यूपीएससी तैयारी - विश्व एवं भारतीय भूगोल - व्याख्यान - 20

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भारत - जलवायु

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1.0 प्रस्तावना

जलवायु एक लंबी समयावधि (तीस वर्षों से अधिक) के लिए एक बड़े क्षेत्र में मौसम की स्थिति के कुल योग को दर्शाता है। मौसम समय के किसी भी बिंदु पर एक क्षेत्र में वातावरण की स्थिति को दर्शाता है। मौसम और जलवायु के तत्व सामान हैं, अर्थात, तापमान, वायुमंडलीय दबाव, हवा, आर्द्रता और वर्षा। 

हमने यह अनुभव किया ही है कि मौसम की स्थिति में एक दिन के भीतर भी बहुत बार उतार-चढ़ाव हो जाते हैं। परंतु कुछ हफ्तों या महीनों के दौरान एक समान परिपाटी अनुभव करने को मिलती है, अर्थात दिन गर्म हैं या ठंड़े हैं, तेज गति से हवा चल रही है, या हवा बंद है, बादल छाए हैं या तेज धूप खिली है, हवा में नमी है या हवा शुष्क है। सामान्यीकृत मासिक वातावरण की स्थिति के आधार पर, वर्ष को सर्दी, गर्मी या वर्षा जैसी ऋतुओं में विभाजित किया जाता है। गर्मी के मौसम में राजस्थान के मरुस्थलीय क्षेत्र में तापमान 50 डिग्री होता है, जबकि जम्मू एवं कश्मीर के पहलगाम में तापमान 20 डिग्री होता है। 

सर्दी के मौसम की रातों में जम्मू एवं कश्मीर के द्रास क्षेत्र का तापमान -45 डिग्री रहता है, जबकि तिरुवनंतपुरम जैसे शहर का तापमान 20 डिग्री है। वर्षा भी मात्रा और वितरण के मान के अनुसार बदलती है। हिमालय के क्षेत्रों में वर्षा बर्फ की बूंदों के रूप में होती है, जबकि देश के बाकी भागों में यह सामान्य वर्षा के रूप में होती है। इसी प्रकार, मेघालय जैसे देश के कुछ भागों में 1200 मि.मि. वर्षा होती है तो लदाख और पश्चिमी राजस्थान में 102 मि.मि. वर्षा होती है। 

तटीय क्षेत्र में वर्षा में भिन्नता कम मात्रा में पायी जाती है, जबकि देश के अंदरूनी भागों में मौसमी बदलाव अधिक होते हैं। इस प्रकार, भारतीय लोग खान-पान, वस्त्रोपयोग, निवास और संस्कृति में विविधता में एकता का प्रदर्शन करते हैं!

2.0 भारत की जलवायु को निर्धारित करने वाले कारक 

भारत की जलवायु कई कारकों द्वारा नियंत्रित होती है, जिन्हें मोटे तौर पर दो समूहों में विभाजित किया जा सकता है 

  1. स्थान और प्राकृतिक भूगोल से संबंधित कारक और 
  2. हवा के दबाव और हवाओं से सम्बंधित कारक। 

2.1 स्थान और स्थलाकृति अक्षांश से संबंधित कारक

कर्क रेखाः यह पूर्व-पश्चिम दिशा में भारत के मध्य भाग से होकर गुजरती है। भारत का उत्तरी भाग उप-उष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण क्षेत्र में आता है, और कर्क रेखा के दक्षिण में आने वाला क्षेत्र उष्णकटिबंधीय क्षेत्र के अंतर्गत आता है। चूंकि उष्णकटिबंधीय क्षेत्र भूमध्य रेखा के नजदीक है, अतः यह क्षेत्र छोटी दैनिक और वार्षिक सीमा के साथ, पूरे वर्ष उच्च तापमान का अनुभव करता है। कर्क रेखा का उत्तरी भाग भूमध्य रेखा से दूर है, अतः यह क्षेत्र उच्च दैनिक और वार्षिक सीमा के साथ चरम जलवायु का अनुभव करता है। 

हिमालय की पर्वत श्रृंखलाः विशाल पर्वत श्रृंखला सर्द उत्तरी हवाओं से उपमहाद्वीप की रक्षा के लिए एक अजेय ढ़ाल प्रदान करती है। हिमालय मानसून हवाओं को अवरुद्ध करता है और उन्हें अपनी नमी को उपमहाद्वीप के भीतर बहाने के लिए मजबूर करता है। 

भूमि और जल का वितरणः दक्षिण में भारत तीन ओर से हिंद महासागर से घिरा हुआ है और उत्तर में एक सतत पर्वत दीवार उसे घेरे हुए है। भूभाग की तुलना में पानी गर्म या ठंडा धीमी गति से होता है। भूभाग और समुद्र के गर्म होने का यह अंतर भारतीय उपमहाद्वीप के अंदर और इसके आसपास अलग-अलग मौसम में अलग-अलग वायु दबाव क्षेत्र निर्मित करता है। वायु दबाव के बीच का अंतर मानसून हवाओं की दिशा में उत्क्रमण का कारण बनता है।

समुद्र से दूरीः भारत का तटीय क्षेत्र काफी विशाल है, और इस विस्तृत तटीय क्षेत्र की जलवायु समशीतोष्ण रहती है। भारत के अंदरूनी भाग समुद्र के मध्यस्थता प्रभाव से काफी दूरी पर हैं। इन क्षेत्रों की जलवायु चरम होती है। इसीलिए मुंबई और कोंकण तट के लोगों को तापमानों की चरम सीमा और मौसम की मौसमी लय के बारे में शायद ही कोई अनुभव है। इसके ठीक विपरीत, दिल्ली, कानपुर और अमृतसर जैसे देश के अंदरूनी भागों में मौसम के मौसमी विरोधाभास जीवन के पूरे क्षेत्र को प्रभावित करते हैं। 

ऊंचाईः बढ़ती ऊंचाई के साथ तापमान घटता जाता है। हवा हल्की (कम घनत्व) होने के कारण पहाड़ी क्षेत्र मैदानी क्षेत्रों की तुलना में ठंडे होते हैं। उदाहरणार्थ, आगरा और दार्जिलिंग समान ऊंचाई पर बसे हुए हैं, परंतु जनवरी के महीने का आगरा का तापमान जहां 16 डिग्री रहता है, वहीं दार्जिलिंग का तापमान मात्र 4 डिग्री होता है। 

प्राकृतिक भूगोलः भारत का प्राकृतिक भूगोल भी तापमान, हवा के दबाव, हवाओं की दिशा और गति और वर्षा की मात्रा और वितरण को प्रभावित करता है। पश्चिमी घाट के वायु की ओर वाले भाग और असम में जून-सितंबर के दौरान तेज और काफी मात्रा में वर्षा होती है, जबकि दक्षिणी पठार और पश्चिमी घाट के वायु की विपरीत दिशा की स्थिति के कारण यह क्षेत्र शुष्क रहता है। 

2.2 वायु दाब और हवा से संबंधित कारक 

भारत की स्थानीय जलवायु की भिन्नता को समझने के लिए हमें निम्न तीन कारकों के तंत्र को समझना पडे़गाः

  1. पृथ्वी की समूची सतह पर वायु दाब और हवाओं का वितरण
  2. वैश्विक मौसम और विभिन्न वायु द्रव्यमानों और जेट धाराओं के प्रवाह को नियंत्रित करने वाले कारकों की वजह से होने वाला ऊपरी वायु परिसंचरण
  3. सर्दियों के मौसम के दौरान पश्चिमी चक्रवात की आमद, जिसे गड़बड़ी (disturbances) भी कहा जाता है, और भारत में दक्षिण पश्चिम मानसून के दौरान होने वाला उष्णकटिबंधीय अवसाद, जो वर्षा के अनुकूल मौसम की स्थिति पैदा करता है 

इन तीन कारकों के तंत्र को वर्ष के सर्दी और गर्मी के मौसमों के सापेक्ष ठीक ढ़ंग से समझा जा सकता है। 

2.3 शीत ऋतु का मौसम का मौसम तंत्र 

सतही दबाव और हवाएंः सर्दी के महीनों में, भारत की मौसमी स्थितियां आमतौर पर मध्य और पश्चिमी एशिया में दबाव के वितरण से प्रभावित होती हैं। सर्दी के दौरान, हिमालय के उत्तरी क्षेत्र में निर्मित एक उच्च दबाव का केंद्र निचली सतह पर उत्तरी भाग से पर्वत श्रृंखला के दक्षिण की ओर भारतीय उपमहाद्वीप की दिशा में हवाओं के प्रवाह को जन्म देता है। मध्य एशिया के ऊपरी भाग में उच्च दबाव वाले क्षेत्र के बाहर निकलने वाली सतही हवाएँ एक शुष्क महाद्वीपीय हवा समूह के रूप में भारत में पहुँचती हैं। ये महाद्वीपीय हवाएं भारत के उत्तरपश्चिमी क्षेत्र में सन्मार्गी हवाओं के संपर्क में आती हैं। हालाँकि संपर्क के इस क्षेत्र की स्थिति स्थिर नहीं है। कभी-कभी ये अपनी स्थिति बदल भी सकती हैं और यह स्थिति परिवर्तन इतना सुदूर पूर्व तक विस्तृत हो सकता है, कि यह गंगा घाटी के मध्य तक पहुँच सकता है। इसका परिणाम यह होता है, कि गंगा घाटी के मध्य तक का भारत का सम्पूर्ण उत्तरपश्चिमी और उत्तरी भाग इन शुष्क उत्तरपश्चिमी हवाओं के प्रभाव में आ जाता है। 

जेट प्रवाह और ऊपरी वायु परिसंचरणः ऊपर वर्णित वायु परिसंचरण केवल पृथ्वी की सतह के पास के वातावरण के निचले स्तर पर ही दिखाई देता है। निचले क्षोभ मंडल के ऊपरी हिस्से में, पृथ्वी सतह से लगभग तीन किलोमीटर ऊपर वायु परिसंचरण के एक भिन्न तंत्र अनुभव होता है। पृथ्वी की सतह के करीब वायुमंडलीय दबाव में होने वाले बदलावों की ऊपरी वायु परिसंचरण के निर्माण में कोई भूमिका नहीं होती। 9-13 किलोमीटर की ऊंचाई वाला पश्चिमी और मध्य एशिया का सम्पूर्ण भाग पश्चिमी हवाओं के प्रभाव में रहता है।

ये हवाएँ मोटे तौर पर तिब्बती उच्चभूमि के समानांतर हिमालय के उत्तरी अक्षांश पर संपूर्ण एशियाई महाद्वीप में बहती हैं। इन्हें जेट प्रवाह कहा जाता है। तिब्बती उच्चभूमि इन जेट प्रवाह की राह में बाधा के रूप में कार्य करती है। परिणामस्वरूप ये जेट प्रवाह विभक्त हो जाती हैं इनकी एक शाखा तिब्बती उच्चभूमि के उत्तर की ओर बहती है, जबकि इसकी दक्षिणी शाखा हिमालय के दक्षिण में पूर्वी दिशा की ओर बहती है। इसकी मध्य स्थिति फरवरी में 200-300 mb स्तर पर 25 डिग्री उत्तर की ओर होती है। ऐसा माना जाता है, कि जेट प्रवाह की इस दक्षिणी शाखा का भारत के सर्दी के मौसम पर महत्वपूर्ण प्रभाव रहता है। 

पश्चिमी चक्रवाती गड़बड़ी और उष्णकटिबंधीय चक्रवातः पश्चिमी चक्रवाती गड़बड़ी, जो भारतीय उपमहाद्वीप में सर्दी के महीनों में पश्चिम और उत्तरपश्चिम से प्रविष्ट होती है, इसकी उत्पत्ति भूमध्य सागर के ऊपर होती है और यह पश्चिमी जेट प्रवाह द्वारा भारत में लायी जाती है। रात्रि के विद्यमान तापमान में वृद्धि आमतौर पर इन चक्रवातीय गड़बड़ियों के आगमन का संकेत देती है। 

उष्णकटिबंधीय चक्रवातः ये चक्रवात बंगाल की खाडी और हिंद महासागर में उत्पन्न होते हैं। ये उष्णकटिबंधीय चक्रवात तीव्र वर्षा और तेज हवा के साथ तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और ओडिशा के तटों से टकराते हैं। हवा की विलक्षण गति और अत्यंत तेज वर्षा के कारण ये अधिकांश चक्रवात भयंकर विनाशकारी होते हैं। 

अंतर उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (आयटीसीजेड): अंतर उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र भूमध्यरेखा पर स्थित एक कम दबाव का क्षेत्र है, जहाँ सन्मार्गी हवाएं एकत्रित होती हैं, और इसलिए, यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां हवाएं ऊपर की ओर उठती हैं। जुलाई में आयटीसीजेड लगभग 20 डिग्री उत्तर अक्षांशों पर स्थित होता है (गंगा के मैदानों के ऊपर), इसे कई बार मानसून द्रोणिका भी कहा जाता है। यह मानसून द्रोणिका उत्तरी और उत्तर पश्चिमी भारत में कम तापीय के विकास को प्रोत्साहित करती है। आयटीसीजेड में बदलाव के कारण दक्षिणी गोलार्द्ध की सन्मार्गी हवाएं भूमध्य रेखा को 40 डिग्री पूर्व से 60 डिग्री पूर्व के मध्य से काटती हैं, और कोरिओलिस बल के कारण दक्षिण पश्चिम से उत्तर पूर्व की ओर बहना शुरू कर देती हैं। यही दक्षिण पश्चिमी मानसून बन जाता है। सर्दियों में, आयटीसीजेड दक्षिण की ओर मुड जाता है, और इसलिए, हवाओं की दिशा उत्तरपूर्व से दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम की ओर हो जाती है। इसे ही उत्तरपूर्वी मानसून कहा जाता है। 

2.4 गर्मी में मौसम तंत्र 

सतही दबाव और हवाएंः जैसे ही गर्मियां शुरू हो जाती हैं, और सूर्य उत्तर की ओर चला जाता है, उपमहाद्वीप के निचले और ऊपरी दोनों स्तरों पर हवाओं का परिसंचरण पूरी तरह विपरीत दिशा में हो जाता है। जुलाई के मध्य तक सतह के निकट का कम दबाव का क्षेत्र (जिसे अंतर उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र कहा जाता है) उत्तरी दिशा की ओर सरक जाता है, और 20 डिग्री उत्तर से 25 डिग्री उत्तर के बीच लगभग हिमालय के समानांतर हो जाता है। इस समय तक पश्चिमी जेट स्ट्रीम भारतीय क्षेत्र से निकल चुका होता है। वास्तव में, मौसम विज्ञानियों ने भूमध्यरेखीय द्रोणिका (आयटीसीजेड) के उत्तरी दिशा में खिसकने और पश्चिमी जेट स्ट्रीम के उत्तर भारतीय मैदानों से विदाई के बीच एक परस्पर संबंध की खोज की है। ऐसा माना जाता है, कि इन दोनों के बीच एक कारण और प्रभाव संबंध है। आयटीसीजेड एक कम दबाव का क्षेत्र होने के कारण, अलग-अलग दिशाओं से हवाओं को अपनी ओर आकर्षित करता है। दक्षिणी गोलार्ध से निकलने वाला समुद्री उष्णकटिबंधीय हवा समूह, भूमध्यरेखा को पार करने के बाद सामान्य दक्षिण पश्चिमी दिशा की ओर कम दबाव के क्षेत्र की ओर तेजी से बढ़ता है। इसी नमी युक्त हवा की धारा को आम भाषा में दक्षिण पश्चिमी मानसून कहा जाता है।

जेट प्रवाह और ऊपरी हवा का परिसंचरणः ऊपर दिए गए दबाव और हवाओं के तंत्र केवल क्षोभ मंडल स्तर तक ही बनते हैं। जून में प्रायद्वीप के दक्षिणी भाग में एक उत्तरोन्मुखी जेट प्रवाह प्रवाहित होती है, जिसकी अधिकतम गति 90 कि.मी. प्रति घंटा होती है। अगस्त में, यह 15 डिग्री उत्तरी अक्षांश पर, और सितम्बर में 22 डिग्री उत्तरी अक्षांश पर सीमित होती है। ऊपरी वातावरण में पुरवैया (easterlies)  आमतौर पर 30 डिग्री उत्तरी अक्षांश के उत्तर में विस्तारित नहीं होती। 

पूर्वी (पुरवैया) जेट प्रवाह और उष्णकटिबंधीय चक्रवातः पुरवैया जेट प्रवाह उष्णकटिबंधीय अवसाद को भारत में लाता है। ये अवसाद भारतीय उपमहाद्वीप में वर्षा के वितरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन अवसादों के मार्ग भारत के अधिकतम वर्षाजनित क्षेत्र हैं। दक्षिण पश्चिमी मानसून काल के दौरान, इन अवसादों की भारत यात्रा की आवृत्ति, उनकी दिशा और तीव्रता, ये सारी बातें देश में वर्षा की प्रवृत्ति निर्धारित करने में अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। 

3.0 भारत के मानसून की प्रकृति 

मानसून एक परिचित, हालांकि कम ज्ञात जलवायु घटना है। सदियों से फैले प्रेक्षणों के बावजूद मानसून वैज्ञानिकों के लिए एक पहेली बना हुआ है। हालांकि मानसून की यथार्थ प्रकृति और कारणों की जानकारी प्राप्त करने के अनेक प्रयास किये गए है, फिर भी, अभी तक ऐसा कोई भी एक सिद्धांत निकल कर नहीं आया है, जो मानसून को पूरी तरह से समझा सके। एक असली सफलता तब ही में प्राप्त हुई है जब इसका अध्ययन क्षेत्रीय स्तर के बजाय वैश्विक स्तर पर किया गया। 

दक्षिण एशियाई क्षेत्र में वर्षा के कारणों के व्यवस्थित अध्ययन हमें मानसून के कारणों और मुख्य विशेषताओं को समझने में मदद करते हैं, विशेष रूप से इसके कुछ महत्वपूर्ण पहलूओं को, जैसे किः

  1. मानसून की शुरुआत 
  2. वर्षा पैदा करने वाले तंत्र (उदाहरणार्थ, उष्णकटिबंधीय चक्रवात) और आवृत्ति और मानसून वर्षा वितरण के साथ उनका संबंध
  3. मानसून में रुकावट

3.1 मानसून की शुरुआत

उन्नीसवीं सदी के अंत तक ऐसा माना जाता था, कि गर्मियों के महीनों के दौरान भूमि और समुद्र का अंतर ताप ही वह तंत्र है जो मानसून हवाओं के उपमहाद्वीप की ओर बहाव के लिए मंच तैयार करता है। अप्रैल और मई महीनों के दौरान जब सूर्य कर्करेखा पर ऊर्द्ध प्रकाशित होता है, तो हिंदमहासागर के उत्तरी भाग में स्थित विशाल भूप्रदेश तीव्रता से गर्म हो जाता है। इसके कारण उपमहाद्वीप के उत्तरपश्चिमी भाग में एक तीव्र कम दबाव का क्षेत्र निर्मित हो जाता है। चूंकि इस भूप्रदेश के दक्षिण में स्थित हिंद महासागर में पानी के गर्म होने की गति कम होने के कारण दबाव अधिक होता है, अतः कम दबाव का क्षेत्र भूमध्यरेखा के पार दक्षिण-पूर्वी सन्मार्गी हवाओं को अपनी ओर आकर्षित करता है। ये परिस्थितियां आईटीसीजेड की स्थिति  को उत्तर की ओर खिसकने के लिए मददगार साबित होती हैं। इस प्रकार, दक्षिण पश्चिमी मानसून को दक्षिण पूर्वी सन्मार्गी हवाओं केभूमध्य रेखा को पार करने के बाद, भारतीय उपमहाद्वीप की ओर मुड़ने की एक निरंतर प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है। ये हवाएं 40 डिग्री पूर्व और 60 डिग्री पूर्व देशांतर के बीच भूमध्यरेखा को पार करती हैं।

आयटीसीजेड के स्थिति परिवर्तन का संबंध पश्चिमी जेट प्रवाह के हिमालय के दक्षिण में उत्तर भारत के मैदानों से अपनी स्थिति से निष्कासन की घटना से भी है पुरवैया जेट प्रवाह 15 डिग्री उत्तर अक्षांशों से तभी प्रवेश शुरू करते हैं, जब पश्चिमी जेट प्रवाह क्षेत्र से पूरी तरह से निकल चुके होते हैं। ये पुरवैया जेट प्रवाह ही भारत में मानसून के आगमन और शुरुआत के लिए जिम्मेदार होते हैं।

मानसून का भारत में प्रवेशः दक्षिण-पश्चिम मानसून केरल के तट से 1 जून तक शुरू होता है, और तेजी से बढ़ता हुआ 10 से 13 जून के बीच मुंबई और कोलकाता पहुँच जाता है। जुलाई के मध्य तक दक्षिण-पश्चिमी मानसून पूरे उपमहाद्वीप को अपनी चपेट में ले लेता है।

3.2 वर्षा जनित करने वाली प्रणालियां और वर्षा का वितरण 

भारत में वर्षा जनित करने वाली दो प्रणालियां हैं। पहली बंगाल की खाड़ी में पैदा होती है, जिसके द्वारा उत्तरी भारत के मैदानी भागों को वर्शा प्राप्त होती है। दूसरी दक्षिण-पश्चिम मानसून की अरब सागर की धारा है, जो भारत के पश्चिमी तटीय क्षेत्र को वर्षा प्रदान करती है। पश्चिमी घाटों के संपूर्ण क्षेत्र में होने वाली वर्षा पार्वतिकी प्रकार की है, क्योंकि नम हवाएं अवरुद्ध होकर घाट के किनारों पर उठने को मजबूर होती है। हालांकि भारत के पश्चिमी तटीय क्षेत्र में होने वाली वर्षा दो कारकों पर निर्भर रहती हैः

  1. अपतटीय मौसम की स्थिति, और 
  2. अफ्रीका के पूर्वी तट के भूमध्यरेखीय जेट प्रवाह की स्थिति। 

बंगाल की खाड़ी से उत्पन्न होने वाले उष्णकटिबंधीय अवसादों की आवृत्ति प्रति वर्ष बदलती रहती है। भारत पर उनके मार्ग मुख्य रूप से आयटीसीजेड की स्थिति द्वारा निर्धारित होते हैं, जिसे आमतौर पर मानसून द्रोणिका कहा जाता है। चूँकि मानसून द्रोणिका की धुरी घूमती रहती है, इससे इन अवसादों के मार्ग और दिशा में परिवर्तन होता रहता है, जिससे प्रति वर्ष वर्षा की तीव्रता और मात्रा में परिवर्तन होता रहता है। वर्षा टुकड़ों में होती है, जो पश्चिमी घाट के ऊपर पश्चिम से पूर्व में, और उत्तरी भारत के मैदानी भागों और प्रायद्वीप के उत्तरी भाग के ऊपर दक्षिण पूर्व से उत्तर पश्चिम की ओर गिरावट का रुख प्रदर्शित करती है।

3.3 अल-नीनो और भारतीय मानसून 

अल-नीनो एक जटिल मौसम तंत्र है जो हर तीन से सात वर्षों की अवधि में एक बार आता है और अपने साथ दुनिया के अलग-अलग भागों में अकाल, बाढ़ और अन्य मौसम जन्य चरम स्थितियां लाता है। इस प्रणाली में पूर्वी प्रशांत क्षेत्र में पेरू के तट पर गर्म धाराओं की उपस्थिति के साथ समुद्री और वायुमंडलीय घटना शामिल है, और यह भारत सहित कई स्थानों में मौसम को प्रभावित करता है। अल-नीनो गर्म भू-मध्यरेखीय धारा का विस्तार मात्र है, जो अस्थायी तौर पर ठंडी पेरुदेशीय धारा या हुम्बोल्ट धारा द्वारा प्रतिस्थापित हो जाती है। यह धारा पेरू के तट पर पानी के तापमान में 10 डिग्री सेल्सियस से वृद्धि कर देती है। इसके निम्न परिणाम होते हैंः

  1. भूमध्यरेखीय वायुमंडलीय परिसंचरण की विकृति
  2. समुद्र के पानी के वाष्पीकरण में अनियमितताएं, और 
  3. प्लवकों की संख्या में कमी हो जाती है, जो आगे समुद्र में मछलियों की संख्या कम कर देता है। 

अल-नीनो शब्द का अर्थ है ‘बालक मसीह‘, क्योंकि यह धारा दिसंबर में क्रिसमस के त्यौहार के आसपास ही उठती है। पेरू में दिसंबर गर्मी के मौसम का महीना है (दक्षिणी गोलार्ध में होने के कारण)।

भारत में अल-नीनो का उपयोग लंबी दूरी की वर्षा की भविष्यवाणी के लिए किया जाता है। 1990-91 में एक विशाल अल-नीनो हुआ था जिसके परिणामस्वरूप देश के लगभग सभी भागों में वर्षा में पांच से बारह दिनों का विलंब हुआ था। 

एल नीनो, दक्षिणी स्पंदन और सोमालियाई महासागरीय लहरें भी भारतीय मानसून को काफी प्रभावित करते हैं। एल नीनो पेरू के तट पर सामान्यतः दिसंबर में उठने वाली एक उष्म महासागरीय लहर है। अतः इसे एल नीनो (शिशु ईसामसीह) कहते हैं। यह पेरू के तट के आसपास सामान्य वर्षों में बहने वाली ठंडी पेरू महासागरीय लहर को प्रतिस्थापित कर देती है। जब स्थितियां सामान्य होती हैं, तो पेरुदेशीय लहर एक ठंडे जल की लहर होती है। हालांकि पश्चिमी प्रशांत (इंडोनेशिया और पूर्वी ऑस्ट्रेलिया) के ऊपर यह महासागरीय लहर गर्म और गहरी होती है। एल नीनो इस स्थिति को उल्टा कर देती है और पूर्वी प्रशांत (पेरू तट) पर गर्म स्थितियां और पश्चिमी प्रशांत (ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी भाग और इंडोनेशिया) में ठंडी स्थितियां विकसित करती है। इसका परिणाम दक्षिण अमेरिका के तटीय क्षेत्रों में भारी मात्रा में वर्षण होता है, जबकि ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तटों और इंडोनेशिया में सूखे की स्थितियां निर्मित हो जाती हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि भारत में अल नीनो का परिणाम एक कमजोर मानसून के रूप में होता है। 

प्रशांत और हिंद महासागर के बीच आमतौर पर पाई जाने वाली मौसम संबंधी परिवर्तनों की उतार-चढ़ाव की प्रवृत्ति को दक्षिणी स्पंदन कहते हैं। इस शब्द को 1924 में भारतीय वायुमंडलीय सेवा के प्रथम महानिदेशक सर गिल्बर्ट वॉकर ने गढ़ा था। यह देखा गया है जब प्रशांत पर सतही दबाव उच्च होता है, तो हिंद महासागर के दबाव की प्रवृत्ति निम्न रहने की होती है। चूंकि दबावों का वर्षा के साथ संबंध व्युत्क्रम होता है, यह बताता है कि जब सर्दियों के महीनों में (सकारात्मक दक्षिणी स्पंदन) हिंद महासागर पर निम्न दबाव की स्थिति विद्यमान होती है तो संभावना यह है कि वर्षा अच्छी होगी। इसके विपरीत जब सर्दी के मौसम में हिंद महासागर पर उच्च दबाव की स्थिति होगी, तो आने वाला मानसून कमजोर रहेगा। 

दक्षिणी स्पंदन की घनीभूतता को मध्य प्रशांत के एक स्थान ताहिती (18 अंश दक्षिण और 149 अंश पश्चिम) और हिंद महासागर (वॉकर केंद्र) में स्थित एक प्रतिनिधि केंद्र पोर्ट डार्विन (12 अंश दक्षिण और 130 अंश पूर्व) के समुद्र सतह के दबावों के बीच के अंतर से नापा जाता है। सर्दी के मौसम के दौरान पेरू लहर के ऊपर एक निम्न दबाव और उत्तरी हिंद महासागर के ऊपर एक उच्च दबाव का निहितार्थ होगा ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया द्वीपसमूह के ऊपर वायुमंडलीय निम्न दबाव का क्षेत्र निर्मित होना। इसका परिणाम विशाल संवहनी बादलों, भारी वर्षा और वर्षाजनित हवा के प्रवाह में होगा। या हवा अंततः पूर्व दिशा की ओर प्रवाहित होगी, और एक 200 मिलीबार (एमबी) पर उच्च स्तरीय पश्चिमी हवा के रूप में प्रशांत को काटने के बाद, यह दक्षिण अमेरिका के ऊपर नीचे आ जाती है। 

सोमालियाई लहरः सोमालियाई लहर प्रत्येक छह महीने प्रवाहित होने के बाद अपने प्रवाह की दिशा को परिवर्तित करती है। आमतौर पर सोमालिया के पूर्वी तट के आसपास एक निम्न दबाव का पट्टा रहता है। असामान्य वर्षों में पश्चिमी अरब सागर का निम्न दबाव का क्षेत्र एक उच्च दबाव का क्षेत्र बन जाता है। इस प्रकार के दबाव के व्युत्क्रमण का परिणाम भारतीय उपमहाद्वीप में एक कमजोर मानसून में होता है। यह घटना प्रत्येक 6-7 वर्षों के दौरान एक बार होती है।

3.4 मानसून में रूकावट 

दक्षिण-पश्चिमी मानसून अवधि के दौरान, कुछ दिनों की वर्षा के बाद, यदि अगले एक या अधिक हफ्तों के लिए वर्षा होती ही नहीं है, तो इसे मानसून में रुकावट कहा जाता है। वर्षा के मौसम के दौरान इस प्रकार के शुष्क दौर एक सामान्य घटना है। अलग-अलग क्षेत्रों में ये रुकावटें अलग-अलग कारणों से हो सकती हैं। 

उत्तरी भारत में यदि वर्षा-जन्य तूफानों की आवृत्ति क्षेत्र की मानसून द्रोणिका के किनारे या आयटीसीजेड में बारंबार नहीं होती है तो वर्षा के असफल होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। पश्चिमी तट पर ये शुष्क दौर उन दिनों से संदर्भित हैं जब हवाएँ तट के समानंतर प्रवाहित होती हैं।

4.0 मौसम 

भारत की जलवायु परिस्थितियों को सबसे अच्छी तरह से मौसम के वार्षिक चक्र के संदर्भ में वर्णित किया जा सकता है। मौसम वैज्ञानिक निम्नलिखित चार मौसमों को मान्यता देते हैंः

  1. सर्दी का मौसम 
  2. गर्मी का मौसम 
  3. दक्षिण-पश्चिमी मानसून का मौसम 
  4. पीछे हटते मानसून का मौसम

4.1 गर्मी के मौसम के कुछ प्रसिद्ध तूफान 

आमों की बौछारः गर्मी के मौसम के अंत के समय केरल और कर्नाटक के तटीय इलाकों में होने वाली मानसून पूर्व की बौछारें सामान्य घटनाएं हैं। स्थानीय भाषा में इन्हें आमों की बौछारों के रूप में जाना जाता है, क्योंकि वे आमों के शीघ्र पकने में मददगार साबित होती हैं। 

बौर बौछारः इन बौछारों के साथ ही केरल और इसके निकटवर्ती क्षेत्रों में कॉफी के फूल खिलना शुरू हो जाते हैं। 

नॉर्वेस्टर्स (कालबैसाखी) : ये बंगाल और असम में शाम के समय होने वाले खतरनाक गरज के साथ होने वाले तूफान हैं। इनके कुख्यात स्वरुप की कल्पना स्थानीय भाषा में इन्हें दिए गए ‘कालबैसाखी‘ नाम से की जा सकती है, कालबैसाखी का अर्थ है बैसाखी के महीने में आने वाली विपत्ति। ये बौछारें चाय, जूट और चांवल की खेती के लिए काफी उपयोगी होती हैं। असम में इन तूफानों को ‘बोरदोईसीला‘ के नाम से जाना जाता है। 

लूः पंजाब से बिहार तक उत्तरी मैदानों में बहने वाली गर्म, शुष्क दमनकारी हवाएँ, जिनकी तीव्रता दिल्ली और पटना के बीच सबसे अधिक होती है।

4.2 सर्दी का मौसम 

तापमानः आमतौर पर, उत्तर भारत में सर्दी के मौसम की शुरुआत नवंबर के मध्य से होती है। उत्तरी मैदानों में दिसंबर और जनवरी सबसे ठंडे महीने होते हैं। उत्तरी भारत के अधिकांश भागों में औसत दैनिक तापमान 21 डिग्री सेल्सियस से कम रहता है। रात्रि का तापमान और भी कम हो सकता है, पंजाब और राजस्थान में तो कभी-कभी यह शून्य से नीचे भी चला जाता है। 

इस मौसम में उत्तरी भारत में अत्यधिक ठंड पडने के तीन प्रमुख कारण हैंः

  1. पंजाब, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्य समुद्र के मध्यस्थता प्रभाव से काफी दूर होने के कारण इन राज्यों में महाद्वीपीय जलवायु पायी जाती है। 
  2. हिमालय के क्षेत्र में होने वाला हिमपात शीत लहर की स्थितियां निर्मित करता है; और 
  3. फरवरी महीने के आसपास, कैस्पियन सागर और तुर्कमेनिस्तान से आने वाली ठंडी हवाएं अपने साथ शीत लहर के साथ साथ धुंध और कोहरा लाती हैं जिनका प्रभाव भतार के उत्तरी भागों पर होता है। 

हालांकि, भारत के प्रायद्वीपीय क्षेत्र में सही ढ़ंग से परिभाषित सर्दी का मौसम नहीं होता। इस क्षेत्र के भूमध्यरेखा से नजदीकी और समुद्र के मध्यस्थता प्रभाव के चलते तटीय क्षेत्रों के तापमान वितरण में कोई दृश्य परिवर्तन अनुभव नहीं होता। उदाहरणार्थ, तिरुवनंतपुरम में जनवरी महीने का औसत तापमान 31 डिग्री सेल्सियस जितना अधिक रहता है, जबकि जून में यह 29.5 डिग्री सेल्सियस होता है। पश्चिमी घाटों के पर्वतीय क्षेत्रों में अवश्य तापमान अपेक्षाकृत कम होता है। 

हवा का दबाव और हवाएँः दिसंबर के अंत तक (22 दिसंबर) सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में मकर रेखा पर ऊर्ध्वाधर है। इस मौसम में उत्तरी भारत के मैदानी भागों में कमजोर उच्च दबाव की स्थिति पायी जाती है। दक्षिणी भारत में हवा का दबाव कुछ हद तक कम होता है। 1019 एमबी और 1,013 एमबी की समताप-रेखाएं क्रमशः उत्तर पश्चिमी भारत और सुदूर दक्षिण से होकर गुजरती हैं। परिणामतः हवाएँ उत्तरपश्चिम के उच्च दबाव वाले क्षेत्र से दक्षिण के हिंदमहासागर क्षेत्र के कम दबाव वाले क्षेत्र की दिशा में बहना शुरू होती हैं। 

कम दबाव वाले ढ़लान के कारण 3 से 5 कि.मी. प्रति घंटा जितनी कम गति की हल्की हवाएँ बाहर की ओर बहना शुरू होती हैं। कुल मिलाकर, इस क्षेत्र की स्थलाकृति हवा की दिशा को प्रभावित करती है। गंगा की घाटी के नीचे वे पश्चिमी या उत्तरपश्चिमी होती हैं। गंगा ब्रह्मपुत्र डेल्टा (नदीमुख) में वे उत्तरी हो जाती हैं। स्थलाकृति के प्रभाव से मुक्त होकर, वे बंगाल की खाड़ी पर स्पष्ट रूप से उत्तरपूर्वी दिशा की हवाएँ बन जाती है। सर्दियों के दौरान भारत का मौसम खुशनुमा होता है। हालांकि कई अंतरालों में यह खुशनुमा मौसम, पूर्वी भूमध्य सागर से उठ कर भारत के उत्तर पश्चिमी भागों तक पहुँचने से पहले पश्चिम एशिया, ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के रास्ते होने वाले उथले चक्रवाती अवसाद के कारण खंडित हो जाता है। रास्ते में उत्तर में कैस्पियन सागर से और दक्षिण में फारस की खाडी से इनमें नमी संवर्धित हो जाती है। 

4.3 पश्चिमी जेट प्रवाह की भूमिका 

वर्षाः सर्दी के मौसम का मानसून चूंकि थल से समुद्र की ओर जा रहा होता है, अतः यह वर्षा नहीं करता। इसके कुछ प्रमुख कारण हैं। पहला, उनमे आर्द्रता की कमी होती है दूसरा, जमीन पर विरोधी चक्रवाती परिसंचरण के कारण उनसे वर्षा की संभावनाएं कम हो जाती हैं। इसी कारण से भारत के अधिकांश भागों में सर्दी के मौसम में वर्षा नहीं होती। हालाँकि इनके कुछ अपवाद हैंः

उत्तरपश्चिमी भारत के पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और उत्तरप्रदेश में, भूमध्य-सागर से उठने वाले कमजोर शीतोष्ण चक्रवात वर्षा करते हैं। हालाँकि इनकी मात्रा अत्यल्प होती है, फिर भी ये रबी की फसल के लिए काफी लाभदायक होती है। हिमालय के निचले भागों में वर्षा हिमपात के रूप में होती है। यही बर्फ हिमालयीन नदियों में गर्मी के मौसम में भी जल प्रवाह को बनाये रखता है। यह वर्षा मैदानों में पश्चिम से पूर्व में, और पर्वतीय क्षेत्र में उत्तर से दक्षिण में कम होती जाती है। दिल्ली में सर्दियों में होने वाली औसत वर्षा 53 मिलीमीटर है। पंजाब और बिहार में, वर्षा क्रमशः 25 मि. मी. और 18 मि. मी. के बीच होती है। 

कभी-कभी भारत के मध्य भाग और दक्षिणी प्रायद्वीप के उत्तरी भागों में भी सर्दी के मौसम में वर्षा होती है। सर्दी के इन महीनों में, भारत के उत्तरपूर्वी भाग के अरुणाचल प्रदेश और असम में भी 25 मि. मी. से 50 मि. मी. वर्षा होती है। अक्टूबर और नवंबर के महीनों में बंगाल की खाड़ी के ऊपर से गुजरता हुआ उत्तरपूर्वी मानसून कुछ नमी एकत्रित कर लेता है, जिसके कारण तमिलनाडु के तटीय भागों, दक्षिणी आँध्रप्रदेश, दक्षिणपूर्वी कर्नाटक और दक्षिणपूर्वी केरल में भारी वर्षा होती है। 

4.4 गर्मी का मौसम 

तापमानः मार्च में, सूर्य के उत्तर में कर्करेखा की ओर जाने से उत्तरी भारत में तापमान में वृद्धि होने लगती है। उत्तरी भारत में अप्रैल, मई और जून गर्मी के महीने होते हैं। इन महीनों में भारत के अधिकांश भागों में तापमान 30 डिग्री से 32 डिग्री के बीच दर्ज किया जाता है। मार्च में दिन का अधिकतम 38 डिग्री तापमान दक्षिणी पठार में दर्ज किया जाता है, जबकि अप्रैल में 38 डिग्री से 43 डिग्री के बीच तापमान गुजरात और मध्यप्रदेश में पाया जाता है। मई में गर्म पट्टा भारत के उत्तर और उत्तर पश्चिम की ओर सरक जाता है, जहाँ तापमान 48 डिग्री तक होना असामान्य नहीं है।

दक्षिणी भारत में गर्मी का मौसम मध्यम होता है और उत्तरी भारत की तरह तीव्र नहीं होता। दक्षिणी भारत की प्रायद्वीपीय स्थिति और समुद्र का मध्यस्तता प्रभाव तापमान को उत्तरी भारत में पाये जाने वाले तापमान से निचले स्तर पर बनाये रखता है। इसीलिए इस क्षेत्र का तापमान 26 डिग्री से 32 डिग्री सेल्सियस के बीच बना रहता है। ऊंचाई के कारण पश्चिमी घाट के पर्वतीय भागों में तापमान 25 डिग्री सेल्सियस से कम बना रहता है। तटीय क्षेत्रों में, तट को समानांतर समताप रेखा की उत्तर दक्षिण सीमा यह सुनिश्चित करती है कि तापमान उत्तर से दक्षिण की ओर गिरता नहीं है, बल्कि यह तट से अंदरूनी क्षेत्रों में बढता है। गर्मी के महीनों में दैनिक औसत न्यूनतम तापमान काफी अधिक रहता है और ऐसे मौके कम ही होते हैं जब यह 26 डिग्री सेल्सियस से नीचे होता है। 

हवा का दबाव और हवाएँः देश के उत्तरी भागों में गर्मी के महीने अत्यधिक ताप और गिरते दबाव का कालखण्ड होता है। उपमहाद्वीप तप्त होने के कारण आयटीसीजेड उत्तरी दिशा की ओर बढते हुए जुलाई में 25 डिग्री उत्तर की स्थिति का स्थान ग्रहण कर लेते हैं। मोटे तौर पर, यह विस्तृत एवं कम दबाव वाली मानसून द्रोणिका उत्तर पश्चिम में थार रेगिस्तान से पूर्व-दक्षिणपूर्व में पटना, छोटा नागपुर पठार तक फैल जाती है। आयटीसीजेड की स्थिति हवाओं के सतही परिसंचरण को आकर्षित करती है जो पश्चिमी तट और पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के तटीय किनारों पर दक्षिण-पश्चिमी होती हैं। उत्तरी बंगाल और बिहार में ये पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी होती हैं। पहले यह चर्चा हो चुकी है, कि दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ये धाराएं वास्तव में ‘विस्थापित‘ भूमध्यरेखीय पश्चिमी हवाएँ होती हैं। जून के मध्य तक इन हवाओं के अंदरूनी भागों की और प्रवाह के कारण मौसम में वर्षा के आगमन की दृष्टी से परिवर्तन होने शुरू हो जाते हैं। 

उत्तर-पश्चिम में आयटीसीजेड के केंद्र में, दोपहर में शुष्क, गरम हवाएँ बहती हैं, जिन्हें ‘लू’ कहा जाता है, और कभी-कभी ये मध्यरात्रि तक भी चलती रहती हैं। पंजाब, हरियाणा, पूर्वी राजस्थान और उत्तर प्रदेश में शाम के समय  धूल की आंधी सामान्य घटनाएं हैं। ये अस्थायी आँधियाँ भयंकर गर्मी से तात्कालिक राहत प्रदान करती हैं, क्योंकि वे अपने साथ हल्की बूंदाबांदी और ठंडी हवाएँ लाती हैं। यदा कदा ये आर्द्रता युक्त हवाएँ द्रोणिका की परिधि की ओर आकर्षित होती हैं। शुष्क और आर्द्रतायुक्त हवाओं के समूहों के आकस्मिक संपर्क से काफी अधिक तीव्रता वाली स्थानीय आंधियाँ निर्मित होती हैं। ये आंधियाँ अपने साथ तेज हवाएँ, तेज बारिश और कभी-कभी ओलों की वर्षा भी लाती हैं।

5.0 तिब्बत का पठार और भारतीय मानसून 

1973 में आयोजित मानसून अभियान (मॉनेक्स) के तहत आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों से सुसज्जित चार रूसी और दो भारतीय जहाजों ने भारतीय मॉनसूनी घटनाओं का अन्वेषण किया। प्राप्त किये गए आंकडें़ दर्शाते थे कि भारतीय उपमहाद्वीप पर मानसून के परिसंचरण को शुरू करने में तिब्बत का पठार महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पूर्व में एक विचार व्यक्त किया गया था कि तिब्बत के पठार का ग्रीष्मकालीन उष्मन मॉनसूनी परिसंचरण के निर्माण और उसे बनाये रखने में सबसे महत्वपूर्ण कारक था। 

तिब्बती पठार पश्चिम भाग में 600 किलोमीटर चौड़ा है और पूर्वी भाग में इसकी चौड़ाई 1000 किलोमीटर है। पश्चिम से पूर्व में इसकी लंबाई लगभग 2000 किलोमीटर है। पठार की औसत ऊँचाई लगभग 4000 मीटर है। इस प्रकार, इसका उच्च भूमि का एक अति विशाल खंड़ है जो एक दुर्जेय अवरोध का कार्य करता है। इसकी विशाल ऊँचाई के कारण इसे पड़ोसी क्षेत्रों की तुलना में 2 अंश सेल्सियस से 3 अंश सेल्सियस अधिक सूर्यातप (insolation) प्राप्त होता है। यह क्षेत्र के सामान्य वायुमंडलीय परिसंचरण की दृष्टि से भी सबसे महत्वपूर्ण भौगोलिक नियंत्रकों में से एक है। तिब्बत का पठार वायुमंडल को दो प्रकार से प्रभावित करता है, जो या तो स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं, या परस्पर संयोजन में कार्य करते हैंः (i) एक भौतिक अवरोध के रूप में, और (ii) एक उच्च स्तरीय उष्मन स्रोत के रूप में। 

जून के प्रारंभ में जेट प्रवाह हिमालय और तिब्बत के उत्तर की ओर खिसक जाता है और लगभग 40 अंश उत्तर की स्थिति ग्रहण कर लेता है, और उत्तरी भारत पर पूरी तरह अदृश्य हो जाता है। जलवायुविदों ने यह पाया है कि संपूर्ण यूरेशिया के ऊपर जेट के खिसकने और पश्चिमी हवाओं के बीच एक सुसंगतता है। वास्तव में तिब्बत का पठार सर्दियों में अत्यधिक ठंडा हो जाता है और अक्टूबर के मध्य में जेट के सुदूर दक्षिण की ओर बढ़ने को गति प्रदान करने की दृष्टि से यह सबसे महत्वपूर्ण कारक साबित होता है। हिमालय का जलीय गत्यात्मक प्रभाव जून के प्रारंभ में ग्रीष्मकालीन मानसून की अचानक शुरुआत का कारण बनता है, न कि उत्तरपश्चिमी भारत पर बना हुआ उष्मीय प्रेरित कम दबाव का केंद्र। 

अक्टूबर के मध्य में जब पठार अत्यधिक ठंडा हो जाता है, तो यह पश्चिमी जेट के दो भागों में विभाजन के माध्यम से इसके हिमालय के दक्षिण की ओर बढ़ने का कारण बनता है। तिब्बतीय पठार का ग्रीष्मकालीन उष्मन इसे उच्च स्तरीय ऊष्मा का स्रोत बनाता है। यह ‘‘ऊष्मा प्रेरक‘‘ इस क्षेत्र पर एक उष्मीय प्रतिचक्रवात का निर्माण करता है। ग्रीष्म मानसून अवधि दौरान पठार पर एक गर्म केंद्रीय प्रतिचक्रवात (उच्च दबाव) बन जाता है। इस प्रतिचक्रवात की निर्मिति क्षोभमण्डल के मध्य भाग में 500 एमबी स्तर पर होती है। यह प्रति चक्रवाती अंश नामक प्रक्रिया का परिणाम होता है। तिब्बत के 500 एमबी पर बना प्रतिचक्रवात पश्चिमी उपोष्णकटिबंधीय जेट प्रवाह को हिमालय के दक्षिण में कमजोर कर देता है, परंतु प्रतिचक्रवात के दक्षिणी भाग पर एक पूर्वी जेट प्रवाह का निर्माण करता है। ये ऊपरी वायु की पूर्वी हवाएं दक्षिणी हिंद महासागर पर बने स्थाई उच्च दबाव के क्षेत्र में नीचे उतरती हैं और वहां पहले से ही विद्यमान उच्च दबाव क्षेत्र को और अधिक तीव्र कर देती हैं। इसी उच्च दबाव केंद्र से तटवर्ती हवाएं भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भागों में विकसित उष्मीय प्रेरित निम्न दबाव के क्षेत्र की ओर प्रवाहित होना शुरू हो जाती हैं। यह उष्णकटिबंधीय पूर्वी जेट प्रवाह पहले भारत के पूर्वी देशान्तर पर विकसित होता है, और बाद में पश्चिम की दिशा में संपूर्ण भारत और अरब सागर से लेकर पूर्वी अफ्रीका तक फैल जाता है। कोलकाता-बैंगलोर अक्ष रेखा के आसपास प्रवाहित होते हुए इस जेट के तहत की हवा हिंद महासागर पर नीचे आती है और उसके उच्च दबाव केंद्र को घनीभूत कर देती है, जो अंततः दक्षिण पश्चिम मानसून के रूप में आगे बढ़ती है। भूमध्य रेखा को पार करने के बाद ये सतही हवाएं अपनी दिशा परिवर्तित कर देती हैं और दक्षिण-पश्चिम मानसून बन जाती हैं।

मॉनेक्स के आंकडे़ं इस सिद्धांत का समर्थन करते हैं कि उष्णकटिबंधीय पूर्वी जेट की घनीभूतता जितनी अधिक होगी उतनी ही हिंद महासागर पर बनने वाले उच्च दबाव के केंद्र की प्रबलता अधिक होगी और दक्षिण पश्चिम मानसून भी उतना ही अधिक मजबूत होगा।

6.0 जलवायु परिवर्तन पर सरकार की पहल 

30 जून 2008 को जलवायु परिवर्तन पर भारत की पहली योजना (एनएपीसीसी) जारी की गई, जो जलवायु शमन और अनुकूलन को संबोधित करने वाली मौजूदा और भविष्य की नीतियों और कार्यक्रमों को रेखांकित करती है। यह योजना 2017 तक चलने वाले आठ अतिमहत्वपूर्ण ‘राष्ट्रीय मिशंस‘ की पहचान करती है और सभी मंत्रालयों को निर्देशित करती है कि वे दिसंबर 2008 तक जलवायु परिवर्तन पर प्रधानमंत्री की परिषद को अपनी विस्तृत क्रियान्वयन योजनाएं प्रस्तुत करें। 

जीवन स्तर को बढ़ाने के लिए उच्च आर्थिक विकास दर बनाए रखने की सर्वोपरि प्राथमिकता पर बल देते हुए योजना ‘‘हमारे विकास उद्देश्यों को बढ़ावा देने के उपायों की पहचान करने के साथ ही साथ कारगर ढंग से जलवायु परिवर्तन के समाधान के सह लाभों को प्राप्त करने के भी प्रयास करती है’’। वह कहती है कि ये राष्ट्रीय उपाय विकसित देशों की सहायता से अधिक सफल होंगे, साथ ही वह यह भी वचन देती है, कि भारत का प्रति व्यक्ति ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन ‘‘किसी भी समय विकसित एशों में होने वाले उत्सर्जन से अधिक नहीं होगा, हालाँकि हम अभी भी अपने विकास के उद्देश्यों को प्राप्त करने की दिशा में प्रयासरत हैं।’’

6.1 राष्ट्रीय मिशन 

राष्ट्रीय सौर मिशनः एनएपीसीसी का लक्ष्य विद्युत उत्पादन और अन्य उपयोगों के लिए सौर ऊर्जा का विकास और उपयोग करने का है, उसका अंतिम उद्देश्य सौर ऊर्जा को  जीवाश्म आधारित ऊर्जा विकल्पों के साथ प्रतिस्पर्धी बनाने का है। इस योजना में निम्न शामिल हैंः

शहरी क्षेत्रों, उद्योग, और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में सौर तापीय प्रौद्योगिकी के बढ़ते उपयोग के लिए विशिष्ट लक्ष्य;

  1. फोटोवोल्टिक का उत्पादन 1000 मेगावाट प्रति वर्ष तक ले जाने का लक्ष्य; और
  2. सौर तापीय विद्युत उत्पादन की कम से कम 1000 मेगावाट की तैनाती का लक्ष्य।

इसके अन्य उदेश्यों में, सौर अनुसंधान केंद्र की स्थापना, प्रौद्योगिकी विकास के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में वृद्धि, देशी उत्पादन क्षमता को सुदृढ़ करना और सरकारी और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सहायता में वृद्धि करना शामिल हैं।

ऊर्जा दक्षता वृद्धि के लिए राष्ट्रीय मिशनः विद्यमान उपायों द्वारा 2012 तक 10000 मेगावाट की बचत उम्मीद है। ऊर्जा संरक्षण अधिनियम 2001 के आधार पर योजना सुझाव देती है किः

  1. कंपनियों द्वारा ऊर्जा बचत सर्टिफिकेट के विनिमय के माध्यम से बड़ी ऊर्जा उपभोक्ता कंपनियों के लिए निश्चित ऊर्जा उपभोग की अनिवार्यता करना; 
  2. ऊर्जा कुशल उपकरणों पर करों में राहत सहित ऊर्जा प्रोत्साहन प्रदान करना और
  3. नगर निगम, भवनों और कृषि क्षेत्रों में मांग पक्ष प्रबंधन कार्यक्रमों के माध्यम से ऊर्जा की खपत को कम करने के लिए सार्वजनिक निजी भागीदारी के लिए वित्तपोषण। 

स्थायी निवास स्थान पर राष्ट्रीय मिशनः शहरी योजना के एक प्रमुख घटक के रूप में ऊर्जा दक्षता को बढ़ावा देने के लिए योजना की मांग है किः

  1. मौजूदा ऊर्जा संरक्षण भवन कोड का विस्तार;
  2. कचरे से बिजली उत्पादन सहित शहरी अपशिष्ट प्रबंधन और रीसाइक्लिंग, पर ज्यादा जोर;
  3. मोटर वाहन ईंधन अर्थव्यवस्था मानकों के प्रवर्तन को मजबूत बनाने और कुशल वाहनों की खरीद को प्रोत्साहित करने के लिए मूल्य निर्धारण के उपायों का उपयोग करना, और 
  4. सार्वजनिक वाहनों के उपयोग के लिए प्रोत्साहन प्रदान करना। 

राष्ट्रीय जल मिशनः जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप पानी की कमी की स्थिति और भी बिगडने का अनुमान है। योजना का उद्देश्य मूल्य निर्धारण और अन्य उपायों के माध्यम से पानी की उपयोग दक्षता में 20 प्रतिषत सुधार का लक्ष्य निर्धारित करना है। 

हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय मिशनः योजना का उद्देश्य हिमालय क्षेत्र में  जैव विविधता, वन आवरण और अन्य पारिस्थितिक मूल्यों का संरक्षण करना है, जहां हिमनद  भारत की पानी की आपूर्ति का एक प्रमुख स्रोत हैं, जो ग्लोबल वार्मिंग के परिणामस्वरूप कम होने का अनुमान है।

‘हरित भारत’ के लिए राष्ट्रीय मिशनः लक्ष्यों में, 6 मिलियन हेक्टेयर के कटे हुए वनों का पुनर्वनीकरण और वन आवरण को भारत के राज्यक्षेत्र के 23 प्रतिषत से बढा कर 33 प्रतिषत करना शामिल है। 

स्थायी कृषि के लिए राष्ट्रीय मिशनः योजना का उद्देश्य जलवायु तमेपससपमदज फसलों, मौसम बीमा तंत्र और कृषि पद्धतियों के विस्तार के विकास के माध्यम से कृषि क्षेत्र में जलवायु अनुकूलन का समर्थन करना है। 

जलवायु परिवर्तन के लिए रणनीतिक ज्ञान संबंधी राष्ट्रीय मिशनः जलवायु विज्ञान, प्रभावों और चुनौतियों का एक बेहतर समझ हासिल करने के लिए, योजना एक नई जलवायु विज्ञान अनुसंधान निधि, बेहतर जलवायु मॉडलिंग, और वृद्धि की अंतरराष्ट्रीय सहयोग की कल्पना करती है। यह उद्यम पूंजी कोष के माध्यम से अनुकूलन और शमन प्रौद्योगिकियों के विकास के लिए निजी क्षेत्र की पहल को भी प्रोत्साहित करती है। 

6.2 अन्य कार्यक्रम 

एनएपीसीसी अन्य चल रहे कार्यक्रमों का भी वर्णन करती है, जिनमें हैंः

विद्युत उत्पादनः सरकार अक्षम कोयला आधारित बिजली संयंत्रों की सेवानिवृत्ति अनिवार्य कर रही है और आईजीसीसी और सुपर प्रौद्योगिकियों के अनुसंधान और विकास का समर्थन कर रही है। 

अक्षय ऊर्जाः बिजली अधिनियम 2003 और राष्ट्रीय टैरिफ नीति 2006 के तहत, केंद्रीय और राज्य विद्युत विनियामक आयोगों को अक्षय स्रोतों से ग्रिड आधारित बिजली की एक निश्चित प्रतिशत की खरीद करनी होगी। 

ऊर्जा दक्षताः ऊर्जा संरक्षण अधिनियम 2001 के तहत, बड़ी ऊर्जा की खपत उद्योगों के लिए ऊर्जा आडिट आवश्यक किया गया है, और उपकरणों के लिए एक ऊर्जा लेबलिंग कार्यक्रम शुरू किया गया है।

6.3 क्रियान्वयन

जिन मंत्रालयों को प्रत्येक मिशन के लिए नेतृत्व की जिम्मेदारी दी गई है, उन्हें उद्देश्य, क्रियान्वयन की नीतियां, समय सीमायें, और निगरानी और मूल्यांकन के बारे में अपनी रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन पर प्रधानमंत्री की परिषद को प्रस्तुत करने के निर्देश दिए गए हैं। परिषद को प्रत्येक मिशन की प्रगति की समय-समय पर समीक्षा करने की जिम्मेदारी भी दी गई है।  प्रगति की मात्रा तय करने में सक्षम होने के लिए उचित संकेतक और कार्यप्रणाली परिहार्य उत्सर्जन और अनुकूलन लाभ दोनों का आकलन करने के लिए विकसित की जाएगी। 

7.0 जलवायु परिवर्तन का भारत पर प्रभाव 

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र का अंतर सरकारी पैनल (I.P.C.C.) अपनी ताजा रिपोर्ट में ग्लोबल वार्मिंग के  खतरों पर बल देता है और सरकारों को अनुकूलन पर नीति अपनाने और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कटौती करने के लिए एक मजबूत मामला बनाने की कोशिश करता है। 

रिपोर्ट में 21 वीं सदी के उत्तरार्ध तक बर्फ पिघलने और गर्म होने  के कारण जल विस्तार के परिणामस्वरूप तापमान के 0.3 से 4.8 डिग्री सेल्सियस तक बढने और समुद्र तल में 82 सेंटीमीटर तक की वृद्धि का अनुमान किया गया है। इससे शंघाई से लेकर सैन फ्रांसिस्को तक के तटीय शहरों के लिए खतरा बढ़ जाएगा। 

विशेषज्ञों का कहना है कि भारत पर ग्लोबल वार्मिंग का बहुत अधिक प्रभाव पडेगा। यह पहले से ही दुनिया में सबसे आपदा की आशंका वाले देशों में से एक है, और इसकी 1.2 बिलियन आबादी में से कई लोग बाढ़, तूफान, और अकाल सदृश खतरों की जोखिम वाली स्थितियों में रह रहे हैं। अनाकलनीय मौसम के मिजाज से कृषि उत्पादन और खाद्य सुरक्षा ही प्रभावित नहीं होगी, बल्कि यह पानी की कमी को भी और बढ़ावा देगी, इससे कई विकसनशील देशों में डायरिया और मलेरिया जैसे मच्छर जन्य बीमारियों में वृद्धि होगी। खाद्य सुरक्षा से जुडे सभी पहलुओं पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ता है, जिनमे खाद्यान्न तक पहुँच, भूमि का उपयोग, और मूल्य स्थिरता शामिल हैं। अध्ययन बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण गेहूं और धान की उत्पादकता कम हो रही है। 

आयपीसीसी के एक प्रमुख लेखक का कहना है कि अन्य विकसनशील देशों की तरह ही भारत को भी ऊर्जा, यातायात, कृषि और पर्यटन सहित अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में नुकसान उठाना पडे़गा। उदाहरणार्थ, आंकडें़ बताते हैं, कि ठंडे तापमान के कारण पर्यटक उंचाई वाले पर्यटन उंचाई को जाना पसंद करेंगे या, चूंकि तापमान बढ़ रहा है अतः वे तटीय पर्यटन स्थलों पर स्थानांतरित हो जायेंगे। लेकिन आयपीसीसी के वैज्ञानिकों द्वारा अध्ययन किये गए एक शोध के अनुसार समुद्र तट पर्यटन की दृष्टी से भारत 51 देशों में सबसे खतरनाक माना गया है, जबकि सायप्रस सबसे कम खतरनाक माना गया है। चरम मौसम सड़कों, बंदरगाहों, हवाईअड्डों जैसी अधोसंरचनात्मक सुविधाओं को भी नुकसान पहुंचाएगा, जिससे वस्तुओं और सेवाओं के वितरण पर प्रतिकूल प्रभाव पडे़गा।






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Raj,1,Institutionsandbodies,1,Instiutions and Bodies,1,Intelligence and security,1,International Institutions,10,international relations,2,Internet,11,Inventions and discoveries,10,Irrigation Agriculture Crops,1,Issues on Environmental Ecology,3,IT and Computers,23,Italy,1,January 2020,26,January 2021,25,July 2020,5,July 2021,207,June,1,June 2020,45,June 2021,369,June-2021,1,Juridprudence,2,Jurisprudence,91,Jurisprudence Governance and Institutions,1,Land reforms and productivity,15,Latest Current Affairs,1136,Law and order,45,Legislature,1,Logical Reasoning,9,Major events in World History,16,March 2020,24,March 2021,23,Markets,182,Maths Theory Booklet,14,May 2020,24,May 2021,25,Meetings and Summits,27,Mercantilism,1,Military and defence alliances,5,Military technology,8,Miscellaneous,454,Modern History,15,Modern historym,1,Modern technologies,42,Monetary and financial policies,20,monsoon and climate change,1,Myanmar,1,Nanotechnology,2,Nationalism and protectionism,17,Natural disasters,13,New Laws and amendments,57,News media,3,November 2020,22,Nuclear technology,11,Nuclear techology,1,Nuclear weapons,10,October 2020,24,Oil economies,1,Organisations and treaties,1,Organizations and treaties,2,Pakistan,2,Panchayati Raj,1,Pandemic,137,Parks reserves sanctuaries,1,Parliament and Assemblies,18,People and Persoalities,1,People and Persoanalities,2,People and Personalites,1,People and Personalities,189,Personalities,46,Persons and achievements,1,Pillars of science,1,Planning and management,1,Political bodies,2,Political parties and leaders,26,Political philosophies,23,Political treaties,3,Polity,485,Pollution,62,Post independence India,21,Post-Governance in India,17,post-Independence India,46,Post-independent India,1,Poverty,46,Poverty and hunger,1,Prelims,2054,Prelims CSAT,30,Prelims GS I,7,Prelims Paper I,189,Primary and middle education,10,Private bodies,1,Products and innovations,7,Professional sports,1,Protectionism and 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Sessions,3,Taxation,39,Taxation and revenues,23,Technology and environmental issues in India,16,Telecom,3,Terroris,1,Terrorism,103,Terrorist organisations and leaders,1,Terrorist acts,10,Terrorist acts and leaders,1,Terrorist organisations and leaders,14,Terrorist organizations and leaders,1,The Hindu editorials analysis,58,Tournaments,1,Tournaments and competitions,5,Trade barriers,3,Trade blocs,2,Treaties and Alliances,1,Treaties and Protocols,43,Trivia and Miscalleneous,1,Trivia and miscellaneous,43,UK,1,UN,114,Union budget,20,United Nations,6,UPSC Mains GS I,584,UPSC Mains GS II,3969,UPSC Mains GS III,3071,UPSC Mains GS IV,191,US,63,USA,3,Warfare,20,World and Indian Geography,24,World Economy,404,World figures,39,World Geography,23,World History,21,World Poilitics,1,World Politics,612,World Politics.UPSC Mains GS II,1,WTO,1,WTO and regional pacts,4,अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं,10,गणित सिद्धान्त पुस्तिका,13,तार्किक कौशल,10,निर्णय क्षमता,2,नैतिकता और मौलिकता,24,प्रौद्योगिकी पर्यावरण मुद्दे,15,बोधगम्यता के मूल तत्व,2,भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास,47,भारत का स्वतंत्रता संघर्ष,19,भारत में कला वास्तुकला एवं साहित्य,11,भारत में शासन,18,भारतीय कृषि एवं संबंधित मुद्दें,10,भारतीय संविधान,14,महत्वपूर्ण हस्तियां,6,यूपीएससी मुख्य परीक्षा,91,यूपीएससी मुख्य परीक्षा जीएस,117,यूरोपीय,6,विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं,16,विश्व एवं भारतीय भूगोल,24,स्टडी मटेरियल,266,स्वतंत्रता-पश्चात् भारत,15,
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PT's IAS Academy: यूपीएससी तैयारी - विश्व एवं भारतीय भूगोल - व्याख्यान - 20
यूपीएससी तैयारी - विश्व एवं भारतीय भूगोल - व्याख्यान - 20
सभी सिविल सर्विस अभ्यर्थियों हेतु श्रेष्ठ स्टडी मटेरियल - पढाई शुरू करें - कर के दिखाएंगे!
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