यूपीएससी तैयारी - भारत में यूरोपीय और महत्वपूर्ण हस्तियां - व्याख्यान - 4

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भारत में धार्मिक और सामाजिक सुधार (भाग 1)

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1.0 प्रस्तावना 

उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में अनगिनत धार्मिक और सांस्कृतिक परिवर्तन हुए। एक विदेशी शक्ति के हाथों पराजित हो जाने की चेतना और आधुनिक पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव ने नवजागरण को जन्म दिया। यह चेतना भी फैल रही थी कि भारत जैसा विशाल देश अपने सामाजिक ढाँचे और संस्कृति की आंतरिक कमजोरियों के कारण मुट्ठी भर विदेशियों के हाथों गुलाम बन गया था। भारतीयों की प्रतिक्रिया दो विपरीत दिशाओं में थी। जहाँ एक ओर बड़ी संख्या में भारतीयों ने पश्चिमी संस्कृति को अपनाने से इंकार कर दिया था और अपनी आस्था परम्परागत भारतीय विचारों और संस्थानों में बनाये रखी थी, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग धीरे-धीरे आधुनिक पश्चिमी विचारों के द्वारा उनके समाज का पुनर्निमाण कर रहे थे। वे मुख्यतः आधुनिक विज्ञान, तर्क और मानवतावादी सिद्धांतों से प्रभावित थे। सुधारों की प्रवृत्ति और विस्तार में अन्तर होते हुए भी, 19वीं शताब्दी के लगभग सभी बुद्धीजीवियों को यह विश्वास था कि सामाजिक और धार्मिक सुधार अत्यंत आवश्यक थे।

2.0 राजा राममोहन राय

राजा राममोहन राय भारत में धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों की प्रक्रिया के प्रणेता के रूप में जाने जाते हैं। उन्हें भारत और भारतवासियों से गहरा लगाव था और उन्होंने लोगों के सामाजिक धार्मिक, बौद्धिक और राजनैतिक पुनर्जागरण के लिए कठोर परिश्रम किया। वह समकालीन भारतीय समाज, जिसमें जातिवाद और अंधविश्वास फैले हुए थे, के गतिरोध और भ्रष्टाचार से दुखी थे। प्रचलित धर्म अंधविश्वासों से भरा था और अज्ञानी और भ्रष्ट पुजारियों द्वारा लोगों का शोषण होता था। उँची जाति के लोग स्वार्थी थे और अक्सर अपने स्वार्थ के लिए सामाजिक हित की बलि देते थे। राजा राम मोहनराय को पूर्व की परम्परागत दार्शनिक पद्धति के प्रति गहरा लगाव था, किन्तु साथ ही उनका विश्वास था कि केवल आधुनिक संस्कृति भारतीय समाज के पुनर्जागरण में मदद कर सकती है। वे चाहते थे कि उनके देशवासी तार्किक और वैज्ञानिक सोच के साथ मानवीय गरिमा के सिद्धांत और सामाजिक समानता को स्वीकार करें। साथ ही वह यह भी चाहते थे कि देश में आधुनिक पूँजीवाद और उद्योगों की स्थापना हो। 

राजा राममोहन राय पूर्व एवं पश्चिम के विचारों के मिश्रण का एक उत्कृष्ट उदाहरण थे। वह संस्कृत, पारसी, अरबी, अंग्रेज़ी, फ्रेंच, लैटिन, यूनानी और हिब्रू सहित एक दर्जन से ज्यादा भाषायें जानते थे। एक युवा के रूप में उन्होंने संस्कृत साहित्य और हिन्दू दर्शन का अध्ययन वाराणसी में किया तथा कुरान, फारसी और अरबी साहित्य का अध्ययन पटना में। वे भारत के दूसरे धर्मों जैसे जैन और बौद्ध धर्म को भी अच्छी तरह समझते थे। उन्होंने पश्चिमी विचारों और संस्कृति का गहन अध्ययन किया। बाईबल को इसके मूल रूप में समझने के लिए उन्होंने यूनानी और हिब्रू भाषाएं भी समझीं। वे एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। 1809 में उन्होंने फारसी में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘एकेश्वरवादियों को उपहार’’ लिखी जिसमें उन्होंने बहुदेववाद का विरोध करते हुए मजबूत तर्क प्रस्तुत किये। 

1814 में कलकत्ता में कुछ युवाओं के साथ मिलकर उन्होंने ‘आत्मीय सभा‘ की स्थापना की । वहाँ से उन्होंने बंगाल के हिन्दू धर्म में फैली हुई धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध एक सतत संघर्ष का प्रारम्भ किया। विशेषकर उन्होंने मूर्ति-पूजा, जातिवाद और अर्थहीन धार्मिक रीतिरिवाज़ों का कड़ा विरोध किया। उन्होंने पण्डितों और पुजारियों की इन कर्मकाण्डों को बढ़ाने के कारण खूब आलोचना की। उनका तर्क था कि हिन्दू धर्म के सारे प्राचीन ग्रन्थों में एकेश्वरवाद की अवधारणा है। अपने मत को सिद्ध करने के लिए उन्होंने वेदों और पांच प्रमुख उपनिषदों का बंगाली अनुवाद भी प्रकाशित किया। उन्होंने अपने लेखों की श्रृंखला भी प्रकाशित की जिसमें एकेश्वरवाद का समर्थन किया।

2.1 धार्मिक सुधार

राजा राममोहन राय के अनुसार, मानवीय तर्क की शक्ति ही किसी सिद्धांत के सत्य को सिद्ध करती है चाहे वह प्राच्य हो या पश्चिमी। उनका विश्वास था कि वेदांत दर्शन भी इसी तर्क के सिद्धांत पर आधारित है। व्यक्ति को इन धार्मिक पुस्तकों, ग्रंथों और विरासत में प्राप्त पंरपराओं को छोड़ने में हिचकना नहीं चाहिए यदि मानवीय तर्क ऐसा करने को कहता है और ऐसी परम्परायें समाज के लिए नुकसानदायक सिद्ध हो रहीं हो।

किन्तु राजा राममोहन राय ने उनके तार्किक सोच के प्रयोगों को केवल भारतीय धर्मो और परम्पराओं तक ही सीमित नहीं रखा। उनके कई मित्र जो मिशनरी काम करते थे, को आशा थी कि उनकी हिन्दुत्व की तार्किक आलोचना उन्हें एक दिन ईसाई बना देगी। किन्तु राजा राम मोहनराय ने अपने तार्किकवाद को ईसाईयत पर भी लागू किया, विशेषकर इसके अंध श्रृद्धा के तत्वों पर। 1820 में उन्होनें ‘ईसा के सन्देश‘ नाम से पुस्तक प्रकाशित की जिसमें उन्होनें न्यू-टेस्टामेंट के नैतिक और दार्शनिक संदेशों को जादुई कहानियों से अलग करने की कोशिश की। वे ईसा मसीह के उच्च नैतिकता के आदर्शों को हिन्दू धर्म में शामिल करना चाहते थे। इसके कारण उन्हें मिशनरियों से शत्रुता मोल लेनी पड़ी। 

इस प्रकार जहाँ तक राजा राममोहन राय का सवाल है, उन्होंने न तो प्राचीन भारतीय परम्पराओं और न ही पश्चिमी विचारों के प्रति अपना अंधा विश्वास प्रकट किया। दूसरी और उन्होंने इस विचार को भी आगे बढ़ाया कि तर्क से संचालित नये भारत को पूर्व और पश्चिम के सर्वोत्तम विचारों से संचालित होना चाहिए। इस प्रकार वे चाहते थे कि भारत पश्चिम से सीखे; किंतु यह शिक्षा एक ऐसी बौद्धिक और रचनात्मक प्रक्रिया के द्वारा होनी चाहिए जिसमें भारतीय संस्कृति और विचारों का नवीनीकरण हो; इसमें भारत पर पश्चिमी विचारों को थोपा नहीं जाना चाहिए। उन्होंने हिन्दू धर्म और दर्शन पर मिशनरियों द्वारा हो रहे आक्रमणों से भी जमकर बचाव किया। साथ ही, दूसरे धर्मों के प्रति उन्होने पूर्ण मित्रता की प्रवृत्ति विकसित की। उनका विश्वास था कि मूल रूप से सभी धर्म एक ही संदेश देते है और सभी धर्म के अनुयायी आपस में भाई हैं। 

राजा राममोहन राय को सारे जीवन में उनके साहसी धार्मिक दृष्टिकोण के कारण भारी विरोध सहना पड़ा। परम्परावादियों ने मूर्ति पूजा के विरोध और उनके द्वारा ईसाईयत और इस्लाम की दार्शनिक प्रंशसा के कारण उनकी आलोचना की। उन्होंने राजा राममोहन राय का सामाजिक बहिष्कार किया, यहाँ तक की इसमें उनकी माँ भी शामिल हो गईं। वे धर्म-विरोधी के नाम से जाने जाते थे और उन्हें जाति से भी बहिष्कृत कर दिया गया था।

2.2 ब्रह्मो समाज

1829 में उन्होंने एक नये धार्मिक समाज, ‘ब्रह्म सभा’ की स्थापना की जिसे बाद में ब्रह्मो समाज (ब्रह्मो समाज) कहा जाने लगा, जिसका उद्देश्य हिन्दू धर्म का पवित्रीकरण कर एकेश्वरवाद का उपदेश देना था। नया समाज तर्क तथा वेद और उपनिषद के दो स्तम्भों पर खड़ा था इसमें दूसरे धर्मां कि शिक्षाएँ भी शामिल की गईं। ब्रह्मो समाज ने मानवीय गरिमा पर ज़ोर देते हुए, मूर्ति पूजा का विरोध किया तथा सती प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों की भी आलोचना की।

2.3 समाज सुधार

सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध उनके जीवन पर्यंत चलने वाले धर्म युद्ध का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण सती प्रथा के विरुद्ध उनका संगठित एतिहासिक आंदोलन है। सती प्रथा एक अमानवीय कुरीति थी, जिसमें महिला को उसके पति की चिता पर ज़ि्ांदा जला दिया जाता था। 1818 के प्रारंभ में इस प्रश्न पर उन्होंने आम जनता को जगाना शुरू किया। एक ओर जहाँ उन्होंने हिन्दू धर्म के प्राचीनतम ग्रंथों का इस प्रथा के विरोध में संदर्भ दिया; वहीं दूसरी और उन्होनें लोगों से तर्क, मानवीयता और दया का व्यवहार करने का आह्वान किया। उन्होंने स्वयं कलकत्ता के श्मशान घाटों पर जाकर विधवाओं के रिश्तेदारों को समझाने की काशिश की कि वे आत्मदाह की योजना त्याग दें। उन्होंने समान विचारधारा वाले लोगों के समूह गठित कर ऐसे प्रदर्शनों पर कठोर नजर रखने और किसी महिला को बलपूर्वक सती करवाने के प्रयासों को रोका। जब रूढ़ीवादी हिन्दूओं ने, बेंटिंक के सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाने के फैसले के विरुद्ध संसद में याचिका दायर की तो राजा राम मोहन राय ने उदारवादी हिन्दुओं की ओर से बेंटिंक के कार्य के समर्थन में एक और याचिका दायर की।

राजा राममोहन राय महिला अधिकारों के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने महिलाओं को दासी बनाने का विरोध किया और इस विचार की भी आलोचना की कि महिलायें बौद्धिक या नैतिक रूप से पुरूषों से कमतर होती हैं। उन्होंने बहुविवाह प्रथा पर भी आक्रमण किया और विधवाओं की दयनीय स्थिति पर भी ध्यान दिया। उन्होंने हमेशा माँग रखी कि महिलाओं को उत्तराधिकार और सम्पत्ति का अधिकार दिया जाना चाहिए।

2.4 शैक्षणिक सुधार

राजा राममोहन राय ने आधुनिक शिक्षा को देश में आधुनिक विचारों को फैलाने का एक महत्वपूर्ण यंत्र माना। 1817 में डेविड हेयर, जो 1800 में एक घड़ीसाज़ के रुप में भारत आये थे किन्तु जिन्होंने अपना पूरा जीवन भारत में आधुनिक शिक्षा के प्रसार में लगा दिया, ने प्रसिद्ध हिन्दू महाविद्यालय की स्थापना की। राजा राममोहन राय ने हेयर को इसमें और उनकी दूसरी शैक्षणिक परियोजनाओं में बहुत सहयोग दिया। इसके अतिरिक्त, 1817 से कलकत्ता में उन्होनें स्वयं की पूँजी से एक अंग्रेजी स्कूल की स्थापना की जिसमें वोल्टेयर के दर्शन के साथ दूसरे विषय भी पढ़ाये जाते थे। 1825 में उन्होंने वेदान्त कॉलेज की स्थापना की जिसमें भारतीय और पश्चिमी विज्ञान दोनों ही पढ़ाये जाते थे।

वह बांग्ला को बंगाल में बौद्धिक परिचर्चाओं का माध्यम बनाने के प्रति समर्पित थे। उन्होंने बांग्ला व्याकरण की एक पुस्तक भी लिखी। अपने अनुवादों, समाचार पत्रों और पैम्पलेट के माध्यम से उन्होंने इस भाषा की आधुनिक और ललितपूर्ण पद्य शैली विकसित की।

2.5 राष्ट्रवाद

राजा राममोहन राय ने भारत में राष्ट्रीय चेतना के प्रारंभ का प्रतिनिधित्व किया। एक स्वतंत्र और आधुनिक भारत के विचारों ने उनके कार्यों को दिशा दी। उनका विश्वास था कि भारतीय धर्म और समाज से भ्रष्ट तत्वों को दूर कर और एकेश्वरवाद का वेदान्त-संदेश देकर, उन्होंने अनेकता भरे भारतीय समाज में एकता की नींव रखने का प्रयास किया था। विशेषकर उन्होंने जातिप्रथा की कठोरता का विरोध किया और घोषित किया कि ‘‘जातिवाद के कारण ही आज हमें एकता की आवश्यकता है।’‘ उनका विश्वास था कि जाति प्रथा में दोहरी बुराईयां हैं; इससे असमानता फैली है और इसने लागों को विभाजित भी किया है तथा इसने लोगों को राष्ट्रीय भावना से वंचित भी रखा है। इस प्रकार उनके अनुसार धार्मिक सुधारों का एक मुख्य उद्देश्य राजनीतिक सुधार भी था।

राजा राममोहन राय भारतीय पत्रकारिता के भी प्रणेता थे। उन्होंने राजनैतिक, साहित्यिक और वैज्ञानिक ज्ञान को लोगों तक पहुँचाने के लिए, समकालीन हित के विषयों पर लोकमत को शिक्षित करने के लिए और लोकप्रिय माँगों और समस्याओं को सरकार के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए बांग्ला, फारसी, हिन्दी और अंग्रेजी में पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। देश में राजनैतिक प्रश्नों पर जन आंदोलन चलाने की शुरूआत भी की। उन्होंने बंगाली जमींदारों के अत्याचारों की भी आलोचना की जिसने किसानों को दयनीय स्थिति में पहुँचा दिया था। उन्होंने माँग की कि जमीन के वास्वविक किसानों के लिए भी अधिकतम कर सदा के लिए (स्थायी तौर पर) तय किया जाना चाहिये ताकि वे भी 1793 के स्थायी बंदोबस्त का पूरा फायदा उठा सके। उन्होने कर मुक्त भूमि पर कर लगाने का भी विरोध किया। उन्होनें माँग रखी कि कंपनी के व्यापार के एकाधिकार को समाप्त कर दिया जाये और भारतीय वस्तुओं पर भारी निर्यात कर भी हटा दिया जाये। उन्होंने ज्यादा संख्या में भारतीयों की उत्कृष्ट सेवाओं में भर्ती, कार्यपालिका व न्यायपालिका का विभाजन, ज्यूरी के द्वारा फैसला तथा भारतीयों और अंग्रेज़ों के बीच न्यायिक समानता जैसी माँगें भी उठायीं।

2.6 अन्तर्राष्ट्रीयवाद

राजा राममोहन राय राष्ट्रों के बीच बेरोक-टोक आदान-प्रदान के दृढ़ समर्थक थे। महाकवि रविन्द्रनाथ टैगोर ने उचित ही कहाः ‘राजा राममोहन राय सम्पूर्ण संसार में अपने समय के एकलौते व्यक्ति थे जिन्होनें आधुनिक दौर के महत्व को समझा। वे जानते थे कि मानवीय सभ्यता का अस्तित्व स्वतंत्रता के अलगाव में नही बल्कि व्यक्तियों और राष्ट्रों की स्वतंत्रता के बंधुतत्व जैसे विचारों एवं कार्यों में है।’ राजा राममोहन राय ने अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं में गहरी रूचि ली और हर जगह उन्होंने मुक्ति, लोकतंत्र और राष्ट्रवाद का समर्थन किया तथा अन्याय, अत्याचार और तानाशाही का हर रूप में विरोध किया।

यद्यपि राजा राममोहन राय ने जीवन भर सामाजिक न्याय व असमानता के विरुद्ध संघर्ष किया किंतु व्यक्तिगत रूप से वह बहुत कठिनाईयों से गुजरे। सुधारों की प्रक्रिया के दोरान उनका स्वंय के परिवार से, धनी ज़मींदारों से, शक्तिशाली मिशनरियों से, उच्च अधिकारियों और विदेशी सत्ता से कई मर्तबा टकराव हुआ। तो भी वे अपने चुने गये मार्ग से नहीं भटके।

19वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में राजा राममोहन राय भारतीय आकाश में सबसे चमकीले सितारे थे किंतु वे अकेले सितारे नहीं थे। उनके कई महत्वपूर्ण साथी अनुयायी और उत्तराधिकारी थे। शिक्षा के क्षेत्र में उनकी मदद हॉलेण्ड के घड़ीसाज़ डेविड हेयर और स्कॉटलैण्ड के मिशनरी एलेक्ज़ैण्डर डफ ने की। द्वारकनाथ टैगोर उनके महत्वपूर्ण भारतीय साथी थे। उनके अन्य जाने-माने अनुयायिओं में प्रसन्न कुमार टैगोर, चन्द्रशेखर देव और ताराचंद चक्रवर्ती भी थे जो ब्रह्मो सभा के पहले सचिव थे।

राजा राममोहन राय का निधन 27 सितम्बर 1833 को ब्रिटेन के स्टेपलटॉन में हुआ। उनका निधन मैनिंनजाईटिस (मस्तिष्क ज्वर) के कारण हुआ और उनका अंतिम संस्कार दक्षिण ब्रिस्टल के अरनॉस वेल में हुआ।

3.0 डिरोज़ियो और युवा बंगाल

1820-30 के दशकों में बंगाली बुद्धीजीवियों के मध्य एक तर्कवादी प्रवत्ति का विकास हुआ जो राजा राममोहन राय की तुलना में भी ज्यादा आधुनिक थी। इस प्रवत्ति को युवा बंगाल आंदोलन के नाम से जाना जाता है इसके नेता और प्रेरक एक युवा एंग्लो-इण्डियन हेनरी विवियन डिरोज़ियो थे जिनका जन्म 1809 में हुआ था।

मई 1826 में 17 वर्ष की उम्र में डिरोज़ियो हिन्दू कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य और इतिहास के शिक्षक नियुक्त किये गये। शिक्षण के प्रति डिरोज़ियो के असीम उत्साह और छात्रों से उनके संवाद ने हिन्दू कालेज में एक विशिष्ट अनुभूति का निर्माण किया। उनके छात्रों को ‘डिरोज़ियन’ के नाम से जाना जाता था। उन्होंने वाद-विवाद और परिचर्चाओं का आयोजन किया जहाँ विचारों और सामाजिक रीति-रिवाजों पर स्वतंत्रता से चर्चा की जाती थी। 1828 में उन्होंने छात्रों को एक साहित्यिक परिचर्चा क्लब जिसे ‘एकेडमीक एसोसियेशन’ कहा जाता था बनाने के लिए आंदोलित किया। डिरोज़ियो एक उत्कृष्ट कोटी के विद्वान थे और उन्हें फ्रांसीसी क्रांति से प्रेरणा मिली थी। वह एक बुद्धिमान शिक्षक थे जो अपने छात्रों को स्वतंत्रता-पूर्वक तथा तर्कपूर्ण रूप से सोचने के लिए प्रेरित करते थे, व सभी अधिकारियों से प्रश्न पूछने को कहते थे। स्वतंत्रता से प्यार, समानता और सत्य की पूजा भी उनकी शिक्षाओं में था। डिरोज़ियो आधुनिक भारत के पहले राष्ट्रवादी कवि थे।

उदाहरण के लिए, 1827 में उन्होंने लिखाः 

‘‘ओ मेरे देश ! अतीत के गौरवमयी दौर में,
तेरे मस्तक पर एक अलबेला प्रभामण्डल था,
तुझे देवताओं के रूप में पूजा जाता था,
अब वह गौरव, वह सम्मान कहाँ है ?
तेरा स्वर्णिम पंख कट गया है, और तू जंजीरों में बंध गया है,
तेरा गौरव धूल में मिल गया है,
तेरे चारण के पास, तेरे गान के लिए कुछ भी नहीं है,
तेरी दुखद कहानी के सिवा’’

उनके तर्कवाद और नये विचारों के कारण 1931 में उन्हें हिन्दू कॉलेज से निष्काषित कर दिया गया। मात्र 22 वर्ष की युवावस्था में हैजे के कारण उनकी मृत्यु हो गयी। डिरोज़ियन लोगों ने पुरानी रूढ़ियों, कुरीतियों और परम्पराओं पर प्रहार किये। वे महिला-अधिकारों के प्रबल समर्थक थे और उन्होंने महिला शिक्षा की माँग भी रखी। यद्यपि डिरोज़ियन कोई बड़ा आन्दोलन खड़ा नहीं कर सके क्योंकि उनके विचार समय से आगे थे और साथ ही वे किसानों को भी अपने साथ नहीं जोड़ सके। ऐसा कोई वर्ग नहीं था जो, उस समय उनके अग्रगामी विचारों का समर्थन कर सके। उनका तर्कवाद मात्र सैद्धान्तिक ही था। वे भारत की वास्तविकता को समझ नहीं सके। किन्तु डिरोज़ियन लोगों ने राममोहन राय की समाचार पत्रों, जनसभाओं और पेंम्पलेट के माध्यम से लोगों को सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक मुद्दों पर शिक्षित करने की परम्परा को जारी रखा। उन्होंने कम्पनी चार्टर के परिवर्तन, प्रेस की स्वतंत्रता, ब्रिटिश उपनिवेशों में भारतीय मजदूरों की स्थिति, ज्यूरी के सामने मुकद्मा, अत्याचारी ज़मींदारों के जुल्मों से मुक्ति र्योतों को और भारतीयों को उच्च श्रेणी का रोज़गार जैसे मुद्दों पर जनआन्दोलन चलाये। राष्ट्रीय आन्दोलन के एक प्रसिद्ध नेता सुरेन्द्रनाथ बेनर्जी ने डिरोज़ियन के बारे में टिप्पणी की ‘‘आधुनिक बांग्ला-सभ्यता के वो प्रणेता कहा, जिनकी अच्छाईयाँ आने वाली पीढ़ियों में प्रार्थना तुल्य भाव जगाएगी एवं जिनकी कमियाँ अत्यंत शालीनता से समझी जाएंगी’’।

4.0 देवेन्द्रनाथ टैगोर और ईश्वरचन्द विद्यासागर

राजा राममोहनराय की मृत्यु के बाद ब्रह्मो समाज अस्तित्वमय तो रहा परन्तु निष्क्रिय रुप से, जब तक कि इसे रविन्द्रनाथ टैगोर के पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर ने पुनर्जीवित नहीं किया। देवेन्द्रनाथ परम्परागत भारतीय शिक्षा और नव-पाश्चात्य विचारों का एक बेजोड़ मिश्रण थे। 1839 में उन्होंने राज राममोहन राय के विचारों का प्रचार प्रसार करने के लिए तत्व-बोधिनी सभा की स्थापना की। समय के साथ इसमें राजा राममोहनराय और डिरोज़ियो के कुछ प्रमुख अनुयायी और अन्य स्वतंत्र विचारक जैसे ईश्वरचंद विद्यासागर और अक्षय कुमार दत्त भी शामिल हो गये। तत्व-बोधिनी सभा और इसके अंग तत्व-बोधिनी पत्रिका ने भारत के अतीत को बंगाली भाषा में व्यवस्थित रुप से प्रचारित किया। इसने बांग्ला बुद्धिजीवियों कें बीच एक तार्किक सोच फैलाने में मदद की। 1843 में देवेन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रह्मो समाज को पुनर्जीवित कर इसमें नये प्राणों का संचार किया। समाज ने विधवा विवाह को प्रोत्साहित करना, बहुविवाह को समाप्त करना, महिला शिक्षा व र्योतों की स्थिति सुधारने आदि जैसी गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी की।

4.1 पंडित ईश्वर चन्द्र विद्यासागर

महान चिंतक और सुधारक पंडित ईश्वर चन्द विद्यासागर ने अपना पूरा जीवन सामाजिक सुधार के लिए समर्पित कर दिया। 1820 में एक बहुत गरीब परिवार में जन्में विद्यासागर ने कठिनाईयों के बीच कड़ा संघर्ष करते हुए शिक्षा प्राप्त की और 1851 में संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य का पद हासिल किया। यद्यपि वह संस्कृत के अध्येता थे तो भी उनका दिमाग पश्चिमी विचारों के लिए हमेशा खुला रहता था और वे भारतीय और पश्चिमी संस्कृति के एक खुशनुमा मिलन के प्रतिनिधि थे। उनकी महानता उनके उच्च चरित्र और विद्वत्ता में निहित थी। वह साधारण कपड़े पहनते थे। उनकी आदतें बहुत ही सामान्य थीं। साहसी चरित्र और निर्भय मन के साथ उन्होंने वहीं किया जो उनका विश्वास था। उनके विश्वास और कर्म तथा विचारों और कार्यों के बीच कोई अंतर नहीं था। वह एक महान मानवतावादी थे जिन्हें गरीबों, दबे-कुचले और दमित लोगों के प्रति गहरी सहानुभूति थी।

बंगाल में आज भी उनके उच्च चरित्र, आदर्श गुणों और मानवतावाद की कहानियाँ सुनाई जाती हैं। उन्होंने सरकारी सेवाओं से त्यागपत्र दे दिया क्योंकि वे सरकारी अधिकारियों की व्यर्थ दखलअंदाजी सहन नहीं कर पाते थे। गरीबों के प्रति उनकी उदारता अद्वितीय थी। उनके पास उनका गर्म कोट कभी नहीं रहता था, क्योंकि वे हमेशा गली में मिलने वाले पहले भिखारी को इसे दे देते थे। 

विद्यासागर का आधुनिक भारत के निर्माण में बहुपक्षीय योगदान था। उन्होंने संस्कृत अध्यापन की नवीन तकनीक का विकास किया।

समाज सुधार के क्षेत्र में, ईश्वरचन्द विद्यासागर, राममोहन राय के योग्य उत्तराधिकारी सिद्ध हुए। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह के लिए एक लम्बा संघर्ष किया। हिन्दू विधवाओं की स्थिति देखकर उनका हृदय पीड़ा से भर उठता था। उनकी दशा सुधारने के लिए उन्होंने स्वयं को पूरी तरह से झोंक दिया। 1855 में, अपने परम्परागत ज्ञान के आधार पर उन्होंने विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में आवाज उठाई। शीघ्र ही विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में एक सशक्त आन्दोलन प्रारम्भ हुआ जो आज भी जारी है। बाद में 1855 में बंगाल, मद्रास, बॉम्बे, नागपुर और देश के दूसरे हिस्सों से बड़ी संख्या में सरकार के सम्मुख विधवा पुनर्विवाह को वैध करने के लिए बड़ी संख्या में याचिकाएँ दायर की गयीं। यह आन्दोलन सफल रहा और इस प्रकार का कानून अस्तित्व में आया। ईश्वरचन्द विद्यासागर के निरीक्षण में 7 दिसम्बर 1856 को कलकत्ता में उच्च जातियों के मध्य पहला वैध हिन्दू विधवा पुनर्विवाह सम्पन्न हुआ। देश के कई अन्य हिस्सों में भी अन्य जाति की विधवाओं ने भी इस कानून का लाभ लिया। एक निरीक्षक ने समारोह को अभिव्यक्त करते हुए लिखाः

‘‘मैं वह दिन कभी नहीं भूलूँगा; जब पंडित विद्यासागर उनके दोस्त दूल्हे के साथ आये, दर्शकों की भीड़ इतनी ज्यादा थी कि चलने फिरने के लिए एक इंच भी जगह खाली नहीं थी, उनमें से कई तो नालियों के बड़े गड्डों में गिर गये जो उन दिनों कलकत्ता की गलियों में दिखाई पड़ते थे। समारोह के पश्चात चर्चा का विषय बन गया; बाज़ारों में, दुकानों में, नुक्कड़ और चौराहों पर, छात्रावासों में, लोगों के घरों में और कार्यालयों में भी, सभी ओर चर्चा होने लगी। शांतिपुर के बुनकरों ने एक अलग ही प्रकार की साड़ी बुनी जिसकी बाहरी कोर पर एक नवगीत की पंक्ति उकेरी गई थी - ‘विद्या सागर जिंदाबाद’।’’

जैसा कि स्वाभाविक था, विधवा पुनर्विवाह के पक्षधर होने के कारण विद्यासागर को रुढ़ीवादी हिन्दूओं से शत्रुता का सामना करना पड़ा। कभी-कभी तो उनका जीवन भी खतरे में पड़ जाता था, किन्तु वे निर्भयतापूर्वक अपने चुने हुये मार्ग पर चलते रहे। उनके प्रयासों के कारण 1855 से 60 के बीच 25 विधवाओं के पुनर्विवाह हुये और नवदम्पत्तियों को कुछ आर्थिक मदद भी दी गई।

1850 में विद्यासागर ने बाल विवाह का विरोध किया। अपने पूरे जीवन भर वे बहुविवाह प्रथा के खिलाफ अभियान चलाते रहे। वे महिला शिक्षा के भी पक्ष में थे। एक सरकारी स्कूल निरीक्षक होने के नाते उन्होंने 35 महिला विद्यालय प्रारंभ किये जिनमें से कई तो वे स्वंय के खर्च से चलाते थे। बैथ्युन स्कूल के सचिव के रुप में वे महिलाओं की उच्च शिक्षा के प्रणेताओं में से एक रहे।

5.0 पश्चिमी भारत में सुधारों के प्रणेता

चूंकि बंगाल भारत के किसी भी दूसरे हिस्से की तुलना में अंग्रेजों के प्रभावी नियंत्रण में पहले आया, इसलिए पाश्चात्य विचारों का प्रभाव भी वहां सबसे पहले महसूस किया गया। पश्चिमी भारत अंग्रेजों के सीधे नियंत्रण में 1818 के बाद आया। बाल शास्त्री जांबेकर बॉम्बे के पहले सुधारकों में से एक थे। उन्होंने रुढ़िवादी ब्राहम्णवाद पर आक्रमण किया और लोकप्रिय हिन्दुत्व को सुधारने की कोशिश की। उन्होंने 1832 में दर्पण नामक साहित्यिक पत्रिका की शुरूआत इस लक्ष्य से की, ‘’अज्ञानता को दूर करने के लिए जिसने मनुष्यों के मस्तिष्क को घेर रखा था और उन्हें ज्ञान के प्रकाश से दूर रखा था, जिस प्रकाश ने यूरोप के लोगों को संसार के दूसरे देशों की तुलना में ज्यादा प्रगत बना दिया था।’’ 

1849 में महाराष्ट्र में परमहंस मण्डली की स्थापना की गई। इसके सदस्य एक ईश्वर में विश्वास करते थे और इसका प्राथमिक उद्देश्य जातिप्रथा को तोड़ना था। इसकी सभाओं में निम्न जाति के लोगों द्वारा पकाया हुआ भोजन सभी सदस्यों में वितरित किया जाता था। वे भी विधवा पुनर्विवाह और नारी शिक्षा का समर्थन करते थे। मण्डली की अन्य शाखाएँ पूना, सतारा तथा महाराष्ट्र के अन्य शहरों में बनाईं गईं। मण्डली के युवा लोगों पर प्रभाव के बारे में बताते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार आर.जी. भण्डारकर ने कहाः ‘‘जब हम शाम को पैदल घूमने के लिए जाते थे तो हम जाति प्रथा की बुराईयों पर चर्चा करते थे, इस विभाजन के कारण कितना नुकसान हुआ है और किस तरह इसे समाप्त किये बिना इस देश की सही प्रगति कभी भी हासिल नहीं की जा सकती’’। 

1848 में कुछ शिक्षित युवा लोगों ने ‘साहित्यिक एवं वैज्ञानिक छात्र समाज’ नामक संघ की स्थापना की जिसकी दो शाखायें थी, गुजराती और मराठी ज्ञान प्रसारक मण्डली। यह सभा लोकप्रिय वैज्ञानिक और सामाजिक मुद्दों पर व्याख्यान आयोजित करवाती थी। समाज के मुख्य उद्देश्यों में महिलाओं के लिए स्कूल प्रारंभ करना प्रमुख था।

5.1 महात्मा ज्योतिबा फुले, गोपाल हरि देशमुख, और अन्य

ज्योतिबा फुले, जिनका जन्म निम्न जाति के माली परिवार में हुआ था, महाराष्ट्र में गैर-ब्राह्मण और अछूतों की बुरी सामाजिक स्थिति से अच्छी तरह परिचित थे। अपने पूरे जीवन भर वे ब्राह्मण सर्वोच्चता के विरुद्ध अभियान चलाते रहे। 1851 में ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले ने पूना में एक कन्या विद्यालय प्रारंभ किया व कई और स्कूल भी अस्तित्व में आये। इन विद्यालयों के सक्रिय कार्यकर्ताओं में जगन्नाथ शंकर सेठ और भाउ दाजी प्रमुख थे । फुले महाराष्ट्र में विधवा पुनर्विवाह आन्दोलन के प्रणेता थे। पंडित विष्णु शास्त्री ने 1850 के दशक में विधवा पुनर्विवाह संगठन की स्थापना की। इस क्षेत्र के एक और अग्रणी कार्यकर्ता करसनदास मुलजी थे जिन्होंने विधवा पुनर्विवाह का पक्ष लेने के लिए 1852 में गुजरात में सत्य प्रजा नामक संगठन की शुरूआत की।

महाराष्ट्र में नवशिक्षा और समाज सुधार के एक प्रमुख नेता गोपाल हरि देशमुख थे जिन्हें ’लोकहितवादी’ के नाम से जाना जाता था। उन्होंने तार्किक सिद्धांतों और आधुनिक मानवतावादी तथा धर्म निरपेक्ष मूल्यों पर आधारित भारतीय समाज बनाने का पक्ष लिया। दादाभाई नॉरौजी बॉम्बे के एक प्रमुख सुधारक थे। उन्होंने पारसी धर्म के सुधारवादी संगठन और पारसी लॉ संघ की स्थापना भी की जिसने महिलाओं के लिए विवाह और उत्तराधिकार के समान कानून बनाये।

प्रारंभ से ही सुधारकों ने भारतीय भाषाओं के साहित्य और प्रेस के माध्यम से अपना संघर्ष जारी रखा। भारतीय भाषाओं में इस क्षेत्र में प्राथमिक पुस्तकें भी लिखी गयी। उदाहरण के लिए ईश्वरचन्द विद्यासागर और रविन्द्रनाथ टैगोर दोनों ने ही बांग्ला में प्राथमिक पुस्तकों की रचना की जिसे आज भी पढ़ा जाता है। वास्तव में आधुनिक और सुधारवादी विचारों को आम लोगों तक भारतीय भाषा के माध्यम से ही पहुँचाया जा सका।

हमें यह ध्यान रखना चाहिए की 19 वीं शताब्दी के सुधारकों का महत्व उनकी संख्या में नहीं बल्कि इस तथ्य में निहित था कि उन्होनें नई प्रवृत्तियों को जन्म दिया। यह उनके विचार और कार्य ही थे कि एक नये भारत के निर्माण की प्रक्रिया निर्णायक रूप से शुरू हो सकी।

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