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भारत - वनस्पति, मृदा और वन भाग - 1
1.0 मृदा की परिभाषाएँ
मृदा एक प्राकृतिक निकाय है जो भूमि की सतह पर पाया जाता है और जिसमें ठोस (खनिज और जैविक पदार्थ), तरल और गैसें शामिल होती हैं। इसमें क्षितिज या परतें शामिल होती होती हैं, जिन्हें अनुवृद्धि, नाश, हस्तांतरण और ऊर्जा और पदार्थ के परिवर्तन या प्राकृतिक वातावरण में जड़वत् वनस्पतियों को समर्थित करने की क्षमता के परिणामस्वरूप प्रारंभिक सामग्री से अलग किया जा सकता है। मृदा की कुछ अन्य परिभाषाएँ निम्नानुसार हैंः
- पृथ्वी की तत्काल सतह पर उपस्थित असमेकित खनिज या जैविक सामग्री जो भू-वनस्पतियों के विकास के लिए एक प्राकृतिक माध्यम का कार्य करते हैं।
- पृथ्वी की सतह पर उपस्थित असमेकित खनिज या जैविक सामग्री जो निम्न आनुवांशिक और पर्यावरणीय कारकों के अधीन हैं और उनका प्रभाव दर्शाते हैंः जलवायु (जिनमें जल और तापमान के प्रभाव शामिल हैं), और स्थूल और सूक्ष्म जीव, उच्चावच द्वारा अनुकूलित, मूल द्रव्य पर लंबे समय तक कार्यरत हैं। एक उत्पाद मृदा, जिस सामग्री से वह व्युत्पन्न है उससे अनेक भौतिक, रासायनिक, जैविक और आकृति विज्ञान गुणों और विशेषताओं की दृष्टि से भिन्न होती है।
मृदा की सीमा मृदा और हवा, उथले जल, सजीव वनस्पति, या ऐसी वनस्पति सामग्री जो सड़ना शुरू नहीं हुई है, के बीच की सीमारेखा है। उन क्षेत्रों में मृदा होना नहीं माना जाता जो स्थाई रूप से रूप से इतने गहरे पानी से आच्छादित हैं (आमतौर पर 2.5 मीटर से अधिक) जिसमें जडवत् वनस्पति विकसित नहीं हो सकती। मृदा को नीचे की गैर- मृदा से अलग करने वाली निचली सीमा को परिभाषित करना अत्यंत कठिन है।
2.0 मृदा की विशेषताएं
मूल सामग्रीः मूल सामग्री में कठोर प्रतिरोधी (less resistant) और कम प्रतिरोधी चट्टानें शामिल हैं। ग्रेनाइट, संगमरमर और स्लेट कठोर प्रतिरोधी चट्टानों के उदाहरण हैं जबकि ज्वालामुखीय लावा और राख, कायांतरित (शीस्ट, नाइस/शैल) और अवसादी चट्टानें (रेती पत्थर, चिकनी मिट्टी, तलछट और चूनापत्थर) कम प्रतिरोधी चट्टानों के उदाहरण हैं। ‘‘चट्टान‘‘ शब्द में कंकड़ (बजरी), चिकनी मिट्टी और असमेकित रेत, लेस, और जलोढ़क शामिल हैं जो कम सुगठित और कम प्रतिरोधी मृदाएं होती हैं।
खाद मिट्टी (Humus): खाद मिट्टी (धरण) मृत जैविक सामग्री के अपघटन का अंतिम उत्पाद होती है। यह एक संरचनाविहीन, गहरे भूरे या काले रंग का गाढ़ा रस होता है जो मृदा सतह के नीचे या उसके अंदर विद्यमान होता है। सामान्य मृदा की खाद मिट्टी काली होती है, और इस प्रकार यह ऊपरी मृदा को उप मृदा से अधिक गहरे रंग का बनाने के लिए जिम्मेदार होती है। यह मृदा की उर्वरकता को बनाये रखने में सहायक होती है। विभिन्न प्रकार की मृदाओं में खाद मिट्टी की मात्रा में व्यापक भिन्नता होती है।
मृदा की बनावटः मृदा में उपस्थित कणों का आकार मुख्य रूप से यह विशेषता निर्माण करता है। चिकनी मिट्टी वाली मृदा अधिक महीन, रेतीली और खुरदुरी होती है, जबकि तलछट बीच की होती है। मृदा कणों के मापन की मानक इकाई मिलीमीटर है, परंतु और अधिक छोटी इकाई है माइक्रोन (1 माइक्रोन 0.001 मिलीमीटर के बराबर होता है), जिसका अनुप्रयोग, उदाहरणार्थ, मृदा के श्लेष तंतु (soil colloid) के मापन में किया जाता है। रेतीली मृदा में व्यक्तिगत कण के दाने का आकार 0.05 और 0.2 मिलीमीटर के बीच होता है, जो नंगी आँख से देखा जा सकता है। चिकनी मिट्टी वाली मृदा के कणों के दानों का व्यास 0.002 मिलीमीटर होता है। गाद भरी मृदा रेत से अधिक महीन होती है परंतु चिकनी मिट्टी से अधिक खुरदुरी होती है। इसके कणों का व्यास 0.02 मिलीमीटर और 0.002 मिलीमीटर के बीच होता है।
मृदा की संरचनाः मृदा की संरचना का संबंध मृदा के कणों के गठन से होता है। जिस प्रकार से रेत, गाद, चिकनी मिट्टी और खाद मिट्टी एक परत बनाने की दृष्टि से जुड़ी होती हैं, उसे मृदा की संरचना कहते है।
मृदा की अम्लताः मृदा का पीएच मूल्य (pH value) उसकी अम्लता और क्षारीयता को निर्धारित करता है। पीएच मूल्य वह पैमाना है जो मृदा के श्लेष तंतुओं (कणों) द्वारा संघटित हाइड्रोजन आयनों के संकेंद्रण की माप करता है। शुद्ध जल में 10 मिलियन के एक भाग को अलग करके हाइड्रोजन आयनों का निर्माण किया जाता है, अर्थात 10-7 और इस प्रकार पीएच7 होता है; यह अम्लता के पैमाने पर एक तटस्थ अवस्था है। यदि दह विक्षार (कॉस्टिक सोड़ा) जैसे प्रभावशाली क्षार को पानी में घोला जाता है, तो उस विलयन (घोल) को क्षारीय (पीएच 14) के रूप में चिन्हित किया जाता है। इसके विपरीत हाइड्रोक्लोरिक अम्ल का पीएच मूल्य 3 है। एक तटस्थ मृदा का पीएच मूल्य लगभग 7.2 होता है, और अम्लीय मृदा का 7.2 से कम होता है (कभी-कभी यह 3 जितना न्यून भी होता है)। एक प्रभावशाली ढंग से क्षारीय मृदा का पीएच मूल्य 8 या उससे अधिक होता है।
मृदा हवाः मृदा में विद्यमान हवा ऑक्सीकरण की प्रक्रिया में सहायक होती है जो नाइट्रोजन को ऐसे रूप में परिवर्तित करती है जो वनस्पति को सुगमता से उपलब्ध हो जाती है। दूसरी ओर, अत्यंत उच्च घात का ऑक्सीकरण (उष्णकटिबंधीय प्रदेशों में) इतनी मात्रा में जैविक पदार्थों का उपभोग कर सकता है, कि मृदा बडे़ पैमाने पर अनुपजाऊ होती जाती है। अतः मृदा का वायु घटक मृदा के लिए भी और मृदा में विद्यमान जैविक जीवों के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। साथ ही अधिकांश बैक्टीरिया, जो मृदा में असंख्य संख्या में विद्यमान होते हैं, को ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है और उन्हें वायुजीवी के रूप में माना जाता है। चूंकि ये जीव वनस्पति और पशुओं के अवशेषों के विघटन के लिए जिम्मेदार होते हैं, अतः वायु की अनुपस्थिति उनकी गतिविधियों को सीमित कर देती है।
मृदा जलः मुख्यतः मृदा की बनावट इस बात को निर्धारित करती है कि मृदा में कितने जल का नीचे की और रिसाव होगा। मृदा में पानी की मात्रा में शुष्क जलवायु में शून्य, जो जीवों को जीवित रहना लगभग असंभव बना देती है, से लेकर संपूर्ण जलमग्नता की अवस्था, जो हवा को वर्जित कर देती है, बैक्टीरिया की गतिविधियों में कमी में परिणामित होती है, और अपघटन को सीमित कर देती है, तक भिन्नता हो सकती है।
मृदा क्षितिज (Soil Horizon) : मृदा क्षितिज मृदा की एक परत होती है जो सतह से लगभग समानांतर होती है, और इसके मृदा गुण भी विशिष्ट होते हैं। यह इसके ऊपर के और नीचे की परतों से रासायनिक दृष्टि से और/या भौतिक दृष्टि से भिन्न होती है।
मृदा प्रालेख (Soil Profile): यह जमीन सतह से मूल चट्टान तक मृदा क्षितिजों की एक उर्ध्वाधर श्रृंखला होती है। प्रालेख समान मूल चट्टान का परिणाम होता है जिसके क्षितिज और मृदा प्रालेख समान होते हैं, परंतु स्थान के अनुसार इनकी विशेषताएं भिन्न-भिन्न होती हैं।
3.0 भारत में मृदा के प्रकार
भारत की मिट्टी का वर्गीकरण विभिन्न मापदंडों के आधार पर किया जा सकता है। सर्वाधिक स्वीकार्य वर्गीकरण भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आयसीएआर) द्वारा प्रदान किया गया है। इस वर्गीकरण के अनुसार, भारत की मृदा को आठ समूहों में विभाजित किया जा सकता है।
3.1 जलोढ़ (कछारी) मिट्टी (Alluvial Soil)
कृषि की दृष्टि से जलोढ़ मिट्टी, भारत में पायी जाने वाली विभिन्न प्रकार की मिट्टी में सबसे महत्वपूर्ण है। देश के लगभग 24 प्रतिशत भाग में जलोढ़ मिट्टी पायी जाती है। इस प्रकार की मृदा नदियों और उनकी लहरों द्वारा बहा कर लायी गई तलछटों से बनी होती है। ये मिट्टी पंजाब से असम तक फैले विशाल मैदानी भागों, मध्यप्रदेश और गुजरात में फैली नर्मदा और ताप्ती की घाटियों, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा में महानदी के क्षेत्रों और आँध्रप्रदेश में गोदावरी और तमिलनाडु के कावेरी क्षेत्रों में पायी जाती है।
भू-विज्ञान की दृष्टि से विशाल मैदानी भागों की जलोढ़ मिट्टी दो भागों, खादर और भांगर (bhangar), में विभाजित है। पहले प्रकार की जलोधक मृदा नई जलोढ़क होती है, जबकि बाद की मृदा पुरानी जलोढ़क होती है। इस मिट्टी के पहचानने योग्य क्षितिज उपलब्ध नहीं हैं, और इसके कुछ भागों की मिट्टी पर नदियों की घाटियों में जमी अनुत्पादक पीली भूरी मिट्टी का आवरण होता है। आमतौर पर जलोढ़ मिट्टी में नाइट्रोजन और धरण सामग्री की कमी होती है, जिसके परिणामस्वरूप इसे बार-बार खाद और उर्वरकों की आवश्यकता पड़ती है। जलवायु की अनुकूलता के अनुसार इस प्रकार की मिट्टी सभी प्रकार की फसलों के लिए उपयुक्त मानी जाती है।
3.2 काली मिट्टी (Black Soil)
क्षेत्रफल की दृश्टि से काली मिट्टी भारत में पाये जाने वाले मिट्टी के प्रकारों में दूसरा सबसे बड़ा समूह है। नमी को बनाये रखने की इसकी क्षमता के चलते, काली मिट्टी कपास की खेती के लिए आदर्श मानी जाती है। कई बार इसे ब्लैक कॉटन सॉइल कहा जाता है, और यह मिट्टी दक्कन के पठार के विस्तृत भागों में पायी जाती है। हालाँकि यह मिट्टी गन्ने, नींबू प्रजाति के फलों और केले की खेती के लिए भी उपयुक्त मानी जाती है। इस मिट्टी को चेर्नोजे़म के रूप में भी वर्गीकृत किया जाता है, हालाँकि स्थानीय भाषा में इसे रेगुर मिटटी कहा जाता है। इस प्रकार की मिट्टी महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु के बडे़ हिस्सों में पायी जाती है। इस मिट्टी का काला रंग इसमें उपस्थित लौह और एल्युमीनियम के यौगिकों की उपस्थिति के कारण होता है। इस गुणवत्ता की मिट्टी की एक और विशेषता यह है की गीली होने पर यह मिट्टी बहुत अधिक चिपचिपी होती है और सूख जाने पर इसमें बड़ी-बड़ी दरारें पड़ जाती हैं। इसके उपजाऊपन का स्तर काफी स्वीकार्य है। नमी को पकड़ कर रखने की इसकी क्षमता के कारण इस मिट्टी को सिंचाई की अधिक आवश्यकता नहीं होती।
3.3 लाल मिट्टी (Red Soil)
मिट्टी का यह प्रकार भारत में पायी जाने वाली मिट्टियों में तीसरा सबसे बडा प्रकार है, और इसका विस्तार प्रायद्वीपीय क्षेत्र में पूर्व में राजमहल पर्वत श्रृंखलाओं तक, उत्तर में झाँसी तक और पश्चिम में कच्छ की पहाड़ियों तक फैला हुआ है। यह मिट्टी, काली मिट्टी को उसके पूर्व, दक्षिण-पूर्व और उत्तरी भागों में घेरे हुए है। यह आमतौर पर भुरभुरी (छिद्रयुक्त) होती है और इसमें कम अनुपात में घुलनशील लवणों और चूने की मात्रा पायी जाती है। लाल मिट्टी में नाइट्रोजन, धरण और फॉस्फोरस की कमी होती है। लाल मिट्टी आमतौर पर चाँवल, रागी, तम्बाखू और सब्जियों की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। इस मिट्टी में आलू और मूंगफली की खेती उच्च उन्नयन पर की जाती है।
3.4 लैटेराइट और लैटेरिटिक मिट्टी (Laterites)
इस प्रकार की मिट्टी भारत की मिट्टी का चौथा प्रकार है। जमीन के भीतरी भागों में विद्यमान चट्टानों के अपघटन (सड़न) की प्रक्रिया से निर्मित इस प्रकार की मिट्टी में उपस्थित लौह ऑक्साइड इस मिट्टी को लाल रंग प्रदान करता है। यह मिट्टी प्रमुख रूप से सह्याद्रि के ऊंचाई वाले भागों, पूर्वी घाटों, राजमहल पर्वतों और प्रायद्वीप के ऊंचाई वाले भागों में पायी जाती है। इस प्रकार की मिट्टी महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल के कई भागों जैसे निचले इलाकों और ओड़िशा, पश्चिम बंगाल और असम के कई क्षेत्रों में भी पायी जाती है। बड़ी मात्रा में लवणों के बहाव के कारण इस प्रकार की मिट्टी में धरण, नाइट्रोजन और घुले हुए लवणों की कमी होती है। यदि आवश्यक खाद की नियमित आपूर्ति की जाये, तो यह मिट्टी चावल और रागी की खेती के लिए उपयुक्त है।
3.5 वनीय मिट्टी (Forest Soil)
वन और पहाड़ी इलाके वनीय मिट्टी से आच्छादित हैं, जो जैव-पदार्थों से भरपूर है, किंतु प्रमुखता की स्थितियों अनुसार इसके चरित्र में बदलाव पाया जाता है। उत्तर की हिमालय और अन्य पर्वत श्रृंखलाओं, और दक्षिण और प्रायद्वीपीय कहेतर की ऊंची पहाड़ियों में यह मिट्टी पायी जाती है। कई स्थानों पर यह मिट्टी पॉडजोलिसेशन के संकेत देती है। वनीय मिट्टी में पोटाश, फॉस्फोरस और चूने की कमी होती है, अतः अच्छी उपज के लिए इसे निरंतर उर्वरकों की आपूर्ति की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार की मिट्टी में चाय, कॉफी, मसाले और उष्णकटिबंधीय फल बागान लगाये जाते हैं। (Podzolization - अल्युमिनियम व लोहे का नीचे जाना व साथ में जैविक पदार्थों का भी, एवं इस प्रकार सतह से गहरे में जम जाना)
3.6 बंजर और रेगिस्तानी मिट्टी (Arid and Desert Soils)
इस प्रकार की मिट्टी देश के उत्तर पश्चिमी भागों में पायी जाती है। इसमें राजस्थान की अरावली पर्वत श्रृंखला के संपूर्ण पश्चिमी भाग से लेकर हरियाणा, पंजाब और गुजरात के कुछ क्षेत्र शामिल हैं। इस प्रकार की मिट्टी में फॉस्फोरस प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, परंतु इसमें नाइट्रोजन और जैविक पदार्थों की कमी होती है। पानी के अभाव और और इसके रेतीलेपन के कारण फसलों की दृष्टि से यह मिट्टी अनुपयुक्त मानी जाती है। हालाँकि, यदि उचित सिंचाई सुविधाएँ और नियमित रूप से उर्वरकों की आपूर्ति प्रदान की जाएँ तो यह मिट्टी काफी उपजाऊ होती है।
3.7 लवणीय और क्षारीय मिट्टी (Saline and Alkaline Soils)
प्रमुख रूप से राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और बिहार के अर्ध-शुष्क इलाकों में सोडियम, कैल्शियम और मैग्नीशियम के लवणों और क्षारों से युक्त मिट्टी पायी जाती है। इन जमीनों को रेह, कल्लार या ऊसर कहा जाता है और यह पूर्ण रूप से अनुपजाऊ होती है। हालाँकि, लवण और क्षार जमीन की ऊपरी सतहों तक ही सीमित होते हैं, और अपवाह में सुधार करके इसे कृषियोग्य बनाया जा सकता है। क्षारीय मिट्टी में जिप्सम के प्रयोग द्वारा इसे कृषियोग्य बनाया जा सकता है।
3.8 वानस्पतिक कोयले से युक्त मिट्टी और अन्य जैविक मिट्टियां (Peaty and Other Organic Soils)
इस प्रकार की मिट्टियों में जैविक सामग्री और घुले हुए लवणों का प्रचुर मात्रा में संग्रह पाया जाता है। इस प्रकार से, यह मिट्टी प्रमुख रूप से लवणीय होती है, जिसमें जैविक सामग्री भरपूर होती है परंतु फॉस्फोरस और पोटाश की कमी होती है। वानस्पतिक कोयले से युक्त मिट्टी मुख्य रूप से केरल के कोट्टायम और एलेप्पी जिलों में पायी जाती है। दलदली मिट्टी ओड़िशा, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के तटीय इलाकों और मध्य और उत्तरी बिहार, और उत्तराखंड के अल्मोडा जिले में पायी जाती है। यह मिट्टी खेती के लिए उपयुक्त नहीं है।
3.9 करेवा मृदा (Karewa soil)
करेवा कश्मीर घाटी में और जम्मू मंडल के डोडा जिले की भदरवाह घाटी में विद्यमान सरोवरी निक्षेप को कहते हैं। ये सपाट शीर्ष वाले टीले हैं जो कश्मीर घाटी के चारों ओर के किनारे बनाते हैं। ये महीन तलछट, चिकनी मिट्टी, रेत और सीमा कंकडों से बने होते हैं। इनमें स्तन धारियों के जीवाश्मों की विशेषताएं होती हैं और स्थानों पर इनमें पांस (एक प्रकार की घास जो सुखा कर जलाने के काम आती है) की विशेषताएं भी पाई जाती हैं। भू-वैज्ञानिकों के अनुसार प्रातिनूतन युग के दौरान संपूर्ण कश्मीर घाटी पूर्ण रूप से जलमग्न थी। बाद में, सगोत्रीय बलों के कारण बारामूला तंग नदी घाटी का निर्माण हुआ और इस तंग नदी घाटी के माध्यम से तालाब का अपवाह हुआ। इस प्रक्रिया में बचे हुए निक्षेप को करेवा कहते हैं। करेवा की मोटाई लगभग 1400 मीटर होती है। वास्तव में करेवा को उन्नत किया गया है, उनका विच्छेदन किया गया है, और जीवों के अनाच्छादन और झेलम नदी द्वारा बडे़ पैमाने पर इन्हें हटाया गया है, और इस प्रकार उन्हें उनकी वर्तमान स्थिति प्राप्त हुई है। करेवा मुख्य रूप से केसर, बादाम, अखरोड, सेब और पुष्पोद्यानों की कृषि को समर्पित हैं। केसर की कृषि को समर्पित करेवा इसके कृषकों के लिए अच्छी आय पैदा कर रहे हैं। पालमपुर, पुलवामा और कुलगाम के करेवा श्रेष्ठ दर्जे के केसर के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हैं।
3.10 हिमक्षेत्र (Snow fields)
जो क्षेत्र बर्फ और हिमनदों से आच्छादित है उसका क्षेत्र लगभग 4 मिलियन हेक्टेयर है। महान हिमालय, काराकोरम, लद्दाख और जास्कर (जांस्कर) की उच्च चोटियां बर्फ और हिमनदों से ढंकी हुई हैं। इन क्षेत्रों की मृदा अपरिपक्व है जिसका आमतौर पर मृदा अपक्षरण नहीं हुआ है। यह क्षेत्र हिमाच्छादित रहता है और फसलों की कृषि की दृष्टि से उपयुक्त नहीं है।
4.0 भारतीय मृदाओं की समस्याएं
मृदा अपकर्षण प्राकृतिक कारकों और मानव गतिविधियों के कारण होता है, जैसे वनोन्मूलन, पशुओं की अत्यधिक चराई, और कृषि भूमि का अवैज्ञानिक उपयोग।
भू-क्षरणः ऊपरी मिट्टी के हटाने की प्रक्रिया को भू-क्षरण (soil erosion) कहते हैं। जिन क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा होती है ऐसे क्षेत्रों में पानी ही मृदा क्षरण का मुख्य कारण होता है, जबकि शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में तीव्र गति से चलने वाली हवा भू-क्षरण के लिए जिम्मेदार होती है। एक अनुमान के अनुसार लगभग 180 मिलियन हेक्टेयर (देश के कुल भू क्षेत्र का लगभग 60 प्रतिशत) क्षेत्र भू क्षरण के कारण प्रतिकूल प्रभावित होता है।
भू-क्षरण के मुख्य कारक हैं पानी, हवा, समुद्री लहरें, हिमनद, और स्थानांतरण कृषि। इनमें से भी भू-क्षरण का सबसे महत्वपूर्ण कारक है जल से होने वाले भू-क्षरण को निम्न तीन वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता हैः
- सतही भू-क्षरण या सतह से मृदा को समान रूप से हटाया जाना,
- अवनालिका भू-क्षरण जिसमें बहता हुआ पानी भूमि में उँगलियों के आकार की नालियां निर्मित कर देता है, और
- जलमार्गों की निर्मिति, जिसमें अवनालिकाएं बडी हो जाती हैं, जिसके कारण भूमि खराब हो जाती है और कृषि की दृष्टि से उपयुक्त नहीं रहती। जलमार्गों की निर्मिति से होने वाले भू-क्षरण का एक आम उदाहरण मध्य प्रदेश की चंबल घाटी प्रदान करती है। राजस्थान और उत्तर प्रदेश भी जलमार्गों की निर्मिति से होने वाले भू-क्षरण के आम उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जल मार्गों की निर्मिति से निर्मित होने वाला भू-क्षरण पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर और उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के शिवालिक भू-क्षेत्र और हिमालय की दक्षिणी ढ़लान और पश्चिमी और पूर्वी घाटों में भी काफी अधिक मात्रा में पाया जाता है।
वायु जनित भू-क्षरण राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी मध्यप्रदेश और गुजरात के शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में काफी व्यापक पैमाने पर होता है। हवा प्रायद्वीपीय भारत के तटीय मैदानों की मृदा का क्षरण करती है। उत्तरप्रदेश, गुजरात, हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी मध्यप्रदेश की हजारों हेक्टेयर भूमि इस प्रक्रिया के कारण प्रतिकूल प्रभावित हुई है। अरब सागर और बंगाल की खाड़ी का ज्वारीय जल तटीय क्षेत्रों की मृदा को काफी क्षति पहुंचाता है। केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओड़िशा और गुजरात के तटों के किनारों का गंभीर भू-क्षरण समुद्री लहरों के कारण होने वाले भू-क्षरण के उदाहरण हैं।
भू-क्षरण से प्रभावित होने वाला सबसे बड़ा क्षेत्र है राजस्थान, जिसके बाद क्रमशः मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, गुजरात, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक का क्रमांक आता है। भू-क्षरण से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्रों में निम्न क्षेत्र शामिल हैंः चंबल और यमुना नदियां, शिवालिक के दक्षिणी ढ़लान और महान हिमालय, पश्चिमी और पूर्वी घाट, छोटा नागपुर पठार, और राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और पंजाब के शुष्क क्षेत्र।
घटती मृदा उर्वरकताः मृदा की उर्वरकता के घटने के मुख्य कारण हैं लंबी समयावधि (सदियों तक) के लिए मृदा का उपयोग नहीं करना, और कृषि भूमि पर बिना जुताई नहीं करते हुए बहु फसलीकरण को अपनाना। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के कृषक अपनी भूमि की उर्वरकता के घटने की अक्सर शिकायत करते हैं। अनेक दशकों तक लगातार फसलों के अवैज्ञानिक ढंग से आवर्तन (गेहूं और चांवल) ने भारत के महान मैदानों की भूमि की उर्वरकता को काफी क्षति पहुंचाई है। एक मृदा सघन फसल के बाद फलीदार फसल लेने की पद्धति प्रभावित क्षेत्रों की कृषि भूमि की उर्वरकता में काफी सुधार कर सकती है।
जल जमावः क्षेत्रों में जल जमाव की स्थिति तब निर्मित होती है जब भूजल स्तर इस हद बढ़ जाता है कि फसलों का जडवत् क्षेत्र संतृप्त हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि हवा का प्राकृतिक प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है, ऑक्सीजन के स्तर में कमी हो जाती है, और कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में वृद्धि हो जाती है। भारत में ऐसे अनेक गलत तरीके से अपवाहित निचले इलाके हैं जहां जल जमाव के कारण मृदा की क्षति हुई है। जल जमाव ने इंदिरा गांधी नहर (राजस्थान) और पंजाब और हरियाणा एयर उत्तरप्रदेश की नहरों के आसपास की भूमि को काफी प्रभावित किया है। जल निकासी का पर्याप्त विकास और जल रिसाव को कम करने के लिए नहरों का अस्तर करना जल जमावडे़ वाले क्षेत्रों के सुधार में काफी महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है।
लवणीय और क्षारीय मृदाएंः अपेक्षाकृत कम वर्षा वाले क्षेत्रों में मृदा लवणीयता और क्षारीयता से ग्रस्त होती है। यह वर्षण की दर की तुलना में वाष्पीकरण की उच्च दर के कारण होता है। ये स्थितियां खादर भूमि और नहर द्वारा सिंचित क्षेत्रों में भी पाई जाती हैं। ऐसी स्थितियों में भूजल स्तर में वृद्धि होती है और सोडियम, कैल्शियम और मैंगनीज लवणों के लवणयुक्त और क्षारीय उत्फुल्लन सतह पर केशिका क्रिया के माध्यम से एक परत के रूप में प्रकट होते हैं। ऐसा अनुमान है कि लगभग 80 लाख हेक्टेयर (देश के कुल क्षेत्र का लगभग 2.4 प्रतिशत) क्षेत्र लवणयुक्त और क्षारीय निर्मिति के कारण प्रतिकूल प्रभावित हुआ है।
लवण सपाटः अत्यधिक कैल्शियम क्लोराइड से गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त मृदा कच्छ के रण में पाई जाती है। ये मृदा लवणयुक्त, दलदली, और ऊंची घास, छोटी झाड़ियों और बड़ी झाड़ियों से संक्रमित होती है। कृषि की दृष्टि से वे लगभग बेकार होती हैं। लवण सपाटों को कृषि भूमि या चरागाहों में परिवर्तित करने के लिए एक समृद्ध रणनीति विकसित करना आवश्यक है। 1985 में कृषि मंत्रालय द्वारा प्रदान किये गए आंकड़ों के आधार पर योजना आयोग मृदाओं/भूमि के प्रकार और उनके कारण का उल्लेख करता है।
5.0 मृदा और मृदा संरक्षण की समस्याएं (Soil Conservation in India)
मिट्टी एक अत्यंत महत्वपूर्ण संसाधन है और यह किसी भी देश के लिए खाद्यान्नों की आपूर्ति का आधार है। हालाँकि मिट्टी को एक अक्षय संसाधन माना जाता है, फिर भी, यदि कृषि की प्रक्रिया के दौरान इसके साथ दुर्व्यवहार किया गया, या इसका दुरूपयोग किया गया तो इसकी गुणवत्ता का हृस होता जाता है। मिट्टी के विवेकहीन उपयोग से मृदा क्षरण, इसकी उर्वरकता में गिरावट और मिट्टी के प्रदूषण जैसी अनेक समस्याएं निर्माण हो सकती हैं। मृदा क्षरण से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है, जिसके तहत मिट्टी की ऊपरी सतह से मिट्टी के निष्कासन की दर, अंदरूनी भागों से नई मिट्टी की सतहों की आपूर्ति की दर से अधिक होती है। अत्यधिक क्षरण के कारण मिट्टी की सतहों की गहराई में कमी आती है, और इसके परिणामस्वरूप कई बार मिट्टी का निचला तल खुल कर ऊपर दिखाई देने लगता है और इस प्रकार यह मिट्टी को कृषि की दृष्टी से अनुपयोगी बना देता है। क्षरण की समस्या पहाड़ी और शुष्क प्रदेशों में सबसे गंभीर है। मृदा क्षरण के सबसे आम कारणों में जंगलों की अत्यधिक कटाई और खड़ी ढ़लानों पर खेती और जमीन का चरागाहों के रूप में अत्यधिक उपयोग जैसी कृषि की दोषपूर्ण पद्धतियाँ हैं।
मिट्टी से पौधों का आवरण हटा देने से मिट्टी बहते जल प्रवाहों और तेज हवाओं इत्यादि द्वारा क्षरण के लिए खुल जाती है और क्षरण के लिए अनुकूल हो जाती है। देश के मध्य भागों में जमीन मुख्य रूप से रेतीली है, जो अवनालिका क्षरण की दृष्टी से अत्यंत खतरनाक है, और इस प्रकार के क्षरण से बीहड़ और बंजर भूमि निर्मित हो जाती है। चंबल और यमुना के बीहड इस प्रकार के क्षेत्रों के उदाहरण हैं। जिन क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा होती है, उन क्षेत्रों की मिट्टी सतही क्षरण की दृष्टी से खतरनाक होती है, क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में पानी के निरंतर प्रवाह के कारण जमीन की ऊपरी सतह नियमित रूप से बहते पानी के साथ निकलती जाती है।
जनसंख्या के बढ़ते दबाव के चलते जमीन के बहुफसली उपयोग और सिंचित कृषि जैसे उपयोगों से भूमि के उपयोग की सघनता बढ़ती जाती है। अतः यदि ज़मीन की उर्वरकता को बनाये रखने के नियमित उपाय नहीं किये गए, तो ज़मीन की उर्वरकता का हृ्रास होता जाता है। भूमि की उर्वरकता बनाये रखने के लिए ज़मीन की नियमित मशागत करना, जमीन को फसल के लिए सही तरीके से तैयार करना, फसलों का पुनरावर्तन करना और हरी खाद का उपयोग करना अत्यंत आवश्यक है। हालाँकि, जनसंख्या वृद्धि के दबाव के कारण खाद्यान्नों की बढ़ती मांग के चलते ज़मीन की उर्वरकता को बनाये रखने के लिए किये जाने वाले ये सारे प्राकृतिक उपाय आज अव्यावहारिक हो गए हैं। इसीलिए आज जमीन की उर्वरकता को बनाये रखने का सबसे व्यवहारिक और आम तरीका खाद और उर्वरकों की आपूर्ति बन गया है। इन दिनों, जैव-उर्वरक की अवधारणा (विभिन्न प्रकार के शैवाल जैसे नाइट्रोजन की मात्रा तय करने वाले पौधे उगाना) और कृमि (जमीन की उर्वरकता बनाये रखने के लिए केंचुए आदि का उपयोग) काफी लोकप्रिय हो रहे हैं।
बहुफसली कृषि और उच्च उत्पादकता वाली किस्मों की कृषि के लिए सिंचाई अत्यंत आवश्यक हो गई है। लेकिन सभी प्रकार की मिट्टी गहन सिंचाई के लिए अनुकूल नहीं होती। ऐसे क्षेत्रों में जहां मिट्टी के अपवाह की उचित व्यवस्था नहीं है, वहां अत्यधिक सिंचाई से मिट्टी के क्षारीय होने की संभावना बढ़ जाती है। मिट्टी में बढ़ते हुए क्षारों की मात्रा भारत के कई क्षेत्रों में गंभीर समस्या बन चुकी है। क्षारीय भूमि को फिर से कृषियोग्य बनाने के लिए मिट्टी के उचित अपवाह की व्यवस्था करना और जिप्सम के उपयोग जैसे उपायों का सुझाव दिया जाता है। अर्ध शुष्क जलवायु के क्षेत्रों में अत्यधिक सिंचाई के कारण जमीन की लवणीयता एक और प्रमुख समस्या है। अत्यधिक लवणीयता के कारण ज़मीन दुर्भेद्य होकर अनुपजाऊ बन सकती है। आज कई क्षेत्रों में भूमि का संदूषण भी एक प्रमुख समस्या बनती जा रही है। इसका कारण रासायनिक उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग हो सकता है (एक विशिष्ट प्रकार का रासायनिक यौगिक जमीन में और भूगर्भीय जल में एकत्रित होना) या इसका एक और कारण कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों का अत्यधिक उपयोग भी हो सकता है। संदूषण के कारण वे सूक्ष्म जंतु नष्ट हो जाते हैं जो ज़मीन की उर्वरकता बनाये रखने के लिए आवश्यक हैं। इस प्रकार, मृदा जीवंतता के प्राकृतिक तरीके अवरुद्ध हो जाते हैं।
मृदा संरक्षण का अर्थ है, ज़मीन की सेहत को इस प्रकार बनाये रखना ताकि फसल उत्पादन प्रभावित ना होने पाये। जमीन से संबंधित विभिन्न समस्याओं के समाधान और बचाव के लिए विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार के उपाय किये जा सकते हैं। उदाहरणार्थ, भू-क्षरण रोकने के लिए आवश्यक है कि जमीन पर पौधों का पर्याप्त आच्छादन बना रहे ताकि जमीन क्षरण पैदा करने वाले कारकों के प्रभाव से संरक्षित रहे। भू-संरक्षण के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में और ज़मीन की प्रकृति को देखते हुए करने योग्य अन्य उपाय हैं समोच्च जुताई, ढ़लानों पर छतें बनाना, पलवार करना (घास-पात से ढ़ंकना), तटबंधों और बाढ़ चौनलों का निर्माण और कृषि के वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग। इसी प्रकार, खड़ी ढ़लानों पर खेती करना और अत्यधिक चराई जैसे कामों को टालना होगा। चूँकि मृदा निर्मिति एक काफी लंबी और धीमी प्रक्रिया है, अतः क्षरण की रोकथाम ही सबसे उपयुक्त कार्यनीति हो सकती है।
भूमि की उर्वरकता प्राकृतिक तरीकों से ही बनाये रखने के लिए प्रयास किये जाने चाहिए और रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों के अत्यधिक उपयोग से बचना होगा, ताकि भूमि के संदूषण को रोक जा सके। रासायनिक उर्वरकों के उपयोग के अधिक वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है, जिससे कि उर्वरकों में विद्यमान पोषक तत्वों को पौधे अधिक कुशलता से अवशोषित करने में सक्षम हों, इस प्रकार उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से भी बचा जा सकता है। इससे न केवल भूमि का संदूषण प्रतिबंधित होगा बल्कि इसके द्वारा भूजल को संदूषित होने सभी रोका जा सकता है, जिसमें आमतौर पर उर्वरकों में उपस्थित अतिरिक्त रसायन घुलते जाते हैं जो जलाशयों को संदूषित कर देते हैं। इस दिशा में खाद और जैविक उर्वरकों का उपयोग भी महत्वपूर्ण मददगार साबित हो सकता है। कीटों के जैविक नियंत्रण के माध्यम से रासायनिक कीट नाशकों के अतिरिक्त उपयोग से बचा जा सकता है। जैविक कीटनाशकों के उपयोग के द्वारा मिट्टी में जमा होने वाले हानिकारक रसायनों से बचाव किया जा सकता है। कीटनाशकों में आमतौर पर बैक्टीरिया, फफूंद, विषाणु या एककोशी जीवगण घटकों के रूप में मौजूद होते हैं। खरपतवार नाशकों का उपयोग बहुत ही विवेकपूर्ण तरीके से करना चाहिए ताकि उनके अतरिक्त उपयोग सुर जमीन में उनके एकत्रीकरण से बचा जा सके।
क्षारीयता, लवणीयता या पानी की जमावट जैसी समस्याओं से ग्रसित भूमि को फिर से कृषियोग्य बनाने के प्रयास किये जाने चाहिए। इन उपायों से कृषियोग्य भूमि के क्षेत्र में वृद्धि की जा सकती है, साथ ही साथ इनसे वनभूमि का संरक्षण भी सुनिश्चित किया जा सकेगा, क्योंकि फिलहाल अतिरिक्त कृषियोग्य भूमि की आपूर्ति प्रमुख रूप से वनों की कटाई के माध्यम से ही प्राप्त की जा रही है। इस प्रकार हम अपने वनों के क्षेत्रों में भी वृद्धि कर सकेंगे। यदि कृषि भूमि का उपयोग विवेकशील और वैज्ञानिक तरीकों से किया जाय तो उपलब्ध कृषि भूमि, भूमि उपयोग की सघनता को वहन कर सकती है, इससे भूमि की पौधों की उपज क्षमता और गुणवत्ता और अन्य क्षमता पर भी विपरीत प्रभाव नहीं पडे़गा।
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