यूपीएससी तैयारी - विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं - व्याख्यान - 12

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शीत-युद्ध

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1.0 परिचय

शीत युद्ध - यह नाम पश्चिम और पूर्व के साम्यवादी गुटों के बीच, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विकसित नकारात्मक संबंधों को दिया गया। अमरीका ने पूँजीवादी और लोकतांत्रिक पश्चिम का प्रतिनिधित्व करता था और सोवियत संघ मुख्य साम्यवादी (कम्युनिस्ट) बल था। शीत युद्ध दशकों के लिए अंतरराष्ट्रीय मामलों पर हावी रहा और कई प्रमुख संकट लेकर आया जैसे-क्यूबाई मिसाइल संकट, वियतनाम युद्ध, हंगेरियाई संकट, और बर्लिन की दीवार गाथा। कई लोगों के लिए, सामूहिक विनाश के हथियारों में अविरत वृद्धि शीत युद्ध का प्रमुख प्रतीक था।

1917 का रूस ही 1945 का सोवियत संघ बना व वह अपने में अनेक देशों को लिए था (मसलन यूक्रेन, जॉर्जिया आदि) जो बाद में स्वतंत्र राष्ट्र बन गए। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की समय अवधि में, 1991 तक, वे सोवियत संघ (यूएसएसआर) के पतन तक इस विशाल देश का हिस्सा थे।

संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी, इटली और जापान के खिलाफ मित्र राष्ट्रों के रूप में युद्ध लड़ा। ऐसा लगा है कि इस युद्ध के बाद से उनके रिश्ते बेहतर और अनुकूल हो गये थे लेकिन उनके गंभीर वैचारिक मतभेद के कारण कभी ऐसा नहीं हो पाया। ऐसा इसलिए क्योंकि लोकतांत्रिक पूंजीवाद और समाजवादी साम्यवाद के विषय कभी मेल नहीं खाते

द्वितीय विश्व युद्ध से पहले, बढ़ रहे कम्युनिस्ट रसूख के डर से अमेरिका ने सोवियत संघ को लगभग शैतान के अवतार के रूप में दर्शाया था। इसी तरह सोवियत संघ ने भी अमेरिका को दर्शाया था। अतः विश्व युद्ध के दौरान उनकी दोस्ती बस एक मजबूत आपसी दुश्मन होने का परिणाम था-नाज़ी जर्मनी। 1945 में अमेरिका के प्रमुख जनरलों में से एक, जॉर्ज पैटन, ने कहा कि मित्र राष्ट्रों की सेनाओं को सोवियत की लाल सेना के खिलाफ अपनी विशिष्ट सैन्य प्रतिभा के प्रदर्शन के लिए जर्मनी की सेना (वेह्रमाक्ट) की बची हुई शक्ति व वी-2 जैसी तकनीकों से एकजुट होना चाहिए। चर्चिल खुद क्रोधित हुए थे कि आइज़नहॉवर, जो एलाइड (मित्र देशों) के सर्वोच्च प्रमुख थे, ने लाल सेना को सभी मित्र देशों की सेना के पहले बर्लिन जाने के लिए अनुमति दी थी। उनके समान ही गुस्सा मांटगोमेरी (ब्रिटेन के वरिष्ठ सैन्य अधिकारी) को भी था। अंततः रेड आर्मी (रूस की नेशनल आर्मी) ने बर्लिन पर आक्रमण किया। परिणामस्वरूप हिटलर ने आत्महत्या की। 

युद्ध के दौरान अस्तित्व में रहा चरम अविश्वास, युद्ध के बाद भी जारी रहा। सोवियत नेता जोसेफ स्टालिन, अमेरिकियों के प्रति अविश्वासी था, जब ट्रूमैन ने बताया कि वह एक भयानक हथियार का उपयोग जापान के खिलाफ करने जा रहा था। स्टालिन ने इस हथियार से ही हिरोशिमा और नागासाकी में सामूहिक विनाश को देखा व समझा।

द्वितीय विश्व युद्ध 1945 में समाप्त हो गया व इसके बाद से दोनों पक्षों (अमेरिका व सोवियत संघ) का एक-दूसरे पर विश्वास नहीं रहा। जहां सोवियत संघ के पास अपनी एक विशाल सेना, ज़ुकोव के सर्वोच्च नेतृत्व में रेड आर्मी थी, वहीं अमेरिकियों ने दुनिया में सबसे शक्तिशाली हथियार, परमाणु बम बनाया था। दुर्भाग्य से सोवियत संघ नहीं जानता था, कि अमेरिका के पास उस समय में कितने ऐसे बम हो सकते थे!

2.0 शीत युद्ध के कारण

जैसा कि बताया गया है, द्वितीय विश्व युद्ध में संयुक्त रूप से सहयोगी रहे संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ ने 1945 में मिलकर यूरोप में एडॉल्फ हिटलर के नाज़ी साम्राज्य पर अपने सामूहिक बलों से जीत प्राप्त की थी। कुछ ही वर्षों के भीतर, युद्ध के समय सहयोगी दल रहे  संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ एक वैश्विक संघर्ष में आपसी दुश्मन बन गये। इनके बीच वैचारिक, सैनिक, राजनीतिक, आर्थिक मतभेद शीत युद्ध को प्रबल करने के लिए मुख्य कारक थे।

इतिहासकारों और राजनीतिक विशेषज्ञों के बीच यह बहस का विषय रहा कि कौन सा राष्ट्र मुख्यतया शीत युद्ध के लिए जिम्मेदार था।

सोवियत सेना ने पूर्वी यूरोप के लोगों को अपने खुद के भाग्य का निर्धारण करने के लिए अनुमति देने के उनके पूर्व में दिये वादे से इनकार कर दिया था। उन देशों पर अधिनायकवादी कम्युनिस्ट शासन जिसे “लोहे का परदा“ (अपारदर्शी, कम्युनिस्ट शासन को दिया गया नाम) लागू किया गया था।

अमेरिकियों ने सोवियत संघ की वैध सुरक्षा चिंताओं पर ध्यान नहीं दिया और परमाणु बम से दुनिया को प्रभावित करने का प्रयास किया। इसके अलावा, वे लगातार अपने उत्पादों और सेवाओं के वैश्विकरण द्वारा अपने स्वयं के अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव और बाजार प्रभुत्व को विस्तारित करने के लिए प्रयासरत रहे।

2.1 पोलैंड का प्रश्न

1943 के शुरूआती दौर में ही शीत युद्ध के दौरान विकसित होने वाले तनाव के लक्ष्य दिखे जब तीन मित्र देशों के नेताओं-अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूज़वेल्ट, ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल और सोवियत प्रधानमंत्री जोसेफ स्टालिन-ने रणनीति का समन्वय करने के लिए तेहरान में मुलाकात की। पौलेंड, जो कि रूस और जर्मनी के बीच पिस रहा था, वह अब बहस के लिए एक विषय बन चुका था। उस वक्त पोलिश नागरिक जर्मन आधिपत्य में थे व उनकी एक नहीं, दो निर्वासित सरकारें थीं - एक साम्यवादी व दूसरी साम्यवाद-विरोधी। युद्ध के पश्चात् किसी गुट को सरकार बनानी चाहिए, इस पर मतभेद थे। स्टालिन साम्यवादी गुट का समर्थन कर रहे थे जबकि चर्चिल व रूज़वेल्ट पोलैंड के स्व निर्धारण अधिकार का समर्थन कर रहे थे। वे कह रहे थे कि लोगों को अपनी सरकार चुनने का अधिकार होना चाहिए था। स्टालिन के लिए, पोलिश, सोवियत संघ के महत्वपूर्ण सुरक्षा हितों का प्रश्न था। जर्मनी ने 1914 के बाद से दो बार पोलैंड के माध्यम से रूस पर आक्रमण किया था, जिसमें 200 लाख से अधिक सोवियत नागरिकों की द्वितीय विश्व युद्ध में मृत्यु हो गई थी। सोवियत संघ ने इस युद्ध में अमरीकियों के मुकाबले साठ गुना नुकसान झेला था। स्टालिन यह सुनिश्चित करना चाहते थे, कि इस तरह के आक्रमण फिर कभी नहीं हां, इसलिए उन्होने कम्युनिस्ट पोलैंड जो कि उनके अनुकूल हो व उनके अधीन हो, एक कवचरूप में सोवियत संघ को पश्चिम से भविष्य मे आक्रमण के खिलाफ तैयार होने पर ज़ोर दिया। 

2.2 याल्टा सम्मेलन

तेहरान व 1945 में अगले प्रमुख सम्मेलन में याल्टा में, अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत संघ की ये तीन बड़ी हस्तियां कई महत्वपूर्ण समझौतों की एक संख्या तक पहुँचने में सक्षम हुए जैसे-सीमा विवाद निपटान, संयुक्त राष्ट्र का निर्माण और जर्मनी व जापान में युद्ध के बाद व्यवसायों को बढ़ावा देना, लेकिन पोलैंड एक अप्रिय समस्या बनी रही। याल्टा में, स्टालिन ने कहा कि ‘‘पोलैंड तो रूस के लिए जीवन व मृत्यु का प्रश्न है‘‘। तथा उन्हें पोलैंड की एक कम्युनिस्ट-बहुल की अस्थायी सरकार के लिए विंस्टन चर्चिल और रूज़वेल्ट की अनिच्छुक स्वीकृति मिल गई थी। इसके बदले में स्टालिन ने नाजी जर्मनी के प्रभुत्व और यूरोप के पूर्व एक्सिस उपग्रह के राज्यों के लोगों से मुक्त पीपुल्स डेमोक्रेटिक द्वारा हल करने के लिए सहायता देने का वचन व अस्पष्ट घोषणा पर हस्ताक्षर किए। इन समझौतों पर चर्चिल और रूज़वेल्ट ने भी अहम राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं के लिए आत्मनिर्णय के सिद्धांतों का समर्थन किया। भले ही दोनों को पता था कि उन्होने पोलैंड को प्रभावी ढंग से सोवियत के हित क्षेत्र में डाल दिया गया था। पोलैंड मे कम्युनिस्ट सरकार ने बाद में धाँधली पूर्ण चुनाव कराए (यह आश्चर्य की बात नहीं, कि साम्यवादी जीत गये)। 

हालांकि अंत में, याल्टा समझौता तीनों नेताओं के बीच एक उपयोगी गलतफहमी के रूप में था, ना कि एक सच्चा समझौता। किंतु इस समझौते की उपयोगिता कम समय तक ही बरकरार रही। स्टालिन खुश थे कि वह पूर्वी यूरोप की वास्तविक सोवियत नियंत्रण एंग्लो अमेरिकियों की स्वीकृति जीत चुके थे। जबकि रूज़वेल्ट और चर्चिल खुश थे, क्योंकि वे आत्मनिर्णय के सिद्धांत पर स्टालिन की स्वीकृति हासिल कर चुके थे। लेकिन याल्टा समझौते के दो हिस्से परस्पर अनन्य थे; पूर्वी यूरोप की मांग का क्या होगा अगर वे आत्म-निर्धारण के द्वारा खुद को सोवियत श्रेणी से बाहर रखते हैं? समस्याग्रस्त याल्टा समझौतों पर भविष्य में विवाद की ना सिर्फ संभावना थी, बल्कि वे लगभग अपरिहार्य थे।

2.3 फ्रेंंकलिन डी. रूज़वेल्ट की मृत्यु

भविष्य में संघर्ष की संभावना, 12 अप्रैल 1945 को अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूज़वेल्ट की अप्रत्याशित रूप से मस्तिष्क में रक्तस्राव से मौत के कारण और गहरा गई। तत्पश्चात् उप-राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमन-जो केवल हाई स्कूल तक विद्यालय में शिक्षा प्राप्त कर पाए थे व केवल एक मिसौरी सीनेटर थे व जो एफडीआर के आंतरिक गुट का हिस्सा भी नही थे तथा उपराष्ट्रपति के रूप में सिर्फ 82 दिन काम कर पाए थे, वे अचानक संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए। ट्रूमन, जो कि याल्टा समझौतों पर रूज़वेल्ट के स्टालिन के प्रति दृष्टिकोण से वाकिफ नहीं थे, उस पर उनका ये मत था कि स्टालिन द्वारा याल्टा समझौतों का उल्लंघन व पूर्वी यूरोप में सोवियत का हस्तक्षेप रहा। अतः स्टालिन पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता। वह एक झूठा है, इस बारे में उन्हांने सबूत प्रस्तुत किये। ट्रूमन ने स्टालिन के सोवियत क्षेत्र के आगे विस्तार को अवरुद्ध करके सत्ता के लिए उसके लालची रवैये के खिलाफ तीव्र प्रतिक्रिया दी। ट्रूमन के शासन के तहत, साम्यवाद की रोकथाम के बिना वह जल्द ही अमेरिकी विदेश नीति पर हावी हो सकता है ऐसा माना गया, अतः शीत युद्ध प्रारंभ हुआ।  

2.4 संशोधनवादी दृष्टिकोण

शीत युद्ध के ही शुरुआती दिनों में, अमरीकी इतिहासकारों ने लगभग सर्वसम्मति से उत्तर दिया होता कि सोवियत संघ ने शीत युद्ध शुरू किया। जोसेफ स्टालिन एक बुरा तानाशाह था। साम्यवाद एक कुटिल विचारधारा थी जो विश्व पर नियंत्रण करना चाहती थी। कहा गया कि सर्व तुष्टीकरण ना हिटलर के खिलाफ कारगर था ना स्टालिन के खिलाफ होता। आम अमेरिका अनिच्छा अन्यथा अपरिहार्य अधिनायकवादी विजय से मुक्त विश्व का बचाव करने के लिए शीत युद्ध में शामिल हुआ था।

1960 के दशक में संशोधित इतिहासकारों की एक नई पीढ़ी, जो वियतनाम युद्ध से हुए मोहभंग और अमेरिकी सरकार की बेईमानी से चकित थी, तथा उन्होंने इसकी एक बहुत अलग व्याख्या शुरू की। इस संशोधित विचार में कहा गया कि स्टालिन एक धूर्त तानाशाह था, किंतु वह मात्र एक रूढ़िवादी था और वह अनिवार्य रूप से सोवियत संघ की (अपनी शक्ति की) रक्षा करने में अधिक रुचिवान था, बजाय विश्व-आधिपत्य के। अमरीकियों ने पोलैंड़ में स्टालिन की वाज़िब सुरक्षा जरूरतों को बेवजह ही विश्व आधिपत्य की चाह रूप में देखा। सोवियत प्रभाव को रोकने के लिए अमेरिका ने परमाणु बम से सोवियत संघ को भयभीत किया और विश्व भर में अमेरिकी आर्थिक हितों को आगे बढ़ाने के संभव प्रयास किए, जो वस्तुतः शीत युद्ध शुरू होने के लिए जिम्मेदार रहे।

अभी हाल ही में, येल के प्रोफेसर जॉन लुईस गैडिस के नेतृत्व में, इतिहासकारों ने आग्रह करते हुए संशोधित आलोचना के कई पहलुओं को शामिल किया, जिसे “पश्चात्कालीन संशोधित संश्लेषण“ कहा गया। इसमें संशोधित विचारों के साथ-साथ ये फिर से कहा गया कि स्टालिन, एक विशिष्ट शक्तिशाली और विशिष्ट द्रोही ऐतिहासिक अभिनेता के रूप में, शीत युद्ध के लिए सबसे बड़े जिम्मेदार रहे।

हालांकि तथ्य यह रहा कि द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिकी और सोवियत ने सत्ता के लिए अन्य सभी प्रमुख प्रतिद्वंद्वियों को नष्ट कर दिया। अमेरिका और सोवियत संघ के बीच यह संघर्ष पृथ्वी पर दो ऐसे राष्ट्रों के रूप में उभरा जिनसे एक वैश्विक स्तर पर उनके सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के प्रचार करने की आशा की जा सकती थी। दोनां के पास शक्तिशाली सैन्य बल था, दोनां ने विश्व स्तर पर कब्जे की विचारधाराओं का समर्थन किया। दोनों ने एक दूसरे पर शंका और अविश्वास जताया, इसलिए आश्चर्य नहीं हो सकता है, कि इन वजहों से शीत युद्ध हुआ।

3.0 शीत युद्ध के महत्वपूर्ण कारक और घटनाएं

3.1 रोकथाम

शीत युद्ध के दौरान रोकथाम संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा अपनायी विदेश रणनीति थी। सबसे पहले 1947 में जॉर्ज एफ. केनन (एक अमेरिकी सलाहकार, राजनयिक, राजनीतिक वैज्ञानिक और इतिहासकार) ने कहा कि साम्यवाद को नियंत्रित करने की ज़रूरत है वरना यह पड़ोसी देशों में फैल जाएगा। यह “डोमिनो थ्योरी“ कहलाया कि एक देश में साम्यवाद फैला तो आसपास के देशों में पंक्तिबद्ध रूप में फैलेगा। अंततः सोवियत संघ व डोमिनो के सिद्धांत के भय का परिणाम, अमेरिका का वियतनाम के साथ ही मध्य अमेरिका और ग्रेनेडा में हस्तक्षेप रहा। केनन ने कहा कि सोवियत संघ साम्यवाद का प्रसार करने के लिए हर अवसर ले जाएगा - या तो पड़ोसी देशों को जीतकर या आसानी से राजनीतिक रूप से अस्थिर देशों में कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के समर्थन से। केनन ने लिखा था, कि संयुक्त राज्य अमेरिका इस रणनीति के साथ साम्यवाद के वैश्विक प्रभुत्व को रोक सकता है, तथापि उन्होने विदेश में कम्युनिस्ट आक्रमण को रोक कर यथास्थिति बनाए रखने का सुझाव दिया था।

केनन का साम्यवाद से लड़ने के लिए ‘रोकथाम का सिद्धांत’ तेजी से शीत युद्ध के दौरान प्रमुख अमेरिकी रणनीति बन गया। विभिन्न राष्ट्रपतियों ने अलग ढंग से इस सिद्धांत की व्याख्या की और अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अलग रणनीति अपनाई, जो 1990 में शीत युद्ध द्वारा सोवियत संघ के पतन तक साम्यवाद के खिलाफ समग्र रणनीति बनी रही। केनन “सर्वश्रेष्ठ रोकथाम के पिता के रूप में“ और शीत युद्ध के उद्भव में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं। (दिलचस्प है कि चीन अपनी साम्यवादी विचारधारा के बावजूद शीत युद्ध का हिस्सा नहीं था। शायद क्योंकि उसकी आर्थिक वृद्धि 1979 के बाद आर्थिक सुधार के रूप में शुरू हुई)।

3.2 ट्रूमन सिद्धांत 

ट्रूमन सिद्धांत संयुक्त राज्य अमेरिका की उस नीति जिसमें “मुक्त लोगां, जिन पर अल्प-संख्यक सैन्य बलों का, या बाहरी दबाव है, का समर्थन“ करने को दर्शाता है। यह सिद्धांत अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमन द्वारा ग्रीस और तुर्की में उभरे सोवियत क्षेत्र के साम्यवाद के खतरे के कारण 12 मार्च 1947 को घोषित किया गया था। इस भाषण में ग्रीस और तुर्की के लिए आर्थिक सहायता और सैन्य सलाहकारों का वादा किया गया लेकिन यह सिद्धांत शीत युद्ध के भाग के रूप सभी देशों को साम्यवाद से बचाने के लिए विस्तारित किया गया था। इसकी वजह से अमरीका पश्चिमी यूरोप, कोरिया व विएतनाम में उलझता चला गया। इस सिद्धांत को 1950 में एनएससी-68 (राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की रिपोर्ट 68) द्वारा विकसित किया गया था जिसमें माना गया कि सोवियत संघ पूरी दुनिया भर में अपनी शक्ति का प्रसार करने की कोशिश कर रहा था, इसमें निर्णय लिया गया कि अमेरिका द्वारा इसको बंद किया जाना चाहिए और रोकथाम के लिए एक अधिक सक्रिय, सैन्य नीति की वकालत की गई। इसे पूरी तरह “पृथकतावाद“ को छोड़ सक्रिय हो जाने का अमेरिकी सिद्धांत कहा गया। परिणामस्वरूप अमेरिकी सैन्य बजट 1950 में 13 अरब डॉलर से बढकर 1951 में  60 अरब डॉलर हो गया। अब अमेरिका संघर्ष के लिए तैयार था।

आलोचकों का कहना है, कि पीछे मुड़कर देखें तो रोकथाम के सिद्धांत को ट्रूमन ने अपने ही सिद्धांत के साथ मिलाकर अपनाया जिससे अनावश्यक रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध को त्वरित गति मिली। कईयों ने ये आरोप लगाया कि ट्रूमन के आक्रमक समाधान के बजाय एक राजनयिक समाधान की जरूरत थी, जिससे संयुक्त राज्य अमेरिका प्रतिस्पर्धा और आपसी अविश्वास के पचास साल बचा सकता था।

ट्रूमन की नीति का बचाव पक्ष यह था कि सोवियत संघ ने पहले से ही मित्र देशों के जर्मनी के पुनर्मिलन और इसे स्थिर करने के प्रयास को नाकाम करके शीत युद्ध शुरू कर दिया था। कईयों का तर्क है कि ट्रूमैन ने केवल मौजूदा सोवियत चुनौती को देखा। अन्य समर्थकों ने कहा कि ट्रूमन ने यूरोप में साम्यवाद रोकने के लिए उचित भाषा का इस्तेमाल किया था। ट्रूमन द्वारा अपनाए रोकथाम के सिद्धांत बाद के चार दशकों तक विद्यमान रहे।


3.3 मार्शल योजना 

मार्शल योजना को “यूरोपीय सुधार कार्यक्रम“ के रूप में जाना जाता है, जिसमें 1948 और 1951 के बीच यूरोप के आर्थिक सुधार के वित्तपोषण के लिए 13 अरब डॉलर दिए गए। मार्शल योजना सफलतापूर्वक यूरोप के आर्थिक भविष्य में सुधार द्वारा यूरोपीय लोगों का विश्वास बहाल करने में सफल रही। यह योजना राज्य के सचिव जॉर्ज सी. मार्शल के रूप में नामित हुई जिसकी 5 जून, 1947 को हार्वर्ड विश्वविद्यालय में एक प्रारंभिक भाषण में घोषणा की गई।

उस समय, अमेरिकियों की यूरोप के लिए इस उदार आर्थिक सहायता को योजना के रूप में माना गया लेकिन सोवियत संघ, ने अन्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के अमेरिका के प्रयास के रूप में मार्शल प्लान को देखा और भाग लेने से इनकार कर दिया। अंत में, सोवियत संघ ने पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया को, उनकी उत्सुकता के बावजूद, इसमें भाग लेने से रोका। 

संशोधनवादी इतिहासकारों ने इस योजना को अमेरिकी परोपकारिता दर्शाने वाली नीति के विचार को चुनौती दी है। संशोधनवादियों के अनुसार, मार्शल योजना में अवसादग्रस्त यूरोप के लिए डॉलर के निर्यात से अमेरिका पूंजीगत वस्तुओं के लिए बाजारउपलब्ध कराना ही संयुक्त राज्य अमेरिका का उद्देश्य था। तथा संयुक्त राज्य अमेरिका, अमेरिकी अर्थव्यवस्था की छवि यूरोपीय अर्थव्यवस्था में दर्शाना चाहता था। इस योजना ने यूरोपीय आर्थिक एकीकरण और संघवाद को बढ़ावा दिया और संयुक्त राज्य अमेरिका की घरेलू अर्थव्यवस्था तरह ही यहां निजी अर्थव्यवस्था के सार्वजनिक संगठन का एक मिश्रण बनाया। इस यूरोपीय अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन ने अमेरिकी निवेश के लिए एक अधिक अनुकूल माहौल प्रदान किया।

3.4 नाटो और वॉरसॉ संधि

1948 के चुनावों से जनादेश के साथ, ट्रूमन ने हमलों से पश्चिमी यूरोप की रक्षा करने के अपने कार्यक्रमां को आगे बढ़ाया। 1949 में 4 अप्रैल को, बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन, आइसलैंड, इटली, लक्समबर्ग, नीदरलैंड, नॉर्वे, पुर्तगाल, और संयुक्त राज्य अमेरिका के विदेश मंत्रियों नें उत्तर अटलांटिक संधि पर हस्ताक्षर किए। यह संधि बर्लिन नाकाबंदी में पाए ठोस सबूत व सोवियत संघ के भविष्यगत हमलो और आक्रामकता को रोकने करने के परिणामस्वरूप थी। पश्चिमी यूरोप व संयुक्त राज्य अमेरिका के मध्य एक संधि जरूरी थी। संधि के कई समझौतों में से एक के अनुसार “उत्तरी अमेरिका या यूरोपीय हस्ताक्षरकर्ताओं के खिलाफ एक या उससे अधिक सशस्त्र हमले, उन सभी के खिलाफ हमले हैं, ऐसा माना जाएगा“।

नाटो के गठन की सीधी प्रतिक्रिया थी साम्यवादी वॉरसॉ संधि का निर्माण। वारसा संधि, जो एक सैन्य संधि थी, इसके हस्ताक्षरकर्ताओं को अन्य हस्ताक्षरकर्ताओं की सहायता के लिए बाध्य करती थी, जो विदेशी देशां के गुस्से के शिकार हो सकते थे। यह पूर्वी यूरोप में कम्युनिस्ट देशों की सैन्य गठबंधन था। सोवियत संघ के अनुसार यह नाटो के संधि राष्ट्रों द्वारा सोवियत संघ व उसके सहयोगी दलों में से किसी पर हमला करने की योजना को हतोत्साहित करने हेतु तथा यह एक सैन्य निवारक के रूप में काम करेगी।

नाटो का सबसे बड़ा महत्व यह रहा कि पश्चिमी यूरोप के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका प्रतिबद्ध हुआ और भविष्य में अमेरिकी परंपरावादियों द्वारा अलग-थलग रहने की प्रवृति पर अंकुश लगा (जैसा प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुआ था)। दुनिया को सोवियत संघ और सोवियत राष्ट्रों की धमकियों से व पूर्वी यूरोप के प्रभुत्व वाले देशों की आपसी रक्षा के लिए इसी तरह के वादे किए गए। 

3.5 दूसरा लाल खतरा

चीन के पतन (1949 में माओ कम्युनिस्टों के लिए), सोवियत संघ के परमाणु हथियारों के विकास, यूरोप के संकटों ने अमेरिकियों में साम्यवाद के प्रति बढ़ते भय को योगदान दिया। पूंजीवाद के वैश्विक विनाश के नारों ने बोल्शेविक क्रांतिकारियों की याद दिलाई, जिससे भयभीत अमेरिकियों ने संयुक्त राज्य अमेरिका के भीतर और बाहर कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों को शिकार बनाना शुरू कर दिया। राष्ट्रपति ट्रूमन सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए काम कर रहे छिपे हुए सोवियत एजेंटों को उजागर करने के लिए, सभी संघीय विभागों और विशेष रूप से विदेश विभागों की जांच के लिए 1947 में वफादारी समीक्षा बोर्ड बनाया गया। बोर्ड में दशक के अंत तक तेजी दिखी, जिसके परिणामस्वरूप हजारों निर्दोष व्यक्तियों पर गलत आरोप लगे और उन्हें सताया गया। सीनेटर जोसेफ मैकार्थी, अमेरीका में छिपे तथाकथित “साम्यवादियों“ की पहचान और उत्पीड़न में शामिल रहे। यह दुखद अवधि 1954 में समाप्त हुई।

3.6 कोरियाई संघर्ष 

[कोरियाई युद्ध का एक त्वरित सारांश यह हैः उत्तर और दक्षिण के बीच विभाजन कोरिया की स्थायी त्रासदी बनी। यह 1945 में मित्र राष्ट्रों द्वारा 35 साल के क्रूर जापानी शासन से मुक्त कराने के बाद लगाया गया था। 1950 में उत्तर कोरियाई सैनिकों की एक लहर ने इसे लगभग मिटा दिया था। और यह एक सोवियत समर्थित शासक किम इल सुंग, के आदेश के तहत हुआ था। सैनिकों की एक और लहर जिसमें, ज्यादातर अमेरिकी व जो संयुक्त राष्ट्र के बैनर तले लड़ रहे थे, ने ज्वार का रूख मोड़ दिया। आखिरकार संयुक्त राष्ट्र सेना को चीनी सैनिकों की तीसरी लहर ने वापस खदेड़ दिया। अंततः इन्होंने घुटने टेक दिए, जो उन्हे एक अक्षांशीय संदर्भ पंक्ति के 38वें समानांतर पर ले आई। यह अभी भी दो कोरियाई देशों को बांटता है। अतः यह जहां शुरू हुआ वहीं समाप्त हो गया।}

कोरिया में, ट्रूमन प्रशासन को मुश्किल सवालों का सामना करना पडा-कैसे कोरिया में पश्चिम कम्युनिस्टों के आक्रमण को पड़ोसी चीन को साथ लाए बिना रोका जा सकता है? क्या संयुक्त राष्ट्र दुनिया के रक्षक के रूप में कार्य करेगा या संयुक्त राज्य अमेरिका, कोरिया में ‘‘अकेले ही‘‘ मुकाबला करेगा? और पूर्व-पश्चिम टकराव, यानि इन दो प्रतिस्पर्धी ब्लॉकों के बीच परमाणु बमों का प्रयोग इसे “पूर्ण युद्ध“ में तब्दील करेगा?

एक सवाल का जल्दी से उत्तर दिया गया था। कुछ घंटों के बाद, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने, जिसके पास सैनिकों को तैनात करने का अधिकार था, एक मसौदा प्रस्ताव पारित किया जो कहता था कि ‘‘सभी संयुक्त राष्टों्र द्वारा हर सहायता प्रदान करना“ जो कि दक्षिण कोरिया की रक्षा के लिए अमेरिका के फैसले के समर्थन में था। सोवियत संघ एक मुद्दे पर अपने विरोध की वजह से सुरक्षा परिषद की बैठक में अनुपस्थित रहा। जुलाई में, कोरिया में अमेरिकी ध्वज के बजाय संयुक्त राष्ट्र के बैनर के साथ सैन्य बलों ने उड़ान भरी।

25 जून और 28 जून के बीच उत्तर कोरियाई बलों ने सियोल, जो कि दक्षिण कोरियाई राजधानी था, पर कब्जा करके अभिभूत कर दिया। 4 जुलाई को अमेरिका थल सेना वहां पहुंची। सबसे पहले, मैकआर्थर ने दक्षिण कोरिया की तुलना में थोड़ा ही बेहतर प्रदर्शन किया। अमेरिकी सैनिक जल्दी नहीं पहुंचे, जबकि उत्तर के सैनिक दक्षिण तक जल्दी पहुंचे। जनरल ओमार ब्रेडली, जो स्टाफ की संयुक्त कमान के अध्यक्ष थे, ने कहा कि यह मामला, “खतरनाक तो नहीं बल्कि बहुत गंभीर हैं“। कांग्रेसी लॉयड बेंट््सेन जूनियर (डी टेक्सास) ने, प्रतिनिधि सभा में यह प्रस्तावित किया कि ट्रूमन को उत्तर कोरिया से घुटने टेकने व ना करने की स्थिति में उनके शहरों में परमाणु बमों का प्रयोग करने की मांग करना चाहिए।

15 सितंबर को मैकआर्थर ने आश्चर्यजनक रूप से उत्तरी भाग हासिल करने के लिए उत्तर कोरिया के इलाके से 150 मील की दूरी एक बंदरगाह पर इंचोन में एक साहसी लैंडिंग का नेतृत्व किया। परिणामस्वरूप अक्तूबर में उत्तर कोरियाई बल तेजी से 38वीं समानांतर वापस पीछे चले गये। उस बिंदु तक, चीनी कम्युनिस्टों ने हस्तक्षेप नहीं किया था, लेकिन अमेरिकी नेता इस बात से चिंतित थे कि उत्तर में दूर तक घुसने से चीनी भी युद्ध में खिंचे चले आएंगें। अमेरिकी सेना भी 38वें समानांतर को पार करने लगी और संयुक्त राष्ट्र सेना भी जल्दी ही यालू नदी, जो उत्तर कोरिया और चीन के बीच की सीमा है, के करीब पहुंच गई। कम्युनिस्ट चीन की सेनाएं भी 26 नवम्बर को यालू नदी के पार एकत्रित हो गईं और रात भर में दुश्मन सेना में 2,75,000 सैनिकों की वृद्धि हो गई। यह संभावना भी बढ़ गई कि लाखों से अधिक चीनी सैनिक इसे सुदृढ़ कर सकते हैं। आखिरकार 2.1 मिलियन चीनी सैनिकों ने संयुक्त राष्ट्र की सेनाओं को इस युद्ध में, 38वीं समानांतर तक वापस खदेड़ दिया जहां युद्ध में गतिरोध हो गया।


3.7 शांति वार्ता

संयुक्त राज्य अमेरिका एक दहलीज पर खड़ा था। यह युद्ध “पूर्ण युद्ध“ में तब्दील हो सकता था जिसमें लाखों सैनिकों की तैनाती और राशन सामग्री लग सकती थी। लेकिन यह संदिग्ध था, कि अमेरिकी जनता इतनी जल्दी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक और युद्ध के प्रयास का समर्थन करेगी। एक अन्य विकल्प था, चीन और उत्तर कोरिया में परमाणु बम का इस्तेमाल करना, लेकिन इस तरह का कदम सोवियत संघ समर्थित कम्युनिस्टों को उकसाने की एक सैन्य प्रतिक्रिया साबित होती। या तो अमेरिका एक शांति समझौता कर सकता था। ट्रूमन और संयुक्त राष्ट्र ने परवर्ती (दूसरा) विकल्प चुना। बाद में, रिपब्लिकन ने पूर्व द्वितीय विश्व युद्ध के जनरल व नाटो के सुप्रीम कमांडर ड्वाइट डी. आईज़नहॉवर को, व उनके साथ रिचर्ड एम. निक्सन को, राष्ट्रपति पद के लिए नामज़द किया। आइज़नहॉवर की छवि युद्ध के हीरो की, व निक्सन की कम्युनिस्टों पर सख्त होने के कारण, उन्होंने आसानी से चुनाव जीत लिया। वे 7 लाख वोट अंतर द्वारा यह लोकप्रिय चुनाव जीते। 

जब आईज़नहॉवर ने 1953 में पद की शपथ ली, तब अमेरिकी सैनिकों को लगभग तीन साल के लिए कोरिया में स्थापित किया गया था। 38वें समानांतर तक मैकआर्थर के अंततः पीछे हटने के बाद हजारों से अधिक अमेरिकी किसी भी क्षेत्रीय हानि या लाभ के बिना मारे गए। आईज़नहॉवर ने ट्रूमन के विपरीत जाकर यह कहा कि वे परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर सकते हैं, व ऐसा कह कर उन्होंने अंततः उत्तर कोरिया को युद्ध विराम हेतु मजबूर कर दिया। युद्धविराम के बावजूद, तथापि उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच की सीमा पचास से अधिक वर्षों से दुनिया में सबसे महत्तवपूर्ण शीत युद्ध वाली “हॉट स्पॉट“ में से एक बनी हुई है।

4.0 आईज़नहॉवर का ‘‘नया रूप’’

कोरियाई स्थिति में नियंत्रण के बाद, आईज़नहॉवर, संयुक्त राज्य अमेरिका के साम्यवाद को रोकने के लिए इस्तेमाल किये तरीकों को फिर से परिभाषित करने के लिए निकल पड़े। आईज़नहावर के लिए विशेष चिंता शीत युद्ध छेड़ने के साथ जुड़ी लागत थी। शीत युद्ध से देश की अर्थव्यवस्था कमजोर होने या दिवालिएपन तक जा सकती थी। आईज़नहॉवर ने एक नये रूप में एक नई रक्षा नीति की शुरुआत की, जिसका नाम था, “न्यु लुक“। इसके तहत, अमेरिका में अब थल सैनिकों और नौसेना बलों के रूप में महंगे पारंपरिक बलों के स्थान पर परमाणु हथियारों, हवाई शक्ति और गुप्त आपरेशनों पर अधिक निर्भर किया जाएगा। रक्षा मंत्री चार्ल्स विल्सन ने इस नई नीति के बारे में संक्षेप में कहा कि यह “मोर बैंग फोर द बक“ है (अर्थात् उतने ही  पैसों में अधिक लाभ)। आईज़नहॉवर और राज्य सचिव जॉन फोस्टर ड्युल्स ने इसे “बड़े पैमाने पर जवाबी कार्रवाई“ के सिद्धांत के रूप में पेश किया। इस सिद्धांत के तहत् आईज़नहॉवर प्रशासन ने कहा कि अमेरिका की सुरक्षा और हितों की रक्षा के लिए दुनिया में कहीं भी परमाणु शक्ति का प्रयोग किया जाएगा। इस दृष्टिकोण के माध्यम से, अमेरिका ने सोवियत संघ को उसके आक्रामक रवैये पर जवाबी हमले के ड़र से हतोत्साहित कर दिया।

यह नया दृष्टिकोण अस्थिरता का एक खतरनाक खेल था, व अपने दुश्मन को समझाने के लिए परमाणु हथियारों का इच्छा प्रयोग इसमें शामिल किया गया था। राज्य सचिव ड्युल्स ने उल्लेख किया कि युद्ध के कगार पर पहुंचे बिना अपनी जीत हासिल की क्षमता एक आवश्यक कला है। आप अगर ऐसा नहीं कर सकते, तो आप निश्चित ही युद्ध में शामिल होने के कगार पर पहुंच जाएंगे। सोवियत संघ को समझाने के लिए, परमाणु हथियारों का प्रयोग करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में आईज़नहॉवर और ड्युल्स ने परमाणु हथियारों के उपयोग की आवश्यकता की स्थिति को एक नाटकीय भाषण में वर्णित किया। इससे भी महत्वपूर्ण बात, ड्युल्स ने कही कि अमेरिका, सोवियत के आक्रमण का जवाब “उन स्थानों पर, जो हम चुनेंगे‘‘ पर दिया जाएगा। 

अमेरिका नेताओं द्वारा सोवियत संघ को समझाने की, एक और कोशिश हुई जिसमें कहा गया कि परमाणु युद्ध के दौरान जीवित रहने के लिए अमेरिकियों को शिक्षित किया जाएगा। अधिकारियों ने उचित योजना के साथ, परमाणु युद्ध के दौरान अस्तित्व संभव था, का दावा किया। लोकप्रिय यांत्रिकी सहित आधिकारिक सरकारी दस्तावेजों और पत्रिकाओं, में निर्माणों और विशिष्ट आश्रयों के लिए निर्देश शामिल किए गए। विशिष्ट आश्रय, परमाणु विनाश से जुड़े प्रभावों से व्यक्तियों की रक्षा के लिए डिजाइन किए गए थे। इसके डिज़ाइन में एक परिवार और उसके विलासिता के क्षेत्रों को शामिल गया ज्ैसे-पूल टेबल और फर्नीचर आदि। इन संरचनाओं को कंक्रीट से बनाया गया था। ऐसा विश्वास था, कि ये पदार्थ परमाणु नतीजों से व्यक्तियों की रक्षा कर सकते हैं। अमेरिका के समाचारों और विश्व रिपोर्ट ने दावा किया कि कांक्रीट का एक 32 इंच मोटा पटिया 1,000 फुट की दूरी पर हुए परमाणु विस्फोट से लोगों को बचा सकता है। इसके अलावा, संयुक्त राज्य भर में अमेरिकियों ने सिविल डिफेंस अभ्यास में भाग लिया। सरकारी स्कूलों में बच्चों ने जरूरत के तौर पर “बचाव और कवर“ करने के बारे में सीखा। बचाव और कवर अभ्यास के दौरान एक शिक्षक “ड्रॉप“ चिल्लाता और छात्र तुरंत अपने डेस्क के नीचे एक घुटने टेकने की स्थिति में बैठ जाते। कुछ स्कूलों ने अपने छात्रों को पहचान के मुद्दे से काफी गहराई तक अवगत करवाया। पब्लिक स्कूलों में सिविल डिफेंस कक्षाएं भी आयोजित की गई, जिसमें स्कूल के बच्चों को विकिरण प्रभावों के साथ ही बुनियादी अस्तित्व के कौशल के बारे में सीखाया गया। आईज़नहॉवर ने विकासशील देशों में सोवियत संघ की काली छाया के प्रभाव से निपटने के लिए सीआईए को गठित किया। 

नवनियुक्त सीआईए निदेशक एलन ड्युल्स (राज्य सचिव के भाई) ने गुप्त आपरेशनों की एक किस्म के संचालन के लिए काफी स्वतंत्रता ली। हजारों सीआईए गुर्गों के अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका और मध्य पूर्व में नियुक्त किया गया और उनके द्वारा सत्तापलट करवाना, राज्य प्रमुखों की हत्या साम्यवादी विरोधी गुटों का सशस्त्रीकरण, व प्रचार-प्रसार करवाया गया। आईज़नहॉवर ने सीआईए के गुप्त आपरेशनों का ज्यादा पक्ष लिया बजाय सैन्य बलों के, क्योंकि यह कम ध्यान आकर्षित करता और इस पर बहुत कम पैसा खर्च होता था। परिणाम, ईरान और ग्वाटेमाला के तख्तापलट थे।

4.1 क्यूबाई मिसाइल संकट 1962

क्यूबाई मिसाइल संकट, अमेरिका और सोवियत संघ के बीच अक्टूबर 1962 में 13 दिन का एक राजनीतिक और सैन्य गतिरोध था, जिसमें क्यूबा की भूमि पर परमाणु हथियारों से लैस सोवियत मिसाइलों की स्थापना अमेरिका के किनारे से सिर्फ 90 मील की दूरी पर की गई। 22 अक्टूबर 1962 में एक टीवी संबोधन में राष्ट्रपति जॉन कैनेडी (1917-1963) ने मिसाइलों की उपस्थिति के बारे में अमेरिकियों को अधिसूचित किया और क्यूबा के चारों ओर एक नौसैनिक नाकाबंदी अधिनियमित करने के अपने फैसले को भी विस्तार से बताया, और यह स्पष्ट किया कि अमेरिका ने राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए मिली कथित धमकियों को बेअसर करने के लिए आवश्यक सैन्य बल को उपयोग करने के लिए तैयार किया था। इस खबर के बाद, बहुत से लोगां को यह डर था कि दुनिया अब परमाणु युद्ध के कगार पर है। अमेरिका और सोवियत युद्ध के कगार पर समझौते के लिए राजी हो गए, तब जाकर आपदा टली। सोवियत नेता निकिता खु्रश्चेव (1894-1971) के प्रस्ताव पर सहमत अमेरिका ने क्यूबा से मिसाइलों को दूर करने के बदले में क्यूबा पर आक्रमण न करने का वादा किया। कैनेडी भी चुपके से तुर्की से अमेरिका मिसाइलों को हटाने के लिए सहमत हो गए।

1959 में कैरेबियन द्वीप राष्ट्र क्यूबा पर कब्जा करने के बाद, वामपंथी क्रांतिकारी नेता फिदेल कास्त्रो (1926-) ने सोवियत संघ के साथ खुद को गठबंधित कर लिया। कास्त्रो के तहत, क्यूबा सैन्य और आर्थिक सहायता के लिए सोवियत संघ पर निर्भर था। यह भी शीत युद्ध का दौर था।

दो महाशक्तियां सबसे बड़े शीत युद्ध के टकराव में कूद पड़ी थीं व 14 अक्टूबर, 1962 को क्यूबा के ऊपर एक अमेरिकी यू-2 जासूसी विमान के पायलट द्वारा ली गई, सोवियत एस. एस.-4 मध्यम दूरी की बैलिस्टिक मिसाइल को स्थापित करते हुए एक फोटो भी जारी की गई। 

राष्ट्रपति कैनेडी को 16 अक्टूबर की स्थिति के बारे में जानकारी दी गई, और तुरंत सलाहकारों और अधिकारियों के एक समूह को साथ बुलाया गया जिसे कार्यकारी समिति या एक्सकॉम कहा गया। लगभग अगले दो हफ्तों के लिए राष्ट्रपति और उनकी टीम ने सोवियत संघ से निपटने हेतु राजनयिक संकट से मल्लयुद्ध किया। 

अमेरिकी अधिकारियों के लिए, स्थिति की तात्कालिकता इस तथ्य से प्रभावित थी कि अमेरिका की मुख्य भूमि से करीब सिर्फ 90 मील की दूरी पर क्यूबा में परमाणु मिसाइलों को स्थापित किया जा रहा था। इस प्रक्षेपण बिंदु से, वे पूर्वी अमेरिका के लक्ष्य तक जल्दी पहुँचने में सक्षम थे। मिसाइलों के चालू हो जाने के फलस्वरूप अमेरिका और सोवियत समाजवादी गणराज्य के बीच परमाणु प्रतिद्वंद्विता शुरू हो जाने का अंदेशा था, जिस पर अब तक सिर्फ अमेरिकियों का बोलबाला था।

सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव ने अपने देश की परमाणु हमले की क्षमता में वृद्धि के विशेष लक्ष्य के साथ क्यूबा के लिए मिसाइलें भेजकर जुआ खेला था। सोवियत संघ लंबे समय से पश्चिमी यूरोप और तुर्की के स्थलों से उन पर निशाना बनाये गये परमाणु हथियारों की संख्या के बारे में असहज महसूस करता था इसलिए उन्होंने खेल के स्तर पर अपनी सुरक्षा के एक मार्ग के रूप में क्यूबा में मिसाइलों को स्थापित किया। सोवियत मिसाइल योजना में एक और महत्वपूर्ण कारक अमेरिका और क्यूबा के बीच शत्रुतापूर्ण संबंध था। केनेडी प्रशासन ने पहले द्वीप पर एक हमला कर दिया था, जिसे ‘‘बे ऑफ पिग्स विफल आक्रमण 1961’’ नाम दिया गया। कास्त्रो और खु्रश्चेव ने अमेरिकी आक्रामकता रोकने के एक साधन के रूप में मिसाइलों को देखा।

भारी तनाव के बावजूद, सोवियत और अमेरिकी नेताओं को इस गतिरोध से बाहर निकलने का रास्ता मिल गया। संकट के दौरान, अमेरिका और सोवियत संघ के बीच पत्र और अन्य संचार साधनों से विमर्श हुए और 26 अक्टूबर को, खु्रश्चेव ने कैनेडी को क्यूबा पर आक्रमण नहीं करने के बदले अमेरिका को क्यूबन मिसाइलों को हटाने का संदेश भेजा। अगले दिन, सोवियत नेता ने अमेरिका को एक प्रस्ताव पत्र भेजा, जिसमें कहा गया कि सोवियत संघ क्यूबा से अपनी मिसाइलों को हटा देगा यदि अमेरिका, तुर्की में अपने मिसाइल प्रतिष्ठानों को हटा ले।

आधिकारिक तौर पर, केनेडी प्रशासन ने खुश्चेव के पहले संदेश की शर्तें स्वीकार कर लीं और उसके दूसरे पत्र को पूरी तरह से नज़र अंदाज करने का फैसला किया। निजी तौर पर, हालांकि, अमेरिकी अधिकारी भी तुर्की से उनके देश की मिसाइलों को वापस लेने पर सहमत हुए।

अमेरिका के अटॉर्नी जनरल रॉबर्ट कैनेडी (1925-1968) ने व्यक्तिगत रूप से वॉशिंगटन में सोवियत राजदूत को संदेश दिया और 28 अक्टूबर को संकट समाप्ति की ओर था। अमेरिका और सोवियत संघ दोनों अब क्यूबाई मिसाइल संकट की वजह से ठंडे पड़ गये थे। अगले वर्ष, एक प्रत्यक्ष “हॉट लाइन“ संचार लिंक इसी तरह की परिस्थितियों को शांत करने में मदद करने के लिए वाशिंगटन और मास्को के बीच स्थापित हुआ और दोनों महाशक्तियों ने परमाणु हथियारों से संबंधित दो संधियों पर हस्ताक्षर किए गए। हालांकि शीत युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ था। वास्तव में, संकट की एक और विरासत यह थी कि सोवियत संघ यह समझा कि अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलों की खेप में अपने निवेश को बढ़ाकर सोवियत क्षेत्र से अमेरिका तक पहुंचने की क्षमता प्राप्त करनी होगी। 

4.2 हथियारों की प्रतिस्पर्धा

20 वीं सदी में, कई रंगीन शब्दावलियां शीत युद्ध की हथियार होड़ को निरूपित करने के लिए विद्वानों द्वारा तैयार की गईं। इनमें से कुछः हथियारों की दौड़, सत्ता का संतुलन, वृद्धि, दूसरों से भिन्नता, आदि थे। 

हथियारों की दौड़ यह नामावली शांतिकाल में प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रों द्वारा सैन्य या नौसेना के उपकरणों की मात्रा या गुणवत्ता में तेजी व प्रतिस्पर्धी वृद्धि को दर्शाती है। आमतौर पर, हथियारों की दौड़ के लोकप्रिय चित्रण में, शुरू करने और इस खेल की गति को नियंत्रित करने वाली राजनीतिक गणना अस्पष्ट रहती है। चार्ल्स एच. फेयरबैंक्स जूनियर, ने उल्लेख किया कि इसका अजीब परिणाम यह है, कि दूसरे पक्ष की गतिविधि, और न किसी एक के अपने संसाधन, योजना, और इरादे किसी और के व्यवहार के निर्धारक हो जाते हैं और इस खेल की ‘‘फिनिश लाइन‘‘ हीनभावना बढ़ाती है, बजाय विश्लेषण के। कईयों ने हथियार के संचय पर युद्ध की बढ़ती संभावना का दावा किया। क्यूबा मिसाइल संकट से, दोनों पक्षों ने सीखा कि राजनीतिक उद्देश्यों की खोज में परमाणु युद्ध का खतरा, बेहद खतरनाक था। शीत युद्ध के दौरान यह आखिरी बार होता यदि कोई यह जोखिम लेता। क्यूबा मिसाइल संकट के बाद, अमेरिका और सोवियत संघ के बीच अभी भी दुनिया के अन्य भागों में स्थानीय संघर्षों में उनकी प्रतिस्पर्धा आरोपित थी।

29 अगस्त 1949 को सोवियत संघ ने कजाकिस्तान में “सेमिपलातिंसक“ परीक्षण स्थल पर अपने पहले परमाणु बम को विस्फोट किया। इस घटना से परमाणु हथियारों से अमेरिका का एकाधिकार समाप्त हो गया और शीत युद्ध की शुरूआत हुई। 1950 के दशक में हथियारों की दौड़ शीत युद्ध का केंद्र रही। अमेरिका ने 1952 में पहली बार हाइड्रोजन (या थर्मो-परमाणु) बम का रूसियों के निर्माण “सुपर बम“ को टक्कर देते हुए परीक्षण किया।

शीत युद्ध के लिए राजनीतिक माहौल 1954 में और अधिक परिभाषित हो गया, जब अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन फॉस्टर डयुल्स ने एक नीति की घोषणा की जिसे “बड़े पैमाने पर जवाबी कार्रवाई“ के रूप में जाना जाने लगा। शीत युद्ध “बड़े पैमाने पर जवाबी कार्रवाई“ की चुनौती के एक परिणाम के द्वारा अन्य उत्पाद “अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल (आईसीबीएम)“ सबसे महत्वपूर्ण था। [आपकी जानकारी के लिए, भारत के अग्नि-5 और अग्नि-6 मिसाइल रेंज, परमाणु आईसीबीएम हैं।] आईसीबीएम जो थर्मो-परमाणु बम लेकर चलते हैं, (मूल परमाणु बम की तुलना में काफी अधिक विनाशकारी शक्ति है)। गुरुत्वाकर्षण मार्गदर्शन प्रणाली (वजन, गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव और जड़ता के प्रभाव के बीच के अंतर को परिभाषित करता है), और शक्तिशाली बूस्टर इंजन रॉकेट भी थे। नतीजतन, बैलिस्टिक मिसाइलें लक्ष्य को 8000 किमी (5000 मील) दूर तक नष्ट करने के लिए पर्याप्त सटीक और शक्तिशाली बन गयी। कई दशकों तक आईसीबीएम, संयुक्त राज्य अमेरिका के सामरिक परमाणु शस्त्रागार की कुंजी बना रहा।

अक्टूबर 1961 में, सोवियत संघ ने एक परमाणु विस्फोट किया, जो 58 मेगाटन यानि जिसमें 50 लाख टन से अधिक टीएनटी, या द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सारे विस्फोटकों से अधिक के बराबर, होने का अनुमान था। यह दुनिया ने कभी उस समय तक ना देखा सबसे बड़ा परमाणु हथियार था। अमेरिका और सोवियत संघ के बीच परमाणु परीक्षण को सीमित करने के लिए सहमत होने के बाद ज़ार बम (बम के राजा) का विस्फोट किया गया। यह विस्फोट हुआ अब तक का सबसे बड़ा परमाणु उपकरण था। इसका कोई रणनीतिक सैन्य महत्व नहीं था। ज़ार बम, को सोवियत संघ की धमकी के रूप में देखा गया था।

1960 के दशक के दौरान एमएडी का सिद्धांत विकसित किया गया था-अर्थात परस्पर सुनिश्चित विनाश। अतः यदि रूस, पश्चिम पर हमला करें तो पश्चिम उसका उपयुक्त प्रतिकार सुनिश्चित करे, मतलब है कि वहाँ कोई विजेता नहीं होगा।

  1. 1981 तक, संयुक्त राज्य अमेरिका के पास 8000 आईसीबीएम और सोवियत संघ के पास 7000 आईसीबीएम थे।
  2. 1981 तक, संयुक्त राज्य अमेरिका के पास परमाणु बम सक्षम 4,000 हवाई जहाज व रूस के पास 5000 थे 
  3. 1981 में अमेरीकी रक्षा खर्च 17 बिलियन डॉलर था व 1986 तक यह 367 बिलियन डॉलर हो गया।
  4. 1986 तक दुनिया भर में एक लाख हिरोशिमा बमों के बराबर 40,000 परमाणु हथियार थे, ऐसा अनुमान है 
  5. ब्रिटिश खुफिया अनुमान था, कि लंदन पर सिर्फ एक मध्यम आकार के हाइड्रोजन बम के हमले से यह अनिवार्य रूप से 30 मील की दूरी तक तबाही मचा सकता है। 

ऐसे भयावह आंकड़ों का सामना करने के बाद दुनिया के नेताओं का एक दूसरे पर और अधिक विश्वास हो गया। 1960 के दशक और 1970 के दशक के दौरान “detente“ (अमन) को महाशक्तियों के रिश्तों में गाठ कम करने के लिए इस्तेमाल किया गया था। इसमें रेकयाविक बैठक में, जिसमें राष्ट्रपतियों रीगन और गोर्बाचेव के बीच परमाणु हथियारों में कटौती (वास्तव में रेकयाविक बैठक के परिणामस्वरूप) द्वारा चर्चा में प्रगति आई।

4.3 अफगानिस्तान में रूसी हस्तक्षेप 1979

1979 में अफगानिस्तान शीत युद्ध का एक पूर्ण सारांश था। पश्चिम की दृष्टि से, बर्लिन, कोरिया, हंगरी और क्यूबा ने साम्यवाद कैसे फैलेगा ये बताया था। अफगानिस्तान में इसकी एक निरंतरता थी।

1979 में क्रिसमस पर, रूसी पैराट्रूपर्स, अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में उतरे। देश एक गृहयुद्ध की चपेट में पहले से ही था। प्रधानमंत्री हाजिफुल्ला अमीन ने राष्ट्र के भीतर मुस्लिम परंपरा को बदलने और अफगानिस्तान के लिए एक अधिक पश्चिमी प्रभाव लाने की कोशिश की। इसे आम मुस्लिम लोगों व विश्वास के मजबूत परंपरावादियों ने अत्याचार के रूप में लिया।

हजारों मुस्लिम नेताओं के गिरफ्तार किया गया था और उनमें से अनेक अमीन की पुलिस से बचने के लिए पहाड़ों पर चले गए थे। अमीन की भी एक कम्युनिस्ट आधारित सरकार थी, जिसने धर्म को खारिज कर दिया और यही उनकी सरकार के साथ स्पष्ट असंतोष का कारण था।

अफगानिस्तान में हजारों मुसलमान मुजाहिदीन में शामिल हो गए, जो अल्लाह के लिए एक पवित्र मिशन की गुरिल्ला सेना थी। वे अमीन सरकार को उखाड़ फेंकना चाहते थे। मुजाहिदीन ने अमीन के समर्थकों से जिहाद (एक पवित्र युद्ध) घोषित कर दिया। इसने अफगानिस्तान में रूसीयों को शत्रु घोषित किया जो कि अमीन सरकार की सत्ता को बनाए रखने की कोशिश कर रहे थे। रूसियो ने कहां कि वे अमीन सरकार द्वारा आमंत्रित थे, नाकि इनके देश पर हमला करने आए थे, ऐसा दावा किया। उन्होंने दावा किया था कि उनका कार्य एक वैध सरकार का समर्थन करना था और मुजाहिदीन आतंकवादियों से अधिक और कुछ नहीं थे।

27 दिसंबर 1979 को, अमीन को रूसियों ने गोली मार दी और बाबराक करमाल ने उसका पद ले लिया। अफगान सरकार के प्रमुख के रूप में सत्ता में उनकी स्थिति को बनाए रखने के लिए रूसी सैन्य समर्थन का रहना जरूरी था। कई अफगान सैनिकों को मुजाहिदीन ने खदेड़ दिया और करमाल सरकार को सत्ता में रखने के लिए 85,000 रूसी सैनिकों की जरूरत थी।

मुजाहिदीन, एक अजेय प्रतिद्वंद्वी साबित हुए। वे पुरानी राइफलों से लैस थे लेकिन उन्हें काबुल के आसपास के पहाड़ों और मौसम की स्थिति का ज्ञान था। रूसियों के पास मुजाहिदीन के खिलाफ जहर गैस, हेलिकॉप्टर, गनशिप के उपयोग का सहारा था लेकिन उन्होंने बिल्कुल वैसा ही सैन्य परिदृश्य का अनुभव किया जैसा अमेरिकियों ने वियतनाम में किया था। यह एक जीत प्रस्ताव नहीं था।

1982 तक, मुजाहिदीन ने दुनिया की दूसरी सबसे शक्तिशाली सैन्य शक्ति की ताकत से लड़ने के बावजूद अफगानिस्तान के 75 प्रतिशत को नियंत्रित कर लिया था। युवा रूसी सैनिकों का उनके धार्मिक विश्वास की शह पर तैयार किए लोगों से कोई मुकाबला नहीं हो सकता था। रूसी सेना की एक प्रतिष्ठा थी, हालांकि अफगानिस्तान में युद्ध में इसका सैन्य बल दुनिया को कमजोर दिखा। सेना के कदम अफगानिस्तान के पहाड़ों के कठोर वातावरण में 10 से अधिक दिनों तक नही टिक पाए। कई रूसी सैनिकां को मुजाहिदीन ने खदेड़ा। रूसी टैंक, पहाड़ी दर्रों में इस्तेमाल नही हो पाए। 1980 में संयुक्त राष्ट्र ने इस आक्रमण की निंदा की थी लेकिन सुरक्षा परिषद ने रूसी सेनाओं को वापसी का प्रस्ताव दिया था व रूस द्वारा स्वयं ही वीटो लगा दिया गया था। 

अमेरिका ने रूस के लिए अनाज के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया। एस.ए.एल.टी. वार्ता समाप्त की और 1980 में मास्को में आयोजित होने की वजह से ओलंपिक खेलों का बहिष्कार किया। इसका एक संभावित स्पष्टीकरण यह था कि अमेरिका यह जान चुका था कि सोवियत संघ खुद एक विएतनाम-रूपी दलदल में फंस चुका था (अर्थात् अफगानिस्तान)। अमेरिकी खुफिया एजेंसी को रूसी साज़ो-सामान समझने का मौका मिल रहा था। अमेरिका ने मुजाहिद्दीन लड़ाकों को सतह-से-मार मिसाईलें भी देना शुरू किया, हालांकि प्रत्यक्ष रूप से नहीं।

मिखाइल गोर्बाचेव (आखिरी कम्युनिस्ट नेता) ने रूस को अफगानिस्तान से बाहर कर दिया जब उन्हें लगा कि कई रूसी नेता सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार करने से डरते हैं, कि वे युद्ध नहीं जीत सकते हैं और पहले से ही कमजोर रूस की अर्थव्यवस्था के कारण अफगानिस्तान में इस तरह के एक विशाल बल बनाए रखने की लागत नही दे सकते। 1980 के दशक के अंत तक मुजाहिदीन की कट्टरपंथी तालिबान लड़ाकों से युद्ध की स्थिति बन गई थी। कट्टरपंथी तालिबान लड़ाकों ने पूरे देश भर में एक मजबूत पकड़ कर ली और अफगानिस्तान की आबादी पर बहुत सख्त मुस्लिम कानून लगा दिए थे।

5.0 शीत युद्ध का अंत

1985 में जब मिखाइल गोर्बाचेव ने सोवियत संघ में सत्ता की बागडोर संभाली, तब कोई नहीं जानता था, वह क्या क्रांति लाएंगें। एक समर्पित सुधारक, गोर्बाचेव ने सोवियत संघ को ग्लास्नोस्त और पेरेस्त्रोयका की नीतियों से अवगत करवाया।

ग्लासनोस्त या खुलेपन की नीति में सोवियत अधिकारियों द्वारा सोवियत संघ में पश्चिमी विचारों और माल की अनुमति देने इच्छा वर्णित है। पेरेस्त्रोयका में, सोवियत नागरिकों को सीमित बाज़ार प्रोत्साहन की अनुमति दी गई। गोर्बाचेव ने इन परिवर्तनों से सुस्त सोवियत अर्थव्यवस्था को आगे ले जाने व स्वतंत्रता की आशा व्यक्त की।

सोवियत ब्लॉक का टूटना जून 1989 में पोलैंड में शुरू हुआ। हंगरी, चेकोस्लोवाकिया और पोलैंड में पिछले सोवियत सैन्य हस्तक्षेप के बावजूद, पोलिश मतदाताओं ने अपने विधानसभा के लिए एक साम्यवाद-विरोधी विपक्ष सरकार निर्वाचित की। दुनियाभर ने उत्सुकता से अपेक्षा की कि सोवियत अपने टैंक तैयार करेगा सत्ता पाने के लिए। गोर्बाचेव ने इस से इनकार कर दिया। डोमिनोज की तरह, पूर्वी यूरोपीय कम्युनिस्ट तानाशाही का एक के बाद एक पतन होता गया। 

जुलाई 1989 से, पूर्व और पश्चिम जर्मनी के लोग फावड़ों से बर्लिन की दीवार तोड़ रहे थे। हंगरी और चेकोस्लोवाकिया में कम्युनिस्ट शासकों को अपदस्थ किया गया था। क्रिसमस दिवस पर क्रूर रोमानियाई तानाशाह निकोल चाऊसेस्कू और उसकी पत्नी को सरसरी तौर पर टीवी पर दिखाते हुए मृत्युदंड दिया गया। यूगोस्लाविया ने साम्यवाद को छोड़ा और एक हिंसक गृहयुद्ध शुरू हुआ। 

स्वतंत्रता की मांग जल्द ही सोवियत संघ में फैल गयी। बाल्टिक राज्यो-एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया-में स्वतंत्रता की घोषणा की गई। इसी तरह की भावनाओं की वार्ता यूक्रेन, काकेशस और मध्य एशियाई राज्यों में सुनाई दी। यहाँ गोर्बाचेव ने एक सीमा खींचने की कामना की। पूर्वी-यूरोप के लिए आत्मनिर्णय के एक बात थी, लेकिन सोवियत संघ की क्षेत्रीय अखंडता को बनाए रखने का उनका इरादा था। 1991 में उन्होंने सोवियत गणराज्यों को अधिक स्वायत्तता देने के लिए उन्हे केंद्रीय नियंत्रण में रखते हुए, एक संघ संधि का प्रस्ताव रखा।

5.1 मिखाइल गोर्बाचेव

मिखाइल गोर्बाचेव ने 1985 में सोवियत संघ की सत्ता संभाली। उन्होंने सुस्त अर्थव्यवस्था में तेजी के लिए ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोयका नीतियों की शुरूआत की। आजादी के इस स्वाद से शुरू हुई क्रांति, शीत युद्ध का समापन था। गर्मियों तक रूढ़िवादी कट्टरपंथियों द्वारा तख्तापलट कर जगह ले ली गई। गोर्बाचेव को घर में नजरबंद रखा गया था। इस बीच, बोरिस येल्तसिन, रूसी सोवियत गणराज्य के नेता, ने कट्टरपंथियों की गिरफ्तारी की मांग की। सेना और जनता ने येल्तसिन का साथ दिया व तख्तापलट विफल रहा। गोर्बाचेव को मुक्त तो कर दिया गया, किंतु वे अपनी वैधानिकता खो चुके थे। येल्तसिन जैसे राष्ट्रवादी नेता कहीं अधिक लोकप्रिय थे। दिसम्बर 1991 में यूक्रेन, बेलारूस और रूस में ही स्वतंत्रता की घोषणा कर दी गई और सोवियत संघ को भंग कर दिया गया था। गोर्बाचेव बिना देश वाले राष्ट्रपति थे।

अमेरिकी खुशी के सदमे में थे, वे सोवियत खेमे की घटनाओं में आए मोड़ से चौंक गए थे। रिपब्लिकनों को शीत युद्ध जीतने का सेहरा पहनने की जल्दी थी। उन्होने माना कि रीगन- बुश वर्षों की सैन्य नीतियों के खर्च ने सोवियत संघ को आर्थिक पतन की कगार पर ला दिया। डेमोक्रेट ने इस पर बहस की कि साम्यवाद की रोकथाम डेमोक्रेट हैरी ट्रूमन ने 45 साल पहले एक द्विदलीय नीति से शुरू की थी।

दूसरे मानते हैं कि को कोई भी वास्तव में शीत युद्ध नहीं जीता पाया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने सोवियत संघ से सीधे टकराव के लिए हथियारों आदि पर अरबों डॉलर का खर्च किया, लेकिन सौभाग्य से कभी ऐसा हुआ ही नहीं। भले ही, हजारों अमेरिकी जीवन, कोरिया और वियतनाम के छद्म युद्ध में खो गए थे। ज्यादातर अमेरिकियों ने शीत युद्ध के विचार को इस्तेमाल के लिए मुश्किल पाया। 1945 के बाद से, अमेरिकी शीत युद्ध संस्कृति में पैदा हुए जिसमें बम आश्रयों, अंतरिक्ष दौड़, मिसाइल संकट, अमन, अफगानिस्तान पर सोवियत आक्रमण, और स्टार वार्स रक्षा प्रस्ताव जैसी अवधारणाएं शामिल रहीं। दुश्मन हार गया लेकिन दुनिया अब भी असुरक्षित थी। कई मायनों में, इस एक महाशक्ति को़ वैश्विक आतंकवाद, दुष्ट राष्ट्रों और पाखण्डी समूहों की दर्जनों को चुनौतीयों का सामना करना पड़ रहा था। अमेरिकियों नें 1990 के दशक की नई विश्व व्यवस्था में सुरक्षा और समृद्धि की आशा व्यक्त की।

6.0 शीत युद्ध के अंत के प्रभाव

नाटो ने शीत युद्ध के अंत के बाद वॉरसॉ संधि वाले पूर्व व सोवियत संघ के कुछ हिस्सों में स्वयं को विस्तारित किया। शीत युद्ध के बाद रूस ने नाटकीय रूप से सैन्य खर्च में कटौती कर दी, जिसमें सैन्य औद्योगिक क्षेत्र में पहले हर पांचवें सोवियत वयस्क को रोजगार दिया गया था। इसका अर्थ यह था, कि अब लाखों लोगों को बेरोजगार कर दिया गया। रूस ने 1990 के दशक में पूंजीवादी आर्थिक सुधारों को शुरू करने के बाद, एक वित्तीय संकट का सामना किया, जो अमेरिका और जर्मनी की तुलना में अधिक गंभीर मंदी के तनाव का अनुभव था। रूसी जीवन स्तर में शीत युद्ध के बाद के वर्षों में काफी गिरावट आयी, हालांकि अर्थव्यवस्था में 1999 के बाद से विकास फिर शुरू हो गया। 

शीत युद्ध के बाद भी, यह विश्व मामलों को प्रभावित करता रहा है। सोवियत संघ के विघटन के बाद, शीत युद्ध के बाद दुनिया में व्यापक रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका की एकमात्र शेष महाशक्ति के रूप में छवि बन गई। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की संयुक्त राज्य अमेरिका की राजनीतिक भूमिका को शीत युद्ध ने दुनिया में ऐसे परिभाषित किया-1989 से अमेरिका ने 50 देशों के साथ सैन्य गठजोड़ आयोजित किया और 5,26,000 सैनिकों को दर्जनों देशों में तैनात किया; यूरोप में 3,26,000 थे (इसके दो तिहाई पश्चिम जर्मनी में थे) और 1,30,000 एशिया में (मुख्य रूप से जापान और दक्षिण कोरिया) में थे। शीत युद्ध के बाद शांतिकाल में यह सैन्य औद्योगिक बल, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में और बड़े पैमाने पर सैन्य वित्त पोषण के विज्ञान की रूप में चिह्नित हुआ। सैन्य औद्योगिक बल मूल रूप से 19वीं सदी के पहले से थे लेकिन शीत युद्ध के दौरान इसमें काफी वृद्धि हुई। इनका प्रभाव समाज, नीति और विदेशी संबंधों को आकार देने में मदद आदि पर पड़ता है। अनुमान लगाया गया कि शीत युद्ध के वर्षों के दौरान अमेरिका द्वारा सैन्य व्यय लगभग 8 ट्रिलियन डॉलर किया गया जबकि 1,00,000 अमेरिकियों ने कोरियाई युद्ध और वियतनाम युद्ध में अपनी जाने गंवाई। सोवियत सैनिकों के जीवन की हानि का अनुमान लगाना मुश्किल है, उनके सकल राष्ट्रीय उत्पाद के एक हिस्से के रूप में सोवियत संघ की वित्तीय लागत, संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा किए गए खर्च की तुलना में कहीं अधिक थी।

वर्दीधारी सैनिकों के जीवन के नुकसान के अलावा भी लाखों, विशेष रूप से दक्षिण पूर्व एशिया में, विश्व की महाशक्तियों के छद्म युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हुए। कई छद्म युद्ध शीत युद्ध के साथ समाप्त हो गये जैसे-स्थानीय संघर्ष, अंतर्राज्यीय युद्ध, जातीय युद्ध, क्रांतिकारी युद्ध। साथ ही शरणार्थी और विस्थापित व्यक्तियों के संकटों में शीत युद्ध के बाद के वर्षों में तेजी से गिरावट आई है।

शीत युद्ध के बाद के संघर्ष को फिर भी हमेशा के लिए आसानी से मिटाया नहीं जा सकता व कई आर्थिक और सामाजिक तनावों की तीव्रता द्वारा शीत युद्ध प्रतियोगिता के ईंधन देकर तृतीय विश्वयुद्ध के भड़काने की कोशिश हुई। पूर्व में कम्युनिस्ट सरकारों द्वारा शासित क्षेत्रों में राज्य के नियंत्रण के टूटने से (विशेष रूप से पूर्व यूगोस्लाविया में) नागरिक और जातीय संघर्ष पैदा हुए। पूर्वी यूरोप ने, शीत युद्ध की समाप्ति से आर्थिक विकास और उदार लोकतांत्रिक देशों की संख्या में वृद्धि के युग में प्रवेश किया व अफगानिस्तान जैसे दुनिया के अन्य भागों में स्वतंत्रता, राज्य की विफलता के साथ मिली। अल कायदा और ओसामा बिन लादेन के उदय को भी अफगानिस्तान में इन समस्याओं के उदय और इसकी जटिलताओं से उपजा माना गया। 



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