सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
मशहूर ब्रिटिश हस्तियां
1.0 प्रस्तावना
सन् 1600 में, इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम ने ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना एक व्यापारिक कंपनी के रूप में की थी, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश व्यापारियों को संगठित करके भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ ब्रिटेन के व्यापार को बढ़ाना था। इस कंपनी में संपन्न व्यापारियों और अभिजात्य वर्ग के लोगों की भाग धारिता थी, जो कंपनी के नफा होने की स्थिति में उन्हें काफी संपत्ति प्रदान करती थी।
समय के साथ, चालाकी, निर्दयता और सरासर बल का प्रयोग करके ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में अनन्य नियंत्रण स्थापित करने में सफल रही, और उसने अन्य व्यापारी जहाजों के बंदरगाह में आने पर प्रतिबंध लगा दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना लगभग संपूर्ण व्यापार और सुरक्षा भारत पर केंद्रित करके यह हासिल किया, और पूर्व और दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य क्षेत्र अन्य देशों की कंपनियों द्वारा नियंत्रित किये जाने के लिए छोड़ दिए। जैसे ही ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत पर व्यापारी नियंत्रण पर्याप्त बढ़ गया, वैसे ही उसने सैन्य और प्रशासनिक नियंत्रण भी अपने हाथों में लेना शुरू कर दिया। कंपनी और उसकी निजी सेना ने किसी भी सरकार के प्रत्यक्ष निरीक्षण के बिना अपनी स्वयं की कानून व्यवस्था स्थापित करके इन क्षेत्रों पर शासन करना शुरू कर दिया। अपने उच्च शिखर समय में ईस्ट इंडिया कंपनी के पास ब्रिटिश सरकार से भी अधिक जमीन थी, और वह उन क्षेत्रों में ऐसे कानून बनाती थी जो कंपनी के लिए हितकारी हों और जो उसे अधिक से अधिक लाभ वसूल करने में सहायक हों। अब हम कुछ ऐसे व्यक्तियों की सूची का अध्ययन करेंगे जिन्होंने भारत से संपत्ति ऐंठने की लालसा में - ब्रिटिश राष्ट्र और स्वयं को समृद्ध बनाने के लिए - अंततः कई बुराइयां कीं, और कभी-कभी जानबूझ कर और कभी अनजाने में कई अच्छे काम भी किये।
2.0 रॉबर्ट क्लाइव
रॉबर्ट क्लाइव ब्रिटेन की भारत पर विजय से संबंधित सबसे प्रसिद्ध सेनापति रहा है। 1744 में ईस्ट इंडिया की मद्रास की एक व्यापारी चौकी की पदस्थापना से पूर्व क्लाइव के जीवन में महानता के कोई चिन्ह नहीं मिलते हैं, परंतु काफी अधिक मात्रा में दुस्साहस, उद्दंडता अवश्य दिखाई देती हैं। हालांकि उसका सबसे बड़ा व्यक्तिगत गुण था असीमित वीरता, और कठिन से कठिन समय के दौरान दिमाग को शांत रखने की क्षमता, और वे शुरुआती झगडे़ हालांकि सैन्य दृष्टि से गौण थे फिर भी उन्होंने उसे एक काबिल नेता के रूप में ख्याति दिलाई।
रॉबर्ट क्लाइव एक ऐसे समय में भारत में था जब भारत में स्थिति बहुत ही अस्थिर थी। मुगल साम्राज्य अभी-अभी टूटना शुरू हुआ था, और दर्जनों स्थानीय प्रधान और जागीरदार सत्ता की होड़ में थे। कुशल गवर्नर डुप्लेक्स के नेतृत्व में फ्रांस, महत्वपूर्ण गठबंधन करके और कुछ राजाओं को व्यापारिक प्रभाव के बदले सैन्य सहायता की पेशकश करके स्थिति का फायदा उठाने की ओेर अग्रसर था। इसके विरोधी प्रधान और जागीरदार अन्य यूरोपीय शक्तियों से गठबंधन की याचना कर रहे थे, विशेष रूप से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से (जिसके पास छोटी-छोटी सेना उपलब्ध थी), ताकि वे अपने विरोधियों से बराबरी के आधार पर प्रतियोगिता कर सकें। इस प्रकार फ्रांस और इंग्लैंड अनधिकृत रूप से युद्ध स्तर पर थे। यहां यह याद रखना आवश्यक है कि ये दोनों सदियों से यूरोप में एक दूसरे के प्रतिद्वंदी रहे थे!
क्लाइव को सबसे अच्छा अवसर 1781 में तब प्राप्त हुआ जब फ्रांसीसी-समर्थित चंद्रा साहिब ने उसके प्रतिद्वंदी मुहम्मद अली की राजधानी त्रिचनोपोली की घेराबंदी करने के लिए खुद की राजधानी अरकोट को छोड़ दिया। अली ने स्वाभाविक रूप से ब्रिटिश से सहायता मांगी, किंतु मद्रास में उपलब्ध संसाधन इस कार्य को पूर्ण करने की दृष्टि से पर्याप्त नहीं थे। क्लाइव ने एक छोटी सी ब्रिटिश सेना के साथ अरकोट पर आक्रमण करने की एक बेतुकी सी लगने वाली सलाह दी। हालांकि, इसमें सफलता की संभावना दूर की कौड़ी थी, फिर भी उसे अभियान पर जाने की अनुमति मिल गई, और उसमें वह उम्मीद से अधिक सफल रहा। विशाल विरोध के समक्ष उसकी बहादुरी ने उसे न केवल ब्रिटिश अधिकारियों के बीच, बल्कि स्थानीय लोगों के बीच भी काफी प्रसिद्धि दिलाई, जिन्हें लगता था कि उसके पास कोई दैवीय या अति-मानवी शक्तियां थीं। अंततः इंग्लैंड ने उसे अधिक अधिकारियों की फौज प्रदान की व जहां वह अब तक अनधिकृत रूप से कार्य कर रहा था, वहां अब उसे सेना में स्थायी और नियमित कमीशन प्रदान किया गया, और इंग्लैंड और फ्रांस, और उनके स्थानीय गठबंधन सहयोगियों के बीच संघर्षों में वृद्धि होती चली गई। अब चूंकि क्लाइव को नियमित सेना का समर्थन और सहायता उपलब्ध थी, अतः यह संघर्ष इंग्लैंड के पक्ष में जाता गया, और अंत में ‘‘द्वितीय कर्नाटक युद्ध’’ इंग्लैंड के पक्ष में हुई शर्तों के साथ 1754 में समाप्त हुआ।
रॉबर्ट क्लाईव 1753 में इंग्लैंण्ड वापस आये।
हालांकि इसके ठीक बाद, उसे फोर्ट डेविड के गवर्नर पद के लिए वापस बुलाया गया, जब बंगाल के नवाब सिराज उद् दौला ने कलकत्ता की घेराबंदी की और ऐसा कहा जाता है कि उसने लगभग 200 ब्रिटिश नागरिकों को एक ही कमरे में बंदी बना कर रखा गया, जिनमें से अधिकांश दम घुटने से मर गए (प्रसिद्ध ‘‘कलकत्ता का ब्लैक होल‘‘)। क्लाइव ने सबसे पहले कलकत्ता वापस हस्तगत किया, और कुछ ही समय बाद, मीर जाफर के साथ मिल कर नवाब की सेना पर आक्रमण करने की साजिश रची। अतिरिक्त सैन्य की राह देखने के बजाय उसने आक्रमण के पहले आक्रमण के अवसर का उपयोग किया। हालांकि उसके सैनिकों की संख्या विरोधी सैन्य शक्ति के सम्मुख काफी कम थी, फिर भी प्लासी (पलाशी) के मैदान पर उसने शानदार विजय प्राप्त की। इस समय बंगाल का विशाल खजाना ब्रिटिशों के हाथ लगा, जिसके कारण कंपनी के अधिकारियों और स्थानीय लोगों के बीच व्यापक भ्रष्टाचार हुआ। क्लाइव ने इस क्षेत्र पर तीन वर्षों तक प्रशासन किया, और इंग्लैंड वापस जाने से पहले स्वयं के लिए विशाल संपत्ति अर्जित की। अब जबकि उसका मजबूत हाथ वहां से उठ चुका था, अतः भ्रष्टाचार और पैसा लूटने का क्रम और भी बडे़ पैमाने पर फैलने लगा, और 1765 में उसे स्थिति पर नियंत्रण करने के लिए वापस बुलाया गया। सभी प्रकार की बुराइयों और अवैध तरीके से कमाई गई दौलत की आदत से ग्रस्त व्यवस्था को सुधारना सैन्य वीरता दिखने से कहीं अधिक कठिन था, और क्लाइव इसमें आंशिक रूप से ही सफल हो पाया। अगले अनेक दशकों तक इस क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर भ्रष्टाचार जारी रहा। 1767 में क्लाइव अंतिम बार के लिए इंग्लैंड वापस चला गया, और गंभीर बीमारी और दर्द निवारक दवाओं की लत के चलते सात वर्ष पश्चात उसने अपना जीवन समाप्त कर लिया।
3.0 रिचर्ड वेलेस्ली
लॉर्ड वेलेस्ली, उर्फ रिचर्ड क्रॉली वेलेस्ली, का जन्म 20 जून 1760 को हुआ था। उन्होंने लॉर्ड कॉर्नवॉलिस और सर जॉन शोर के पश्चात 1798 से 1805 के दौरान भारत के गवर्नर जनरल के रूप में कार्य किया। लार्ड वेलेस्ली की नजर में फ्रांस के साथ विश्व युद्ध में भारत एक खतरा था और वह एक ऐसे राजनेता थे जो नेपोलियन की विजयों से डरते थे।
भारत पर ब्रिटिश शासन का अगला बड़ा विस्तार लार्ड वेलेस्ली के गवर्नर जनरल के कार्यकाल के दौरान हुआ, जो 1798 में ऐसे समय भारत आये थे, जब ब्रिटेन विश्व भर में फ्रांस के साथ जीवन-मरण के युद्ध में उलझा हुआ था।
तब तक, ब्रिटिशों ने भारत में अपनी प्राप्त की हुई उपलब्धियों के सुदृढ़ीकरण की नीति अपनायी थी, और क्षेत्रीय कब्जे तभी किये जाते थे जब वे सुरक्षित थे और महत्वपूर्ण भारतीय सत्ताधीशों को नाराज किये प्राप्त करना संभव होता था। लॉर्ड वेलेस्ली ने निर्णय लिया कि अब समय आ चुका था, जब अधिक से अधिक भारतीय राज्यों को ब्रिटिशों के नियंत्रण में लाया जाये। 1797 तक, मैसूर और मराठा, भारत की दो सबसे अधिक शक्तिशाली शक्तियां, पतन की ओर अग्रसर थीं। भारत की राजनीतिक स्थिति विस्तार की दृष्टि से अनुकूल थी। आक्रामकता आसान भी थी और लाभदायक भी।
अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वेलेस्ली ने तीन प्रकार के उपाय कियेः ‘‘सहायक गठबंधनों‘‘ की प्रणाली, सीधे युद्ध, और पूर्व में अधीनस्थ किये गए शासकों के क्षेत्रों पर कब्जा। जबकि किराये की ब्रिटिश सेनाओं के भरोसे भारतीय शासकों की मदद का तरीका काफी पुराना हो चुका था, वेलेस्ली ने इसे निश्चित स्वरुप दिया, जब उसने इसके माध्यम से भारतीय शासकों को सर्वोपरि कंपनी के अधीन लाने के लिए उपयोग किया। सहायक गठबंधन प्रणाली के माध्यम से गठबंधन शासक को अपनी सीमाओं में कंपनी की सेना की स्थायी तैनाती के लिए मजबूर किया जाता था, और उसके रखरखाव के लिए कुछ भुगतान वसूल किया जाता था। यह सब उसकी सुरक्षा की आड़ में किया जाता था। वास्तव में, यह एक ऐसी पद्धति थी, जिसके माध्यम से भारतीय शासक द्वारा कंपनी को कुछ हर्जाना अदा किया जाता था। कुछ मामलों में शासक वार्षिक रकम के बजाय अपना कुछ क्षेत्र कंपनी को दे देता था। ‘‘सहायक संधि‘‘ में अक्सर यह भी प्रावधान किया जाता था कि भारतीय शासक अपने दरबार में निवासी ब्रिटिश प्रतिनिधि की नियुक्ति की सहमति देंगे, वे अपनी सेवा में किसी अन्य यूरोपीय को ब्रिटिश अनुमोदन के बिना नियुक्ति नहीं देंगे, और वे गवर्नर जनरल से परामर्श किये बिना किसी अन्य भारतीय शासक से बातचीत नहीं करेंगे। इसके बदले में, ब्रिटिश उस शासक को उसके शत्रुओं से सुरक्षा का आश्वासन देते थे। साथ ही वे राज्य के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप ना करने का आश्वासन भी देते थे, किंतु इस आश्वासन का पालन उन्होंने शायद ही कभी किया हो।
वास्तव में, एक सहायक गठबंधन (संधि) पर हस्ताक्षर करके एक भारतीय शासक अपनी स्वतंत्रता ब्रिटिश को सौंप देता था। उसे आत्मरक्षा, कूटनीतिक संबंध बनाये रखने, विदेशी विशेषज्ञों की नियुक्ति और अपने पड़ोसियों के साथ के विवाद निपटाने के अधिकार से वंचित होना पड़ता था। इस संधि के माध्यम से एक भारतीय शासक बाह्य मामलों में अपनी संप्रभुता खोकर ब्रिटिश निवासी प्रतिनिधि के अधिकाधिक अधीन हो जाता था, जो राज्य के दैनंदिन आतंरिक प्रशासन में भी हस्तक्षेप करता था। इसके अतिरिक्त, यह व्यवस्था सुरक्षा प्रदान किये हुए राज्य के आतंरिक हालातों को भी बिगाड़ देती थी। सहायक सेना के लिए ब्रिटिश द्वारा तय की गई रकम बहुत ही ज्यादा होती थी, और वास्तव में तो यह उस शासक की भुगतान करने की क्षमता से कही अधिक होती थी। मनमाने तरीके से तय की गई, और समय-समय पर कृत्रिम रूप से बढ़ाई जाने वाली यह रकम राज्य की अर्थव्यवस्था को चौपट, और राज्य के नागरिकों को गरीब बना देती थी। सहायक गठबंधन संधियों का परिणाम सुरक्षा प्रदान किये गए राज्यों की सेनाओं को विच्छिन्न करने में भी हुआ। लाखों सैनिकों अधिकारीयों को अपनी आजीविका से वंचित होना पड़ा, जिसका परिणाम राज्य में बढ़ते कष्टों और अर्थव्यवस्था के क्षय में हुआ। इसके अतिरिक्त ऐसे राज्यों के शासक अपने नागरिकों के हितों की उपेक्षा करने लगे, और चूंकि अब वे उनसे डरते भी नहीं थे, अतः उनका दमन भी करने लगे। अच्छे शासक होने का उनके लिए अब कोई प्रलोभन नहीं बचा था, क्योंकि ब्रिटिश उन्हें बाहरी और आतंरिक शत्रुओं से पूर्ण सुरक्षा प्रदान करते थे।
दूसरी ओर, सहायक गठबंधन व्यवस्था ब्रिटिशों के लिए बहुत ही फायदे की थी। अब वे भारतीय शासकों के बल पर विशाल सेनाएं रख सकते थे। इसने उन्हें दूर-दूर के इलाकों में युद्ध करने के काबिल बनाया, क्योंकि कोई भी युद्ध या तो ब्रिटिशों द्वारा सुरक्षा प्रदान किये गए राज्यों के क्षेत्रों में होता था, या फिर ब्रिटिशों के शत्रुओं के क्षेत्रों में। वे सुरक्षा प्रदान किये गए सहयोगी राजा के सुरक्षा और विदेशी मामलों को नियंत्रित किया करते थे, और राज्य के केंद्र स्थान में ही एक विशाल सेना बनाये रखते थे, ताकि समय आने पर उसे ‘‘अकुशल‘‘ साबित करके, और उसे पदच्युत करके राज्य पर कब्जा कर सकें। एक ब्रिटिश लेखक के शब्दों में सहायक गठबंधन व्यवस्था ‘‘राजाओं को भैसों को बलिष्ठ बनाने की पद्धति की तरह की पद्धति थी, ताकि जब वे हड़पने के लायक हो जाएँ तो उन्हें आसानी से हड़पा जा सके।‘‘
लॉर्ड वेलेस्ली ने हैदराबाद के निज़ाम के साथ अपनी सहायक संधियां 1798 और 1800 में कीं। सहायता सेनाओं के लिए नकद भुगतान के बजाय निजाम ने अपने कुछ क्षेत्र कंपनी के हवाले कर दिए।
अवध के नवाब को 1801 में सहायक संधि करने के लिए मजबूर किया गया। एक विशाल सहायता सेना के बदले नवाब को रोहिलखंड और गंगा और जमुना के बीच के क्षेत्र के रूप में अपने राज्य का आधा भाग ब्रिटिशों के सुपुर्द करने के लिए मजबूर किया गया। उसकी स्वयं की सेना को लगभग नष्ट कर दिया गया, और ब्रिटिशों को अपनी सेनाएं राज्य के किसी भी भाग में तैनात करने का अधिकार प्राप्त हो गया।
वेलेस्ली मैसूर, कर्नाटक, तंजोर और सूरत राज्यों के साथ तो और भी अधिक कड़ाई से पेश आया। हालांकि, मैसूर का टीपू कभी भी एक सहायक संधि के लिए तैयार नहीं हुआ, उल्टे वो तो 1792 में अपने राज्य के आधे भाग को खोने का दुःख कभी भी बर्दाश्त नहीं कर पाया। ब्रिटिशों के विरुद्ध अपरिहार्य संघर्ष के लिए अपनी सेना को मजबूत बनाने के लिए वह रात-दिन कड़ी मेहनत करता रहा। उसने गठबंधन के लिए क्रांतिकारी फ्रांस (अंत में नेपोलियन) के साथ बातचीत शुरू की। ब्रिटिश विरोधी गठबंधन की संभावनाओं को तलाशने के लिए उसने अफगानिस्तान, अरेबिया, और तुर्की में अपने प्रतिनिधिमंडल भेजे। इस मामले में टीपू काफी दूरदृष्टा और आक्रामक था।
1799 में फ्रांस की मदद पहुँचने से पहले ही अंग्रेज़ों ने टीपू को एक संक्षिप्त किंतु भीषण युद्ध में परास्त कर दिया। अब भी टीपू ने अपमानजनक स्थिति में शांति की भीख मांगने से इंकार कर दिया। उसने गर्व के साथ घोषणा की कि ‘‘काफिरों की पेंशनयाफ्ता नबाबों और राजाओं की सूची में उनकी मेहरबानी पर दयनीय जीवन जीने से, एक सिपाही की तरह मरना कहीं बेहतर है।‘‘ 4 मई 1799 को अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टम की रक्षा करते हुए उसे वीरगति प्राप्त हुई। उसकी सेना अंत तक उसके साथ वफादार रही।
टीपू के लगभग आधे क्षेत्र ब्रिटिश और उनके सहयोगी निजाम के बीच विभाजित हो गए। बचा हुआ छोटा सा मैसूर राज्य इसके मूल राजाओं (अडियार) को सौंप दिया गया, जिनसे हैदर अली ने सत्ता छीन ली थी। नए राजा पर सहायक गठबंधन की एक विशेष संधि थोपी गई, जिसके अनुसार, आवश्यकता पड़ने पर गवर्नर जनरल को यह अधिकार होगा कि वह राज्य का प्रशासन अपने हाथ में ले। वास्तव में मैसूर को कंपनी का एक पूर्ण पराधीन राज्य बना दिया गया था।
1801 में, वेलेस्ली ने कर्नाटक के कठपुतली नवाब पर एक नई सहायता संधि थोप दी, जिसके अनुसार, एक पेंशन के बदले में नवाब को अपना राज्य ब्रिटिशों को सौंपने के लिए मजबूर कर दिया गया। मद्रास प्रेसीडेंसी, जैसी कि वह 1947 तक अस्तित्व में थी, वह अब बनाई गई थी, जिसमें मलाबार सहित मैसूर से कब्जा किये हुए क्षेत्र कर्नाटक के साथ जोड़ दिए गए थे। इसी प्रकार तंजोर और सूरत के क्षेत्र भी हथिया लिए गए, और उनके शासकों को पेंशनयाफ्ता बना दिया गया।
अब अंग्रेजों के नियंत्रण क्षेत्र से बाहर केवल मराठे बचे थे। अब वेलेस्ली ने अब अपना ध्यान उनकी ओर लगाया, और उनके अंदरूनी मामलों में आक्रामक हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया।
उस समय के मराठा साम्राज्य के संघ में पांच बडे़ सरदार थे, ये थे पूना में पेशवा, बडौदा में गायकवाड़, ग्वालियर में सिंधिया, इंदौर में होलकर और नागपुर में भोंसले। इस संघ के नाममात्र प्रमुख पूना के पेशवा थे। परंतु तेजी से आगे बढ़ते वास्तविक विदेशी खतरे से बेखबर, वे सभी भ्रातृ-घातक संघर्ष में उलझे हुए थे।
वेलेस्ली ने बार-बार पेशवा और सिंधिया को सहायक गठबंधन के कई प्रस्ताव दिए, परंतु दूरदर्शी नाना फडणवीस ने उनके झांसे में आने से इंकार कर दिया। परंतु जब 25 अक्टूबर 1802 की दिवाली के दिन होलकर सेना ने पेशवा और सिंधिया की संयुक्त सेना को पराजित कर दिया, तो कमज़ोर पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेज़ों की तरफ दौड़ लगा दी, और 1802 के आखरी दुर्भाग्यपूर्ण दिन बेसिन (वसई) में सहायता संधि पर हस्ताक्षर कर दिए।
यह विजय उम्मीद से कहीं आसान साबित हुई, और एक दृष्टि से वेलेस्ली गलत था; स्वाभिमानी मराठा सरदार संघर्ष के बिना अपनी स्वतंत्रता की परंपरा का समर्पण नहीं करेंगे। लेकिन दुर्भाग्य के उनके इन क्षणों में भी वे एक समान शत्रु के विरुद्ध इकट्ठे नहीं हुए। जब भोंसले और सिंधिया अंग्रेजों से युद्ध कर रहे थे, तो होलकर दूर खडे़ रहे, और गायकवाड़ अंग्रेज़ों की सहायता करते रहे। जब होलकरों ने हथियार उठाये, तो सिंधिया और भोंसले अपने घाव सहलाते रहे।
दक्षिण में, आर्थर वेलेस्ली के नेतृत्व में ब्रिटिश सेनाओं ने सिंधिया और भोंसले की संयुक्त सेनाओं को सितंबर 1803 में अस्साए में, और नवंबर में आरगांव में पराजित किया। उत्तर में, लॉर्ड लेक ने 1 नवंबर को लसवारी में सिंधिया की सेना को हरा कर अलीगढ़, दिल्ली और आगरा पर कब्जा कर लिया। एक बार फिर से भारत के अंधे सम्राट कंपनी के पेंशनर बने। मराठा सहयोगियों को शांति के लिए याचना करनी पडी। सिंधिया और भोंसले दोनों कंपनी के सहायक गठबंधनकर्ता बन गए। उन्होंने अपने क्षेत्रों के कुछ भाग ब्रिटिशों को सौंप दिए, अपने दरबारों में ब्रिटिश स्थानीय प्रतिनिधि की नियुक्ति के लिए स्वीकृति दी और ब्रिटिशों के अनुमोदन के बिना किसी भी यूरोपीय के साथ चर्चा ना करने का आश्वासन भी दिया। इस प्रकार ब्रिटिशों ने संपूर्ण ओडिशा तट, और गंगा और जमुना के बीच के क्षेत्रों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया। पेशवा उनके हाथों की एक असंतुष्ट कठपुतली बन कर रह गए।
वेलेस्ली ने अब अपना मोर्चा होलकरों की ओर बढ़ाया, परंतु यशवंत राव होलकर अंग्रेजों पर भारी पडे और अंग्रेजों के विरुद्ध एक ठहराव की स्थिति तक लडते रहे। होलकरों के सहयोगी, भरतपुर के राजा, ने लेक की सेनाओं को भारी नुकसान पहुँचाया, और उसने भरतपुर के किले पर कब्जा करने का असफल प्रयास किया। साथ ही सिंधिया ने होलकरों के साथ अपनी बरसों पुरानी शत्रुता को भुला कर होलकरों के साथ हाथ मिलाने का मन बनाया। दूसरी ओर, ईस्ट इंडिया कंपनी के अंशधारियों को भी समझ आने लगा कि युद्ध के रास्ते विस्तार की नीति काफी महंगी साबित हो रही थी, जो उनके लाभ को कम कर रही थी। कंपनी के कर्जे 1797 के 17 मिलियन पाउंड़ से 1806 में बढ़ कर 31 मिलियन पाउंड़ हो गए थे। इसी प्रकार, ब्रिटेन की वित्तीय स्थिति ऐसे समय कमजोर होती जा रही थी, जब यूरोप में नेपोलियन एक बार फिर एक महत्वपूर्ण खतरे के रूप में उभर रहा था।
ब्रिटिश राजनेताओं और कंपनी के निदेशकों को लगने लगा कि और अधिक विस्तार पर नियंत्रण करने का, विनाशकारी खर्चे को कम करने का, और भारत में अब तक ब्रिटेन द्वारा हाल ही में हासिल किये गए लाभों को समेकित करने का सही समय आ चुका था। इसी उद्देश्य से वेलेस्ली को वापस बुला लिया गया, और कंपनी ने होलकर के साथ जनवरी 1806 में राईघाट की संधि के माध्यम से शांति कायम की, और होलकर से जीते हुए क्षेत्रों का बड़ा हिस्सा उन्हें वापस सौंप दिया।
वेलेस्ली की विस्तारवादी नीति अंतिम समय में नियंत्रित कर ली गई। साथ ही इसका परिणाम यह हुआ कि ईस्ट इंडिया कंपनी भारत की सर्वोच्च शक्ति बन गई। कंपनी की न्यायिक सेवा के एक युवा अधिकारी हेनरी रोबेरक्लाव ने लिखा था (1805 के आसपास): भारत में एक अंग्रेज गर्वित और ढृढ़ है, वह परास्त लोगों के बीच अपने आपको विजेता महसूस करता है, और अपने नीचे वाले सभी लोगों की ओर कुछ हद तक हिकारत की नजर से देखता है।
4.0 वॉरेन हेस्टिंग्स
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव रखने में हेस्टिंग्स का प्रभाव क्लाइव के बाद दूसरे क्रमांक पर था। हाई स्कूल शिक्षा पूर्ण करने के बाद, 1750 में उसे ईस्ट इंडिया कंपनी में एक लिपिक के रूप में कार्य करने के लिए बंगाल भेजा गया। हेस्टिंग्स की पहली भारत यात्रा के दौरान उसने लिपिक, सैनिक, दुभाषिया, और स्थानीय प्रतिनिधि (अर्थात, किसी भारतीय राजा के राजदूत के रूप में), और अंत में कंपनी के अध्यक्ष की परिषद जैसे अनेक पदों पर कार्य किया। 1757 में जब हेस्टिंग्स एक निचले स्तर के कार्यकर्ता के रूप में कार्य कर रहा था, तभी कंपनी की किस्मत में एक नाटकीय मोड तब आया जब प्लासी की लडाई में क्लाइव ने ब्रिटिशों के लिए बंगाल पर विजय प्राप्त की। संपत्ति की विशाल आवक और स्थानीय राजाओं और जागीरदारों से निपटने में अनेक प्रकार की कठिनाइयां आयीं। कंपनी इतने विशाल और विविध क्षेत्र पर शासन करने के लिए तैयार नहीं थी। किस प्रकार आगे बढ़ा जाये इस पर आम राय नहीं थी, कंपनी की अनुचित वित्तीय अपेक्षाएं थीं, और प्रशासन के सभी स्तरों पर व्यापक भ्रष्टाचार व्याप्त था। भारत में 14 वर्ष रहने के बाद, 1764 में हेस्टिंग्स ने अध्यक्ष के परिषद के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया, और वह इंग्लैंड वापस लौट गया।
1773 में उसे बंगाल के पहले गवर्नर जनरल के रूप में नियुक्त किया गया। यह पद नया था, और इस क्षेत्र पर प्रशासन करने की दृष्टि से ब्रिटिश प्रशासन तंत्र पूर्ण रूप से विकसित नहीं हुआ था। अपने पद की परवाह किये बिना, हेस्टिंग्स एक पांच सदस्यीय समिति का सदस्य था, जो इतनी अस्तव्यस्त रूप से बनी हुई थी कि हेस्टिंग्स को यह पता ही नहीं था कि वह कौनसा संवैधानिक पद संभाल रहा था।
1775-1800 की अवधि के दौरान, कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस विस्तृत और विविध क्षेत्र को प्रशासित करने के लिए आवश्यक था कि वे इसके विभिन्न धर्मों और सामाजिक और न्यायिक रिवाजों और परंपराओं को सीखें। औपनिवेशिक शासन के लिए इस प्रकार के ज्ञान का महत्त्व स्पष्ट रूप से हेस्टिंग्स के दिमाग में था, जब उसने कहा कि ‘‘ज्ञान की प्रत्येक व्यवहार्यता, और विशेष रूप से ऐसे ज्ञान की जो ऐसे लोगों के साथ सामाजिक संपर्कों और संचार द्वारा प्राप्त की गई है, जिन पर हम शासन कर रहे हैं, और जो विजय के अधिकार पर आधारित है, वह राज्य के लिए लाभदायक है। यह दूर के प्यार को आकर्षित करती है और सांत्वना देती है, यह उस बंधन के भार को कम करती है जिससे स्थानीय लोग गुलामी में बंधे हुए है, और यह हमारे देशवासियों के दिलों पर दायित्व और परोपकार की भावना अंकित करती है। प्रत्येक घटना जो उनके वास्तविक चरित्र को उजागर करती है, वह हमें उनके प्राकृतिक अधिकारों की भावना के प्रति अधिक उदार होने के लिए प्रभावित करेगी, और उन्हें उसी आधार पर तोलने की सीख देगी जैसे हम स्वयं को तोलते हैं। परंतु ऐसी घटनाएँ केवल उनके लेखों से प्राप्त की जा सकती हैं, और ये तब भी जीवित रहेंगी जब अंग्रेजी शासन भारत से काफी पहले ही निकल चुका होगा, और जब वे स्रोत जिन्होंने कभी संपत्ति और सत्ता प्रदान की थी, केवल यादगार बन कर रह जायेंगे। ’’ उस समय हेस्टिंग्स के स्तर के अधिकारी के लिए इस प्रकार की बात कहना काफी आमूल परिवर्तनवादी रहा होगा!
हेस्टिंग्स के दिल में प्राचीन हिंदू ग्रंथों के लिए काफी इज़्ज़त थी, और वह ऐसे मामलों में स्वयं के कुछ नए अविष्कारों की बजाय विद्यमान उदाहरणों का ही उपयोग करना चाहता था। उसकी इस इच्छा ने ब्राह्मण सलाहकारों को कानून में परिवर्तन की अनुमति प्रदान की, क्योंकि तब तक सर विलियम जोंस के अतिरिक्त किसी भी अंग्रेज को पूर्ण रूप से संस्कृत की समझ नहीं थी, और फिर भी, शब्दशः अनुवाद भी अधिक उपयोगी नहीं था। उसे ऐसे धार्मिक टिप्पणीकारों द्वारा समझाया जाना आवश्यक था, जो उसकी स्थानीय व्यवहार्यता से भलीभांति परिचित थे। दुर्भाग्य से, हेस्टिंग्स के इस दृष्टिकोण ने भारतीय जाति व्यवस्था को और अधिक मजबूती प्रदान की, और कुछ हद तक अन्य धर्मों की रूपरेखा को भी, जो कम से कम हाल की सदियों में कुछ हद तक लचीले ढं़ग से लागू की गई थीं।
1784 में, दस वर्ष की सेवा के बाद, जिस दौरान उसने क्लाइव द्वारा निर्माण किये गए नवजात राज को विस्तृत और नियमित करने में मदद की, हेस्टिंग्स ने त्यागपत्र दे दिया। अपनी इंग्लैंड वापसी पर संसद में सर फिलिप फ्रांसिस, जिसे हेस्टिंग्स ने भारत में एक विवाद के दौरान नाराज़ किया था, के प्रोत्साहन पर एडमंड बुर्क द्वारा उस पर उच्च अपराधों और दुराचार के आरोप लगाये गए। 1787 में उस पर महाभियोग लगाया गया, और यह मुकदमा जो 1788 से 1795 तक चला, अंत में उसकी दोषमुक्ति में समाप्त हुआ। हालांकि हेस्टिंग्स ने अपनी अधिकांश संपत्ति अपने बचाव में लगा दी, फिर भी उसके मुकदमे के अंतिम दौर में ईस्ट इंडिया कंपनी ने उसे काफी वित्तीय सहायता प्रदान की।
भ्रष्टाचार के लिए हेस्टिंग्स पर किया गया मुकदमा मूल रूप से फ्रांसिस का काम था, जिसने संसद में अपने संबंधों के माध्यम से इस सात वर्षीय मुकदमे को व्हिग्स बनाम टोरी तसलीम के रूप में परिवर्तित कर दिया। इस भयंकर मामले से एक अच्छी बात जो सामने आई वह यह थी कि इसने भारत में शासन करने से संबंधित समस्याओं को राष्ट्रीय पटल पर उजागर कर दिया। हेस्टिंग्स के बाद भी भारत में भ्रष्टाचार और कुशासन की समस्या आगे कई वर्षों तक बनी रही। हेस्टिंग्स इस अग्निपरीक्षा से सकुशल बाहर आया और अपने अंतिम वर्ष उसने इंग्लैंड में शांतिपूर्वक बिताए, उसकी प्रतिष्ठा बहाल कर दी गई थी, और उसकी विरासत मजबूत रही। 1818 में हेस्टिंग्स का देहांत हो गया।
हम निर्विवाद रूप से कह सकते हैं कि रॉबर्ट क्लाइव और वारेन हेस्टिंग्स वे दो स्तंभ थे जिन्होंने भारत में ब्रिटिश राज की स्थापना को परिभाषित किया, और उनकी इसी शक्ति का लाभ आने वाली पीढ़ियों ने पूरी तरह से उठाया।
5.0 चार्ल्स कॉर्नवालिस
चार्ल्स कॉर्नवॉलिस एक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी और प्रशासक था। वह 1786 से 1793 के दौरान भारत का गवर्नर जनरल था।
लॉर्ड कॉर्नवॉलिस को 1786 में भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया था, और वह पिट्स इंडिया अधिनियम के अंतर्गत बंगाल का कमांडर-इन चीफ भी बना। जन्म से ही कुलीन कॉर्नवॉलिस को भारत की प्रशासनिक व्यवस्था को पुनर्गठित करने का कार्य सौंपा गया था। भारत का ब्रिटिश प्रशासन भू राजस्व, और न्यायिक भ्रष्टाचार की समस्याओं से ग्रसित था, और वाणिज्य विभाग असंगठित थे। लॉर्ड कॉर्नवॉलिस पर इन बाधाओं पर काबू पाने और एक संभाव्य समाधान निकालने का दायित्व सौंपा गया था।
कॉर्नवॉलिस ऐसे सभी प्रकार के सुधारों के कार्य में संलग्न था, जिनका नागरिक, सैन्य और कॉर्पोरेट प्रशासन पर प्रभाव था। इतिहासकार जेरी डुपोंट के अनुसार, कॉर्नवॉलिस ‘‘संपूर्ण भारत में ब्रिटिश शासन की नींव रखने, और सेवाओं, न्यायालयों, और राजस्व संग्रहण के लिए ऐसे मानक प्रस्थापित करने के लिए जिम्मेदार था, जो भारत में ब्रिटिश शासन के लगभग संपूर्ण कार्यकाल के दौरान हिस्सा बढ़ाने वाले रहे।‘‘ उसने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यकलापों में भी कई सुधार अधिनियमित किये, और विशेष रूप से मैसूर के साम्राज्य को छोड कर, वह अपने संपूर्ण शासन काल के दौरान कंपनी को आमतौर पर संघर्षों से दूर रखने में सफल रहा था।
कॉर्नवॉलिस के कार्यकाल के पहले, कंपनी के कर्मचारियों को अपने खातों पर व्यापार करने की अनुमति थी, और वे कंपनी के जहाजों का उपयोग अपनी वस्तुओं को इंग्लैंड भेजने के लिए किया करते थे। यह व्यवस्था तब तक सहन की गई जब तक कंपनी लाभ में थी, परंतु 1780 का दशक आते-आते कंपनी की वित्तीय स्थिति अच्छी अवस्था में नहीं रह गई। कॉर्नवॉलिस ने इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया, और इसके बदले में, कंपनी के कर्मचारियों के वेतन बढ़ा दिए। उसने योग्यता आधारित पदोन्नति की व्यवस्था प्रतिस्थापित करके भाई-भतीजावाद, और राजनीतिक पक्षपात को कम करने की दिशा में भी उल्लेखनीय कार्य किया।
न्यायिक समस्याओं को ठीक करने की दृष्टि से लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने भारत में न्यायिक सुधारों की व्यवस्था की शुरुआत की। इनमें जिलाधीश के सक्षम हाथों में अधिकारों को केंद्रित करना भी शामिल था। नया गवर्नर जनरल केवल उसकी नियुक्त करने वाले नियंत्रण बोर्ड के प्रति उत्तरदायी था। अतः वह राज्य की नीतियों के संघर्ष में आने वाले ईस्ट इंडिया कंपनी के गौण हितों का विरोध करने में भी सक्षम बना। उसके कार्यकाल (1786-1793) के दौरान, लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने राजस्व बोर्डो को समाप्त कर दिया, और व्यापार के लिए नए नियम अधिनियमित किये। वह पहला व्यक्ति था, जिसने सभी चीजें कंपनी के शासन के अधीन लायीं। अतः संपूर्ण प्रशासन पुनर्गठित हो गया था।
भारत में स्थायी समाधान के रूप में जाना जाने वाला कॉर्नवॉलिस नियम का एक भाग एक महत्वपूर्ण भू राजस्व सुधार था। इस सुधार ने कंपनी द्वारा अपने क्षेत्रों में वसूल किये जाने वाले राजस्व के तरीकों को स्थायी रूप से परिवर्तित कर दिया। इसमें भू-स्वामियों (जिन्हें जमींदार कहा जाता था) पर लगाया जाने वाला कर उनकी भूमि के मूल्य के आधार पर लगाने की व्यवस्था थी, ना कि अनिवार्य रूप से उनके उत्पाद के मूल्य पर। कॉर्नवॉलिस और इन सुधार बनाने वालों के मन में था, कि ये सुधार जमींदारों की उत्पादन को अधिकतम करने की अपमानजनक प्रथाओं से भूमि के पट्टेदारों (रयोतों) की सुरक्षा करने में भी सक्षम था। कॉर्नवॉलिस, जो स्वयं एक भू स्वामी था, विशेष रूप से यह मानता था कि जमींदारों का एक सभ्य वर्ग स्वाभाविक रूप से अपनी भूमि के सुधारों के प्रति, और इस प्रकार, उसपर काम करने वाले पट्टेदारों की स्थिति में सुधार करने के प्रति भी चिंतित रहेगा।
वाणिज्य विभाग में भ्रष्टाचार अपने चरम पर था। इस बुराई को समाप्त करने के लिए कॉर्नवॉलिस ने व्यापारी बोर्ड की संख्या में कमी कर दी, और अंत में आपूर्तियां प्राप्त करने के लिए स्थानिक प्रतिनिधियों की प्रतिस्थापना की। भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और निजी व्यापार की समस्याओं जैसी बुराइयों का सख्ती से दमन किया गया। प्रशासन की व्यवस्था संभालने के साथ-साथ कॉर्नवॉलिस ने सैन्य अभियान भी चलाया। 1782 से 1799 के दौरान उसे मैसूर के शासक टीपू सुल्तान से बडे़ पैमाने पर विरोध का सामना करना पड़ा। 1790 से 1792 के मैसूर के तृतीय युद्ध में कॉर्नवॉलिस ने ब्रिटिश सेना का नेतृत्व किया। युद्ध का अंत टीपू सुल्तान द्वारा अपने साम्राज्य का आधा क्षेत्र अंग्रेजों को समर्पण करने के रूप में हुआ।
जहां तक कॉर्नवॉलिस के प्रशासनिक सुधारों का प्रश्न है, तो उसकी उपलब्धियां इतनी प्रभावशाली थीं कि आमतौर पर उन्हें दोषहीन माना जाता था। लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने भारत की समस्याओं को अपने विभिन्न सुधारों और उपायों के माध्यम से सुलझाने का प्रयास किया। वह भारत में ब्रिटिश सिद्धांत और ब्रिटिश संस्थाएं स्थापित करने के लिए जिम्मेदार था।
1793 में लॉर्ड कॉर्नवॉलिस मार्कवि (काउंट से ऊपर और ड्यूक से नीचे का एक सरदार) की उपाधि प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड वापस चला गया, और उसे प्राइवी परिषद में एक स्थान प्रदान किया गया। बाद में उसे मंत्रिमंडल में भी स्थान दिया गया। लॉर्ड कॉर्नवॉलिस का निधन 5 अक्टूबर 1805 को हुआ।
6.0 विलियम बेंटिंक
लेफ्टिनेंट जनरल लॉर्ड विलियम हेनरी कैवेंडिश बेंटिंक एक ब्रिटिश सैनिक और राजनयिक था। उसने 1828 से 1835 के दौरान भारत में गवर्नर जनरल के रूप में अपनी सेवाएं प्रदान कीं।
लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने भारत में एक चिरस्मरणीय सुधारों के युग की शुरुआत की। उसका सात वर्ष का कार्यकाल गंभीर और खर्चीले अभियानों के दो कालों के बीच का शांतिपूर्ण अंतराल साबित हुआ, और इस प्रकार उन सुधारों को क्रियान्वित करने में सफल हुआ जो पिछले काफी समय से बाकी थे। लॉर्ड बेंटिंक की प्रशासनिक क्षमता को परावर्तित करने वाले जिन सुधारों का श्रेय उसे दिया जाता है वे थे सती प्रथा और ठगी का उन्मूलन।
सती प्रथा का उन्मूलनः ब्रिटिशों से पहले भी सती प्रथा को मानवता की अंतरात्मा के हेतु एक चुनौती के रूप में देखा जाता था। महानतम मुगल शासक अकबर ने एक सती की चिता की अग्नि से रक्षा करने के लिए अपने महल से कूच कर दिया था, गोवा में अल्बुकर्क ने इसे प्रतिबंधित कर दिया था, और पेशवा ने अपने क्षेत्र में इसे प्रतिबंधित किया हुआ था।
परंतु बेंटिंक से पहले किसी ने भी सती को अपराध और दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय नहीं माना था। ब्रिटिश अंतरात्मा को इसने बहुत पहले ही छू लिया था, परंतु धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप ना करने की उनकी नीति थी, साथ ही इसके गंभीर परिणाम होने की भी आशंका थी। लॉर्ड एमहर्स्ट ने लोगों की राय आमंत्रित की थी, किंतु मतों की भिन्नता और विविधता ने उसे केवल भ्रमित ही किया था।
बेंटिंक ने ढृढ निश्चय किया था कि किसी भी प्रकार से वह इस मामले को समाप्त करेगा। उसने जिन सैन्य और नागरिक अधिकारियों से सलाह की थी और राय मांगी थी, उन्होंने, और साथ ही राजा राममोहन राय ने भी उसे समर्थन करते हुए यह राय दी थी कि कानूनी प्रतिबंध के कोई गंभीर परिणाम नहीं होंगे।
इस प्रकार, दिसंबर 1829 के एक कानून के माध्यम से उसने सती प्रथा को गैर कानूनी और न्यायालय द्वारा ‘‘सदोष मानव वध’’ के रूप में दंडनीय अपराध घोषित कर दिया। रूढ़िवादी लोगों को छोड़कर प्रबुद्ध हिन्दुओं से इस अधिनियम को व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ।
एक सामाजिक सुधार लाने के लिए कानून का उपयोग कइयों के लिए एक नया अनुभव था। परंतु किसी को भी इस बारे में शंका नहीं है कि यह उपाय हिन्दुओं के एक बडे़ वर्ग के लिए लाभदायक साबित हुआ है।
ठगी का दमनः इस प्रथा को नष्ट करने के लिए विलियम बेंटिंक ने सर विलियम स्लीमन के नेतृत्व में एक विभाग का गठन किया जिनके अथक प्रयासों से अंततः मुखबिरों की सहायता से इन गिरोहों को तोड़ने में सफलता प्राप्त हुई। ठगों का एक स्थान से दूसरे स्थान तक पीछा किया गया, उन्हें पकड़ा गया और दंडित किया गया।
स्थिति को सुधारने के लिए ये उपाय केवल घृणित कार्यों को दंडित करने के उद्देश्य से ही नहीं किये गए थे, बल्कि जबलपुर में एक औद्योगिक विद्यालय खोला गया, जिसमें इन्हें उपयोगी शिल्प कलाएं सिखाई गयीं और उन्हें सभ्य नागरिकों की तरह जीने के लिए प्रोत्साहित किया गया।
शिशुओं और बच्चों की बलि प्रथा का दमनः हालांकि 1795 के बंगाल अधिनियम XXI और 1804 के अधिनियम III के तहत शिशु हत्या को अवैध घोषित कर दिया गया था, फिर भी यह अमानवीय प्रथा जारी रही। विलियम बेंटिंक ने इस अनैतिक और अमानवीय प्रथा को समाप्त करने के लिए अथक उपाय किये।
विलियम बेंटिंक का ध्यान बंगाल के सौगार द्वीप में विशेष अवसरों पर दी जाने वाली बच्चों की बलि की ओर भी गया। बेंटिंक ने तुरंत इस प्रथा को बंद करने के आदेश जारी किये।
लोक सेवाओं में भर्तियांः लोक सेवाओं में भारतीयों के मामलों में बेंटिंक ने कॉर्नवॉलिस द्वारा लागू की गई, और बाद के गवर्नर जनरल द्वारा जारी रखी गई यूरोपीय और भारतीयों के बीच अपमानजनक भेदभाव की नीति को परिवर्तित करने की पहल की।
अर्हता के लिए अब योग्यता को आधार माना जाने लगा। 1833 के चार्टर अधिनियम के अनुच्छेद 87 में यह प्रावधान था कि ‘‘भारत में कंपनी के किसी भी भारतीय कर्मचारी को उसके धर्म, जन्म स्थान, वंश, और रंग के आधार पर किसी भी पद पर बने रहने से निषिद्ध नहीं किया जा सकता।’’ ऐसा माना जाता है कि चार्टर में यह अनुच्छेद बेंटिंक के आग्रह के कारण सम्मिलित किया गया था। हालांकि इस अनुच्छेद का तात्कालिक प्रभाव विशेष नहीं था, फिर भी इसने एक महत्वपूर्ण और स्वस्थ्य परंपरा की शुरुआत की।
शैक्षणिक सुधारः बेंटिंक के निर्णयों में से में सबसे महत्वपूर्ण और दूरगामी परिणामकारी निर्णय भारत में शिक्षा से संबंधित उसके निर्णय थे। एलफिंस्टन ने 1825 में ही लिखा था कि सामाजिक सुधारों का एकमात्र प्रभावी मार्ग और सामाजिक हनन को दूर करने का एकमात्र उपाय शिक्षा था।
मैकॉले की शिक्षा प्रणाली ने भारतीयों के नैतिक और बौद्धिक चरित्र को काफी हद तक प्रभावित किया है। बेंटिंक की सरकार ने भारत में शिक्षा के उद्देश्य और लागू किये जाने वाले शिक्षा के माध्यम को परिभाषित किया है।
लोक शिक्षण समिति के सदस्य संख्या की दृष्टि से दो समान भागों में विभक्त थेः हेमन विल्सन और प्रिंस भाइयों के नेतृत्व में प्राच्य विद्या विशारद, और सर चार्ल्स ट्रेवेलयर और राजा राममोहन राय जैसे भारतीय उदारवादियों द्वारा समर्थित पाश्चात्य या आंग्लभाषायी।
1813 के चार्टर अधिनियम द्वारा प्रति वर्ष एक लाख रुपये की रकम ‘‘ब्रिटिश क्षेत्रों के निवासियों के बीच विज्ञान के ज्ञान को प्रोत्साहित करने और इनका पुनरुद्धार करने के लिए‘‘ आवंटित की गई थी। भारत सरकार यह निर्णय नहीं कर पाई कि इस रकम का उपयोग किस प्रकार करना है, और यह रकम प्रति वर्ष एकत्रित होती चली गई।
1823 में, श्री एडम्स ने सुझाव देने के लिए एक लोक शिक्षण समिति का गठन किया। हालांकि प्रथम बर्मा युद्ध की पूर्व व्यस्तता के चलते इस पर अधिक कुछ नहीं किया जा सका। विलियम बेंटिंक को इस समस्या से निपटना पड़ा। न्यायिक सदस्य के रूप में मैकॉले के आगमन से उन लोगों के हाथ मजबूत हुए जो इस धन का उपयोग अंग्रेज़ी शिक्षा के लिए व्यय करना चाहते थे।
अंत में, इस विषय का समाधान अंग्रेज़ी के पक्ष में हुआ। इस समस्या को निर्णीत करने में व्यवहारिक सोच महत्वपूर्ण साबित हुई। ऐसा माना गया कि इससे न केवल भारत सरकार को सस्ते लिपिक उपलब्ध होंगे, बल्कि अंग्रेज़ी वस्तुओं की मांग में भी वृद्धि होगी।
यहाँ तक कि राजा राममोहन राय जैसे भारतीय भी अंग्रेज़ी भाषा के पक्ष में थे। मार्च 1835 के एक प्रस्ताव के द्वारा विलियम बेंटिंक ने घोषणा की कि ‘‘ब्रिटिश सरकार का महान उद्देश्य स्थानीय लोगों के बीच साहित्य और विज्ञान को प्रोत्साहित करना होना चाहिए, और शिक्षा के लिए आवंटित निधि का उपयोग केवल अंग्रेज़ी की शिक्षा के लिए किया जाना चाहिए।’’
प्रशासन की उच्च शाखाओं में अंग्रेज़ी को आधिकारिक भाषा बनाया गया। उसी समय से अंग्रेज़ी भाषा, अंग्रेज़ी साहित्य, अंग्रेज़ी राजनीति और प्राकृतिक विज्ञान भारतीय उच्च शिक्षा के आधार बने। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेज़ी शिक्षा ने भारतीय लोगों को एक लोकभाषा प्रदान की, और उसके माध्यम से देश में राष्ट्रीयता की भावना बढ़ाने में सहायता प्रदान की। भारतीयों का पश्चिमी ज्ञान के खजाने से परिचय कराया गया। 1835 में, कलकत्ता में एक चिकित्सा महाविद्यालय की शुरुआत की गई। इस प्रकार, भारतीय विद्यार्थियों को चिकित्सा के पाश्चात्य सिद्धांत दिए जाने लगे।
आर्थिक सुधारः बेंटिंक के आर्थिक सुधारों के दो उद्देश्य थे। एक था छंटनी और दूसरा था राजस्व में वृद्धि।
अपना कार्य सँभालने के तुरंत बाद, बेंटिंक ने बढे़ हुए व्यय की जांच करने के लिए और उसमें कमी करने के उपाय सुझाने के लिए दो समितियों की नियुक्ति की - नागरिक और सैन्य। उनके सुझावों के परिणामस्वरूप उसने कई कार्यभार रहित पदों को समाप्त कर दिया, कई अनावश्यक रूप से बढे़ हुए भत्तों में कटौती की, और लोक सेवकों के वेतनों में कटौती की।
सैन्य प्रतिष्ठानों में ‘‘भत्ता‘‘ भत्ते के अतिरिक्त अधिक कटौती की गुंजाईश नहीं थी। नवंबर 1828 में आदेश जारी करके कलकत्ता से 400 मील के अंदर के सभी स्थानों पर भत्ते की रकम तयशुदा रकम की आधी कर दी गई। इसके विरोध में तुरंत हल्ला शुरू हो गया। गवर्नर जनरल का सरेआम अपमान किया गया, और एंग्लो-इंडियन प्रेस ने इस हमले में अपने जहरीले बाण छोडे़। परंतु बेंटिंक ने अपना दिमाग शांत रखा और यह तूफान अपनी प्राकृतिक मौत मर गया। इससे हुई बचत वार्षिक लगभग 20,000 रुपये थी।
बेंटिंक द्वारा शुरू किये गए छंटनी के एक और उपाय ने कंपनी द्वारा गठित न्यायिक संरचना को प्रभावित किया। यह था अपील और सर्किट के प्रांतीय न्यायालयों की समाप्ति। न्यायालय के रूप में और सर्किट न्यायालयों के रूप वे ही न्यायाधीश वर्ष में दो बार सत्र मुकदमे चलाते थे। हालांकि यह व्यवस्था चरम में त्रुटिपूर्ण थी।
न्यायाधीशों की न्यायिक कुशाग्र बुद्धि अवमानना से नीचे थी, और बेंटिंक द्वारा उन्हें उन व्यक्तियों के लिए आरामगाह करार दिया गया जो उच्च जिम्मेदारियों के लिए अयोग्य माने गए थे। इस संदर्भ में बेंटिक द्वारा न्यायालयों की समाप्ति एक आर्थिक और न्यायिक सुधारों के उपाय के रूप में थी।
प्रशासनिक और न्यायिक सुधारः ब्रिटिश भारत की प्रशासनिक संरचना को स्वरुप कॉर्नवॉलिस द्वारा दिया गया था। परंतु कॉर्नवॉलिस के समय के बाद से कंपनी ने काफी प्रगति की थी, और चूंकि उसने प्रगति के साथ कदम नहीं मिलाये थे, अतः उस संरचना की त्रुटियाँ उजागर होने लगी थीं विशेष रूप से न्यायिक प्रणाली में तीन प्रमुख खामियां थीं - ‘‘देरी, व्यय और अनिश्चितता।‘‘ कलकत्ता, जो प्रशासन का केंद्र था, नए अधिग्रहित क्षेत्रों की दृष्टि से बहुत दूर था। सर चार्ल्स मेटकाफ, बटरवर्थ बैली और हॉल्ट मैकेंजी की सक्षम सहायता से बेंटिक ने न्यायिक संरचना के पुनर्गठन पर दिमाग लगाया। उसने अपील और सर्किट के प्रांतीय न्यायालयों को समाप्त कर दिया। सत्र न्यायालयों की जिम्मेदारी उसने जिला न्यायालयों को स्थानांतरित कर दी, और मूल न्यायालय से अपील की सुनवाई के लिए उत्तर पश्चिमी प्रान्त के सदर या मुख्य न्यायालयों की स्थापना की। इस संस्थागत पुनर्रचना ने न्याय से संबंधित याचिकाकर्ताओं की काफी मुश्किलें आसान कर दीं, और मामलों के त्वरित निपटारे में भी सहायता प्रदान की। प्रशासनिक तंत्र के पुनर्गठन में आमतौर पर मेटकाफ द्वारा सुझाये गए मार्ग का अनुसरण किया गया, अर्थात, पहले चरण में सभी विभागों में स्थानीय कर्मचारी।
अपने प्रशासनिक सुधारों में बेंटिंक ने अर्थव्यवस्था और सरलता को अपनाया, और उसके द्वारा स्थापित तंत्र कुछ छोटे परिवर्तनों के साथ आज भी विद्यमान हैं।
उसके द्वारा दूर की गई एक और विसंगति थी न्यायालयों में फारसी का होने वाला उपयोग, एक ऐसी भाषा जिसका ज्ञान न्यायाधीशों और पक्षकारों, दोनों को ज्ञान नहीं था। बेंटिक ने फारसी के उपयोग को समाप्त कर दिया, और उसके स्थान पर स्थानीय बोली भाषा के उपयोग की शुरुआत की। इस परिवर्तन ने लोगों को बहुत लाभान्वित किया और उन्हें अपनी शिकायतें अपनी भाषा में व्यक्त करने की सुविधा प्रदान की।
बेंटिंक की प्रेस नीतिः बेंटिंक की प्रेस की नीति की विशेषता थी उसका उदारवाद। उसने इसका उपयोग असंतोष के लिए सुरक्षा वॉल्व के रूप में किया।
लॉर्ड विलियम बेंटिंक भारत आने वाले सबसे सफल गवर्नर जनरलों में से एक था। उसे अपने किसी भी पूर्ववर्ती की अपेक्षा अधिक लोकप्रियता और प्रसिद्धि प्राप्त हुई। डॉ. ईश्वर प्रसाद कहते हैं ‘‘बेंटिंक के गौरव शांति के गौरव थे।‘‘ पी.ई. रॉबर्ट्स कहते हैं कि शांतिपूर्ण और आर्थिक रूप से समृद्ध प्रशासन ने ईस्ट इंडिया कंपनी की महान सेवा की।
सही ही कहा गया है, कि ‘‘जबकि हेस्टिंग्स का प्रशासन युद्ध में विजय के लिए जाना जाता था, वहीं बेंटिंक का प्रशासन हमेशा शांति की विजय के लिए जाना जायेगा।‘‘
7.0 लॉर्ड डलहौजी
स्कॉटलैंड महल में 1812 में पैदा हुए लॉर्ड डलहौजी का मूल नाम था जेम्स एंर्ड्यू ब्रॉउन रामसे। लॉर्ड डलहौजी ऐसे अग्रणी थे जिसने भारतीय तार प्रणाली की शुरुआत की थी।
1848 में जब लॉर्ड डलहौजी ने भारत की धरती पर कदम रखा, उस समय ब्रिटिश साम्राज्य अपने शिखर पर था। हालांकि 1849 में सिख युद्ध शुरू हुआ, जिसके परिणामस्वरूप पंजाब ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बन गया। इसी सिख युद्ध में लॉर्ड डलहौजी ने एक विजेता भूमिका अदा की थी। फिर, द्वितीय बर्मा युद्ध शुरू हुआ जिसमे लॉर्ड डलहौजी का उल्लेखनीय योगदान था। इस युद्ध का परिणाम रंगून और बर्मा के ब्रिटिश साम्राज्य में विलय में हुआ।
क्षय और विलय की नीति लॉर्ड डलहौजी द्वारा विकसित की गई प्रसिद्द नीति थी। इस नीति के कारण ही लॉर्ड डलहौजी ब्रिटिश साम्राज्य का केंद्रीय व्यक्तित्व बन गया। क्षय और विलय की नीति के तहत झाँसी, सातारा और नागपुर जैसे स्थान साम्राज्य के हिस्से बन गए।
शुरू से ही उसने यह निश्चय किया था कि प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन को जहाँ तक संभव है वहां तक विस्तारित किया जायेगा। उसने घोषणा की थी कि ‘‘भारत की सभी स्थानीय रियासतों की समाप्ति केवल समय का प्रश्न है।‘‘ इस नीति का निहित उद्देश्य ब्रिटिश निर्यात का विस्तार करना था। अन्य साम्राज्यवादियों की ही तरह, डलहौजी का मानना था कि भारतीय स्थानीय राज्यों में ब्रिटिश निर्यात के मात खाने का कारण उन राज्यों के स्थानीय शासकों का कुप्रशासन था। साथ ही उन्हें लगता था कि उनके ‘‘भारतीय मित्रों‘‘ ने भारत पर ब्रिटिश विजय की सुविधा का उद्देश्य प्राप्त कर लिया था और अब इससे लाभदायक तरीके से छुटकारा पाया जा सकता था।
लॉर्ड डलहौजी ने अपनी राज्य-हरण की नीति को लागू करने के लिए जिस प्रमुख साधन का उपयोग किया वह था ‘‘क्षय का सिद्धांत‘‘। इस सिद्धांत के अंतर्गत जब एक संरक्षित क्षेत्र के शासक की प्राकृतिक उत्तराधिकारी के ना होते हुए मृत्यु हो जाती थी, तो उसका राज्य इस देश की सदियों पुरानी परंपरा के अनुसार गोद लिए हुए उत्तराधिकारी को तब तक नहीं दिया जा सकता था, जब तक कि ऐसे गोद लेने की प्रक्रिया को पूर्व में किसी ब्रिरिश अधिकारी द्वारा अनुमोदित नहीं किया गया हो। इसके बजाय, उसका ब्रिटिश भारत में विलय किया जाना था। इस सिद्धांत का पालन करते हुए 1848 में सातारा और नागपुर और 1854 में झाँसी जैसे राज्यों का विलय किया गया था।
डलहौजी ने कई भूतपूर्व राजाओं की पदवियों को मान्य करने से, और उन्हें पेंशन देने से इंकार कर दिया। इस प्रकार से कर्नाटक और सूरत के नवाब, और तंजोर के राजा की पदवियाँ समाप्त कर दी गयी थीं। इसी प्रकार, भूतपूर्व पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु के पश्चात, जिसे बिठूर का राजा बनाया गया था, डलहौजी ने उसकी पेंशन उसके गोद लिए हुए पुत्र नाना साहेब को देने से मना कर दिया था।
लॉर्ड डलहौजी की अवध के राज्य के विलय में काफी रूचि थी। किंतु इस कार्य में कुछ कठिनाइयां थीं। एक यह कि, अवध का नवाब बक्सर की लड़ाई के समय से ही ब्रिटिशों का मित्र था। साथ ही अनेक वर्षों तक वे ब्रिटिशों के बहुत ही आज्ञाकारी थे। अवध के नवाब के कई उत्तराधिकारी थे, अतः वह क्षय के सिद्धांत के अंतर्गत नहीं आता था। उसे अपने राज्य से वंचित करने का कोई और बहाना ढूंढना आवश्यक था। अंत में, डलहौजी को अवध के लोगों की दुर्दशा समाप्त करने का विचार आया। नवाब वाजिद अली शाह पर राज्य के कुप्रशासन और सुधारों को लागू ना करने का आरोप लगाया गया, अतः 1856 में उसके राज्य पर कब्जा कर लिया गया।
अवध के लोगों के लिए प्रशासन का पतन निर्विवाद रूप से दर्दनाक वास्तविकता थी। उस समय के अन्य राजाओं की ही तरह अवध का नवाब भी स्वार्थी था, जिसे केवल स्वयं भोग में ही रूचि थी और अच्छे प्रशासन और लोगों के कल्याण से उसे कोई सरोकार नहीं था। लेकिन इन हालातों के लिए कुछ हद तक ब्रिटिश भी जिम्मेदार थे, जिन्होंने 1801 से ही अवध को न केवल नियंत्रित किया हुआ था, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से उस पर शासन भी किया था।
वास्तव में, अवध की मेनचेस्टर की वस्तुओं के लिए एक विशाल बाजार के रूप में संभावना ही डलहौजी के लालच के पीछे का कारण था, और इसीने उसके अंदर ‘‘परोपकार‘‘ की भावनाओं को जन्म दिया था। और इन्ही कारणों से ब्रिटेन की कच्चे कपास की बढ़ती मांग की पूर्ति के लिए डलहौजी ने 1853 में निज़ाम से बेरार का कपास उत्पादक क्षेत्र हथिया लिया था।
यह स्पष्ट रूप से समझ लेना आवश्यक है कि स्थानीय अधिग्रहित राज्यों के रखरखाव का प्रश्न इस समय बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह गया था। वास्तव में तो उस समय कोई भी भारतीय राज्य अस्तित्व में ही नहीं था। सुरक्षा के अंतर्गत स्थानीय राज्य ब्रिटिश साम्राज्य के उतने ही ब्रिटिश राज्य के हिस्से थे जितने कि कंपनी द्वारा प्रत्यक्ष रूप से शासित क्षेत्र। यदि इन राज्यों पर ब्रिटिश नियंत्रण का स्वरुप बदला जाता था तो यह केवल ब्रिटिशों की सुविधा की दृष्टि से ही किया जाता था। इस बदलाव का वहां की जनता के हितों से कोई सरोकार नहीं था।
राजकीय मामलों के अतिरिक्त, डलहौजी एक सफल प्रशासक के रूप में भी जाना जाता था। लॉर्ड डलहौजी के भारत पर शासन काल के दौरान उसके मार्गदर्शन में ही देश में तार सेवा, डाक सेवा, रेलवे और सड़क यातायात का बडे़ पैमाने पर विकास हुआ। उसकी कौशल्यपूर्ण उपलब्धियों के स्मरणार्थ भारत में ऐसे कई स्थान हैं जिनका नाम लॉर्ड डलहौजी के नाम पर रखा गया है। डलहौजी क्लब ऐसा ही एक स्थान है, जिसकी प्रसंशा प्रत्येक व्यक्ति द्वारा की जाती है।
कई इतिहासकारों द्वारा कहा जाता है, देश में 1857 के सिपाही विद्रोह के लिए लॉर्ड डलहौजी ही जिम्मेदार था।
8.0 भारत के गवर्नर जनरलों की सूची
COMMENTS