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जलवायु विज्ञान भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
वायुमंडल का इसकी वर्तमान अवस्था में स्थिरीकरण कैंब्रियन काल के दौरान (लगभग 60 करोड़ वर्ष पूर्व) हुआ था। वर्तमान वायुमंडल की गैसें ज्वालामुखी विस्फोटों, गर्म जलस्रोतों, ठोस पदार्थों के रासायनिक विखंड़न और जीवमंडल से वितरण, जिसमें प्रकाश संश्लेषण और मानव गतिविधि भी शामिल है, का विकासवादी उत्पाद हैं।
2.0 वायुमंडल (Atmosphere)
वायुमंडल गैसों और वाष्प से बना हुआ है, और इसको प्रवेशी सौर ऊर्जा सूर्य से प्राप्त होती है, जिसके परिणामस्वरूप हम जिसे जलवायु कहते हैं, उसकी निर्मिति होती है। वास्तव में हम इस अनंत वायुमंडल की सबसे निचली परत में रहते हैं, जहां हवा सबसे घनी होती है। इससे ऊपर हवा विरल होती जाती है, और यह अभी भी अनुमान का ही विषय है, कि वास्तव में वायुमंडल का अंत कहां होता है। एक अनुमान इस सीमा को समुद्र सतह से लगभग 600 मील ऊपर रखता है। सबसे निचली परत, जिसमें मौसम परिरुद्ध है, उसे क्षोभमंडल (troposphere) कहते हैं।
इसका विस्तार पृथ्वी की सतह से 6 मील की ऊँचाई तक होता है, और इसके अंदर बढ़ती ऊँचाई के साथ आमतौर पर तापमान गिरता है। क्षोभमंडल के अंदर तापमान, वर्षा, बादल, दबाव और आर्द्रता जैसे जलवायु तत्व स्थानीय जलवायु और मौसम के कारण बनते हैं, जिनकी हमारे दैनंदिन जीवन में काफी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पृथ्वी के विभिन्न स्थानों से किये गए विश्लेषणों के आधार पर यह पाया गया है कि वायुमंडल के निचले भाग में कुछ विशिष्ट गैसों का सुसंगत अनुपात पाया जाता हैः 78.084 प्रतिशत नाइट्रोजन, 20.946 प्रतिशत ऑक्सीजन, 0.93 प्रतिशत आर्गन और 0.04 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड। हीलियम और अन्य दुर्लभ गैस वायुमंडल की संरचना को पूर्ण करते हैं।
इसके अतिरिक्त, इसमें पानी का अप्रत्याशित अनुपात पाया जाता है, जो या तो वाष्प के रूप में गैसीय स्वरूप में, या वर्षा, बादल और तुषार वर्षा के रूप में तरल स्वरुप में, या बर्फ और ओलों के रूप में ठोस स्वरुप में विद्यमान होता है। इसमें धुएं और धूल जैसे अन्य ठोस कण भी विद्यमान होते हैं। वायुमंडल में पाये जाने वाले भिन्न-भिन्न जल अनुपात के कारण ही हमें विश्व के विभिन्न भागों में इतने विविध और विरोधाभासी मौसम और जलवायु के प्रकार देखने को मिलते हैं। यदि हम एक शुष्क वायुमंडल में रहते, जिसमें पानी लेशमात्र भी नहीं होता, तो विश्व में मौसम होते ही नहीं, और शायद जलवायु भी बहुत ही कम दिखाई देती।
क्षोभ मंडल के ऊपर समताप मंडल स्थित होता है, या जिसे वायुमंडल की ऊपरी परत भी कहते हैं। यह ऊपर की ओर और अधिक 50 मील, या इससे भी अधिक ऊँचाई तक विस्तारित होता है। यह न केवल अत्यधिक ठंडा होता है, बल्कि इसमें बादल भी नहीं होते और इसकी हवा बहुत ही अधिक विरल होती है, जिसमें धूल के कण, धुआं या जल वाष्प भी नहीं होते, परंतु इस क्षेत्र में भी उल्लेखनीय मौसमी तापमान परिवर्तन अनुभव किये जाते हैं।
समतापमंडल के पार आयनमंडल (ionosphere) या योण क्षेत्र होता है, जो कुछ सौ मील ऊपर तक जाता है। इसमें विद्युत संचालित परतें होती हैं जो लंबी दूरी तक लघु तरंग रेड़ियो संचरण संभव बनाती हैं। आधुनिक कृत्रिम उपग्रह और गुब्बारे, जो वायुमंडल के ऊपरी स्तर पर स्थापित किये जाते हैं, वायुमंडल की स्थिति के बारे में पृथ्वी पर महत्वपूर्ण सूचनाएं संचारण करने के लिए उपयोग किये जाते हैं।
3.0 पृथ्वी का तापीय बजट (Heat Budget)
पृथ्वी के तापीय बजट की परिभाषा प्रवेशी और निर्गमी सौर विकिरण के बीच के संतुलन के रूप में की जाती है। विश्व भर में वर्ष की विभिन्न अवधियों के दौरान और पृथ्वी के विभिन्न स्थानों पर प्रवेशी सौर ऊर्जा भिन्न-भिन्न होती है।
3.1 सूर्यातप (Insolation)
पृथ्वी के वायुमंडल को प्राप्त होने वाली ऊर्जा का एकमात्र स्रोत सूर्य से प्राप्त होने वाली ऊर्जा है, जिसका सतही तापमान 10,800 अंश फेरनहाइट से भी अधिक है। यह ऊर्जा अंतरिक्ष के माध्यम से 93 मिलियन मील (9 करोड़ 30 लाख मील) की दूरी तय करते हुए हम तक सौर ऊर्जा या दीप्तिमान ऊर्जा के रूप में सूर्यातप नामक प्रक्रिया से पहुँचती है। सूर्य से होने वाला यह विकिरण तीन भागों से मिलकर बना होता है - दृश्य ‘सफेद‘ प्रकाश, जो हम सूर्य के चमकने के दौरान देखते हैं, और कम दृश्य पराबैंगनी और अवरक्त किरणें।
दृश्य ‘सफेद‘ प्रकाश सबसे अधिक गहन होता है, और इसका हमारी जलवायु पर सर्वाधिक प्रभाव होता है। पराबैंगनी किरणें (ultra-violet rays) हमारी त्वचा को प्रभावित करती हैं, और जब हमारा खुला शरीर लंबे समय तक इसके संपर्क में आता है तो इसके कारण सूर्यदाह (Sunburn) होता है। अवरक्त किरणें (infra-red) धूल और कोहरे को भी बेध सकती हैं, और फोटोग्राफी में इनका व्यापक उपयोग किया जाता है। सूर्य के विकिरण का केवल वह भाग जो पृथ्वी तक पहुंचता है सूर्यातप कहलाता है।
सबसे महत्वपूर्ण है प्रवेशी सौर विकिरण पर वायुमंडल का प्रभाव। ऐसा अनुमान है कि हम तक पहुँचने वाले कुल विकिरण में से 35 प्रतिशत वायुमंडल तक पहुँचता है, और धूल, बादलों और हवा के अणुओं द्वारा सीधे वापस अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाता है। इसकी पृथ्वी और उसके वायुमंडल को गर्म करने में लगभग कोई भूमिका नहीं होती।
इसके अतिरिक्त 14 प्रतिशत जल वाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य गैसों द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। हवा द्वारा इसका अंतरग्रहण करने के कारण इसका ‘‘बिखराव‘‘ और ‘‘प्रसरण‘‘ होता, है, जिसके कारण पराबैंगनी और अवरक्त किरणों के बीच की वर्ण-पट की दृश्य किरणें आकाश को इसका विशेष नीला रंग प्रदान करती हैं, जो हम हमारे वायुमंडल में देखते हैं। बचा हुआ 51 प्रतिशत विकिरण पृथ्वी तक पहुँचता है और इसकी सतह को गर्मी प्रदान करता है।
इसके बदले में पृथ्वी अपनी सतह के ऊपर की हवा को प्रत्यक्ष संपर्क या प्रवाहकत्त्व (conduction) के माध्यम से, और हवा की धाराओं और संवहन (convection) द्वारा ताप के संचरण के माध्यम से गर्म करती है। पृथ्वी द्वारा गर्मी का यह विकिरण रात में भी जारी रहता है, जब सूर्य से आने वाला सूर्यातप इसे प्रतिस्थापित नहीं कर सकता। अतः रात्रि के समय पृथ्वी की सतह ठंडी हो जाती है।
गर्म होने की दर जल की सतह और भूमि की सतह पर भिन्न-भिन्न होती है। भूमि जल की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक शीघ्र गर्म हो जाती है। चूंकि पानी पारदर्शी होता है, गर्मी अधिक धीमी गति से अवशोषित (absorb) होती है, और चूंकि पानी हमेशा गतिशील होता है, अतः इसके द्वारा अवशोषित की गई गर्मी अधिक विस्तृत क्षेत्र और गहराई तक वितरित हो जाती है। अतः तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि होने में काफी अधिक समय लगता है। दूसरी ओर पृथ्वी के अपारदर्शी स्वरुप के कारण भूमि पर अधिक अवशोषण होता है, परंतु संपूर्ण दीप्तिमान गर्मी पृथ्वी की सतह पर ही संकेंद्रित होती है, और इस कारण से तापमान में तेजी से वृद्धि होती है। भूमि और जल की सतहों की इन भिन्नताओं के कारण भूमि पानी की तुलना में ठंडी भी अधिक तेजी से होती है।
3.2 अक्षांश और ऊर्जा संतुलन (Latitude and Energy balance)
पृथ्वी की ऊर्जा संतुलन की दो मुख्य विशेषतायें निम्नानुसार हैंः
- उष्णकटिबंधीय अक्षांशों पर सौर ऊर्जा का शुद्ध लाभ होता है, जबकि ध्रुवों की ओर सौर ऊर्जा की शुद्ध हानि होती है
- उष्णकटिबंधीय अक्षांशों को ध्रुवीय क्षेत्रों की तुलना में सूर्य की ऊर्जा अधिक प्राप्त होती है।
35 अंश उत्तरी अक्षांश और 35 अंश दक्षिणी अक्षांश के बीच अधिशेष ऊर्जा होती है। इस क्षेत्र में प्रवेशी सूर्यातप निवर्तमान सूर्यातप से अधिक होता है।
उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों को ध्रुवीय क्षेत्रों की तुलना में अधिक सूर्यातप प्राप्त होता है। सूर्यातप ध्रुवों के लगभग 50 जूल्स से भूमध्यरेखा पर तेजी से 275 जूल्स तक बढ़ जाता है। स्थलीय विकिरण में विविधता अपेक्षाकृत अल्प होती है, जो ध्रुवों पर 120 जूल्स होती है और भूमध्यरेखा पर 200 जूल्स होती है। वायुमंडलीय प्रसार के माध्यम से निचले अक्षांशों के अधिशेष ऊर्जा क्षेत्रों से ऊर्जा उच्च अक्षांशों के अल्प ऊर्जा क्षेत्रों को स्थानांतरित होती है। हस्तांतरण की इस प्रक्रिया के अभाव में, निचले अक्षांश क्षेत्र अधिकाधिक गर्म होते जायेंगे और उच्च अक्षांश क्षेत्र अधिकाधिक ठंडे होते जायेंगे।
4.0 जलवायु के तत्व और उन्हें प्रभावित करने वाले कारक
जलवायु के विभिन्न तत्वों में से तापमान, वर्षा, दबाव और हवाएँ सबसे अधिक महत्वपूर्ण तत्व होते है क्योंकि इनके दूरगामी वैश्विक प्रभाव होते हैं। ये तत्व और उनका वितरण, चाहे फिर यह वितरण भूमध्यरेखा से ध्रुवीय क्षेत्र की दिशा में क्षैतिज हो, या भूमि से वायुमंडल की दिशा में ऊर्ध्वाधर हो, किसी न किसी प्रकार से जलवायु के कुछ या सभी कारकों से प्रभावित होता हैः जैसे अक्षांश, ऊँचाई, महाद्वीपीयता, महासागरीय धाराएं, सूर्यातप, प्रचलित हवाएँ, ढ़ाल और उसके पहलू, प्राकृतिक वनस्पति और मृदा।
4.1 तापमान (Temperature)
तापमान जलवायु को निम्नानुसार प्रभावित करता हैः
- तापमान हवा में विद्यमान वास्तविक जल वाष्प और इस प्रकार हवा की आर्द्रता वहन करने की क्षमता का निर्धारण करता है।
- यह वाष्पीकरण और संक्षेपण की दर का भी निर्धारण करता है, और इस प्रकार वायुमंडल की स्थिरता के स्तर को शासित करता है।
- चूंकि सापेक्ष आर्द्रता हवा के तापमान से सीधे संबंधित होती है, अतः यह बादलों के निर्माण के प्रकार और स्वरुप और वर्षा को भी प्रभावित करता है।
4.2 अक्षांश (Latitude)
जलवायु को निर्धारित करने वाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण कारक है अक्षांश। 23.5 अंश दक्षिण और 23.5 अंश उत्तर अक्षांशों के बीच कटिबंध स्थित हैं - जहां उच्च तामपान ही नियम है, और प्रति वर्ष एक या दो बार सूर्य सिर के ऊपर से सीधे स्थित होकर आग उगलता है। 23.5 अंश उत्तर और 66.5 अंश उत्तर, और 23.5 अंश दक्षिण और 66.5 अंश दक्षिण के बीच शीतोष्ण क्षेत्र स्थित है, जहां साफ वसंत/गर्मी के मौसम/वर्षा ऋतु और सर्दी के मौसम पाये जाते हैं। 66.5 अंश उत्तर से उत्तरी ध्रुव तक आर्कटिक स्थित है, और 66.5 अंश दक्षिण से दक्षिणी ध्रुव तक अंटार्कटिक स्थित है। इन क्षेत्रों में गर्मी के मौसम के एक भाग में या संपूर्ण गर्मी के मौसम के दौरान मध्य रात्रि को सूर्य क्षितिज के ऊपर होता है, और सर्दी के मौसम के दौरान कुछ दिन सूर्य उदय ही नहीं होता। ध्रुव पर दैनिक गति क्षितिज के सामानांतर होती है। देशांतर रेखा (meridian) के चित्र के साथ पृथ्वी के किसी भी स्थान से देखने पर किसी भी मौसम पर दोपहर के समय हम सूर्य की ऊँचाई निकाल सकते हैं। यह जानकारी एक बगीचे या घर की योजना बनाते समय बहुत ही उपयोगी हो सकती है, ताकि सूर्य का प्रकाश वहीं प्राप्त हो सकेगा जहां हम चाहेंगे। गर्मियों के मौसम के दोपहर के सूर्य की ऊँचाई की जानकारी अपनी खिड़कियों पर गर्मियों के दोपहर के सूर्य के विरुद्ध छाया किस प्रकार की जाए इस दृष्टि से भी उपयोगी हो सकती है, जबकि सर्दियों में सूरज आपके घर के अंतर्भाग को गर्म रखे।
4.3 ऊँचाई (Altitude)
चूंकि वायुमंडल मुख्य रूप से पृथ्वी से होने वाले संवहन (conduction) के कारण ही गर्म होता है, अतः यह अनुमान किया जा सकता है कि पृथ्वी की सतह के निकट के स्थान ऊँचाई वाले स्थानों की तुलना में अधिक गर्म होंगे। इस प्रकार, समुद्र सतह से ऊपर जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ती जाती है वैसे-वैसे तापमान में गिरावट होती जाती है। ऊँचाई के साथ गिरावट की यह दर (चूक दर) (lapse rate) कभी भी स्थिर नहीं होती, और यह स्थान के अनुसार और मौसम के अनुसार बदलती रहती है। परंतु व्यावहारिक प्रयोजन से यह माना जा सकता है 300 फुट ऊँचाई पर जाने के साथ तापमान में 1 अंश फेरनहाइट, या 100 मीटर ऊँचाई के साथ 0.6 अंश सेल्सियस की गिरावट होती है। आमतौर पर गर्मियों में यह सर्दियों की तुलना में अधिक होती है। उदाहरणार्थ, शीतोष्ण अक्षांशों में गर्मियों में केवल 280 फुट की ऊँचाई पर जाने से ही तापमान में 1 अंश फेरनहाइट की गिरावट हो जाएगी, जबकि सर्दियों में इसके लिए 400 फुट की ऊँचाई तक जाना पडे़गा। उसी प्रकार, रात की तुलना में दिन के दौरान चूक दर अधिक होती है, व सपाट मैदानों की तुलना में ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों में अधिक होगी। उष्णकटिबंधीय देशों में, जहां समुद्र सतह 80 अंश फेरनहाइट है, 4,500 फुट की ऊँचाई पर स्थित शहर का औसत तापमान 65 अंश फेरनहाइट दर्ज होगा।
4.4 महाद्वीपीयता (Continentality)
भूमि की सतहें जल सतहों की तुलना में अधिक शीघ्रता से गर्म होती हैं क्योंकि पानी की विशिष्ट ऊष्मा अधिक होती है। दूसरे शब्दों में, भूमि के दिए गए आयतन को 1 अंश फेरनहाइट तक गर्म करने के लिए आवश्यक ऊर्जा पानी के समान आयतन को एक अंश फेरनहाइट तक गर्म करने के लिए आवश्यक ऊर्जा से एक तिहाई तक कम होती है। महाद्वीपों के मध्य क्षेत्रों में समुद्र तटीय जिलों की तुलना में अधिक गर्म गर्मी के मौसम, अधिक ठंडे सर्दी के मौसम और तापमान का अधिक विस्तृत दायरा इसी कारण होते हैं।
4.5 महासागरीय धाराएं और हवाएँ (Ocean currents and winds)
महासागरीय धाराएं और हवाएँ, दोनों ही तापमान को प्रभावित करती हैं क्योंकि वे गर्मी या ठंडक का आसपास के क्षेत्रों में परिवहन करती हैं। गल्फ स्ट्रीम और उत्तर अटलांटिक बहाव जैसी महासागरीय धाराएं पश्चिमी यूरोप के जिलों को गर्म बनाये रखती हैं और उसके बंदरगाहों को बर्फ से मुक्त रखती हैं।
उसी अक्षांश पर स्थित परंतु उत्तर पूर्वी कनाड़ा के निकट ठंडी लैब्राडोर धाराओं जैसी ठंडी धाराओं के संपर्क में आने वाले बंदरगाह कई-कई महीनों तक ठंड से जमे हुए रहते हैं। ठंडी धाराएं गर्मी के तापमान में भी कमी करती हैं, विशेष रूप से तब जब वे तटवर्ती हवाओं द्वारा भूमि की ओर प्रवाहित होती हैं। दूसरी ओर तटवर्तीय पश्चिमी हवाएँ अधिकांश उष्णकटिबंधीय गर्म हवाओं को शीतोष्ण तटों की ओर प्रवाहित करती हैं, और ऐसा विशेष रूप से सर्दियों के मौसम में होता है। ब्रिटेन और नॉर्वे की ओर आने वाली पश्चिमी हवाएँ आमतौर पर गर्मियों में ठंडी हवाएँ होती हैं, और सर्दियों में गर्म हवाएँ होती हैं, और ये जलवायु को मध्यमार्गी बनाये रखने की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण होती हैं। फोहन, चिनूक, सिरोको, मिस्ट्रल जैसी स्थानीय हवाएँ भी तापमान में उल्लेखनीय परिवर्तन लाती हैं।
4.6 ढ़ाल, आश्रय और पहलू (Slope, shelter and aspect)
एक सामान्य ढ़ाल की तुलना में तीव्र ढ़ाल में तापमान में अधिक तीव्र परिवर्तन होते हैं। जिन पर्वत श्रृंखलाओं का संरेखण पूर्व-पश्चिम होता है, जैसे कि आल्पस पर्वत श्रेणियों का है, वहां दक्षिण दिशा के सामने की ‘‘धूप वाली ढ़ाल‘‘ के क्षेत्र में उत्तर दिशा के सामने की ‘‘छायादार ढ़ाल‘‘ की तुलना में तापमान अधिक ऊंचा होता है। दक्षिणी ढ़ाल का अधिक सूर्यातप अंगूर की बेल की खेती के लिए अधिक उपयुक्त होता है, और इसका वनस्पति आच्छादन भी अधिक तंदुरुस्त होता है। इसके परिणामस्वरूप यहां बस्तियां अधिक हैं और इसका उपयोग ‘‘छायादार ढ़ाल‘‘ की तुलना में अधिक अच्छे ढ़ंग से किया गया है। पहाड़ी क्षेत्रों में जब एक गर्म दिन के बाद शांत बादल-विहीन रात होती है, जब ऊँचाई वाले क्षेत्रों में हवा अधिक तेजी से ठंडी होती है, तो इसका परिणाम ठंडी भारी हवा के ढ़ाल के निचले इलाके की ओर प्रवाहित होने में हो सकता है, जो घाटी के निचले भाग में एकत्रित होकर गर्म हवा को ऊपर की ओर धकेलती है। ऐसे समय घाटी के निचले इलाकों में तापमान ढ़ाल के ऊपरी इलाकों की तुलना में कम हो सकता है। यहां चूक दर उल्टी हो गई है। इसे तापमान व्युत्क्रमण (temperature inversion) कहते हैं।
4.7 प्राकृतिक वनस्पति और मृदा
खुली भूमि और वन आच्छादित क्षेत्रों के तापमान में एक निश्चित भिन्नता होती है। अमेज़ॉन के जंगल के मोटे पत्ते अधिकांश प्रवेशी सूर्यातप को अवरुद्ध कर देते हैं, और इनमें से अनेक क्षेत्रों में सूर्य प्रकाश कभी भी धरती तक नहीं पहुँच पाता। वास्तव में जंगल में और उसके छायादार क्षेत्र में समान अक्षांश के खुले क्षेत्र की तुलना में तापमान कुछ अंश कम होता है। दिन के समय वृक्षों में वाष्पोत्सर्जन (evapo-transpiration) के कारण जल की हानि होती है, जिसके कारण उनके ऊपर की हवा ठंडी हो जाती है। सापेक्ष आर्द्रता बढ़ जाती है और धुंध और कोहरा निर्मित हो सकता है।
हल्के रंग की मृदा गहरे रंग की मृदा की तुलना में अधिक गर्मी को परावर्तित करती है, क्योंकि गहरे रंग की मृदा बेहतर अवशोषक होती है। इस प्रकार की मृदा भिन्नताएं क्षेत्र के तापमान में थोड़ा परिवर्तन कर सकती हैं। समग्र रूप से रेत जैसी शुष्क मिट्टियां तापमान परिवर्तन की दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील होती हैं, जबकि चिकनी मिट्टी जैसी गीली मिट्टियां अधिकांश नमी को सोखे रखती हैं, परिणामस्वरूप वे गर्म या ठंडी होने में अधिक समय लेती हैं।
5.0 वर्षा
5.1 वर्षा के प्रकार
यदि हवा ओसांक (dew-point) के नीचे पर्याप्त ठंड़ी हो जाती है, तो धूल के कणों के चारों ओर जल वाष्प की छोटी-छोटी बूँदें घनीभूत हो जाएँगी। जब वे समुद्र सतह से पर्याप्त ऊँचाई पर छोटी-छोटी जल बूंदों या बर्फ के माणभ (ice crystals) के रूप में तैरती हैं, तो वे बादलों के रेशे, मेघपुंज या मेघपटल (cumulus or stratus) निर्मित करती हैं। भूमि स्तर पर जब संक्षेपण (condensation) होता है, जो आवश्यक रूप से वर्षा में परिणामित नहीं होता, तो धुंध, कोहरा या कुहासा निर्मित हो जाता है। उच्च अक्षांशों या ऊँचाई वाले क्षेत्रों में जहां हिमांक के नीचे के तापमान पर जल वाष्प का संक्षेपण होता है, तो हिमपात होता है, जो या तो हिम तुषारों के रूप में हो सकता है या हिम माणभ के रूप में हो सकता है। यदि नम हवा तेजी से वायुमंडल की ठंडी परतों की ओर ऊपर उठती है, तो जल की बूँदें बर्फ की गोलियों के रूप में जम जाती हैं और धरती पर ओलों (hailstones) के रूप में गिरती हैं।
जैसे-जैसे अधिकाधिक अत्यधिक ठंडी पानी की बूँदें ओलों के आसपास जमा हो जाती हैं, तो उनका आकार तेजी से बढ़ता है; इनमें से कुछ का वजन दो पौंऊंड़ तक हो सकता है। भयंकर ओला-वृष्टि के दौरान ओले फसलों और भवनों को को गंभीर क्षति पहुंचाते हैं। अक्सर हिमपात जमे हुए वर्षा बूंदों के रूप में विद्यमान होते हैं, जो नीचे गिरते हुए पिघलते हैं, और पुनः जम जाते हैं; इसके कारण ओले के साथ वर्षा होती है। जब ये छोटी बूँदें बादलों में 0.2 मिलीमीटर से 6 मिलीमीटर के बीच की बूंदों में परिवर्तित होती हैं, वर्षा केवल तभी होती है।
5.2 वर्षा के प्रकार
मुख्य रूप से वर्षा के तीन मुख्य प्रकार होते हैं
5.2.1 संवहनकृत वर्षा (Convectional rainfall)
इस प्रकार की वर्षा उन क्षेत्रों में अत्यधिक सामान्य है जो अत्यधिक गर्म हो जाते है, या तो दिन के समय, जैसा आमतौर पर कटिबंधीय क्षेत्रों में होता है, या गर्मी के मौसम में, जैसा शीतोष्ण क्षेत्रों के अंदरूनी क्षेत्रों में होता है। जब प्रवाहकत्त्व के माध्यम से पृथ्वी की सतह गर्म होती है, तो नमी युक्त वाष्प ऊपर उठती है, क्योंकि गर्म हवा हमेशा विस्तारित होती है और हलकी हो जाती है। लंबी अवधि की तीव्र गर्मी के बाद हवा संवहन धारा में ऊपर उठती है। ऊपर उठते समय इसकी जल वाष्प कपासी वर्षी बादल के रूप में संघनित हो जाती है जिनका ऊर्ध्वाधर दायरा काफी बड़ा होता है।
यह अपने अधिकतम बिंदु तक शायद दोपहर को पहुँचता है जब संवहन तंत्र अच्छी तरह से विकसित हो जाता है। गर्म उठती हुई हवा में नमी को ग्रहण करने की क्षमता काफी अधिक होती है, जो उच्च सापेक्ष आर्द्रता वाले क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में पाई जाती है। जैसे ही हवा ऊपर उठती है, तो वह ठंडी हो जाती है, और जब यह अपने संतृप्ति बिंदु पर पहुँच जाती है, तो भारी वर्षा होती है, जिसके साथ अक्सर बिजली चमकती है और बादलों की गड़गड़ाहट भी होती है। शीतोष्ण क्षेत्रों में गर्मी के मौसम में होने वाली वर्षा की बौछारें भी इतनी ही तीव्र होती हैं और इनके साथ कभी-कभी बिजली और वज्रध्वनि के साथ वाली आंधी भी होती है। यह वर्षा कृषि के लिए पूर्णतः लाभदायक नहीं होती क्योंकि वर्षा इतनी तीव्र होती है कि वर्षा का पानी जमीन में नीचे नहीं उत्तर पाता, बल्कि मिट्टी लगभग तुरंत ही प्रवाहित हो जाती है।
5.2.2 पर्वतकृत वर्षा (Orographic rain)
संवहनकृत वर्षा, जो संवहन धाराओं के कारण होती है, के विपरीत पर्वतकृत वर्षा तब होती है जब आर्द्र हवा एक पर्वत बाधा के ऊपर की ओर उठने को मजबूर होती है। यह पर्वतों के वायु की ओर के क्षेत्र में अधिक अच्छी तरह से विकसित होती है, जहां प्रचलित आर्द्रतायुक्त हवाएँ समुद्र से आती हैं। हवा ऊपर उठने को मजबूर होती है जहां वह विस्तारण और बाद के वायुमंडलीय दबाव के कम होने के कारण ऊंचाई के क्षेत्र में ठंडी हो जाती है। और अधिक ऊँचाई हवा को संतृप्त होने की स्थिति तक (सापेक्ष आर्द्रता 100 प्रतिशत होती है) ठंडा कर देती है। इसके कारण संक्षेपण होता है जिसके कारण बादल निर्मित होते हैं, और अंततः वर्षा होती है। चूंकि यह भूमि उभार के कारण निर्मित होती है, अतः इसे रिलीफ वर्षा भी कहते हैं। पश्चिम मलेशिया के उत्तर पश्चिमी भागों, पश्चिमी न्यूजीलैंड़, पश्चिमी स्कॉटलैंड़ और वेल्स और भारतीय उपमहाद्वीप की असम की पहाड़ियों में होने वाली अधिकांश वर्षा पर्वतकृत वर्षा ही होती है। अनुवात ढ़ाल (leeward slope) की ओर नीचे आते समय ऊंचाई कम होने के कारण दबाव और तापमान दोनों में वृद्धि होती है; हवा संकुचित होकर गर्म हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप सापेक्ष आर्द्रता कम हो जाती है। ऐसी स्थिति में वाष्पीकरण होता है और वर्षा अत्यधिक कम, या बिलकुल नहीं होती। पहाड़ियों के अनुवात के क्षेत्र को वर्षा छाया क्षेत्र (rain shadow area) कहा जाता है। वर्षा छाया का प्रभाव दक्षिण द्वीप, न्यूजीलैंड़, और उत्तरी और मध्य एंडीज़ और अन्य अनेक क्षेत्रों में देखा जा सकता है।
5.2.3 चक्रवाती या वाताग्री वर्षा (Cyclonic rain)
इस प्रकार की वर्षा भूमि के उभार या संवहन से स्वतंत्र होती है। इसका संबंध शुद्ध रूप से चक्रवाती गतिविधि से होता है, चाहे वह शीतोष्ण क्षेत्रों (अवसादों) में या उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों (चक्रवात) में हो। मूल रूप से इस प्रकार की वर्षा का कारण दो भिन्न हवा समूहों का अभिसरण (मिलन) होता है, जिनके तापमान और अन्य भौतिक विशेषतायें भिन्न-भिन्न होती हैं। चूंकि ठंडी हवा अधिक घनी होती है, इसकी प्रवृत्ति भूमि के निकट रहने की होती है। इसके विपरीत गर्म हवा हलकी होती है, अतः यह ठंडी हवा के ऊपर की ओर जाती है। इस प्रक्रिया के दौरान हवा का दबाव कम हो जाता है, हवा फैलती है, और ठंडी होने लगती है, संक्षेपण होना शुरू हो जाता है, और हलकी फुहारें, जिन्हें चक्रवाती वर्षा या वाताग्री वर्षा कहते हैं, गिरने लगती हैं। भारी और ठंडे हवा के समूह अंततः गर्म और हलकी हवा को ऊपर की ओर धकेलते हैं, और आसमान फिर से साफ हो जाता है।
6.0 तापमान और दबाव पट्टे
विभिन्न क्षेत्रों के बीच के दबाव की भिन्नता को मानचित्रों पर समताप रेखाओं (isobars) के माध्यम से दर्शाया जाता है। ये वे रेखाएं होती हैं जो समान वायुदाबमापीय दबाव के क्षेत्रों को जोड़ती हैं।
पृथ्वी की सतह के दो बिन्दुओं के बीच के वायुमंडलीय दबाव के अंतर को दबाव ढ़ाल कहते हैं। इसे दिशा की प्रति इकाई दूरी के दबाव की उस गिरावट के रूप में परिभाषित किया जाता है जहां दबाव सर्वाधिक तेजी से गिरता है। मौसम मानचित्र पर इसे समताप रेखाओं के अंतर के रूप में दर्शाया जाता है। यदि समताप रेखाएं एक दूसरे के निकट होती हैं, तो यह ढ़ाल के सीधे होने की स्थिति को दर्शाता है, और यदि समताप रेखाएं एक दूसरे से दूर होती हैं तो इसका अर्थ है कि ढ़ाल सीधा न होकर सौम्य है।
6.1 विश्व दबाव पट्टे (World Pressure Belts)
अक्षांशों के पार के वायुमंडलीय दबाव के वितरण को दबाव का वैश्विक क्षैतिज वितरण कहा जाता है। पृथ्वी की सतह पर सात दबाव पट्टे हैं; भूमध्यरेखीय न्यून, दो उपोष्ण कटिबंधीय उच्च, दो उपध्रुवीय न्यून, और दो उप-ध्रुवीय उच्च। भूमध्यरेखीय न्यून के अलावा, अन्य पट्टे उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्धों में मेल खाने वाली जोड़ियां बनाते हैं।
पृथ्वी के गोल आकार के कारण पृथ्वी के विभिन्न भागों को भिन्न-भिन्न मात्रा में ऊष्मा प्राप्त होती है। अतः पृथ्वी पर वैकल्पिक उच्च और न्यून दबाव के पट्टे निर्मित होते हैं। भूमध्यरेखीय क्षेत्र को वर्ष भर अधिक ऊष्मा प्राप्त होती है। और चूंकि गर्म हवा हल्की होती है, तो भूमध्यरेखा के निकट की हवा ऊपर उठती है, जिसके कारण इस क्षेत्र में एक निम्न दबाव का क्षेत्र निर्मित हो जाता है। जबकि ध्रुवों पर ठंडी भारी हवा उच्च दबाव का क्षेत्र निर्मित करती है। भूमध्यरेखा के 60 से 65 अंश उत्तर और दक्षिण उप-ध्रुवीय क्षेत्र में पृथ्वी का घूर्णन अधिकांश हवा को भूमध्यरेखा की ओर धकेलता है, जिसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में निम्न दबाव का क्षेत्र निर्मित हो जाता है।
भूमध्यरेखीय निम्न दबाव का पट्टाः निम्न दबाव का पट्टा भूमध्यरेखा के 0 से 5 अंश उत्तर और दक्षिण में विस्तारित होता है। इस क्षेत्र में सूर्य की ऊर्द्धवाधर किरणों के कारण गर्मी अत्यधिक होती है। अतः हवा फैलती है और ऊपर की ओर उठती है क्योंकि संवहन धाराएं यहां निम्न दबाव का क्षेत्र विकसित करती हैं। इस निम्न दबाव के पट्टे को डोलड्रम्स भी कहते हैं क्योंकि यह क्षेत्र किसी भी प्रकार की हवा के अभाव में एक शांत क्षेत्र होता है।
उपोष्णकटिबंधीय उच्च दबाव के पट्टेः भूमध्यरेखा के लगभग 30 अंश उत्तर और दक्षिण की ओर वह क्षेत्र स्थित है जहां ऊपर उठती भूमध्यरेखीय हवाएँ नीचे आती हैं। इस प्रकार यह क्षेत्र उच्च दबाव का क्षेत्र होता है। इसे घोड़ा अक्षांश भी कहा जाता है। हवाएँ हमेशा उच्च दबाव से निम्न दबाव की ओर प्रवाहित होती हैं। अतः उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र से हवाएँ भूमध्यरेखा की ओर व्यापारी हवाओं के रूप में प्रवाहित होती हैं, और एक अन्य प्रकार की हवा उप ध्रुवीय निम्न दबाव के क्षेत्र की ओर पश्चिमी हवाओं के रूप में प्रवाहित होती है।
परिध्रुवी निम्न दबाव के पट्टेः ये पट्टे दोनों गोलार्द्धों में 60 अंश और 70 अंश के मध्य स्थित होते हैं और इन्हें परिध्रुवी निम्न दबाव के पट्टे कहा जाता है। उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र में नीचे आती हुई हवा दो भागों में विभक्त हो जाती है। इनमें से एक भाग भूमध्यरेखीय निम्न दबाव के क्षेत्र की ओर प्रवाहित होता है, जबकि दूसरा भाग परिध्रुवी निम्न दबाव के क्षेत्र की ओर प्रवाहित होता है। इस क्षेत्र की विशेषता ध्रुवों से प्रवाहित होती ठंडी हवाओं के ऊपर गर्म उपोष्णकटिबंधीय हवाओं के उठने के रूप में होती है। पृथ्वी के घूर्णन के कारण ध्रुवीय क्षेत्र के आसपास की हवाएँ भूमध्यरेखा की ओर प्रवाहित होती हैं। इस क्षेत्र में कार्यरत केन्द्रापसारक बल निम्न दबाव के क्षेत्र की निर्मिति करते हैं, जिन्हें उचित रूप से परिध्रुवी निम्न दबाव के क्षेत्र कहा जाता है। सर्दियों के मौसम के दौरान इस क्षेत्र में हिंसक तूफान होते हैं।
ध्रुवीय उच्च दबाव के क्षेत्रः 70 अंश से 90 अंश उत्तर और दक्षित के बीच के उत्तर और दक्षिण ध्रुवों पर तापमान हमेशा ही अत्यधिक न्यून होते हैं। नीचे आती ठंडी हवाएँ ध्रुवों पर उच्च दबाव के क्षेत्र की निर्मिति करती हैं। ध्रुवीय उच्च दबाव के इन क्षेत्रों को ध्रुवीय उच्च भी कहते हैं। इन क्षेत्रों की विशेषता स्थित बर्फ की टोपी से घिरे रहने की होती है।
6.2 दबाव पट्टों का विस्थापन
पृथ्वी सूर्य की ओर 23.5 अंश झुकी हुई है। इस झुकाव के कारण जनवरी और जुलाई में महाद्वीपों और महासागरों की गर्मी और दबाव स्थितियों में काफी भिन्नता होती है। उत्तरी गोलार्ध में जनवरी सर्दी के मौसम का प्रतिनिधित्व करती है जबकि जुलाई गर्मी के मौसम का। दक्षिणी गोलार्ध में स्थिति इसके ठीक विपरीत होती है।
जब सूर्य कर्करेखा पर सिर के ठीक ऊपर होता है (21 जून) तो दबाव का पट्टा 5 अंश तक उत्तर की ओर विस्थापित हो जाता है, और जब यह मकर रेखा पर (22 दिसंबर) ऊर्ध्वाधर चमकता है तो वे अपनी मूल स्थिति से 5 अंश दक्षिण की ओर विस्थापित हो जाते हैं। इस क्षेत्र में सूर्य की ऊर्ध्वाधर स्थिति के साथ मूल पट्टों के दक्षिण और उत्तर की ओर विस्थापित होने के कारण भूमध्यसागरीय प्रकार की जलवायु की अनुभूति होती है। सर्दी के मौसम में पश्चिमी हवाएँ प्रचलित होती हैं और वे वर्षा का कारण बनती हैं। गर्मी के मौसम में व्यापारी हवाएँ अपतटीय क्षेत्रों के आसपास प्रवाहित होती हैं, जो इन क्षेत्रों को वर्षा प्रदान करने में असमर्थ रहती हैं। 21 मार्च और 23 सितंबर को (विषुवों), जब सूर्य भूमध्यरेखा पर ऊर्ध्वाधर चमकता है, तो दोनों गोलार्द्धों में दबाव पट्टे संतुलन की अवस्था में होते हैं।
6.3 दबाव का वैश्विक वितरण
वायुमंडल के तापमान और दबाव के संबंध में मुख्य विरोधाभास महाद्वीपों और महासागरों के बीच होता है। चूंकि पानी और भूमि के गर्म और ठंडे होने की स्थिति में विशाल अंतर होता है, अतः उनमें दबाव स्थितियों में काफी विरोधाभास होता है। ये अंतर जनवरी और जुलाई के महीनों में उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्धों में अधिक उल्लेखनीय होते हैं।
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