यूपीएससी तैयारी - विश्व एवं भारतीय भूगोल - व्याख्यान - 8

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समुद्र विज्ञान भाग - 1

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1.0 प्रस्तावना

पृथ्वी का जलमंड़ल पृथ्वी के क्षेत्रफल के लगभग 367 मिलियन वर्ग किलोमीटर, या लगभग 70 प्रतिशत, को समाविष्ट करता है। 

लगभग 98 प्रतिशत जल महासागरों में है, और 2 प्रतिशत नदियों, तालाबों, भू-जल और हिमनदों में है। पृथ्वी का लगभग 70.8 प्रतिशत भाग जल से व्याप्त है और 29.2 प्रतिशत भूक्षेत्र है। अतः इसी कारण से पृथ्वी को ‘‘जलीय ग्रह‘‘ कहा गया है। ऐसा अनुमान है कि यदि पृथ्वी की सतह की सभी अनियमितताओं को एक सही गोलाकार बनाने के लिए सपाट कर दिया जाए, तो वैश्विक महासागर पृथ्वी को 2.25 किलोमीटर तक की गहराई तक डुबो देगा। यह इसका विशाल जलखंड़ ही है जो पृथ्वी को विशिष्ट बनाता है। पानी ने पृथ्वी पर जीवन को विकसित होने और फलने-फूलने की अनुमति प्रदान की, और इसलिए पृथ्वी का प्रत्येक निवासी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसके द्वारा नियंत्रित है। 

महासागरीय लहरों के नीचे पृथ्वी का सबसे बड़ा और अधिकांशतः गैर-अन्वेषित भूखंड़ स्थित है। यहां प्रवाल भित्तियां हैं, विशाल खुले मैदान हैं, गहरी घाटियां हैं, और पृथ्वी की सबसे लंबी पर्वत श्रृंखला है - मध्य एटलांटिक कटक - जो लगभग ध्रुव से ध्रुव तक विस्तारित है। 

2.0 महासागर और तट 

महासागरः पानी पृथ्वी की सतह के लगभग 70.8 प्रतिशत भाग को आच्छादित करता है। पृथ्वी पर केवल एक ही विश्व महासागर है, परंतु महाद्वीप इस महासागर को पांच विशिष्ट भागों में विभाजित करते हैं, (1) प्रशांत महासागर, (2) एटलांटिक महासागर, (3) हिंद महासागर, (4) आर्कटिक महासागर, और (5) दक्षिणी महासागर (अंटार्कटिक महासागर)। महासागरों के बडे़ भाग, महासागरीय घाटियां अपेक्षाकृत युवा हैं, जिनका विकास पिछले 80 मिलियन वर्षों के दौरान हुआ है। सबसे ताजा प्लेट टकराव में से एक, यूरेशियाई और अफ्रीकी प्लेटों के बीच के टकराव ने वर्तमान महासागरों और महाद्वीपों की व्यवस्था की निर्मिति की है। 

तटः पृथ्वी की तटीय रेखा की कुल लंबाई 5,00,000 किलोमीटर से भी अधिक है, जो पृथ्वी के चारों ओर बारह बार की यात्रा के बराबर होता है। विश्व जनसंख्या का एक बड़ा प्रतिशत तटीय क्षेत्रों में निवास करता है। पृथ्वी पर दस सबसे घनी आबादी वाले शहरों में से आठ नदी-मुख भूमि, ज्वारनदमुख या तटों पर स्थित हैं।

3.0 महासागरीय उच्चावच या महासागरीय स्थलमंडल की प्रमुख विशेषतायें 

चट्टान प्रकारों, संरचना, भूखंड़ों, आयु और उत्पत्ति की दृष्टि से महासागरीय पर्पटी महाद्वीपीय पर्पटी से आश्चर्यजनक रूप से भिन्न है। महासागरीय नितल की प्रमुख विशेषतायें निम्नानुसार हैंः (1) महाद्वीपीय मग्नतट (उपांत), (2) महाद्वीपीय ढ़ाल, (3) महाद्वीपीय उठाव, (4) वितलीय नितल (गहरी महासागरीय घाटियां), (5) महासागरीय खाइयां, (6) महासागरीय कटक, और (7) समुद्र उभाड़।

3.1 महाद्वीपीय उपांत (Continental margin) 

महाद्वीपीय उपांत एक प्रमुख भूखंड़ के बाहरी किनारे निर्माण करने वाला जलमग्न उच्चावच और ढ़ाल है। उपांत के विकास में महासागरीय और महाद्वीपीय पर्पटी बनावट के बीच का अंतर महत्वपूर्ण है। दोनों पर्पटी प्रकारों के बीच का संक्रमण महाद्वीपीय ढ़ाल क्षेत्र के नीचे स्थित होता है और महाद्वीपीय पर्पटी और महासागरीय पर्पटी के ऊपर का मग्नतट महाद्वीपीय पर्पटी उठाव के नीचे स्थित होता है। महाद्वीपीय से महासागरीय पर्पटी खण्ड़ों के घनत्वों और समस्थिति संतुलन में अंतर नाटकीय रूप से महाद्वीपीय ढ़ालों की उपस्थिति से व्यक्त होता है, जो मग्नतट विखंड़न से नीचे गहरी महासागरीय गहराई की ओर की विशाल उतरान होती है। महाद्वीपीय मग्नतट चौड़ाई में 1500 किलोमीटर तक विस्तारित हो सकती है (आर्कटिक महासागर का साइबेरियाई मग्नतट), परंतु आमतौर पर यह 80 किलोमीटर तक चौड़ा होता है। गहराई उथली होती है, और यह केवल 150 मीटर तक ही हो सकती है।  

महाद्वीपीय मग्नतट महाद्वीप का डूबा हुआ भाग होता है, जो मग्नतट विखंड़न और तटरेखा के बीच स्थित होता है, जो झुकाव में परिवर्तन होता है, जो महाद्वीपीय मग्नतट और ढाल के बीच की सीमा को चिन्हित करता है। मग्नतट की औसत ढ़ाल झुकाव के केवल सात मिनट होती है (एक अंश से कम), और तटीय मैदान के पास की किनारपट्टी मग्नतट मैदान की वह डूबी हुई निरंतरता होती है जो भूगर्भिक समय के दौरान आप्लावन और उदगमन के बीच परिवर्तित होती रही है।

3.2 महाद्वीपीय ढ़ाल (Continental slope)  

जो ढाल महाद्वीपीय मग्नतट से महासागरीय गर्त तक विस्तारित होती है उसे महाद्वीपीय ढ़ाल कहा जाता है। कुछ क्षेत्रों में, जैसे पूर्वी उत्तरी अमेरिका के निकट, महाद्वीपीय ढ़ाल अधिक धीरे से ढ़लते महाद्वीपीय उठाव में वर्गीकृत होता है। वर्तमान में महाद्वीपीय मग्नतट और महाद्वीपीय ढ़ाल पृथ्वी की ठोस सतह के 11.4 प्रतिशत भाग के बराबर हैं, जिनमें से 6.4 प्रतिशत भाग महाद्वीपीय ढ़ाल का क्षेत्र है। 

3.3 महाद्वीपीय उठाव (Continental rise) 

यह महाद्वीपीय ढ़ाल के तल में धीरे से ढ़लता हुआ समुद्रतल होता है, जो नितल मैदान की ओर जाता है। उनमें महासागरों का लगभग 3.8 प्रतिशत क्षेत्र शामिल होता है। 

3.4 नितल तल (Abyssal floor) 

पृथ्वी की सबसे विस्तृत भू-आकृति, नितल तल बहुत ही चिकना, सपाट महासागरीय तल होता है, जो 3000 से 5000 मीटर की गहराई पर पाया जाता है। नितल मैदान प्रशांत महासागर के तल के 80 से 85 प्रतिशत भाग की निर्मिति करते हैं।

3.5 महासागरीय खाइयां (Oceanic trench) 

समुद्रतल में संकरे गहरे अवसाद, जो महाद्वीपीय स्थलमण्ड़लीय उपांत के नीचे महासागरीय स्थलमण्डलीय प्रविष्ठन का प्रतिनिधित्व करते हैं; आमतौर पर इनका संबंध एक द्वीप वृत्त-चाप से होता है। महासागर खाइयां पृथ्वी की सतह के सबसे निचले क्षेत्र होते हैं। प्रशांत महासागर में स्थित मरिआना खाई विश्व के महासागरों का सबसे गहरा भाग है, जो समुद्र सतह से 11,022 मीटर गहरा है, और अन्य अनेक खाइयां हैं जो 8,000 मीटर से अधिक गहरी हैं। महासागरों की कुछ महत्वपूर्ण खाइयां निम्नानुसार हैंः

उत्तरी प्रशांत महासागरः मरिआना खाई (11,022 मीटर), रामापो गर्त या जापान खाई (10,554 मीटर), एल्युशियन खाई (10,498 मीटर), फिलीपींस खाई (10,475 मीटर)।

दक्षिण प्रशांत महासागरः कर्मादेक-टोंगा खाई (विश्व की खड़ी खाई), न्यू हेब्रिड्स खाई, पेरू-चिली या अटाकामा खाई (7,635 मीटर)।

उत्तरी एटलांटिकः पोर्टो रीको खाई (8,358 मीटर), रोमांचे खाई (7,631 मीटर)।

हिंद महासागरः सुंड़ा खाई (सुमात्रा) और जावा खाई (7,454 मीटर)।

3.6 महासागरीय कटक (Oceanic ridge)

महासागरीय कटक संभवतः महासागर तल की सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण विशेषता है। वे समुद्र सतह के लगभग 22.1 प्रतिशत भाग को व्याप्त करते हैं। उनकी कुल लंबाई लगभग 66 हजार किलोमीटर है। महासागरीय कटक आर्कटिक बेसिन से निरंतर विस्तारित होता हुआ अटलांटिक महासागर के मध्य से होता हुआ, हिंद महासागर में गिरता हुआ दक्षिण प्रशांत के पार जाता है। महासागरीय कटक आवश्यक रूप से एक चौड़ा, भंगित उभार होता है, और आमतौर पर यह 1,400 किलोमीटर चौड़ा होता है। इसके उच्च शिखर समुद्रतल से 3000 मीटर तक उभरे होते हैं। मध्य अटलांटिस कटक, जिसकी लंबाई लगभग 14450 किलोमीटर है, उत्तर में आइसलैंड़ से दक्षिण में बौवेट द्वीप तक विस्तृत है। महासागरीय कटक समुद्र के नीचे से विस्फोटित होने वाले लावा से बनते हैं, और ठन्डे होकर ये ठोस चट्टानों में परिवर्तित हो जाते हैं। यह प्रक्रिया लावा पर ठन्डे लावा से ज्वालामुखी की निर्मिति को प्रतिबिंबित करती है। समुद्रतल की चट्टानों की आयु मध्य महासागर कटकों के बाहर की ओर सामानांतर पट्टियों में बढ़ती जाती है। 

3.7 द्वीप वृत्त-चाप (Island arcs)  

द्वीप वृत्त-चाप ज्वालामुखी द्वीपों और समुद्र उभारों की मुड़ी हुई श्रृंखलाएँ होती हैं, जो हमेशा खाइयों के अवतल किनारों के सामानांतर पाई जाती हैं। उनकी निर्मिति प्रविष्ठन की विवर्तनिकी गतिविधि के कारण होती है। कुछ महत्वपूर्ण द्वीप वृत्त-चाप हैं एल्युशियन द्वीप, छोटे एंटिलेस, और मरिआना द्वीप। 

3.8 समुद्र उभार (Seamounts) 

यह समुद्रतल से निकला हुआ एक वृत्तीय या दीर्घ वृत्ताकार बहिर्गत भाग होता है, जिसकी ऊंचाई एक किलोमीटर से अधिक होती है, और जिसकी ढ़ाल अपेक्षाकृत अधिक खडी होती है, 20 से 25 अंश। 

गुयोत एक सपाट चोटी वाला डूबा हुआ निष्क्रिय ज्वालामुखी होता है। वे इतने पर्याप्त ऊंचे होते हैं कि वे समुद्र सतह तक पहुंच सकते हैं या उसे भेद सकते हैं। आमतौर पर वे पश्चिम मध्य प्रशांत के क्षेत्र तक ही सीमित हैं। 

3.9 काले धुएंदार (Black smokers)  

काले धुएंदार समुद्रतल के छिद्र होते हैं, जो भूपर्पटी की गहराई से गर्म सल्फर समृद्ध पानी उगलते हैं। विशाल गहराई के बावजूद काले धुएंदार के चारों ओर के रसायन समृद्ध पर्यावरण में अनेक प्रकार के जीवों ने स्वयं को ढ़ाल लिया है।

4.0 प्रमुख महासागरीय उच्चावच

4.1 प्रशांत महासागर

प्रशांत महासागर सभी जलक्षेत्रों में से सबसे बड़ा और सबसे गहरा जलक्षेत्र है। इसके सहयोगी समुद्रों के साथ यह पृथ्वी के लगभग एक तिहाई भाग को व्याप्त करता है, और आकार में पृथ्वी के कुल भूक्षेत्र से अधिक है। इसकी औसत गहराई आमतौर पर लगभग 7,300 मीटर है। इसका अकार लगभग त्रिकोण है, और उत्तर में इसका शिखर बेरिंग जलड़मरूमध्य में है। इसके किनारों पर अनेक सीमांत समुद्र, खंड़ और खाड़ियां स्थित हैं। इस विशाल महासागर में लगभग 20,000 द्वीप स्थित हैं; इनमें से जो द्वीप सागर मध्य में स्थित हैं वे प्रवाल द्वीप है, और बाकी द्वीप माहद्वीपीय द्वीप हैं। 

उत्तर और मध्य प्रशांतः इस भाग की विशेषता है अधिकतम गहराई और बड़ी संख्या में गर्त, खाइयां और द्वीपीय क्षेत्र। कुछ प्रसिद्ध खाइयां हैं अलेयूशियन खाई एवं कुरील, जो 7,000 किलोमीटर से 10,000 किलोमीटर की हैं। इसके मध्य भाग में बड़ी संख्या में समुद्री उभार, गुयोट्स और सामानांतर और धनुषाकार द्वीप श्रृंखलाएँ भी हैं। 

दक्षिण पश्चिम प्रशांतः इस भाग की औसत गहराई लगभग 4,000 मीटर है, और इस भाग की विशेषता विविध प्रकार के द्वीपों, सीमांत समुद्रों, महाद्वीपीय मग्नतटों और जलमग्न खाइयों से चिन्हित है। मारियाना खाई इसी भाग में स्थित है, और मिनदनाओ खाई भी बहुत गहरी है, जिसकी गहराई 10,000 मीटर से भी अधिक है। 

दक्षिण पूर्व प्रशांतः यह भाग सीमांत समुद्रों की अनुपस्थिति के कारण विशिष्ट है, और इसमें जलमग्न कटक और पठार हैं। टोंगा और अटाकामा इसकी प्रमुख खाइयां हैं। 

4.2 एटलांटिक महासागर 

एटलांटिक महासागर आकार में प्रशांत से लगभग आधा है, और इसका आकार अंग्रेज़ी वर्ण ‘‘एस‘‘ के समान है। इसमें एक प्रमुख महाद्वीपीय मगनतट है, जिसकी चौड़ाई भिन्न-भिन्न है - इसकी अधिकतम चौड़ाई उत्तर-पूर्वी अमेरिका और उत्तर-पश्चिम यूरोप के निकट दिखाई देती है। एटलांटिक महासागर में बड़ी संख्या में सीमांत समुद्र हैं जो मग्नतटों पर नजर आते हैं, जैसे हड़सन खाड़ी, बाल्टिक समुद्र और उत्तरी सागर। 

एटलांटिक महासागर की सबसे उल्लेखनीय विशेषता है मध्य एटलांटिक कटक की उपस्थिति, जो उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ है, और स्वयं महासागर के ‘‘एस‘‘ आकार के सामानांतर दौड़ता है, और जो एटलांटिक को दोनों ओर दो गहरे बेसिन में विभाजित करता है। 

कटक लगभग 14,000 किलोमीटर लंबा, और लगभग 4,000 मीटर ऊंचा है। इस कटक के अनेक शिखर समुद्र सतह से बाहर उभरे हुए हैं, जो मध्य एटलांटिक के द्वीपों की निर्मिति करते हैं। इसके उदाहरणों में अजोरेस के पीसो द्वीप, और केप वेर्डे़ द्वीप शामिल हैं। इसमें बरमूड़ा जैसे प्रवाल द्वीप और एसेंशन, ट्रिस्टन दा कुन्हा, सेंट हेलेना और गॉड जैसे ज्वालामुखी द्वीप भी हैं। 

मोटे तौर पर एटलांटिक महासागर में द्रोणिकाओं और खाइयों अभाव है, जो प्रशांत महासागर में विशेष रूप से दिखाई देती हैं। एटलांटिक महासागर में केवल उत्तरी केमन और पोर्टो रीको ही दो द्रोणिकाएँ हैं और रोमांचे और दक्षिण सैंडविच दो खाइयां है।  

4.3 हिंद महासागर

यह महासागर एटलांटिक महासागर की तुलना में छोटा और कम गहरा है। चूंकि उत्तरी भाग में यह एशियाई स्थलखण्ड़ से पूरी तरह से अवरुद्ध है, अतः इसे केवल अर्ध महासागर ही माना जा सकता है। इसमें कुछ सीमांत समुद्र भी हैं। रैखिक गर्तों का लगभग अभाव है। इसमें अपवाद केवल सुंड़ा खाई का है, जो जावा द्वीप के दक्षिण में स्थित है। 

इस महासागर में अनेक चौडे़ जलमग्न कटक हैं, जिनमें लक्षद्वीप-चागोस कटक, और सेंट पॉल कटक शामिल है, जो एमस्टर्डम सेंट पॉल पठार में चौड़ा हो जाता है, सोकोत्रा-चागोस कटक, सेचलेस कटक, दक्षिण मेड़ागास्कर कटक, प्रिंस एडवर्ड क्रोजेट कटक, अंडमान-निकोबार कटक और कार्ल्सबर्ग कटक भी इस महासागर में शामिल हैं। ये कटक महासागर तल को अनेक बेसिनों में विभक्त करते हैं। इनमें से प्रमुख हैं मध्य बेसिन, अरबी बेसिन, दक्षिण भारतीय बेसिन, मस्कारेने बेसिन, पश्चिम ऑस्ट्रेलियाई बेसिन और दक्षिण ऑस्ट्रेलियाई बेसिन। 

हिंद महासागर के अधिकांश द्वीप महाद्वीपीय द्वीप हैं, और ये उत्तर और पश्चिम में स्थित हैं। इनमें अंडमान एवं निकोबार, श्रीलंका, मेडागास्कर जंजीबार शामिल हैं। लक्षद्वीप और मालदीव्स प्रवाल द्वीप हैं और मॉरिशस और रीयूनियन द्वीपों की उत्पत्ति ज्वालामुखीय है। हिंद महासागर का पूर्वी भाग लगभग द्वीपों से मुक्त है।

 

5.0 पृथ्वी सतह का तुंगमितिक वक्र

यह पृथ्वी सतह के ऊपर और समुद्र सतह से ऊपर या नीचे दी गई ऊँचाई या गहराई के क्षेत्र का आलेख होता है। सबसे ऊंचा पर्वत शिखर (एवरेस्ट) 8,848 मीटर है, जबकि सबसे अधिक महासागरीय गहराई है 11,022 मीटर। उजागर भूमि की औसत ऊंचाई 840 मीटर है और महासागर की औसत गहराई - 3,790 मीटर है। 

महासागरों का तापमानः महासागर पृथ्वी पर पहुंचने वाले विकिरण में से 80 प्रतिशत विकिरण को अवशोषित कर लेते हैं। साथ ही पानी में गर्मी को अवशोषित करने की आश्चर्यजनक क्षमता है। महासागरों के सबसे ऊपरी 10 प्रतिशत भाग में ‘‘समस्त वायुमंडल से अधिक गर्मी उपस्थित है।‘‘

महासागरों का तापमान एक समान नहीं होता। यह अक्षांश से अक्षांश और सतह से तल तक बदलता रहता है। महासागरीय तापमान के मुख्य निर्धारक निम्नानुसार हैंः

अक्षांशः महासागरों का सतही तापमान भूमध्यरेखा से ध्रुवों की ओर घटता है, क्योंकि भूमध्यरेखा पर सूर्य की किरणें ऊर्ध्वाधर होती हैं जबकि ध्रुवों पर ये तिरछी होती हैं। 

प्रचलित हवाएँः वायु की दिशा (व्यापारी और विरोधी व्यापार हवाएँ) महासागरों के तापमान के सतही वितरण को बडे़ पैमाने पर प्रभावित करती है। 

भूमि और पानी का असमान वितरणः उत्तरी गोलार्द्ध में दक्षिणी गोलार्द्ध की तुलना में अधिक भूक्षेत्र है। इसके परिणामस्वरूप, उत्तरी गोलार्द्ध के महासागर दक्षिणी गोलार्ध के महासागरों की तुलना में अधिक गर्म हैं। 

वाष्पीकरण की दरः महासागरों की सतह से प्रति वर्ष वाष्पीकृत होने वाले पानी का आयतन 350,000 घन किलोमीटर के बराबर है। हालांकि विभिन्न अक्षांशों पर वाष्पीकरण की दर समान नहीं है। 

पानी का घनत्वः पानी का घनत्व इसकी लवणता और तापमान का फंक्शन है। पानी का घनत्व अक्षांश से अक्षांश बदलता है। उच्च लवणता वाले क्षेत्रों में तापमान सापेक्ष रूप से उच्च होता है, वहीं न्यून लवणता वाले क्षेत्रों में तापमान न्यून।

महासागरीय धाराएंः महासागरों के सतही तापमान ठंडी धाराओं द्वारा भी नियंत्रित होते हैं। एक गर्म जल धारा की उपस्थिति तापमान और वाष्पीकरण की दर में वृद्धि कर देती है। परिणामस्वरूप ऐसे क्षेत्र में वर्षा अधिक दर्ज की जाती है, जबकि ठंडी जल धारा नमी युक्त हवाओं के तापमान में कमी करती है। तट और ठंडी जलधाराओं के प्रवाह अधिक कोहरा किंतु कम वर्षा दर्ज करते है। 

स्थानीय कारकः जलमग्न कटक, स्थानीय मौसमीय स्थितियां जैसे चक्रवात, तूफान, हवाएँ, कोहरा, बादल, वाष्पीकरण की दर, चूक दर, संक्षेपण और वर्षा भी महासागरों के तापमान वितरण को प्रभावित करते हैं। 

तापमान का क्षैतिज वितरणः सामान्य रूप से निचले अक्षांशों में सतही जल का तापमान लगभग 26 अंश सेल्सियस होता है, जो ध्रुवो की ओर घटता है। उत्तरी गोलार्द्ध के महासागर औसत 19.4 अंश तापमान दर्ज करते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में औसत तापमान 20 अंश अक्षांश पर 22 अंश सेल्सियस, 40 अंश अक्षांश पर 14 अंश सेल्सियस और ध्रुवो पर 0 अंश सेल्सियस दर्ज होता है। दक्षिणी गोलार्द्ग में औसत तापमान केवल 16.1 अंश सेल्सियस होता है। 

उत्तरी गोलार्द्ध में महासागरीय जल का अधिकतम और न्यूनतम तापमान क्रमशः अगस्त और फरवरी के महीनों में होता है। तापमान की औसत वार्षिक सीमा लगभग 12 अंश सेल्सियस है। तापमानों की अधिकतम औसत सीमा उत्तरी एटलांटिक महासागर में दर्ज होती है। साथ ही अंतर्देशीय समुद्रों की वार्षिक तापमान सीमा खुले महासागरों की तुलना में अधिक उच्च होती है। 

तापमान का ऊर्ध्वाधर वितरणः महासागर की गहराई के साथ ऊर्जा और सूर्य प्रकाश दोनों घटते हैं। समुद्र सतह पर टकराने वाली प्रकाश ऊर्जा का लगभग 45 प्रतिशत भाग ही लगभग एक मीटर गहराई तक पहुँच पाता है, और केवल १६ प्रतिशत 10 मीटर की गहराई तक पहुँच पाता है। तापमान के आधार पर समुद्र गहराईयों को निम्न तीन क्षेत्रों में वर्गीकृत किया जा सकता हैः

सतही क्षेत्र या मिश्रित क्षेत्र (रोशनी का या यूरोफिक क्षेत्र): यह समुद्र की ऊपरी परत होती है। इस परत में तापमान और लवणता सापेक्ष रूप से स्थिर होती है। इसमें कुल महासागरीय जल आयतन का लगभग 2 प्रतिशत होता है, और इसकी गहराई केवल लगभग 100 मीटर होती है। 

थर्मोक्लाइन या (पीक्नॉक्लाइन): यह क्षेत्र 100 मीटर और 1000 मीटर के बीच स्थित होता है। इसमें महासागरीय जल आयतन का लगभग 18 प्रतिशत भाग होता है। इस क्षेत्र में तापमान में सीघी गिरावट होती है। बढ़ती गहराई के साथ पानी का घनत्व बढ़ता है। 

गर्त क्षेत्रः यह क्षेत्र मध्य अक्षांशों पर 1000 मीटर से अधिक की गहराई पर स्थित होता है। गर्त क्षेत्र में पानी के कुल आयतन का लगभग 80 प्रतिशत भाग होता है। तल के निकट का तापमान हमेशा हिमांक से अधिक होता है - लगभग एक या दो अंश सेल्सियस।

6.0 समुद्री धाराएं 

सतही समुद्री धाराएं प्रचलित हवाओं के कारण और पृथ्वी की घूर्णन गति द्वारा प्रवाहित होती हैं, जो धाराओं को वृत्तीय भंवर या चक्र के रूप में प्रवाहित करती हैं। गहरी समुद्री धाराएं, जो समुद्र सतह के 100 मीटर से अधिक नीचे प्रवाहित होती हैं, समुद्र के तापमान के अंतर और लवणता द्वारा प्रवाहित होती हैं, जिनका गहरे समुद्री जल के घनत्व और उसके आवागमन पर प्रभाव होता है। समुद्री धाराओं के मुख्य कारण निम्नानुसार हैंः

  1. भूमध्यरेखीय और ध्रुवीय महासागरों का भिन्न उष्मन
  2. व्यापारी और व्यापार विरोधी हवाएँ 
  3. कोरिओलिस प्रभाव 
  4. महासागरों के तापमान और लवणता में अंतर 
  5. तटीय रेखा और समुद्र तल का विन्यास  

सामान्य तौर पर गर्म समुद्री धाराएं भूमध्यरेखीय क्षेत्रों से गर्म पानी ध्रुवो की ओर ले जाती हैं और ठंडी समुद्री धाराएं ध्रुवों से ठंड़ा पानी भूमह्दयरेखीय क्षेत्रों की ओेर ले जाती हैं।  

समुद्री-लहरेंः यह दो अवसादों के बीच पानी का कटक होती हैं। जैसे ही एक लहर आती है, तो यह एक वृत्त चाप की आकृति में तरंगित हो जाती हैं और टूट जाती हैं। सतही लहरों की ऊर्जा तट के कटाव के लिए जिम्मेदार होती है। लहरें ऐसी धाराएं भी निर्मित करती हैं जो तट के आसपास बहती हैं और जो लंबे तटीय विस्थापन के पीछे का मुख्य कारण होती हैं। लहर की ऊँचाई आमतौर पर हवा की गति के वर्ग के अनुपातिक होती है।  

ज्वारः समुद्र स्तर के आवधिक अल्पकालिक उतार-चढ़ाव को ज्वार कहते हैं। यह पृथ्वी, चंद्रमा और सूर्य के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव के कारण निर्मित होता है। पृथ्वी से चंद्रमा की निकटता के कारण ज्वारों पर चंद्रमा सबसे अधिक प्रभाव ड़ालता है। 

वसंत ज्वारः पूर्णिमा और नव चंद्रोदय को उठने वाले ज्वार सर्वोच्च होते हैं और इन्हें वसंत ज्वार कहा जाता है, जबकि महीने की पहली और तीसरी चौथाई में ज्वार सामान्य से नीचे होते हैं, जिन्हें मंद ज्वार कहते हैं। विश्व सर्वोच्च ज्वार फंडे़ की खाड़ी में उठते हैं। भारत में सर्वोच्च ज्वार गुजरात के ओखा में दर्ज किये गए हैं। 

घूमती हुई पृथ्वी को प्रतिदिन उसी देशांतर रेखा के चंद्रमा के ठीक ऊर्ध्वाधर स्थिति से नीचे आने में 24 घंटे 50 मिनट लगते हैं। अतः ज्वार 12 घंटे 25 मिनट के नियमित अंतराल से उठते हैं। आमतौर पर ज्वार दिन में दो बार उठते हैं।  

ज्वारों के गुणः ज्वार आमतौर पर समुद्र की ओर जाने वाले जहाजों को नदी में नौवहनीय बनाने में सहायता करते हैं। उदाहरणार्थ लंदन और कोलकाता महत्वपूर्ण बंदरगाह क्रमशः थेम्स और हुगली नदियों के मुहानों की ज्वारीय प्रकृति के कारण ही बने हैं। ज्वार नदियों द्वारा लाई गई गाद को भी धोकर ले जाते हैं, और इस प्रकार नदीमुख भूमि की निर्मिति को रोकते हैं और तटीय क्षेत्रों को साफ करने में भी सहायक होते हैं।  

ज्वारीय बल का उपयोग बिजली के उत्पादन के स्रोत के रूप में भी किया जा सकता है। ज्वारीय ऊर्जा की शुरुआत फ्रांस द्वारा की गई थी, जिसके बाद जापान ने उसका अनुसरण किया। भारत में खंभात और कच्छ की खाड़ी में ज्वारीय ऊर्जा का उत्पादन किया जाता है। 

वैश्विक हवाएँ सतही जल को गतिशील होने औए इसे हवा के प्रवाह की दिशा में एकत्रित होने में सहायक होती हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में कोरिओलिस प्रभाव हवाओं को दायीं ओर विक्षेपित करता है, जबकि दक्षिण गोलार्द्ध में बायीं ओर विक्षेपित करता है। इसी प्रभाव के कारण मुख्य सतही महासागरीय धाराएं भी उत्तरी गोलार्द्ध में दायीं दिशा में (एक दक्षिणावर्त सर्पिल में) और दक्षिणी गोलार्द्ध में बायीं दिशा में (वामावर्त सर्पिल में) विक्षेपित होती हैं। महासागर धाराओं की इन प्रमुख सर्पिल गतिविधियों को ‘‘चक्रगति‘‘ कहा जाता है, और ये भूमध्यरेखा के उत्तर और दक्षिण में दिखाई देती हैं। हालांकि वे भूमध्यरेखा पर नहीं होतीं क्योंकि वहां कोरिओलिस प्रभाव अनुपस्थित होता है।  

महासागर-व्यापी पांच प्रमुख चक्रगति हैं उत्तर एटलांटिक, दक्षिण एटलांटिक, उत्तरी प्रशांत, दक्षिणी प्रशांत, और हिंद महासागरीय चक्रगति। इनमें से प्रत्येक के चारों ओर एक तीव्र और संकरी ‘‘पश्चिमी सीमा धारा‘‘, और एक कमजोर और विस्तृत ‘‘पूर्वी सीमा धारा‘‘ विद्यमान होती हैं। 

उत्तरी एटलांटिक उपोष्णकटिबंधीय चक्रगति में गल्फ स्ट्रीम, लैब्राडोर धारा, पूर्वी ग्रीनलैंड धारा और कैनरी धारा शामिल है। गल्फ स्ट्रीम लगभग 40 अंश उत्तर और 45 अंश पश्चिम में उत्तरी एटलांटिक धारा बन जाती है, और उत्तरी एटलांटिक के पार पूर्वी दिशा में प्रवाहित होती है। लैब्राडोर धारा का ठंडा पानी दक्षिण पूर्व की दिशा में कनाड़ा और ग्रीनलैंड के बीच प्रवाहित होता है, जबकि पूर्वी ग्रीनलैंड धारा दक्षिण पश्चिम दिशा की ओर ग्रीनलैंड और आइसलैंड के बीच प्रवाहित होती है। सुदूर पूर्व में उत्तरी एटलांटिक धारा नार्वेजियन धारा (जो नॉर्वे के तट के पास से आइसलैंड और यूरोप के बीच उत्तर पूर्वी दिशा की ओर प्रवाहित होती है) और कैनरी धारा (जो स्पेन, पुर्तगाल, और उत्तरी अफ्रीका के पश्चिम तट के निकट से दक्षिण की ओर प्रवाहित होती है) में विभक्त हो जाती है। कैनरी धारा का उत्तरी एटलांटिक भूमध्यरेखीय धारा में विलय हो जाता है, और इस प्रकार से यह उत्तरी एटलांटिक उपोष्णकटिबंधीय चक्रगति को पूरा करती है। 

दक्षिण एटलांटिक धारा दक्षिण एटलांटिक के उपोष्णकटिबंधीय चक्रगति की दक्षिणी शाखा है। इस पूर्वी दिशा में प्रवाहित होने वाली धारा को पश्चिम हवा बहाव भी कहा जाता है। दक्षिणी गोलार्द्ध में कोरिओलिस प्रभाव उल्टा हो जाता है। अतः दक्षिण चक्रगति वामावर्त दिशा में प्रसारित होती है। 

 दक्षिण प्रशांत और दक्षिण एटलांटिक की धाराएं संकरी पश्चिमी होती हैं और ये अपने पश्चिमी उपांतों के आसपास काफी तेज गति से प्रवाहित होती हैं, परंतु अपने पूर्वी उपांतों के निकट धीमी और चौड़ी होती हैं। ब्राजील धारा दक्षिण एटलांटिक चक्रगति की पश्चिमी सीमा धारा है, जो गर्म भूमध्यरेखीय पानी को ध्रुव की ओर प्रवाहित करती है। बेंगुएला धारा धारा की पूर्वी सीमा धारा है, जो अंटार्कटिक के ठंडे पानी को भूमध्यरेखा की ओर प्रवाहित करती है। दक्षिण एटलांटिक की उत्तरी सीमा दक्षिण भूमध्यरेखीय धारा है, और दक्षिण की ओर यह अंटार्कटिक परि-ध्रुवी धारा द्वारा सीमांकित होती है। 

उत्तरी प्रशांत चक्रगति एक धीमी चढ़ती गर्म भूमध्यरेखीय हवा का विशाल क्षेत्र है, जो हवाओं और अभिसारी समुद्री धाराओं को अंदर खींचता है। यह भूमध्यरेखा और 50 अंश उत्तर अक्षांश पर स्थित है, जो 20 मिलियन वर्ग किलोमीटर से बना है, जो पृथ्वी की विशालतम पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करता है। चार प्रचलित महासागरीय धाराएं जो इस चक्रगति का निर्माण करती हैं, वे हैं उत्तर की ओर उत्तरी प्रशांत धारा, पूर्व की ओर कैलिफोर्निया धारा, दक्षिण की ओर उत्तरी भूमध्यरेखीय धारा और पश्चिम की ओर कुरोशियो धारा। यह चक्रगति असामान्य सघन मानव निर्मित मलबे के एकत्रीकरण का भी केंद्र है, जिसे महान प्रशांत कचरा पैबंद भी कहते हैं। 

दक्षिण प्रशांत चक्रगति उत्तर की ओर भूमध्यरेखा से, पश्चिम में ऑस्ट्रेलिया से, पूर्व में दक्षिण अमेरिका से और दक्षिण में परिध्रुवी धारा से घिरा हुआ है। पृथ्वी की व्यापारी हवाओं और कोरिओलिस बल के कारण दक्षिण प्रशांत महासागरीय धाराएं वामावर्त दिशा में प्रसारित होती हैं। धाराएं चक्रगति के केंद्र में पोषकों के उमडने से अवरुद्ध करती हैं, और वहां कुछ पोषकों का परिवहन हवाओं के कारण होता है (वातोढ प्रक्रिया के कारण) क्योंकि दक्षिणी गोलार्द्ध में प्रचलित हवाओं को धूल की आपूर्ति करने की दृष्टि से भूमि सापेक्ष रूप से कम है। 

हिंद महासागर चक्रगति अनेक धाराओं की जटिल व्यवस्था है, जो अफ्रीका के पूर्वी तट से ऑस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट तक विस्तृत है। इस व्यवस्था का उत्तरी भाग अफ्रीका के सींग और इंड़ोनेशियाई द्वीपसमूह के बीच प्रसारित होता है। इसे कई बार भारतीय मानसून धाराएं भी कहा जाता है।  

भारतीय मानसून धारा अपना नाम हवा से ग्रहण करती है - मानसून - जो इसे बढाता है। यह महासागरीय चक्रगति की कुछ बहुत ही सीमित धाराओं में से एक है जो अपनी दिशा परिवर्तित करती है। गर्मी के मौसम में यह धारा दक्षिणावर्त दिशा में प्रवाहित होती है, जब मानसून दक्षिण पश्चिम हिंद महासागर से प्रवाहित होता है। सर्दियों के मौसम में यह धारा वामावर्त दिशा में प्रवाहित होती है, क्योंकि हवा उत्तरपूर्व से तिब्बती पठार से प्रवाहित होती है।

7.0 लवणता

लवणता समुद्री जल में घुले हुए लवकणों का परिमाण होती है, जिसे आमतौर पर ग्राम प्रति किलोग्राम या वजन के उसके उसके भाग के रूप में व्यक्त किया जाता है। औसत रूप से विश्व के महासागरों की लवणता लगभग 3.5 प्रतिशत है (35 ग्राम प्रति लीटर या 599 एम एम)। महासागरों के जल में 96.5 प्रतिशत पानी होता है, और 3.5 प्रतिशत घुले हुए लवण होते हैं। समुद्री जल में पाया जाने वाला सबसे आम पदार्थ है सोडियम क्लोराइड या नमक। अतः एक किलोग्राम समुद्री जल (आयतन के मान से लगभग एक लीटर) में लगभग 35 ग्राम (1.2 औंस) घुले हुए लवण (प्रमुख रूप से सोडियम और क्लोराइड) होते हैं। सतह का औसत घनत्व 1.025 ग्राम प्रति मिलीलीटर होता है। समुद्री जल मीठे पानी और शुद्ध पानी से अधिक घना होता है (घनत्व 4 अंश सेल्सियस (39 अंश फेरनहाइट) पर 1.0 ग्राम प्रति मिलीलीटर) क्योंकि घुले हुए लवण आयतन में अधिक योगदान दिए बिना वजन में वृद्धि करते हैं। 

लवणता के स्रोतः समुद्रों/महासागरों की अधिकांश घुली हुई सामग्री (लवण) पृथ्वी से शुरू हुई थी जो वर्षा, प्रवाही पानी, भूजल, हवा और सागरी लहरों और हिमनदों द्वारा समुद्रों में प्रवाहित हुई थी। हालाँकि कुछ लवणों की उत्पत्ति पृथ्वी की गहरी परतों से हुई है। ज्वालामुखी लावा महासागरों की लवणता में और अधिक योगदान प्रदान करता है। अतिरिक्त, मृत और सडे़ हुए जैव अपशिष्ट महासागरों की लवणता में वृद्धि करते हैं। 

7.1 महासागरों की लवणता के निर्धारक तत्व 

महासागरों की लवणता का वितरण वाष्पीकरण की दर, तापमान, वर्षा, बादलों के आच्छादन, मीठे पानी के प्रवाह, हवाओं और महासागरीय लहरों पर निर्भर करता हैः

वाष्पीकरणः सामान्य तौर पर, वाष्पीकरण की दर जितनी अधिक होगी, महासागरों की लवणता भी उतनी ही अधिक होगी। 

वाष्पीकरण की सर्वोच्च दर कर्क रेखा के आसपास दर्ज की जाती है, विशेष रूप से लाल सागर और फारस की खाड़ी में। परिणामस्वरूप इन जल क्षेत्रों की लवणता विश्व की सबसे अधिक लवणताओं में से एक है। 

तापमानः समुद्रों की लवणता और तापमान का सीधा संबंध है। सामान्यतया तापमान जितना अधिक होगा, महासागरों की लवणता भी उतनी ही अधिक होगी। उष्ण कटिबंध क्षेत्र की लवणता विश्व के ठंडे क्षेत्रों की लवणता से अधिक है। 

वर्षाः वर्षा की मात्रा का लवणता के साथ विषम अनुपात होता है। सामान्यतया, वर्षा जितनी अधिक होगी, लवणता का अनुपात उतना ही कम होगा। भूमध्यरेखीय क्षेत्र के महासागर, जहां वर्ष भर वर्षा अधिक होती है, उनकी लवणता तुलनात्मक दृष्टि से कम है। 

महासागरीय लहरेंः महासागरीय लहरें भी विश्व के जल क्षेत्रों के लवणता वितरण को प्रभावित करती हैं। भूमध्यरेखीय गर्म जल लहरें पूर्वी तटीय क्षेत्रों से लवणों को प्रवाहित कर देती हैं, और उन्हें महासागरों के पश्चिमी तटीय क्षेत्रों में जमा करती हैं। गल्फ स्ट्रीम और उत्तरी एटलांटिक विस्थापन उत्तरी सागर और उत्तर पूर्वी एटलांटिक महासागर की लवणता में वृद्धि करते हैं। 

मीठे (नदियों) पानी का प्रवाहः तुलनात्मक दृष्टि से अमेजॉन के मुख, कांगो और गंगा नदी मुख भूमि में मुख्य रूप से मीठे पानी के प्रवाह के कारण कम लवणता पाई जाती है। 

लवणता का क्षैतिज वितरणः महासागरों की लवणता कटिबंधों के दोनों ओर घटती है।  उदाहरणार्थ, भूमध्यरेखा के आसपास की औसत लवणता लगभग 35 प्रतिशत अंश है, जबकि कर्करेखा के आसपास यह 36 प्रतिशत अंश से अधिक है।

लवणता के आधार पर विश्व के महासागरों और समुद्रों को निम्न वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता हैः

सामान्य से अधिक लवणता वाले समुद्रः लाल सागर की लवणता लगभग 39 प्रतिशत से 41 प्रतिशत है, फारस की खाड़ी 38 प्रतिशत और भूमध्य-सागर की लवणता 37 प्रतिशत से 39 प्रतिशत है। 

सामान्य लवणता वाले समुद्रः कैरेबियन सागर, मेक्सिको की खाड़ी, कैलिफोर्निया की खाड़ी और पीले सागर की लवणता 35 प्रतिशत से 36 प्रतिशत के बीच है। 

सामान्य से कम लवणता वाले समुद्रः आर्कटिक महासागर, अंटार्कटिक महासागर, बेरिंग सागर, जापान सागर, बाल्टिक सागर इत्यादि की लवणता कम (21 प्रतिशत) है। 

लवणता का ऊर्ध्वाधर वितरणः जहां तक लवणता के ऊर्ध्वाधर वितरण का प्रश्न है, कोई भी निश्चित रुझान नहीं मिलता, और इसलिए, इसका किसी प्रकार का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। सामान्य तौर पर, समुद्री जल की बढ़ती गहराई के साथ, लवणता के बढ़ने और घटने, दोनों प्रकार के रुझान मिलते हैं। लवणता के ऊर्ध्वाधर वितरण को हेलैंड हैनसेन द्वारा प्रतिपादित टी-एस रेखाकृति पर दर्शाया जाता है। हलोक्लीन में लवणता के विभिन्न स्वरुप। 

लवणता के ऊर्ध्वाधर वितरण की विशेषताओं को संक्षेप में निम्न प्रकार से दर्शाया जा सकता हैः

  1. महासागरों की बढ़ती गहराई के साथ लवणता बढ़ती है। 
  2. भूमध्यरेखीय समुद्री जल के सतही जल की लवणता कम होती है। 
  3. मध्य अक्षांशों में बढ़ती गहराई के साथ लवणता बढ़ती है। 

8.0 महासागरीय निक्षेप

विभिन्न स्रोतों से प्राप्त महासागर तल में जमा तलछट को महासागरीय निक्षेप कहते हैं। महासागरीय निक्षेपों के प्रमुख स्रोत निम्नानुसार हैंः

स्थलजात पदार्थः भूमि से प्राप्त बजरी, रेत, गाद, मिट्टी और पंक, जो महासागरों में बहते पानी या हवा इत्यादि से प्रवाहित होते हैं। 

ज्वालामुखी निक्षेपः राख, कुर्स्न, अंगार इत्यादि। 

जैविक निक्षेपः नेरेटिक निक्षेप, समुद्री जानवरों निक्षेप, पंक, ग्लोबिजेरिना पंक, लाल मिटटी इत्यादि। इन निक्षेपों में मुख्य रूप से समुद्री जैविक उत्पत्ति की सामग्री होती है, अर्थात, सीप, समुद्री जानवरों और पौधों के कंकाल इत्यादि। सबसे आम जैविक तलछट हैं चूना प्रधान पंक और सिलिका प्रधान पंक। 

कॉस्मोजेनियस निक्षेपः धूल, टेक्टाइट और कण। 

9.0 प्रवाल भित्तियां 

प्रवाल भित्ति कैल्शियम कार्बोनेट (आरगोनाइट और कैल्साइट) का रेखीय द्रव्यमान होता है, जो प्रवाल जीवों, शैवाल, मोलस्क, कृमि इत्यादि से एकत्रित होता है। भित्तियों में प्रवाल का योगदान भित्ति सामग्री के आधे से कम हो सकता है। अधिकांश भित्तियों में सबसे प्रमुख जीव होते हैं पथरीले प्रवाल जो कैल्शियम कार्बोनेट (चूना पत्थर) का स्राव करते हैं। प्रवाल भित्तियों को उनकी विशाल जैवविविधता के कारण ‘‘महासागरों के वर्षाजनित वन‘‘ भी कहा जाता है। 

प्रवाल भित्तियों को व्यापक रूप से निम्न वर्गों में वर्गिकृत किया जा सकता हैः (1) तटीय प्रवाल भित्तियांः वह भित्ति जो द्वीप या महाद्वीपों के तटों पर विकसित होती है। यह एक संकरी पट्टी होती है जिसका ढ़ाल समुद्र की ओर तीव्र और जमीन की ओर मंद होता है। तटीय भित्ति के पूर्ण रूप से विकसित हो जाने पर मुख्य भू-स्थल तथा भित्ति के बीच संकरा एवं छिछला जलभाग या लैगून बन जाता है। 

अवरोधक प्रवाल भित्तिः जो भित्ति एक गहरे लैगून के कारण मुख्य भूभाग या द्वीप के किनारे से अलग हो जाती है उसे अवरोधक प्रवाल भित्ति कहा जाता है। क्वींसलैंड के पूर्व में स्थित ग्रेट बैरियर रीफ विश्व की सबसे बड़ी जीवित संरचना है। यह 2000 किलोमीटर से भी अधिक क्षेत्र में फैली हुई है। 

वलयाकार प्रवाल भित्ति : स्थल से दूर और गहरे सागरों में अंगूठी या घोडे की नाल के आकार की प्रवाल भित्ति को प्रवाल वलय कहते हैं, जो केंद्रीय द्वीप के बिना एक लैगून के चारों ओर फैली होती है। विश्व में प्रवाल भित्तियों का वितरण रू अधिकांश प्रवाल भित्तियां 30 अंश उत्तर और 30 अंश दक्षिण के बीच पाई जाती हैं, जहां समुद्र सतह का औसत तापमान लगभग 21 अंश सेल्सियस होता है। 

एक अनुमान के अनुसार प्रवाल भित्तियां लगभग 2,84,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को समाविष्ट करती हैं, जिनमें भारत-प्रशांत क्षेत्र (जिसमें लाल सागर, हिंद महासागर, दक्षिण पूर्व एशिया और प्रशांत क्षेत्र शामिल है) कुल प्रवाल भित्ति निर्मिति के लगभग 92 प्रतिशत भाग का निर्माण करता है। कैरेबियाई प्रवाल भित्तियां विश्व के कुल परकावल भित्ति क्षेत्र के 7.5 प्रतिशत भाग का निर्माण करती हैं।

प्रवाल भित्तियां दोनों अमेरिका के पश्चिमी तटों और अफ्रीका के पश्चिमी तट से लगभग गायब हैं। उसी प्रकार प्रवाल दक्षिण एशिया के पाकिस्तान से बांग्लादेश तक ही सीमित हैं। उसी प्रकार से वे गंगा-ब्रह्मपुत्र के नदी मुख भूमि क्षेत्र और अमेजॉन नदी में भी मीठे पानी के विशाल प्रवाह के कारण नहीं पाये जाते। 

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