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राजनैतिक दर्शन
1.0 प्रस्तावना
मानव समाज को किसी न किसी सरकार द्वारा नियंत्रित किया जाना आवश्यक है, अन्यथा अराजकता व्याप्त होती दिखाई देगी। ’’सरकार’’ या ‘‘राज्य’’ के तंत्र को चलाने वाली कानून द्वारा मान्य संस्था या संस्थाओं को ही राजनीतिक तंत्र कहा जाता है। अधिक विस्तार से देखें, तो यह शब्द किसी वास्तविक या निर्धारित राजनीतिक व्यवहार को परिभाषित करता है जिसके अनुसार वह राजनीतिक तंत्र को केवल कानून द्वारा मान्य राज्य की संस्था ही नहीं मानता, वरन राज्य कैसे कार्य करता है यह सच्चाई भी बताता है। राजनीतिक तंत्र को ’’अनुदेश की प्रक्रियाओं’’ के रूप में देखा जाता है या किसी समाज के ऐसे उप-तंत्र के रूप में जो अन्य गैर-राजनीतिक उप-तंत्रों से सतत संवाद कर रहा है (जैसे आर्थिक तंत्र)। यह समाज और राज्य के बीच की अनौपचारिक सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रियाओं का महत्व बताता है और राजनीतिक विकास के अध्ययन पर भी बल देता है।
सारी दुनिया में कई राज्य और कई सरकारें अस्तित्व में हैं। इस संदर्भ में ‘‘राज्य’’ का अर्थ ऐसी राजनीतिक इकाई से है जिसके भीतर ताकत और अधिकार निहित होते हैं। यह इकाई पूरे देश के रूप में हो सकती है या देश के किसी एक हिस्से के रूप में। इसलिए दुनिया के देशों को कई बार राज्य की तरह संदर्भित किया जाता है, तथा कई बार देश में ही अंतर्निहित हिस्सों को भी, जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका में कैलिफोर्निया, न्यूयार्क और टेक्सास। सरकार का अर्थ उस समूह से है जो देश के राजनीतिक मामलों को दिशा देता है। मगर इसका एक अर्थ शासन के उस तरीके को भी बताता है जिसके द्वारा वह देश निर्देशित होता है। सरकार शब्द का एक और अर्थ राजनीतिक तंत्र से है जिसे हम यहां सरकार के संदर्भ में इस्तेमाल करेंगे। लोग जिस सरकार के शासन में रहते हैं, वह उनकी स्वतंत्रता, कल्याण और यहां तक कि उनके जीवन पर पूरा प्रभाव ड़ालती है।
2.0 अधिनायकवाद और सर्वाधिकारवाद
अधिनायकवाद और सर्वाधिकारवाद एक अप्रजातांत्रिक राजनीतिक तंत्र के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द हैं। यह एक ऐसा तंत्र है जो कि ऐसे व्यक्ति या समूह के द्वारा चलाया जाता है जिसे उनकी जनता ने अपनी इच्छा से नहीं चुना है और जो मनमाने ढ़ंग से अपनी शक्ति का प्रयोग करते हैं। अधिक स्पष्ट रूप से कहा जाए तो अधिनायकवाद का अर्थ ऐसे राजनीतिक समूह से है जहां सारी ताकत केवल एक व्यक्ति या एक समूह के पास होती है, जो जनता के प्रशासन में दखल को रोकते हैं और उनकी असहमति का दमन करते हैं। सर्वाधिकारवाद ऐसा तंत्र है जिसमें अधिनायकवाद के सारे गुण मौजूद हैं मगर यह स्वभाव से अधिक दमनकारक होता है। ये व्यक्ति या समूह जनता के जीवन और भविष्य से जुडे़ हर पहलू पर अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहते हैं। लोगों द्वारा आदर्श आचरण की परिधि के उल्लंघन पर उन्हें कैद किया जाता है या उनकी सामान्य-सी असहमति पर भी उन्हें मार ड़ाला जा सकता है।
लोकतंत्र और राजशाही से तुलना करने पर पता चलता है कि अधिनायकवाद और सर्वाधिकारवाद सरकारें राजनीतिक रूप से अधिक अस्थायी सरकारें हैं। इसका मुख्य कारण है कि सरकार के पास न्यायसंगत या वैध अधिकार नहीं होते। यह ताकत तो भय और ड़र दिखाकर हासिल की हुई होती है। इन सरकारों की जनता अपनी इच्छा से सरकार का कहना नहीं मानती वरन उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाता है। वे जानते हैं कि उनकी सरकार उनके साथ बुरा व्यवहार करती है। यही कारण है कि इन सरकारों के शासन तले रहनेवाली जनता में विद्रोह की इच्छा प्रजातंत्र की जनता के मुकाबले अधिक होती है। वे विद्रोह करते हैं और यदि उनके विद्रोह को पर्याप्त शक्ति मिल पाती है तो यह विद्रोह व्यापक हो जाता है, और क्रांति होती है। इसके विपरीत, प्रजातांत्रिक देशों में जनता को भय और ड़र का सामना प्रायः नहीं करना पड़ता और मन मुताबिक न लगने वाली सरकार को वे अगले चुनाव में बदल सकते हैं, यह संतोष भी उनके मन में रहता है। इसलिए उन्हें किसी तरह के विद्रोह की जरुरत महसूस नहीं होती।
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय से, जिसने अमेरिका (यू.एस.) को सारी दुनिया पर वर्चस्व हासिल करने में मदद की, अमेरिका दुनिया के कुछ भागों में व्याप्त सर्वाधिकारवाद और अधिनायकवाद का विरोध करता आ रहा था और कुछ का समर्थन करता रहा था। शीत युद्ध ने अमेरिका और उसके अनुयायियों को साम्यवादी देशों जैसे सोवियत यूनियन, चीन, क्यूबा और उत्तरी कोरिया के विरोध में ला खड़ा किया (और उनके बीच शीत युद्ध की स्थिति बन गई) मगर यू.एस. ने कहीं तो सर्वाधिकारवाद का विरोध किया और चिली, गुआटेमाला और दक्षिणी वियतनाम जहां शासकों ने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए विरोध कर रहे अपने ही नागरिकों की हत्या की, उनका समर्थन भी किया। यू.एस. के इतिहास में पहले भी असंतोष को कुचलने के लिए ऐसा नियम बनाये गये जिसके अंतर्गत पहले विश्वयुद्ध के खिलाफ किसी भी तरह के विचार प्रकट करना अपराध था और इसका पालन न करनेवाले को कैद किया गया। 1960 और 1970 के दशक में एफ.बी.आई., सी.आई.ए. और अन्य संघीय संस्थाओं ने उन हजारों लोगों की जासूसी की जो ऐसा विरोध करते थे जो प्रथम संशोधन (फर्स्ट अमेंड़मेंट) से सुरक्षित किया गया था। अपने ही लोगों के इस तरह दमन से अमेरिका का स्वतंत्रता के प्रकाश स्तंभ जैसा प्रभाव धूमिल हो गया और ‘‘सभी के लिए समान न्याय और स्वतंत्रता’’ का नारा केवल नारा सिद्ध ना हो इसके लिए पूरी सतर्कता बरतने की मांग कई जगह उठने लगी।
3.0 राजशाही
यह ऐसा राजनीतिक तंत्र है जहां सारी ताकत एक ही वंश के पास रहती है और वह पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होती जाती है। यह ताकत वास्तव में पुरखों द्वारा मिलती है। सम्राटों के आदेशों का लोग सम्मान करते हैं क्योंकि उनकी प्रजा ने उन्हें यह अधिकार प्रदान किया होता है। कई सम्राट यह शक्ति मनमाने ढंग से या आतंक के बल पर हासिल करते हैं। राजपरिवार आज भी शासन करते हैं मगर पहले की तुलना में उनकी ताकत कम हो चुकी है। आज इंग्लैंड की रानी के पास औपचारिक शक्ति ही है, मगर उनके पूर्वजों के पास कई गुना अधिक शक्ति थी।
यह उदाहरण राजशाही के संपूर्ण राजशाही से संवैधानिक राजशाही के ऐतिहासिक बदलाव को दिखाता है। संपूर्ण राजशाही में राज परिवार को राज्य पर शासन करने और सारे निर्णय अपनी इच्छानुसार लेने का अधिकार था। राजशाही का यह प्रकार प्राचीन समय से बड़ा ही प्रचलित था।
संपूर्ण राजशाही प्राचीन युग (मिस्त्र) और मध्य युग (इंग्लैंड, चीन) में सामान्यतः प्रचलित थी। वास्तव में कई राजाओं की ताकत संपूर्ण नहीं होती थी वरन उन्हें अन्य सशक्त दलों जैसे कुलीन वर्ग और पुरोहित आदि की आवश्यकताओं और मांगों का भी ख्याल रखना पड़ता था। समय के साथ संपूर्ण राजशाही, संवैधानिक राजशाही में बदलती गई जिसमें राज परिवार एक सांकेतिक और औपाचारिक भूमिका में रहते हुए ही सत्ता का सुख लेने लगे। कई देशों में प्रधानमंत्री और संसदीय व्यवस्था स्थापित की गई जो कि सरकार चलाती थी, हालांकि राजपरिवार को पूरा सम्मान और आदर दिया जाता था। संवैधानिक राजशाही की व्यवस्था आज भी कई देशों में कायम है जैसे डेनमार्क, ग्रेट ब्रिटेन, नॉर्वे, स्पेन और स्वीडन।
4.0 प्रजातंत्र
यह ऐसी सरकार या ऐसा राजनीतिक तंत्र होता है जहां नागरिक स्वयं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सरकार चलाते हैं। प्रजातंत्र शब्द यूनानी शब्द है जिसका अर्थ है ‘‘लोगों का शासन’’। गैटिसबर्ग में लिंकन के ओजपूर्ण शब्दों के अनुसार प्रजातंत्र ‘‘लोगों की, लोगों के द्वारा, लोगों के लिए बनाई गई‘‘ व्यवस्था है। शुद्ध या प्रत्यक्ष प्रजातंत्र में लोग नीतियों और संसाधनों के वितरण जैसे मामले जो उनसे सीधे ही जुडे़ होते हैं, के बारे में अपने निर्णय स्वयं लेते हैं। कुछ स्केंड़िनेवियाई देशों में ही, जहां जनसंख्या का घनत्व कम है, यह व्यवस्था व्यावहारिक सिद्ध होती है। प्रतिनिधि प्रजातांत्रिक व्यवस्था अन्यत्र अधिक लोकप्रिय है जिसमें लोग सरकार बनाने के लिए मतदान द्वारा अपने प्रतिनिधि चुनते हैं और उन्हें संसद में भेजते हैं।
प्रतिनिधि लोकतांत्रिक व्यवस्था शुद्ध प्रजातंत्र की तुलना में किसी भी बड़ी जनसंख्या वाले देश में हमेशा व्यावहारिक सिद्ध होती है। राजनीति के विशेषज्ञ इसका एक और लाभ बताते हैं। कम से कम सैद्धांतिक आधार पर यह कि जो सदस्य जनता द्वारा संसद के लिए चुने जाते हैं वे पर्याप्त योग्यता, कौशल और ज्ञान रखते हैं। विचार के इस तरीके में जनता सरकार चलाने के लिए कई बातों से अनभिज्ञ, अशिक्षित और बेसरोकार होती है। प्रतिनिधि प्रजातांत्रिक व्यवस्था अच्छे व योग्य लोगों का सरकार में पहुंचना सुनिश्चित करती है। हालांकि यह कथन बहुत ही आदर्श कथन है और ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जहां जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि अयोग्य या भ्रष्ट साबित हुए हैं। अमेरिका में कई लोग ऐसा सोचते हैं कि राजनीतिक उन्मुखीकरण की परवाह किए बिना राष्ट्रपति से लेकर नीचे तक काम करनेवाले अधिकारी पर ऐसे आरोप लगाये जा सकते है।
प्रतिनिधि प्रजातंत्र का परिभाषित गुण चुनाव के लिए मतदान है। अमेरिका की क्रांति और उसके बाद वहां प्रजातंत्र की घोषणा ने 1789 की फ्रांस की क्रांति और अन्य क्रांतियों को दिशा दी और लोगों ने अपने मतदान अधिकार की प्राप्ति के लिए लड़ाई लड़ी।
प्रजातंत्र निश्चित रूप से आदर्श नहीं है। उनकी निर्णय लेने की प्रक्रिया काफी धीमी होती है और कई बार ये निर्णय जनहित की बजाय विशेष लोगों के हित से भी प्रभावित होते हैं। इन समाजों में सामाजिक वर्ग भेद, जातीयता, लिंग और उम्र के आधार पर कई असमानताएं हो सकती हैं। इसके अलावा हरेक प्रजातंत्र में प्रत्येक व्यक्ति को मतदान का अधिकार मिले ही, यह भी आवश्यक नहीं है।
प्रजातंत्र में लोगों को मतदान के अधिकार का लाभ लेने के साथ ही, अन्य व्यवस्थाओं की तुलना में अधिक आज़ादी होती है। सबसे अधिक स्वतंत्र देश उत्तरी अमेरिका, पश्चिमी यूरोप और दुनिया के कुछ अन्य भागों में हैं और सबसे कम स्वतंत्रता वाले एशिया, मध्य-एशिया और अफ्रीका में हैं।
5.0 समाजवाद और साम्यवाद
समाजवादः समाजवाद का उद्भव औद्योगिक क्रांति के कारण हुए तकनीकी विकास, जैसे भाप का इंजन और बडे़ पैमाने पर उत्पादन, की प्रतिक्रिया के रूप में शुरु हुआ। अठारहवीं सदी के अंत में इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति शुरु हुई जो उन्नीसवीं सदी के अंत तक यूरोप और अमेरिका में फैल गई। इसने सब ओर बड़ी उथल-पुथल मचा दी। बहुत ही कम समय में लोगों को उद्योगों की मशीनी दुनिया में समाहित होने के लिए कृषि-आधारित जीवन छोड़ना पड़ा। इसने परिवारों, समुदायों व समाजों को जड़ से हिला दिया।
राजनैतिक आंदोलन होने के नाते समाजवाद में राजनीतिक दर्शन, सुधारों से लेकर क्रांति तक का वृहद परिदृश्य समाहित दिखाई देता है। राज्य समाजवाद के प्रणेता समाजवाद के क्रियान्वयन के लिए उत्पादन के साधनों, वितरण और विनिमय के राष्ट्रीयकरण की मांग करते हैं। इसके विपरीत उदारवादी समाजवाद के समर्थक ऐसी किसी व्यवस्था में राज्य के अधिकारों के उपयोग को खारिज करते हैं और संसदीय राजनीति और राज्य के अधिकार दोनों की ही निंदा करते हैं। प्रजातांत्रिक समाजवाद प्रजातांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा समाजवाद की स्थापना और प्रजातांत्रिक राजनीतिक तंत्रीय व्यवस्था के अंदर ही इसके विस्तार की बात कहता है।
आधुनिक समाजवाद का उद्भव अठाहरवीं सदी के बुद्धिजीवी और कामकाजी वर्ग के आंदोलन से हुआ जिसमें उन्होंने औद्योगिकीकरण और निजी संपत्ति का समाज पर पड़ रहे प्रभाव का विरोध किया। उन्नीसवीं सदी के पहले चरण में ‘‘समाजवाद’’ को पूंजीवाद की किसी भी समस्या पर उपजी चिंता के रूप में देखा जाने लगा, भले ही उस समस्या का हल समाजवादियों के पास न हो। उन्नीसवीं सदी के अंत तक ‘‘समाजवाद’’ पूंजीवाद के विरोध में आ खड़ा हुआ और ऐसे समानांतर तंत्र की पैरवी करने लगा जो कि सामाजिक स्वामित्व पर आधारित हो। मार्क्सवादियों ने इसे और विस्तार दिया और वैज्ञानिक आकलन और प्रजातांत्रिक योजना को समाजवाद का महत्वपूर्ण तत्व बताया।
समाजवाद के प्रारंभिक संस्करण उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में यूरोप में रखे गये (आदर्शवादी समाजवाद) मगर वास्तविक प्रभावशाली समाजवादी सिद्धांत उन्नीसवीं सदी के मध्य तक औद्योगिकीकरण के प्रसार होने तक नहीं बन सके थे। कार्ल हेनरिक मार्क्स (1818-1883) जो एक जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री, समाजविज्ञानी, इतिहासकार, पत्रकार और क्रांतिकारी समाजवादी थे, उनके समाजवादी सिद्धांत सर्वश्रेष्ठ कहे जाते हैं और इन्हीं विचारों के आधार पर रूस में 1917 में साम्यवादी क्रांति का सूत्रपात हुआ। फ्रेड्रिक एंजेल्स के साथ मार्क्स ने क्रांति के आह्वान के लिए साम्यवादी घोषणापत्र (1848) लिखा। अन्य समाजवादी विचारक कार्ल काउत्सकी, व्लादिमिर लेनिन और अन्टोनिओ ग्रेम्स्की थे।
समाजवाद निम्न बातों पर जोर देता हैः
समष्टिवाद या समूहवादः मानव स्वभाव से ही एक सामाजिक प्राणी है और समाज को उसके इस स्वभाव का सम्मान करना चाहिए। व्यक्तिवाद समाज के लिए हानिकारक है।
जनता का स्वामित्वः सारी संपत्ति पर समाज का (व्यक्ति का नहीं) स्वामित्व होना चाहिए।
केन्द्रीय आर्थिक योजना निर्माणः सरकार ही सारी आर्थिक योजनाओं को बनाती है, मुक्त बाजार के लिए स्थान नहीं है।
आर्थिक समानताः सभी नागरिकों की समृद्धि का स्तर लगभग एक सा होना चाहिए।
वर्ग विवादः समाजवादियों के अनुसार, उदारवाद स्वतंत्रता और समानता के अपने वादे को पूरा करने में असफल रहा है। समाजवादी इस असफलता के लिए मुक्त बाजार को दोषी मानते हैं। पूंजीवादी तंत्र में धन और उत्पादन के साधन ही शक्ति का प्रतीक हैं। इस तरह संपन्न और विपन्न लोगों के बीच में एक तरह का युद्ध छिड़ा रहता है जिसे मार्क्स वर्ग विवाद या वर्ग संघर्ष कहते हैं। संपन्न लोगों के पास धन और उत्पादन के साधन होने के कारण वे ताकतवर बन जाते हैं और यह लड़ाई जीत लेते हैं। धनी लोग सरकार पर भी नियंत्रण कर लेते हैं और अपनी शक्ति को बढ़ाकर उसका प्रयोग कमजोर, गरीब वर्ग पर करते हैं। इस तरह समाज में न तो स्वतंत्रता है न ही समानता। मार्क्स ने संपन्न वर्ग को ‘‘बुर्ज़वा‘‘ व विपन्न वर्ग को ‘‘प्रोलीटेरियट‘‘ कहा।
समाजवाद का विकासः समाजवाद के विकास के कई रास्ते रहे। साम्यवाद और प्रजातांत्रिक समाजवाद इसके प्रमुख विकास मार्ग रहे हैं।
साम्यवादः यह समाजवाद को हासिल करने के लिए सर्वाधिकारवादी और क्रांतिकारी तरीका है। यह कहता है कि साम्यवाद ‘‘अभी लाना होगा’’ बजाय इसके कि इसके विकसित होने की राह देखी जाए। एक विचाधारा के अनुसार साम्यवाद एक वर्गविहीन समाज के अस्तित्व पर जोर देता है जिसमें समाज का हरेक व्यक्ति उत्पादन के हिस्से को समान रूप से बांटता है। सोवियत रूस और चीन के शासन इसी रूप में अवतरित हुए हैं। साम्यवादी नेता जैसे व्लादिमीर लेनिन, जो कि 1917 की साम्यवादी क्रांति पश्चात ‘‘सोवियत संघ’’ के पहले मुखिया बने, उन्होंने तर्क रखा कि लोगों को समाजवाद के विकसित होने की राह देखने की बजाय इसे तुरंत लागू करना चाहिए। अधिकारवादी और उग्र तरीके अक्सर जरुरी हो जाते हैं क्योंकि पूंजीवाद के समर्थक पूरी ताकत लगाकर समाजवाद को लागू होने से रोकने का काम करेंगे।
साम्यवाद के सिद्धांतः
- निजी जमीनों को सरकार के कब्जे में लेना और उसके द्वारा हुई आय से सरकार के खर्चे निकालना
- आयकर की दरें ऊंची और उत्तरोत्तर वर्गीकृत करना
- उत्तराधिकार के नियम को समाप्त करना
- देश छोड़कर जानेवालों और विद्रोहियों की सारी संपत्ति जब्त करना
- साख के केन्द्रीकरण का अधिकार राज्य के हाथ में हो और इसके लिए एक राज्य (सरकारी) बैंक का प्रावधान हो जिसमें राज्य का धन और एकाधिकार हो
- परिवहन का केन्द्रीयकरण हो और यह व्यवस्था पूरी तरह से सरकार के हाथ में हो
- सभी कारखानों और उत्पादन के साधनों पर सरकार का नियंत्रण हो तथा कृषि भूमि का समान बंटवारा किया जाए
- काम को पर्याप्त सम्मान दिया जाए और कामगारों की सेना (विशेषतः कृषि कार्य के लिए) का गठन हो
- औद्योगिक उत्पादन के साथ कृषि का एकीकरण हो और गांव और शहर के बीच का अंतर समाप्त हो
- सभी बच्चों के लिए शिक्षा की व्यवस्था सरकार द्वारा की जाए। बाल मजदूरी पूरी तरह से बंद की जाए। आर्थिक उत्पादन के साथ शिक्षा का एकीकरण किया जाए
प्रजातांत्रिक समाजवादः प्रजातांत्रिक समाजवाद, समाजवाद को लागू करने का एक शांतिप्रिय और प्रजातांत्रिक रास्ता है। विचारधारा की बात करें तो प्रजातांत्रिक समाजवाद भी एक वर्ग-विहीन समाज की बात करता है जिसमें सभी सदस्य उत्पादन के साधन और उनके परिणामों को समान रूप से बांटते हैं। मगर साम्यवाद के विपरीत यह अपने लक्ष्य की प्राप्ति शांतिपूर्ण तरीके से करने में विश्वास रखता है। प्रजातांतिक समाजवाद सरकार के साथ प्रजातांत्रिक तरीके से काम करके धीरे-धीरे समाजवाद लाने में विश्वास रखता है न कि तुरंत बदलाव में। आर्थिक असमानता को राज्य द्वारा कल्याण योजनाएं चलाकर तुरंत दूर किया जाना चाहिए और एक ऐसा तंत्र विकसित होना चाहिए जो गरीबों और बेरोजगारों की मदद करे।
प्रजातांत्रिक समाजवाद आज के परिप्रेक्ष्य मेंः पश्चिमी यूरोप और स्केंड़ेनेविया में प्रजातांत्रिक समाजवाद बड़ा ही सफल रहा। वहां की सरकारों ने सशक्त कल्याण कार्यक्रम चलाए और ये कार्यक्रम समाजवादियों के वहां न रहने के बाद भी कार्यरत रहे। प्रजातांत्रिक समाजवादी दल दुनिया के कई देशों में प्रजातंत्र के साथ साथ काम करते हैं। जर्मनी की समाजवादी प्रजातांत्रिक पार्टी और ब्रिटेन की लेबर पार्टी सफल समाजवादी प्रजातांत्रिक दलों के उल्लेखनीय उदाहरण हैं। भारत में समाजवाद के आर्थिक प्रतिरूप पर और संविधान में उल्लेखित नीति निर्देशक तत्वों की परिधि में इनके सही बैठने को लेकर भारी विवाद है। भले ही भारत एक कल्याणकारी राज्य है, जो समाजवाद के अनुकूल है, मगर इसका आर्थिक ढ़ांचा पिछले 20 वर्षों में पूंजीवाद का समर्थन करता नजर आता है। भारत के ही समान यह बात अन्य देशों के लिए भी लागू होती नजर आती है।
6.0 पूंजीवाद
आज जिसे हम सामान्य रूप से पूंजीवाद के नाम से जानते हैं उसके सिद्धांत के प्रणेता एडम स्मिथ माने जाते हैं। 1776 में उन्होंने एन इन्क्वायरी इन्टू द नेचर एंड कॉज़ेज़ आफ द वेल्थ आफ नेशंस् पर काम किया और सिद्ध किया कि यदि व्यक्ति को वाणिज्य और मूल्यांकन के स्थिर तंत्र उपलब्ध कराये जाएं तो वे अपने उत्पादन को बढ़ाने के लिए अधिक से अधिक विशेषज्ञता-आधारित प्रयास करते हैं। और यह काम व्यक्ति अपने ही स्तर पर, राज्य के किसी भी हस्तक्षेप के बिना करता है। हर एक व्यक्ति के इस तरह से प्रदर्शन से अर्थव्यवस्था समृद्ध होती है और देश धनी होता है। स्मिथ ने यह भी तर्क दिया कि किसी विशेष उत्पादक को संरक्षण देने से उसके उत्पादन का स्तर घटेगा और जमाखोरी बढ़ने से दाम बढेंगे। यह तर्क डेविड ह्यूम से मिलता-जुलता था। किसी माल को किस तरह से किसी बाजार में अदल-बदलकर उसे किस तरह सामान्य लोगों के प्रोत्साहन के लिए इस्तेमाल किया जाए इस पर उनका विस्तृत अध्ययन आज की राजनीतिक अर्थव्यवस्था का आधार बना और बाद में अर्थशास्त्र का। यह नियम और कानून के सिद्धांत का भी आधार बना जिसने उस समय प्रचलित व्यापारिक (वणिकवादी) शासन व्यवस्था को भी प्रतिस्थापित कर दिया।
स्मिथ ने कहा कि जब कोई व्यक्ति किसी तरह का व्यापार करता है तो वह जिस वस्तु को खरीद रहा है उसका मूल्य ज़्यादा करता है बजाय उसके जो वह उसे पाने के लिए दे रहा है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वे व्यापार नहीं करेंगे मगर उस वस्तु पर अपना स्वामित्व बनाए रखेंगे। इस धारणा के पीछे ऐसे व्यापार की अवधारणा छिपी है जिसमें दोनों ही पक्षों को लाभ हो रहा हो।
भले ही स्मिथ को ‘‘पूंजीवाद का पिता’’ कहा जाता है मगर उसने स्वयं कभी ‘‘पूंजीवाद’’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। उसने अपने अर्थशास्त्र को ’’प्राकृतिक स्वतंत्रता के तंत्र’’ के रूप में बताया। स्मिथ ने ‘‘कैपिटल’’ (पूंजी) को एक स्टॉक के रूप में और ‘‘प्रॉफिट’’ (मुनाफे) को उस माल में किए गए परिवर्तन से अपेक्षित धन के रूप में बताया। स्मिथ ने पूंजी विकास को किसी भी राजनीतिक और आर्थिक तंत्र का आवश्यक हिस्सा बताया।
पूंजीवाद शब्द आज समाज में बहुतायत में प्रचलित है और आज अधिकांश दुनिया का ढांचा इसी के आधार पर खड़ा है। यह भी धारणा है कि पूंजीवाद न केवल आज सर्वत्र प्रचलित है वरन आगे भी इसका अस्तित्व बना रहेगा। पूंजीवाद एक नई अवधारणा, एक नया सामाजिक तंत्र है। पूंजीवाद की प्रमुख विशेषताएं निम्न हैं-
वर्ग विभाजनः पूंजीवाद ऐसा सामाजिक तंत्र है जो आज दुनिया के अधिकांश हिस्सों में प्रचलित है। इस तंत्र में सकल उत्पादन व वितरण के संसाधनों (भूमि, कारखाने, परिवहन तंत्र आदि) और वितरण पर किसी एक छोटे से वर्ग का प्रभुत्व होता था। यह समूह पूंजीवाद समूह के नाम से जान जाता है। इसके अलावा अन्य बचे हुए वर्ग इस वर्ग के लिए निश्चित वेतन पर काम करते हैं और कामकाजी वर्ग कहलाते हैं।
कामकाजी वर्ग को माल के उत्पादन और विक्रय के लिए वेतन दिया जाता है और उनके द्वारा उत्पादित माल को फिर भारी मुनाफे पर बेचा जाता है। चूंकि इस उत्पादन पर पूंजीवादी वर्ग का प्रभुत्व होता है अतः इसके मुनाफे का लाभ भी केवल वे ही उठाते हैं। इसके लिए वे माल को उत्पादन दर से अधिक दर पर बेचते हैं। इस तरह से पूंजीवादी वर्ग कामकाजी वर्ग का शोषण करता है (यह विवादित तथ्य है)। पूंजीवादी कामकाजी वर्ग के शोषण द्वारा कमाए गए मुनाफे का कुछ हिस्सा पुनः अपने व्यपार में निवेश करते हैं और इस तरह से धन का संचय करते जाते हैं। जब देश की अपनी कंपनियां मुनाफा कमाती हैं तो एक बहस शुरु हो जाती है कि इस मुनाफे का शत प्रतिशत लाभांश के रूप में सरकार को दे या भविष्य के विकास के लिए कुछ धन निवेश करें।
जब सिद्धांतवादी यह कहते हैं कि समाज दो वर्गों में विभक्त है, तो इसका यही आशय है। यह तथ्य समाज में जी रहे लोगों की स्थिति के आधार पर कहा जाता रहा है। यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता हो कि कौन सा वर्ग अपेक्षाकृत संपन्न है मगर समाज का बड़ा हिस्सा किस वर्ग में आता है इस बारे में कोई अस्पष्टता नहीं है। पूंजीवादी वर्ग के लोग यह भलीभांति जानते हैं कि वे कौन हैं। इसी तरह से कामकाजी वर्ग के लोग भी यह जानते हैं कि उन्हें अपना जीवन व्यतीत करने के लिए किसी के ऊपर निर्भर रहना होगा और किसी काम के ऐवज में वेतन पाकर गुजारा करना होगा (या राज्य द्वारा दिये सहयोग पर आश्रित रहना होगा)।
लाभ के उद्देश्यः पूंजीवाद में माल उत्पादन और उसके विक्रय का प्राथमिक उद्देश्य लाभ कमाना होता है न कि लोगों की जरुरतों को संतुष्ट करना। हालांकि यह स्पष्ट है कि यदि आप अपने ग्राहक को संतुष्ट नहीं करेंगे तो वे आपका माल क्यों खरीदेंगे? पूंजीवादी उत्पादन के उत्पाद के लिए खरीदार होना जरुरी है मगर यह इसके लाभ कमाने के मूल उद्देश्य का एक हिस्सा मात्र है, जिसके द्वारा निवेशित धन से अधिक मुनाफा कमाया जाना है। कई विचारकों का यह भी मानना है कि पूंजीवादियों द्वारा किया गया उत्पादन इस आधार पर निर्धारित नहीं होता कि लोगों की आवश्यकता क्या है वरन इस बात पर होता है कि किस उत्पाद से उन्हें अधिक मुनाफा मिलेगा। ये उत्पाद समाज की आवश्यकताओं को संतुष्ट कर सकते हैं मगर उन्हें खरीदने के लिए उनके पास पर्याप्त धन होना जरुरी है।
लाभ की यह आकांक्षा किसी एक पूंजीवादी के लालच का नतीजा नहीं है। उनके पास इस तरह के विकल्प नहीं होते। लाभ कमाने की जरुरत पूंजीवादी को उनके निवेश को बचाए रखने और पूंजीवादी के रूप में अपनी साख बनाए रखने के लिए उन पर थोपी जाती है। अन्य पूंजीवादियों के बीच की प्रतिस्पर्धा भी उन्हें अपने उत्पादन को अद्यतन रखने के लिए प्राप्त मुनाफे का निवेश व्यापार में करने के लिए बाध्य करती है।
अतः ऐसा लगता है कि वर्ग-विभाजन, और मुनाफा कमाने की पूंजीपतियों की इच्छा ही आज दुनिया की अधिकांश तकलीफों - भूख से लेकर युद्ध तक, अलगाव से लेकर अपराधों तक - की जड़ है। आज के नागरिकों का जीवन लाभ कमाने की इस आकांक्षा से बुरी तरह से प्रभावित है। पूंजीवादी समाज में हमारी वास्तविक आवश्यकताएं लाभ की इच्छा के चलते बहुत कम अवधि के लिए सामने आ पाती हैं।
पूंजीवाद और मुक्त बाजारः यह सामान्य धारणा है कि पूंजीवाद का अर्थ मुक्त-बाजार अर्थव्यवस्था है। मगर मुक्त बाजार के बिना भी पूंजीवाद संभव है। (भूतपूर्व) सोवियत रूस, क्यूबा और चीन ने इस धारणा की पुष्टि की है। यहां समाज की व्यवस्था समाजवादी व्यवस्था है। सरसरी तौर पर देखने पर पता चलता है कि ये देश केवल ‘‘राज्य पूंजीवादी‘‘ हैं। ऐसा माना जाता है कि ‘समाजवादी‘ रूस में वेतन व्यवस्था, वस्तुओं का उत्पादन, बेचना, खरीदना, विनिमय जारी रही और उत्पादन तभी किया जाता जब ऐसा करना अपरिहार्य हो जाता है। समाजवादी रूस ने अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद के नियमों के अनुसार व्यापार जारी रखा और अन्य पूंजीवादी राज्यों की तरह अपने आर्थिक लाभों की पूर्ति के लिए प्रयास किए, युद्ध स्तर की तैयारियां कीं। सोवियत राज्य की भूमिका कामगारों की मजदूरी के शोषण, उत्पादन के लक्ष्य निर्धारित करना और क्या उत्पादित किया जाना है और क्या नहीं इस पर नियंत्रण करने में पूंजीवाद के अधिकारी की तरह थी।
यह एक बडी विडंबना है। लेनिन, जो धरती की ओर देखते हुए शर्मसार होते होंगे, शायद अब इस बात पर जोर देते हुए संतुष्ट महसूस करेंगे कि इन देशों के पास समाजवाद के रूप में वैसा कुछ कहने या करने को नहीं है जैसा उन्होंने परिभाषित किया था। बल्कि समाजवाद किसी एक देश में एकल रूप से अस्तित्व में नहीं रह सकता, पूंजीवाद की तरह इसे भी वैश्विक समाज बनना होगा।
यह भी संभव है कि ऐसे मुक्त बाजार की रचना की जाए जहां पूंजीवाद न हो। ऐसी अर्थव्यवस्था में किसान, कारीगर और दुकानदार सभी उत्पादन में शामिल रहेंगे और वे धन के बदले वस्तुओं का विनिमय कर सकेंगे। यहां किसी तरह का मुनाफा और कोई वर्ग भेद नहीं होगा। यहां होंगे केवल स्वतंत्र उत्पादक जो अपने आपसी लाभ के लिए उत्पादों का विनिमय करेंगे। मगर ऐसी अर्थव्यवस्था कभी अस्तित्व में आ सकेगी इसपर शंका है। उत्तर अमेरिका के प्राचीन औपनिवेशक संरचना में ऐसी व्यवस्था का कुछ दृश्य देखा जा सकता था। कुछ पर्यावरणविद ऐसी अर्थव्यवस्था के पुनर्जीवित होने की कामना करते हैं। हम यह नहीं सोचते कि आधुनिक समाज के लिए यह व्यवहार्य विकल्प होगा। ऐसी व्यवस्था आगे जाकर अनिवार्यतः धन संचय और मुनाफाखोरी को बढ़ावा देगी और पूंजीवाद के रूप में बदल जाएगी।
अदृश्य हाथः ’’अदृश्य हाथ’’ का विचार एडम स्मिथ ने 1776 में प्रकाशित अपनी पुस्तक वेल्थ आफ नेशन्स में पहली बार दिया था। स्मिथ ने यह अवधारणा आदर्श प्रतिस्पर्धा के विरोधाभास को दिखाने के लिए दी थी जिसमें अर्थव्यवस्था में काम कर रहा हर एक व्यक्ति अपने स्वार्थों को लेकर चल रहा है, और अंत में सभी का लाभ कर रहा है। व्यक्ति न तो किसी समूह को बढ़ावा देने की बात सोचता है, न ही वह यह जानता है कि वह उन्हें कितना बढ़ावा दे रहा है। एडम स्मिथ ने इस क्रिया की तुलना ऐसे अदृश्य परोपकारी विचार से की है जो सभी को लाभ पहुंचाने की इस समस्त प्रक्रिया को निर्देशित करती है।
इस अदृश्य हाथ द्वारा की जा रही उपयोगिता पर आधारित ‘‘लैसा फेअर‘‘ (अबंध नीति - स्ंपेम्र िंपतम) का सिद्धांत प्रतिपादित हुआ जो यह सुझाता है कि सरकार को आर्थिक मामलों में कम से कम दखल देना चाहिए। जैसे कि कई देशों में हो रहा है। जो भी हो, बीसवीं सदी के प्रारंभ से यह महसूस किया जाने लगा कि अदृश्य हाथ की कल्पना सैद्धांतिक धारणा मात्र है, जो कि वास्तव में अस्तित्व में नहीं है।
स्मिथ ने अपने सिद्धांत एक ऐसे समाज के लिए विकसित किए थे जो बहुत ही योजनाबद्ध और अधिकारवादी था, जहां कुछ व्यक्ति कानून से भी ऊपर होते थे और कुछ को कोई अधिकार नहीं मिलते थे। केन्द्रीय समाज में केवल कुछ व्यक्ति यह निर्णय ले लेते हैं कि सबका रुपया कैसे खर्च करना है और सबके प्रयासों की क्या दिशा होनी चाहिए।
इन दिनों ‘‘अदृश्य हाथ‘‘ का सिद्धांत विज्ञान की तरक्की से लेकर पर्यावरण विघटन तक सभी तरह की घटनाओं को समझने हेतु लागू किया जा रहा है। आधुनिक संदर्भ में अदृश्य हाथ के सिद्धांत को गणित में गेम थ्योरी के हिस्से के रूप में देखा जा रहा है जो कि गणित की वह शाखा है जो धन कमाने और अन्य रणनीतियों के बारे में बताती है।
7.0 साम्यवाद का पतन
साम्यवाद के लिए आंतरिक चुनौतियांः सोवियत संघ की नौकरशाही और उनकी गुप्त सेवाओं ने नागरिकों की निजी स्वतंत्रता छीन ली थी और और कई मामलों में तो साम्यवादी राज्य के नाम पर उनके जीने का अधिकार भी खतरे में आ गया था। एन.के.वी.डी. के कुटिल पुलिस तंत्र, जो कि स्टालिन के कहने पर संचालित होता था, ने बडे़ स्तर पर असंतुष्टों के हत्याकांड़ का कार्य किया। मिखाइल गोर्बाचेव, जो 1985 में 54 वर्ष की आयु में सत्ता में आए, वे यह सब देखने-समझने के लिए पर्याप्त संवेदनशील और अनुभवी थे। उन्होंने नागरिकों की रक्षा के अपने दायित्वों का ध्यान रखा। उन्होंने महसूस किया कि साम्यवादी राज्य के लिए बाहरी खतरे के नाम से जनता को ड़राया जा रहा है। वह ‘सुपर पावर‘ की दौड़ की निरर्थकता और अंतहीन अहंकार के भागीदारी को समझ चुके थे। उन्होंने देखा कि 1945 के बाद एक दूसरे पर धौंस जमाने के अतिरिक्त अन्य कोई बाहरी खतरा नहीं था। अतः उन्होंने व्यवस्था बदलने का निर्णय लिया। ऐसा लगा जैसे उन्होंने हार स्वीकार कर ली हो मगर वह इसके अमेरिका पर पड़नेवाले दूरगामी परिणामों से परिचित थे।
साम्यवाद को बाहरी चुनौतियांः 1988 में अफगानिस्तान में पीछे हटने का निर्णय बड़ी सामरिक हार था। हर एक बुद्धिमान व्यक्ति जिसने अफगानिस्तान का इतिहास पढ़ा था वे जानते थे कि अफगानिस्तान दबनेवालों में से नहीं है।
साम्यवाद के पतन के कारणः सुपर पावर की दौड़ में खडे़ रहना एक गलती ही थी, यदि सोवियत यूनियन को विकसित करने में प्रारंभिक सफलता भारी सफलता थी। फिर भी साम्यवादी राज्य की संरचना कई लोगों को आवश्यकता की वस्तुएं भी मुहैया न करवा सकी, जबकि इसके लिए वे दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से इंतजार करते आ रहे थे। इससे जनता में गहरा असंतोष फैला। लोग रोज़ के भोजन के लिए कब तक लंबी पंक्तियों में कब तक खडे़ हो सकते थे!
साम्यवाद के पतन की प्रक्रियाः यह अफगानिस्तान की असफलता से शुरु हुआ। सोवियत सेना को हार का मुंह देखना पड़ा, जब अफगानिस्तान की धार्मिक संवेदनाएं भड़कीं और धर्म को किसी भी तरह के खतरे से बचाने के लिए वे तत्पर हो उठे। सोवियत यूनियन ने धर्म को कम महत्व देते हुए उसे राज्य की नीतियों में दूसरे स्तर पर रखा जो कि एक बडी उपलब्धि थी और जिसकी जरुरत भी थी। मगर राज्य अब अकेला रह गया। गोर्बाचेव द्वारा 1986 में अच्छी नीयत से प्रारंभ कार्यक्रम ग्लासनोस्त (राजनैतिक खुलापन) और पेरेस्त्रोइका (राजनैतिक व आर्थिक पुनर्गठन) ने सोवियत संघ के 1991 में पतन को गति ही प्रदान की।
साम्यवाद और पूंजीवाद की लड़ाई में पूंजीवाद की जीत हुई। इससे सोवियत संघ की जनता निराश हो गई। पूंजीवादी दुनिया अपने शिखर पर थी और साम्यवादियों की इस दूसरी दुनिया को स्वयं में शामिल होने के लिए इंगित कर रही थी, जिससे सोवियत राज्य शक्तिहीन महसूस कर रहा था।
साम्यवाद के पतन का अन्य राष्ट्रों पर प्रभावः
यू.एस.एस.आर. : 15 गणराज्य अलग-अलग राज्यों में बंट गए। उन्होंने साम्यवाद के विरोध में अपना मत दिया, जिसने पहले उन्हें एक करके रखा था।
पू
र्वी यूरोपः पार्टी को भंग करके साम्यवादी राज्य के खिलाफ मत देने की प्रक्रिया पूर्वी यूरोप मे सबसे पहले ६ राज्यों - पूर्वी जर्मनी, पोलैंड़, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, रोमानिया और बुल्गेरिया - में शुरु हुई।पश्चिमी देशः पश्चिम ने इस शीत युद्ध में जीत हासिल की थी। लोगों के पूंजीवाद के समर्थन के सही होने को बल मिला।
चीनः चीन के साम्यवादी सिद्धांतों और सोवियत संघ के साम्यवाद के आदर्श संस्करण में हमेशा झगडे़ की स्थिति बनी रहती थी। माओवादियों का विश्वास था कि ताकत हमेशा बंदूक के बल पर ही हासिल की जा सकती है, अतः वे हिंसक गतिविधियों पर भरोसा करते थे। यह विचार तीसरी दुनिया के गैर-साम्यवाद देशों में भी तेजी से फैला। चीन में साम्यवाद अधिनायकवादी सिद्धांत के अंतर्गत प्रचलित हुआ। झियाओपिंग जो कि 1979 में सत्ता में आये, उन्होंने यह स्पष्ट किया कि चीन को क्या चाहिए। उनके शब्दों में जब तक बिल्ली चूहे पकड़ती रहती है तब तक यह मायने नहीं रखता कि उसका रंग काला है या सफेद। उन्होंने माओ की शक्ति की परिभाषा को संशोधित किया। उसका उद्देश्य चीन को औद्योगिक और अन्य क्षेत्रों में सबसे प्रभावशाली राज्य के रूप में स्थापित करना था। साम्यवाद से छुटकारा मिलने पर उन्होंने चीन को पूंजीवाद की इस दौड़ में आगे ला खड़ा किया, और राज्य में अवांछनीय प्रजातांत्रिक असंतोष को कुचले जाने की शक्ति राज्य के हाथों में आ गई।
साम्यवाद एक तरह से सर्वहारा विचारधारा और नई सामाजिक संरचना का संपूर्ण तंत्र था। यह अन्य किसी भी विचारधारा और सामाजिक तंत्र से बिलकुल भिन्न था और मानव इतिहास का सर्वाधिक संपूर्ण, प्रगतिशील, क्रांतिकारी और तार्किक तंत्र था। सामंतवाद की विचारधारा और सामाजिक संरचना का स्थान अब केवल इतिहास के अजायबघरों में ही है। दुनिया के एक हिस्से में पूंजीवाद की विचारधारा और सामाजिक तंत्र भी अजायबघर की वस्तु बनकर रह गए हैं (सोवियत यूनियन), जबकि अन्य देशों में इसकी स्थिति ‘‘उस व्यक्ति जैसी है जो मृत्यु शैया पर पडा अंतिम सांसे गिन रहा हो, जैसे सूर्य अस्तांचल की ओर चल पड़ा हो‘‘ और जल्दी ही इसके अजायबघर में रखे जाने की तैयारी हो। साम्यवादी विचारधारा और सामाजिक संरचना अकेली ही युवा और जीवनशक्ति से परिपूर्ण है, जो कि सारी दुनिया को किसी भू-स्खलन की गति से या वज्र की ताकत से व्यापक रूप से अपने प्रभाव में लेती जा रही है।
माओत्से तुंग
1949 में पी.आर.सी.के. संस्थापक
साम्यवाद का भविष्यः रूस और पूर्वी यूरोप में साम्यवादी शासन के पतन से 1990 से 2000 के दशकों में साम्यवाद को पीछे हटना पड़ा। उदाहरण के लिए, शीत युद्ध के समय के मुकाबले, साम्यवाद के समर्थन में आज साम्यवाद के समर्थन में कम आंदोलन हैं। मगर इसके बाद भी उत्तरी कोरिया और क्यूबा जैसे साम्यवादी शासन कायम थे जो कि आज तक सशक्त और अटल हैं।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में परिवर्तित होने में आ रही कई दिक्कतों और गढ़ी गई अव्यवस्थाओं के बाद भी रूस और पूर्व-सोवियत गणतंत्र देश अब साम्यवादी शासन को पुनः स्थापित नहीं कर सकते हैं, कम्युनिस्ट पार्टी आफ रशियन फेडरेशन की सफलता ने कुछ अनुयायियों को आकर्षित किया मगर इनकी विचारधारा क्रांतिकारी के स्थान पर सुधारवादी थी। इसका प्रमुख उद्देश्य बाजार की अर्थव्यवस्था को बदलने की कष्टकारी व लंबी प्रक्रिया को सहज बनाना और ज्यादा हो-हल्ला न मचाते हुए भी लोगों के बीच असमानता को समाप्त रखना था। चीन में माओवाद को मौखिक समर्थन तो देते हैं, मगर इसका अस्तित्व सैद्धांतिक मात्र ही रह गया है। कई बडे़ उद्योग आज भी सरकार के अधीन हैं मगर इसका रुझान निजीकरण और बाजार अर्थव्यवस्था के विकेन्द्रीकरण की ओर बढ़ता जा रहा है। इससे यह प्रश्न उठता है कि मुक्त बाजार और प्रजातंत्र अलग रह सकते हैं या वे एक दूसरे के पर्याय हैं। 1989 में थ्यानानमेन चौक पर विद्यार्थियों के लोकतंत्र-समर्थक प्रदर्शन के दमन के बारे में चीन ने अपना कोई विचार व्यक्त नहीं किया। मगर आज के नई पीढ़ी के नेताओं - राष्ट्रपति झी जिनपिंग और प्रधानमंत्री ली केशुआन - ने अब सारी दुनिया को एक विहंगम दृष्टि से देखना शुरु किया है। 2013 नवंबर में पार्टी के हुई बैठक में भूमि सुधार और एक संतान के कानून के बारे में पुनर्विचार किया गया जो यह बताता है कि नेतृत्व अब प्रगतिशील सोच के साथ आगे बढ़ना चाहता है।
माओ का मार्क्स और लेनिन के विचारों पर आधारित सिद्धांत एशिया में अन्य स्थानों पर क्रियाशील तो रहा मगर अस्पष्टता बनी रही, मुख्यतः नेपाल में। सैन्य संघर्ष के एक दशक के बाद माओ उग्रवादी अपने हथियार डालने के लिए राजी हुए और नेपाल के संविधान को पुनः बनाने के लिए चुनाव में भाग लिया। बहुदलीय प्रजातंत्र और मिश्रित अर्थव्यवस्था के वादों के साथ माओ पार्टी 2008 में देश के सबसे बडे़ दल के रूप में उभरी। एक ऐसा दल जो माओवादी क्रांतिकारी विचारों के स्थान पर चीनी व्यावहारिक दल सी.पी.सी. के विचारों से अधिक मेल खाता दिखाई देने लगा।
इस बीच उत्तरी कोरिया, जो कि सोवियत संघ के ढ़ंग का साम्यवाद का आखरी गढ़ था, वह एक अलग-थलग और दमनकारी शासन के रूप में बचा रहा। लंबे समय तक सोवियत अनुदान से वंचित रहने के बाद वियतनाम और क्यूबा चतुराई से अपनी सीमाओं को लांघकर विदेशी निवेश को अपनी बढ़ती अर्थव्यवस्था में स्थान दे रहे हैं। मगर राजनीतिक रूप से दोनों ही एक दलीय साम्यवादी राज्य बने रहे हैं।
आज सोवियत विचारधारा का साम्यवाद, अपनी निर्देशित अर्थव्यवस्था और ऊपर से नीचे आती नौकरशाही वाले मॉडल के साथ, ध्वस्त हो चुका है। इस तरह की व्यवस्था मार्क्स की साम्यवाद की अवधारणा के साथ सुसंगत थी या नहीं, इस पर प्रश्न हैं। क्या कोई ऐसा देश भविष्य में बनेगा जो मार्क्स के सिद्धांतों पर चलना चाहेगा?
8.0 पूंजीवाद की मुश्किलें
कार्ल मार्क्स ने उन्नीसवीं सदी में पूंजीवाद के ‘‘आंतरिक विरोधों’’ के चलते पूंजीवादी विचाराधारा पर आते बडे़ अवसाद को महसूस किया। दुर्भाग्यवश मार्क्स हर मोर्चे पर गलत सिद्ध होते गये और हर एक मंदी के साथ पूंजीवाद में भारी उछाल आता गया।
ऐसा ही कुछ पिछले समय में वैश्विक आर्थिक संकट के समय भी हुआ। एशियाई संकट पर मशहूर अर्थशास्त्री जार्ज सोरोस ने एक पुस्तक ‘‘द क्राइसिस आफ ग्लोबल कैपिटलिज़्म’’ लिखी, जिसमें उन्होंने इस संकट को पूंजीवाद का अब तक का बड़ा संकट माना। लेहमन ब्रदर्स के पतन और भारी मंदी ने पूंजीवाद के समक्ष बड़ा संकट पैदा कर दिया। कई लोग यह सोचकर भयभीत हो गए कि अब पूंजीवाद का आधुनिक ढांचा ढ़ह गया है।
2009 में फाइनेंशियल टाइम्स ने आर्थिक मंदी के दौर में पूंजीवाद के भविष्य पर एक अलग से दृष्टिकोण के साथ कई आलेखों की श्रृंखला प्रकाशित की। यह प्रयास सुधारों की उस प्रक्रिया पर चिंतन के लिए था जो भविष्य के भारी संकट से निपटने के लिए किए जाने थे और इसमें पूंजीवाद की उपलब्धि की प्रशंसा की जानी चाहिए। सरकार को बाजार को इतना लचीला नहीं बनाना चाहिए कि वे गरीब देशों जैसे अफ्रीका, एशिया और अन्य देश जिनका वैश्विक अर्थव्यवस्था में कम योगदान है उनके विकास में बाधा पहुंचाने लगे।
‘‘1929 की महामंदी ने पूंजीवाद से लोगों का मोह भंग कर दिया और और 1960 के दशक तक, समाजवाद और साम्यवाद की ओर उनका रुझान बढ़ने लगा। इसने यह भी स्थापित किया कि सुरक्षित भविष्य सरकार के हाथ में अर्थव्यवस्था रहने पर ही संभव है न कि इसके मुक्त बाजार को दिए जाने पर। बाजार के हाथ अर्थव्यवस्था जाने पर विकास दर घट जाती है जिसके उदाहरण चीन, भारत, अफ्रीका और सोवियत संघ के राष्ट्रों में देखने को मिलता है।’’ यूरोपियन ऋण संकट और अमेरिकी अर्थव्यवस्था के समाजवादी विचार की तरफ झुकते जाने से यह तय करना कठिन हो गया है कि कौन से दर्शन या विचारधारा की अंत में विजय होगी।
मजे की बात है कि यूरोप और अमेरिका के बाहर पूंजीवाद पहले से अधिक प्रचारित था। हर देश अर्थव्यवस्था पर अपना नियंत्रण कम करता जा रहा था और उसे निजी हाथों में सौंपता जा रहा था। 70 वर्षों में पहली बार मेक्सिको ने तेल और अन्य ऊर्जा क्षेत्रों के द्वार निजी कंपनियों के निवेश के लिए खोल दिए। चीन के नए नेताओं ने भी सरकारी निकायों की कर्यशैली के प्रति असंतुष्टि जाहिर करते हुए निजी क्षेत्रों को निवेश के लिए आमंत्रित किया। भारत में भी इस तरह की प्रक्रिया ज़ोर-शोर से जारी है और कई दलों के विरोध के बाद भी सरकार निजी क्षेत्रों के हाथ में कई निकाय यहां तक कि पेंशन फंड भी सौंपने का विचार बना रही है।
सबसे प्राचीन समाजवादी सरकार के रूप में जाने जानेवाला सबसे गरीब देश रवांडा अपनी अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में (जमीन आदि) निजी क्षेत्रों को आमंत्रित कर रहा है। भारत भी अपनी श्रम शक्ति में कमी करके व उद्योग क्षेत्र के नियमों को लचीला बनाने की प्रक्रिया में है ताकि अधिक से अधिक विदेशी निवेश को आकर्षित किया जा सके। दूसरी तरफ वेनेजु़एला जैसे देश, जिन्होंने निजी क्षेत्रों के प्रवेश का विरोध किया, वे गरीबी और अविकसित अर्थव्यवस्था से जूझ रहे हैं।
पूंजीवाद के खिलाफ कितनी ही गतिविधियां आयोजित करने या इसकी खिलाफत करने के बाद भी आज सारे देश यह समझ चुके हैं कि अपनी कई कमियों के बाद भी पूंजीवाद ही एकमात्र वह रास्ता है जिसके द्वारा गरीबी दूर की जा सकती है और सशक्त मध्यम वर्ग का निर्माण हो सकता है। अधिकांश लोगों ने इसे महसूस किया है और उन्होंने राजनेताओं को इसके खिलाफ कोई कदम उठाने से रोका है क्योंकि वे यह मानते हैं कि यह ऐसी विचारधारा है जिसने ऐसा मौलिक तंत्र निर्मित किया है जिसने दुनिया के लोगों को अधिक धन और संपन्नता प्रदान की है।
‘‘अधिग्रहण का आवेग, लाभ की खोज, धन की अधिकता आदि बातों का पूंजीवाद से सीधे तौर पर कोई लेना-देना नहीं है। यह आवेग वेटर, चिकित्सक, कलाकार, कोचमेन, वेश्या, बेईमान अफसर, सिपाही, रईस, जिहादी, जुआरी और भिखारियों के अंदर स्वयं ही पाया जाता है। यह भी कहा जा सकता है कि यह हर एक आदमी में साधारणतः हर स्थिति में पाया जाता है जब किसी तरह के संभावित उद्देश्य सामने हो। यह सांस्कृतिक इतिहास की पहली कक्षा में ही सिखाया जाना चाहिए कि पूंजीवाद का यह अर्थ कतई नहीं होता है।’’
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