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भ्रंश, भू-संतुलन, पर्वत और भू-आकृति विकास भाग - 2
3.0 भ्रंश
भ्रंश वे सतहें होती हैं जिनके पार पृथ्वी के पदार्थों की संशक्ति समाप्त हो गई है, और जिनके पार प्रत्याक्ष विस्थापन हुआ है। यह पृथ्वी की पर्पटी में एक अंतराल होता है जिसके निकट भ्रमण हो सकता है जिसके कारण भूकंप हो सकते हैं। भ्रंश का केंद्र सबसे अधिक विकृत होता है, और यही वह स्थान होता है जहां आसपास की चट्टानों के बीच अधिकांश अन्तर्लम्ब या सरक होते हैं। यह क्षेत्र काफी छोटा हो सकता है, और यह इतना चौड़ा हो सकता है जितनी एक पेंसिल की लंबाई होती है, और इसकी पहचान महीन पिसी चट्टानों से होती है जिन्हें कॅटाक्लासाइट कहते हैं (सतह के पास मिली पिसी सामग्री को हम ‘‘गूज‘‘ कहते हैं)। सभी प्रकार की फिसलन और पिसाई के कारण गूज अच्छी तरह से पिसे पदार्थों से बना होता है, जो मिट्टी जैसा दिखता है। केंद्र क्षेत्र को घेरे हुए एक क्षेत्र होता है जिसके कुछ मीटर अंतर पर बड़ी संख्या में दरारें होती हैं। इस क्षेत्र के बाहर एक और क्षेत्र होता है जिसमें पहचानी जा सकने वाली दरारें होती हैं, परंतु इनकी गहनता पहले वाले क्षेत्र से काफी कम होती है। अंतिम होती है सक्षम ‘‘मेजबान’’ चट्टान, जहां भ्रंश क्षेत्र समाप्त होता है।
नतिलम्बी और नमन का संदर्भ एक भूवैज्ञानिक विशेषता के अभिविन्यास से है। भ्रंश नतिलम्बी भ्रंश तल के प्रतिच्छेदन और उत्तर के सापेक्ष शून्य अंश से 360 अंश की एक क्षैतिज सतह द्वारा निर्मित दिशा होती है। नतिलम्बी को हमेशा इस प्रकार से परिभाषित जाता है, कि जब भ्रंश नतिलम्बी की दिशा में निशान के साथ प्रवाहित होते हुए निशान की दायीं ओर लुढ़कता है। भ्रंश नमन भ्रंश और शून्य अंश से 90 अंश के क्षैतिज समतल के बीच का कोण होता है। रेक, विखंडन के समय एक लटकती भित्ति खंड़ की दिशा होती है, इसकी गणना भ्रंश के समतल पर की जाती है। इसकी गणना भ्रंश नतिलम्बी के सापेक्ष ±180 अंश की जाती है। भ्रंश पर खडे नतिलम्बी की दिशा में देखने वाले एक पर्यवेक्षक के लिए शून्य अंश के रेक का अर्थ होता है लटकती भित्ति, या एक ऊर्ध्वाधर भ्रंश का दाहिना भाग, जो नतिलम्बी की दिशा में पर्यवेक्षक से दूर चला गया है। ±180 अंश रेक का अर्थ है लटकती भित्ति पर्यवेक्षक की ओर आ गई है। शून्य से बडे़ किसी भी रेक के लिए लटकती भित्ति ऊपर की ओर उठी थी, जो इस भ्रंश पर संवेगी या उत्क्रम गति को इंगित करती है। उसी प्रकार शून्य से कम किसी भी रेक के लिए लटकती भित्ति नीचे की ओर गई, जो भ्रंश पर सामान्य गति को इंगित करती है।
3.1 सक्रिय, निष्क्रिय और पुनः सक्रिय भ्रंश (Active, Inactive, and Reactivated Faults)
सक्रिय भ्रंश वे संरचनाएं हैं जिनके निकट हम विस्थापन होने की उम्मीद कर सकते हैं। परिभाषा की दृष्टि से एक उथला भूकंप वह प्रक्रिया है जो एक भ्रंश के पार विस्थापन निर्माण करती है, सभी उथले भूकंप सक्रिय भ्रंशों पर ही होते हैं।
निष्क्रिय भ्रंश वे संरचनाएँ होती हैं, जिन्हें हम पहचान तो सकते हैं, पर जिनमें भूकंप नहीं होते। जैसे कि आप कल्पना कर सकते हैं, भूकंप गतिविधि की जटिलता के कारण एक निष्क्रिय भ्रंश के बारे में अनुमान लगाना पेचीदा हो सकता है, परन्तु, परंतु हम उस समय की गणना कर सकते हैं जब पिछली बार भ्रंश के पार पर्याप्त अन्तर्लम्ब हुआ था। यदि एक भ्रंश करोड़ों वर्षों तक निष्क्रिय रहा है, तो उसे निष्क्रिय भ्रंश कहना सुरक्षित हो सकता है। हालांकि कुछ भ्रंशों पर हजारों वर्षों में एकाध बार बड़ा भूकंप हो सकता है, और हमें खतरे की इस संभावना का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करना आवश्यक है।
पुनः सक्रिय भ्रंश तब निर्मित होते हैं जब पूर्व के निष्क्रिय भ्रंश के आसपास होती गतिविधि पर्पटी या ऊपरी मेंटल के अंदर के तनाव को ऊपर उठाने में सहायता प्रदान कर सकती है। मध्य अमेरिका के न्यू मैड्रिड़ भूकंप सूचक क्षेत्र में हुई विकृति भ्रंश की पुनः सक्रियता का एक अच्छा उदाहरण है। लगभग 500 मिलियन वर्ष पूर्व निर्मित संरचनाएँ नए बलों को प्रतिसाद दे रही हैं और मध्य महाद्वीप में तनाव को राहत प्रदान कर रही हैं।
3.2 नति-सर्पण भ्रंश (Dip-Slip Faults)
एक सामान्य भ्रंश में भ्रंश के ऊपर का भू-खंड़ भ्रंश के नीचे के भू-खंड़ के सापेक्ष नीचे की ओर खिसकता है। इस प्रकार की भ्रंश गति तनाव बलों के कारण निर्मित होती है, और इसका परिणाम विस्तारण में होता है। एक व्युत्क्रम भ्रंश में भ्रंश के ऊपर का भू-खंड़ भ्रंश के नीचे के भू-खंड़ के सापेक्ष ऊपर की ओर खिसकता है। यह भ्रंश गति संपीड़न बलों के कारण निर्मित होती है, और इसका परिणाम संकुचन में होता है। यदि भ्रंश समतल का नमन छोटा होता है तो उत्क्रम भ्रंश को क्षेप भ्रंश कहते हैं।
3.3 नतिलम्बी-सर्पण भ्रंश (Strike-slip Faults)
एक नतिलम्बी-सर्पण भ्रंश में गति मुख्य रूप से क्षैतिज दिशा में होती है। यदि भ्रंश के दूर वाला भू-खंड बायीं ओर खिसकता है, तो उस भ्रंश को वाम-पार्श्विक भ्रंश कहते हैं। यदि बाहरी ओर का भू-खंड दायीं ओर खिसकता है, तो उस भ्रंश को दायां पार्श्विक भ्रंश कहते हैं। नतिलम्बी सर्पण भ्रंशों की भ्रंश गति कर्तन बलों के कारण होती है।
एक रूपांतर भ्रंश एक प्रकार का नतिलम्बी सर्पण भ्रंश होता है जहां सापेक्ष क्षैतिज सर्पण दो महासागरीय कटकों के बीच या अन्य विवर्तनिकी सीमाओं के बीच गति को स्थान देता है।
3.4 तिर्यक भ्रंश (Oblique Fault)
तिर्यक सर्पण भ्रंशण में नति-सर्पण भ्रंशण और नतिलम्बी-सर्पण भ्रंशण, दोनों होते हैं। यह कर्तन और तनाव या संपीडन दोनों बलों के संयोजन के कारण होता है। लगभग सभी भ्रंशों में नति-सर्पण भ्रंश (सामान्य या उत्क्रम) और नतिलंबी-सर्पण भ्रंश के घटक होते हैं, अतः किसी भ्रंश को तिर्यक भ्रंश के रूप में परिभाषित करने के लिए नति और नतिलंबी घटक दोनों गणना योग्य और सार्थक होना आवश्यक है।
4.0 भू-संतुलन (आयसोस्टसी)
1705 में पियरे बुज़ुए ने पाया कि एंडीज़ और हिमालय जैसे विशाल पर्वत उस प्रकार का गुरुत्वाकर्षण बल नहीं लगाते जैसी कि उनके आकार और ऊँचाई से उम्मीद की जाती है। इन पर्यवेक्षणों की बाद में सर जॉर्ज एवरेस्ट ने भी पुष्टि की, जिन्होंने दर्शाया गया कि इन दृश्य पर्वतों के नीचे उसी संतुलन के पिंड़ का अभाव था। इन्हें गुरुत्वाकर्षण विसंगतियां कहा गया, जिसने भू-संतुलन के सिद्धांत का मार्ग प्रशस्त किया।
भू-संतुलन एक प्राकृतिक संयोजन या संतुलन है जो भिन्न मोटाई की पर्पटी के खण्ड़ों द्वारा बनाये रखा जाता है, जो गुरुत्वाकर्षण को बनाये रखने के लिए भी आवश्यक है। भू-संतुलन पिंड़ को संतुलित करने के लिए ऊर्जा का उपयोग करता है। यह ऊर्जा जलीय चक्र से प्राप्त होती है, जो महासागर में निर्मित पानी की बूंदों का मार्ग है, जो वाष्पीकृत होकर बादल के रूप में परिवर्तित होता है, और फिर वर्षा की बूंदों के रूप में पृथ्वी पर गिरता है, और वापस समुद्र में बह जाता है, जहां वह अपने साथ मृदा और चट्टानों के कणों को भी ले जाता है। जलीय चक्र अपनी ऊर्जा गुरुत्वाकर्षण और सौर विकिरण से प्राप्त करता है। जैसे पानी प्रवाहित होता है, या हिमखंड़ जमीन के ऊपर रगड़ता है, ऊर्जा वहां खोती है जो अब एक अलग प्रणाली है।
भू-संतुलन के सिद्धांत में समुद्र सतह से ऊपर एक पिंड़ समुद्र तल के नीचे से समर्थित होता है, और इस प्रकार एक निश्चित गहराई होती है जिसपर प्रति इकाई क्षेत्रफल का कुल भार पृथ्वी के सभी भागों में एकसमान होता है। इसे क्षतिपूर्ति की गहराई कहते हैं। अमेरिकी भूवैज्ञानिकों जॉन फिल्मोर हैफोर्ड़ और विलियम बोवी के नाम पर रखे गए हैफोर्ड़-बोवी संकल्पना के अनुसार क्षतिपूर्ति की गहराई को 113 किलोमीटर (70 मील) माना गया था। हालांकि बदलते विवर्तनिकी पर्यावरण के कारण सटीक भू-संतुलन तक पहुँचने का प्रयास तो होता है, परंतु इसे दुर्लभता से ही प्राप्त किया जा सकता है, साथ ही कुछ क्षेत्रों जैसे महासागरीय खाइयों और ऊंचे प्रायद्वीपों में भू-संतुलन क्षतिपूर्ति नहीं होती।
एयरी की परिकल्पना कहती है कि पृथ्वी की पर्पटी एक अधिक कठोर खोल है जो एक अधिक तरल और अधिक घनत्व वाले आधार पर तैर रहा है। एक अंग्रेज गणितज्ञ और खगोलशास्त्री सर जॉर्ज बिड़ल एयरी ने माना कि पर्पटी का घनत्व सभी स्थानों पर एकसमान है। हालांकि पर्पटी परत की मोटाई समान नहीं है, अतः यह सिद्धांत यह मान्य कर चलता है कि पर्पटी का अधिक मोटा भाग आधार के अधिक नीचे तक डूबा हुआ है, जबकि पतला भाग उसके द्वारा ऊपर की ओर धकेला जा रहा है। इस परिकल्पना के अनुसार पर्वतों की आतंरिक गहराई सतह के नीचे उनकी ऊपरी ऊँचाई से कहीं अधिक बड़ी है। यह पानी पर तैरते हिमशैल के अनुरूप है, जहां हिमशैल का बड़ा भाग पानी के अंदर होता है।
जॉन हेनरी प्रैट द्वारा विकसित प्रैट परिकल्पना मानती है कि समुद्र सतह के नीचे की भूपर्पटी की मोटाई समान है, और उसका आधार क्षतिपूर्ति की गहराई पर प्रति इकाई क्षेत्रफल के समान भार का समर्थन करता है। निष्कर्ष में, यह कहता है कि कम घनत्व वाले पृथ्वी के क्षेत्र, जैसे पर्वत श्रृंखलाएँ, अधिक घनत्व वाले क्षेत्रों की तुलना में समुद्र तल से अधिक बाहर की ओर निकले हुए होते हैं। इसका स्पष्टीकरण यह था कि स्थानीय गर्म पर्पटी सामग्री के ऊपरी विस्तारण के कारण पर्वतों का निर्माण हुआ था, जिनका आयतन तो अधिक था परंतु ठंड़ा होने के बाद इनका घनत्व कम हो गया था। फिनलैंड़ के भूवैज्ञानिक वैको अलेक्सांतेरी द्वारा विकसित हाइसकानेन परिकल्पना एयरी की परिकल्पना और प्रैट की परिकल्पना के बीच की परिकल्पना है। यह परिकल्पना कहती है कि लगभग दो-तिहाई स्थलाकृति की क्षतिपूर्ति जड़ गठन (एयरी मॉडल) द्वारा की जाती है और एक-तिहाई की पर्पटी और आधार के बीच की पृथ्वी की भूपर्पटी द्वारा (प्रैट मॉडल)।
4.1 समस्थिति संतुलन
समस्थिति संतुलन के लिए बलों के संतुलन (विभिन्न क्षेत्रों के भिन्न भार) की आवश्यकता होती है जो एक तरल माध्यम से एक दूसरे की विपरीत दिशा में कार्य करते हैं। मोटर वाहन को उठाने वाला जैक इसका एक उदाहरण है। पृथ्वी की गति के मामले में समस्थिति संतुलन का संबंध अधिक निकट के भूखंड़ों के भिन्न भार के कारण बलों के संतुलन से है। इस सिद्धांत के अनुसार हलकी प्रशांत प्लेट का समर्थन करने वाला ‘‘स्तंभ‘‘ इसके विपरीत भारी अफ्रीकी प्लेट का समर्थन करने वाले स्तंभ से लंबा होना आवश्यक है। सामान्य भाषा में यह स्थिति एक पतले दस्ते के संतुलन बिंदुओं को उनके मध्य या केंद्र से दूर रखने के बजाय एक निकट और भारी अंग के निकट स्थित रखने के अनुरूप है।
जैसे ही एक पर्वत श्रृंखला खंड़ नष्ट होता है, यह खंड़ ऊपर उठता है, क्योंकि सामग्री के अपक्षरण के कारण यह भारी नहीं है और इसे मेंटल में नीचे सवार होने की आवश्यकता नहीं है। अपक्षरित सामग्री तलछट के रूप में आसपास के पतले महाद्वीपीय खण्ड़ों पर जमा हो जाती है, जो उनके भार को बढ़ा देती है, और वे दुर्बलतामंड़ल में और अधिक गहरे डूब जाते हैं। जो क्षेत्र विवर्तनिकी दृष्टि से स्थिर हैं वे समस्थिति की दृष्टि से संतुलित हो जाते हैं। मेंटल के चिपचिपापन की गणना ठोस खण्ड़ों की समस्थिति समायोजन की दर के आधार पर की जा सकती है।
कुछ भूवैज्ञानिकों का मानना है कि प्लेट प्रविष्ठन मैग्मा के विशाल निकाय निर्मित करता है, जो महाद्वीपीय पिंड़ से चिपक जाते हैं और ठंडे हो जाते हैं, जो स्थानीय पर्पटी को मोटा कर देते हैं। समस्थिति बनाये रखने के लिए इस पर्पटी को पर्वत श्रृंखलाओं के माध्यम से ऊपर उठना पड़ता है। हालांकि इस विचार को व्यापक स्वीकृति नहीं मिल पायी है।
5.0 दक्षिण एशिया में द्वीप पुंजों की निर्मिति
पर्वतों और अन्य भू-आकृतियों की ही तरह द्वीप-पुंज भी आंशिक रूप से विवर्तनिकी गतिविधियों के कारण निर्मित होते हैं। जब जलस्तर के नीचे के ज्वालामुखी या गर्म स्थान मैग्मा को समुद्र में रिसने की अनुमति प्रदान करते हैं, तो जल के अंदर चट्टान आकृतियां निर्मित हो जाती हैं। जैसे-जैसे अधिकाधिक मैग्मा निर्मुक्त होता है, तो चट्टान आकृतियां समुद्र के जलस्तर से ऊपर निकल आती हैं, जिसके कारण द्वीप निर्मित हो जाते हैं।
मलय द्वीप-पुंज, जो दक्षिण पूर्व एशिया महादेश और ऑस्ट्रेलिया के बीच स्थित है, वह लगभग 25,000 द्वीपों का समूह है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह विश्व का सबसे बडा द्वीप-पुंज है। प्लेट विवर्तनिकी स्थिति की दृष्टि से इंडोनेशियाई द्वीप-पुंज तीन प्रमुख प्लेटों के तिहरे संगम पर स्थित है, ये तीन प्लेटें हैं-इंडो-ऑस्ट्रेलियाई प्लेट, यूरेशियाई प्लेट और प्रशांत प्लेट। इन तीन प्रमुख प्लेटों की परस्पर क्रिया एक जटिल विवर्तनिकी का निर्माण करती है, विशेष रूप से उस प्लेट सीमा में जो पूर्वी इंड़ोनेशिया में स्थित है। यूरेशियन महाद्वीपीय प्लेट के नीचे की हिंद महासागरीय प्लेट के प्रविष्ठन ने पश्चिमी इंडोनेशिया में एक ज्वालामुखी-चाप का निर्माण किया जो पृथ्वी के सबसे अधिक भूकंपीय दृष्टि से सक्रिय क्षेत्रों में से एक है, जहां शक्तिशाली विस्फोटों और भूकंपों का एक लंबा इतिहास रहा है।
सक्रिय ज्वालामुखियों की इस श्रृंखला ने सुमात्रा, जावा, बाली और नूसा टेंग्गरा द्वीपों की रचना की, जिनमें से अधिकांश भाग, विशेष रूप से जावा और बाली पिछले 2-3 मिलियन वर्ष पूर्व ही उभरा है। प्रशांत और ऑस्ट्रेलियाई प्लेटों की गतिविधि ने इंड़ोनेशिया के पूर्वी भाग की विवर्तनिकी को नियंत्रित किया।
लोम्बोक और सुम्बावा के द्वीप सुंडा वृत्त-चाप के मध्य भाग में स्थित हैं। सबसे प्राचीन उजागर चट्टानें हैं मिओसिन, जो इस तथ्य की ओर संकेत करती हैं कि पश्चिम के जावा और सुमात्रा की तुलना में प्रविष्ठन और ज्वालामुखी काफी बाद में शुरू हुआ, जहां मध्यजीवीय युग के उत्तरार्ध के काफी बड़ी मात्रा में ज्वालामुखी और हस्तक्षेप करने वाली चट्टानें मौजूद हैं। फिलीपींस का प्रदेश अनेक द्वीप वृत्त-चापों से निर्मित है, जो प्रविष्ठन की अनेक घटनाओं के कारण निर्मित हुए हैं। इन द्वीप वृत्त-चापों को संयुक्त रूप से फिलीपींस द्वीप वृत्त-चाप प्रणाली कहा जाता है। प्रत्येक प्रमुख फिलीपींस द्वीप का एक जटिल प्राकृतिक इतिहास रहा है। पलवान, मिंड़ोरो, और रोमबलों के अपवादों को छोडकर ऐसा माना जाता है कि अधिकांश फिलीपींस द्वीप उन द्वीप वृत्त-चापों के भाग हैं जो फिलीपींस समुद्री प्लेट के किनारे पर लाखों वर्षों पूर्व निर्मित हुए थे। फिलीपींस समुद्री प्लेट के एक भाग के रूप में, जब प्लेट दक्षिणावर्त घूमी तो ये द्वीप उत्तर की ओर चले गए। ये गतिशील द्वीप, जिन्हें फिलीपींस मोबाइल पट्टी भी कहा जाता है, अंततः सुंदलैंड के साथ टकरा गए। इस टकराव का परिणाम, अन्य बातों के अलावा, यह हुआ कि फिलीपींस द्वीप-पुंज के चारों ओर प्रविष्ठनों की एक श्रृंखला निर्मित हो गई।
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