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मराठा साम्राज्य - शिवाजी एवं पेशवा वंश
1.0 उद्गम
’मरहट्ठा’ शब्द प्राकृत भाषा में भौगोलिक रुप से उन लोगों के लिए उपयोग किया गया जो महाराष्ट्र के निवासी थे। प्राचीन महाराष्ट्र लगभग पूरे डेक्कन से मिलकर बना था। अब इस शब्द का उपयोग महाराष्ट्र के योद्धाओं के लिए किया जाता है।
महाराष्ट्र शब्द सबसे पहले चीनी यात्रियों के वृतांतों में और सातवीं शताब्दी के एक ग्रंथ में दिखाई पड़ता है। इसके उद्गम के बारे में एक सिद्धांत यह दिया जाता है कि इसकी शुरुआत ’राठी’ शब्द से हुई होगी जिसका अर्थ है ’रथ चलाने वाला’ और रथ चलाने और बनाने वालों से मिलकर बना समूह ’मराठी’ कहलाया जो कि वास्तव में एक लड़ाकू समूह था। सन् 90 में राजा वेदश्री ने जुन्नार को अपने राज्य की राजधानी बनाया। जुन्नार पुणे से 30 मील उत्तर में स्थित है। शायद यह घटना इस राज्य के निर्माण में महत्वपूर्ण थी।
भक्ति आंदोलन के दौरान, जब यह दक्षिण से उत्तर भारत की और फैल रहा था, तब महाराष्ट्र उसका एक मुख्य केन्द्र था। इसके प्रणेयता संत ज्ञानेश्वर (1271-1296) को साधुवाद जिनके द्वारा लिखी भागवत गीता की भाषा-टीका, ज्ञानेश्वरी, शास्त्रीय संस्कृत के विपरित आम बोलचाल की भाषा मराठी में लिखी गई। समकालीन कवि संतों में सबसे प्रसिद्ध थे दर्जी रामदेव (1270-1350) उनके भक्तिमयी भजन आम जनता में बहुत लोकप्रिय हुए। उन्होनें जिस परम्परा की स्थापना कि वह तब भी फलती-फूलती रही जब इस्लाम के प्रभाव ने उसे रोकने की कोशिश की। यह अपने शिखर पर तब पहुंची जब एक साधारण आदमी तुकाराम (1598-1650), जिनकी पत्नी और बच्चे का अकाल में निधन हो गया था, ने अपना योगदान दिया। रामदास अर्थात् राम के दास भी एक अन्य महत्वपूर्ण संत कवि थे। दोनों ही तपस्वी थे जिन्हांने उस राजनीतिक आंदोलन को, जिसका नेतृत्व भविष्य में छत्रपति शिवाजी ने किया, को एक दार्शनिक आधार प्रदान किया।
1.1 मराठा राज का उदय
क्षेत्रीय मुस्लिम ताकतें जैसे निजाम शाही, आदिल शाही और कुतुब शाही ने 16 वीं शताब्दी से अपने सामा्रज्य डेक्कन (दक्षिणी) भाग में स्थापित कर लिये थे। यद्यपि वे मुगल साम्राज्य के प्रति वफादार थे तो भी एक बड़ी हद तक स्वशासी ही थे। निजाम शाही अहमद नगर में स्थापित हुई जो कि पुणे से 95 मील पूर्व में स्थित एक शहर है। मालोजी भोसलें, शिवाजी के दादा, निजाम के एक सरदार थे। 1595 में निजाम बहादुर ने मुगलां के खिलाफ एक युद्ध में उनके अद्म्य साहस के लिए ’राजा’ की उपाधि दी और पुणे के पास चाकण के किले की रियासत दी। सामान्यतः इसे मराठा इतिहास का प्रारंभिक बिंदु कहा जाता है।
1.2 शिवाजी (1627-1680) का साम्राज्य
शिवाजी भोंसले, जिन्हें महाराष्ट्र साम्राज्य का स्थापक कहा जाता है, का जन्म 1627 में पुणे से 40 मील उत्तर में शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। शिवाजी के पिता शाहजी, जिन्हें उत्तराधिकार में उनके पिता मालोजी से पुणे और चाकण रियासत मिली थी, ने अपने आप को 1629 में निजामशाही की सेवाओं से अलग कर लिया। 1635 में निजाम की सेना ने पुणे पर आक्रमण किया। शाहजी ने समर्पण कर दिया और उनकी रियासत भी लौटा दी गई। शाहजी ने पुणे की कमान दादोजी कोण्डा देव को देकर उन्हें शिवाजी का संरक्षक भी नियुक्त किया जबकि स्वयं उन्हांने बिजापुर की आदिल शाही में अपनी सेवाएं दी। शीघ्र ही आदिल शाही उस क्षेत्र की सबसे महत्वपूर्ण शक्ति के रुप में उभरी और बाकी सारी स्थानीय शक्तियाँ धीरे-धीरे समाप्त हो गईं।
1643 में 16 साल की उम्र में शिवाजी ने अपने साथियों के सामने एक स्वतंत्र शासक होने का विचार रखा। मात्र 16 साल की उम्र में तौरणा दुर्ग में उन्होनें मातृभूमि को स्वतंत्र कराने की शपथ ली। यह उनके मुगलों और मुस्लिम शक्तियों से जीवन पर्यंत चलने वाले महान संघर्षों की शुरुआत थी। 1647 तक शिवाजी दो किले जीत चुके थे और पुणे के पूर्ण शासक थे। 1657 में शिवाजी ने आदिलशाही सेना का असलाह लूटकर उससे पहली बार दुश्मनी मोल ली। यहाँ से आदिल शाही पर आक्रमणों की शुरुआत हुई। धीरे-धीरे उन्होंने उस क्षेत्र के किलों पर अपना अधिकार जमाना शुरु किया। पुरन्दर, राजगढ़, तोरण उनकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से थे।
उनकी लगातार सफलता से परेशान होकर आदिलशाही ने अपने सबसे लोकप्रिय सेनापति अफजल खान को शिवाजी को नष्ट करने भेजा। अफजल खान यह जानता था कि शिवाजी की छोटी सी सेना उसकी इतनी बड़ी सेना का सामना खुले मैदान में नहीं कर सकेगी। उसने पूरी कोशिश की कि शिवाजी खुले मैदान में सामने से लड़े, किन्तु वह भी कम चतुर नहीं थे। उन्होंने खान को विश्वास दिला दिया की वह उससे बहुत डरे हुए हैं और उससे, पुणे से 100 मील दक्षिण में, वाई नामक जगह पर मिलने की प्रार्थना की, जो कि घने जंगलो से घिरा एक पर्वतीय क्षेत्र था, जहाँ उनकी सेना आसानी से लड़ सकती थी। खान के पास अभी भी शिवाजी को मारने की योजना थी और वह इस बात को जानते थे। शिवाजी ने अपने पास बाधनख हथियार छुपा कर रखा था, जिसके कारण अंततः खान शिवाजी के हाथां मारा गया और शिवाजी की सेना ने खान की सेना को बुरी तरह परास्त किया। इसके पश्चात् शिवाजी एक विजेता के रुप में उभरे और अपनी पहुँच कोल्हापुर के निकट पन्हाला तक बनाई।
शिवाजी की सफलता ने मुगल बादशाह औरंगजेब को बुरी तरह परेशान किया। औरंगजेब यह जानता था कि स्थानीय मुसलमान शिवाजी को नहीं रोक पायेंगे। उसने 1666 में मिर्जा राजे जयसिंह (एक राजपूत सेनापति) के नेतृत्व में एक बड़ी सेना शिवाजी को परास्त करने के लिए भेजी। जयसिंह की सेना शिवाजी की तुलना में बहुत बड़ी थी, और जल्द ही शिवाजी ने अपने कई महत्वपूर्ण दुर्ग खो दिये। शिवाजी जानते थे कि वे एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं इसलिए उन्होंने मिर्जा के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर किये। इस संधि के अनुसार वे औरंगजेब की सेवा में आने को तैयार हुए और इसके बदले उनके छोटे लड़के सम्भाजी को मुगल सेना में सेनापति बनाया। शिवाजी, मिर्जा के साथ औरंगजेब से मिलने दिल्ली गये। औरंगजेब ने उन्हें अपमानित कर नजरबंद कर दिया। किन्तु, शिवाजी वहाँ से बचकर भाग निकले।
यह घटना निर्णायक मोड़ सिद्ध हुई। इसके पश्चात शिवाजी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और 1673 ई. तक अपनी खोई हुई ख्याति पुनः प्राप्त कर ली। उन्होंने पश्चिमी महाराष्ट्र को लगभग पूरा जीत लिया और रायगढ़ (पुणे से 150 मील दक्षिण-पश्चिम) को अपनी राजधानी बनाया। 1673 में समारोहपूर्वक उन्हे छत्रपति घोषित किया गया। 1680 ई. में, शिवाजी की मृत्यु तक लगभग सम्पूर्ण डेक्कन उनके साम्राज्य का हिस्सा था। उन्होंने एक कुशल प्रशासन और शक्तिशाली सेना का गठन किया। उन्होंने मराठा लोगों के बीच स्वतंत्रता की भावना भर दी और उन्हें अगले 150 वर्षों तक सशक्त रुप से खड़े रहने के योग्य बनाया। दुर्गम कठिनाईयों के बीच शिवाजी को उपलब्धियाँ वास्तव में प्रभावी थीं और इसी कारण वह मराठा लोगों के बीच और भारतीय इतिहास में उच्चतम स्थान पर रखे जाते हैं।
1.3 अस्थायित्व का दौर (1680-1707)
शिवाजी की असमय मृत्यु एक अपशकुन था। उनके लड़के सम्भाजी उनके उत्तराधिकारी बने। उन्होंने भी वैसा अदम्य साहस का प्रदर्शन किया जैसा कि उनके पिता ने, किन्तु उन्हें मुगलों द्वारा कैद कर लिया गया। औरंगजेब ने उन्हे प्रताड़ित किया और 1689 में उनकी हत्या कर दी। उनकी मृत्यु और उससे जुड़ी परिस्थितियाँ आज भी लोगों की भावनाओं को उत्तेजित करती है। चूँकि सम्भाजी का लड़का साहू अभी बहुत छोटा था, इसलिए उनके छोटे भाई राजाराम को उनका उत्तराधिकारी बनाया गया। 1700 में राजाराम की मृत्यु के साथ जब ऐसा लगने लगा कि यह मराठा शक्ति का अन्तिम दौर है, उसी समय सम्भाजी की विधवा ताराबाई ने अपने 10 वर्ष के बेटे शाहू को सिंहासन पर बिठाकर औरंगजेब के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। औरंगजे़ब मराठा राज्य को नष्ट करने का एकमात्र उद्देश्य लेकर दक्षिण में आया था। 1700-1703 के मध्य, औरंगजेब ने पुणे के निकट सिंहगढ़ दुर्ग पर कब्जा कर लिया। एक लड़ाई के दौरान उसका लड़का शहजादा मुहुल-मुल्क मारा गया; इसलिए उसकी याद में औरंगजेब ने पुणे का नाम बदलकर मुहीआबाद रख दिया। शाहू ने मुगलों से लड़ाई जारी रखी और मराठा सामा्रज्य की राजधानी राजगढ़ को पुनः जीत लिया। 1707 में औरंगजेब की मृत्यु मराठा इतिहास में दूसरा निर्णायक मोड़ सिद्ध हुई। औरंगजेब के बाद मुगलों की शक्ति का अंत हो गया और भारत का शक्ति केन्द्र बने मराठा; जिन्हें भविष्य में पेशवाओं द्वारा नियंत्रित होना था।
1.4 शिवाजी की नौसेना
शिवाजी की नौसेना निर्माण की गतिविधियां 1657-58 में शुरू हुईं। इस समय तक वे कोंकण क्षेत्र में अपने कब्जे बढ़ा रहे थे जिसके लिए यह अभ्यास आवश्यक था। अपनी तटवर्ती नौसेना को संरक्षण प्रदान करने के लिए और पुर्तगालियों की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए और इन गतिविधियों को प्रतिबंधित करने के लिए पद्मदुर्ग, विजयदुर्ग, सुवर्णदुर्ग, सिंधुदुर्ग जैसे अनेक तटवर्ती दुर्गों का निर्माण किया गया। उस समय की अन्य शक्तियां, जैसे मुगल और दक्षिणी सल्तनतें भूमि आधारित शक्तियां थीं। उन्होंने नौसेना निर्माण को हमेशा नजरअंदाज किया। समुद्र में उनके तीर्थयात्री और व्यापारी यूरोपियों पर निर्भर रहते थे। इन परिस्थितियों में, शिवाजी का नौसेनिक गतिविधियों पर जोर देना उनकी दूरदर्शिता को प्रकट करता है।
कृष्णाजी अनंत सभासद के अनुसार शिवाजी के बेडे़ में दो नौसेना टुकडियां (स्क्वाड्रन) थीं, जिनमें से प्रत्येक में विभिन्न श्रेणियों के दो सौ जहाज थे। मल्हार राव चिटनीस ने चार सौ से पांच सौ जहाजों का उल्लेख किया है। ब्रिटिश, पुर्तगाली और डच दस्तावेजों में दर्ज सूचनाएं विशिष्ट मौकों पर विद्यमान जहाजों की संख्या का वर्णन करती हैं परंतु ये शिवाजी की नौसेना की संपूर्ण संख्या का वर्णन नहीं करतीं। जैसे-जैसे समय-समय पर नए जहाजों का निर्माण और इन जहाजों को नौसेना में शामिल करने का क्रम जारी रहा, इससे प्रतीत होता है कि सभासद द्वारा दिया गया 400 जहाजों का आंकड़ा अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है। मराठा नौसेना में विभिन्न प्रकार के लडाकू जहाज थेः गुरब, गलबत या गल्लिवत, पाल और मंझुआ।
उनके नौसेना अभियानों में से चार अभियानों का उल्लेख प्रमुखता से मिलता है। फरवरी 1665 में वे स्वयं अपनी सेना के साथ एक जहाजी बेडे़ में बसरूर गए थे जिसमें, अंग्रेजों के कारखाना दस्तावेजों के अनुसार, 85 युद्ध पोत और तीन विशाल जहाज थे। नवंबर 1670 में 160 पालों का एक बेडा नौसेनाध्यक्ष, जिन्हें दरिया सारंग कहा जाता था, के नेतृत्व में नांदगांव (कोंकण जिले में) में एकत्रित हुआ था। 1675 में शिवाजी ने युद्ध सामग्री से लदे हुए 40 जहाज समुद्र मार्ग से फोंडा पर कब्जे में उपयोग के लिए भेजे थे, जो कारवार के साथ ही, गोवा के दक्षिण में स्थित दो महत्वपूर्ण चौकियां थीं। बाद में किसी समय उनकी नौसेना ने कनेरी के द्वीप पर कब्जा कर लिया था परंतु सिद्धी के मजबूत गढ जंजीरा के द्वीप पर कब्जा करने के सभी प्रयास विफल हुए थे, जहां से वे महादेश के विरुद्ध लूटमार और छापामार कार्रवाइयां करते थे।
कान्होजी आंग्रे (1667-1729) मराठा नौसेना के पहले असाधारण प्रमुख थे जिन्हें लोग ‘‘समुद्रातला शिवाजी‘‘ (हिंद महासागर के शिवाजी) के नाम से जानते थे। चार दशकों तक उन्होंने पश्चिमी तट की समुद्री शक्तियों को सताया और अपने नौसैनिकों का एक के बाद एक विजय में नेतृत्व किया। उन्होंने महाराष्ट्र की नौसैनिक प्रतिष्ठा को असाधारण ऊंचाइयों तक पहुँचाया। कान्होजी आंग्रे का नाम 17 वीं और 18 वीं सदी में भारत में सक्रिय सभी यूरोपीय व्यापारी कंपनियों के दिलों में भय पैदा कर देता था। पश्चिमी तट के मछुआरा समुदाय के रूप में, जो समुद्र तट को अपने हाथों के पंजे जितनी अच्छी तरह से जानता था, मराठा नौसेना के लिए उत्.ष्ट सामग्री प्राप्त हुई। ऐसा कहा जाता है कि मराठा शासक नौसेना का उपयोग करने वाले पहले और शायद एकमात्र शासक थे य और निश्चित तौर पर, जैसी कहावत भी है कि शिवाजी महाराज अपने साम्राज्य की राजधानी उफनते समुद्र में उठाकर ले जाते थे।
2.0 पेशवा वंश (1712-1818)
2.1 बालाजी विश्वनाथ (1712-1721)
1712 में शाहू की मृत्यु चेचक के कारण हुई और, उनके मंत्री या पेशवा, बालाजी विश्वनाथ ने गद्दी सम्भाली।
मुगल दरबार और उनके स्वयं के बीच हुए वार्तालाप में उन्होनें मुगल दरबार में उनकी सहायता करने हेतु एक बड़ा प्रतिनिधि मण्डल दिल्ली भेजा। 1718 से दिल्ली में मराठा प्रभाव का उदय होने लगा जो 1803 ई. तक चलता रहा। विश्वनाथ का खराब स्वास्थ्य होने की वजह से 1721 में मृत्यु हो गई।
2.2 बाजीराव पेशवा (बाजीराव I) - 1721-1740
बालाजी विश्वनाथ के बड़े पुत्र, बाजीराव को उनके पिता की मृत्यु के पश्चात पेशवा की उपाधि प्रदान की गई। बाजीराव का स्वप्न था कि मराठा साम्राज्य उत्तर भारत में फैले। इस समय तक रायगढ़ के स्थान पर पुणे मराठा सामा्रज्य की राजधानी बन चुका था। रायगढ़ का उसकी पर्वतीय स्थिति और घने जंगलों के कारण रणनीतिक महत्व था। इसे सुरक्षित किला माना गया। पुणे मैदान में बसा है और वहाँ शत्रु आक्रमण का भय हमेशा रहा। 1818 में मराठा साम्राज्य के पतन तक पुणे इसकी राजधानी रहा।
1734 में बाजीराव ने उत्तर में मालवा प्रांत जीता और 1739 में उनके भाई चिमनाजी ने पुर्तगालियों को उनके पश्चिमी घाट के उत्तरी अधिकार क्षेत्रों से पीछे खदेड़ दिया। बाजीराव 1740 में अपने पीछे 3 पुत्रों को छोड़ते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए। बाजीराव ने ही पेशवाओं का निवास स्थान ’शनिवारवाड़ा’ का निर्माण करवाया।
2.3 बालाजी बाजीराव (नानासाहेब पेशवा) - 1740-1761
नानासाहेब 1740 में पेशवा के रुप में बाजीराव के उत्तराधिकारी बने। नानासाहेब एक महत्वकांक्षी और बहुआयामी व्यक्ति थे। 1741 में उनके काका चिमनाजी की मृत्यु के पश्चात् नाना साहेब उत्तरी जिलों से पुणे लौटे और वहाँ के सामान्य प्रशासन को सुव्यवस्थित किया। 1741 से 1745 के मध्य का काल, तुलनात्मक रुप से शांत था। नानासाहेब ने किसानों को प्रोत्साहित किया, व ग्रामीणों को संरक्षण देकर राज्य की सीमा में उल्लेखनीय विकास किया।
मुगलों ने फ्रांसीसियों के समर्थन से 1751 में पुणे पर आक्रमण किया और अपने रास्ते में आने वाले हर गाँव को बर्बाद किया। मराठा सेना पूरे दमखम के साथ लड़ी। फ्रांसीसी तोपखाने की बदौलत मुगल पूरी तरह नष्ट हाने से बच गये। 1754 में नानासाहेब के भाई, रघुनाथ राव ने बम्बई से उत्तर में गुजरात को जीतने की यात्रा प्रारम्भ की। 1756 में नानासाहेब ने कर्नाटक पर आक्रमण किया। इसी समय, यह खबर भी फैल गयी कि यूरोप में अंग्रेज और, फ्रांसीसियों के बीच युद्ध शुरु हो गया है।
1756 में शिवाजी द्वारा गठित शक्तिशाली नौसेना के पतन ने अंग्रेजों को क्षेत्र में मजबूत होने का अवसर दिया। कान्होजी आंग्रे नौसेना का नेतृत्व करते थे और इसका पतन मराठा सामुद्रिक शक्ति के लिए घातक सिद्ध हुआ। मराठा राज्य द्वारा नौसेना की अनदेखी करने के भयानक परिणाम हुए। इसके बाद मराठा कभी भी समुद्र में अपनी खोई हुई शक्ति पुनः हासिल नहीं कर पाये।
14 जनवरी 1761 को पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठा सेना एक लुटेरे व आक्रामक अफगान योद्धा अहमद शाह अब्दाली के हाथों पराजित हो गई। मराठा दिल्ली सुल्तान को बचाने और उत्तर में अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए लड़ रहे थे। अहमद शाह अब्दाली को नजीबउदुल्लाह ने भारत आने का न्यौता दिया था। यह मराठा शक्ति के लिए ऐसा झटका था, जिससे कि वे कभी भी उभर नहीं सके। उनके लगभग 100000 सैनिक और एक दर्जन से ज्यादा सरदार (नायक) युद्ध में मारे गये। नानासाहब के भाई सदाशिवराज (जिनके नाम पर पुणे मे सदाशित पेठ है), और नानासाहेब के बेटे विश्वासराव भी इस युद्ध में मारे गये। इस समाचार ने उन्हें तोड़ दिया और कुछ समय पश्चात पुणे में पार्वती घाटी के एक मंदिर में उनकी मृत्यु हो गई। बालाजी बाजीराव (नानासाहेब पेशवा) के दौर में मराठा शक्ति का वैभव चरम पर था। पानीपत की हार के बाद इसे पूर्णतः कभी हासिल नहीं किया जा सका।
3.0 पानीपत का तीसरा युद्ध
3.1 युद्ध के पूर्व की गतिविधियाँ
1707 में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगल प्रभुत्व का पतन हुआ और शीघ्र ही मराठा डेक्कन (दक्षिण) क्षेत्र में एक प्रमुख शक्ति बन गए। हालांकि हूहोने दिल्ली की राजनीति को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया था और उनका वर्चस्व राष्ट्रव्यापी हो गया। इसी समय के दौरान नादिर शाह के सेनापति अहमद शाह अब्दाली की नजरें भी मुगल साम्राज्य पर थीं। इन दोनों ताकतों के बीच संघर्ष अपरिहार्य हो गया। पेशवा बजी राव के नेतृत्व में मराठों ने गुजरात, मालवा और राजपुताना पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। 1737 में बाजीराव ने दिल्ली की बाह्य सीमा पर मुगलों को पराजित किया, जिसने काफी अधिक मुगल प्रदेशों पर मराठों का प्रभुत्व दृढ़ता से स्थापित कर कर दिया। बाजीराव के पुत्र बालाजी बाजीराव (जिन्हें प्रचलित रूप से नानासाहेब कहा जाता था) ने 1758 में पंजाब पर आक्रमण किया, और इस प्रकार मराठों के नियंत्रण क्षेत्र में और अधिक वृद्धि की। उन्होंने लाहौर और पेशावर पर भी नियंत्रण प्राप्त कर लिया, और अब्दाली के पुत्र तिमूर शाह दुर्रानी को पंजाब और कश्मीर से बाहर खदेड दिया। इसने मराठों को अहमद शाह अब्दाली के दुर्रानी साम्राज्य के साथ सीधे मुकाबले में ला दिया। 1759 में उसने पश्तून कबीलों और बलूच कबीलों से एक सेना का गठन किया और पंजाब में छोटी मराठा सेनाओं के विरुद्ध अनेक विजयें प्राप्त कीं। फिर वह अपने भारतीय सहयोगियों - गांगेय दोआब के रोहिल्ला अफगानों - के साथ मिल गया और इस प्रकार उसने मराठों के विरुद्ध एक व्यापक गठबंधन निर्माण कर लिया।
1759 में अब्दाली और उसके सहयोगी लाहौर और दिल्ली तक पहुंच गए थे। मराठा सरदार सदाशिव राव भाऊ ने 1,00,000 सैनिकों की विशाल सेना के साथ दिल्ली की ओर कूच करके इसका जवाब दिया जिसे मार्ग में अन्य मराठा बलों के शामिल होने से और अधिक मजबूती प्राप्त हुई थी। हालांकि मराठों की योजनाओं को तब गंभीर आघात लगा जब उनके संभावित मित्र पक्ष, जाटों ने युद्ध से हटने का निर्णय लिया। प्रारंभिक युद्धों में से एक युद्ध में अब्दाली की सेनाओं ने मराठों को पराजित किया और मराठा योद्धा दत्ताजी शिंदे की हत्या कर दी। परंतु जलप्लावित यमुना नदी के तट पर स्थित कुंजपुरा जैसे अन्य स्थानों पर मराठों ने प्रति आक्रमण किया, जहां उन्होंने अब्दाली की सेनाओं को आसानी से पराजित कर दिया। अब्दाली, जो नदी के दूसरे तट पर फंसा हुआ था, एक सुरक्षित मार्ग ढूंढ़ने के बाद ही नदी को पार कर सका। दोनों पक्षों की ओर से अनेक रणनीतिक चालें चली गईं परंतु अंततः मराठा सेनाएं घिर गईं और उनके रसद मार्गों को क्षतिग्रस्त कर दिया गया। मराठा सेनापतियों को आशा थी कि वे अपने नवनिर्मित फ्रांसीसी तोपखाने के साथ शत्रु का मुकाबला कर सकते थे। गुजरते महीनों के साथ ही छोटे-मोटे युद्ध जारी रहे और दोनों ओर की सेनाएं अंतिम आक्रमण के लिए एकत्रित होने लगीं।
परंतु अब्दाली मराठा सेनाओं की रसद को काटने में सफल हुआ जिसके कारण मराठा सेना में भोजन सामग्री का संकट खड़ा हो गया था। साथ ही मराठा सेना अपनी राजधानी के क्षेत्र से बहुत दूर युद्ध कर रही थी जिसके कारण वे अधिक भेद्य हो गए थे। कुछ इतिहासकारों ने इस बात का उल्लेख किया है कि मराठों की छावनियों में ऐसे अनेक लोग थे जो सैनिक नहीं थे बल्कि तीर्थयात्री थे जो सुरक्षा कारणों से मराठा सेना के साथ यात्रा कर रहे थे। कम होती जा रही खाद्य सामग्री के परिदृश्य में यह उनके लिए एक प्रमुख कमजोरी बन गई।
3.2 वास्तविक युद्ध
युद्ध की शुरुआत 14 जनवरी 1761 को प्रातः 9 बजे हुई। पहले तीन घंटों में कुछ रणनीतिक चूकों के बावजूद अब्दाली की सेना के एक बडे़ हिस्से को कुचलने में सफल हुए और वे विजय की ओर बढ़ रहे थे। हालांकि अगले तीन घंटों में स्थिति पलट गई।
प्रारंभिक मराठा आक्रमण का नेतृत्व इब्राहिम खान ने किया और उसने अपने तोपखाने को रोहिल्लाओं और शाह पसदं खान के सामने मोर्चे पर बढ़ा दिया। मराठा तोपखाने के पहले गोले अफगान सेना के सिर के ऊपर से निकल गए और उन्होंने बहुत ही कम नुकसान पहुंचाया। अफगानों के पहले आक्रमण को तोपखाने के निकट रखे गए प्रसिद्ध गार्दी बंदूकधारी सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ ही मराठा सेना के तीरंदाजों और भालाधारी सैनिकों ने तोड कर रख दिया। दूसरे और बाद के गोले अफगान सेना पर स्पष्ट दूरी से दागे गए। इससे हुए नरसंहार ने रोहिल्ला सेना को वापस अपनी पंक्तियों में जाने के लिए मजबूर कर दिया, जिसके कारण अगले तीन घंटे के लिए युद्ध का मैदान इब्राहिम के हाथों में आ गया। इस अवधि के दौरान 8,000 गार्दी बंदूकधारियों ने लगभग 12,000 रोहिल्ला सैनिकों को मार दिया।
युद्ध के दूसरे चरण में अफगान वजीर शाह वली खान के नेतृत्व वाले केंद्र के बाईं ओर के अफगान बलों पर आक्रमण का नेतृत्व स्वयं सदाशिवराव भाऊ ने किया। आक्रमण की विशुद्ध ताकत ने ही अफगान पंक्तियों को तोड कर रख दिया, और इसी भगदड़ की स्थिति में अफगान सैनिकों ने अपने स्थानों को छोड़ना शुरू कर दिया। हताशापूर्वक अपने सैनिकों को इकट्ठा करने का प्रयास करते हुए शाह वली ने शुजा उद् दौला से मदद के लिए गुहार लगाई। हालांकि नवाब अपने स्थान से हटने को तैयार नहीं हुआ, जिसके कारण अफगान सेना का भीतरी हिस्सा प्रभावी रूप से छिन्न-भिन्न हो गया। हालांकि दक्षिणायन नामक एक घटना के कारण यह आक्रमण समग्र रूप से विफल हो गया। उस दिन सूर्य की रौशनी तीरंजों के घोडों की आँखों में सीधे पड़ रही थीं, जिनमें से अनेक घोडे आधे भूखे थे। मराठा घुडसवार सैनिक, जो अफगान पंक्तियों तक पहुंचने की दो किलोमीटर की यात्रा से पहले ही काफी थक चुके थे, उनमें से काफी सैनिक अत्यधिक थकान के कारण ही गिर गए।
युद्ध के अंतिम चरण में, सिंधिया के नेतृत्व में मराठा सेना ने नजीब पर आक्रमण किया। नजीब ने सफलतापूर्वक एक रक्षात्मक युद्ध किया, हालांकि इस दौरान वह सिंधिया की मराठा सेना को दूर रखने में सफल हुआ। दोपहर के 12 बजे तक ऐसा प्रतीत हो रहा था कि भाऊ एक बार फिर से मराठों के लिए विजय प्राप्त कर लेंगे। हालांकि अहमद शाह अब्दाली के पास शत्रुनाल नामक एक प्रणाली मौजूद थी। आक्रमण की इस शैली में तोपों को ऊंटों पर सवार करके रखा जाता था, जो अपने सैनिकों के सिरों के ऊपर से सीधे शत्रु पर गोले दागने में सक्षम थीं। मराठा तोपखाना शत्रुनालों की संयुक्त सेनाओं और घुडसवार सेना के आक्रमण का मुकाबला नहीं कर पाया। इस युद्ध में, दोपहर 2 बजे शुरू हुए आमने सामने का युद्ध शुरू होने से पहले ही लगभग 7,000 मराठा घुडसवार और पैदल सैनिक मारे गए। शाम 4 बजे तक थकी हुई मराठा पैदल सेना बख्तरबंद चमडे के कवचों से सुसज्जित ताजादम अफगान संरक्षित बलों के आक्रमणों के भीषण हमलों के आगे हार गई।
आरक्षित सेना नहीं रख कर सदाशिवराव भाऊ ने एक और गलती की थी। अपनी अग्र पंक्ति को नष्ट होते और विश्वासराव को भीषण युद्ध में गायब होते देख उसे लगा कि उसके पास अपने हाथी से नीचे उतरकर युद्ध का नेतृत्व करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। इसका फायदा उठाते हुए प्रारंभ में कुंजपुरा पर विजय के दौरान बंदी बनाये गए कुछ अफगान सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। इसके कारण स्वामिभक्त मराठा सैनिकों में काफी भ्रम और घबराहट व्याप्त हो गई जिन्होंने सोचा कि शत्रु ने पीछे से उनपर आक्रमण किया है। कुछ मराठा टुकडियां घबरा गईं और इसी घबराहट में भागने लगीं क्योंकि उन्हें हाथी पर सवार अपने सेनापति कहीं नजर नहीं आ रहे थे। अफगानों ने भागते हुए मराठा सैनिकों और नागरिकों का पीछा किया। मराठा सेना की अग्र पंक्तियाँ काफी हद तक अखंड रहीं, जिनमें से उनकी कुछ तोपखाना टुकड़ियां सूर्यास्त तक लडती रहीं। रात्रि आक्रमण के विकल्प को नहीं चुनते हुए कुछ मराठा टुकडियां उसी रात को भाग गईं। भाऊ की पत्नी पार्वतीबाई, जो मराठा छावनी में प्रशासन में सहायता रही थीं, अपने अंगरक्षक (जणू भिंताड) के साथ पुणे पलायन कर गईं।
इस प्रकार पानीपत के तीसरे युद्ध का अंत हुआ। यह पराजय मराठों के लिए एक तीव्र आघात था, हालांकि उन्होंने शीघ्र ही अपनी शक्ति संगठित की और एक बार फिर से वे एक शक्तिशाली ताकत बन गए। अहमद शाह अब्दाली अपनी विजय का आनंद किसी भी समय के लिए नहीं मना सका। वापस लौटते समय उसकी सेना के विभिन्न गुटों पर सिक्खों द्वारा आक्रमण किये गए जिन्हें उसने पूर्व में पराजित किया था। अतः यह कहा जाता है पानीपत के तीसरे युद्ध ने इस बात का निर्णय नहीं किया कि दिल्ली पर शासन कौन करेगा, बल्कि इस बात का निर्णय किया कि दिल्ली पर शासन कौन नहीं करेगा। ब्रिटिशों ने इस रिक्तता को अत्यंत प्रभावी ढं़ग से भर दिया।
4.0 पानीपत के तृतीय युद्ध के पश्चात के पेशवा
4.1 ’थोरले’ माधवराव पेशवा - 1761-1772
पानीपत के तीसरे युद्ध के पश्चात्, नाना साहेब के दूसरे बेटे महादेवराव ने गद्दी सम्भाली, किन्तु उन्हें उनके काका रघुनाथ राव से प्रशासनिक विवाद झेलने पड़े। इसके बावजूद, उन्होंने कई महत्वपूर्ण जीत हासिल कर मराठा साम्राज्य के खोये हुए आत्मविश्वास को प्राप्त करने की कोशिश की। उसकी महत्वपूर्ण उपलब्धियों में निजाम (हैदराबाद), हैदर (कर्नाटक) और नागपुर के भांसले को हराना है उन्होंने रघुनाथ को कैद कर लिया। उसी साल निजाम ने पुणे पर आक्रमण कर दिया किन्तु उसे हरा दिया गया। महादेवराव को ’थोराळे’ या ’महान माधव’ कहा जाता है। यह उपाधि गरीबों का समर्थन करने और न्यायप्रिय होने के कारण प्रदान की गई थी। उनके मुख्य न्यायाधीश, रामशास्त्री प्रभुणे अपने कर्मों के कारण बहुत प्रख्यात हो गये थे। उनके शासनकाल में जो अन्य लोग शक्ति केन्द्र बने उनमें महादजी सिंधिया, नाना फड़नीस और हरिभाउ फड़के थ,े जो उसकी मृत्यु के बाद महत्वपूर्ण शक्ति केन्द्र बन गये। वह 1771 में बीमार पड़े और 27 वर्ष की अल्पआयु में 1772 को निधन हो गया, जो मराठा साम्राज्य के लिए एक और धक्का था।
4.2 नारायणराव पेशवा - 1772-1773
बालाजी बाजीराव के तीसरे बेटे नारायणराव ’शनिवारवाड़ा’ पेशवा की गद्दी पर बैठे। उनके पास न तो कोई कड़़ा फैसला लेने का साहस था और ना ही प्रशासनिक क्षमताएँ और इसीलिए शीघ्र ही अलोकप्रिय हो गये। 1773 में रघनाथराव, जिसे महादेवराव ने महल के एक कक्ष में नजरबंद कर रखा, गार्डी लोगों की मदद से भागने में सफल हुआ। नारायणराव की ’शनिवारवाड़ा’ महल में रघुनाथराव, की पत्नी आनंदीबाई ने षड़यं़त्र पूर्वक हत्या करवा दी।
4.3 ’सवाई’ माधवराव पेशवा - 1774-1795
रघुनाथ ने अगला पेशवा होने की घोषणा की । यद्यपि वह गद्दी का उत्तराधिकारी नहीं था। नारायणराव की विधवा ने एक पुत्र स्वामी माधवराव को जन्म दिया, जो गद्दी का वैधानिक उत्तराधिकारी होना था। रघुनाथराव सेना प्रशासन आदि कार्यों के लिए अंग्रेजों पर निर्भर था, इसके बदले उसे उन्हें पैसा और राज्य देना पड़ा। यद्यपि उसके इरादे सफल नहीं हुए। 12 मराठा सरदारों के षडयंत्र जिसे ’बारंभाईचे कारस्थान’ कहा जाता है के द्वारा उसे अपदस्थ किया गया। स्वामी माधवराव, जो उस समय मात्र एक वर्ष का बालक था को पेशवा घोषित किया गया। फड़के, शिन्दे और होल्कर को सैनिक जिम्मेदारियां देते हुए नाना फड़नीस मुख्य प्रशासक बने। इन लोगों ने पेशवाई का संचालन बहुत अच्छी तरह से, और पूर्ण एकता के साथ 1795 में तब तक किया जब ’सवाई’ माधवराव की असमय मृत्यु हो गई। उन्होनें 1784 में उदीयमान ब्रिटिश शक्ति को पुणे के निकट हराकर अस्थाई तौर पर ही सही, रोक दिया। सवाई माधवराव की मृत्यु मराठा साम्राज्य के लिए अन्तिम बड़ा झटका साबित हुआ। उसके सारे नायकों की एकता समाप्त हो गई और कुछ ही समय में पेशवाई का पतन हो गया।
4.4 बाजीराव पेशवा ’द्वितीय’ - 1795-1802
रघुनाथराव की मृत्यु 1782 में हुई। वह अपने पीछे दो लड़के छोड़ गयाः बाजीराव और चिमनाजी अप्पा। बाजीराव 1817 में अंग्रेजों से पुणे में किरकी के मैदान में लड़ा। वह माधवराव की मृत्यु के बाद पेशवा बना। नाना फड़नीस अभी भी प्रशासक बने रहे और उनकी उच्च प्रशासनिक क्षमताओं के कारण, उनकी मृत्युपर्यन्त, पेशवाई स्थिर बनी रही। नाना की मृत्यु 1800 में हुई और पुणे सिंधिया (शिंदे)े, जो नाना की सेना में प्रमुख थे, के हाथों चली गयी। वे कुछ समय के लिए ही सत्ता में रहे। 1802 में बाजीराव ने स्वंय को पुनर्स्थापित कर लिया। उन्होंने अंग्रेजों से ’बेसिन संधि’ पर हस्ताक्षर किये थे। इसके अन्तर्गत पेशवाई समाप्त करके ब्रिटिश सर्वोच्चता स्वीकार कर ली गई थी। 1803 में अहमदनगर किले को हासिल कर अंग्रेजों ने डेक्कन में अपनी सर्वोच्चता सिद्ध कर दी थी। 1804 में जनरल वेलेसली ने डेक्कन को अराजक घोषित कर सैनिक शासन की स्थापना की और पेशवाई केवल नाम के वास्ते रह गयी।
5.0 एंग्लो-मराठा युद्ध
पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों की धक्कादायक पराजय को पेशवा बालाजी बाजीराव सहन नहीं कर सके और 23 जून 1761 में उनका निधन हो गया। उनके पश्चात उनके पुत्र माधव राव उनके उत्तराधिकारी बने। उन्होंने अपने भाई रघुनाथ राव की महत्वाकांक्षा पर नियंत्रण रखा, मराठा सरदारों और सामंतों के बीच एकता बनाये रखी और शीघ्र ही पानीपत के तीसरे युद्ध में खोई हुई मराठों की ताकत और प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर लिया। अंग्रेज मराठों की बढ़ती शक्ति से चौकन्ने हो गए और वे उनकी पुनर्स्थापना को कुचलना चाहते थे। 1772 में माधवराव की मृत्यु के बाद शीघ्र ही उन्हें इसका अवसर मिल गया।
माधवराव के भाई नारायण राव मराठा साम्राज्य के पेशवा बने। हालांकि नारायणराव के चाचा रघुनाथ राव ने महल के एक षड्यंत्र में उनकी हत्या करवा दी, जिसका परिणाम रघुनाथ राव के पेशवा बनने में हुआ, हालांकि वे इसके कानूनी उत्तराधिकारी नहीं थे। नारायण राव की विधवा गंगाबाई ने पति की मृत्यु के बाद एक पुत्र को जन्म दिया, जो सिंहासन के कानूनी उत्तराधिकारी थे। इस नवजात बालक का नाम ‘‘सवाई‘‘ माधवराव रखा गया (सवाई का अर्थ होता है सवा, या एक और एक-चौथाई)। नाना फडणवीस के नेतृत्व में 12 मराठा सरदारों ने इस नवजात बालक को नए पेशवा के रूप में मनोनीत करने, और उनके अधीन राज्याधिकारी के रूप में शासन करने के प्रयास शुरू किये। हालांकि रघुनाथ राव अपनी सत्ता की स्थिति को छोड़ना नहीं चाहते थे और इसके लिए उन्होंने ब्रिटिशों से मदद का अनुरोध किया, जो मुंबई में स्थित थे। 6 मार्च 1775 को सूरत की संधि पर हस्ताक्षर हुए। इस संधि के अनुसार रघुनाथ राव ने सूरत और भरुच जिलों से एकत्रित किये जाने वाले राजस्व के कुछ हिस्से के साथ ही साल्सेट और वसई के प्रदेश ब्रिटिशों को सत्तांतरित कर दिए। इसके बदले में ब्रिटिशों ने रघुनाथ राव को 2,500 सैनिक प्रदान करने का आश्वासन दिया।
हालांकि पुरंदर की संधि (1 मार्च 1776) ने सूरत की संधि को रद्द कर दिया, रघुनाथ राव को पेंशन दे दी गई और उनके प्रयोजन को परित्यक्त कर दिया गया, परंतु साल्सेट और भरूच जिलों का राजस्व ब्रिटिशों द्वारा रख लिया गया। मुंबई सरकार ने इस नई संधि को अस्वीकार कर दिया और रघुनाथ राव को शरण दी।
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782): 15 मार्च 1775 को कर्नल कीटिंग के नेतृत्व में ब्रिटिश टुकड़ियां पुणे जाने के लिए सूरत से रवाना हुईं, परंतु हरीपंत फडके ने उन्हें अडस में ही रोक दिया और 18 मई 1775 को उन्हें पूरी तरह से पराजित कर दिया। वारेन हेस्टिंग्स ने अनुमान लगाया कि पुणे के विरुद्ध सीधी कार्यवाही हानिकारक हो सकती है और ब्रिटिश कलकत्ता परिषद ने सूरत की संधि की निंदा की और इसे रद्द करने और राज्याधिकारी के साथ एक नई संधि करने के लिए कर्नल अप्टन को पुणे भेजा। अप्टन और पुणे के मंत्रियों के बीच 1 मार्च 1776 को एक समझौता हुआ, जिसे पुरंदर की संधि कहा गया।
वडगांव के युद्ध में मराठों ने ब्रिटिशों की उन टुकड़ियों की रसद पंक्ति को काट दिया जो मुंबई से रवाना हो रही थीं। ब्रिटिश सैनिकों को इस बात की जानकारी मिली और वे तलेगांव में ही रुक गए। आधी रात को उन्होंने वापस जाने का प्रयास किया परंतु मराठों ने उनपर आक्रमण कर दिया और वे वडगांव नामक गांव में ही रुकने के लिए मजबूर हो गए। 12 जनवरी 1779 को ब्रिटिश सेना को घेर लिया गया। अगले दिन के अंत तक ब्रिटिश आत्मसमर्पण की शर्तों पर चर्चा करने के लिए राजी हो गए, और 16 जनवरी को उन्होंने वडगांव की संधि पर हस्ताक्षर किये, जिसने मुंबई सरकार को 1773 से ईस्ट इंडिया कंपनी के मुंबई कार्यालय द्वारा अधिग्रहित किये गए सभी प्रदेशों को छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया।
हालांकि बंगाल के ब्रिटिश गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने इस संधि को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि मुंबई कार्यालय को इस प्रकार की संधि करने अधिकार ही नहीं थे, और उसने गोडार्ड को इस क्षेत्र में ब्रिटिश हितों की रक्षा करने के आदेश दिए। गोडार्ड ने 15 फरवरी 1779 को अहमदाबाद को और 11 दिसंबर 1780 को वसई को अधिग्रहित कर लिया। महादजी शिंदे को पर्याप्त तैयारी करने का अवसर मिलने से पहले ही कैप्टेन पोफाम के नेतृत्व में एक अन्य सैनिक टुकड़ी ने 4 अगस्त 1780 को ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। वसई पर कब्जा करने के बाद गोडार्ड ने पुणे की ओर कूच किया। परंतु अप्रैल 1781 में उसे बोरघाट परशुरम्भा में ही हरीपंत फडके और तुकोजी होलकर के हाथों पराजित होना पड़ा। विभिन्न स्थानों पर हुए युद्धों की एक श्रृंखला के बाद महादजी शिंदे ने मरे की सेना को 1 जुलाई 1781 को निर्णायक रूप से कुचल दिया। इसी समय बीटिशों के कोंकण आक्रमण को भी पूरी तरह से पराजित कर दिया गया।
इस पराजय के बाद वारेन हेस्टिंग्स और महादजी शिंदे के बीच सालबाई की संधि हुई। इस संधि के तहत साल्सेट और वसई ब्रिटिशों को दे दिए गए। रघुनाथ राव को पेंशन प्रदान कर दी गई। इस संधि ने भारतीय राजनीति पर ब्रिटिशों के प्रभाव को स्थापित किया।
द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-1805) :31 दिसंबर 1802 को अंतिम मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय और ब्रिटिशों के बीच वसई की संधि पर हस्ताक्षर हुए। इस संधि के मुख्य प्रावधान थे पूना पर पेशवा के दावे को मान्यता प्रदान करना, बाजीराव द्वितीय द्वारा सहायक गठबंधन को स्वीकार करना और बाजीराव द्वारा सूरत पर सभी प्रकार के अधिकारों का ब्रिटिशों के पक्ष में परित्याग करना।
मराठों के लिए वसई की संधि राष्ट्रीय सम्मान के आत्मसमर्पण से कम नहीं थी। होलकर और सिंधिया ने अपनी लड़ाई को बंद कर दिया। परंतु सिंधिया और भोंसले ने ब्रिटिशों के विरुद्ध अपनी सेनाओं को मिला दिया और होलकर और गायकवाड अलग रहे। ब्रिटिशों द्वारा सिंधिया और भोंसले को अपनी सेनाओं को नर्मदा नदी के उत्तर तक पीछे जाने के लिए कहा गया परंतु उन्होंने इंकार कर दिया। इसका परिणाम द्वितीय एंग्लो-मराठा युद्ध में हुआ। सिंधिया और पेशवा, दोनों ने ब्रिटिशों की प्रभुसत्ता को स्वीकार कर लिया। सिंधिया और भोंसले, दोनों ने क्रमशः सुर्जे-अर्जनगांव की संधि और देवगांव की संधि द्वारा ब्रिटिशों के साथ सहायक गठबंधन स्थापित कर लिया। अब केवल होलकर अकेले ही मैदान में रह गए थे जो अभी भी उनके प्रभुत्व से बचे हुए थे। वेल्सली ने अब अपना ध्यान होलकर की ओर लगाया, परंतु यशवंतराव होल्कर ब्रिटिशों से कहीं अधिक शक्तिशाली साबित हुए। अंततः जनवरी 1806 में कंपनी ने राजघाट की संधि के माध्यम से होलकर के साथ शांति प्रस्थापित कर ली जिसके तहत उन्होंने होलकर को उनके प्रदेशों का अधिकांश भाग वापस सौंप दिया।
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-1818): तृतीय एंग्लो-मराठा युद्ध मराठों लिए अपनी स्वतंत्रता और प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करने का अंतिम प्रयास था। इसके कारण मराठा सरदारों का एक संयुक्त मोर्चा संगठित हुआ और इसका नेतृत्व पेशवा द्वारा किया गया जिसके दिल में ब्रिटिश रेजिडेंट द्वारा लगाये गए कठोर नियंत्रण की टीस थी।
5 नवंबर 1817 को तृतीय एंग्लो-मराठा युद्ध या संघर्ष की शुरुआत हुई। दो लगातार युद्धों में बापू गोखले को अंग्रेजों के हाथों पराजय का सामना करना पड़ा था। पेशवा बाजीराव द्वितीय भाग कर पुरंदर पहुंच गए। इसी समय अप्पा साहेब भोंसले और जसवंत राव होलकर के पुत्र मल्हार राव होलकर ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। 27 दिसंबर 1817 को सीताबल्डी के युद्ध में अंग्रेजों ने भोंसले को पराजित कर दिया, और उसी वर्ष 21 दिसंबर को उन्होंने होलकर को भी पराजित किया। 6 जनवरी 1818 को होलकर को मंदसौर की संधि की शर्तों के अनुसार सहायक गठबंधन स्वीकार करने के लिए मजबूर किया गया।
होलकर ने राजपूत प्रदेशों पर भी अपना दावा छोड दिया और नर्मदा नदी के दक्षिण में स्थित संपूर्ण प्रदेश अंग्रेजों को दे दिया। अंग्रेजों ने अप्पा साहेब भोंसले के राज्य को भी अपने शासन के अधीन मिला लिया। पेशवा ने अंग्रेजों के विरुद्ध दो और लड़ाइयां लडीं - 1 जनवरी 1818 को लड़ी गई कोरेगांव की लडाई, जिसमें पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण दिया। बाजीराव द्वितीय को 8 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन पर रहना पड़ा। उनके स्वामित्व वाले प्रदेशों को अंग्रेजों के नियंत्रण में रखा गया। सातारा शिवाजी के एक वंशज प्रताप को दिया गया। मराठों के दमन के बाद ब्रिटिशों की प्रगति को अवरुद्ध वाली कोई भी शक्ति भारत में नहीं बची थी।
भारत पर ब्रिटिशों का प्रभुत्व निर्विवाद रूप से स्थापित हो चुका था।
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