिछले दशकों में, देश अमीर हो गए हैं लेकिन सरकारें गरीब हो गई हैं। शुद्ध नीजी संपत्ति का शुद्ध राष्ट्रीय आय से अनुपात किसी देश में व्यक्तियों द्वारा कमाए गए धन की तुलना में सरकारों के पास उपलब्ध सार्वजनिक धन के कुल मूल्य को बताता है। निजी एवं सार्वजनिक धन का योग राष्ट्रीय धन के बराबर है। निजी एवं सार्वजनिक धन के बीच संतुलन असमानता के स्तर का एक महत्वपूर्ण निर्धारक है।

1980 के बाद से विभिन्न देशों में व्यक्तियों के बीच धन की असमानता बढ़ गई है। पिछले चालीस वर्षों में आय में असमानता बढ़ने एवं सार्वजनिक धन के निजी धन में बड़े हस्तांतरण से व्यक्तियों में असमानता बढ़ी है। हालाँकि, धन असमानता यूरोप में या संयुक्त राज्य अमेरिका में अपने शुरुआती बीसवीं सदी के स्तर तक नहीं पहुँची है। वैश्विक मध्यम वर्ग हमेशा की तरह निचोड़ा गया है।

देशों के भीतर बढ़ती हुई असमानता ने वैश्विक धन असमानता में वृद्धि करने में मदद की है। यदि हम चीन, यूरोप एवं संयुक्त राज्य अमेरिका के संयुक्त अनुभव द्वारा आविष्कृत वैश्विक प्रवृत्ति को मानते हैं, तो दुनिया के शीर्ष 1 प्रतिशत सबसे धनी लोगों की संपत्ति का हिस्सा 28 प्रतिशत से बढ़कर 33 प्रतिशत हो गया है, जबकि निचले हिस्से की हिस्सेदारी जो 1980 में 75 प्रतिशत थी 2016 के बीच लगभग 10 प्रतिशत हो गई।

9.3 कराधान

शीर्ष पर बढ़ती आय एवं धन असमानता का मुकाबला करने के लिए कर वृद्धि एक सिद्ध उपकरण है।

अनुसंधान बताते है कि असमानता का मुकाबला करने के लिए कर वृद्धि एक प्रभावी उपकरण है। कर की प्रगतिशील दरें न केवल कर-पश्चात असमानता को कम करती हैं, वे वेतन वृद्धि एवं धन संचय के लिए आक्रामक सौदेबाजी के माध्यम से विकास के बड़े हिस्सों पर कब्जा करने के लिए प्रोत्साहन को कम करके,कम आय वाले लोगों को कम कर, पूर्व-कर असमानता को भी कम कर सकती हैं।

1970 के दशक से 2000 के मध्य तक धनी एवं कुछ उभरते देशों में कर बढ़ोतरी तेजी से कम हो गई थी। 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद से, इसके नीचे की ओर जाने प्रवृत्ति समाप्त हो गई है एवं यहां तक कि कुछ देशों में विपरीत हो गई, लेकिन भविष्य में होने वाले परिवर्तन अनिश्चित हैं एवं यह लोकतांत्रिक विचार-विमर्श पर निर्भर करेगा। यह भी ध्यान देने योग्य है कि उच्चतर असमानता वाले उभरते देशों में वंशानुगत कर शून्य या उसके निकट हैं जो इन देशो में महत्त्वपूण कर सुधारों के लिए मौके छोड़ते हैं।

शिक्षा एवं अच्छे वेतनों वाली नौकरियों के लिए समान पहुंच जनसंख्या के सबसे गरीब आधे लोगों की स्थिर या सुस्त आय वृद्धि दर से निपटने के लिए महत्वपूर्ण है।

हालिया शोध से पता चलता है कि समान अवसर एवं शिक्षा के लिए असमान पहुंच की वास्तविकता एवं उसके सार्वजनिक उद्घोषणा में एक बड़ा अंतर हो सकता है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में, उन सौ बच्चों में से जिनके माता-पिता आय के सबसे कम 10 प्रतिशत में से हैं, केवल बीस से तीस ही कॉलेज जाते हैं। हालाँकि, यह आंकड़ा सर्वाधिक 10 प्रतिशत कमाने वाले पालकों के प्रकरण में नब्बे तक पहुँच जाता है।


10.0 असमानता समाधान ओक्सफैम इंडिया रिपोर्ट

असमानता अब केवल एक नैतिक एवं दार्शनिक चिंता नहीं है, लेकिन असमानता को कम करना एक लोकतांत्रिक समाज का केंद्रीय विषय है। असमानता के रुझान एवं आयाम इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारत न केवल एक उच्च असमानता वाला देश है, बल्कि यह भी कि पिछले दो दशकों में असमानताओं में वृद्धि हुई है। असमानता का बढ़ना न केवल आर्थिक आयामों में, बल्कि क्षैतिज असमानता के पहलुओं में भी स्पष्ट है, जिन्हें हाशिए पर रह रहे लोगो एवं बहिष्त समूहों के बीच के अंतर में वृद्धि करते हुए देखा गया है। यह भी स्पष्ट है कि असमानताओं में वृद्धि की प्रकृति न केवल प्रारंभिक धन से बल्कि अवसरों तक उपलब्धता में असमानताओं से भी निर्धारित होती है।

10.1 सामाजिक जोखिम

जिन लोगों के पास कम आर्थिक संसाधन एवं अवसरों के लिए असमान पहुंच है उनकी प्रगति उसी तरह से होने की संभावना नहीं है, जिस तरह से उन लोगों की होती है, जो कुछ आर्थिक संसाधनों को नियंत्रित करते हैं। वे फिर इसका उपयोग राजनीतिक निर्णयों, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं एवं सामाजिक सामंजस्य को प्रभावित करने के लिए कर सकते हैं। असमानता गरीब लोगों की जन्मजात क्षमताओं का पूरी तरह से उपयोग करना मुश्किल बना देगी। ऐसे आर्थिक एवं सामाजिक रूप से वंचित लोगों को मौजूदा व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह करने के लिए प्रलोभन दिया जा सकता है। इस तरह के विरोध प्रदर्शन को नियंत्रित करना महंगा होता है। अत्यधिक असमान समाज में विश्वास एवं सहयोग बनाए रखना भी मुश्किल होता है।

संसाधनों के अधिक समान वितरण से उपभोक्तावाद को रोका जा सकेगा। संसाधनों का उपयोग सभी के लिए जीवन की गुणवत्ता में सुधार एवं अधिक पर्यावरणीय स्थिरता के लिए किया जा सकता है। इनमें से अधिकांश लक्ष्यों को केवल असमानता को कम किए बिना गरीबी को कम कर के प्राप्त नहीं किया जा सकता है। पुनर्वितरण नीतियों से अनुपयोगी असमानताओं को कम करने में सहायता मिलेगी जिससे आर्थिक विकास होगा एवं गरीबी में कमी आएगी।

10.2 पिकेटी का दृष्टिकोण

पिकेटी (2014) इसके हालिया आलोचकों में से एक है, जो तर्क देते है कि असमानता एवं आर्थिक विकास इस तरह के प्राथमिक संबंधों का पालन नहीं करते हैं। आर्थिक विकास के मार्ग के साथ-साथ, असमानता के परिणाम भी नीति-प्रेरित हैं। पिकेटी के तर्क राजनीतिक अर्थव्यवस्था के .ष्टिकोण में निहित हैं जो बताते है कि आर्थिक विकास वास्तव में अमीरों के बीच धन एवं आय की एकाग्रता में वृद्धि कर सकता है। पिकेटी ने तर्क दिया है कि एक बाजार-आधारित अर्थव्यवस्था, जो स्वयं के लिए छोड़ दी गई है, में अभिसरण एवं विचलन के शक्तिशाली बल शामिल हैं। यह दिखाने के लिए पर्याप्त सबूत हैं कि असमानता के परिणाम विकास की प्रकृति का परिणाम नहीं हैं। पर्याप्त संकेत भी है कि असमानता में कमी नीतिगत हस्तक्षेप के बिना प्राप्त करने योग्य नहीं है। 

इनमें प्रगतिशील कराधान, परिसंपत्तियों एवं आय का पुनर्वितरण एवं सामाजिक खर्च एवं आवश्यक वस्तुओं एवं सेवाओं के सार्वजनिक प्रावधान के संदर्भ में राज्य का समर्थन शामिल है। भारतीय संदर्भ में, सार्वजनिक व्यय के निम्न स्तर एवं राजकोषीय घाटे को बनाए रखने, एवं मनरेगा जैसी सामाजिक कल्याण योजनाओं एवं भोजन के अधिकार जैसी नीतियों के बारे में बहस चल रही है।

परिणामों की असमानताओं एवं अवसरों की असमानताओं को कम करने में सफलता न केवल बाजारों का एक कार्य है, बल्कि इसके लिए राज्य को एक केंद्रीय भूमिका निभाने की आवश्यकता है। एक लोकतांत्रिक समाज में राज्य, कम से कम, परिणामों एवं अवसरों में समानता को प्रोत्साहित करने का नैतिक दावा करता है। जबकि इसके लिए राज्यों को सभी के लिए समान-स्तरीय खेल मैदान प्रदान करने के लिए बाजारों के कुशल विनियमन में एक सक्रिय भूमिका निभाने की आवश्यकता है, यह भी विकास एवं विकास की प्रक्रिया में प्रत्येक नागरिक द्वारा समान भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए पुनर्वितरण एवं सकारात्मक कार्रवाई की जिम्मेदारी है।

10.3  1991 के आर्थिक सुधार

अब एक स्पष्ट प्रमाण है कि 1990 के बाद से आर्थिक विकास की प्रकृति ने असमानताओं को बढ़ाया है। इसके अलावा व्यक्तियों, समुदायों एवं धार्मिक समूहों को हाशिए पर रखा गया है। 1990 के दशक से आर्थिक नीतियों की प्र.ति ने बुनियादी सेवाओं के प्रावधान सहित लगभग सभी क्षेत्रों में निजी क्षेत्र को अधिक से अधिक भूमिका की अनुमति दी है। एक ओर जहाँ, बुनियादी सेवाओं को प्रदान करने की राज्य की आवश्यक भूमिका जो आर्थिक परिणामों को आकार देती हैसे राज्य की वापसी इसके समावेशी साधन के रूप में उपयोगी होने को समाप्त कर देती है वहीं दूसरी ओर, 1990 के दशक की शुरुआत से चली आ रही आर्थिक नीतियों की प्रकृति ने राज्य के हाल के दशकों में बढ़ती असमानता के मूक सूत्रधार होने के दावे को भी मजबूत किया है। यह क्रोनी पूंजीवाद के बढ़ते उदाहरणों एवं गरीबों की कीमत पर अमीरों को तरजीह देने एवं हाशिए पर खड़े लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए राज्य की अक्षमता के मामले में देखा गया है।

10.4 लोकतांत्रिक राजनीति का दबाव

लोकतांत्रिक राजनीति के दबावों ने राज्य की नीतियों एवं पुनर्वितरण हस्तांतरण के कार्यक्रमों एवं पेंशन, शिक्षा एवं पोषण पर उन लोगों के बढ़ते खर्चों के माध्यम से प्रतिक्रिया देखी है एवं इन मूल अधिकारों में से कुछ की मान्यता कानूनी अधिकारों के रूप में लागू की गई है जैसे कि मनरेगा, आरटीई एवं एनएफएसए। हालांकि ये समावेश के उपकरणों के रूप में इनका उपयोग करने के थोड़े प्रयास के साथ प्रतीकात्मक बने हुए हैं। ये हाशिए पर ले जाने एवं अपवर्जन को बढ़ाने की योजनाओं के साथ हैं; यूआईडी/आधार इसका एक अच्छा उदाहरण है, जो गरीबों के खिलाफ राज्य के बुनियादी अविश्वास को उजागर करता है।

अविश्वास जाति, धर्म एवं क्षेत्र की तर्ज पर विभाजित समुदायों के बीच भी स्पष्ट है। हाल के वर्षों में जाट, पटेल एवं मराठा जैसे प्रमुख किसान समूहों द्वारा आरक्षण की मांग में वृद्धि देखी गई है। मराठों के मामले में, यह दलितों के खिलाफ गुस्सा भी था। ये मुद्दे अलगाव, भेदभाव एवं बहिष्कार की बढ़ती भावना से उत्पन्न होते हैं एवं अब सड़क विरोध प्रदर्शन में शामिल हो रहे हैं। यही हाल उन किसानों का है जो अलग-अलग स्तरों पर सामने आए एवं विरोध प्रदर्शन किया। अवसर की असमानता बुनियादी सेवाओं तक पहुंच द्वारा निर्धारित की जाती है एवं यह मौजूदा सामाजिक व्यवस्था पर ध्यान केंद्रित करती है। विशेष रूप से, मुसलमानों के साथ एससी/एसटी परिवारों की गतिशीलता की कमी समाज में उनके शामिल होने की समस्याओं को जारी रखेगी। अस्थायी राहत प्रदान करने का एक तरीका समस्या को लटकाए रखना होगा, लेकिन शासन एवं आर्थिक नीति के बुनियादी ढांचे को बदलने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति, जो कि अब तक एक मूक दर्शक बनी हुई है, को होना, वास्तविक समाधान है।

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Raj,1,Institutionsandbodies,1,Instiutions and Bodies,1,Intelligence and security,1,International Institutions,10,international relations,2,Internet,11,Inventions and discoveries,10,Irrigation Agriculture Crops,1,Issues on Environmental Ecology,3,IT and Computers,23,Italy,1,January 2020,26,January 2021,25,July 2020,5,July 2021,207,June,1,June 2020,45,June 2021,369,June-2021,1,Juridprudence,2,Jurisprudence,91,Jurisprudence Governance and Institutions,1,Land reforms and productivity,15,Latest Current Affairs,1136,Law and order,45,Legislature,1,Logical Reasoning,9,Major events in World History,16,March 2020,24,March 2021,23,Markets,182,Maths Theory Booklet,14,May 2020,24,May 2021,25,Meetings and Summits,27,Mercantilism,1,Military and defence alliances,5,Military technology,8,Miscellaneous,454,Modern History,15,Modern historym,1,Modern technologies,42,Monetary and financial policies,20,monsoon and climate change,1,Myanmar,1,Nanotechnology,2,Nationalism and protectionism,17,Natural disasters,13,New Laws and amendments,57,News media,3,November 2020,22,Nuclear technology,11,Nuclear techology,1,Nuclear weapons,10,October 2020,24,Oil economies,1,Organisations and treaties,1,Organizations and treaties,2,Pakistan,2,Panchayati Raj,1,Pandemic,137,Parks reserves sanctuaries,1,Parliament and Assemblies,18,People and Persoalities,1,People and Persoanalities,2,People and Personalites,1,People and Personalities,189,Personalities,46,Persons and achievements,1,Pillars of science,1,Planning and management,1,Political bodies,2,Political parties and leaders,26,Political philosophies,23,Political treaties,3,Polity,485,Pollution,62,Post independence India,21,Post-Governance in India,17,post-Independence India,46,Post-independent India,1,Poverty,46,Poverty and hunger,1,Prelims,2054,Prelims CSAT,30,Prelims GS I,7,Prelims Paper I,189,Primary and middle education,10,Private bodies,1,Products and innovations,7,Professional sports,1,Protectionism and 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Sessions,3,Taxation,39,Taxation and revenues,23,Technology and environmental issues in India,16,Telecom,3,Terroris,1,Terrorism,103,Terrorist organisations and leaders,1,Terrorist acts,10,Terrorist acts and leaders,1,Terrorist organisations and leaders,14,Terrorist organizations and leaders,1,The Hindu editorials analysis,58,Tournaments,1,Tournaments and competitions,5,Trade barriers,3,Trade blocs,2,Treaties and Alliances,1,Treaties and Protocols,43,Trivia and Miscalleneous,1,Trivia and miscellaneous,43,UK,1,UN,114,Union budget,20,United Nations,6,UPSC Mains GS I,584,UPSC Mains GS II,3969,UPSC Mains GS III,3071,UPSC Mains GS IV,191,US,63,USA,3,Warfare,20,World and Indian Geography,24,World Economy,404,World figures,39,World Geography,23,World History,21,World Poilitics,1,World Politics,612,World Politics.UPSC Mains GS II,1,WTO,1,WTO and regional pacts,4,अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं,10,गणित सिद्धान्त पुस्तिका,13,तार्किक कौशल,10,निर्णय क्षमता,2,नैतिकता और मौलिकता,24,प्रौद्योगिकी पर्यावरण मुद्दे,15,बोधगम्यता के मूल तत्व,2,भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास,47,भारत का स्वतंत्रता संघर्ष,19,भारत में कला वास्तुकला एवं साहित्य,11,भारत में शासन,18,भारतीय कृषि एवं संबंधित मुद्दें,10,भारतीय संविधान,14,महत्वपूर्ण हस्तियां,6,यूपीएससी मुख्य परीक्षा,91,यूपीएससी मुख्य परीक्षा जीएस,117,यूरोपीय,6,विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं,16,विश्व एवं भारतीय भूगोल,24,स्टडी मटेरियल,266,स्वतंत्रता-पश्चात् भारत,15,
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PT's IAS Academy: यूपीएससी तैयारी - भारतीय अर्थव्यवस्था के आधारभूत तत्व - व्याख्यान - 4
यूपीएससी तैयारी - भारतीय अर्थव्यवस्था के आधारभूत तत्व - व्याख्यान - 4
सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
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