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हैदर अली, टीपू सुल्तान और आंग्ल-मैसूर युद्ध
1.0 प्रस्तावना
1761 में लड़े गये पानीपत के तीसरे युद्ध ने मराठा शक्ति को बड़ी सीमा तक कमज़ोर कर अंग्रेज़ों को शक्ति प्रदान की। 1772 तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक महत्वपूर्ण भारतीय शक्ति बनकर उभरी। इंग्लैण्ड में बैठे निर्देशक और भारत में उसके अधिकारी और ज्यादा महत्वाकांक्षी हो गये तथा कुछ युद्धों की मदद से बंगाल में उनके नियंत्रण को मजबूत करने में लग गये। यद्यपि, भारतीय राज्यों के आंतरिक मामलों में दखलअंदाजी की उनकी आदतों ने और उनकी राज्य और धन की लालसा ने उन्हें शीघ्र ही युद्धों की श्रृंंखला में व्यस्त कर दिया। दक्षिण में वे शक्तिशाली हैदर अली और उनके पुत्र टीपू सुल्तान के खिलाफ हो गये।
2.0 हैदर अली का आरम्भ
हैदर अली का जन्म 1721-’22 में बूढ़ीकोट में हुआ था। अपनी नौकरी के प्रारंभिक दिनों में उसने मैसूर के प्रसिद्ध हिंदू साम्राज्य अडियार (वोडियार) में अपनी सेवाएँ दी। धीरे-धीरे उसने मैसूर का राज्य पा लिया और 1766 में राजा बन गया। हैदर को पहला भारतीय होने का श्रेय दिया जाता है जिसने सिपाहियों के ऐसे दस्ते गठित किये जिनके पास खंजरयुक्त बंदूके थीं और उसके पास एक प्रशिक्षित सेना भी थी जिसमें यूरोपीय काम करते थे।
1755-’56 से ही उसने फ्रांसीसियों की मदद से अपनी सशस्त्र सेना और शस्त्रागार तैयार किया। हैदरअली ने मुगल पद्धति से एक गतिशील घुड़सवार सेना तैयार की जिसके साथ उसकी बढ़ती हुई सैन्य शक्ति की प्रतीक अनुशासित पैदल सेना भी थी जिनके पास बन्दूकें थीं। उसने राजस्व संग्रह पद्धति को भी केन्द्रिकृत किया जो कि पहले स्थानीय सरदारों जैसे ’देशमुख’ और ’पालेगर’ और उनके सेवकों ’गौडा” और ”पटेलों” के पास थी। हैदर अली ने मुगल दृष्टिकोण को मानक मानते हुए, स्थानीय सरदारों को ’ज़मींदार’ माना लेकिन उनके अधिकारों को मान्यता नहीं दी। उसने किसानों से सीधे ही कर वसूली की व्यवस्था की।
2.1 अंग्रेज़ों के साथ युद्ध
1766 में अंग्रेज़ों ने हैदराबाद के निज़ाम के साथ मिलकर हैदर अली पर आक्रमण किया। किन्तु हैदर अली ने मद्रास काउँसील को मजबूर किया कि वह उसके साथ उसकी शर्तों पर शांति समझौते पर हस्ताक्षर करें। यह समझौता 1769 की मद्रास संधि के नाम से जाना जाता है। 1769 में हुई संधि के अनुसार दोनों ही पक्ष इस बात पर सहमत हुए कि वे युद्ध में जीते हुए क्षेत्र और कैदियों को एक दूसरे को लौटा देंगे। दोनों ही पक्ष इस बात पर सहमत हुए कि यदि उनमें से किसी पर भी कोई तीसरा राज्य आक्रमण करता है तो वे एक दूसरे की मदद करेंगे।
बाद में जब अंग्रेज़ 1775 से 1782 के बीच मराठाओं से आंग्ल-मराठा युद्ध लड़ रहे थे, तब हैदर अली ने मलाबार तट की कुछ छोटी रियासतों पर आक्रमण कर दिया। हैदराबाद के निज़ाम ने भी उसी समय कंपनी के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार अंग्रेज़ मराठा, मैसूर और हैदराबाद के शक्तिशाली गठजोड़ का सामना कर रहे थे। इसी समय, 1776 में अपने उपनिवेश अमेरिका में भी जहाँ लोगों ने व्रिदोह कर दिया था, वे एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे थे। उन्हें फ्रांसीसियों के दृढ़ निश्चय का भी सामना करना था जो अपने पुराने प्रतिद्वंदियों को परेशानी के समय मुसीबत में डालने को तैयार बैठे थे।
अंग्रेज़ों और मराठाओं के बीच 1782 में की गई सालबाई संधि ने अंग्रेजों को 20 वर्ष तक शांति का अवसर दिया। अंग्रेजों ने इस समय का उपयोग बंगाल में अपने शासन को मजबूत करने में किया, जबकि मराठा सरदारों ने अपनी उर्जा आपसी झगड़ों में गँवाई। इसके साथ ही उस संधि ने अंग्रेज़ां को मैसूर पर दबाव डालने का अवसर दिया, चूँकि मराठाओं ने अंग्रेज़ों को हैदर अली के विरूद्ध उनके क्षेत्र पुनः जीतने में सहायता का वादा किया था।
मराठाओं ने 1771 में हैदर अली पर आक्रमण किया। मद्रास संधि के अनुसार, अंग्रेज़ां को उसकी सहायता के लिये आना चाहिये था पर वे नहीं आये। इसी दौरान अंग्रेज़ों ने फ्रांसीसियों से पश्चिमी समुद्र तट का माहे बंदरगाह छीन लिया। मैसूर राज्य माहे बंदरगाह का उपयोग करता था। जब अंग्रेज़ों ने माहे खाली करने से इंकार कर दिया तो हैदर अली ने 1780 में उनके विरूद्ध युद्ध की घोषणा की। इतिहासकार इसे द्वितीय मैसूर युद्ध कहते हैं। अपनी पिछली सफलताओं को दोहराते हुए हैदर अली ने एक के बाद एक जीत दर्ज की और ब्रिटिश सेनाओं को बड़ी संख्या में कर्नाटक में समर्पण करने को मजबूर किया। शीघ्र ही उसने लगभग सारे कर्नाटक पर अधिकार कर लिया।
किंतु एक बार पुनः अंग्रेज़ सेनाओं और कूटनीति ने उन्हें बचा लिया। वॉरेन हैस्टिग्ंस ने हैदराबाद के निज़ाम को गुंटूर जिला रिश्वत में देकर उसे ब्रिटिश विरोधी गठबंधन से बाहर करवा दिया। 1781-’82 में उसने मराठाओं के साथ सालबाई की शांति संधि कर ली और अपनी सेना का एक बड़ा हिस्सा मैसूर के विरूद्ध युद्ध के लिए मुक्त कर लिया। जुलाई 1781 में ब्रिटिश सेना ने एयरी कूट के नेतृत्व में हैदर अली को पोर्टो नोवो (परांगीपेट्टई) में पराजित कर मद्रास को बचा लिया। 7 दिसंबर 1782 को हैदर अली की मृत्यु के बाद उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने युद्ध को जारी रखा। हैदर को मैसूर के पास श्रीरंगपट्टनम में दफनाया गया।
नवाब हैदर अली खान की मृत्यु दक्षिण भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है। लगभग सारे समकालीन विद्धान इस बात पर सहमत हैं कि उसकी मौत 7 दिसम्बर 1782 को चित्तूर के निकट नरसिंग रायनापेट में हुई थी। हालाँकि इस तारीख को लेकर कुछ मतभेद है क्योंकि सैनिक कारणों से नवाब की मौत को गुप्त रखा गया था। यह अंग्रेज़ों के लिए एक बड़ा अवसर था कि वे मैसूर की सेना पर ऐसे समय, जब उनके नेता की मौत हो चुकी थी और उसका उत्तराधिकारी बहुत दूर था, आक्रमण करें। जनरल स्टुअर्ट, जो अकेला कोई कदम उठाने की स्थिति में था, इस खबर पर विश्वास करने को तैयार नहीं था जो कि उसे हैदर अली की मौत के दो दिन बाद मिली थी।
हैदर अली की मौत एक महत्वपूर्ण राजनैतिक घटना थी। वह अंग्रेजों के विरूद्ध एक महत्वपूर्ण शक्ति स्तम्भ था। उस समय के भारतीय रजवाड़े, जो राष्ट्र भक्ति से दूर थे, ब्रिटिश सेना के विरूद्ध उसे अपना निश्चित सहयोगी मानते थे। यह कहा जाता है कि ऐसे गठबंधन की योजना हैदर की मौत के पहले पेशवा और निज़ाम के दरबारों में बनाई जा रही थी। नाना ने अभी तक सालबाई की संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये थे और उन्हें जब हैदर की मौत की खबर मिली तो इन्होंने उसे और टाल दिया।
3.0 टीपू सुल्तान - शुरूआती वर्ष
टीपू सुल्तान का जन्म 20 नवम्बर 1750 को हुआ था उसका नाम फतेह अली रखा गया था। किन्तु उसे टीपू मस्तान औलिया (एक संत) के नाम पर टीपू सुल्तान भी कहा जाता था।
जब उसके पिता हैदर अली प्रसिद्धी और अधिकार प्राप्त कर रहे थे, टीपू को सर्वोत्तम शिक्षकों से अच्छी शिक्षा प्राप्त हो रही थी। उसने घुड़सवारी, तलवारबाज़ी, तीरअंदाज़ी, कुरान, इस्लामिक न्याय शास्त्र के साथ-साथ उर्दू, फारसी और अरबी का अध्ययन किया। टीपू सुल्तान ने कम उम्र में ही फ्रांसीसी अधिकारियों से युद्ध की रणनीतियाँ सीखी क्योंकि उसके पिता दक्षिण भारत में फ्रांसीसियों से जुड़े हुए थे।
1766 में जब टीपू मात्र 15 वर्ष का था तो उसे अपने सैन्य प्रशिक्षण को पहली बार युद्ध के मैदान में परखने का अवसर मिला जब उसने मलाबार आक्रमण के समय अपने पिता का साथ दिया। टीपू ने दो से तीन हजार सशस्त्र सैनिकों के साथ आक्रमण कर मलाबार के राजा और उसके परिवार को बंदी बना लिया। अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर चिन्तित राजा ने आत्मसमर्पण कर दिया और दूसरे कई स्थानीय सरदार भी इसी रास्ते पर चल पड़े।
हैदर अली को अपने बेटे पर इतना गर्व था कि उसने उसे 500 सैनिकों की एक टुकड़ी मैसूर के 5 जिलों पर शासन करने के लिए दे दी थी। यह टीपू सुल्तान की सैन्य प्रगति की शुरूआत थी।
3.1 प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध में भागीदारी
प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध के दौरान 17 वर्षीय टीपू सुल्तान को निज़ाम से संधि करने के लिए भेजा गया। युवा कूटनीतिक टीपू, निज़ाम के शिविर में नगदी, कीमती गहने, दस घोड़े और पांच प्रशिक्षित हाथी, उपहार के रूप में लेकर गया। केवल एक सप्ताह में टीपू ने निज़ाम को अपनी और आकर्षित कर मैसूर युद्ध में अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार कर लिया।
टीपू अपनी सेना लेकर मद्रास (अब चेन्नई) की तरफ बढ़ा किंतु हैदर अली तिरूवनामलई के युद्ध में अंग्रेज़ों से तब हार चुका था इसलिए उसे अपने बेटे को वापस बुलाना पड़ा।हैदर अली ने असामान्य निर्णय लेते हुए मानसूनी वर्षाओं के बीच युद्ध जारी रखा, और टीपू के साथ मिलकर अंग्रेज़ों के दो किले हड़प लिये। जब मैसूर की सेना तीसरा किला जीतने ही वाली थी अंग्रेज़ सेना पहुँच गयी; टीपू और उसकी सेना ने अंग्रेज़ों को लम्बे वक्त तक उलझाये रखा ताकि हैदर अली की सेना सही सलामत वापस लौट सके।
हैदर अली और टीपू सुल्तान ने अंग्रेज़ां के किले और शहर जीतने के लिए समुद्र तटों की और रूख किया। मैसूर अंग्रेज़ां को उनके मद्रास स्थित पूर्व तटीय बंदरगाह को छोड़ने के लिये मजबूर कर ही रहा था, कि तब अंग्रेज़ों ने मार्च 1769 में एक शांति प्रस्ताव रखा।
यह एक शर्मनाक हार थी जिसने 1769 में हैदर अली के साथ शांति समझौता करने पर मजबूर किया। इसे मद्रास की संधि कहा जाता हैं। दोनों ही पक्ष युद्ध के पूर्व की सीमाओं में जाने को तैयार हो गये और किसी तीसरे आक्रमण की स्थिति में एक दूसरे की सहायता करने को भी राजी हो गये। इन परिस्थितियों में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी के लिए यही सबसे आसान उपाय था, फिर भी संधि की शर्तें उसने भविश्य में नहीं मानीं।
3.2 मराठा युद्ध में भागीदारी
1771 में मराठाओं से युद्ध के दौरान टीपू सुल्तान ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
बाद में इसी दशक में अंग्रेज़ और फ्रांसीसी, ब्रिटेन के उत्तरी अमेरीकी उपनिवेश में 1776 में हुये विद्रोह में उलझ गये; निश्चित रूप से फ्रांस ने विद्रोहियों का समर्थन किया। प्रतिक्रियास्वरूप, अमेरिका से फ्रांसीसी समर्थन हटाने के लिये ब्रिटेन ने फ्रांसीसियों को भारत से पूरी तरह से बाहर करने का निर्णय लिया। इसकी शुरूआत 1778 में दक्षिण पूर्व समुद्र तट पर स्थित फ्रांसीसी अधिकार क्षेत्र पांडीचेरी को छीनने से हुई। आने वाले वर्षों में अंग्रेज़ों ने फ्रांसीसियों से माहे और मैसूर के तटीय इलाके छीन लिये और हैदर अली ने युद्ध की घोषणा कर दी।
3.3 द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-’84) की शुरूआत तब हुई जब 90,000 सैनिकों के साथ हैदर अली ने कर्नाटक पर, जिसका अंग्रेजों से गठबंधन था, पर आक्रमण कर दिया। मद्रास के अंग्रेज गवर्नर ने सर हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में मैसूर के खिलाफ विशाल सेना भेजने का निर्णय लिया, और कर्नल विलियम बेली के नेतृत्व में द्वितीय रक्षा पंक्ति को आदेश दिया कि वह भी गुंटूर को छोड़ इसमें शामिल हां। हैदर को जैसे ही यह खबर मिली उसने टीपू को 10,000 सैनिकों के साथ बेली के विरूद्ध भेज दिया।
सितम्बर 1980 में, टीपू और उसके 10,000 सैनिकों ने बेली की ईस्ट इण्डिया कम्पनी और भारतीयों की संयुक्त सेना पर घेरा डाला और अंग्रेज़ों को अब तक कि सबसे बड़ी हार के लिए मजबूर कर दिया। ज्यादातर 4000 आंग्ल-भारतीय सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया और उन्हें कैद कर लिया गया : 336 सैनिक इसमें मारे गये। कर्नल मुनरो ने इस भय से कि उसके पास सुरक्षित भारी असलाह लूटा जा सकता है, बेली को मदद देने से इंकार कर दिया। जब तक वह पहुँचा तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
हैदर अली इस समय अंदाज़ा नहीं लगा सका कि ब्रिटिश सेना कितनी अस्त-व्यस्त है। यदि इस समय मद्रास पर आक्रमण किया गया होता तो वह अंग्रेज़ों का आधार ही जीत जाता। हालांकि, उसने टीपू सुल्तान को केवल कुछ सैनिकों के साथ मुनरों की लौटती सेना को हताश करने के लिए भेजा; मैसूर के सैनिकों ने अंग्रेज़ों का असलाह लूट लिया और उनमें से कुछ को मार दिया या घायल कर दिया, किन्तु मद्रास को जीतने का प्रयास नहीं किया।
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध छुटपुट झड़पों के साथ खत्म हुआ। अगली महत्वपूर्ण घटना, तंजौर में कर्नल ब्रेथवेट के नेतृत्व में ईस्ट इण्डिया कंपनी को 17 फरवरी 1782 को टीपू के हाथों मिली हार थी। टीपू और उसके फ्रांसीसी सहयोगी लाली को देखकर ब्रेथवेट पूरी तरीके से घबरा गया और 26 घण्टे की लड़ाई के बाद, अंग्रेज़ों और उनके भारतीय सिपाहियों ने आत्मसमर्पण कर दिया।
3.4 टीपू का सिंहासनारोहण
हैदर अली की मृत्यु के पश्चात 29 दिसम्बर 1782 को टीपू सुल्तान की पदवी धारण कर अपने पिता के सिंहासन पर बैठा।
अंग्रेज़ों ने सोचा कि शक्ति का यह हस्तांतरण शांतपूर्वक नहीं होगा और वे इसका फायदा उठायेंगे। हालाँकि, टीपू को सेना ने तत्काल स्वीकार कर हस्तांतरण को सहज बना दिया और अंग्रेज़ चकित रह गये। इसके अतिरिक्त, अंग्रेज़ अधिकारी फसल के दौरान पर्याप्त् चावल भी इकट्ठा नहीं कर पाये और उनके सिपाहियों को भूखों मरना पड़ा। मानसून के दौरान वे इस स्थिति में भी नहीं थे कि सुल्तान के विरूद्ध कोई आक्रमण कर सके।
3.5 द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध का समापन
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध 1784 तक चला, किन्तु टीपू सुल्तान ने इस पूरे समय स्थिति पर नियंत्रण बनाये रखा। अंततः 11 मार्च 1784 को ईस्ट इण्डिया कंपनी ने मंगलौर की संधि पर हस्ताक्षर कर दिये। समझौते की शर्तों के अनुसार, दोनों ही पक्ष इस बात पर सहमत हुए कि वे अपने राज्यों कि वर्तमान सीमाओं का सम्मान करेंगे। टीपू सुल्तान ने उन सारे अंग्रेज़ और भारतीय कैदियों को छोड़ दिया जिसे उसने कैद कर लिया था।
3.6 टीपू सुल्तान का राज्य
ईस्ट इण्डिया कंपनी टीपू के साम्राज्य के लिए एक सतत् खतरा बनी हुई थी, यद्यपि उसने कंपनी को दो बार युद्ध में हरा दिया था। इसलिए टीपू ने लगातार सेना की आधुनिकता के लिए धन दिया, जिसमें प्रसिद्ध मैसूर राकेट भी थे जो दो किलोमीटर तक मिसाइल फेंक सकते थे, जिससे अंग्रेज भयभीत थे।
टीपू ने सड़कों, सिक्कों के नया रूप का निर्माण करवाया और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए रेशम विकास पर जोर दिया। वह नई तकनीकों के प्रति आकर्षित था और विज्ञान व गणित का उत्सुक विद्यार्थी बना रहा। एक योद्धा-सुल्तान के रूप में प्रसिद्ध, ’मैसरू का शेर’ टीपू सुल्तान शांतिकाल में भी एक योग्य शासक सिद्ध हुआ।
3.7 तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध
टीपू सुल्तान को अंग्रेज़ों का सामना 1789 से 1792 के बीच तीसरी बार करना पड़ा। इस समय, मैसूर का विश्वसनीय सहयोगी, फ्रांस, जो फ्रांसीसी क्रांति में उलझा हुआ था, उसकी मदद नहीं कर सका। अंग्रेज़ों का नेतृत्व इस समय लॉर्ड कॉर्नवालिस कर रहा था, जो अमेरिकी क्रांति के समय का एक प्रसिद्ध ब्रिटिश कमाण्डर था।
टीपू सुल्तान और उसकी प्रजा के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि इस मर्तबा अंग्रेज़ों के पास दक्षिण भारत के लिए ज्यादा उर्जा, समय व संसाधन थे। यद्यपि यह कुछ वर्षों तक चलता रहा किंतु पिछले अनुभवों के विपरीत, अंग्रेजों ने इस बार ज्यादा जीत दर्ज की। युद्ध के अन्त में जब अंग्रेज़ों ने टीपू की राजधानी श्रीरंगपट्टनम को घेर लिया तो उसे समझौते के लिए मजबूर होना पड़ा।
1793 में हुई श्रीरंगपट्टनम-संधि के तहत मैसूर राज्य का आधा भाग अंग्रेज़ों और उनके सहयोगी मराठाओं को मिल गया। अंग्रेजों ने यह भी माँग रखी कि टीपू के दोनो लड़कों जिनकी उम्र 7 व 11 वर्ष थी, को अंग्रेजों के पास बंधक रखना होगा जो इस बात को सुनिश्चित करेगा कि मैसूर राज्य युद्ध का मुआवजा देगा। कॉर्नवालिस ने लड़कों को बंधक बनाया ताकि टीपू संधि की शर्तं मानने को मजबूर हो सके। टीपू ने शीघ्र ही मुआवजा देकर अपने बच्चों को छुड़ा लिया। फिर भी, यह ’मैसूर के शेर’ के लिए बहुत बड़ा झटका था।
3.8 चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध
1798 तक अंग्रेज़ तीसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध से उबर चुके थे। अब उनका नेतृत्व एक ब्रिटिश कमाण्डर अर्ल आफ मॉरिंगटन, रिचर्ड वेलेज़ली कर रहा था जो अपनी ’हड़प नीति’ के लिए प्रतिबद्ध था। यद्यपि अंग्रेजों ने टीपू से उसका आधा राज्य, और बहुत बड़ी मात्रा में धन छीन लिया था तो भी उसने बड़ी हद तक पुनर्निर्माण कर मैसूर को एक सम्पन्न राज्य बना दिया था। ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी यह बात अच्छी तरह जानती थी कि सम्पूर्ण भारत को जीतने में अब एक मात्र बाधा मैसूर ही था।
फरवरी 1799 में अंग्रेज़ों ने लगभग 50,000 सैनिकों के साथ टीपू सुल्तान की राजधानी श्रीरंगपट्टनम की ओर कूच किया। यह सेना कोई अर्धप्रशिक्षित स्थानीय सैनिकों और मुट्ठीभर यूरोपीय अधिकारियों की सेना नहीं थी, बल्कि इसे ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी के सर्वोत्तम व शानदार राज्यों के सैनिकों से सुसज्जित किया गया था। इसका एकमात्र उददेश्य मैसूर का विनाश था।
यद्यपि अंग्रेज़ मैसूर को बड़े मुहाने पर घेरने की सोच रहे थें, किंतु टीपू सुल्तान इस अचानक हुए आक्रमण के लिए तैयार था और उसने पहले ही आक्रमण कर ब्रिटिश सेना के लगभग एक पूरे हिस्से को नष्ट कर दिया। उसके बाद अंग्रेज़ों की और सेना आती चली गई। पूरे बंसत के दौरान, ब्रिटिश सेना मैसूर के निकट आती रही। टीपू ने अंग्रेज कमाण्डर वेलेज़ली के सामने शांति प्रस्ताव रखा, किंतु वेलेज़ली ने जानबूझकर ऐसी शर्तें रखी जिन्हें स्वीकारना संभव नहीं था। उसका उद्देश्य टीपू को बर्बाद करना था, उससे समझौता नहीं।
मई 1799 के प्रारंभ में अंग्रेज और उनके सहयोगियों ने मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टनम पर घेरा डाल दिया। टीपू की सेना में केवल 30,000 सैनिक थे जबकि आक्रमणकारियों के पास 50,000। 4 मई को अंग्रेज़ों ने शहर के किले की दीवारों को तोड़ दिया। टीपू सुल्तान अपने शहर को बचाते हुए मारा गया। युद्ध के बाद, उसका शरीर रक्षकों के ढ़ेर के नीचे मिला। श्रीरंगपट्टनम जीत लिया गया। मौत में भी टीपू नायक बना रहा।
3.9 टीपू सुल्तान की विरासत
टीपू की मौत के साथ ही मैसूर ब्रिटिश राज के अधीन एक और राज्य बन गया। उसके बेटों को निर्वासित कर दिया गया, और एक दूसरे परिवार को अंग्रेज़ों की कठपुतली बनाकर शासक बना दिया गया। वास्तव में टीपू सुल्तान का परिवार गरीबी में सिमट गया और उसे राज महत्व 2009 में जाकर मिला।
टीपू सुल्तान एक लम्बी और कठिन लड़ाई लड़ा, लेकिन अंततः अपने राज्य की स्वतंत्रता बचाने में असफल हुआ। आज टीपू को एक स्वतंत्रता सेनानी की तरह याद किया जाता है जिसने मस्तक ऊँचा रखना सिखाया। उसकी विरासत में दुर्भाग्यपूर्ण रूप से हिंदुओं के विरूद्ध उसकी घृणा के निशान भी मिलते हैं।
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