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विश्व कृषि भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
कृषि का विकास, चरम गरीबी को समाप्त करने, कुल समृद्धि बढ़ाने एवं 2050 तक अनुमानित रूप से 970 करोड़ लोगों के लिए भोजन उपलब्ध कराने के लिए सबसे शक्तिशाली उपकरणों में से एक है। कृषि क्षेत्र में विकास अन्य क्षेत्रों की तुलना में सबसे गरीब लोगों के बीच आय बढ़ाने में दो से चार गुना अधिक प्रभावी है। 2016 के विश्लेषणों में पाया गया कि 65 प्रतिशत गरीब कामकाजी वयस्कों ने कृषि के माध्यम से जीवनयापन किया।
कृषि आर्थिक विकास के लिए भी महत्वपूर्ण हैः 2014 में, यह वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के एक तिहाई के लिए जिम्मेदार था। यह चलन जारी रहा। लेकिन कृषि-आधारित विकास, गरीबी में कमी एवं खाद्य सुरक्षा जोखिम में हैंः जलवायु परिवर्तन से फसलों की पैदावार में कटौती हो सकती है, विशेषकर दुनिया के सबसे अधिक खाद्य-असुरक्षित क्षेत्रों में। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 25 प्रतिशत के लिए कृषि, वानिकी एवं भूमि उपयोग परिवर्तन जिम्मेदार हैं। कृषि क्षेत्र में शमन जलवायु परिवर्तन के समाधान का हिस्सा है।
1.1 वर्तमान प्रणाली से खतरे
वर्तमान खाद्य प्रणाली लोगों एवं ग्रह के स्वास्थ्य के लिए खतरा हैः कृषि में 70 प्रतिशत पानी का उपयोग होता है एवं प्रदूषण तथा अपशिष्ट के उच्च स्तर उत्पन्न करता है। गरीबों के आहार से जुड़े जोखिम भी दुनिया भर में मौत का प्रमुख कारण हैं। लाखों लोग या तो पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं कर रहे हैं या गलत प्रकार का भोजन कर रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप कुपोषण का दोहरा बोझ है जो बीमारियों एवं स्वास्थ्य संकट का कारण बन सकता है। 2018 की एक रिपोर्ट में पाया गया कि 2017 में लगभग 804 मिलियन भूखे एवं कुपोषित लोगों की निरपेक्ष संख्या बढ़कर लगभग 821 मिलियन हो गई। वयस्क मोटापा भी बढ़ रहा है। 2017 में, आठ वयस्कों में से एक - या 672 मिलियन से अधिक लोग मोटे थे।
1.2 मौजूदा प्रणाली के बारे में तथ्य
विश्व की वर्तमान कृषि पृथ्वी के प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन 2720 कैलोरी प्रदान करने में सक्षम है (यह मात्रा अमेरिकी रेड क्रॉस द्वारा सिफारिश की गई औसत 2100 कैलोरी से अधिक है)। हालांकि दुःख इस बात का है कि 80 करोड़ लोग रोज रात को भूखे सोते हैं। मुख्य आहार (staple foods) किसी भी क्षेत्र के प्रमुख आहार स्रोत होते हैं। वे विशिष्ट रूप से ऊर्जा समृद्ध, सस्ते और लंबी अवधि तक संभाल कर रखने की दृष्टि से आसान होते हैं। विश्व के अधिकांश लोग अपने मुख्य आहार स्रोत के लिए चावल, गेहूं, जौ, या मोटे अनाज जैसे अनाजों पर निर्भर होते हैं। आर्द्र उष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण क्षेत्रों में कसावा जैसी जड़ फसलें प्रमुख आहार होते हैं।
भुखमरी तब होती है जब व्यक्ति को खाने के लिए बहुत ही कम भोजन मिलता है। दूसरी ओर, कुपोषण तब होता है जब शरीर में कुछ विशिष्ट पोषकों का अभाव होता है, या जब व्यक्ति बहुत अधिक मात्रा में अस्वास्थ्यकर भोजन का सेवन करता है। ऐसा भी हो सकता है कि आप दिन में तीन बार आहार लें और फिर भी आप कुपोषित रहें। विश्व की भुखमरी प्रत्येक सात व्यक्तियों में से एक व्यक्ति को प्रभावित करती है। युद्ध, सूखा और अन्य प्राकृतिक आपदाएं और बीमारियां फसलों को नष्ट करके और परिवारों के मुखियाओं की मृत्यु का कारण बन कर विश्व भुखमरी में वृद्धि करते हैं।
असीम गरीबी वह गरीबी है जो व्यक्ति के जीवन को खतरे में डालती है। वैश्विक दृष्टि से इसे ऐसे समझा जा सकता है, कि वे परिवार जो प्रतिदिन 1 डॉलर से कम समराशि अर्जित करते हैं। बीमारी, भूखमरी और बाल श्रम असीम गरीबी में रहने वाले लोगों को त्रस्त करते हैं।
सापेक्ष गरीबी का अर्थ वह गरीबी है जिसमें किसी समुदाय या देश में अन्य समुदायों या देशों की तुलना में कम संसाधन उपलब्ध होते हैं। विभिन्न देश अपनी राष्ट्रीय गरीबी रेखा को भिन्न-भिन्न रूप से परिभाषित करते हैं।
2.0 विश्व के कृषि क्षेत्र
विश्व की पहली कृषि व्यवस्थाओं की रूपरेखा डी. व्हिट्लेसी द्वारा 1936 में प्रस्तुत की गई थी। विश्व के कृषि क्षेत्रों को रेखांकित करने के लिए उन्होंने निम्न पांच मापदंड़ों का उपयोग किया थाः.
- फसल और पशुधन का संयोजन
- भू-उपयोग की गहनता
- कृषि उत्पादों का प्रसंस्करण और विपणन
- मशीनीकरण का स्तर, और
- कृषि से संबंधित भवनों और अन्य संरचनाओं का संगठन।
2.1 निर्वाह के लिए घुमंतू पशुचारण
ये किसान चरवाहे हैं, जो अकेले अपने निर्वाह (व्यक्तिगत उपभोग) के लिए पशुओं को पालते हैं। घुमन्तू पशुचारण कृषि की एक पारिस्थितिकीय या लगभग पारिस्थितिकीय व्यवस्था है। इसका परिचालन मुख्य रूप से परिवार के लिए भोजन और वस्त्र, आश्रय और मनोरंजन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाता है। यह ग्राम्यता का सबसे सामान्य प्रकार है। घुमंतू चरवाहे भेडों, बकरियों, ऊंटों, घोड़ों और बारहसिंगों पर निर्भर रहते हैं। घुमंतू समुदायों की किसी एक स्थान पर रहने की अवधि, और उनके चलने की दिशा पानी और प्राकृतिक चारे की उपलब्धता द्वारा निर्धारित होती है।
वर्तमान समय में घुमंतू पशुचारण मुख्य रूप से सहाराई अफ्रीका (मॉरिटानिया, माली, नाइज़र, चाड़, सूडान, लीबिया, अल्जीरिया), एशिया के दक्षिण पश्चिम और मध्य भागों (ईरान, इराक, जॉर्डन, कुवैत, कजाखस्तान, किर्घिजीया, ओमान, सऊदी अरब, सीरिया, तुर्कमेनिस्तान और यमन), एशिया के उत्तरी भागों (नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैंड और रूस) तक सीमित है। कठोर जलवायु के कारण ये क्षेत्र फसल उपज की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। मरुस्थलीय क्षेत्रों में खानाबदोशों का भोजन मुख्य रूप से पशु जनित (दूध, पनीर, दही, मक्खन, मांस, इत्यादि) होता है, जबकि उप आर्कटिक क्षेत्रों में एस्किमो, इनुइट, लैप और याकूत बारहसिंगों और मछली इत्यादि पर निर्भर रहते हैं। हालांकि घुमंतू पशुचारकों की जनसंख्या कम होती जा रही है और पुराने समय के उनके वर्चस्व वाले क्षेत्र सिकुड़ते जा रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आने वाले समय में खानाबदोश उपरोक्त क्षेत्रों के एकाकी क्षेत्रों की कुछ ही बस्तियों में जीवित बचेंगे।
2.2 पशुधन पशुपालन (Livestock ranching)
रैंचर्स रैंच का निर्माण करते हैं एवं एक विशाल क्षेत्र में पशुधन के बड़े झुंडों को रखते हैं, तथा प्रति इकाई क्षेत्र में बहुत कम इनपुट होते हैं। पशुधन पशुपालन आमतौर पर सपाट सतह और मैदानी भागों में किया जाता है, जहां घास पर्याप्त मात्रा में उगती है यह व्यवस्था मुख्य रूप से समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय घास मैदानों में अपनाई जाती है, जिनमें स्टेपी (यूरेशिया), प्रेयरीज (उत्तरी अमेरिका), पम्पास (अर्जेंटीना और उरुग्वे) वेल्ड्स (दक्षिण अफ्रीका), डाउन्स (ऑस्ट्रेलिया), सवाना (सूडान), इलानोस (वेनेजुएला) और कंपोज (ब्राजील) शामिल हैं। वाणिज्यिक चरागाहों के प्रमुख क्षेत्र हैं उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका के घास के मैदान।
प्रेयरीज़ के घास मैदानों में 1000 एकड़ से भी अधिक क्षेत्र वाले हजारों पशु फार्म हैं। गाय-बैलों में सफेद मुँह वाली हेयरफोर्ड गाय-बैल नस्लें, काली और सफेद फ्रीसियाई गायें, जर्सी गायें और भेड़ों की श्रेष्ठ नस्लें शामिल हैं। प्रति वर्ष लाखों की संख्या में गाय बैलों और भेड़ों को मोटा किया जाता है और उनका परिवहन बडे-बडे कसाई खानों को किया जाता है।
2.3 स्थानांतरण कृषि (काटना और जलाना या झूम कृषि)
ये किसान एक समुदाय का हिस्सा होते हैं जो भूमि का एक टुकड़ा साफ करता है, उस पर खेती करता है एवं फिर आगे बढ़ता है। कोई भी तकनीक का उपयोग नहीं किया जाता है। स्थानांतरण कृषि का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना कृषि का इतिहास प्राचीन है। स्थानांरतण कृषि भूमि के उपयोग का आदिम प्रकार है। इसे आमतौर पर उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों वाले क्षेत्रों में अपनाया जाता है।
स्थानांतरण कृषि की प्रमुख विशेषताएं निम्नानुसार हैंः
- भूमि का स्वामित्व समुदाय का होता है
- कृषक पारिवारिक उपयोग के लिए फसलें पैदा करते हैं
- यह कृषि आग, खोदने वाली लकड़ियों, कुदाली और हंसिए के जरिये की जाती है
- भारवाही पशुओं का कोई उपयोग नहीं किया जाता
- खाद और उर्वरकों का उपयोग नहीं किया जाता
- मिश्रित फसलें पैदा की जाती है (लगभग एक दर्जन फसलें)
- अवस्थापन स्थिर होता है, परंतु खेतों को लगभग प्रति वर्ष बदला जाता है
- खेतों का परिवर्तन चक्र 10 वर्ष से लेकर 25 वर्ष तक का होता है
- कृषि की सघनता बहुत ही अल्प होती है, और
- यह सामुदायिक जीवन के लिए एक उत्प्रेरक बल का कार्य करता है। स्थानांतरण कृषि का मूलभूत सिद्धांत है प्रत्येक से उसकी क्षमता के अनुसार, और प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुरूप।
2.4 सघन निर्वाह कृषि
ये कृषक अपने परिवारों के लिए पर्याप्त भोजन बनाने के लिए भूमि के एक छोटे से टुकड़े पर प्रयास करते हैं, लेकिन इससे ज्यादा कुछ नहीं। छोटी या बिना तकनीक का उपयोग किया जाता है। [ हालांकि, भारी मात्रा में इनपुट का उपयोग किया जाता है (उर्वरक, पानी, अधिक उपज देने वाले बीज आदि), तो यह गहन कृषि (औद्योगिक) में बदल जाता है। इसके लिए अधिक पूंजी की आवश्यकता है, एवं यह प्रणाली हरित क्रांति का हिस्सा बन गई है ] निर्वाह कृषि उस प्रकार की कृषि होती है जिसमें पैदा की गई फसलों का उपभोग फसल उत्पादक और उनके परिवार करते हैं। इस प्रकार की कृषि अधिकांश एशिया और अफ्रीका के मॉनसूनी देशों में की जाती है।
सघन निर्वाह कृषि की मुख्य विशेषताएं निम्नानुसार हैंः
- भू-धारण का आकार छोटा होता है
- खेतों का आकार छोटा होता है
- खेत बिखरे हुए होते हैं
- भारवाही पशुओं का उपयोग किया जाता है
- घरेलू श्रम का उपयोग किया जाता है
- अनाज की फसलों का वर्चस्व होता है
- सामान्य ऋणग्रस्तता देखी जा सकती है।
2.5 बागान कृषि (Plantation agriculture)
प्रारंभ में ‘‘बागान कृषि‘‘ शब्द का उपयोग विशेष रूप से अमेरिका की ब्रिटिश बस्तियों के संदर्भ में किया जाता था, और बाद में इस शब्द का उपयोग उत्तरी अमेरिका, वेस्ट इंडीज़ और दक्षिण पूर्व एशिया के ऐसे विशाल बागानों के संदर्भ में किया जाने लगा जहां मुख्य रूप से नीग्रो और एशिया और अफ्रीका से आये अन्य काले श्रमिक श्रम करते थे। बागान कृषि विश्व के उपोष्णकटिबंधीय गर्म और आर्द्र क्षेत्रों में अपनाई जाती है। बागान कृषि की प्रमुख विशेषताएं निम्नानुसार हैंः
- यह कृषि मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय देशों में नकद फसलें पैदा करने के लिए की जाती है
- बागान धारण का आकार आमतौर पर काफी विशाल होता है
- यह एक विशेष प्रकार की वाणिज्यिक कृषि है
- बागान कृषि में भूमि रबर, तेल पाम, खोपरा, कपास, चाय, कॉफी, पटसन, मसालों, कोको, अनन्नास, केला, गन्ना और जूट को समर्पित होती है
- यह कृषि विशेष कौशल, और जहां संभव है वहां मशीन के उपयोग के साथ की जाती है
- उर्वरकों, और कीटनाशकों का उपयोग भारी मात्रा में किया जाता है
- इसका लक्ष्य उच्च उत्पादन होता है
- अधिकांश बागानों में विपणन योग्य उत्पादों के उत्पादन के लिए कारखाने लगे होते हैं
- यह बडे़ पैमाने पर सस्ते श्रम के शोषण पर आधारित होती है, और
- विश्व मांग और विनिर्देशों की पूर्ति के लिए अंतिम उत्पादों का पूर्ण रूप से प्रसंस्करण और मानकीकरण करना आवश्यक होता है।
2.6 विस्तृत कृषि (Extensive agriculture)
व्यापक कृषि में खेती की जाने वाली भूमि के सापेक्ष श्रम, उर्वरक एवं पूंजी की छोटे निविष्टियों का उपयोग किया जाता है। यह सघन कृषि (औद्योगिक या निर्वाह) के ठीक विपरीत है। विस्तृत कृषि मध्य अक्षांशों के उन स्थानों पर अपनाई जाती है जो समुद्री प्रभाव से दूर होती है, और जहां 60 सेंटीमीटर से कम वर्षा दर्ज होती है। इस प्रकार की कृषि रूस, मध्य एशिया और उत्तरी अमेरिका के मध्य एवं पश्चिमी मैदानों के स्टेपी में अच्छी तरह से विकसित हुई है। विस्तृत कृषि की मुख्य विशेषताएं निम्नानुसार हैंः
- यह कृषि उच्च यांत्रिक सहायता द्वारा की जाती है
- इस कृषि में कृषि भू-धारण का आकार विशाल होता है, जो 240 से 16,000 हेक्टेयर क्षेत्र तक हो सकता है
- इस प्रकार की कृषि में श्रम का उपयोग अत्यंत कम मात्रा में किया जाता है
- इस प्रकार की कृषि का प्रति हेक्टेयर उत्पादन कम होता है
- यह कृषि मुख्य रूप से छितरी हुई जनसंख्या वाले क्षेत्रों में की जाती है, और
- गेहूं का मोनोकल्चर इसकी प्रमुख फसल पद्धति होती है। अन्य फसलों में जौ, जई, राई, पटसन और तेलबीज महत्वपूर्ण हैं।
2.7 भूमध्यसागरीय कृषि व्यवस्था (Mediterranean agricultural system)
इस प्रकार की कृषि यूरोप, एशिया माइनर, कैलिफोर्निया, मध्य चिली, दक्षिण अफ्रीका के केप प्रांत और तस्मानिया सहित पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के दक्षिण-पश्चिम के भूमध्यसागरीय तटीय क्षेत्रों तक ही सीमित है। भूमध्यसागरीय कृषि की प्रमुख विशेषताएं निम्नानुसार हैं
- यह कृषि नीबू वंश फलों के फलोद्यानों में विशेषज्ञ कृषि होती है। अनाज की फसलें वृक्ष फसलों की गौण फसलें होती हैं
- गेहूं और जौ सर्दी के मौसम की मुख्य फसलें होती हैं
- कृषि भू-धारण का आकार मध्यम से लेकर विशाल हो सकता है
- खेतों का आकार अनियमित होता है
- कृषि क्षेत्र के व्यापक भाग पर अंगूर, अंजीर, जैतून इत्यादि की बेलें और वृक्ष पाये जाते हैं
- पहाड़ी क्षेत्रों में भेड़ पालन काफी आम है, और
- सामान्यतः कृषि समुदाय संपन्न और आर्थिक दृष्टि से समृद्ध होता है
2.8 मिश्रित कृषि या वाणिज्यिक फसलें और पशुधन (Mixed farming)
मिश्रित कृषि, कृषि का वह प्रकार होता है जिसमें कृषि फसलें और पशुधन, दोनों शामिल होते हैं। यह कृषि यूरेशिया सहित यूरोप, और (90 अंश देशांतर रेखा के पूर्व में) उत्तरी अमेरिका के सभी भागों में पाई जाती है। मिश्रित कृषि की प्रमुख विशेषताएं नीचे दी गई हैंः
- यह कृषि समशीतोष्ण अक्षांशों के सघन जनसंख्या वाले और शहरी क्षेत्रों में अपनाई जाती है
- कृषि भू-धारण का आकार विशाल होता है
- यह कृषि उच्च दर्जे की यांत्रिक कृषि होती है
- यह कृषि उच्च कृषि प्रतिफल प्रदान करती है
- पशुधन, सूअरों और मुर्गियों को खिलाये जाने वाले खाद्यान्नों की कृषि की जाती है
- कृषि भूमि चारे और मक्के की फसलों को समर्पित होती है
- सर्दियों के मौसम में पशुधन को चारे की फसलें, सूखा चारा, ठोस आहार और सांद्र आहार खिलाया जाता है
- पशुधन को कृषकों की दैनिक नियमित देखभाल की आवश्यकता होती है
- कृषि श्रमिकों की मजदूरी काफी अधिक होती है, जिसके कारण खेतों पर विविध प्रकार के पशुओं का रखरखाव करना कठिन हो गया है, और
- मिश्रित कृषि करने वाले कृषकों की प्रति व्यक्ति आय और उनका जीवन स्तर अत्यंत उच्च होता है।
2.9 गोशाला या डेरीफार्म (Dairy farming)
दूध और दुग्ध उत्पादों (मक्खन, पनीर, दही, मावा और पाउडर दूध) के लिए गाय-बैल रखने के व्यवसाय को डेरीफार्मिंग कहा जाता है। इसे मुख्य रूप से यूरोप, उत्तर और दक्षिण अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के समशीतोष्ण देशों में अपनाया जाता है। डेरीफार्मिंग की प्रमुख विशेषताएं निम्नानुसार हैंः
- डेरीफार्मिंग एक पूंजी सघन कृषि है। पशुधन के लिए उचित अधोसंरचना का निर्माण करने के लिए भारी मात्रा में पूंजी की आवश्यकता होती है
- यह कृषि उच्च यांत्रिक कृषि का प्रकार है
- गायों का रखरखाव और देखभाल करने के लिए कृषकों को काफी समय देना पड़ता है
- इस प्रकार की कृषि में पशुधन और कृषि योग्य भूमि का एक निश्चित अनुपात होता है। उदाहरणार्थ ब्रिटेन में यह अनुपात है प्रति एकड़ एक गाय, और
- डेरीफार्मिंग कृषकों को अच्छा धन प्रदान करती है। इसके परिणामस्वरूप डेरीफार्मिंग करने वाले कृषकों का जीवन स्तर काफी उच्च होता है।
2.10 बागबानी या उद्यान विज्ञान (ट्रक कृषि) (Horticulture).
सब्जियों, फलों और फूलों की विशेषीकृत कृषि को बागबानी या ट्रक कृषि कहा जाता है। इस प्रकार की कृषि उत्तर पूर्वी अमेरिका, कनाडा (सरोवर क्षेत्र) के उच्च औद्योगिक, शहरी क्षेत्रों और उत्तर-पश्चिम यूरोप, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के महानगरीय क्षेत्रों के उपनगरों में अपनाई जाती है। विकसित देशों के शहरी जिलों में सब्जियों और फलों की भारी मांग रहती है। इस प्रकार की कृषि की प्रमुख विशेषताएं निम्नानुसार हैंः
- कृषि भू-धारण का आकार अपेक्षाकृत छोटा होता है
- फलोद्यान पक्की सड़कों से अच्छी तरह से जुडे़ होते हैं
- उद्यान या ट्रक खेत आमतौर पर बाजार से रात भर की दूरी पर स्थित होते है
- इस प्रकार की कृषि काफी पूंजी सघन और उच्च यांत्रिक कृषि होती है
- इस प्रकार की कृषि वैज्ञानिक आधार पर की जाती है, और
- सब्जियों और फलों की कटाई की जाती है
3.0 मत्स्य ग्रहण और वानिकी (Fishing and Forestry)
मत्स्य ग्रहण और वानिकी में प्रकृति से कच्चे माल को इकठ्ठा करना या उसकी कटाई करना शामिल है। मत्स्य ग्रहण और वानिकी महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियाँ हैं जो विकसित और विकासशील देशों में बड़ी संख्या में लोगों को रोज़गार प्रदान करती हैं। साथ ही ये गतिविधियाँ भोजन, निर्माण सामग्री और व्यापार के महत्वपूर्ण स्रोत भी हैं।
विश्व के तटीय क्षेत्रों में, विशेष रूप से समशीतोष्ण अक्षांशों के तटीय क्षेत्रों में मत्स्य ग्रहण एक महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्था है। मत्स्य ग्रहण को दो समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता हैः
- मीठे पानी की मछलियाँ, और
- समुद्री मछलियाँ
मीठे पानी की, और समुद्री मछलियों, दोनों प्रकार की मछलियों की दृष्टि से चीन एक प्रमुख उत्पादक है। विश्व के मुख्य मत्स्य ग्रहण क्षेत्र निम्नानुसार हैंः
3.1 उत्तर पूर्वी अटलांटिक क्षेत्र
यह क्षेत्र यूरोप के पश्चिमी भाग में पुर्तगाल के तट से लेकर नॉर्वे के तट तक फैला हुआ है, जिसमें उत्तरी सागर भी शामिल है। उत्तर अटलांटिक बहाव (गल्फ स्ट्रीम) का गर्म जल उत्तरी सागर के तट को वर्ष भर खुला रखता है। उत्तरी सागर में स्थित डॉगर बैंक विश्व के सबसे महत्वपूर्ण मत्स्य ग्रहण क्षेत्रों में से एक है। इस क्षेत्र में पकडी जाने वाली मछलियों में कॉड और हेरिंग मछली प्रजातियां महत्वपूर्ण हैं। प्रमुख मत्स्य ग्रहण देशों में बेल्जियम, डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, आइसलैंड, आयरलैंड, नेदरलैंड्स, नॉर्वे, स्पेन, स्वीडन और यू.के. शामिल हैं।
3.2 उत्तर पश्चिमी अटलांटिक तटीय क्षेत्र
यह मत्स्य ग्रहण क्षेत्र न्यूफाउंड़लैंड़ (कनाड़ा) के आसपास स्थित है। यहां महाद्वीपीय जल सीमा काफी चौडी है, जिसे ग्रैंड बैंक्स और गॉर्जेस बैंक्स कहा जाता है। गल्फ स्ट्रीम का गर्म जल और लैब्राडोर धारा का ठंडा जल इस क्षेत्र में मिलते हैं। ये स्थितियां प्लवक के तेज गति के विकास की दृष्टि से आदर्श स्थितियां होती हैं। इसके परिणामस्वरूप ये किनारे मछलियों से भरपूर हैं। इस क्षेत्र की प्रमुख मछलियाँ हैं कॉड, हेडेक, हेरिंग, झींगा मछली, घोंघा (सीप) और पर्च। दक्षिणी भाग के गर्म जल में श्रिम्प एक महत्वपूर्ण पकड़ है। सेंट जॉनश्स, शार्लेटटाउन, हैलिफैक्स, पोर्टलैंड, बोस्टन और न्यूयॉर्क इस क्षेत्र के महत्वपूर्ण मत्स्य ग्रहण पोत क्षेत्र हैं।
3.3 उत्तर पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र
यह क्षेत्र उत्तर में बेरिंग सागर से लेकर दक्षिण में फिलीपींस तक फैला हुआ है। कुरोसिवो (Kurosiw) की गर्म धारा और ठंडी ओयसीवो (Oyasiwo) धाराएं होंशू द्वीप (जापान) के पूर्वी क्षेत्र में अभिसरित होती हैं। गर्म और ठंडी धाराओं का विलय मछलियों की संख्या में तीव्र वृद्धि के लिए आदर्श स्थितियां निर्माण करता है। चीन, जापान, उत्तर एवं दक्षिण कोरिया और रूस के मछुआरे इस क्षेत्र के प्रमुख मछली पकड़ने वालों में शामिल हैं।
3.4 उत्तर-पूर्वी प्रशांत क्षेत्र
यह क्षेत्र कनाडा और अमेरिका के तटों पर अलास्का से कैलिफोर्निया तक फैला हुआ है। उत्तर प्रशांत बहाव इस क्षेत्र में गर्म जल लाता है, जो इस तट को वर्ष भर खुला रखता है। इस क्षेत्र में पाई जाने वाली मछली प्रजातियां हैं हलिबेट (चपटे आकार की समुद्री मछली), पिल्चर्ड, सालमन, सारडाइन और टूना। इस तट के मुख्य पोत क्षेत्र, जहां मत्स्य उद्योग महत्वपूर्ण है, वे हैं एंकरेज (अलास्का), वैंकूवर (कनाडा), सैन फ्रांसिस्को और लॉस एंजिल्स (अमेरिका)।
मत्स्य ग्रहण अधिकांश जनसंख्या के आहार में प्रोटीन का महत्वपूर्ण स्रोत प्रदान करता है। लगभग 90 प्रतिशत मछली समुद्र से पकडी जाती है, जबकि बची हुई 10 प्रतिशत मछली अंतर्देशीय जल निकायों से पकड़ी जाती है।
विश्व में कृषि के प्रकारों की व्यापक सूची
4.0 जलीय कृषि (Aquaculture)
जल में वनस्पति और पशुओं की वाणिज्यिक संवृद्धि को जलीय कृषि कहा जाता है। आज विश्व के कुल मछली उत्पादन में जल संस्कृति का योगदान एक प्रतिशत से भी कम है। चीन और जापान के तटीय क्षेत्र जलीय कृषि की दृष्टि से महत्वपूर्ण जाने-माने क्षेत्र हैं। मॉनसूनी एशिया के देशों में मछलियों का संवर्धन चावल के धान खेतों में एक सहायक कृषि गतिविधि के रूप में भी किया जाता है। हाल के वर्षों में जापानी कृषकों ने मछली उत्पादन के लिए कुछ चावल के धान खेतों को स्थाई रूप से डोंगी तालाबों के रूप में परिवर्तित कर दिया है। अमेरिका में कैटफिश का वाणिज्यिक उत्पादन अनेक दक्षिणी राज्यों में एक बड़ा कृषि उद्योग बन गया है। मनुष्य के आहार में मछलियों के उपभोग का भविष्य उज्वल बना हुआ है। विकासशील देश निर्यात की तुलना में अपने घरेलू बाजारों के लिए मछलियों का अधिक उत्पादन करना शुरू कर देंगे। संयुक्त राष्ट्र संघ के 1982 के समुद्री कानून के सम्मेलन के अनुसार प्रादेशिक समुद्री सीमा तट से 12 मील की है, निकटवर्ती क्षेत्र 24 मील का है, और 200 मील अनन्य आर्थिक क्षेत्र है, जैसा कि समुद्री कानून की संधि में बताया गया है। तटीय समुद्री जल का प्रदूषण विश्व मत्स्य ग्रहण के लिए खतरा बना हुआ है। कैडमियम, सीसा, और पारे जैसी भारी धातु औद्योगिक क्षेत्रों की नदियों के विसर्जन के माध्यम से तटीय जल में प्रविष्ट हो रही हैं। साथ ही समुद्र में होने वाला तेल रिसाव भी जल संस्कृति को प्रतिकूल प्रभावित कर रहा है।
5.0 वानिकी (Forestry)
समकालीन विश्व में वानिकी एक महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि है। लकड़ी का उपयोग खाना पकाने और गर्मी उत्पन्न करने के लिए ईंधन के रूप में किया जाता है, साथ इसकी आधी मात्रा का उपयोग औद्योगिक कामों के लिए किया जाता है (तख्ते बनाने, लुगदी, सजावटी परत)।
वाणिज्यिक वन दो विशाल वैश्विक पट्टों में पाये जाते हैं। इनमें से एक पट्टा उत्तरी गोलार्ध के उच्च अक्षांशों के लगभग संपूर्ण विश्व को व्याप्त कर लेता है। दूसरा वानिकी पट्टा भूमध्यरेखीय क्षेत्र में स्थित है, जिसमें दक्षिण अमेरिका और मध्य अफ्रीका के विशाल भाग शामिल हैं। उष्णकटिबंधीय क्षेत्र की मुख्य प्रजातियां जिनकी भारी मांग है वे हैं महोगनी, देवदार, सागौन, आबनूस और गुलमेंहदी। साथ ही जापान, दक्षिणी संयुक्त राज्य अमेरिका, मैडागास्कर, चिली, म्यांमार, थाईलैंड, दक्षिण पूर्वी ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, और कुछ पूर्वी यूरोपीय देशों में वन उत्पाद काफी महत्वपूर्ण हैं। अमेज़ॉन नदी घाटी विश्व के सबसे बडे़ भूमध्यरेखीय वन क्षेत्रों में से एक है। अमेजॉन नदी घाटी के वन को ‘‘सेल्वास‘‘ कहा जाता है।
विश्व के सबसे ऊंचे वृक्ष उत्तरी कैलिफोर्निया के देवदार और चीड़ के वनों में उगते हैं, जहां विशाल रक्तदारु वृक्ष लगभग 100 मीटर की ऊँचाई और 6 मीटर का व्यास लिए होते हैं। कैलिफोर्निया के डगलस देवदार वृक्ष लगभग 100 मीटर ऊंचे होते हैं। मध्य अक्षांशों के मजबूत लकड़ी के पर्णपाती वृक्षों में शाहबलूत, अखरोट, अमरीकी वृक्ष, चिनार, सनौबर और बीच के वृक्ष शामिल हैं।
औद्योगिक इमारती लकड़ी के प्रमुख उत्पादक देशों में अमेरिका, रूस और कनाडा शामिल हैं, जबकि भारत जलाऊ लकड़ी का सबसे बड़ा उत्पादक है, जिसके बाद ब्राजील और चीन का क्रमांक आता है।
6.0 खाद्य अपूर्ति और भविष्य
अब तक, विश्व कृषि फसल और पशुधन उत्पादों की बढ़ती मांग की आपूर्ति करने में सक्षम हुई है। हालांकि 1960 और 2000 के बीच विश्व की जनसंख्या दुगनी हुई है, और पोषकता के स्तरों में उल्लेखनीय सुधार हुआ है, फिर भी चावल, गेहूं और मक्के - जो विश्व के प्रमुख मुख्य आहार हैं - के मूल्यों में लगभग 60 प्रतिशत की गिरावट हुई है। मूल्यों में हुई यह गिरावट दर्शाती हैं कि वैश्विक स्तर पर आपूर्तियों ने न केवल मांग गति बनाकर रखी है बल्कि यहां तक कि कई बार आपूर्ति का स्तर मांग के स्तर से अधिक भी रहा है।
हालांकि कृषि उत्पादों की वैश्विक मांग निरंतर रूप से बढ़ती रही है, फिर भी हाल के दशकों में वृद्धि की दर कुछ हद तक कम रही है। 1969 और 1989 के बीच मांग में प्रति वर्ष औसत लगभग 2.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई, परंतु 1989 से एक दशक के दौरान यह मात्र 2 प्रतिशत तक गिर गई।
अस्थाई कारकों के अतिरिक्त (इनमें से सबसे प्रमुख कारक था संक्रमण अर्थव्यवस्थाओं में 1990 के दशक में उपभोग में आई कमी) इस मंदी के दो अधिक स्थाई कारण थेः विश्व जनसंख्या वृद्धि की दर 1960 के दशक के अंत में 2 प्रतिशत प्रति वर्ष के अपने शीर्ष स्तर पर थी, परंतु उसके बाद यह धीमी हो गई।
विश्व जनसंख्या का बढ़ता अनुपात खाद्य उपभोग के काफी उच्च स्तर तक पहुंच गया था, अतः और अधिक वृद्धि की संभावना अत्यंत सीमित हो गई थी। 1997-99 तक विश्व की 61 प्रतिशत जनसंख्या ऐसे देशों में रह रही थी जहां प्रति व्यक्ति औसत खाद्य उपभोग 2700 के कैलोरी प्रतिदिन से अधिक था। हालांकि कृषि उत्पादों की मांग का धीमी गति से बढ़ना जारी रहेगा।
6.1 विकासशील देशों में आहारीय परिवर्तन, 1964-66 से 2030
जैसे-जैसे विश्व का औसत कैलोरी ग्रहण बढ़ा है, वैसे ही लोगों के आहार में भी परिवर्तन हुआ है। खाद्य उपभोग की प्रवृत्तियाँ संपूर्ण विश्व में समान होती जा रही हैं, जिनमें उच्च गुणवत्ता और मांस और डेरी उत्पादों जैसे महंगे खाद्य पदार्थों का समावेश किया जा रहा है।
यह प्रवृत्ति आंशिक रूप से साधारण वरीयताओं के कारण हुई है। साथ ही आंशिक रूप से यह प्रवृत्ति खाद्यान्नों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से लेकर वैश्विक फास्ट फूड श्रृंखलाओं के विस्तार और उत्तरी अमेरिकी और यूरोपीय आहार आदतों के अनावरण तक के कारण भी हुई है। सुविधा की भी इसमें अपनी एक भूमिका होती है, उदाहरणार्थ जड़ सब्जियों की तुलना में तैयार ब्रेड या पिज्जा की संहवरणात्मकता और बनाने में आसानी। आहार में परिवर्तन का निकट संबंध आय में वृद्धि से भी होता है, और यह संबंध भूगोल, इतिहास, संस्कृति या धर्म भिन्नता के बावजूद लगभग सभी स्थानों पर पाया जाता है। हालांकि समान आय स्तर वाले देशों के बीच सांस्.तिक और धार्मिक कारक अंतर को निश्चित रूप से स्पष्ट करते हैं। उदाहरणार्थ, हिंदू आम तौर पर गौमांस या सामान्यतया मांस से परहेज करते हैं, उसी प्रकार मुस्लिम और यहूदी समुदाय सूअर के मांस से परहेज करते हैं। समान स्तरों के बावजूद जापानी लोग श्वेतसार विहीन खाद्यों से अमेरिकी लोगों की तुलना में कम कैलोरी ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार थाई लोग ब्राजील के लोगों की तुलना में कम कैलोरी का ग्रहण करते हैं।
आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के उच्च आय देशों के बीच आहारीय अभिसरण काफी अधिक है, जहां की खाद्य उपभोग की प्रवृत्ति मेरिका के साथ 75 प्रतिशत अतिव्यापन दर्शाती है, जिसका अर्थ यह है कि 75 प्रतिशत प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद समान कच्चे माल पर आधारित होते हैं। यहां तक कि जापान भी अन्य ओईसीडी देशों के निकट बढ़ता रहा है, जहां अतिव्यापन 1961 के 45 प्रतिशत से 1999 में बढ़कर लगभग 70 प्रतिशत हो गया है। उत्तरी अमेरिका की आहारीय पद्धतियों की ओर अभिसरण विकासशील देशों के कुछ अन्य समूहों में भी दिखाई दे रहा है, हालांकि कुछ मामलों में यह काफी धीमा है, विशेष रूप से बंदरगाह विहीन देशों में या राजनीतिक दृष्टि से अलग-थलग पडे़ देशों में, जहां अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव कम आसानी से पैठ बना पाते हैं। हालांकि सांस्कृतिक कारक अभिसरण को लगभग 80 प्रतिशत तक की एक उच्च सीमा तक सीमित करते हुए प्रतीत होते हैं, कम से कम कुछ समय के लिए तो निश्चित रूप से ऐसा है।
आहार में हुए इन परिवर्तनों का कृषि उत्पादों की वैश्विक मांग पर भी प्रभाव पड़ा है, और यह प्रभाव जारी रहेगा। उदाहरणार्थ विकासशील देशों में मांस का उपभोग 1964-66 के मात्र 10 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष से 1997-99 में बढ़कर 26 किलोग्राम हो गया। और ऐसा अनुमान है कि इसमें अभी और वृद्धि होगी, और 2030 तक यह बढ़कर 37 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष हो जायेगा। दूध और डेरी उत्पादों के उपभोग में भी तीव्र वृद्धि देखी गई है, जो 1964-66 के 28 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष से वर्तमान में बढ़कर 45 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष हो गए हैं, और ऐसा अनुमान है कि 2030 तक इनका उपभोग बढ़कर 66 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष हो जायेगा। चीनी और वनस्पति तेलों से प्राप्त कैलोरीज के अंतर्ग्रहण में भी वृद्धि होने का अनुमान है। हालांकि अनाजों, दलहनों, जड़ खाद्यों और कंदों का औसत मानवी उपभोग घटने का अनुमान है।
अल्प पोषण की समस्या अधिक सुलझने-योग्य हो जाना चाहिए। अनुमानों से यह निष्कर्ष निकलता है कि भविष्य में अल्प पोषण की समस्या सुलझेगी। इसके दो प्रमुख प्रभाव होंगेः जैसे-जैसे अल्प पोषण की घटनाओं में कमी होगी, वैसे-वैसे अधिकाधिक देशों के लिए इस समस्या को राष्ट्रीय नीतिगत हस्तक्षेपों के माध्यम से संबोधित करना आसान होता जायेगा। 2030 तक विकासशील देशों की तीन चौथाई जनसंख्या ऐसे देशों में रह रही होगी जहां 5 प्रतिशत से कम लोग अल्प पोषित हैं, वर्तमान में यह प्रतिशत 7.7 है। यह नाटकीय परिवर्तन इसलिए होगा क्योंकि सर्वाधिक जनसंख्या वाले अधिकांश देश (ब्राजील, चीन, भारत, इंडोनेशिया, ईरान का इस्लामिक गणराज्य, मेक्सिको और पाकिस्तान) ‘‘5 प्रतिशत से कम‘‘ की श्रेणी में आ जायेंगे।
समय के साथ ही गंभीर अल्प पोषण की समस्या का सामना कर रहे देशों की संख्या कम होती जाएगी। अंतर्राष्ट्रीय नीतिगत प्रतिक्रियाएं अधिकाधिक व्यवहार्य और प्रभावी होती जाएँगी, क्योंकि इस संपूर्ण प्रक्रिया के कुल प्रयास को अधिक स्थानों पर प्रसारित करने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। उदाहरणार्थ यदि अनुमान सही साबित होते हैं, तो 25 प्रतिशत से अधिक अल्प पोषण वाले देशों की संख्या वर्तमान के 35 प्रतिशत (जो विकासशील देशों की कुल जनसंख्या का 13 प्रतिशत है) से घटकर 2030 में 15 प्रतिशत रह जाएगी। (जो विकासशील देशों की कुल जनसंख्या का मात्र 3.5 प्रतिशत होगा)
अब तक, विश्व कृषि फसल और पशुधन उत्पादों की बढ़ती मांग की आपूर्ति करने में सक्षम हुई है। हालांकि 1960 और 2000 के बीच विश्व की जनसंख्या दुगनी हुई है, और पोषकता के स्तरों में उल्लेखनीय सुधार हुआ है, फिर भी चावल, गेहूं और मक्के - जो विश्व के प्रमुख मुख्य आहार हैं- के मूल्यों में लगभग 60 प्रतिशत की गिरावट हुई है। मूल्यों में हुई यह गिरावट दर्शाती हैं कि वैश्विक स्तर पर आपूर्तियों ने न केवल मांग के साथ गति बनाकर रखी है बल्कि यहां तक कि कई बार आपूर्ति का स्तर मांग के स्तर से अधिक भी रहा है।
6.2 अल्पपोषण की समस्या
जबकि पूर्वी अफ्रीका की जनसंख्या में केवल 0.4 प्रतिशत प्रति वर्ष की वृद्धि होगी, वहीं उप सहाराई अफ्रीका फिर भी 2.1 प्रतिशत की दर से वृद्धि करता रहेगा। 2030 तक विश्व जनसंख्या में जुड़ा प्रत्येक तीसरा व्यक्ति उप सहाराई अफ्रीकी होगा। 2050 तक यह अनुपात बढ़ कर प्रत्येक दूसरा व्यक्ति हो जायेगा।
खाद्य की मांग को निर्धारित करने वाला दूसरा प्रमुख कारक है आय में होने वाली वृद्धि। भविष्य की आर्थिक संवृद्धि के विषय में विश्व बैंक का नवीनतम मूल्यांकन इसके पूर्ववर्तियों की तुलना में कम आशावादी है, फिर भी यह 2000 और 2015 के बीच प्रतिव्यक्ति आय में प्रति वर्ष 1.9 प्रतिशत की दर से वृद्धि का अनुमान व्यक्त करता है, जो 1990 के दशक में देखी गई 1.2 प्रतिशत की वृद्धि दर से अधिक है।
इस समग्र आर्थिक परिदृश्य में गरीबी के भार की स्थिति क्या होगी, यह खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि गरीबी और भुखमरी का निकट संबंध है। विश्व बैंक ने अपने आर्थिक संवृद्धि के अनुमानों के 2015 तक गरीबी उन्मूलन पर होने वाले प्रभावों का आकलन किया है। 2015 तक संपूर्ण गरीबी - जिसे 1 डॉलर प्रतिदिन से कम आय के रूप में परिभाषित किया गया है- में रहने वाले लोगों के अनुपात को 1990 के स्तर से आधा करने के लक्ष्य को प्राप्त करना संभव प्रतीत होता है।
हालांकि गरीब व्यक्तियों की संख्या को आधा करना संभव नहीं है। यह 1990 के 1.27 बिलियन के स्तर से कम होकर 2015 में 0.75 बिलियन हो जाएगी। इसमें से अधिकांश गिरावट पूर्वी और दक्षिण एशिया में होने वाले विकास के कारण होगी। निश्चित ही पूर्वी अफ्रीका के लिए अनुमानित 400 मिलियन की गिरावट के आधे स्तर को वर्तमान में ही प्राप्त किया जा चुका है।
केवल उप-सहाराई अफ्रीका में, जहां आय के स्तर बहुत ही धीमी गति से बढ़ने का अनुमान है, गरीबी में रहने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि संभव है, जो 1990 के 240 मिलियन से 2015 में बड़कर 345 मिलियन हो जाएगी। उस समय तक, इस क्षेत्र के प्रत्येक पांच लोगों में से दो लोग गरीबी में रह रहे होंगे।
औसत पोषण में सुधार होगा, परंतु अल्पपोषण में गिरावट केवल बहुत धीमी गीत से ही होगी।
जनसंख्या में होने वाले इन परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में, पोषण में सुधार की प्रगति जारी रहने का अनुमान है, हालांकि यह सुधार पूर्व में हुए सुधार की गति से धीमी गति से होंगे। विकासशील देशों में औसत प्रति व्यक्ति खाद्य उपभोग 6.3 प्रतिशत से बढ़ने का अनुमान है, जो 1997-99 के 2680 के कैलोरी से 2015 में बढ़कर 2850 के कैलोरी हो जायेगा। यह 1974-76 और 1997-99 के बीच प्राप्त की गई वृद्धि का एक तिहाई है।
यह मंदी उत्पादन सीमाओं के कारण नहीं हो रही है, बल्कि यह इसलिए हो रही है क्योंकि अनेक देश अब मध्यम से उच्च उपभोग के स्तर तक पहुंच गए हैं, जिसके बाद अधिक वृद्धि की संभावना कम हो जाती है। चीन जैसे विशाल देश, जहां प्रति व्यक्ति उपभोग 1970 के दशक के मध्य के 2050 के कैलोरी से आज बढ़कर 3000 के कैलोरी से अधिक हो गया है, पहले ही तीव्र वृद्धि के चरण को पार कर चुके हैं। अनुमान अवधि के दौरान अधिकाधिक देश इन स्तरों को प्राप्त करते चले जायेंगे।
2030 तक विकासशील विश्व की तीन चौथाई जनसंख्या ऐसे देशों में रहने लग जाएगी जहां 5 प्रतिशत से कम लोग अल्पपोषित हैं। वर्तमान में ऐसे देशों में प्रत्येक 13 व्यक्तियों में अल्पपोषण में रह रहा व्यक्ति केवल 1 है।
1996 के विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन में 2015 तक विकासशील देशों के अल्पपोषित लोगों की संख्या को आधार अवधि 1990-92 की तुलना में आधा करने लक्ष्य निर्धारित किया गया था। विश्व कृषि संगठन के अध्ययन ने पाया है कि अल्पपोषित लोगों का अनुपात 1990 -92 के 20 प्रतिशत से तेजी से गिरकर 2105 तक 11 प्रतिशत हो जायेगा, और आगे 2030 तक यह और अधिक गिर कर 6 प्रतिशत रह जायेगा। हालांकि संख्यात्मक दृष्टि से विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन के लक्ष्य को प्राप्त करना संभव नहीं लगता। शायद अल्पपोषित व्यक्तियों की संख्या 1990-92 के 815 मिलियन से घटकर 2015 तक 610 मिलियन हो सकती है। परंतु 2030 तक इस संख्या का 440 मिलियन तक कम होना संभव नहीं है, और इस प्रकार 2015 के लक्ष्य की ओर बढ़ा जा सकेगा।
प्रतिदिन 2200 के कैलोरी से कम प्रति व्यक्ति खाद्य उपभोग करने वाले लोगों वाले देशों की विश्व जनसंख्या 2030 में केवल 2.4 प्रतिशत तक गिरेगी। अल्पपोषित व्यक्तियों की संख्या में गिरावट कुछ क्षेत्रों में उल्लेखनीय होगीः उदाहरणार्थ दक्षिण एशिया में यह 1997-99 के 303 मिलियन से 2030 तक घटकर 119 मिलियन हो सकती है, पूर्वी एशिया में यह संख्या अपने वर्तमान 193 मिलियन के स्तर आधी हो सकती है।
इसके विपरीत, उप सहाराई अफ्रीका और निकट पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में अल्पपोषित व्यक्तियों की संख्या में बहुत कम या कोई गिरावट होने की संभावना नहीं है, हालांकि इसका अनुपात लगभग आधा हो जायेगा। 2030 तक उप सहाराई अफ्रीका को छोड़कर अन्य सभी क्षेत्रों में अल्पपोषितों के भार में 4 से 6 प्रतिशत के बीच गिरावट हो सकती है, जो आज के 9 से 24 प्रतिशत के स्तर से नीचे होगी। उप सहाराई अफ्रीका में 2030 तक 15 प्रतिशत जनसंख्या, या 183 मिलियन लोग फिर भी अल्पपोषित बने रहेंगे। यह समग्र रूप से किसी भी क्षेत्र के लिए सर्वोच्च स्तर होगा, और जो 1997-99 के स्तर से केवल 11 मिलियन कम होगा। अतः उप सहाराई अफ्रीका का भविष्य गंभीर चिंता का विषय है।
जैसे-जैसे आय में वृद्धि होगी, खाद्यान्नों तक पहुंच अधिक समान होती जाएगी। क्योंकि गरीब लोग अपनी बढ़ी हुई आय का एक बड़ा भाग खाद्य पर खर्च करते हैं, परंतु संपन्न लोगों को जितना खाद्यान्न चाहिए उसकी एक उच्च सीमा है। इस बढी हुई समानता का अल्पपोषित व्यक्तियों की संख्या पर व्यापक प्रभाव होगा। उदाहरणार्थ 44 देशों में, जिनका औसत प्रतिदिन खाद्य ग्रहण 2015 में 2700 के कैलोरी से अधिक होगा, अल्पपोषित व्यक्तियों की संख्या 295 मिलियन रहने का अनुमान है। परंतु यदि खाद्यान्नों तक पहुंच में असमानता आज के स्तर से अपरिवर्तित बनी रहती है तो यह संख्या 400 मिलियन होगी।
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