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फ्रांसीसी क्रांति
1.0 प्रस्तावना
फ्रांसीसी क्रांति आधुनिक यूरोपीय इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव थी, जिसकी शुरूआत 1789 में हुई और अंत नेपोलियन बोनापार्ट के उदय के साथ 1790 के दशक के अंत में हुआ। इस काल में, फ्रांसीसी नागरिकां ने अचानक जागृत होकर, शताब्दियों पुरानी राजतांत्रिक और सामंतवादी संस्थाओं को जड़ से उखाड़कर अपने देश का राजनीतिक मानचित्र बदल दिया। इसके पूर्व हुई अमेरिकी क्रांति के समान ही, फ्रांसीसी क्रांति भी यूरोपीय नवजागरण के उच्च आदर्शों, विशेषकर संप्रभुता और मौलिक अधिकारों जैसे विचारों, से प्रभावित थी। यद्यपि यह अपने सभी उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल सिद्ध हुई और किसी समय तो एक अराजक खूनी संघर्ष में बदल गई थी, तो भी इस आंदोलन ने लोगों के भीतर निहित इच्छाशक्ति का प्रदर्शन कर आधुनिक ‘देश‘ नामक अवधारणा को गढ़ने में एक क्रांतिकारी भूमिका का निर्वहन किया।
इस आंदोलन की क्रांतिकारी घटनायें 1787 से लगाकर 1799 के बीच में घटित हुईं और यह इसके पहले उत्कर्ष पर 1789 में पहुंची। इसलिए परम्परागत शब्द, “1789 की क्रांति“ फ्रांस में प्राचीन राजतंत्र की समाप्ति का सूचक है, और 1830 और 1848 की फ्रांसीसी क्रांतियों को भी अलग दर्शाता है।
2.0 फ्रांसीसी क्रांति के कारण
यद्यपि इतिहासकार फ्रांसीसी क्रांति के कारणों को लेकर एकमत नहीं हैं, तो भी निम्नलिखित कुछ कारणों को साझा रूप से स्वीकार किया गया हैः
- फ्रांसीसी समाज में, व्यापारियों, उद्योगपतियों और व्यावसायिक लोगों का, जिन्हें नव ‘‘अभिजात्य वर्ग’’ (बुर्ज़वा) कहा जाता था, वर्चस्व बढ़ता जा रहा था। इस वर्ग का उदय 18वीं शताब्दी के आर्थिक विकास के कारण हुआ था और यह वर्ग राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहता था;
- किसान अपनी स्थिति के बारे में पूर्णतः सचेत थे और वे सामंतवादी पद्धति का समर्थन करने के लिए अब और ज्यादा इच्छुक नहीं थे;
- उन दार्शनिकों को जिन्होंने राजनीतिक सुधारों का समर्थन किया, किसी और देश की तुलना में फ्रांस में ज्यादा विस्तार से पढ़ा गये और इसलिए उन्होंने लोकप्रिय जनमत को गहराई तक प्रभावित भी किया;
- अमेरीकी क्रांति में फ्रांस की भागीदारी ने सरकार को दिवालिया होने की कगार पर ला खड़ा कर दिया था; और
- 1788 में देश के अधिकांश हिस्सों में फसलें बर्बाद हो गयी थीं जिसके कारण लोगों की आर्थिक कठिनाईयां बढ़ती जा रही थीं और इस कारण लोग आंदोलित हो उठे।
इसके अतिरिक्त कुछ और कारण जिनका उल्लेख अक्सर किया जाता हैंः
- अंतर्राष्ट्रीयः उपनिवेशों के निर्माण के लिए संघर्ष और साम्राज्यवाद एक प्रमुख कारण था क्योंकि इसके कारण राज्य के वित्तीय संसाधनों को भी नजरअंदाज़ किया जाता था
- राजनीतिक संघर्षः कर प्रणाली में सुधारों को लेकर राजतंत्र और अभिजात्य वर्ग के बीच हो रहे ‘‘संघर्ष’’ ने देश को आर्थिक रूप से बदहाल कर दिया और देश दिवालिया होने की कगार पर जा पहुंचा
- प्रबोधनः सुधारवादी भावनाओं के आवेग ने राजनीतिक संघर्ष को धार प्रदान की; परम्परागत अभिजात्य-संविधानवाद के नियमों का प्रभाव बढ़ना; मॉण्टेक्यू की पुस्तक ‘‘स्पिरिट ऑफ लॉज़’’ का प्रभाव जिसमें अच्छे शासन के मत को व्यक्त किया गया था और सबसे लोकप्रिय तत्व था जनप्रिय सम्प्रभुता जो कि 1762 में रूसो की पुस्तक ‘सोशल कांट्रेक्ट’ में अभिव्यक्त हुआ था
- दो उभरते समूहों के बीच बढ़ता सामाजिक मतभेदः अभिजात्य वर्ग और नव-पूंजीपति वर्ग (बुर्ज़वा)
- सम्राट लुई 16वें का असफल शासन।
- आर्थिक कठिनाईयांः 1788-89 के कृषि संकट ने निराशा का माहौल तैयार कर दिया था और खाद्य सामग्री की कमी ने इस असंतोष को और ज्यादा बढ़ा दिया।
3.0 फ्रांस का वित्तीय संकट
फ्रांसीसी राजसत्ता और संसद
फ्रांसीसी क्रांति के पूर्व के वर्षों में फ्रांसीसी राजशाही भ्रष्टाचार और ऐशो आराम की जिंदगी में डूबी हुई थी। फ्रांस में सदैव से दिव्य अधिकार का सिद्धांत प्रचलन में था, जिसके अनुसार राजा को ईश्वर के द्वारा चुना जाता है और इसलिए वह सिंहासन का स्वाभाविक अधिकारी होता है। इस सिद्धांत का परिणाम तानाशाही शासकों के उदय के रूप में हुआ जिसमें आम जनता के सामने अपनी समस्याओं को प्रस्तुत करने के लिए व षासन में योगदान देने के लिए कोई रास्ता नहीं था।
इसके अतिरिक्त, फ्रांस में उस समय कोई एक-समान कानून भी नहीं था। सामान्यतः कानून राज्य और क्षेत्रों के अनुसार बदल जाते थे तथा स्थानीय संसद (प्रांतीय न्यायिक मंडल), व्यापारियों की श्रेणियों या धार्मिक समूहों के द्वारा अपनी सहूलियत से बदल दिये जाते थे। इससे भी ज्यादा तकलीफदेह तो यह था कि इन स्थानीय न्यायालयों के द्वारा जब तक मान्यता न दी जाती, तब तक राजा द्वारा जारी कोई भी ‘डिक्री‘ (आदेश) मान्य न होता। परिणामस्वरूप, राजा आभासी रूप से शक्तिहीन था और ऐसा कोई काम नहीं कर सकता था जिससे किसी स्थानीय सरकार पर नकारात्मक प्रभाव पड़े। विडम्बना यह ‘‘नियंत्रण-व-संतुलन’’ थी की यह प्रणाली ऐसी भ्रष्ट सरकार द्वारा संचालित हो रही थी जिसे बहुमत में समर्थन प्राप्त नहीं था।
3.1 सत्ता का मद और अन्यायपूर्ण कराधान
सन् 1700 के दशक के उत्तरार्द्ध से बॉर्बोन वंश के शासक, राजदरबार से जुड़े धनी-मानी लोग और चर्च के पादरी अपनी सत्ता के मद में पूर्णतः डूबे हुए थे। इस समूह ने फ्रांस के किसानों को सामंती अत्याचार सहने पर मजबूर कर दिया था और स्वयं फ्रांस सरकार को किसी भी प्रकार का कर अदा नहीं करते थे। इस अन्यायपूर्ण कर प्रणाली ने आम लोगों को राजशाही के विरुद्ध खड़ा होने में मदद की थी।
3.2 फ्रांस की कर्ज समस्या
18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बहुत सारी असफल वित्तीय कार्यवाहियों ने पहले से ही फ्रांसीसी सरकार के ध्वस्त आर्थिक हालातों को और ज्यादा खराब कर दिया था। 1756-1763 के बीच चले सात वर्षीय युद्ध में फ्रांस के शामिल होने के कारण शासकीय खजाना उसी तरह खाली हो चुका था जिस तरह बाद में 1775 से 1783 के बीच अमेरिकी क्रांति के दौरान फ्रांस की भागीदारी से। बड़़े आकार की सेना और नौसेना पर सरकार के द्वारा किया जा रहा खर्च इस स्थिति को और ज्यादा अनियंत्रित बना रहा था, जो कि उस बुरे दौर में सरकार के लिए एक बड़ा खर्च था। इससे भी ज्यादा, आम जनता को जिसने सबसे ज्यादा उत्तेजित किया वह था राजशाही की महंगी जीवनशैली, राजा लुई 16वें के वर्साय के महल के रख-रखाव और आवास में भारी मात्रा में धन खर्च होता था और रानी मैरी एंतोइने ने भी बढ़ते कर्जों की चिंता ना करते हुए अपनी भव्य राजशाही जीवनशैली जारी रखी। वित्तीय गैर-जिम्मेदारियों के ये दशक फ्रांसीसी क्रांति के प्राथमिक कारणों में से एक थे। फ्रांस हमेशा से एक सम्पन्न देश के रूप में जाना जाता था और यदि यह महंगे युद्धों में सहभागी नहीं हुआ होता तो तथा इसने भव्य जीवनशैली पर शाही खर्च नहीं किया होता तो शायद ऐसा नहीं होता। (इतिहासकारों का मत है कि जितना रानी मैरी एंतोइने के कथनों के बारे में बताया जाता है, वह उसने कहा ही नहीं था!)
3.3 चॉर्ल्स द कलोन (Charles de Calonne)
अंततः 1780 के दशक की शुरूआत में फ्रांस ने यह महसूस किया कि उसे शीघ्र ही समस्या का सामना करना पड़ेगा। सर्वप्रथम, लुई सोलहवें ने 1783 में चॉर्ल्स द कलोन को वित्त महानियंत्रक के पद पर नियुक्त किया। फिर 1786 में, फ्रांस सरकार करों को लेकर किसानों के बीच हो रही असहजता को लेकर चिंतित हो गई, तो भी वह अभिजात्य वर्ग पर कराधान के लिए कहने की इच्छुक नहीं थी, और तब उसने विभिन्न यूरोपीय बैंको से कर्ज लेने के लिए सम्पर्क किया। इस समय यूरोप के देशों ने बताया कि फ्रांस का आर्थिक संकट कितना गहरा है और देश को पता चला कि उसकी साख कितनी कम है।
लुई 16वें ने कलोन को स्थिति का मूल्यांकन करने और हल निकालने को कहा। शाही लेखा और रिकार्ड के अंकेक्षण के दौरान, कलोन ने पाया कि वित्तीय प्रणाली में भारी अनियमितता है। सरकारी कोष के उपार्जन और वितरण जैसे विभिन्न कार्यां के लिए स्वतंत्र लेखाकार नियुक्त किये गये थे, जिसके कारण सभी लेन-देनों का सामंजस्यपूर्ण परीक्षण बहुत कठिन था। इससे भी ज्यादा इस व्यवस्था ने भ्रष्टाचार के लिए द्वार खोल दिये थे, जिसके कारण इन स्वतंत्र लेखाकारों में से कई सरकारी कोष का उपयोग अपने निजी हितों के लिए कर रहे थे। जहां तक धन की प्राप्ति का सवाल था तो करारोपण ही एक मात्र विकल्प था। उस समय केवल किसानों पर ही करारोपण किया जाता था। उच्च वर्ग को करों से छूट दी गई थी, और प्रांतीय संसदें करों में भारी वृद्धि के लिए तैयार नहीं होने वाली थीं।
3.4 महत्वपूर्ण लोगों की सभा (The Assembly of Notables)
अंततः कलोन, लुई 16वें को इस बात के लिए सहमत करने में सफल हुआ कि उच्च वर्ग को एक सभा के लिए आमंत्रित किया जाये, जिसमें कलोन और राजा स्वयं, देश के बिगड़ते आर्थिक हालातों के बारे में बात कर सकें। इस सभा को महत्वपूर्ण लोगों की सभा (असेंबली ऑफ नाटेबल्स्) नाम दिया गया और वह ऐसे लोगों की सभा में बदल गई जो वास्तव में कर अदा नहीं करना चाहते थे। अपनी प्रस्तुति देने के बाद कलोन ने सभी लोगों से आग्रह किया कि या तो वे नये कर देने के लिए सहमत हो जायें, या वर्तमान कर व्यवस्था में मिली छूटों को छोड़ने के लिए तैयार हो जायें। बिना किसी आश्चर्य के, सभी महत्वपूर्ण लोगों ने दोनों ही योजनाओं को नकार दिया और कलोन के कार्य की वैधता पर प्रश्न उठाते हुए उसके विरूद्ध हो गये। इसके कुछ समय बाद ही उसे पद से हटा दिया गया और फ्रांस की अर्थव्यवस्था और ज्यादा बुरे दौर में प्रवेश कर गई।
3.5 क्षितिज पर क्रांति
1780 के दशक के अंत तक यह स्पष्ट होता जा रहा था कि फ्रांस में प्रचलित प्राचीन राजशाही की प्रणाली बहुत ज्यादा लम्बे समय तक नहीं चलने वाली थी। यह कई लोगों के लिए एक अत्याचारी और बहुत ज्यादा गैर-जिम्मेदाराना व्यवस्था थी। इसके अतिरिक्त, पुनर्जागरण के प्रचार के फलस्वरूप धर्म-निरपेक्षता जैसे विचार फ्रांस में फैल रहे थे, धार्मिक विचार भी विभाजित हो रहे थे और और राजा के दिव्य अधिकारों का नियम भी अपनी वैधता खोता जा रहा था। हालांकि राजशाही और उच्च वर्ग ने फ्रांसीसी समाज में फैल रहे इन प्रगतिशील विचारों को अनदेखा किया। इसके विपरीत शाही और उच्च वर्ग के लोग परम्परा और राजकीय कानूनों के पक्ष में और ज्यादा कट्टर हो गये। जैसा कि निश्चित था, उनकी कट्टरता की कीमत उन्हें वह हर चीज देकर चुकानी पड़ी जिसे उन्होंने सहेज कर रखा था।
3.6 बुर्ज़वा (नव-धनाढ़्य वर्ग) (The Bourgeoisie)
यद्यपि फ्रांसीसी क्रांति के अधिकांश दस्तावेज इस बात पर जोर देते हैं कि यह क्रांति फ्रांसीसी किसानों की समस्याओं, बढ़ती खाद्य कीमतों, हानिकारक सामंती अनुबंधों और राजशाही के द्वारा किये जा रहे दुर्व्यवहारों के कारण हुई, वास्तव में इन कारणों ने क्रांति को चिंगारी देने का सीमित काम ही किया। सारी परेशानियों को झेलने के बावजूद यह वे किसान नहीं थे जिन्हांने क्रांति की शुरूआत की। अपेक्षाकृत, ये उच्च मध्यमवर्गीय आम लोग-बुर्ज़वा थे जिन्होंने अपने साथ किये जा रहे भेदभाव के विरूद्ध आवाज उठाई। यह वर्ग सामान्यतः कठोर परिश्रमी और शिक्षित लोगों का जो नये विचारों से प्रभावित भी थे। हालांकि बुर्ज़वा वर्ग के कुछ लोग तो फ्रांस के कुलीन लोगों से भी ज्यादा धनी थे, तो भी उनके पास शाही उपाधियां नहीं थी और इसलिए उनके साथ गरीब किसानों जैसा ही व्यवहार किया जाता था और उनसे भी वैसा कर वसूला जाता था। यह बुर्ज़वा ही थे जिन्होंने क्रांति के लिए उत्प्रेरक का काम किया, और जैसे ही उन्होंने इसे एक बार प्रारंभ कर दिया, किसानों ने शीघ्र ही उनका अनुकरण कर लिया।
4.0 क्रांति के विभिन्न चरण
4.1 अभिजात्य विद्रोह, 1787-89
जैसा कि प्रारंभ में उल्लेख किया जा चुका है, फ्रांस में क्रांति तभी आकार लेने लगी थी जब वित्त महानियंत्रक चार्ल्स द कलोन ने महत्वपूर्ण लोगों की एक सभा फरवरी 1787 में बुलाई थी जिसका उद्देश देश में सुधारों को लागू करना और विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग पर करारोपण के माध्यम से देश के वित्तीय बजट को नियंत्रित करना था। सभा ने सुधारों की जिम्मेदारी लेने से इंकार कर दिया और सलाह दी कि पादरियों, कुलीनों और आम लोगों की सभा एस्टेट्स-जनरल बुलाई जाये जो 1614 के बाद से अभी तक नहीं हुई थी। कलोन के उत्तराधिकारियों द्वारा किये गये प्रयासों का विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों ने प्रतिरोध किया और इसने तथाकथित ‘अभिजात्य क्रांति‘ को जन्म दिया जिसमें पार्लियामेंट्स (सबसे महत्वपूर्ण न्यायालय) जिनकी शक्तियों को मई 1788 के कानून के अनुसार कम किया गया था भी शामिल थे। 1788 की गर्मियों के दौरान, पेरिस, ग्रेनोबल, डीजॉन, तुलूस, पाउ और रैने की जनता के बीच आंदोलन शुरू हुआ। इस अवसर पर लुई 16वें ने झुकते हुए सुधारवादी ज़ाक नेकर को वित्त मंत्री के रूप में नियुक्त किया। उसने वादा किया कि वह 5 मई 1789 को एस्टेट्स-जनरल की सभा बुला लेगा। उसने व्यवहारिक रूप में प्रेस को स्वतंत्रता प्रदान की और फ्रांस में ऐसे पर्चों की बाढ़ आ गई जिसमें देश के पुनर्निमाण का आग्रह किया गया था। जनवरी और अप्रैल 1789 के बीच सम्पन्न हुए एस्टेट्स-जनरल के चुनावों ने आगे आने वाले तूफान को गढ़ दिया था, क्योंकि 1788 में फसलें भी बर्बाद हो गयी थीं। वास्तव में वहां मतदान का कोई बहिष्कृत वर्ग नहीं था; और मतदाताओं ने अपनी शिकायतों व आशाओं की सूचियां गढ़ीं। उन्होंने 600 डेप्युटी (सासंद) आमजन (थर्ड़ एस्टेट) से, 300 अभिजात्य वर्ग से व 300 क्लर्जी (पुजारी वर्ग) से चुने।
4.2 1789 की घटनाएं
5 मई 1789 को एस्टेट्स-जनरल की सभा वर्सेल्स् में हुई। शीघ्र ही वे एक आधारभूत मुद्दे पर विभाजित हो गये थेः क्या वे आमजन को फायदा देते हुए व्यक्ति-संख्या आधारित मत देंगे या वर्ग आधारित जिसमें उस क्षेत्र के दो-वर्ग विशेष, तीसरे को हरा देंगे? 17 जून को इस कानूनी मुद्दे पर कड़े संघर्ष ने थर्ड़ एस्टेट (आमजन) केअधिकारियों को स्वयं को राष्ट्रीय सभा घोषित करने पर मजबूर कर दिया। उन्हें पैरिश पादरियों का भी समर्थन प्राप्त था जो संख्या में अभिजात्य पुजारी वर्ग के सासदों से ज्यादा थे। जब शाही अधिकारियों ने 20 जून को प्रतिनिधियों को उनकी सभागृह में जाने से रोक दिया तो उन्होनें राजा के आतंरिक टेनिस कोर्ट पर कब्जा कर लिया और शपथ (जिसे टेनिस कोर्ट शपथ कहा जाता है) ली कि वे तब तक यहां से नहीं जायेंगे जब तक की वे फ्रांस को एक नया संविधान नहीं दे देते। राजा ने अनिच्छापूर्वक समर्पण कर दिया और कुलीनों तथा पुजारी समुदाय से आग्रह किया कि वह सभा में आयें, जिसे 9 जुलाई को ही राष्ट्रीय संविधान सभा नाम दिया गया था; हालांकि राजा ने इसे भंग करने के लिए सेना इकट्ठा करना प्रारंभ कर दी थी।
लुका-छिपी के इन दो महीनों में जब खाद्य आपूर्ति की समस्या शीर्ष पर थी, ने शहरों औैर राज्यों की जनता को और ज्यादा क्रोधित किया। थर्ड़ एस्टेट (आमजन) को उखाड़ फेंकने के लिए राजा और विशेषाधिकार प्राप्त समूहों द्वारा ‘शाही षड़यंत्र‘ की आशंका ने जुलाई 1789 के महान भय को जन्म दिया, जब किसान लगभग मानसिक आंतक स्थिति में थे। पेरिस के आसपास सेना के इकट्ठे होने, और ज़ाक नेकर के पदच्युत होने से राजधानी में क्रांति षुरू हुई।
4.3 बेस्तील पर हमला (storming of the Bastille)
14 जुलाई 1789 को, पेरिस के पूर्वी छोर पर स्थित एक जेल, जिसे बेस्तील के नाम से जाना जाता है, पर क्रोधित और आक्रामक भीड़ ने आक्रमण किया। यह जेल राजशाही के तानाशाह शासन का प्रतीक बन गई थी, और वह घटना एक महत्वपूर्ण क्षण था जिसने क्रांति की शुरूआत की।
इस मध्यकालीन किले में 30 मीटर उंचाई के 8 टॉवर थे जो पूरे पेरिस के आकाश पर दिखते थे। जब जेल पर आक्रमण किया गया तब इसमें केवल 7 कैदी थे, किंतु भीड़ उनके लिए इकट्ठा नहीं हुई थीः भीड़ तो वास्तव में उन अस्त-शस्त्रों को लूटने आई थी जो किले की दीवारों के भीतर सुरक्षित रखे थे। जब जेल के गवर्नर ने उन्हें ऐसा करने से रोका तो भीड़ ने आक्रमण कर दिया और एक हिंसक झड़प के बाद भीड़ ने जेल पर कब्जा कर लिया। गवर्नर को बंदी बना लिया गया और मार दिया गया, उसके सर को भाले पर रखकर पूरे शहर में घुमाया गया। बेस्तील की तूफानी घटना प्रतीक रूप से फ्रांसीसी क्रांति का प्रारंभ थी।
राज्यों में, जुलाई के महाभय ने किसानों को अपने मालिकों के विरूद्ध खड़ा होने पर मजबूर कर दिया। अब कुलीन और बुर्ज़वा भी घबरा गये। राष्ट्रीय संविधान सभा को किसानों को रोकने का एक ही रास्ता सूझा; 4 अगस्त 1789 की रात, सभा के द्वारा घोषणा की गई की सामंतवादी प्रणाली और दशांश कर (फसल का 10वां हिस्सा कर के रूप में देना) समाप्त कर दिया गया है।
4.4 मानव के अधिकार
“स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व“ वाला नारा फ्रांस की राष्ट्रीय विरासत का हिस्सा है। (Liberté, Égalité, Fraternité)
स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का विचार, जो 17वीं शताब्दी के अंत में फेनिलॉन से संबंधित है, पुनर्जागरण के दौर में विस्तृत रूप से फैल गया।
“स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व“ का नारा फ्रांसीसी क्रांति से उपजाः यह लोगों के बीच 1790 की प्रथम गणतंत्र की घोषणा के पहले बहस का मुद्दा बन गया था।
कई क्रांतिकारी प्रतीकों के समान ही यह नारा भी साम्राज्य बनने के बाद डूब गया। यह 1848 की क्रांति के दौरान धार्मिक विचारों के साथ पुनः प्रकट हुआः अब धर्माध्यक्षों ने इसाईयत के नाम पर बंधुत्व की बात की और मुक्ति के पेड़ों की भी बात की जो क्रांति के समय रोपे गये थे। जब 1848 का संविधान तैयार किया गया तो “स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व“ का नारा लोकतंत्र का मुख्य सिद्धांत बन गया।
द्वितीय साम्राज्य के दौरान इसे नकार दिया गया था, किंतु अंततः तीसरे गणतंत्र के दौरान इसकी स्थापना हो गई। अभी भी इसका कुछ विरोध था और एक बड़ा वर्ग इसके विरोध में था-समानता जिसमें सामाजिक स्तर शामिल था के बजाय एकजुटता को ज्यादा माना जाता था तथा बंधुत्व की ईसाई अवधारणा को एक मत से स्वीकार नहीं किया जा रहा था।
14 जुलाई 1880 के उत्सव के लिए इस नारे को सरकारी इमारतों पर उकेरा गया। यह नारा 1946 और 1958 के संविधानों में दिखाई दिया तथा ये अब राष्ट्रीय विरासत का एक हिस्सा है। इसे सिक्कों और डाक टिकटों पर देखा जा सकता है।
4 अगस्त का विधान और घोषणा कुछ ऐसे नवीन प्रयोग थे जिसे राजा ने अनुमति देने से इंकार कर दिया था। पेरिस के लोग इसके विरूद्ध खड़े हो गये और 5 अक्टूबर को उन्होंने वर्सेल्स के लिए कूच किया। अगले दिन वे शाही परिवार को पेरिस वापस लाये। राष्ट्रीय संविधान सभा ने दरबार लगाया और पेरिस में नये संविधान को गढ़ने का कार्य किया गया।़
फ्रांस के लोगों ने क्रांति द्वारा स्थापित नई राजनैतिक संस्कृति में सक्रियता से भागीदारी की। दर्जनों समाचार पत्रों ने घटनाओं का सटीक चित्रण किया और राजनीतिक समूहों ने जनता को अपनी आवाज उठाने के लिए उत्साहित किया। पेरिस में 1790 में बेस्तील की तूफानी घटना की पहली वर्षगांठ के अवसर पर ‘मुक्ति के पौधों‘ का वृक्षारोपण किया गया और गांवों में भी इसे मुक्ति के पर्व के रूप में मनाया गया। वास्तव में यह नये दौर के प्रतीक के रूप में देखा गया।
5.0 नई शासन पद्धति
राष्ट्रीय संविधान सभा ने सामंतवाद की पूर्ण समाप्ति की घोषणा की तथा पुरानी शासन पद्धति को पूर्णतः कुचलते हुए मनुष्यों के बीच नागरिक समानता की स्थापना की, और आधी से ज्यादा वयस्क पुरूष जनसंख्या को मत देने का अधिकार दिया, यद्यपि केवल एक छोटी संख्या को ही चुने जाने का अधिकार दिया गया। फ्रांस में रोमन कैथोलिक चर्च की जमीन का राष्ट्रीयकरण कर संपत्तियों का पुनः वितरण किया गया। इससे बुर्ज़वा व जमींदार-किसानों को सबसे ज्यादा फायदा मिला, किंतु कुछ छोटे किसानों को भी जमीनें मिलीं। चर्च को उसके संसाधनों से वंचित कर दिये जाने के बाद, सभा ने चर्च को भी पुर्नगठित करने का प्रावधान बनाया। इसके लिए पादरियों का नागरिक संविधान सक्रिय किया गया, जिसे पोप और कई अन्य धर्माचारियों ने नकार दिया। इसके कारण एक किस्म की फूट पड़ गई जिसने हिंसा के साथ-साथ कई विवादों को जन्म दिया।
राष्ट्रीय संविधान सभा द्वारा पुरानी व्यवस्था का जटिल प्रशासनिक तंत्र पूर्णतः हटा दिया गया और इसके स्थान पर एक तार्किक प्रणाली की स्थापना की गई जिसमें फ्रांस को विभिन्न प्रशासनिक विभागों, जिलों, संभागों, कम्यून्स आदि में बांटा गया जिसे चुनी गई सभाओं के द्वारा शासित किया जाना था। न्याय तंत्र के पीछे काम करने वाला सिद्धांत पूर्णतः बदल दिया गया था तथा नई प्रणाली नई प्रशासनिक व्यवस्था के अनुरूप थी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि जजों का भी चुनाव किया जाना था।
राष्ट्रीय संविधान सभा ने एक ऐसी राजतांत्रिक प्रणाली विकसित करने की कोशिश की जिसमें विधायी और कार्यपालिका शक्तियां राजा और ऐसेम्बली (सभा) के बीच में विभाजित हों। यह प्रणाली सफल होती भी, यदि राजा नये अधिकारियों के साथ कार्य करने को तत्पर होता, किंतु लुई 16वां एक कमजोर और ढुलमुल शासक था जो अपने शाही सलाहकारों का गुलाम था। 20-21 जून 1791 को उसने देश छोड़ने की कोशिश की, किंतु उसे वारेन्नस् में रोक लिया गया और पेरिस वापस लाया गया।
6.0 प्रतिक्रांति, राजहत्या और भय का शासन
फ्रांस में हुई घटनाओं ने संयुक्त प्रांत, बेल्जियम और स्विट्जरलैण्ड में उन क्रांतिकारियों को नई आशा प्रदान की जो कुछ समय पहले असफल हो चुके थे। इसी तरह वे सब लोग जो इंग्लैण्ड, जर्मनी, आस्ट्रिया या इटली में व्यवस्थाओं में परिवर्तन चाहते थे, भी क्रांति के प्रति सहानुभूति रखते थे।
फ्रांस में क्रांति का विरोध करने वाले कई लोग जिनमें कुलीन, धार्मिक समूहों के लोग और कुछ बुज़़र्वा भी शामिल थे, ने अपने ही देश में संघर्ष का रास्ता छोड़ पलायन का रास्ता चुन लिया। ‘अनिवासियों‘ के रूप में इनमें से कई लोगों ने सशस्त्र समूह बनाये और फ्रांस की उत्तर-पूर्वी सीमा के निकट दूसरे यूरोपीय देशों के राजाओं से सहायता लेकर इकट्ठा होने लगे। शासक प्रारंभ में क्रांति को लेकर उदासीन थे किंतु जब राष्ट्रीय संविधान सभा ने अंतर्राष्ट्रीय कानून के क्रांतिकारी सिद्धांत की घोषणा की तो वे चिंतित होने लगे, जिसमें कहा गया था कि लोगों को आत्मनिर्णय का अधिकार है। इस सिद्धांत के अनुसार, 13 सितम्बर 1791 को एवीग्नोन का पेपल राज्य फ्रांस के साथ एकीकृत हो गया। 1792 की शुरूआत तक दोनों समूह आक्रामक हो चले-पहला समूह था क्रांतिकारियों का जो क्रांति के सिद्धांतों के विस्तार के पक्ष में थे, तथा राजा को यह आशा थी कि युद्ध उसकी शक्ति तथा अधिकारों को बढ़ा देगा या विदेशी सेनाएं आकर उसे बचा लेंगी। फ्रांस ने 20 अप्रैल 1792 को ऑस्ट्रिया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
युद्ध के पहले चरण में (अप्रैल-सितम्बर 1792), फ्रांस को हार का सामना करना पड़ा; प्रुशिया ने जुलाई में युद्ध में प्रवेश किया, तथा ऑस्ट्रो-प्रुशिया की संयुक्त सेना ने फ्रांस सीमा को पार किया और शीघ्रतापूर्वक पेरिस की ओर बढ़ने लगी। पेरिस के क्रांतिकारियों को यह विश्वास हो गया था कि राजा और कुलीन वर्ग उन्हें धोखा दे रहे हैं, इसलिए वे 10 अगस्त 1792 को सामूहिक रूप से आगे बढ़े और उन्होनें ट्युलेरिस के महल पर कब्जा कर लिया जहां लुईस 16वां रहता था, तथा शाही परिवार को कैद कर दिया। सितम्बर के प्रारंभ में, पेरिस की भीड़ ने जेलों को तोड़ दिया, उसमें बंदी बनाकर रखे गये कई कुलीनों और पादरियों को मार दिया। इस बीच कई स्वंयसेवक सेना में भर्ती हो रहे थे क्योंकि क्रांति ने फ्रांस में राष्ट्रवाद की भावना भर दी थी। अपने अंतिम प्रयास में फ्रांसीसी सेना ने 20 सितम्बर 1792 को वाल्मि के निकट प्रुशिया की सेना को रोक दिया। उसी दिन, नई सभा, जिसे राष्ट्रीय कन्वेंशन कहा जाता है, की पहली सभा हुई। अगले ही दिन कन्वेंशन ने राजशाही की समाप्ति और लोकतंत्र की स्थापना की घोषणा की।
युद्ध के दूसरे चरण (सितम्बर 1792-अप्रैल 1793) में क्रांतिकारियों का सामना कमजोर दुश्मन से हुआ। बेल्जियम, राईनलैण्ड, सेवॉय, और नाईस की काउण्टी पर फ्रांसीसी सेनाओं का कब्जा हो गया था। इस बीच, राष्ट्रीय कन्वेंशन गिरोंड़ीन, जो फ्रांस में बुर्ज़वा गणतंत्र की स्थापना चाहते थे और क्रांति को पूरे यूरोप में फैलाना चाहते थे, तथा मोन्टेग्नार्ड्स (“माउण्टेन मेन“), जो रोबेस्पियर सहित, निचले तबके को राजनीति और अर्थव्यवस्था में एक बड़ा हिस्सा देने के पक्ष में थे, के बीच विभाजित हो गया।
गिरोन्डिंस के द्वारा किये गये प्रयासों के बावजूद, नवंबर में, लुई 16वें के आस्ट्रिया और दूसरे देशों के साथ, क्रांति-विरोधी षड़यंत्रों के प्रमाण पाये गये, तथा उस पर राष्ट्रीय कन्वेंशन के द्वारा राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। अगली जनवरी में, लुई को दोषी पाया गया तथा अल्प-बहुमत के द्वारा मौत की सजा दी गई।
21 जनवरी 1793 को वह दृढ़तापूर्वक गिलोटीन की ओर आगे बढ़ा जहां उसे मौत के घाट उतार दिया गया। 9 माह बाद, मैरी एंतोइने पर भी ट्रिब्यूनल में राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और 16 अक्टूबर को उसे भी गिलोटीन के द्वारा सजा दी गई।
1793 की गर्मियों में युद्ध तीसरे चरण में प्रवेश कर गया, जिसमें फ्रांस को नये सिरे से हार मिलने लगी। आस्ट्रिया, प्रुशिया और ग्रेट ब्रिटेन ने एक गठबंधन का निर्माण किया (जिसे बाद में पहला गठबंधन कहा गया) जिससे यूरोप के अधिकांश शासक जुड़ गये थे। फ्रांस ने बेल्जियम और राईनलैण्ड खो दिया, तथा आक्रामक सेनायें पेरिस के लिए खतरा बन चुकी थीं। इन परिणामों के कारण अतिवादियां की शक्ति बढ़ने लगी। गिरोंडीन नेताओं को राष्ट्रीय कन्वेंशन से बाहर कर दिया गया, तथा मोन्टेग्नार्ड्स, जिन्हें पेरिस के कामगारों औैर छोटे दुकानदारों का समर्थन प्राप्त था, सत्ता के केन्द्र में आ गये तथा उनके पास 9 थर्मीडोर के दूसरे साल तक शक्तिया रहीं जो फ्रांसीसी लोकतांत्रिक कैलेण्डर के अनुसार 27 जुलाई 1794 होता है। मोन्टेग्नार्ड्स गिरोंड़ीन की तरह उदारवादी बुर्ज़वा थे किंतु वे कामगारों और श्रमिकों के दबाव में थे, और सुरक्षा की जरूरतों की पूर्ति के लिए उन्होनें एक पूर्णतः भिन्न आर्थिक और सामाजिक नीति को अपनाया। उन्होनें मैक्सिमम नामक योजना के अन्तर्गत कीमतों पर सरकारी नियंत्रण किया, सम्पन्न लोगों पर कर लगाया, गरीब और निम्न लोगों के लिए राष्ट्रीय सहायता की योजनाएं लाए, शिक्षा को सभी के लिए निःशुल्क और अनिवार्य बनाने की घोषणा की तथा प्रवासियों की सम्पत्ति की कुर्की और बिक्री का आदेश दिया। इन कदमों का हिंसक विरोध हुआः वैंडी का युद्ध, नार्मण्डी में ‘‘फैडरलिस्ट‘‘ लोगों का उदय, लीयोन और र्बोडेक्स का विद्रोह, और ब्रिटनी में च्यूऑन्स की बगावत इसी का परिणाम थे। हालांकि इस विरोध को भय के शासन (5 सितम्बर 1793-27 जुलाई 1794), के दौरान समाप्त कर दिया गया जिसमें लगभग 3,00,000 लोगों को संदेह के आधार पर जेल में डाला गया जिनमें से 17000 लोगों को मौत की सजा दी गई, जबकि इससे कई ज्यादा लोग जेलों में भी बिना किसी मुकदमों के मारे गये। उसी समय, क्रांतिकारी सरकार ने 10 लाख लोगों की एक सेना गठित की।
इस सेना को धन्यवाद, जिसके कारण युद्ध चौथे चरण (1794 की गर्मियों के प्रारंभ में) में प्रवेश कर गया। 26 जून 1794 को फ्लुयर्स में ऑस्ट्रिया की सेना के विरूद्ध एक भव्य जीत प्राप्त हुई जिसने फ्रांस को बेल्जियम पर पुनः कब्जा करने के योग्य बनाया। इस जीत ने भय के शासन के आर्थिक और सामाजिक प्रतिबंधनों को अर्थहीन कर दिया। रोबेसपियर, जिसने इन प्रतिबंधों की योजना बनाई थी, को राष्ट्रीय कन्वेंशन के द्वारा 27 जुलाई 1794 को बर्खास्त कर अगले ही दिन मौत की सजा दी गई (जिसके पहले उसने आत्महत्या की असफल कोशिश की)। उसके पतन के शीघ्र बाद ही मैक्सिमम नामक योजना समाप्त हो गई, तथा कोई सामाजिक प्रतिबंध बाकी नहीं रहे और आर्थिक समानता के लिए किये जाने वाले प्रयास समाप्त हो गये। राष्ट्रीय कन्वेंशन ने नये संविधान पर चर्चा प्रारंभ की और इसी दौरान पश्चिम और दक्षिण पूर्व में राजशाही का ‘‘श्वेत भय‘‘ भी प्रारंभ हो गया। राजतांत्रिक लोगों ने पेरिस जीतने की भी कोशिश की किंतु उन्हें युवा जनरल नेपोलियन बोनापार्ट द्वारा 5 अक्टूबर 1795 को कुचल दिया गया। कुछ दिनों बाद राष्टी्रय कन्वेंशन की सत्र समाप्ति हुई।
6.1 निर्देशिका (डायरेक्टरी) और क्रांतिकारी विचारों का विस्तार
तीसरे वर्ष के संविधान, जिसे राष्ट्रीय कन्वेंशन ने पारित किया था, में कार्यवाहक शक्तियां 5 सदस्यीय निर्देशिका में निहित थी और विधायी शक्तियां काउंसिल ऑफ ऐंशियंट और 500 सदस्यों की एक परिषद में निहित थी। यह प्रणाली जिसे बुर्ज़वा गणतंत्र कहा जाता है के द्वारा स्थायित्व प्राप्त कर लिया होता यदि क्रांतिकारियों और क्रांति विरोधियों के बीच यूरोप भर में युद्ध ना-छिड़ गया होता तो। युद्ध ने निर्देशिका और विधायी परिषद के बीच के विवाद को और ज्यादा गहरा कर दिया था। इन विवादों को अचानक कार्यवाही से सुलझाया जाता था। दो मुख्य थे-पहला, 4 सितंबर 1797 को, जिसमें षाही तत्वों को डायरेक्टरी व परिषदों से हटाया गया, एवं दूसरा, 9 नवंबर 1799 को, जब बोनापार्ट ने डायरेक्टरी भंग कर दी व खुद को ‘‘फर्स्ट काँसुल’’ नियुक्त कर फ्रांस का नेता बन गया।
फ्लुर्स की विजय के पश्चात, यूरोप में फ्रांसीसी सेनाओं का विजयी अभियान जारी रहा। राईनलैण्ड और हॉलैण्ड जीत लिया गया तथा 1795 में हॉलैण्ड, टसकनी, प्रुशिया और स्पेन ने शांति समझौते किये। जब फ्रांसीसी सेना बोनापार्ट के नेतृत्व में 1796 में इटली में घुसी, तो सार्डीनिया ने शीघ्र ही समझौते की शर्तें तैयार की। ऑस्ट्रिया ने 1797 की केम्पोफॉर्मियो की संधि के साथ सबसे अंत में समर्पण किया। उन सभी देशों को जिन पर फ्रांस ने कब्जा किय था ‘सिस्टर रिपब्लिक‘ के नाम से संगठित किया गया तथा वहां क्रांति के आदर्शों के अनुसार संस्थान स्थापित किये गये।
यूरोप में षांति से क्रांतिकारी फैलाव नहीं रूका। निदेशकों में से अधिकांश गिरोन्डीन इच्छा से ग्रसित थे और वे क्रांति को सम्पूर्ण यूरोप में फैलाना चाहते थे। इस प्रकार इसके लिए फ्रांसीसी सेनाएं 1798 और 1799 में स्विट्जरलैण्ड, पेपल राज्य, नेपल्स पहुंची और हैल्विटक, रोमन और पार्थेनोपियन गणतंत्र स्थापित किए। फ्रांस का ग्रेट ब्रिटेन से युद्ध जारी रहा। इंग्लैण्ड पहुंचने में असमर्थ होने पर, बोनापार्ट के निवेदन पर, निर्देशिक ने ब्रिटेन को चुनौती देने के लिए भारत आने हेतु मिस्त्र हथियाने की योजना बनाई। बोनापार्ट के नेतृत्व में एक सेना ने माल्टा और मिस्त्र को आसानी से जीत लिया, किंतु जिस स्क्वाड्रन ने इसे जीता था उसे नील के युद्ध में 1 अगस्त 1798 को होराशियो नेल्सन ने हरा दिया। इस विनाश के कारण द्वितीय गठबंधन के निर्माण के द्वार खुले। इस गठबंधन में शामिल ऑस्ट्रिया, रूस, तुर्की और ग्रेट ब्रिटेन को 1799 की गर्मियों में भारी सफलता हासिल हुई और उन्होने फ्रांस की सीमाओं तक फ्रांसीसी सेना को पीछे धकेल दिया। इसके बाद बोनापार्ट फ्रांस लौट गया। उसने और उसके साथियों ने डायरेक्टरी को बर्खास्त कर एक काँसुलेट का गठन किया। बोनापार्ट ने क्रांति के अंत की घोषणा कर दी और वह स्वयं उसे नये रूप में फैलाने के लिए तैयार हो गया।
7.0 फ्रांसीसी क्रांति के परिणाम, 1789-1799 (1815)
- दो विरोधी विचारधाराओं में सरकार के स्वरूप सामने आये, प्रतिनिधित्व सरकार के विरूद्ध एकाधिकारवाद
- शक्तिशाली, केंद्रीकृत राज्य जिसमें ज्यादा प्रभावशाली प्रशासन था
- विशिष्ट वित्तीय विशेषाधिकारों की समाप्ति, किसानों द्वारा मालिकों को दिये जाने वाले करों से मुक्ति तथा एक समान कर प्रणाली जो आय पर आधारित थी, की स्थापना
- नये नागरिक अधिकारों की रचना और विस्तारः
- कानून के समक्ष समानता
- प्रतिभा के लिए नौकरियां
- चुनाव में भागीदारी
5. सामाजिक आर्थिक परिवर्तनः
- एकीकृत व्यवसायिक विधान
- श्रमिकों के संघ बनाने के अधिकारों की समाप्ति
- व्यापार एक सम्मानजनक पेशा बन गया
- सम्पन्न किसानों ने जमीन खरीदी तथा कई किसान स्वतंत्र हो गये
- बुर्ज़वा वर्ग का आकार और प्रभाव बढ़ा
6. विचारों और राजनीतिक संस्कृति में परिवर्तनः
- स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व; संप्रभुता, संप्रभुता राजा में नहीं बल्कि जनता में निहित
- राष्ट्रवाद
- धार्मिकता, चर्च के प्रभाव और अधिकारों का पतन
- क्रांतिकारी परम्पराओं का निर्माण इस विश्वास पर कि क्रांति प्रगतिशील परिवर्तन और लोकप्रिय संप्रभुता लाने का एक माध्यम है
8.0 क्रांति की विवादास्पद व्याख्याऐंः कारण, प्रकृति, परिणाम
विचारों का प्रभावः “क्रांति लोगों के मस्तिष्क में तो इसके वास्तविक स्वरूप में घटित होने के कई वर्षों पूर्व ही जन्म ले चुकी थी।“
टेलरः “राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन के फलस्वरूप पैदा हुई क्रांतिकारी विचाराधारा ही परिणाम थी न की क्रांति का कारण।‘‘ वास्तव में, क्राति के लिए परिस्थितियां पहले तैयार हुई और फिर क्रांतिकारी विचारधारा अस्तित्व में आई।
8.1 जनता की भूमिका और हिंसा
1.“सिद्धांत और व्यवहारिकता तथा नेक इरादों और असभ्य हिंसा का अंतर, जो फ्रांसीसी क्रांति का प्रमुख गुणधर्म था, कम भौचक्का करने वाला लगता है। जब हम यह पाते हैं कि वह क्रांति जो कि सबसे सभ्य वर्ग के देश द्वारा प्रायोजित की गई थी, वह उसके सबसे असभ्य, अनपढ़ और निम्न कोटि के तत्वों के द्वारा संचालित की गई।“
एलेक्सिस द तॉकविल, द ओल्ड रेजीम एण्ड द फ्रेंच रिवोल्युशन, 1858 (Alexis de Tocqueville)
2.“फ्रांसीसी क्रांति ने जनता को वह बोध दिया कि वे अपने कर्म से इतिहास बदल सकें, और इसके माध्यम से अचानक ही लोकतांत्रिक राजनीति और आम आदमी के लिये इतिहास का एक सबसे शक्तिशाली नाराः स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व.....भी मिल गया। फ्रांसीसी क्रांति ने आम आदमी की शक्ति का ऐसा प्रदर्शन किया कि आने वाली कोई भी सरकार इसे भूल नहीं सकी, क्योंकि केवल अप्रशिक्षित, अस्थायी और जबरिया भर्ती सेना ने पुरानी शासन प्रणाली की एक सुव्यवस्थित और अनुभवी सेना को हरा दिया था। जब आम जनता जुलाई-अगस्त 1789 में लड़ाई में कूदी तो उसने सभ्य वर्ग की इस लड़ाई को एक नया ही रूप दे दिया, कुछ ही दिनों के भीतर उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में शासन व्यवस्था को पूरी तरह से उखाड़कर फेंक दिया। यहीं वह चीज़ थी जिसने ‘‘मानव के अधिकारों की घोषणा‘‘ अमेरिकी आदर्शां से भी ज्यादा वृहद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कि जिसने इस क्रांति को प्रेरित किया था, इसकी नई राजनीतिक शब्दावली सहित जिसने फ्रांस में नवीनता का संचार किया था।“
ई. जे. हाब्सबॉम, एको ऑफ द मार्सेल्स्, 1990 (E.J. Hobsbawm)
3. क्रांति की व्याख्या- एक त्रासदी या प्रगतिशील परिवर्तनः
a. “इस महान नाटक (फ्रांसीसी क्रांति) ने राजनीतिक परिवर्तन के अर्थ का ही रूपांतरण कर दिया, और यदि यह घटित न हुई होती तो समकालीन विश्व एक अकल्पनीय जगह होता। दूसरे शब्दों में कहें तो इसने मनुष्यों के दृष्टिकोण को बदल दिया। क्रांति की मशाल जलाने वाले लेखकों को, जो अपने ज्ञान के कारण सम्माननीय थे, विश्वास था कि यदि लोगों ने अपने भाग्य को नियंत्रित करने का साहस किया तो क्रांति संभव है। 1789 में लोगों ने, साहस, लोक कल्याण की भावना और आदर्शवाद के एक विरल क्षण में ऐसा कर दिखाया। वे जो देखने में चूक गये थे, जिसे उनके पूर्ववर्ती और उन्हें प्रेरित करने वालों ने सोचा न था, वह यह था कि केवल नेक इरादे ही उनके भाग्य को बदलने के लिए पर्याप्त नहीं थे। गलती तब हो गई जब पीढ़ियों के संचित अनुभव को रोजमर्रा की बात, पूर्वाग्रह, अति-भावुकता और अंधविश्वास कहकर, एक ओर कर दिया गया। अगले 26 वर्षों तक इस अव्यवस्था में जीने वाली पीढ़ी ने इसकी कीमत अदा की। 1802 तक दस लाख फ्रांसीसी नागरिक मारे जा चुके थे; दस लाख और लोगों की मौत का कारण नेपोलियन था, और विदेशों में भी इससे ज्यादा मारे गये। और न जाने कितने ही लोगों का जीवन बिगड़ गया था? प्रेरित करने वाली और आदर्शमयी फ्रांसीसी क्रांति के परिणाम त्रासदी के दृष्टिकोण से भी प्रभावशाली थे।“विलियम ड़ॉयल, द आक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ फ्रेंच रिवोल्यूशन, 1989 (William Doyle)
राबर्ट स्वार्ट्ज़ (Robert Schwartz)
c. फ्रांसीसी क्रांति नई राजनीतिक संस्कृति का अविष्कार थीः “मेरे दृष्टिकोण से क्रांति लाये गये सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन क्रांतिकारी नहीं थे। कुलीन वर्ग अपने तमगे और जमीन वापस ले पाया था। यद्यपि क्रांति के दौरान बड़ी मात्रा में भूमि का हस्तातंरण हुआ, तो भी ज़मीन के मालिकाना हक की संरचना लगभग वही बनी रही। अमीर और अमीर हुये, और छोटे किसानों ने सामन्तवादी देय व्यवस्था समाप्त होने पर अपनी पकड़ मजबूत की। औद्योगिक पूंजीवाद तो घोंघे की गति से आगे बढ़ा। इसके विपरीत, राजनीति में सब कुछ बदल गया। हजारों पुरूषों व महिलाओं ने राजनीति के नये अनुभव लिये; वे नये तरीके से बाते करते, पढ़ते और सुनते थे, वे वोट देने लगे, नये संगठन बने और वे राजनीतिक उद्देश्यों को लेकर आंदोलन करने लगे। क्रांति एक परम्परा और गणतंत्रवाद उसका अनिवार्य परिणाम बन गया। इसके पश्चात राजा, विधान परिषदों के बिना शासन नहीं कर सकते थे, और लोकहित से जुड़े मुद्दों पर कुलीनवाद केवल क्रांति का उत्प्रेरक ही सिद्ध हो रहा था। परिणामस्वरूप, 19वीं शताब्दी में फ्रांस एक मध्यमवर्गीय राजनीतिक व्यवस्था का केन्द्र बन गया था, यद्यपि औद्योगिक प्रगति वहां अभी भी नहीं थी।लिन हंट, पोलिटिक्स, कल्चर एण्ड क्लास, 1984 (Lynn Hunt)
4. मार्क्सवादी व्याख्याः ‘‘क्रांतिकारी परिवर्तन और उलटफेर के दस साल बाद, फ्रेंच समाज की संरचना में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया था। पुराने शासन के अभिजात्य वर्ग से उनके विशेषाधिकार और सामाजिक प्रमुखता छीन ली गई थी; सामंती समाज को नष्ट कर दिया गया था। सामंतवाद के हर निशान को मिटाकर, किसानों को सामंती को देय राशि व पादरी को देय दशमांश एवं कुछ हद तक उनके समुदाय द्वारा थोपी गयी राशि से मुक्त करा कर-विशेषाधिकार प्राप्त निगमों के एकाधिकार को खत्म करके, और राष्ट्रीय बाजार को एकीकृत करके, फ्रांसीसी क्रांति सामंतवाद से पूंजीवाद के लिए संक्रमण में एक निर्णायक चरण में थी।‘‘
अल्बर्ट सोबौल, फ्रांसीसी क्रांति, 1965 (Albert Soboul)
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