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भारत में धार्मिक और सामाजिक सुधार (भाग 2)
1.0 स्वामी विवेकानंद (1863-1902)
हमारे देश के हालिया इतिहास में स्वामी विवेकानन्द बहुत महत्वपूर्ण शख्सियतों में से एक हैं। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्रनाथ था। उनका जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता के विश्वनाथ दत्त और भुवनेश्वरी देवी के यहाँ हुआ था।
उन्होंने संस्कृत, रामायण, महाभारत और पुराणों आदि का अध्ययन किया। तीक्ष्ण मेधावी छात्र होने के नाते वह चीजों को बहुत जल्दी सीख जाते थे। उन्होंने ईश्वरचन्द विद्यासागर द्वारा संचालित विद्यालय से अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण की। तीन साल का सेकेण्डरी पाठ्यक्रम मात्र एक वर्ष में पूर्ण कर, उन्होनें विशेष योग्यता के साथ सोलह वर्ष की आयु में कॉलेज में प्रवेश लिया जहाँ उन्होंने दर्शन शास्त्र व तर्कषास्त्र का अध्ययन किया। उन्होंने अंग्रेज़ी पर जबरदस्त अधिकार प्राप्त कर लिया और वाक्पटु वक्ता के रुप में उभरे।
1.1 रामकृष्ण परमहंस से मुलाकात
उनका ध्यान सांसारिक कार्यों की ओर बिल्कुल नहीं था। आध्यात्मिकता की ओर उनके झुकाव के बारे में उन्होंने अपने माता-पिता को भी बता दिया और स्वामी रामकृष्ण परमहंस से मिलने दक्षिणेश्वर पहुँचे। स्वामी रामकृष्ण के अनुरोध पर नरेन्द्रनाथ ने कुछ भक्तिपूर्ण भजन गाए। स्वामी रामकृष्ण उनके भजनों को सुनकर भाव-विभोर हो गये।
नरेन्द्रनाथ ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने भगवान को देखा है? उन्होंने नरेन्द्रनाथ को बताया कि वे उस भावातीत अवस्था में ईश्वर को देख सकते थे। स्वामी रामकृष्ण ने आगे कहा कि यदि कोई पूर्ण समर्पण के साथ ईश्वर की प्रार्थना करे तो कोई भी उन्हें देख सकता है। नरेन्द्रनाथ स्वामी रामकृष्ण परमहंस के समर्पित शिष्य बन गये। जब नरेन्द्रनाथ के पिता की मृत्यु हुई तब पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को पूर्ण करने के लिए उन्हें शिक्षक का कार्य करना पड़ा।
नरेन्द्रनाथ को ‘‘विवेकानंद’’ की उपाधि खेत्री के महाराजा ने दी थी।
विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस के धार्मिक संदेशों को लोकप्रिय बनाया और उन्हें ऐसा रुप देने कि कोशिश की जो समकालीन भारतीय समाज के अनुरुप हों। उन्होंने सामाजिक कार्य पर जोर देते हुए इसे प्रत्येक व्यक्ति का महत्वपूर्ण कर्तव्य बताया। उन्होंने कहा कि जिस विष्व में हम जीते हैं वहां बिना कर्म के ज्ञान अर्थहीन है। अपने गुरु के समान उन्होंने भी सारे धर्मों की एकता की आवश्यकता की घोषणा की और धार्मिक मामलों में संकीर्णता की आलोचना भी की। 1898 में उन्होंने लिखा, ‘‘हमारी मातृभूमि के लिए हिंदू धर्म और इस्लाम का सही मेल ही एकमात्र आषा है’’। वे भारतीय दर्शन परम्परा की सर्वोच्चता के प्रति आश्वस्त थे, विशेषकर वेदांत दर्शन के, जिसे उन्होंने पूर्ण वैज्ञानिक पद्धति घोषित किया।
1.2 धर्म पर विवेकानंद के विचार
विवेकानन्द ने भारतीयों की इस बात के लिए आलोचना की कि शेष संसार से भारतीयों ने सम्पर्क काट एक गतिरोध तैयार कर लिया है। अपने पूरे जीवन भर वे भारतीयों को कर्म का महत्व बताते रहे। उन्होंने लिखा, ‘‘हमारे पतन का एक मात्र कारण इस तथ्य में निहित है कि हमने स्वयं को शेष संसार से विलगित कर रखा है और इसका एकमात्र उपचार यह है कि हम संसार की मुख्य धारा से पुनः जुड़ें। गति जीवन की निशानी है’’। विवेकानन्द ने जातिप्रथा की आलोचना की और समकालीन हिन्दू समाज में फैले हुये रूढ़ीवाद और अंधविश्वासों पर प्रहार किया। उन्हांने लोगों से मुक्ति की भावना को समझने, स्वतंत्र विचारधारा और समानता को ग्रहण करने का आव्ह्ान किया। एक बार उन्होंने कहा :
‘‘रसोई में पहुँचने से हमारे धर्म का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। न तो हम वैदान्तिक है और ना ही पौराणिक और ना ही तांत्रिक। हम केवल अस्पृष्यतावादी है। हमारा धर्म रसोई में सिमट गया है, हमारा ईश्वर खाना बनाने के बर्तनों में है, और हमारा धर्म - मैं पवित्र हूँ मुझे मत छूना - कहने में है। यदि यह सब एक और शताब्दी तक चलता रहा, तो हममें से प्रत्येक पागलखाने में होगा’’।
विवेकानन्द एक महान मानवतावादी भी थे। गरीबी, दुखः और देश के आम आदमी की पीड़ाओं से द्रवित हो उन्होंने लिखाः
‘‘एक मात्र ईश्वर जिस पर मैं विश्वास करता हूँ वह सभी आत्माओं का मेल है और इससे भी परे सभी जातियों के गरीबों, बुरे लोगों और परेशान लोगों का भगवान ही मेरा भगवान है’’।
शिक्षित भारतीयों के लिए उन्होंने कहाः
‘‘जब तक करोड़ों भारतीय भुखमरी और अज्ञानता में जी रहे हैं, मैं उन सभी शिक्षित लोगों को जिन्होनें उनके खर्च पर शिक्षा पाई है और उनके भले के लिए कुछ भी नहीं किया, को धोखेबाज मानता हूँ’’।
1.3 शिकागो का प्रसिद्ध उद्बोधन (1893)
1893 में शिकागो, यू.एस.ए. में विश्व धर्म संसद की सभा बुलाई गई। खेत्री के महाराजा से आर्थिक मदद लेकर विवेकानंद शिकागो पहुँचे और श्रोताओं को हिन्दू धर्म की महानता के बारे में उद्बोधित किया। उनके भाषण की शुरूआत ‘‘मेरे प्यारे अमेरिकी भाईयों और बहनों.....’’ जैसे शब्दों से हुई। इसने श्रोताओं को रोमांचित कर दिया क्योंकि इसमें विश्व बंधुत्व की भावना निहित थी। वापस लौटते हुए उन्होंने लंदन में सभाओं को संबोधित किया। मारग्रेट नोबल नाम की एक युवा महिला उनकी शिष्या बन गई और उनके ध्येय को पूरा करने के लिए वे सिस्टर निवेदिवा बनकर भारत में रही।
1.4 रामकृष्ण मिशन
1896 में विवेकानन्द ने मानवतावादी कार्य और सामाजिक गतिविधियां करने के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। देश के विभिन्न भागों में मिशन की कई शाखायें थीं जिनके माध्यम से स्कूल, चिकित्सालय, अनाथालय, पुस्तकालय आदि के माध्यम से समाज सेवा की गई। इस प्रकार यह व्यक्तिगत मुक्ति पर जोर देने की अपेक्षा सामाजिक सेवा पर ध्यान देता रहा।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि आज का युवा उद्देश्यहीन होकर भटक रहा है। उसे सही आध्यात्मिक मार्ग दर्शन की आवश्यकता थी। उन्हांने महसूस किया कि धर्म व्यक्ति को उचित नैतिक मार्ग पर ले जा सकता है। उनका विश्वास था कि सारे संसार के लोग एक ही हैं। रंग, जाति, धर्म, पंथ समुदाय आदि का कोई अर्थ नहीं है। उन्होंने महसूस किया कि अभी बहुत कुछ हासिल किया जाना है और इसलिए युवाओं से कहा कि वे आगे की ओर बढ़ें। उनके शब्द थे, ‘‘उठो, जागो और तब तक ना रुको जब तक कि लक्ष्य हासिल ना हो’’। स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन के छत्र तले सेवा के अपने संदेश को फैलाने के लिए कई संस्थानों की स्थापना की। 4 जुलाई 1902 को मात्र 39 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
एक आधुनिक अध्यात्मिक विचारक के रुप में स्वामी विवेकानन्द का संदेश भारतीयों के लिए अविवादास्पद रुप से सर्वोत्तम है।
2.0 स्वामी दयानन्द और आर्य समाज
आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में की। इसने उत्तर भारत में हिन्दू धर्म को सुधारने का काम हाथ में लिया। स्वामी दयानंद का मानना था कि स्वार्थी और अज्ञानी पोंगा पंडितों ने हिन्दू धर्म को बिगाड़ दिया है। उनके अनुसार झूठे पुराणों की मदद से हिन्दू धर्म को बहुत नुकसान पहुँचाया गया है। स्वामी दयानन्द ने अपनी प्रेरणा वेदों को माना - जो उनके अनुसार ईश्वर के शब्द और ज्ञान का स्त्रोत हैं। उन्होने बाद के उन धार्मिक विचारों को जिनका वेदों से टकराव था, को नकार दिया। वेदों पर पूर्ण निर्भरता और उन्हे त्रुटिहीन मानने के कारण कहीं कहीं उनके विचार रूढ़िवादी नजर आते हैं। वे तर्कवादी नजर आते हैं क्योंकि, वेद, यद्यपि दिव्य रूप से प्रकट हुए तो भी उनके स्वयं और अन्य लोगों के द्वारा इनकी तार्किक व्याख्या की गई। इस प्रकार व्यक्तिगत तक ही महत्वपूर्ण था।
उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर से सीधे साक्षात्कार का अधिकार था। उन्होंने हिन्दू रूढ़िवादियों का समर्थन करने की अपेक्षा इस पर तीक्ष्ण प्रहार कर इसके विरुद्ध विद्रोह किया। वेदों की उनकी व्याख्या का निष्कर्ष देश के अन्य धार्मिक और सामाजिक सुधारकों के समान ही था। वे मूर्तिपूजा, रूढ़िवाद, पुरोहितवाद और मुख्यतः जातिवाद तथा ब्राहम्णों द्वारा बताये जाने वाले लोकप्रिय हिन्दू धर्म के विराधी थे। उन्होंने उन समस्याओं पर सीधा ध्यान दिया, जिन्हें मनुष्य इस वास्ततिक संसार में भोगता है, और परम्परा और विश्वासों से दूर रहे। उन्होंने पाश्चात्य विज्ञान के अध्ययन का समर्थन किया। यहाँ यह जानना रोचक होगा कि स्वामी दयानन्द, केशवचन्द्र सेन, विद्यासागर, जस्टिस रानाड़े, गोपाल हरि देशमुख जैसे आधुनिक धार्मिक व सामाजिक सुधारकों से मिलकर महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा कर चुके थे। वास्तव में, आर्य समाज का रविवार की सभा का विचार, ब्रह्मो समाज व प्रार्थना समाज से मेल खाता था।
स्वामी दयानन्द के कुछ अनुयायियों ने बाद में पाश्चात्य तर्ज़ पर शिक्षा देने के लिए देशभर में विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की श्रृंखला की स्थापना की। इन प्रयासों में लाला हंसराज ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दूसरी ओर, 1902 में, स्वामी श्रृद्धानंद ने शिक्षा में परम्परागत आदर्शों की स्थापना का प्रचार प्रसार करने के लिए हरिद्वार के निकट गुरूकुल प्रारम्भ किया।
आर्य समाजी समाज सुधार के प्रबल पक्षधर थे और उन्होने महिलाओं की दशा सुधारने, और उनमें शिक्षा का प्रसार करने के लिए सक्रियता से कार्य किया। इस प्रकार वे सामाजिक समरसता के पक्षधर थे और इसे प्रसारित करने का पूरा प्रयास किया। उन्होंने आम जनता में आत्म-सम्मान व आत्म-विश्वास की भावना का विकास किया। इससे राष्ट्रवाद का भी विकास हुआ। इसी के साथ-साथ, आर्य समाज का एक उद्देश्य हिन्दुओं का धर्म-परिवर्तन रोकना भी था। इससे दूसरे धर्मों के विरुद्ध एक किस्म का धर्म युद्ध आरम्भ हुआ, और यही आगे चलकर 20वीं शताब्दी में साम्प्रदायिकता के विकास में सहायक तत्व सिद्ध हुआ। जहाँ एक ओर, आर्य समाज के सुधारक सामाजिक बुराईयों को दूर करने और लोगों को एक करने का काम कर रहे थे, इसके धार्मिक कार्यो ने अनजाने में ही हिन्दू-मुसलमानों-पारसियों-सिक्खों व ईसाइयों के बीच बढ़ती राष्ट्रीय एकता को विभाजित किया क्योंकि आर्य समाज धार्मिक-शिक्षा पर ज़्यादा जोर देता था। यह नहीं देखा गया कि भारतीय राष्ट्रीय एकता धर्मनिरपेक्ष और धर्म से परे हो ताकि यह सभी धर्मों को शामिल कर सके।
3.0 थियोसॉफिकल सोसायटी
थियोसॉफिकल सोसायटी की स्थापना मैडम एच. पी. ब्लावत्स्की और कर्नन एच. एस. ऑल्काट ने अमेरिका में की, जो बाद में भारत आ गये और 1886 में मद्रास के निकट अड़यार में सोसायटी का मुख्यालय स्थापित किया। थियोसॉफिस्ट आन्दोलन शीघ्र ही भारत में भी फैल गया क्योंकि इसे श्रीमती ऐनी बेसेन्ट, जो 1893 में भारत में आई थीं, का नेतृत्व मिला। थियोसॉफिस्ट लोगों ने प्राचीन हिन्दू, पारसी और बौद्ध धर्म के पुनर्जागरण पर ध्यान दिया। उन्होंने आत्मा के सिद्धांत पर जोर दिया। उन्होंने विश्वबंधुत्व की भावना का भी उपदेश दिया। एक धार्मिक-पुर्नजागरणवादी के रूप में थियोसॉफिस्ट ज्यादा सफल नहीं हुए। किन्तु उन्होंने आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रारम्भ किया गया एक आन्दोलन था, जिसने भारतीय धार्मिक व दार्शनिक परम्परा को गौरवान्वित किया। इससे भारतीयों को उनका आत्म-विश्वास प्राप्त करने में मदद मिली, यहाँ तक कि इससे उन्हे अपने भूतकाल की महानता के बारे में गर्व करने का अवसर भी मिला। श्रीमती बेसेन्ट की भारत में हासिल कई उपलब्ध्यिं में से एक बनारस में सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल की स्थापना भी थी, जिसे बाद में पं. मदनमोहन मालवीय ने प्रसिद्ध बनारस हिन्दू विष्वविद्यालय के रूप में विकसित किया।
4.0 सैय्यद अहमद खान और अलीगढ़ स्कूल
उच्चवर्गीय मुसलमान पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति से दूरी बनाकर रखना चाहते थे। अतः मुसलमानों में धार्मिक सुधारों का उदय देर से हुआ। यह मुख्यतः 1857 के विद्रोह के बाद ही हुआ कि धार्मिक सुधारों के आधुनिक विचारों का उदय हुआ। इस दिशा में शुरूआत 1863 में तब हुई जब ‘मोहम्मडन लिटरेरी सोसायटी‘ का गठन कलकत्ता में किया गया। इस सोसायटी ने आधुनिक विचारों के प्रकाश में धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक प्रश्नों पर चर्चाएं आयोजित कीं और उच्च व मध्यमवर्गीय मुसलमानों को पश्चिमी शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया।
सैय्यद अहमद खान (1817-98) मुसलमानों के मध्य सबसे महत्वपूर्ण सुधारक थे। वे आधुनिक वैज्ञानिक विचारों से बहुत प्रभावित थे और जीवन-पर्यंन्त इसे इस्लाम से जोड़ने की कोशिश करते रहे। सबसे पहले उन्होंने ऐसा कुरान को इस्लाम का एकमात्र अधिकृत ग्रंथ घोषित कर किया, और उन्होंने दूसरे सारे इस्लामिक लेखन को द्वितीयक घोषित किया। यहाँ तक कि उन्होंने कुरान की व्याख्या भी समकालीन तार्किक और वैज्ञानिक प्रकाश में की। उनके दृष्टिकोण में कुरान की कोई भी ऐसी व्याख्या जो मानवीय तर्क, विज्ञान या प्रकृति से टकराव उत्पन्न करती हो वास्तव में गलत व्याख्या ही होगी। उन्होने कहा कि कोई भी धार्मिक सिद्धान्त अपरिवर्तनीय नहीं है। यदि धर्म समय के साथ बदलता नहीं है, तो यह पुराना और उपयोगहीन हो जायेगा जैसा कि भारत में हुआ। जीवन पर्यन्त वह परम्पराओं के प्रति अंधश्रृद्धा, और निर्भरता, अज्ञानता और तर्कहीनता से संघर्ष करते रहे। उन्होंने लोगों से एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण और विचारों की स्वतंत्रता विकसित करने का आव्हान किया। उन्होने घोषित किया कि जब तक विचारों की स्वतंत्रता विकसित नहीं हो जाती, तब तक सभ्य जीवन सम्भव नहीं है। उन्होंने अतिवाद, संकीर्णता आदि के विरुद्ध चेतावनी देते हुए छात्रों और अन्य लोगों को सहनशील और उदारवादी होने का आव्हान किया। एक बन्द मस्तिष्क सामाजिक व बौद्धिक पिछड़ेपन की निशानी है।
उस समय के दूसरे सुधारकों के समान ही सैय्यद अहमद खान का भी मानना था कि मुसलमानों का धार्मिक व सामाजिक जीवन, आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिक ज्ञान द्वारा संस्कृति की शिक्षा द्वारा ही सुधारा जा सकता है। अतः आधुनिक शिक्षा का विकास, जीवन-पर्यन्त उनका प्रमुख उद्देश्य रहा। एक अधिकारी के रुप में उन्होनें कई शहरों में स्कूलों की स्थापना की और कई पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद भी किया। 1857 में उन्होंने मोहम्मड़न एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना अलीगढ़ में एक ऐसे केन्द्र के रुप में की जहाँ से पाश्चात्य वैज्ञानिक संस्कृति का प्रचार किया जा सके। बाद में यह कॉलेज, अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी में बदल गया।
4.1 धार्मिक सहिष्णुता
सैय्यद अहमद खान धार्मिक सहिष्णुता में विश्वास रखते थे। उनका विश्वास था कि सभी धर्मों में कुछ आधारभूत समानताएँ होती हैं जिसे प्रायोगिक नैतिकता कहा जा सकता है। किसी भी व्यक्ति का धर्म उसका निजी मामला होता है, यह विश्वास करते हुए उन्होंने व्यक्तिगत सम्बंधों में किसी धार्मिक अतिवादी विचारों की आलोचना की। उन्होंने साम्प्रदायिक अलगाव की भी आलोचना की।
1883 में हिन्दूओं और मुसलमानों से एक होने का आव्हान करते हुए उन्होंने कहाः
‘‘अब हम दोनों ही भारत की हवा में जीते हैं, गंगा-जमुना का पवित्र जल पीते हैं। भारत भूमि की फसलों को हम दोनो खाते हैं। हम जीवन और मृत्यु में साथ-साथ हैं; भारत में रहते हुए हमने हमारा खून और चमड़ी का रंग बदल लिया है और हम एक समान हो गये हैं। हमारे गुणधर्म एक से हो गये हैं; मुसलमानों ने कई हिन्दू परम्पराओं और हिन्दूओं ने कई मुस्लिम तौर-तरीकों को अपना लिया है, हम इतने घुल-मिल गये हैं कि हमने एक नई भाषा उर्दू का विकास कर लिया है, जो न तो हमारी भाषा थी और न ही हिन्दुओं की। इसलिए यदि हम हमारे जीवन के उस हिस्से को छोड़ देते हैं जहाँ हम भगवान/अल्लाह को मानते हैं, तो भी अविवादास्पद रुप से यह तथ्य मानना होगा कि हम दोनों एक ही देश से हैं, हम एक देश हैं, और देश का, तथा हम दोनों का भी, विकास और कल्याण हमारी एकता, आपसी सहानुभूति और प्यार पर निर्भर करता है, जबकि आपसी असहमति, झगड़े और विरोध और दुर्भावना हमें निश्चित ही बर्बाद कर देगी।’’
उनके महाविद्यालय के लिए हिन्दुओं, पारसियों और इसाईयों ने भी मुक्त हस्त से दान दिया, तथा महाविद्यालय के दरवाजे़ सभी भारतीयों के लिए हमेशा खुले रहते थे। 1898 में वहाँ 64 हिन्दू और 285 मुस्लिम छात्र थे। सात भारतीय शिक्षकों में से दो हिन्दू थे, जिनमें से एक संस्कृत के प्राध्यापक थे। यद्यपि उनके जीवन के अन्तिम वर्षों में, उन्होंने अपने अनुयायियों को राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ने से रोकने के लिए हिन्दू प्रभाव की बात करना प्रारम्भ कर दी थी। यह दुर्भाग्यपूर्ण था, यद्यपि वह मूलतः साम्प्रदायिक नहीं थे। वह केवल मुस्लिम मध्यमवर्ग और उच्च वर्ग का पिछड़ापन दूर करना चाहते थे।
4.2 राजनीतिक सिद्धांत
उनकी राजनीति, इस दृढ़ विश्वास पर आधारित थी कि तत्काल कोई राजनीतिक प्रगति सम्भव नहीं है क्योंकि ब्रिटिश शासन को आसानी से हटाया नहीं जा सकता। दूसरी ओर, सरकारी अधिकारियों से किसी भी प्रकार की शत्रुता उनके शैक्षणिक प्रयासों के लिए खतरा हो सकती थी, जो उनकी नजर में उस समय की प्रमुख आवश्यकता थी। उनका मानना था कि जिस दिन भारतीय विचारों और कर्मों से अंग्रेजों जितने आधुनिक हो जायेंगे, तो वे उन्हें आसानी से चुनौती दे पायेंगे। इन अर्थों में वे कांग्रेस के उदारवादियों की तरह व्यवहार कर रहे थे। इसलिए उन्होंने सारे भारतीयों, विशेषकर शैक्षणिक रुप से पिछड़े मुसलमानों को राजनीति से कुछ समय तक दूर रहने की सलाह दी। वास्तव में, वे उनके महाविद्यालय और शिक्षा के लिए इतने समर्पित थे कि वे इसके बदले अन्य सबका का बलिदान करने को तैयार हो गये। परिणाम-स्वरूप, रूढ़ीवादी मुसलमानों को अपने महाविद्यालय का विरोध करने से रोकने के लिए, उन्होंने आभासी रुप से अपने आन्दोलन को धार्मिक सुधार का रुप दिया। इसी कारण, उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे सरकार द्वारा क्षति हो और दूसरी ओर, साम्प्रदायिकता और अलगाववाद को बढ़ावा दिया। यह एक गम्भीर राजनीतिक भूल थी, जिसके आने वाले वर्षों में नुकसानदायक परिणाम हुए। इससे भी ज्यादा, उनके कुछ अनुयायी उदारवादी विचारों से परे जाकर इस्लाम का महिमा मण्डन करते हुए दूसरे धर्मों की आलोचना करने लगे।
सैय्यद अहमद का सुधारवादी उत्साह सामाजिक क्षेत्र की ओर भी था। उन्होंने मुसलमानों से आव्हान किया कि वे मध्यकालीन रीति रिवाज, विचार और व्यवहार छोड़ दें। विशेषकर उन्होंने समाज में महिलाओं की स्थिति को अच्छी बनाने और पर्दा हटाने तथा महिलाओं के बीच शिक्षा का प्रसार करने के लिए बहुत कुछ लिखा। उन्होंने बहुविवाह प्रथा और आसानी से तलाक मिलने की भी आलोचना की।
सैय्यद अहमद खान की मदद वफादार लोगों ने की जिन्हें सामूहिक रुप से अलीगढ़ पंथ के नाम से जाना जाता था। चिराग अली, प्रसिद्ध उर्दू कवि अल्ताफ हुसैन हाली, नज़ीर अहमद और मौलाना शिबली नुमानी अलीगढ़ पंथ के कुछ प्रमुख नेताओं में से थे।
5.0 मोहम्मद इकबाल
आधुनिक भारत के महान कवियों मे से एक, मोहम्मद इकबाल (1876-1938) ने भी उनकी कविता तथा दार्शनिक और धार्मिक दृष्टिकोण से मुसलमानों और साथ ही हिन्दुओं की युवा पीढ़ी को प्रभावित किया। विवेकानन्द के समान उन्होंने भी सतत् परिवर्तन और विश्राम रहित श्रम की आवश्यकता पर जोर देते हुए पलायनवाद की आलोचना की। उन्होंने आह्वान किया कि नवीन व गतिशील दृष्टिकोण संसार को बदल सकता है। वह मूलतः एक मानवतावादी थे। वास्तव में उन्होंने मानवीय कार्य को उच्चतम गरिमा प्रदान की। उन्होंने कहा कि मनुष्य को प्रकृति या किसी भी अन्य शक्ति के समक्ष समर्पण की अपेक्षा लगातार कार्य कर स्थिति को नियंत्रण में करना चाहिए। उनकी नजर में इससे बड़ा कोई पाप नहीं था कि निष्क्रियता से यथा स्थिति को स्वीकार कर लिया जाये। धर्म की आलोचना करते हुए उन्होंने मनुष्यों से आव्हान किया कि खुशी हासिल करने के लिए सतत श्रम करें। अपने प्रारम्भिक काव्य में उन्होंने राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया, यद्यपि अन्त में वे मुस्लिम अलगाववाद के समर्थक भी हो गये थे।
6.0 सिक्खों में धार्मिक सुधार
सिक्खों के मध्य धार्मिक सुधार 19वीं शताब्दी के अन्त में तब प्रारम्भ हुआ जब अमृतसर में खालसा महाविद्यालय प्रारम्भ किया गया। किन्तु सुधारों की गति को 1920 के बाद तब गति मिली जब पंजाब में अकाली आंदोलन खड़ा हुआ। अकालियों का मुख्य उद्देश्य गुरूद्वारों के प्रबंधन को पवित्र करना था। इन गुरुद्वारों को सिक्खों से बड़ी मात्रा में धन और जमीनें दान में मिली हुई थीं। किंतु इन्हें महंतों द्वारा तानाशाहीपूर्ण तरीके से चलाया जा रहा था। अकालियों के नेतृत्व में सिक्ख जनता ने 1921 में एक शक्तिशाली आंदोलन इन महंतों और इनको मदद देने वाली सरकार के खिलाफ चलाया।
अकालियों ने सरकार को गुरुद्वारा अधिनियम 1922 पारित करने के लिए मजबूर किया जिसे बाद में 1925 में संशोधित भी किया गया। कभी अधिनियम की मदद से, तो कभी प्रत्यक्ष कार्यवाही से सिक्खों ने भ्रष्ट मंहतों को गुरूद्वारों से बाहर कर दिया।
7.0 उपसंहार
उपरोक्त वर्णित सुधार आंदोलन के अतिरिक्त बड़ी संख्या में सामूहिक और व्यक्तिगत आंदोलन भी चलाये गये। आधुनिक समय के सुधार आंदोलनों में एक मुख्य समानता यह थी कि दोनों तर्क और मानवतावाद के सिद्धांतों पर आधारित थे, यद्यपि वे कभी आस्था तो कभी अपने आव्हान को मजबूर करने के लिए प्राचीनता का सहारा लेते थे। उदयीमान मध्यवर्ग और आधुनिक शिक्षित बुद्धिजीवियों ने तर्क और वैज्ञानिकता का सहारा लेते हुए धार्मिक रीतिरिवाजों और अंधभक्ति को नकारा। उन्होंने रुढ़ीवाद और अंधविश्वास का धर्म के परे जाकर विरोध किया। इनमें से कईयों ने अलग-अलग स्तरों तक धर्म में शक्ति की अवधारणा को खारिज किया, एवं किसी भी धर्म या उसकी पवित्र पुस्तकों में सत्य को तर्क एवं विज्ञान की कसौटी पर ही परखा।
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