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भारत में यूरोपीय प्रवेश, व अंग्रेज़ों की विजय
1.0 यूरोप के पूर्वी व्यापार का नया युग
यूरोप के साथ भारत के व्यापारिक संबंध, ग्रीक के प्राचीन दिनों से मौज़ूद रहे हैं। मध्य-युग में यूरोप और भारत तथा दक्षिण पूर्व एशिया के बीच व्यापार कई मार्गों से चला। एशिया वाले भाग का व्यापार मुख्यतः अरब के व्यापारियों और नाविकों द्वारा चलाया गया, एवं भूमध्य सागरीय और यूरोपीय भाग पर इटालवी व्यापारियों का लगभग एकाधिकार था। व्यापारिक सामान, एशिया से यूरोप के बीच कई हाथों से गुजरता था, फिर भी व्यापार अत्यधिक लाभदायक रहा।
1453 में उस्मानी राजाओं की एशिया माईनर पर जीत और कॉन्स्टैन्टनोपल को हथियाने के बाद, पूर्व और पश्चिम के पुराने व्यापारिक रास्ते तुर्कीयों के अधीन आ गए। इसके अतिरिक्त, वेनिस और जिनोआ के व्यापारियों ने यूरोप और एशिया के व्यापार पर एकाधिकार जमा लिया और पश्चिमी यूरोप के नए राष्ट्रों विशेषकर स्पेन और पुर्तगाल, जिनके पास पुराने मार्गों के व्यापार का कोई भी भाग नहीं था, को शामिल करने से मना कर दिया। इसलिए पश्चिमी यूरोप के राज्यों और व्यापारियों ने भारत के लिए, और इंडोनेशिया के स्पाइस द्वीप के लिए, नया और सुरक्षित रास्ता खोजा, जिसे ईस्ट इंड़ीज़ कहा गया। वे अरब व वेनिस के व्यापारियों का एकाधिकार तोड़ना चाहते थे, तुर्की शत्रुता से बचना चाहते थे, एवं पूर्व के साथ सीधे व्यापारिक संबंध जोड़ना चाहते थे। जहाज निर्माण और नौवहन विज्ञान के क्षेत्र में हुई महान प्रगति 15वीं सदी में हुई थी और नव जागरण ने यूरोपीय लोगों में साहसिक कार्यों की भावना का निर्माण किया था।
अपनी सरकारों द्वारा प्रायोजित व नियंत्रित पुर्तगाल व स्पेन के नाविकों ने महान भौगोलिक खोजों की शुरूआत की थी। 1494 में, स्पेन के कोलंबस ने, भारत के लिए यात्रा प्रारंभ की व अमेरिका पहुंच गया। सन् 1498 में पुर्तगाल के वास्कोडिगामा ने यूरोप से भारत के लिए नए समुद्र मार्ग की खोज की।
वह अफ्रीका से घूमकर, केप ऑॅफ गुड होप के रास्ते, कालीकट पहुंचा। वह वापसी में इतना माल लेकर लौटा, जो कि उसके यात्रा व्यय से 60 गुना ज्यादा कीमत पर बिका। इस व अन्य नौपरिवहन, संबंधी खोजों ने विश्व इतिहास में नए अध्याय की शुरूआत की। विश्व व्यापार में 17 वीं व 18 वीं शताब्दी या अत्यधिक बढ़त की साक्षी बनना थी। विशाल नया अमेरिकी महाद्वीप यूरोप के लिए खुला, एवं एशिया व यूरोप के संबंध पूर्ण रूप से बदल गए।
1.1 यूरोपीय पूँजी संग्रह का इंजन - दास व्यापार
यूरोपीय देशों के प्रारंभिक पूंजी संचयन या संपन्नता का अन्य मुख्य साधन, उनका 15वीं शताब्दी के मध्य में, अफ्रीका में पैठ करना था। प्रारंभ में, अफ्रीकी सोने व हाथी दाँत ने विदेशियों को आकर्षित किया। परंतु जल्दी ही, अफ्रीका के साथ व्यापार, दास-व्यापार पर केंद्रित हो गया। 16वीं शताब्दी तक इस दास व्यापार पर स्पेन व पुर्तगाल का एकाधिकार था। बाद में डच, फ्रेंच व ब्रिटिश व्यापारियों का वर्चस्व हो गया। साल दर साल, विशेषकर सन् 1650 के पश्चात्, हजारों अ्रफ्रीकी लोगों को दास के रूप में, वेस्ट इंड़ीज़ एवं उतरी व दक्षिणी अमेरीका में बेचा जाने लगा। दास जहाज यूरोप से तैयार माल ढ़ोकर अफ्रीका लाते, उसे अफ्रीकी तट पर नीग्रों दासों से अदला बदली करते, और इन दासों को अटलांटिक के पार ले जाकर उनके बदले खेती या खान के उपनिवेशिक उत्पाद ढोकर अंत में इन चीजां को यूरोप में वापस लाकर बेचते। यह त्रिपक्षीय व्यवहार का ही अथाह लाभ था जिस पर यूरोप व फ्रांस की व्यापारिक सर्वोच्यता आधारित होना थी। पश्चिमी यूरोपीय व उत्तर अमेरीकी संपन्नता दास-व्यापार व दास मजदूरों द्वारा की गई खेती पर काफी हद तक आधारित थी। इसके अलावा दास व्यापार व दास मजदुरों द्वारा की गई खेती के लाभ ने अठारहवीं व उन्नीसवीं शताब्दी की औद्यौगिक क्रांति के लिए पूंजी का काफी प्रबंध किया। बाद में भारत से खींची गई सपन्नता ने इसी तरह की भूमिका निभाई।
1.2 समुद्रों पर पुर्तगाली आधिपत्य
16 वीं शताब्दी में यूरोपीय व्यापारियों व सैनिकों ने एशियाई भू-भागों में पहले घुसपैठ व बाद में उन पर शासन करने की लंबी प्रक्रिया प्रांरभ की। अत्यधिक लाभ के पूर्वी व्यापार पर लगभग एक शताब्दी तक पुर्तगाल का एकाधिकार था। भारत में उसने व्यापारिक उपनिवेश, कोचीन, गोवा, दीव व दमन में स्थापित किए। पुर्तगाल ने प्रांरभ से ही व्यापार व सैन्य बल का मिश्रित उपयोग किया। उन्हे इस कार्य में उनके उन्नत व लडाकू जहाजों ने मदद की, जिनकी वजह से उन्हें समुद्र पर प्रभुत्व रखने में सफलता मिली। मुठ्ठीभर पुर्तगाली सैनिक व नाविक अपने से कही अधिक शक्तिशाली जमीनी ताकत वाले भारतीय व एशियाईयों के विरूद्ध अपना स्थान बना पा रहे थे। मुगल नौ-परिवहन को धमकाकर उन्होने अपने लिए मुगल राजाओं से अनेक व्यापारिक रियायतें भी हासिल करने में सफलता पाई।
अल्फांज़ो अल्बुकर्क सूबेदारी में, जिसने 1510 में गोवा को हथिया लिया था, पुर्तगाल ने संपूर्ण एशियाई समुद्रतट पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया (पर्शियन खाड़ी में होरमुज़ से मलाया में मलक्का तक, और इंड़ोनेशिया के स्पाइस आयलैंड तक) उन्होंने समुद्री तटीय भारतीय राज्यों पर कब्जा किया व अपने व्यापार को फैलाने, प्रभुत्व स्थापना व व्यापारिक एकाधिकार के बचाव के लिए अपने यूरोपीय दुश्मनों से सतत् संघर्ष किया। यहां तक की लूट व चोरी में भी शामिल रहे। वे अमानवीय क्रूरता व अराजकता में भी लिप्त रहे। अपने बर्बर ब्यवहार के बावजूद अनका आधिपत्य एक दशक तक भारत पर रहा क्योंकि समुद्र पर उनका अधिकार था व उनके सैनिकों व व्यवस्थापकों ने कठोर अनुशासन रखा । साथ ही उन्हें मुगलों की शक्ति को भी नहीं झेलना पड़ा क्योंकि दक्षिण भारत मुगलों के प्रभाव से बाहर था।
1.3 इग्लैंड, हॉलैंड, फ्रांस बनाम पुर्तगाल व स्पेन
स्पेन व पुर्तगाल के वैश्विक व्यापार के एकधिकार को 16 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इंग्लैंड, हॉलैंड व उसके बाद फ्रांस ने, जो कि बढ़ती व्यापारिक नौ-सैनिक श्िक्तयाँ थी, उग्र चुनौती दी। इस संघर्ष में स्पेन व पुर्तगाल को मात खानी पड़ी। अंग्रेज व डच व्यापारी अब केप ऑफ गुड होप मार्ग का उपयोग कर सकते थे, जिससे वो भी पूर्व के साम्राज्य की दौड़ में शामिल हो गए। अंत में इंडोनेशिया पर डच का स्वामित्व हो गया व भारत, श्रीलंका, मलाया पर ब्रिटिश का।
सन् 1602 में डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई जिसे डच संसद ने अधिकार पत्र दिया जिसमें युद्ध करने, संधि करने, राज्य अधिग्रहण व किले बनाने का अधिकार शामिल था। डच लोगों की दिलचस्पी भारत में न होकर जावा, सुमात्रा व स्पाइस द्वीप में थी जहाँ मसालों का उत्पादन होता था। उन्होंने जल्दी ही पुर्तगालियों को मलाया जल डमरू, मध्य व इंडोनेशिया द्वीप से खदेड़ दिया। उन्होंने गुजरात के सूरत, भरूच, कांबे व अहमदाबाद, दक्षिण भारत में मद्रास के नागापट्टनम, केरल के कोच्ची, आंध्र के मछली-पट्टनम, बंगाल के चिनसुरा, बिहार के पटना व उत्तरप्रदेश के आगरा में व्यापारिक गोदाम बनाए। उन्होंने 1658 में पुर्तगाल से श्रीलंका भी जीत लिया।
1.4 ब्रिटिश लालच और ईस्ट इंडिया कंपनी का विकास!
अंग्रेज व्यापारियों की भी एशियाई व्यापार पर लालची नजर थी। पुर्तगाली व्यापारिक सफलता व उनके द्वारा लाए जा रहे मसालों, सफेद कपड़े, सिल्क, सोना, मोती, दवाईयाँ, चीनी मिट्टी के बर्तन व आबनूस से होने वाले उच्च लाभ ने व्यापारियों की कल्पनाओं को प्रज्वलित किया व उन्हें इस अत्यंत लाभदायक व्यापार में शामिल होने के लिए उत्साहित किया। पूर्व में व्यापार के लिए, अंग्रेज व्यापारियों के तत्वाधान में, जिन्हें ‘‘साहसिक व्यापारियों’’ के नाम से जाना जाता था, एक अंग्रेज समिती की स्थापना की गई। कंपनी, जो कि ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम से जानी जाती थीं, को 31 दिसम्बर 1600 में, महारानी एलिज़ाबेथ के द्वारा विशेषाधिकार पत्र दिया गया। सन् 1608 में कंपनी ने एक फैक्ट्री (एक व्यापारिक गोदाम को दिया गया नाम) खोलने का निर्णय लिया। इस हेतु कप्तान हांकिन्स को जहाँगीर के दरबार में व राजकीय कृपा दृष्टि पाने के लिए भेजा गया। इसके परिणामस्वरूप राजकीय फरमान के द्वारा अंग्रेज कंपनी को दक्षिणी तटों के कई स्थानों पर फैक्ट्री खोलने की अनुमति दी गई।
परंतु अंग्रेज इस छूट से संतुष्ट नहीं थे। 1615 ईस्वी में उनके राजनायिक सर थॉमस रो, मुगल दरबार पहुंचे। रो को मुगल साम्राज्य के सभी हिस्सों में फैक्ट्री खोलने के राजकीय फरमान पाने में सफलता मिल गई। एक पुर्तगाली राजकुमारी से विवाह के उपलक्ष्य में पुर्तगाल ने सन् 1662 में बंबई द्वीप को चार्ल्स द्वितीय को दहेज स्वरूप प्रदान कर दिया। अंततः गोवा, दमन व दीव को छोड़ पुर्तगाली अपना संपूर्ण भारतीय उपनिवेश हार गए। अंग्रेज कंपनी व डच कंपनी अपने इंडोनेशिया द्वीप के मसालों के व्यापार विभाजन पर बिखर गई। दोनों शक्तियों का सन् 1654 में शुरू हुआ सविराम युद्ध, 1667 में तब खत्म हुआ जब अंग्रेजों ने इंडोनेशिया पर अपना पूर्ण दावा छोड़ दिया व डच ने भारतीय अंग्रेजी उपनिवेश को छोड़ने का ऐलान किया।
2.0 ईस्ट इडिया कंपनी के व्यापार व प्रभाव का विकास (1600-1714)
ईस्ट इंडिया कंपनी की भारत में बहुत छोटी शुरूआत हुई। सन् 1600 इस्वी के चार्टर द्वारा कंपनी को केप ऑफ गुड होप के पूर्व में 15 वर्ष तक व्यापार करने की विशिष्ट सुविधा मिल गई। पहली समुद्री यात्रा सन् 1601 सर जेम्स लेंस्टर द्वारा नियंत्रित की गई। द्वितीय समुद्री यात्रा मार्च 1604 में सर हेनरी मिडिल्टन द्वारा नियंत्रित की गई।
सन् 1623 तक कंपनी ने सूरत, भरूच, अहमदाबाद, आगरा व मछली पट्टनम में कारखाने (व्यापारिक केन्द्र) स्थापित कर लिए थे। कंपनी ने प्रारंभ से ही उन राज्यक्षेत्रों, जहाँ उनके कारखाने स्थापित थे, के नियंत्रण और युद्ध को व्यापार और कूटनीति से मिलाने की कोशिश की।
सन् 1565 में दक्षिण के महान विजयनगर साम्राज्य का अंत हो गया था व उसका स्थान कई छोटे व कमजोर राज्यों ने ले लिया था। अतः अंग्रेजों के लिए यह परिस्थितियाँ अनुकूल थी क्योंकि उन राज्यों के लालच को आकर्षित करना या अपनी सैन्य शक्ति से डराकर नियंत्रित करना आसान था। सन् 1611 में अंग्रेजों ने मछली पट्टनम में अपना पहला कारखाना खोला पर जल्दी ही उन्होने अपनी गतिविधियों के केन्द्र को मद्रास स्थानांतरित कर दिया जो कि उन्हें वहाँ के स्थानीय राजा ने किराए पर सन् 1639 में दिया था। राजा ने बंदरगाह के आधे सीमा शुल्क के एवज में उन्हें उस स्थान को किलाबंद करने, प्रशासन करने और बेहिसाब पैसा कमाने की अनुमति दे दी। यहाँ अंग्रेजों ने अपने कारखाने के चारों ओर एक छोटा किला बनाया जिसे फोर्ट सेंट जॉर्ज कहा गया।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने, सन् 1668 में बंबई द्वीप को अधिग्रहित कर उसे तुरंत किला बंद कर दिया। बंबई के रूप में अंग्रेजों को एक बड़ा, व बचाने में आसान बंदरगाह मिल गया। इसी वजह से, व अंग्रेजी व्यापार को बढ़ती मराठा शक्ति के डर से, बंबई जल्दी ही सूरत की बजाय पश्चिमी तट पर कंपनी के मुख्यालय के रूप में उभरा।
सन् 1633 में पूर्वी भारत के उड़िसा में अंग्रेजी कंपनी ने अपने कारखानों का जत्था खोला। सन् 1651 में उसे बंगाल के हुगली में व्यापार की अनुमति मिली। कंपनी ने जल्दी ही पटना, बालासोर, ढाका तथा बंगाल व बिहार के अन्य स्थानों पर अपने कारखाने खोल लिए। कंपनी ने बंगाल में अपने स्वतंत्र उपनिवेश के स्थापना की इच्छा जाहिर की। कंपनी का सपना भारत में राजनैतिक शक्ति स्थापित करना था जो कि उन्हें मुगलों से मुक्त व्यापार करने की मंजूरी देने पर मजबूर करे व भारतीयों को अपना सामान सस्ता बेचने और उनका सामान महँगा खरीदने पर बाध्य करे, तथा दुश्मन यूरोपीय व्यापारियों को बाहर रखे, व अपने व्यापार को भारतीय राज्यों की नीतियों से स्वतंत्र रखे। राजनैतिक शक्ति से भारतीय राजस्व को हथियाने में भी सहायता होगी तथा देश को उसके अपने ही संसाधनों द्वारा परास्त कर सकेगी। उस समय ऐसी योजनाएँ स्पष्ट रूप से प्रस्तुत की गइंर्।
2.1 मुगलों के हाथों अंग्रेजों की हार
अंग्रेजों द्वारा हुगली लूट और मुगल राजा के खिलाफ युद्ध घोषित करने के बाद सन् 1686 में अंग्रेजों और मुगलों के बीच युद्ध-स्थिति निर्मित हुई। पर अंग्रेजों ने स्थिति का गलत अनुमान लगाया और मुगल ताकत को कमजोर समझा। ईस्ट इंडिया कंपनी की छोटी-मोटी सेना के लिए औरंगज़ेब के अधीन मुगल साम्राज्य बहुत मज़बूत हो गया था। अंग्रेजों के लिए ये युद्ध दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से समाप्त हुआ। उन्हें बंगाल में उनके कारखानों से बाहर खदेड़ दिया गया और गंगा के मुहाने, बुखार-ग्रस्त एक द्वीप पर शरण लेने के लिए मजबूर कऱ दिया गया। सूरत, मछलीपट्टनम और विशाखापट्टनम में उनके कारखानों को जब्त कर लिया गया और बंबई में उनके किले को घेर लिया गया। यह देख कि वे अब उतने शक्तिशाली नहीं रहे कि मुगल ताकत से लड़ सकें, एक बार फिर अंग्रेज नम्र निवेदक बन गए और यह निवेदन किया कि ‘‘जो अनुचित अपराध उन्होंने किया है उसे माफ कर दिया जाए।’’ उन्होंने भारतीय शासकों के संरक्षण में, व्यापार करने की इच्छा जाहिर की। स्पष्ट रूप से उन्होनें सबक सीख लिया। मुगल शासकों से व्यापारिक रियायतें पाने के लिए वे एक बार फिर चापलूसी और नम्र निवेदन पर निर्भर हो गए।
मुगल अधिकारियों ने अंग्रेजों की नादानी को माफ कर दिया क्योंकि उनके पास ये जानने का कोई रास्ता नहीं था कि ये निर्दोष दिखने वाले विदेशी व्यापारी एक दिन देश के लिए गंभीर खतरा बन जाएंगे। बल्कि उन्हें ये महसूस हुआ की कंपनी के द्वारा किया जा रहा विदेश व्यापार, भारतीय व्यापारियों व शिल्पियों के फायदेमंद है और इससे राज्य का खज़ाना भी फल फूल रहा था। इसके अलावा, अंग्रेज भले ही ज़मीनी रूप से कमज़ोर थे, पर फिर भी नौसेनिक श्रेष्ठता के दम पर, ईरान, पश्चिमी एशिया, उत्तरी और पूर्वी अफ्रीका और पूर्वी एशिया के साथ भारतीय व्यापार और नौ-परिवहन को तबाह करने योग्य थे। इसलिए औरंगज़ेब ने उन्हें रूपये 1,50,000 के मुआवज़े के बदले, व्यापार फिर से करने की अनुमति दी। सन् 1698 में, कंपनी ने तीन गाँवों, सुतानती, कलिकाता और गोविंदपुर की ज़मींदारी अधिग्रहित कर ली, जहाँ उन्होनें अपने कारखानों के चारों ओर फोर्ट विलियम का निर्माण किया। वे गाँव जल्दी ही एक शहर में विकसित हो गए जिसे कलकत्ता कहा गया। सन् 1691 में कंपनी को जो विशेषाधिकार मिले हुए थे, उन्हें गुजरात और दक्षिण तक फैलाने के लिए, सन् 1717 में कंपनी ने राजा फारूख सियर से एक शाही फरमान जारी करवा लिया। पर अठारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में बंगाल पर शक्तिशाली नवाबों, जैसे मुर्शीद कुली खान और अलीवरदी खान का शासन था। उन्होनें अंग्रेजी व्यापार पर कठोर नियंत्रण रखा और उन्हें अपने अधिकारों के दुरूपयोग से रोका। इतना ही नहीं उन्होंने अंग्रेजों को कलकत्ता की किले बंदी को मज़बूत करने से, या शहर पर स्वतंत्र रूप से राज करने से रोका। वहाँ ईस्ट इंडिया कंपनी, नवाबों की महज़ एक जमींदार बन कर रह गई।
कंपनी की राजनैतिक अभिलाषा तो असंतुष्ट रही पर व्यावसायिक कामकाज सफल हो गया जो पहले कभी नहीं हुआ था। इसका आयात भारत से इंग्लैंड में, जो कि सन् 1708 में 5,00,000 पाउण्ड था, वो बढ़कर 1740 में 17,95,000 पाउण्ड हो गया। मद्रास, बंबई और कलकत्ता में ब्रिटिश रहवासी क्षेत्र, शहरों की समृद्धि के केन्द्र बन गये थे। बड़ी मात्रा में भारतीय व्यापारी और साहूकार इन शहरों की तरफ आकर्षित होने लगे। इसका कारण आंशिक रूप से इन शहरों में व्यावसायिक अवसरों का उपलब्ध होना था और आंशिक रूप से बाहर फैलीं अनिश्चित अवस्थाएँ थीं, जो कि मुगल शासन भंग होने की वजह से फैलीं। अठारहवीं शताब्दी के मध्य में मद्रास की जनसंख्या बढ़कर 3,00,0000 कलकत्ता की 2,00,000, और बंबई की 70,000 हो गई।
2.2 दक्षिण भारत में फ्रांसिसी-अंग्रेज़ संघर्ष
औरंगज़ेब की मृत्यु के पश्चात् घटती मुगल शक्ति ने ईस्ट इंडिया कंपनी का राज्य आधिपत्य तथा राजनैतिक प्रभुत्व पाने की योजना पुनः जीवित कर दी। नादिर शाह के आक्रमण ने केंद्रीय सत्ता के क्षय को प्रदर्शित किया। किन्तु पश्चिम में, सशक्त मराठाओं के नियंत्रण व पूर्व में, अलीवरदी खान, जिसने वहाँ कठोर नियंत्रण कर रखा था, के कारण विदेशी घुसपैठ की संभावना नगण्य थी। परंतु दक्षिण में परिस्थितियाँ धीरे-धीरे विदेशीयों के लिए अनुकूल हो रही थीं। यहाँ केंद्रीय शक्ति, औरंगज़ेब के अवसान के बाद, लुप्त हो गई थी, एवं 1748 में निजाम-ए-मुल्क, आसफ जहाँ की मजबूत पकड़ उनकी मृत्यु के बाद समाप्त हो गई। उस पर मराठा नेतृत्व ने बार-बार हैदराबाद व बाकी दक्षिणी राज्यों पर हमले कर उनसे चौथ वसूला। यह छापेमारी राजनैतिक अस्थिरता व प्रशासनिक अव्यवस्था का कारण बनी। कर्नाटक उत्तराधिकार के भ्रातृ-हत्या संबंधी उलझनों में फँस गया।
इन्हीं कारणों से विदेशियों को दक्षिण में अपने राजनैतिक प्रभाव व नियंत्रण को बढ़ाने का अवसर मिल गया। परंतु केवल अंग्रेज ही राजनैतिक व व्यावसायिक दावों को पेश करने वाले नहीं थे। जहाँ उन्होंने 17 वीं शताब्दी के अंत तक, अपने पुर्तगाली व तुर्क विरोधियों को खत्म कर दिया था, वहीं फ्रांसीसी एक नए दुश्मन की तरह उभर कर आये थे। भारतीय भू-भाग, धन, व व्यापार पर नियंत्रण के लिए 1744 से 1763 के बीच लगभग 20 वर्षों तक अंग्रेजों व फ्ऱांसीसियों के बीच कड़ा युद्ध चला। फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना सन् 1664 में हुई। पूर्वी तट पर वह सुदृढ़ रूप से पाँड़िचेरी व कलकत्ता के निकट चंद्रनागोर में स्थापित हो चुकी थी। पाँड़िचेरी स्थित कंपनी पूर्ण रूप से मज़बूत थी। फ्रांसीसी कंपनी के पूर्वी व पश्चिमी तटों पर अन्य कारखानें भी थे। उसने हिंद महासागर में मॉरीशस द्वीप, व रीयूनियन पर भी कब्जा कर लिया था।
फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी, फ्रांसीसी सरकार पर बहुत अधिक निर्भर थी, जो कि उसे राजकोषीय अनुदान व कर्ज, व अन्य सहायता प्रदान करती थी। इसके परिणाम-स्वरूप वह मुख्य रूप से सरकार द्वारा नियंत्रित हो गई, जिसने सन् 1723 के बाद अपने निदेशक नियुक्त किए। कंपनी के सरकारी नियंत्रण ने उसे काफी नुकसान पहुंचाया। उस काल की फ्रांसीसी सरकार निरंकुश, अर्धसामंती, व बदनाम थी व भ्रष्टाचार, अक्षमता व अस्थिरता से ग्रसित थी। वह दूरदर्शी होने के बजाय अनैतिक, व परंपरा से बंधी थी तथा अपने समय के अनुकूल नहीं थी। ऐसी सरकार के नियंत्रण से कंपनी को केवल नुकसान ही हुआ।
फ्रांस व इंग्लैंड के बीच 1742 में यूरोप में युद्ध छिड़ गया। यूरोप, फ्रांस व इंग्लैंड का युद्ध जल्दी ही भारत में भी फैल गया, जहाँ दोनों ईस्ट इंडिया कंपनी एक दूसरे के साथ युद्ध करने लगीं। सन् 1748 में अंग्रेजों व फ्रांसीसियों के बीच मुख्य लड़ाई खत्म हो गई। हालाँकि युद्ध समाप्त हो गया था परंतु भारत की व्यापारिक व आधिपत्य की लड़ाई किसी न किसी प्रकार से जारी रही।
उस समय के पाँडिचेरी स्थित फ्रांसीसी गवर्नर जनरल डुप्लेक्स ने अब एक योजना बनाई जिसके अंतर्गत उसने शक्तिशाली व अनुशासित आधुनिक सेना को भारतीय राजाओं की आपसी लड़ाई में हस्तक्षेप कर मदद करने का प्रस्ताव दिया व विजेता राजाओं से उसके बदले आर्थिक, व्यापारिक व सामाजिक अनुग्रह प्राप्त करने की कोशिश की। इस प्रकार उसने फ्रांसीसी कंपनी के सरोकार के हितों के लिए, व अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए, स्थानीय राजाओं, नवाबों व मुखियाओं के संसाधनों व सेना का उपयोग की योजना बनाई। इस योजना की राह में केवल स्थानीय राजाओं का (किसी विदेशी हस्तक्षेप का) विरोध ही बाधा बन सकता था। परंतु भारतीय राजा राष्ट्रप्रेम से मार्गदर्शित न होकर केवल निजी लाभ व महत्वकांक्षा की संकीर्ण मानसिकता से प्रेरित थे। उन्हें अपने प्रतिद्वंदियों से हिसाब बराबर करने के लिए विदेशी मदद लेने पर भी झिझक नहीं थी।
सन् 1748 में कर्नाटक व हैदराबाद में ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हुई जिसने डुप्लेक्स की शड्यंत्रकारी प्रतिभा को उभरने का भरपूर मौका दिया। कर्नाटक में चंदासाहिब ने नवाब अनवरउद्दीन के खिलाफ शडयंत्र बनाना शुरू किया व हैदराबाद में निजा़म-ए-मुल्क आसफ जहाँ की मृत्यु के बाद उसके पुत्र नासिर जंग व पोते मुज़्ज़फर जंग के बीच ग्रह युद्ध छिड़ गया। डुप्लेक्स ने इस मौके का फायदा उठाया व उसने चंदासाहित व मुज़्ज़फर जंग के साथ अपनी प्रशिक्षित फ्रांसीसी व भारतीय सेना की मदद की गुप्त संधि की। सन् 1749 में अंबुर की लड़ाई में तीनों सहयोगियों ने मिलकर अनवरउद्दीन को परास्त कर मौत के घाट उतार दिया। अनवरउद्दीन का बेटा मोहम्मद अली, त्रिचिनापल्ली भाग गया। शेष कर्नाटक, चंदासाहिब के प्रभुत्म में चले गये, जिन्होनें फ्रांसीसी कंपनी को इनाम के तौर पर पॉडिचेरी के आसपास 80 गाँव अनुदान में दिए।
हैदराबाद में भी फ्रांसीसी सफल रहे। नासिर जंग मारा गया व मुज्ज़फर जंग दक्षिण के निजा़म बन गए। नए निजाम ने फ्रांसीसी कंपनी को पाँडिचेरी के निकट का क्षेत्र व प्रसिद्ध मच्छलीपट्टनम शहर ईनाम स्वरूप दिया। उसने कंपनी को 5,00,000 रूपये व सेना को अलग से 5,00,000 रूपये दिए। डुपलेक्स को 2 लाख रूपये व 1 लाख रूपये वार्षिक की एक जागीर मिली। इसके अलावा उसे पूर्वी तट के कृष्णा नदी से कन्याकुमारी तक फैले मुगल प्रभुत्व के क्षेत्र का मानद् राज्यपाल भी बनाया गया। डुपलेक्स ने अपने श्रेष्ठ अधिकारी बस्सी को एक फ्रांसीसी सेना के साथ हैदराबाद में स्थापित किया। वैसे इस व्यवस्था का ज़ाहिर उद्देश्य निजा़म को उसके दुश्मनों से बचाना था परंतु असली उद्देश्य उसके राज्य में फ्रांसीसी प्रभाव को बनाए रखना था। मुज़फ्फर जंग अपनी राजधानी की ओर लौटते समय दुर्घटनावश मारा गया। बस्सी ने तुरंत ही निज़ाम-ए-मुल्क के तीसरे पुत्र सलाबत जंग को नवाब नियुक्त कर दिया। इसके बदले में नए निज़ाम ने फ्रांसीसीयों की आंध्र स्थित क्षेत्र जो कि उततरी सरकारों के नाम से जाना जाता था, व 4 जिले मुस्तफानगर, इल्लौर, राजमुन्द्री व चिकाकोले से बना था, दे दिया।
दक्षिण में अब फ्रांसीसी शक्ति अपने चरम पर थी। डुपलेक्स की योजना उसके सपने से भी ज्यादा सफल हो गई थी। फ्रांसीसियों ने शुरूआत भारतीय राज्यों से मित्रता जीतने से की व अंत में उन्हें अपना ग्राहक या उपग्रह बना लिया। परंतु अंग्रेज भी अपने दुश्मनों की सफलता के मूक दर्शन नहीं थे। फ्रांसीसी प्रभाव के समायोजन व अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए वे नासिर जंग व मोहम्मद अली को लुभाने में लगे थे। सन् 1750 में उन्होंने मोहम्मद अली को अपना पूर्ण समर्थन देने का निर्णय लिया। कंपनी सेवा के एक मुंशी ने प्रस्तावित किया कि त्रिचिनापल्ली में घेरा डाले हुए मोहम्मद अली पर फ्रांसीसी दबाव को आरकोट (कर्नाटक की राजधानी) पर हमले से मुक्त किया जा सकता है। प्रस्ताव को मान लिया गया व मात्र 200 अंग्रेजी व 300 भारतीय सैनिकों के साथ रॉबर्ट क्लाइव ने आरकोट पर आक्रमण कर उस पर कब्जा कर लिया। जैसे कि अपेक्षित था, चंदासाहिब व फ्रांसीसी सेना को त्रिचिनापल्ली पर अपना घेरा बढ़ाना पड़ा। फ्रांसीसी सेना लगातार हार रही थी। चंदासाहिब जल्दी ही पकड़े गए व मारे गए। फ्रांसीसी ताकत की किस्मत अब उतार पर थी, चूँकि उसकी सेना व उसके सेनाध्यक्ष अपने प्रतिद्वंदी अंग्रेजों से कमजोर साबित हो रहे थे। अंत में अपनी अमरीकी बसाहट के नुकसान के भय व भारतीय युद्ध के खर्चों से घबराकर फ्रांसीसी सरकार ने शांति समझौते की शुरूआत की व सन् 1754 में डुपलेक्स की वापसी की और अंग्रेजों की माँग को मान लिया। यह फ्रांसीसी कंपनी की भारतीय किस्मत पर गहरा आघात था।
दोनों कंपनीयों के बीच की अस्थाई शांति सन् 1756 में खत्म हो गई जब इंग्लैंड व फ्रांस के बीच युद्ध छिड़ गया। युद्ध की शुरूआत में ही अंग्रेजों ने बंगाल पर अधिकार पाने में सफलता पाई। इस पर चर्चा बाद में की गई है। इस घटना के बाद फ्रांसीसी हितों की क्षणिक ही संभावना बची थी। बंगाल के संपन्न संसाधनों ने तराजू को निर्णायक रूप से अंग्रेजों के हित में झुका दिया था। युद्ध की निर्णायक लड़ाई वाडीवाश में 22 जनवरी सन् 1707 में लड़ी गई जिसमे अंग्रेज जनरल आयरी कूट ने लाली को पराजित किया। एक वर्ष के अंदर ही फ्रांसीसी कंपनी ने भारत में अपना वर्चस्व खो दिया। पेरिस संधि के हस्ताक्षर के साथ युद्ध सन् 1763 में खत्म हो गया। फ्रांसीसी कंपनियों को भारत में पुनः स्थापित कर दिया गया पर वे अब ना तो किलेबंदी कर सकते थे ना ही सुरक्षा सेना रख सकते थे। वे केवल व्यापार केन्द्र की तरह ही रह सकते थे। अब फ्रांसीसी भारत में ब्रिटिश संरक्षण में रहते थे। वहीं दूसरी ओर ब्रिटिश हिंद महासागर पर राज कर रहे थे। अपने यूरोपियन दुश्मनों से मुक्त, अब वे अपने भारत विजय के काम पर लग गए।
फ्रांसीसी व उनके भारतीय सहयोगियों के साथ हुए संघर्ष के दौरान अंग्रेजों ने कुछ महत्वपूर्ण व कीमती सबक सीखे। सर्वप्रथम देश में राष्ट्रीयता के अभाव के चलते व भारतीय राजाओं की आपसी लड़ाई का लाभ उठाते हुए वे अपनी राजनैतिक तरकीबों को बढ़ाने में कामयाब हुए। दूसरे, पुरानी तर्ज पर बनी भारतीय सेनाओं को पश्चिमी तौर से प्रशिक्षित, भारतीय या यूरोपियन पैदल सेना जो कि आधुनिक हथियारों से लैस थी व तोपखानों से प्रोत्साहित थी, के द्वारा हराना आसान था। तीसरे यह की भारतीय सैनिक जो कि यूरोपीय तरीकों से प्रशिक्षित व हथियारों से सज्जित थे, यूरोपीय सैनिकों जितने ही सक्षम थे और चूँकि भारतीय सैनिक भी राष्ट्रीयता की भावना से शून्य थे, उन्हें किसी के भी द्वारा भाड़े पर लेना आसान था जो कि उसे अच्छे पैसे देता। अब अंग्रेजों ने ब्रिटिश अफसरों की अगवाई में भारतीय सिपाहियों की मजबूत सेना बनाई। इस सेना को मुख्य साधन बनाकर व भारतीय भूभाग के वृहद संसाधनां व व्यापार के आधिपत्य से अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी ने भूभाग प्रसार व युद्ध के एक नए युग की शुरूआत की।
3.0 बंगाल पर ब्रिटिष अधिकार
भारत में ब्रिटिश राजनैतिक सूर्योदय के चिन्ह सन् 1757 के प्लासी के युद्ध में तक देखे जा सकते हैं जहाँ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने बंगाल के नवाब सिराजउद्दौला को परास्त किया। पूर्व में दक्षिण में फ्रांसीसियों से लड़ी गई लड़ाई वस्तुतः एक पूर्वाभ्यास ही था। वहाँ से सीखे गए अनुभवों को लाभपूर्वक बंगाल में उपयोग किया गया।
बंगाल, भारतीय राज्यों में सबसे धनी व उर्वरक राज्य था। उसके उद्योग व व्यापार भली भाँति विकसित थे। ईस्ट इंडिया कंपनी व उसके कर्मचारियों की राज्य में उच्च मुनाफे की व्यापारिक रूचि थी। सन् 1717 में मुगल शासक द्वारा प्राप्त राजकीय फरमान से उन्हें विशिष्ट सुविधाएँ प्राप्त थीं जिसके द्वारा उन्हें बगैर किसी कर के वस्तुओं के आर्यात व निर्यात का अधिकार प्राप्त था तथा ऐसी वस्तुओं के आवागमन के लिए प्रवेश पत्र जारी करने का अधिकार भी शामिल था। कंपनी के कर्मचारी व्यापार करने के लिए स्वतंत्र तो थे पर इस फरमान से बद्ध नहीं थे। उन्हें अन्य भारतीय व्यापारियों की तरह ही कर देना पड़ता था। यह फरमान बंगाल के नवाबों व कंपनी के बीच सतत् टकराव का कारण था। अव्वल तो यह बंगाल सरकार के लिए राजस्व घाटा था, दूसरे प्रवेश पत्र जारी करने के अधिकार का कंपनी के कर्मचारियों द्वारा दुरूपयोग अपने निजी व्यापार की कर चोरी के लिए किया जाता था। मुर्शीद कुली खा़न से लेकर अलीवरदी खान तक बंगाल के सभी नवाबों ने सन् 1717 के इस फरमान की अंग्रेजी व्याख्या का विरोध किया था। उन्होंने कंपनी को उनके खजाने में एक मुश्त राशि जमा करने पर मजबूर कर दिया व प्रवेश पत्र के दुरूपयोग को भी सख्ती से दबाया। कंपनी को नवाबों की इस मामले में आज्ञा मानने पर मजबूर किया किन्तु उसके कर्मचारियों ने इस आज्ञा से बच निकलने के हर संभव अवसर को भुनाया।
सन 1756 में स्थिति तनावपूर्ण हो गई जब छोटे नवाब सिराज उद् दौला ने उसके दादाजी अली वर्दी खान की गद्दी पाई। उन्होनें अंग्रेजों से कहा कि वे उन्हीं शर्तों पर व्यापार करें जो मुर्शीद कुली ख़ान के समय थीं। अंग्रेजों ने व्यापार करने से इंकार कर दिया क्योंकि अंग्रेजों ने दक्षिण भारत पर विजय प्राप्त करने के बाद स्वयं को बलशाली पाया। विजय प्राप्त करने के बाद वे खुद को शक्तिशाली मान रहे थे। नवाब की मानने के बजाय अंग्रेजों ने कलकत्ता में आ रहे माल पर भारी कर लगा दिये। नवाब को यह लग रहा था कि ब्रिटिश कंपनी उसके नियम कानूनों का विरोध कर रही है। महत्वपूर्ण संघर्ष तब शुरू हुआ जब बिना नवाब की इजाजत लिए ब्रिटिश कंपनी खुद की कंपनी को शक्तिशाली बनाने के लिए कोलकाता में अपने व्यापार का विस्तार करने लगी एवं किलाबंदी करने लगी। जब नवाब को यह पता चला तो उसने अपनी सेना के साथ कोलकाता में ब्रिटिशों पर हमला कर दिया। और बड़ी निड़रता से कहा कि कोई व्यापारी यहां पर बिना मेरी इजाजत के किलों का निर्माण कर सकता हैं? सिराज कि यह इच्छा थी वह अपनी जमीन यूरोपियों को व्यापार करने के लिए किराये पर आवंटित करें पर वह यह बिलकुल नही चाहता था कि वे उसके स्वामी बनें। नवाब ने अंग्रेजों और फ्रांसीसीयों को आदेश जारी किया कि यदि वे कोलकाता और चंद्रनगर को पाना चाहते है तो उन्हें आपस में युद्ध करना होगा। उसके आदेश अनुसार फ्रांसीसी तैयार हो गए जबकि अंग्रेजों ने नवाब के आदेश का पालन नहीं किया। अंग्रेजों ने नवाब की इच्छा के विरूद्ध बंगाल में रहने का और साथ ही साथ खुद की शर्तां पर व्यापार करने का फैसला किया। केवल ब्रिटिश सरकार को ही अंग्रेजो कि सारी गतिविधियों को नियंत्रित और स्वीकृति देने का अधिकार था। कंपनी ने ब्रिटिश संसद द्वारा लगाई पाबंदियों को स्वीकार किया था व 1693 में अपने चार्टर के रद्द होने पर ब्रिटेन के राजा को, संसद की, व राजनेताओं को भारी घूस दी थी (केवल एक वर्ष के दौरान उसे रिश्वत के रूप में 80,000 पौंड का भुगतान करना पड़ा) तथापि बंगाल के नवाब आदेश के बावजूद अंग्रेज कंपनी ने बंगाल में मुक्त रूप से व्यापार करने के अधिकार की मांग की। इसका अर्थ था नवाब की प्रभुसत्ता को सीधी चुनौती। शायद कोई भी शासक इस प्रकार की स्थिति को स्वीकार नहीं सकता था। सिराज़ उद् दौला के पास अंग्रेजों के मंसूबों के दीर्घकालीन प्रभावों को समझने की राजनीतिक समझ थी। उसने उनसे राज्य के कानूनों का पालन करवाने का निर्णय लिया।
जब यह बात नवाब को पता चली तो उन्होंने अपने राज्य की भूमि पर अंग्रेजों की व्यापार करने की निरंकुश प्रवृत्ति पर प्रतिबंध लगाना चाहा। नवाब सिराज उद् दौला ने आसानी से अंग्रेजी कारखानों और किलों पर अपना कब्जा 20 जून 1776 में जमा लिया। कब्जा पाने के बाद नवाब ने कोलकाता को छोड़ दिया परंतु यह उसकी सबसे बडी भूल थी कि उसने दुश्मनों कि ताकत को कम समझा।
अंग्रेजों ने समुद्र के किनारे फुल्टा के पास अपने कार्यालय में शरण ली। उस दौरान वे मद्रास से सहायता लेने का इंतजार कर रहे थे। नवाब के दरबार में कई बड़े रईस थे जैसे मीर जाफर, मीर बक्शी, मनीकचंद अमीनचंद, (धनवान व्यापारी) जगत सेठ, (बंगाल के बडे़ साहूकार) और कादीम खान आदि। इन्होंने अंग्रेज़ों के शड़यंत्र में भाग लेना शुरू किया। मद्रास अब एक शक्तिशाली सेना आई। जिसकी अगुवाई वॉटसन और कर्नल क्लाईव ने की। क्लाईव ने सन् 1757 के पूर्वार्द्ध में कलकत्ता पर कब्जा कर लिया व में नवाब से सभी सुविधाएं मांगीं।
3.1 सन् 1757 का प्लासी का युद्ध और भारत के लिए निराशा की रात
अंग्रेज इन सबसे संतुष्ट नहीं थे। वे काफी कुछ और चाहते थे। सिराज़ुद्दौला की जगह उन्होंने एक कमज़ोर शख्स को गद्दी पर बैठाना चाहा। उन्होंने युवा नवाब के खिलाफ शडयंत्र में शामिल होकर, मीर जा़फर को गद्दी पर बिठाने हेतु, नवाब को एक असंभव र्श्तों का पुलिंदा दे दिया। युद्ध अब तय था। 23 जून 1757 को दोनों पक्ष मुर्शिदाबाद से 30 कि.मी. दूर प्लासी के युद्ध क्षेत्र में मिले। युद्ध नाम मात्र का ही था। अंग्रेजों के 29 व नवाब के 500 सैनिक हताहत हुए। नवाब की सेना के बड़े भाग जिनका नेतृत्व मीर जा़फर व राय दुर्लभ जैसे गद्दार कर रहे थे - ने युद्ध में भाग ही नहीं लिया। केवल एक छोटे समूह ने जिसका नेतृत्व मीर मदान एवं मोहन लाल कर रहे थे ने अच्छी लड़ाई लड़ी। अंततः नवाब को भागना पड़ा व मीर जा़फर के पुत्र मीरान ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया।
बंगाली कवि नबीन चन्द्र सेन के शब्दों में - ‘‘प्लासी का युद्ध अपने साथ एक अखंड़ निराशा की रात लेकर आया।’’ अंग्रेजों ने मीर जा़फर को बंगाल का नवाब नियुक्त किया व अपना ईनाम इकट्ठा करने लगे। कंपनी को बंगाल, बिहार व उड़ीसा में मुक्त व्यापार करने की इज़ाजत मिल गई। उसे कलकत्ता के पास 24 परगनाओं की जमींदारी भी मिल गई। मीर जाफर ने कंपनी को कलकत्ता पर आक्रमण का हर्जाना रू. 17,700,000 भी दिया। उसने कंपनी के उच्चाधिकारियों को बड़ी-बड़ी घूस भी दीं। क्लाईव को बीस लाख रूपये, व वॉटसन को दस लाख रूपये मिले। कंपनी व अधिकारियों ने धीरे-धीरे नवाब से रूपये 3 करोड़ ले लिए। साथ ही अंग्रेज़ व्यापारी व अधिकारी कभी निजी व्यापार पर कर नहीं चुकाएंगे यह भी तय हुआ।
प्लासी का यह युद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण रहा। इसने अंग्रेजों की बंगाल पर पकड़, और अंततः पूर्ण भारत पर पकड़ बना दी। इसने एक ही झटके में अंग्रेजों को भारत के साम्राज्य के प्रमुख दावेदार के रूप में पेश किया। बंगाल के धन से अंग्रेजों ने बड़ी सेना खड़ी कर ली जिससे बाकी भारत पर कब्जे का खर्चा निकाला जा सके। फ्रांसीसी भी अब पिछड़ चुके थे। इस विजय ने अंग्रेजी अफसरों को बंगाल के धन से अत्यधिक अमीर होने की राह दिखा दी। जैसा कि ब्रिटिश इतिहासकारों एड़वर्ड थॉम्पसन व जी.टी. गारेट ने कहा :
‘‘क्रांति करवाना एक अत्यंत लाभकारी खेल सिद्ध हो रहा था। अंग्रेजों के मन में एक एैसी धन-पिपासा जन्म ले चुकी थी जो स्पेन के कोर्टिज़ के समय ही देखी गई होगी। विशेषकर बंगाल को तब तक शांति नसीब नहीं होने वाली थी जबतक उसका पूरा गोरा खून न निकल जाता।’’
शीघ्र ही मीर जा़फर को अपनी भयानक भूल का अहसास हो गया। क्लाईव द्वारा लगातार उकसाने की वजह से घूस लेने वालों ने सरकारी खजाने को लूट लिया था। जैसा कि कर्नल मालेसन ने कहा - ‘‘कंपनी के अधिकारी मीर जा़फर को एक सोने का बोरा समझते थे व बारंबार लूट की नीयत से उसमें हाथ ड़ाक देते थे। ‘‘बंगाल को एक कामधेनु गाय समझ कर कंपनी ने यह सोचा कि इसकी दौलत तो असीमित है। अतः अब बंगाल ही बंबई व मद्रास प्रेज़ीडेंसी के खर्चे भी उठाएगा व कंपनी के निर्यात के खर्चों का वहन भी करेगा। अब कंपनी एक व्यापारी मात्र न होकर एक धन चूसने वाला यंत्र बन चुकी थी।
शीघ्र ही मीर जा़फर समझ गये कि कंपनी के अधिकारियों की मांगों को पूरा करना असंभव हैं कंपनी भी उनसे निराश रहने लगी। अंततः अक्टूबर 1760 में उन्होंने अपने दामाद मीर कासिम के लिए गद्दी छुड़वा दी। उन्होंने तुरंत अंग्रेजों को इनाम के तौर पर बुर्दवान, मिदनापुर और चितगाँव की जमींदारी दे दी। कुल 29 लाख रूपयों के तोहफे भी कंपनी को मिले।
3.2 मीर क़ासिम और अंग्रेज़ों से युद्ध
मीर क़ासिम अंग्रेजों के लिए कुछ और ही साबित हुए। वे एक काबिल एवं कुशल प्रशासक थे जो स्वयं को विदेशी नियंत्रण से मुक्त रखना चाहते थे। एक भरे हुए खज़ाने व एक कुशल सेना स्वतंत्रता हेतु आवश्यक थी; ऐसा वो समझ चुके थे। अतः उन्होंने लोक अव्यवस्था पर नियत्रंण पाया, भ्रष्टाचार को दूर किया, एवं यूरोपीय शैली में एक अनुशासित सेना बनाना प्रारंभ की। यह अंग्रेज़ों को नहीं सुहाया। उन्हें इस बात से भी कष्ट था कि 1717 के फरमान (जिससे कंपनी के अधिकारी कर मुक्त व्यापार कर पाते थे) पर लगाये जा रहे बंधनों से भी घोर आपत्ति थी। कंपनी के अधिकारी दरअसल कर मुक्त व्यापार कर के भारतीय व्यापारियों के माल की प्रतिस्पर्धातमक्ता को कम कर देते थे। दस्तक दस्तावेजों के अवैध इस्तेमाल से भारतीय व्यापारी (जो अंग्रेजों के मित्र थे) आंतरिक करों से बच जाते थे। अतः इन सब की वजह से नवाब एक महत्वपूर्ण आय स्त्रोत से वंचित रह जाते थे। इसके अतिरिक्त, कंपनी के अधिकारी भारतीय जमींदारों से उपहार मांगते, कामगारों व किसानों से माल सस्ता बिकवाते व न मानने वालों को कोड़े लगवाते। इन वर्षों की स्थितियों को, एक आधुनिक ब्रिटिश इतिहासकार पर्सीवल स्पीयर ने ‘‘खुली एवं बेहया लूट का दौर’’ कहा है। बंगाल की समृद्धि नष्ट हो रही थी।
मीर कासिम समझ चुके थे कि यदि ये सब ना रोका गया तो न तो बंगाल समृद्ध हो पायेगा न ही वे ब्रिटिश बंधन तोड़ पायेंगे। अतः उन्होंने एकाएक ही आंतरिक व्यापार पर लगे सभी कर समाप्त कर दिये, व अपनी जनता को वो सुविधा दे दी जो ब्रिटिशों ने ज़ोर आजमाईश से हथियाई थी। किंतु विदेशी कंपनी को यह स्वीकार न था। दरअसल अब स्थिति स्पष्ट हो चुकी थी। बंगाल का एक ही मालिक हो सकता था, दो नहीं।
1763 में हुए युद्धों में मीर क़ासिम की पराजय हो गई एवं वे अवध चले गये जहां उन्होंने अवध के नवाब शुजा-उद्-दौल्लाह एवं भगोड़े मुगल राजा शाह आलम द्वितीय के साथ गठजोड़ बनाया। इस गठबंधन ने कंपनी की सेना से 22 अक्टूबर 1764 में बक्सर में युद्ध किया और हार गये। यह निर्णायक युद्ध था जिसने अंग्रेजों की ताकत को सप्रमाण स्थापित कर दिया एवं बंगाल, बिहार, उडीसा व अवध को उनके अधीन कर दिया।
क्लाईव, जो 1765 में गवर्नर बन बंगाल लौटा था, धीरे-धीरे सत्ता को नवाब के हाथों से कंपनी तक पहुंचाने लगा। 1763 में मीर जाफर को पुनः नवाब बना कर बड़ा पैसा ऐंठा जा चुका था। मीर ज़ाफर की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र निज़ाम-उद्-दौल्लाह को गद्दी दिला दी गई, व 20 फरवरी 1765 में एक नई संधि बनाई गई। इस संधि के तहत् नवाब की सेना भंग कर दी जाएगी, व नवाब सीधे शासन न कर एक उप-सूबेदार के ज़रिये (जो कंपनी द्वारा नामित किया जाता) प्रशासन चलाएंगे। अतः बंगाल की निज़ामत पर कंपनी का पूर्ण अधिकार हो गया। बंगाल परिषद के सदस्यों ने नये नवाब से भी रूपये 15 लाख ले लिये।
मुगल बादशाह (सिर्फ नाम के ही) शाह आलम द्वितीय से कंपनी ने बिहार, बंगाल व उड़ीसा का दीवानी हक प्राप्त कर लिया (अर्थात् कर बटोरने का हक़)। अतः बंगाल पर उसका नियंत्रण अब अधिकारिक दिखने लगा। बदले में कंपनी ने उन्हें रूपये 26 लाख की सब्सीड़ी दे दी, एवं कौरा व अलाहबाद की जागीर भी। अलाहाबाद के किले में अंग्रेजों के एक बंदी की तरह, बादशाह छः वर्षों तक रहे।
अवध नवाब शुजा-उद्-दौल्लाह से युद्ध क्षतिपूर्ति के रूप में रूपये 50 लाख लिए गये। एक संधि भी की गई जिसके तहत् बाहरी हमलों से बचने हेतु अंग्रेजों ने पैसे लेकर मदद करने का वादा किया। अतः नवाब अब कंपनी पर निर्भर हो गये।
3.3 बंगाल प्रशासन की दोहरी व्यवस्था
1765 से ईस्ट इंड़िया कंपनी, बंगाल की मालिक बन बैठी। उसकी सेना ही रक्षा करती थी, व राजनैतिक शक्ति भी उसी के हाथों में थी। नवाब अपनी सुरक्षा के लिए केवल अंग्रेजों पर निर्भर थे। दिवान होने के नाते कंपनी कर एकत्रित करती, व उप-सूबेदार वह पुलिस एवं न्यायिक शक्तियों को भी नियंत्रित करती। इस व्यवस्िा को ही ‘‘दोहरी व्यवस्था’’ कहा जाता है। इसके द्वारा ब्रिटिश बिना जिम्मेदारी के सतता सुख भोगते थे। नवाब व अधिकारी जिम्मेदार थे किन्तु ताकतवर नहीं। बंगाल के लोगों के लिए यह व्यवस्था विनाशकारी सिद्ध हुई क्योंकि न तो कंपनी और न ही नवाब को उनकी चिंता थी।
अब कंपनी के बंगाल में अत्याचार अनाम-शनाप बढ़ गए। स्वयं क्लाईव के शब्दों में -
‘‘मैं सिर्फ इतना कहूंगा कि इतनी भयंकर अव्यवस्था, घूसखोरी, भ्रष्टाचार व उगाही बंगाल के सिवा कहीं नहीं रही होगी, ना ही इतनी जल्दी इतने सारे अमीर पैदा हुए होंगे। बंगाल, बिहार व उड़ीसा के तीनों प्रांत, जो तीस लाख पाउंड स्टर्लिंग का राजस्व पैदा करते थे, अब पूरी तरह कंपनी प्रबंधन के तले आ चुके थे। नवाब से लेकर सबसे छोटे ज़मींदार तक सबसे पैसा वसूला जा रहा था।’’
अब कंपनी ने ब्रिटेन से पैसा भेजना बंद कर दिया एवं बंगाल के राजस्व से सामान खरीद कर निर्यात करना शुरू किया। इसे कंपनी का निवेश व मुनाफे का हिस्सा मान गया। ब्रिटेन की लालची सरकार ने भी प्रतिवर्ष चार लाख पाउँड की मांग रख दी।
1766, 1767 व 1768 में 57 लाख पाउँड़ बंगाल से निकाले गये। बंगाल लुट गया। 1770 में भीषण अकाल पड़ा जो मानव इतिहास के सबसे प्रलयकारी अकालों में एक रहा। बंगाल की एक तिहाई जनता काल का ग्रास बन गई। हालांकि वर्षा की कमी को अकाल का कारण माना जा सकता है, किंतु कंपनी की शोषणकारी नीतियों ने इसे कई मुना बढ़ा दिया।
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