यूपीएससी तैयारी - विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं - व्याख्यान - 11

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द्वितीय विश्व युद्ध

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1.0 प्रस्तावना

जिस प्रथम विश्व युद्ध के बारे में यह कहा गया था कि ’यह युद्ध सभी युद्धों का अंत कर देगा‘, वह 1919 में समाप्त हो गया किंतु इससे जुड़े मुद्दे अनसुलझे ही रह गये। द्वितीय विश्व युद्ध के बीज भी प्रथम विश्व युद्ध की भांति ही थे। जिस अपमानजनक वर्साय (Versailles) संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए जर्मनी को मजबूर किया गया था उसने स्थिति को और बिगाड़ दिया। वास्तव में संधि पर नागरिक सरकार ने हस्ताक्षर किये थे, किंतु सेना ने इसे स्वीकार नहीं किया था। 1929 की आर्थिक मंदी जो अमेरीका से प्रारंभ होकर सारे संसार को घेर चुकी थी, ने भी इस क्षेत्र के अस्थाईत्व को बढ़ाने में अपना योगदान दिया।

1.1 महान वैश्विक मंदी (द ग्रेट डिप्रेशन)

द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व के दशक में व्याप्त आर्थिक मंदी के दौर को महान वैश्विक मंदी कहा जाता है। इसकी शुरूआत 1929 से हुई और यह द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक चली। यह 20 वीं शताब्दी की एक दीर्घ, वृहद स्तर पर व्याप्त और सघन मंदी थी। 

इस वैश्विक मंदी का प्रभाव अमीर और गरीब देशों पर समान रुप से विनाशकारी रूप में सामने आया। व्यक्तिगत आय, कर राजस्व, लाभ और कीमतें गिर गई, जबकि अतर्राष्ट्रीय व्यापार लगभग 50 प्रतिशत तक सिकुड़ गया। केवल अमेरिका में ही बेरोजगारी का स्तर 25 प्रतिशत और कुछ देशों में तो 33 प्रतिशत तक उँचा हो गया।

संसार भर के शहरों, विशेषकर भारी उद्योगों पर आधारित शहरों पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। कई देशों में अधोसंरचनागत कार्य रोक दिये गये। कृषि और ग्रामीण क्षेत्र भी इससे प्रभावित हुये बिना, क्योंकि कृषि उत्पादों की कीमतें भी लगभग 60 प्रतिशत गिर गईं। वैकल्पिक नौकरियों के स्त्रोतों के बिना, अचानक गिरती हुई मांग का सामना करना, प्राथमिक क्षेत्र पर आधारित उद्योगां, जैसे कि कृषि, खनन लकड़ी उद्योग आदि के लिए बहुत कठिन था।

1930 के दशक के मध्य तक कुछ अर्थव्यवस्थायें सुधार की ओर बढ़ने लगी थीं। कुछ देशों में इस महान वैश्विक मंदी के नकारात्मक प्रभाव द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक जारी रहे। 

1.1.1 महान वैश्विक मंदी और द्वितीय विश्व युद्ध

  • बेराजगारीः जर्मनी में सामूहिक बेरोजगारी और जापान में फैली गरीबी ने क्रोध का रूप ले लिया। इसने दक्षिणपंथी तानाशाही सरकारों के लिए आधार तैयार किया जिन्होंने जनता को यह समझाया कि उनका देश एक महान देश है, और उनके लिए यह उचित है कि वे जो चाहते हैं वह शक्ति से हासिल करें। यही वह बात थी जो जनता इस परिस्थिति में सुनना चाहती थी। 1929 से 1939 तक 25 देशों में तानाशाही सरकारें बनीं।
  • अमेरीकाः अमेरिका ने जर्मनी से अपने सारे ऋण वापस बुला लिये। इसके कारण जर्मनी के उद्योग नष्ट हो गये और हिटलर को सत्ता में आने का सीधा अवसर मिला।
  • राजनीतिः कई नेता यह मानते थे कि जब घर में परिस्थितियाँ खराब हों तो सत्ता में बने रहने का एक तरीका यह है कि लोगों का ध्यान विदेशी मामलों की ओर मोड़ा जाये, तथा लोगों की घृणा को दूसरे देशों के विरुद्ध उत्तेजित किया जाये और उन्हें कट्टर राष्ट्रवाद में डुबोया जाये जिसका परिणाम अत्यधिक आक्रामकता और राष्ट्रवादी विदेश नीति के रुप में उभरा।
  • सम्राज्य-निर्माणः गलाकाट आर्थिक प्रतिस्पर्धा के रुप में जापान और इटली जैसे देशों का साम्राज्य-निर्माण के पक्ष में यह तर्क था कि इससे उन्हें कच्चे माल की अबाध आपूर्ति होगी। जापान (मंचूरीया), इटली (अबीसीनिया) और जर्मनी (पूर्वी यूरोप) जैसे देशों ने साम्राज्य निर्माण का लक्ष्य रखा जिससे अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष और तनाव बढ़ गया।
  • निजी हितः 1920 के दशक में जो देश लोककल्याणकारी अर्थव्यवस्था के लिए तैयार थे वे भी 1930 के दशक में इसे सहन नहीं कर सके। उन्हांने लीग ऑफ नेशन्स (राष्ट्र संघ) को छोड़ दिया और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के सिद्धांतां से किनारा कर लिया। 
  • ब्रिटेन और फ्रांसः यह दोनों देश भी आर्थिक रूप से कमजोर हो रहे थे। इसी कारण से इन्होंने भी मंचुरीया में सेना नहीं भेजी या अबीसीनिया के मुद्दे पर इटली पर प्रतिबंध नहीं लगाया। यहीं वह परिस्थितियां थी जिसके कारण 1930 के दशक में इन्होंने हिटलर के विरुद्ध हथियार इकट्ठे नहीं किये। 

1.2 वर्साय की संधि

वर्साय की संधि जर्मनी के लागों के लिए एक सज़ा थी। जर्मनी के लोग युद्ध के दौरान वैसे भी परेशानियों से गुजर रहे थे जिसने उन्हें पूरी राजनीतिक व्यवस्था को बदलने के लिए मजबूर कर दिया। यह नई संधि जिसे नवगठित वाईमर रिपब्लिक (गणतांत्रिक) सरकार ने स्वीकार किया था और इसलिए इसकी कठोरता का सारा दोष इस नई सरकार को दिया गया। जर्मनी में कई लोगों का मानना था कि इस नई सरकार ने संधि पर हस्ताक्षर कर ’जर्मनी की पीठ में छुरा घोंपा है। इससे राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ावा मिला और जर्मनी में फासीवाद के उदय के लिए जमीन तैयार हुई।

संधि के अनुसार जर्मनी को युद्ध मुआवजे के रूप में एक बड़ी रकम का पुनर्भुगतान मित्र राष्ट्रां को करना था। इस पुनर्भुगतान के हिसाब में यह तो शामिल ही नहीं था कि युद्ध ने जर्मनी को भी तोड़ दिया था और इस संधि में वह बहुत सारी जमीन भी हार चुका था जो जर्मनी के लिए औद्योगिक दृष्टि से लाभदायक थी। अपना पहला भुगतान करने के पश्चात् एवं कुछ क्षेत्रों पर फ्रांस के हमलों के बाद, जर्मन कामगारों ने निष्क्रिय प्रतिरोध की नीति अपनाई जिसके परिणामस्वरूप मुद्रा स्फीति की दर बहुत बढ़ गई। अमेरिका ने जर्मनी को एक बड़ी राशि कर्ज के रूप में दी। इससे जर्मन समाज को उन्नति का अवसर मिला किन्तु वे बाद में पराये की सम्पत्ति पर जी रहे थे। वाल स्ट्रीट बाज़ार के पतन के बाद जब इन ऋणों को वापस बुला लिया गया तो जर्मनी बुरी तरह टूट गया। इससे जर्मनी में संघर्षरत लोकतंत्र को कोई मदद नहीं मिली, जबकी इसके उलट इसने वहाँ अतिवादी सरकार के रूप में फासीवाद के उदय के लिए आवश्यक स्थितियां तैयार कर दी। 

जर्मन साम्राज्य का पतन और भूमि की हानि न केवल जर्मनी के लिए आर्थिक रूप से हानिकारक था बल्कि यह उसके लिए शर्मनाक था। संधि में जर्मनी को युद्ध दोषी करार देने के अनुबंधां के कारण वर्सेल्स संधि ने कई जर्मन नागरिकां को मित्र राष्ट्रों के प्रति क्रोधित कर दिया था। इसने नाज़ीवाद जैसे समूहों को प्रेरित किया जिनका विश्वास था कि जर्मन लोगों के साथ अत्याचार हुआ है और इसलिए यह उनका विशेषाधिकार है कि उन्हें जीने के लिए अधिक जगह दी जाये। इसी तथ्य के आधार पर हिटलर ने पोलैण्ड और रूस जैसे देशों पर आक्रमण किया।

1.3 युद्ध पूर्व आठ चरण

  1. सार जनमत संग्रहः 1935 में इतिहासकार हॉल फिशर ने लिखा, ‘एक देश जो युद्ध के लिए दृढ़ है उसे युद्ध करने का बहाना मिल ही जाता है। वर्सेल्स की संधि ने सार को पन्द्रह वर्षों के लिए लीग ऑफ नेशन को सौंप दिया। 1935 में सार के निवासियों ने जर्मनी लौटने के पक्ष में मत दिया। कई इतिहासकारों के अनुसार सार का जनमत संग्रह युद्ध की दिशा में पहला कदम था। 
  2. सेना में भर्ती और शस्त्रीकरणः हिटलर ने उसकी सैन्य ताकत बढ़ाना प्रारंभ कर दिया। 1935 में उसने नागरिकों के लिए सैनिक सेवा अनिवार्य कर दी और बड़े स्तर पर सेना में भर्ती प्रारंभ की। इसने वर्सेल्स की संधि की शर्तो का उल्लघंन किया किंतु ब्रिटेन और फ्रांस ने उसे ऐसा करने दिया। 
  3. रिनलैण्डः 7 मार्च 1936 को हिटलर ने रिनलैण्ड पर आक्रमण किया। इससे वर्सेल्स् की संधि पूरी तरह टूट गई। यह केवल एक धोखा था क्योंकि जर्मन सेना में केवल 22000 हजार सैनिक थे। उन्हें आदेश था कि किसी प्रकार के प्रतिरोध का सामना करना पड़े तो वे वापस लौट आयें किंतु पुनःश्च ब्रिटेन और फ्रांस ने कुछ नहीं किया।
  4. आस्ट्रियाः 1938 में हिटलर ने आस्ट्रिया पर आक्रमण किया। पहले हिटलर ने आस्ट्रिया के नाज़ीयों को जर्मनी में मिलने के लिए मांग उठाने को उकसाया। फिर हिटलर ने 11 मार्च 1938 को आस्ट्रिया पर आक्रमण कर दिया। इससे वर्सेल्स की संधि टूट गई किंतु ब्रिटेन और फ्रांस ने कुछ नहीं किया।
  5. म्यूनिकः 1938 में हिटलर ने सुडेंटेलैण्ड पर आक्रमण किया। पहले हिटलर ने सुडेटेन नाज़ियों को जर्मनी के साथ एकीकरण करने की माँग करने के लिए उकसाया। फिर हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया पर आक्रमण की योजना बनाई। नेविल चेम्बरलेन ने हिटलर को समझाने की कोशिश की। 29 सिंतम्बर 1938 को म्यूनिक में, ब्रिटेन और फ्रांस ने हिटलर को सुडेनटेंनलैण्ड सौप दिया।
  6. चेकोस्लोवाकियाः 15 मार्च 1939 को हिटलर के सैनिक चेकोस्लोवाकिया के शेष हिस्से में घुस गये। यह वह समय था जब ब्रिटेन के अधिकांश लोगों ने माना कि हिटलर के बढ़ते कदमों को केवल युद्ध ही रोक सकता है।
  7. सोवियत संघ/नाज़ी समझौताः 1939 की गर्मियों में हिटलर ने पोलैण्ड को जीतने की अपनी योजना प्रकट की। पहले, डैंज़िग में जर्मन लोगों ने मांग की कि इसे जर्मनी में शामिल कर लिया जाये। फिर हिटलर ने युद्ध की धमकी दी। चेम्बरलेन ने पोल नागरिकों से वादा किया की यदि जर्मनी पोलैण्ड पर आक्रमण करता है तो ब्रिटेन उनका समर्थन करेगा। अगस्त 1939 में हिटलर ने रूस के साथ एक गुप्त समझौता किया। उसने सोचा कि यह समझौता ब्रिटेन और फ्रांस को पोलैण्ड की मदद करने से रोकेगा।
  8. पोलैण्डः अप्रैल 1939 में, चेम्बरलेन ने ‘पोलिश ग्यारण्टी’ की घोषणा की जो कि हिटलर के आक्रमण की दशा में पोलैण्ड को बचाने का एक वादा था। इससे शांति की सभी उम्मीदें समाप्त हो गईं। 1 सितम्बर 1939 को हिटलर ने पोलैण्ड पर आक्रमण कर दिया। 

2.0 हिटलर और मुसोलिनी का उदय

वाईमर रिपब्लिक के नाम से एक नया लोकतांत्रिक जर्मन गणराज्य अस्तित्व में आया। कुछ समय बाद ही इसे उच्च मुद्रा-स्फीति और गंभीर आर्थिक संकटों ने जकड़ लिया। कई सारे आंदोलनों के दौरान दक्षिणपंथी तत्वों ने, विशेषकर एडोल्फ हिटलर की नाज़ी पार्टी ने, युद्ध के उपरांत लादे गये कठोर और अपमानजनक संधि, लोकतांत्रिक सरकार की कमजोरियों और यहूदियों को, जिन्हें वह जर्मनी की आर्थिक जकड़न मानता था पर जर्मनी की इस दशा का आरोप लगाया। 30 जनवरी 1933 को उम्रदराज़ राष्ट्रपति वॉन हिंड़नबर्ग ने हिटलर को चांसलर नियुक्त किया। हिटलर की सरकार ने अपनी अधिकांश शक्तियों का उपयोग उन विशेष आपातकालीन अधिकारों के तहत किया जो संविधान के तहत राष्ट्रपति को प्राप्त थे।



इन शक्तियों ने राष्ट्रपति की शक्तियों के साथ सरकार को यह अधिकार दे दिया था कि वह संघीय संसद को प्रभावशाली तरीके से अनदेखा कर सके। वाईमर संविधान का एक अन्य घातक नियम यह था कि जब राष्ट्रपति की मृत्यु हो जाती है तो उसके सारे अधिकार अस्थाई तौर पर चांसलर को मिलते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि जब हिंडनबर्ग की मृत्यु हुई तो राष्ट्रपति की असीमित शक्तियां एडोल्फ हिटलर के हाथों में आ गईं। इन असीमित शक्तियों पर अधिकार के कारण और संसद को अनदेखा कर सकने वाला कानून बनाने के कारण, हिटलर जर्मनी का ऐसा शासक बन गया जिसके हाथों में राष्ट्रपति की शक्तियां असीमित काल के लिये आ गईं और हिटलर ने जर्मनी पर तानाशाही शासन स्थापित कर लिया। 


प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात इतालवी अर्थव्यवस्था भी गहरे संकट में पड़ गई थी। अराजकतावादी बीमारी की तरह फैल रहे थे, साम्यवादी और अन्य समाजवादी आंदोलनकारी अपने-अपने संगठन बना रहे थे और कई लोग इस बात को लेकर चिंतित थे कि बोल्षेविक शैली का साम्यवादी आंदोलन स्पष्ट नजर आ रहा था। 

लगातार एक के बाद एक कई उदारवादी सरकारों की असफलता के बाद, इटली के राजा विक्टर इमान्युएल तृतीय ने दक्षिणपंथी राजनीतिज्ञ बेनिटो मुसोलिनी और उसकी फासीवादी पार्टी को 1922 में सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। फासीवादी पार्टी ने एक सशस्त्र अर्द्धसैनिक दल का गठन किया जिसका काम अराजकतावादी, साम्यवादी और समाजवादी लोगों को रोकना था। 

कुछ ही वर्षों में मुसोलिनी भी एक तानाशाह शासक बन गया और इटली एक सैन्य राज्य। 7 जनवरी 1935 को मुसोलिनी और फ्रांस के विदेश मंत्री पियरे लवल ने इटली-फ्रांस समझौतें पर हस्ताक्षर किये। 

इसी दौरान जर्मनी में नाजियों ने अपनी विदेश नीति पर ध्यान देते हुए कई दबंग कदम उठाए।

16 मार्च 1935 को जैसे ही हिटलर ने जर्मनी के पुनः सशस्त्रीकरण के आदेश दिये, वर्सेल्स की संधि का उल्लंधन हो गया। जर्मनी में पुनः सैन्य सेवाओं को अनिवार्य घोषित कर दिया गया जबकि संधि के अनुसार जर्मन सेना की कुल संख्या 1 लाख से ज्यादा नहीं होनी चाहिए थी।

इन कदमों का ब्रिटेन और फ्रांस ने सरकारी प्रतिक्रिया देने के अलावा कोई प्रतिरोध नहीं किया क्योंकि ये दोनो देश संधि के आर्थिक प्रावधानों को लागू करवाने को लेकर ज्यादा गम्भीर थे और सैन्य प्रतिबंधों पर ध्यान नहीं दे रहे थे। ब्रिटेन के कई लोगों का सोचना था कि वर्सेल्स् संधि के द्वारा जर्मनी पर थोपे गये प्रतिबंध बहुत ज्यादा कठोर थे, और उनका यह भी मानना था कि हिटलर का उद्देश्य केवल संधि की अति कठोर शर्तों को तोड़ना था, इससे ज्यादा कुछ नहीं। किसी भी प्रतिरोध के बगैर, हिटलर ने 7 मार्च 1936 को राईनलैण्ड में अपनी सेनायें भेज दीं। संधि के अनुसार, राईनलैंड एक असैन्य देश होना था क्योंकि फ्रांस अपने और जर्मनी के बीच एक बफर राज्य चाहता था। किंतु यहाँ भी पहले जैसा ही घटित हुआ, व हिटलर के आक्रमण को केवल निष्क्रियता का सामना करना पड़ा।

3.0 जर्मनी-रूस का शांति समझौता

आर्थिक समझौताः जर्मनी और रूस के बीच पहला समझौता एक आर्थिक अनुबंध था जिस पर रिबनट्रॉप और मोलोटॉव ने 19 अगस्त 1939 को हस्ताक्षर किये थे। इस समझौते के अनुसार सोवियत यूनियन जर्मनी को मशीनरी के बदले खाद्य पदार्थ और इससे जुड़ा कच्चा माल उपलब्ध करवाता था। 

युद्ध के प्रारंभिक वर्षों में, इस आर्थिक समझौते की मदद से जर्मनी ने ब्रिटेन के प्रतिबंधों का सामना किया । 

अनाक्रमण समझौताः आर्थिक समझौते के 4 दिन बाद, 23 अगस्त 1939 को रिबनट्रॉप व मोलोटॉव ने नाज़ी-सोवियत अनाक्रमण समझौते पर हस्ताक्षर किये। इस समझौते को जर्मन-सोवियत अनाक्रमण समझौता और रिबनट्रॉप व मोलोटॉव समझौता भी कहा जाता है। सार्वजनिक रूप से यह घोषित किया गया कि जर्मनी और सोवियत संघ एक दूसरे पर आक्रमण नहीं करेंगे। यदि दोनों देशों के बीच कोई समस्या उत्पन्न होती है तो इसे शांतिपूर्वक हल किया जायेगा। यह समझौता 10 वर्षों के लिए किया गया था किंतु यह केवल 2 वर्षों तक ही चला। 

समझौते की शर्तों के अनुसार यदि जर्मनी पोलैण्ड पर आक्रमण करता भी है तो सोवियत यूनियन पोलैण्ड की मदद करने नहीं आएगा। इस प्रकार यदि जर्मनी पश्चिम में, विशेषकर फ्रांस और ब्रिटेन के विरुद्ध, पोलैण्ड होते हुए मोर्चा खोलता तो भी सोवियत संघ की तरफ से यह सुनिश्चित था कि कोई आक्रमण नहीं होता। इस प्रकार जर्मनी को दूसरा मोर्चा नहीं खोलना पड़ता। 

इसके अतिरिक्त रिबनट्रॉप व मोलोटॉव ने इस समझौते में एक गुप्त प्रोटोकॉल भी जोड़ा था जिसके अस्तित्व को सोवियत संघ 1989 तक इन्कार करता रहा। 

गुप्त प्रोटोकॉलः नाज़ीयों और सोवियत संघ के बीच हुये समझौते में जोड़े गये गुप्त प्रोटोकॉल ने पूर्वी यूरोप को बड़े हद तक प्रभावित किया। निकट भविष्य में होने वाले सम्भावी युद्ध में शामिल नहीं होने के बदले जर्मन ने सोवियत संघ को बाल्टिक राज्य (एस्टोनिया, लेटविया और लिथुवानिया) देने का वादा किया था। नेरीव्यू, विस्टुला और सेन नदियों के साथ पोलैण्ड को भी दोनों के बीच बराबर विभाजित होना था। नये सीमा क्षेत्रों की बदौलत सोवियत संघ को पश्चिम में बफर राज्यों मिले और वह आक्रमणों की चिंता से मुक्त हो गया। 

समझौते के प्रभावः जब 1 सितम्बर 1939 को नाज़ीयों ने पोलैण्ड पर आक्रमण किया तो सोवियत सेनायें मूकदर्शक बनी रहीं। दो दिनां बाद ब्रिटेन ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की और इस प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हुआ। 17 सितंबर को सोवियत सेनायें पूर्वी पोलैण्ड के उस आधे हिस्से पर जिसे गुप्त प्रोटोकाल पर दर्शाया गया था, अधिकार के लिए अंदर घुसीं। 

नाज़ी-सोवियत अनाक्रमण संधि के कारण सोवियत सेना ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध में भाग नहीं लिया और इस प्रकार जर्मनी ने दो मोर्चां पर लड़ने से खुद को बचाया। नाज़ीयों और सोवियत लोगों ने समझौते की शर्तो और प्रोटोकॉल को 22 जून 1941 को तब तक जारी रखा, जब तक कि जर्मनी ने सोवियत संघ पर अचानक आक्रमण नहीं कर दिया। 

4.0 युद्ध के विभिन्न चरण

4.1 प्रथम चरण (नकली युद्ध)

द्वितीय विश्व युद्ध का प्रथम चरण एक छद्मयुद्ध था, जिसमें यूरोप महाद्वीप में, जर्मनी के पोलैण्ड पर आक्रमण के बाद के कुछ महीनों में कुछ सैन्य अभियान चलाये गये। यद्यपि यूरोप की महाशक्तियों ने एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया था तो भी उनमें से कोई महत्वपूर्ण आक्रमण करने को तैयार नहीं था, और अपेक्षाकृत जमीन पर लड़ाईयाँ लड़ी नहीं जा रहीं थीं। यही वह दौर था जिसमें ब्रिटेन और फ्रांस ने उनके सहयोगी देश पोलैण्ड को कोई महत्वपूर्ण मदद नहीं भेजी।

जब जर्मनी की अधिकांश सेना पोलैण्ड़ के विरुद्ध लड़ रही थी, तो उसकी एक छोटी सी सैन्य टुकड़ी ने फ्रांस सीमा पर निर्धारित सिगफ्रीड़ लाईन का उल्लघंन किया। सीमा की दूसरी ओर मेगिनॉट लाईन पर फ्रेंच सेनायें उनका सामना करने के लिए तैयार खड़ी थीं, जबकि ब्रिटेन की सेना और फ्रांसीसी सेना ने बेल्जियम सीमा पर एक रक्षा पंक्ति तैयार कर दी थी। इस दौरान वहाँ कुछ छोटी-मोटी झड़पें हो रही थीं। ब्रिटेन की रॉयल एयर फोर्स ने जर्मनी के उपर प्रचार सामग्री के रूप में पन्ने फेंकें और पहली कनाड़ाई सेना ने ब्रिटेन प्रवेश किया। इसी दौरान पश्चिमी यूरोप में 7 महीनों तक तूफान के पहले की शांति छायी रही। 

स्वंय को सशस्त्र करने की जल्दी में ब्रिटेन व फ्रांस ने अमेरिकन उत्पादकों से बड़ी मात्रा में हथियार प्राप्त करना प्रारंभ कर दिया। गैर-आक्रामक अमेरिका ने सैन्य उपकरणों की खरीदी पर छूट देकर पश्चिमी गठबंधन को सहयोग दिया। गठबंधन के एटलांटिक पार व्यापार को रोकने के जर्मन प्रयासों के कारण एटलांटिक की लड़ाई की चिंगारी भड़क उठी।

स्कैंडेनेवियाः जब अप्रैल 1940 में पश्चिमी सीमा शांत थी, तब जर्मनी और मित्र देशों के बीच नॉर्वे के मोर्चे पर लड़ाई छिड़ गई क्योंकि जर्मनी ने डेनमार्क और नॉर्वे पर आक्रमण करते हुए वैसरुबंग ऑपरेशन प्रारंभ कर दिया। ऐसा करने में जर्मनी ने मित्र राष्ट्रों को बुरी तरह पराजित कर दिया; मित्र देश ऐसी योजना बना रहे थे जिसके तहत वे जर्मनी को चारों ओर से घेर सकें और उसे स्वीडन से मिलने वाली रसद और कच्चे माल की आपूर्ति भी रोक सकें। हालाँकि जब मित्र देशों ने नॉर्वे पर आक्रमण करने की कोशिश की तो उसे रोक दिया गया। यद्यपि इसमें जर्मन नौसेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा। 

फ्रांस की लड़ाईः मई 1940 में जर्मनी ने फ्रांस की लड़ाई छेड़ दी। फ्रांस, बेल्जियम और ब्रिटेन की थल सेना जर्मन ‘ब्लिट्ज़क्रीग‘ रणनीति के तहत बुरी तरह नष्ट हो गई। बड़ी मात्रा में ब्रिटेन और फ्रांस के सैनिक डनक्रीक से भाग गये। जैसे ही लड़ाई समाप्त हुई जर्मनी ने यह सोचना प्रारंभ कर दिया कि ब्रिटेन से कैसे निपटा जाये। यदि ब्रिटेन शांति संधि करने से इंकार करता, तो एक विकल्प आक्रमण करना भी था। यद्यपि, जर्मन नौसेना को स्कैंडनोविया में भारी नुकसान उठाना पड़ा था, और उभयपक्षी तटीय कूच (लैंडिंग) करने के लिए जर्मन वायुसेना (लुफ्तवाफ) को सर्वोच्चता हासिल करना पड़ती। 22 जून को फ्रांस ने समर्पण कर दिया।

ब्रिटेन की लड़ाईः एक साल के युद्ध के पश्चात एडोल्फ हिटलर यह सोचने के लिए तैयार था कि ब्रिटेन पर आक्रमण किया जाये। किंतु अगस्त 1940 तक नॉर्वे युद्ध में हुये भारी नुकसान के कारण जर्मन बेड़े की क्षमता बहुत हद तक कम हो गई थी। ब्रिटेन का घरेलू बेड़ा, जिसमें स्कापा शामिल था वह जर्मन बेड़े से कई ज़्यादा शक्तिशाली था। यह न केवल रक्षा कर सकता था बल्कि समुद्र में आक्रमण भी कर सकता था। इंग्लिश चैनल और उत्तरी समुद्र के उपर आकाशीय मोर्चे की कहानी कुछ अलग थी। जर्मन वायु सेना यहां संख्यात्मक दृष्टि से शक्तिशाली थी। 

यदि जर्मन सेनायें ब्रिटिश भूमि पर पहुचने में सफल होती तो शायद अंग्रेजों के लिए स्थितियाँ ज्यादा बुरी होतीं। जून 1940 में फ्रांस के युद्ध के समय, ब्र्रिटेन की सेना की कुल 26 डिवीज़नों में से 12 अभी-अभी तैयार की गई थीं और वे पूरी तरह से प्रशिक्षित या शस्त्रों से सुसज्जित नहीं थी। फ्रांस में जो 600 टैंक भेजे गये थे, उनमें से केवल 25 ही ब्रिटेन वापस आये थे। अमेरीका ब्रिटेन को 5 लाख रायफलें तथा 75 मि.मी की 900 बंदूकें (तोपें) जिसमें से प्रत्येक में 1000 गोले थे, देने को तैयार हो गया था। 

हिटलर के आदेश नम्बर 16 का अनुपालन - इंग्लैण्ड पर आक्रमण निम्न 4 चरणों में सम्पन्न हुआः

प्रथम चरण (10 जुलाई से 7 अगस्त): जर्मनी ने ब्रिटेन के तटीय इलाकों और बंदरगाहों पर हमला किया। जर्मन लड़ाकू रणनीति बेहतर सिद्ध हुई। यहाँ पूरे समय ब्रिटेन ने इस बात पर ध्यान केंद्रित किया कि वह अपने पायलेटों की संख्या बढ़ा सके। 

द्वितीय चरण (8 से 23 अगस्त): अब जर्मनी ने ब्रिटेन के रडार स्टेशनों और हवाई अड्डों पर आक्रमण किया। रॉयल एयरफोर्स को भारी क्षति उठानी पड़ी और पायलेट बुरी तरह थक गये। 

तृतीय चरण (24 अगस्त से 6 सितम्बर): अब जर्मनी ने हवाई जहाज उत्पादन इकाईयों और आतंरिक लड़ाई कैंपों पर आक्रमण किये। ब्रिटिश पायलेट हार और बुरी तरह से थकने के कारण निराशा से घिर गये।

चतुर्थ चरण (7 से 30 सितम्बर): जर्मनी ने अपने अंतिम प्रयास में लंदन पर आक्रमण किया जिसका उद्देश्य ब्रिटेन की वायु शक्ति को नष्ट करना था। 15 सितंबर को शीर्ष पर पहुंचने के बाद जर्मनी ने ‘आपरेशन सी लायन‘ अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया। 6 सितम्बर के आसपास आंकड़ों के हिसाब से युद्ध जर्मनी के पक्ष में दिखाई दे रहा था,  हालांकि 24 अगस्त तक ब्रिटेन के 262 हवाई जहाजों के बदले जर्मनी के 378 वायुयान नष्ट हो चुके थे। जर्मनी को लड़ाकू विमान और बमवर्षक विमान दोनों में ही घाटा हुआ जबकि ब्रिटेन को कुल हानि फाइटर कमाण्ड से हुई। उसके 1000 हजार से भी कम पायलेट सतत् रूप से मोर्चे पर थे और उन्हें भी आराम की सख्त आवश्यकता थी। किंतु तभी परिदृश्य अचानक बदल गया।

24 अगस्त की शाम, एक जर्मन बम वर्षक विमान ने दुर्घटनावश लंदन के कुछ असैनिक क्षेत्रों में बम गिराये। विंस्टन चर्चिल ने तत्काल आदेश दिये की बर्लिन के असैन्य क्षेत्रों को भी निशाना बनाया जाये। इस बात से हिटलर बहुत क्रोधित हुआ और उसने लंदन पर शीघ्र ही तीखे हवाई आक्रमण के आदेश दिये। इसकी शुरुआत 7 सितम्बर से हुई जब 330 टन बम लंदन पर गिराये गये।

लंदन पर 57 रातों तक लगातार बम गिराये जाते रहे। जहाँ एक ओर इससे शहर बर्बाद हो रहा था वहीं इसका एक फायदा यह हुआ कि रॉयल एयरफोर्स को मोहलत मिल गई। ब्रिटेन ने अपनी खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त किया और वह जर्मन सेना से ज्यादा प्रभावी सिद्ध हुई। उसने जर्मनी के 380 वायुयानों को नष्ट किया जबकि इस बीच उसके 180 ही नष्ट हुये। रॉयल एयरफोर्स के पायलेटों की वीरता और दृढ़ता से प्रभावित होकर चर्चिल ने कहा; ’मानवीय संघर्षों के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ होगा कि इतने सारे लोग, इतने कम लोगों के ऋणी रहे‘।

4.2 द्वितीय चरण (जर्मनी का रूस पर आक्रमण) 

22 जून 1941 को जर्मनी ने ऑपरेशन बारबारोसा नाम से अपने तत्कालीन व पूर्व मित्र सोवियत पर अचानक आक्रमण कर दिया। आक्रमण के प्रारंभिक कुछ सप्ताह सोवियत सेनाओं के लिए भयानक रहे। बड़ी संख्या में सोवियत सैनिक जर्मन सैनिकों के हत्थे चढ़े और मार दिये गये। यद्यपि केवल जर्मन सैनिक ही इस आक्रमण में शामिल नहीं थे। उनके साथ इटली, हंगरी और रोमानिया के सैनिक भी शामिल थे।

ऑपरेशन बारबारोसा अपनी कुछ मूलभूत कमियों से ग्रसित था। इनमें सबसे गम्भीर समस्या थी आक्रमण के समय सामान की आपूर्ति व ढुलाई की। अंततः यह ढुलाई ही होती है जो किसी सैनिक अभियान को सफल बनाता है। सोवियत संघ में दूरियां व्यापक होने से जर्मनों के लिए एक समस्या यह थी कि वे अपनी आपूर्ति श्रृंखला से दूर होते जा रहे थे। 5 दिसंबर 1941 को जब जर्मन सेना मॉस्को के बाहर रूकी तो वास्तव में उसके पास आगे बढ़ने की क्षमता नहीं थी। उनके पास पर्याप्त रसद और खाद्य सामग्री पहुँच नही रही थी, जिससे वह कोई रक्षात्मक या आक्रामक अभियान चला सके। बारबारोसा की योजना के अंतर्गत जो समय निर्धारित किया गया था उसमें यह कल्पना की गई थी की ठंड आने के पहले सोवियत संघ को पूरा जीत लिया जायेगा। इसमें असफल होने पर जर्मन योजना घातक रूप से प्रभावित हुई। 

जर्मन सेनाओं की वापसी के समय सोवियत संघ ने जलाओं व नष्ट करो की एक भयानक नीति अपनाई। उन्होंने जर्मन सैनिकों के आगे चलकर फसलें नष्ट की व सुविधाएं बर्बाद की। उन्होनें उसी समस्या को बढ़ाया जिसका जर्मन सैनिक पहले से ही सामना कर रहे थे। इस अभियान का एक सीमा से ज्यादा तक विस्तार का मतलब यह था कि सैकड़ां हजारों जर्मन सैनिक रूस की कठोर ठंड में और सोवियत सैनिकों के प्रति-आक्रमण में मारे जायें।

कम आपूर्ति और कंपा देने वाली शीत के बावजूद जर्मन सैनिक सोवियत क्षेत्रों को जीते थे। सोवियत संघ को उन्हें पीछे धकेल कर अपने क्षेत्र पुनः हासिल करने में बड़ी कीमत चुकानी पड़ी व ये केवल 1944 तक ही हो पाया। 

जब एक बार सेनाओं ने सोवियत संघ के कुछ हिस्से जीत लिये तो वे लेनिनग्राद (सेंट पीटर्सबर्ग) की ओर आगे बढ़ने लगीं। 

हिटलर ने आदेश दिया था कि लेनिनग्राद शहर का अस्तित्व इस धरती से मिट जाना चाहिए और इसकी सारी जनसंख्या को खत्म कर देना चाहिए। शहर पर आक्रमण करने की अपेक्षा आदेश दिया गया था कि वह लेनिनग्राद को चारों और से इस तरह से घेर ले की शहर भूखों मर जाये, और इस पर भारी मात्रा में बम भी गिराये जायें। लेनिनग्राद मोर्चाबंदी के दौरान लगभग 10 लाख नागरिक मारे गये जिनमें से लगभग 8 लाख भूख से मरे। यह मोर्चाबंदी लगभग 900 दिनों तक जारी रही और इसके शीर्ष दिनों में शहर में घुसने की एक मात्र जगह लेडोगा झील से होकर जाती थी। 


1941-42 की सर्दियों को पार करने के बाद जर्मन सेना नये आक्रमणों के लिए तैयार हो रही थी। मास्को पहुंचने की अपेक्षा जर्मन सेना का उद्देश्य स्टालिनग्राद (अब वोल्गोग्राद) पहुँचना था। और यह जीत भी लिया गया। हालाँकि उद्देश्यों के भटकाव और सही नेतृत्व के अभाव के कारण यह अभियान बिखर गया ।

हिटलर के अनिर्णय, जर्मनी के उच्च पदस्थ सैन्य अधिकारियों के बीच विवाद और रसद की आपूर्ति बाधित होने के कारण स्टालिन की गलियों में युद्ध लंबा खिंचता चला गया। शहर को अपने अधिकार में करने के प्रयास में लगभग सारे जर्मन सैनिक अपने रोमानियन और हंगरी के साथियों को घने जंगलों में अकेला छोड़कर एक सँकरे रास्ते से शहर में घुसे। सोवियत संघ की तरफ से हुये प्रतिआक्रमण में ये सारे सैनिक मारे गये और जर्मन सेना की छठी बटालियन शहर में फंस गई। भोजन और ईंधन के अभाव तथा हथियारों की कमी के कारण सेना धीरे-धीरे नष्ट होने लगी और 1943 की शुरुआत में बचे हुये सैनिकों ने समर्पण कर दिया। आत्म समर्पण रोकने के एक प्रयास में हिटलर ने सेना की छठवीं बटालियन के कमाण्डर को फील्ड मार्शल के पद पर पदोन्नत कर दिया क्योंकि इस रैंक के किसी भी जर्मन अधिकारी ने कभी आत्मसमर्पण नहीं किया था। स्टालिनग्राद की लड़ाई में दोनों ही पक्षों को भारी नुकसान हुआ था और यह इतिहास की सबसे बड़ी खूनी लड़ाईयों में से एक थी। एक अनुमान के अनुसार इसमें 5 लाख नागरिकों सहित लगभग 20 लाख लोग मारे गये थे। 

स्टालिनग्राद की लड़ाई के बाद जर्मन शीर्ष पर न थे किंतु रूसी भी तैयार नहीं थे। एक निराशा से भरे प्रतिआक्रमण में 1943 की गर्मियों में मेनस्टेन की सेनाओं ने आगे बढ़ते सोवियत आक्रमण को रोकने का प्रयास किया और इतिहास में अभी तक के सबसे बड़े टैंक युद्ध-कर्स्क को जन्म दिया। पूर्वी मोर्चे पर कर्स्क का लगाया जाना अंतिम बड़ा जर्मन आक्रमण था। सोवियतों ने बड़ी समझदारी से जासूसी जानकारियां प्राप्त कर कर्स्क की विशेषताओं का सामना किया। उन्होनें जर्मन सैनिकों को 17 मील दूर आने देने के बाद पीछे धकेलते हुए अपने आप को बचा लिया। कर्स्क के बाद लाल सेना तब तक नहीं रूकी जब तक कि मई 1945 में बर्लिन उनके कब्जे में नहीं आ गया। 

सोवियत लोगों ने द्वितीय विश्व युद्ध की आग को सहन किया। सभी देशों के कुल हताहत नागरिकों के योग से भी ज्यादा केवल सोवियत नागरिक मारे गये। सोवियत संघ पर हुये जर्मन आक्रमण के दौरान लगभग 13 मिलियन नागरिकों सहित कुल 27 मिलियन सोवियत मारे गये। नाज़ीयों के द्वारा नागरिकों को सामूहिक रूप से इकट्ठा कर जला दिया गया या गोली मार दी गई। क्योंकि नाज़ी स्लॅव लोगों को ‘हीन-मानव‘ मानते थे, अतः यह तो नस्ल-लक्षित हत्याकांड़ था।

हालांकि यह कहना गलत होगा कि इस लड़ाई में सोवियत अकेले लड़े। सोवियत संघ को रसद और हथियार आपूर्ति करने के लिए बड़ी जोखिम के साथ कई जहाज सोवियत बंदरगाहों पर पहुँचे। मित्र देशों की गतिविधियां वास्तविक लड़ाई में केवल कुछ क्षेत्रों तक सीमित थी। किंतु कई और देशों को अपने सुनसान तटों की रक्षा करनी पड़ी। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि सोवियत संघ ने बड़े नौसैनिक अभियानों में हिस्सा नहीं लिया और रणनीतिक बमबारी में भी उसका कोई प्रभाव न था और न ही उसने जापान को हराने में योगदान दिया। 

आक्रमण के लिए जापानियों का तैयार होनाः जापानियों ने पर्ल हार्बर पर आक्रमण के लिए बहुत बड़ी तैयारी और अभ्यास किया। वे जानते थे कि उनकी योजना भारी जोखिम से भरी है। सफलता की संभावना पूर्णतः इस बात पर निर्भर थी की वे अपनी योजना को कितना गुप्त रख सकते हैं। 

26 नवंम्बर 1941 को वाइस एडमिरल चुईची नागुमो के नेतृत्व में जापानी लड़ाकों ने कुरील के ईटोरोफु बंदरगाह, जो जापान के उत्तर पूर्व मे स्थित है, से प्रशांत महासागर के लिए अपनी 3000 मील यात्रा प्रारंभ की। 6 विमानवाहक पोत, 9 बमवर्षक जहाज, 3 युद्धजहाज, 2 भारी क्रूजर, 1 हल्का क्रूजर और 3 पनडुब्बियां लेकर पूरे प्रशांत महासागर को पार करना आसान कार्य नहीं था। 

इस बात से चिंतित होकर कि उन्हें किसी और जहाज के द्वारा पहचान नहीं लिया जाये, जापनी नौसेना ने लगातार अपना रास्ता बदला और व्यापारिक समुद्री रास्ते को अनदेखा किया। लगभग 10 दिनों तक समुद्र में रहने के बाद आक्रमण दस्ते सुरक्षित रूप से लक्ष्य पर पहुँच गये। वे ओआहू (हवाई द्वीप) से 230 मील उत्तर में पहुँचे। 

7 दिसंबर 1941 की सुबह जापानियों ने पर्ल हार्बर पर आक्रमण शुरु किया। सुबह 6 बजे जापानी विमानवाहक पोतों से बमवर्षकों ने उड़ान भरी और बमबारी शुरू करी। पर्ल हार्बर के आक्रमण के पहले चरण में 183 जापानी बमवर्षकों ने उड़ान भरी। 

सुबह 7ः15 बजे, जापानी विमानवाहक पोतों ने पर्ल हार्बर पर दूसरे दौर की बमबारी शुरू की जिसमें 167 अतिरिक्त विमानों को और जोड़ा गया। 

जापानी आक्रमण के पहले चरण में उन्होने अमेरिका के प्रमुख नौसेनिक अड्डे पर्ल हार्बर पर (जो हवाई द्वीप के दक्षिण में स्थित है) पर 7 दिसम्बर 1941 को 7ः55 बजे आक्रमण किया। पर्ल हार्बर पर पहला बम गिराये जाने के पहले हवाई आक्रमण के नायक कमाण्डर मित्सुओ फुचिड़ा ने कहा ‘‘टोरा! टोरा! टोरा!’’ जिसका अर्थ था बाघ! बाघ! बाघ! जो कि एक कूट संदेश था, जिसका अर्थ था कि जापानियों ने अमेरिकियों को पूरी तरह आश्चर्यचकित कर दिया। 

सुबह 8 बजे पर्ल हार्बर के प्रभारी एडमिरल हसबण्ड कीमेल ने सारी अमेरीकी नौसेनिक बेड़ों को एक संदेश भेजा, ‘‘पर्ल हार्बर पर हवाई आक्रमण हुआ है। यह कोई अभ्यास नहीं है।‘‘

युद्धपोत पंक्ति पर आक्रमणः जापानी उम्मीद कर रहे थे कि वे पर्ल हार्बर में विमानवाहक पोतों पर आक्रमण करेंगे किंतु विमान वाहकपोत समुद्र में गये हुए थे। अगला बड़ा लक्ष्य युद्धपोत ही थे। 

7 दिसम्बर 1941 की सुबह वहां 8 यू.एस. युद्धपोत तैनात थे जिनमें से 7 एक ही पंक्ति में तैनात थे जिसे ‘‘युद्धपोतपंक्ति’’ कहा जाता था। एक अन्य पेनसिलवेनिया, सुधार कार्य के लिए गया हुआ था। कोलोरेडो नामक एक अन्य युद्धपोत भी उस दिन पर्ल हार्बर में नहीं था।

चूँकि जापानी आक्रमण पूरी तरह से अचानक हुआ था इसलिए टॉरपीडो और विमानों द्वारा गिराये बम उनके लक्ष्य पर ही गिरे। इसमें बहुत बड़ी मात्रा में क्षति हुई। यद्यपि प्रत्येक युद्धपोत पर तैनात नौसेनिकों ने अपने जहाजों को बचाने का प्रयास किया; किंतु फिर भी उनमें से कुछ डूब ही गये। नेवाडा, एरीज़ोना, टेनीसी, वेस्ट वरजीनिया, मेरीलैण्ड, ओकलाहोमा और कैलिफोर्निया, ये सात अमेरीकी युद्धपोत मौजूद थे। 

युद्धपोत पंक्ति पर हवाई आक्रमण के अतिरिक्त जापानियों ने 5 छोटे आकार की पनडुब्बियों से भी आक्रमण किये। यह छोटी पनडुब्बियां 78 फीट लंबी और 6 फीट चौड़ी थीं जिसमें 2 लोग बैठ सकते थे। ये बड़ी आसानी से पर्ल हार्बर में घुस कर युद्धपोतों पर आक्रमण में मदद करने वाली थीं। यद्यपि सारी 5 छोटी पनडुब्बियां पर्ल हार्बर पर आक्रमण के दौरन डुब गईं। 

हवाई क्षेत्र पर आक्रमणः ओआहू में अमेरिकी विमानों पर आक्रमण करना जापानी योजना का एक प्रमुख हिस्सा था। यदि जापानी अमेरीकी हवाई बेड़े के बड़े हिस्से को नष्ट करने में सफल हो जाते, तो वे पर्ल हार्बर के आकाश पर बिना रूकावट के उड़ सकते थे। साथ ही इस जापानी आक्रमण का प्रतिउत्तर भी अमेरिकियों के लिए मुश्किल हो जाता। 

इसलिए पर्ल हार्बर पहुंचने वाले जापानी विमानों के एक हिस्से को 7 बजकर 55 मिनट पर आदेश दिया गया कि वे पर्ल हार्बर के आसपास के हवाई अड्डों पर आक्रमण करें। 

जैसे ही जापानी विमान हवाई अड्डों के पास पहुंचे, उन्होंने पाया कि कई सारे अमेरीकी लड़ाकू विमान पंक्तिबद्ध होकर वहां खडे़ थे, जो उनके लक्ष्य को आसान बना रहा था। जापानियों ने जहाजों, हैंगर्स और आसपास की प्रमुख इमारतों को निशाना बनाते हुए बमबारी की। 

जब तक अमेरीकी सैनिक यह समझ पाते कि उनके हवाई बेस पर क्या हो रहा है तब तक उनके पास करने के लिए कुछ न बचा। जापानियों ने अमरीकी विमानों को नष्ट करने में बहुत बड़ी सफलता हासिल की। कुछ सैनिकों ने अपनी मशीनगन उठाकर आक्रमण करते जहाजों पर गोलिया भी चलाईं।

केवल कुछ मुट्ठी-भर अमेरीकी लड़ाकू पायलेट अपने जहाजों को उड़ाने में सफल हुये थे। वे कुछ जापानी जहाजों को निशाना बनाने में सफल हुये किंतु संख्या में अमेरिकी बहुत कम पड़ गये। 

पर्ल हार्बर पर आक्रमण पूर्णः 9ः45 मिनट तक, केवल दो घण्टों में, जापानी जहाज जो पर्ल हार्बर के लिए उड़े थे, वापस अपने विमानवाहक पोत में आ गये। पर्ल हार्बर पर आक्रमण सम्पन्न हुआ। सारे जापानी जहाज उनके पोत पर 12ः14 मिनट तक पहुंच गये, और केवल 1 घण्टे के भीतर जापानी सेनायें अपने देष की लंबी यात्रा लौट पड़ीं।

आक्रमण से क्षतिः केवल 2 घंटों में, जापानियों ने 4 अमेरीकी युद्ध पोत एरिज़ोना, कैलिफोर्निया, ओक्लाहोमा और वेस्ट वर्जीनिया को डुबो दिया था। नेवाडा और दूसरे 3 युद्धपोतां को भी भारी क्षति हुई। इसके अतिरिक्त 3 हल्के क्रूजर, 4 बमवर्षक, 1 माइनलेयर तथा 4 अन्य जहाज भी बर्बाद हुए थे।

इसके अतिरिक्त जापानियों ने 188 अमेरिकी विमानों को पूरी तरह से नष्ट कर दिया और 159 को भारी क्षति पहुँचाई। 

इस आक्रमण में अमेरीकियों को जान-माल की भारी क्षति हुई। कुल 2335 अमेरीकी मारे गये और 1143 घायल हुये। 68 नागरिक भी मारे गये और 35 घायल हुये। मृतकों में आधे कर्मचारी एरीज़ोना नामक यु़द्धपोत पर थे जब वहां धमाका हुआ। यह सारी क्षति जापानियों द्वारा की गई जिनके केवल 29 विमान और 5 छोटी पनडुब्बियां नष्ट हुईं। 

4.3 तृतीय चरण (मित्र देशों का प्रतिआक्रमण)

मित्र देशों का इटली पर आक्रमण

उत्तरी अफ्रीका के तटों से शुरू हो यूरोप के नर्म पेट पर हमला अब मित्र देश करने वाले थे। इस आक्रमण का पूर्वाभ्यास सिसली द्वीप को कब्ज़ा कर 10 जुलाई 1943 को देखा गया। इसने मुसोलिनी की हवा निकाल दी व उसे 25 जुलाई 1943 को फासिस्ट ग्रांड काउन्सील के द्वारा पद से हटाया गया। 

उसे गिरफ्तार कर लिया गया और एक अलग-थलग बने पहाड़ी रिसॉर्ट में नज़रबंद किया गया। उसका पदभार ग्रहण करने वाले जनरल पियाट्रो बेदोग्लोय ने मित्र देशों से 8 सितम्बर 1943 को एक सैन्य कर ली।

जर्मनी इस दुविधा की स्थिति में घुसा और उसने मजबूत रक्षात्मक पंक्ति बनाते हुए इतालवी पंक्तियों को शस्त्रहीन कर दिया। 

9 सितम्बर 1943 को मित्र देशों की सेनाओं ने इटली की मुख्य भूमि में प्रवेश किया। अमेरिकन सैनिक सालेर्नो और अंग्रेज़ सैनिक टेरेन्टो पहुँचे। 

मुसोलिनी को जर्मनी द्वारा बचा लिया गया और उसे उत्तर के एक राज्य में नाज़ीयों की कठपुतली बनाकर बैठा दिया गया। वह इस भूमिका में तब तक रहा जब तक कि उसे 28 अप्रैल 1945 को भीड़ द्वारा पकड़कर मार नहीं दिया। 

जर्मनी ने पहाड़ों में गुस्टाव लाईन नामक एक सुरक्षित क्षेत्र बनाया। मित्र देशों ने इस रेखा के दोनों ओर आक्रमण किया, जहाँ दक्षिण से मोन्टे केसिनों, व उत्तर से एंज़ियो की ओर से आक्रमण किया गया। 

नॉर्मन्डी में घुसने के दो दिन पूर्व, 4 जून 1944 को, मित्र देश अंततः रोम में घुसे। जर्मनी के सैनिक उत्तर की और गोथिक लाईन में पुर्नगठित हुए। अगस्त में अंग्रेज सैनिकों के फ्रांस पहुँचने के बाद उन्होनें जर्मनों को धमकाते हुए इस रेखा पर 10 सितम्बर को आक्रमण किया। यह आक्रमण 29 अप्रैल तक जारी रहा जब तक कि जर्मन सैनिकों ने इटली में समर्पण नहीं कर दिया। दो दिनों पूर्व मुसोलिनी भी पकड़ा गया था।

मित्र देशों का फ्रांस अभियानः रोम के पतन के साथ लम्बे समय से प्रतीरक्षारत फ्रांस का अभियान प्रारंभ हुआ। 6 जून 1944 को नॉर्मन्डी के तटों पर सैनिकों ने ऑपरेशन नेपच्यून प्रारंभ किया। 2 महीने लम्बे चलने वाले इस अभियान में अमेरिकी, ब्रिटिश और केनेडियन सैनिकों ने धीरे-धीरे मोर्चाबंदी करके जर्मन सेना को पराजित कर दिया। अंतिम परिणाम आश्चर्यजनक रूप से दर्शनीय था जिसमें जनरल पैटन के नेतृत्व में अमेरिकी सैनिकों ने फ्रांस से जर्मन सीमा तक कूच किया। जो जर्मन सेनायें नॉर्मण्डी में लड़ रहीं थीं, उन्हें फैलेस में घेर लिया गया।

जर्मनी की अधोसंरचना और शहरों पर किये गये लगातार बमबारी के कारण उसे बहुत बड़ी हानि उठानी पड़ी व कई जानें गईं। आंतरिक रूप से, हिटलर पर कई हत्या के प्रयास किये गये जिसमें वह बच गया। उनमें सबसे गम्भीर 20 जुलाई का हमला था वह जिसमें वह हल्का घायल भी हुआ। 

ऑपरेशन नेपच्यून का साथ दिया दक्षिणी फ्रांस में किये गये एक आक्रमण ने जिसका उपनाम आपरेशन ड्रैगन था-यह एक सम्मिलित ऑपरेशन था जिसे ऑपरेशन ओवरलॉर्ड भी कहा जाता है। सितम्बर के अंत तक तीन मित्र दशों की सेनायें जर्मनी सुरक्षा पंक्ति के सामने पश्चिम में खड़ी थीं। यह आशावाद फैलने लगा था कि 1944 के अंत तक यूरोप में यह युद्ध समाप्त हो जायेगा। 

ऑपरेशन मार्केट गार्डन के द्वारा एक प्रयास किया गया कि स्थिति नियंत्रण में आ सके। मित्र देशों ने हवाई आक्रमण के द्वारा सेतुओं को जीतने की कोशिश की जिससे की नीदरलैंड को जर्मनी से आज़ाद कराया जा सके। दुर्भाग्यवश, यहां जर्मन वायुसेना की मौजूदगी भारी पड़ी और ब्रिटेन की पहली एयरबोर्न डिवीज़न पूरी तरह नष्ट कर दी गई। 

1944 की कड़ाकेदार सर्दियां मित्र देशों के लिए पश्चिमी मोर्च पर बुरी परिस्थितियाँ तैयार कर रही थीं। हर्ट्जैन फॉरेस्ट युद्ध में अमेरिकी सैनिक विरोधियों से उलझे हुए थे। वे जब तक रक्षात्मक अवस्था में थे, मित्र देशों के लिए आगे बढ़ना उतना कठिन हो रहा था। 

यह परिस्थितियाँ तब जाकर बदलीं जब 16 दिसम्बर 1944 को जर्मन सैनिकों ने एक बड़ा प्रतिआक्रमण किया। इसे आर्डेन्स हमला (बैटल ऑफ द बल्ज) भी कहा जाता है। इसमें कुछ अमेरिकी इकाईयों को जर्मन सैनिकों द्वारा घेर लिया गया।

किंतु अंततः मित्र देशों की सेनायें जर्मनों को पीछे धकेलने मे समर्थ हुईं, जो कि युद्ध में उनके लिए अब एक बड़ी सफलता थी। मित्र देशों के लिए अंतिम बड़ी बाधा राईन नदी थी, जिसे अप्रैल 1945 में पार कर मध्य जर्मनी के रास्ते खोल दिये गये। अंतिम जर्मन सेनाओं को पश्चिम में रूह्र नामक स्थान पर घेर लिया गया। 

4.4 युद्ध का अंत

मित्र देश की सेनाओं में बड़ी संख्या में धुरी देश के सैनिकों ने बंदी बनाना शुरु किया। अप्रैल की शुरुआत में पश्चिमी जर्मनी में सैकड़ां हजारों दुश्मन सैनिकों को बंदी बनाने के लिए पहली ‘‘राईनवाइसनलाजर्स‘‘ की स्थापना की गई। इन पकड़े गये और समर्पण करने वाले सैनिकों के साथ जेनेवा समझौते के अनुसार व्यवहार किया जाना चाहिए था किंतु अक्टूबर आते-आते, उनमें से हजारों भूख, मौसम और बीमारी से मारे गये। 

जर्मन फिनलैण्ड से गयेः 25 अप्रैल 1945 को, आखरी जर्मन सैनिकों को भी फिनलैण्ड से निष्कासित कर दिया गया औैर वे नार्वे पहुंचा दिये गये।

मुसोलिनी की मृत्युः 25 अप्रैल 1945 को जैसे ही मित्र देशों की सेनायें मिलान में घुसीं, इटली के तानाशाह मुसोलिनी को 27 अप्रैल को लोगों द्वारा पकड़ लिया गया। यह विवाद का विषय है कि वह इटली से स्विट्झरलैण्ड की ओर जाने की कोशिश कर रहा था और जर्मन एण्टी-एयरक्राफ्ट बटालियन के साथ यात्रा कर रहा था। 28 अप्रैल को मीजे़ग्रा में मुसोलिनी को मार दिया गया। दूसरे फासीवादी नेताओं को डोंगो ले जाकर मारा गया। इनके मृत शरीरों को मिलान ले जाकर शहर के प्रमुख चौराहों पर लोगों को बताने के लिए टांग दिया गया। 29 अप्रैल को, रोडोल्फो ग्रेज़ीयानी ने सारे फासीवादी सैनिकों के साथ समर्पण कर दिया। इसमें सैन्य समूह लिग्यूरिया भी शामिल था। ग्रेजीयानी मुसोलिनी की इतालियन सोशल रिपब्लिक नामक कठपुतली सरकार में रक्षा मंत्री था।

हिटलर की मृत्युः 30 अप्रैल को, अपने सिर के उपर चल रही बर्लिन की लड़ाई के दौरान और मुसोलिनी के अंत को देखते हुए जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर ने लम्बे समय से उसकी प्रेमिका रही ईवा ब्राउन (जिससे उसने 40 घण्टे पहले ही विवाह किया था) के साथ फ्युहररबंकर (राजा की खंदक) में आत्महत्या कर ली। अपनी विरासत में हिटलर ने हर्मन गोरींग और हैनरीक हिमलर, जो कि उसकी सरकार में हिटलर के बाद सबसे बड़े नेता थे के अधिकारों को नकार दिया और उनके स्थान पर हिटलर ने एडमिरल कार्ल डोनित्ज को जर्मनी का नया राष्ट्रपति और जोसेफ गोबेल्स को नया चांसलर नियुक्त किया। गोबेल्स ने भी अगले दिन आत्महत्या कर ली और डोनित्ज जर्मनी का एक मात्र नेता बन गया। 

इटली में जर्मन सेना का आत्मसमर्पणः 1 मई को जनरल कार्ल वुल्फ और आर्मी ग्रुप सी के प्रमुख जनरल हैनरिक वोन ने पश्चिमी मित्र देशों से लम्बे अनाधिकृत गुप्त समझौते, जिसका नाम आपरेशन सनराइस था, और जिसका उद्देश्य सोवियत संघ के साथ एक अलग समझौते पर पहुचने की कोशिश था, के बाद इटली में जर्मन सेनाओं को आदेश दिया कि वे लड़ाई बंद कर दें और आत्मसमर्पण के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर दें जिनमें कहा गया था कि इटली में युद्धरत सारे जर्मन सैनिकों को बिना किसी शर्त के मित्र देशों के सामने समर्पण करना है।

बर्लिन में जर्मन सेना आत्मसमर्पणः बर्लिन की लड़ाई 2 मई को समाप्त हुई। उसी दिन सेना प्रमुख हैल्मथ वेडलिंग ने बिना किसी शर्त के सोवियत जनरल वेज़ीली चुईकोव के सामने समर्पण कर दिया। उसी दिन सैन्य समूह विस्तुला के सैन्य अधिकारियों ने भी समर्पण कर दिया। 

बर्लिन की लड़ाई हारने के बाद और एडोल्फ हिटलर की मौत के कारण, जर्मन सेनाओं ने संसार के सभी देशों में समर्पण करना चालू कर दिया। 

डोनित्ज सरकार को आइज़न हॉवर द्वारा बर्खास्त करनाः कार्ल डोनित्ज इस तरह कार्य कर रहा था कि जैसे की वह जर्मन सरकार का प्रमुख हो। किंतु उसकी फ्लेंस्बर्ग सरकार को मित्र देशों के द्वारा मान्यता नहीं प्राप्त थी। 12 मई को मित्र देशों की एक टीम फ्लेंस्बर्ग पहुँची और एक यात्री जहाज पेट्रीया पर रूकी। सम्पर्क अधिकारियों और मित्र देशों के सैन्य प्रमुखों को यह समझ में आ गया की फ्लेंस्बर्ग सरकार के साथ किसी सम्पर्क की जरूरत नहीं है और इसके सदस्यों को गिरफ्तार किया जाना चाहिए। 23 मई को 'SHEF' के आदेशों का पालन करते हुए और सोवियत अनुमति लेकर, मेजर जर्नल रूक्स ने डोनित्ज को संदेश भेजा कि वह और उसके साथी गिरफ्तार किये जाते है तथा उनकी सरकार को बर्खास्त किया जाता है। मित्र देशों के साथ एक समस्या थी, क्योंकि उन्हांने यह महसूस किया था कि यद्यपि जर्मन सैन्य बलों ने बिना किसा शर्त के समर्पण किया था तो भी 'SHEF' उन दस्तावेजों, का उपयोग करने में असफल हो गया था जिसे ‘यूरोपीयन एडवाइजरी कमीशन’ ने तैयार किया था और इसलिए औपचारिक तौर पर किसी जर्मन नागरिक सरकार ने समर्पण नहीं किया था। इसे एक महत्वपूर्ण मुद्दा माना गया क्योंकि 1918 में केवल नागरिक सरकार ने समर्पण किया था सैन्य ताकतों ने नहीं और इसे हिटलर ने ‘पीठ में छुरा घोंपने‘ के तर्क के साथ भुनाया था। मित्र देश जर्मन जनता को भविष्य के लिए और कोई अवसर नहीं देना चाहते थे। 

जर्मनी की पराजय की घोषणा और वहां की सत्ता पर मित्र देशों का अधिकार संबंधी घोषणा पर 5 जून को चार मित्र देशों द्वारा हस्ताक्षर किये गये। इसमें निम्नलिखित चीजें शामिल थींः

संयुक्त राज्य अमेरीका, सोवियत संघ, युनाइटेड किंगडम और फ्रांस की प्रावधानिक सरकार, अब से जर्मनी की सर्वोच्च शक्ति होंगी जिनके पास जर्मन सरकार, जर्मनी के किसी भी राज्य की सर्वोच्च सत्ता और स्थानीय प्राधिकरणों के सारे अधिकार होंगे। किंतु जर्मनी का विलय नहीं किया जा रहा है।

अमेरिका का गृह विभाग, संधियां और अन्य अंतर्राष्ट्रीय समझौते (नं. 1520): 2 अगस्त 1945 को पोस्टडैम समझौते पर हस्ताक्षर किये गये। इसमें कहा गया कि मित्र देश युद्ध के बाद की जर्मन सरकार, जर्मन सीमाओं और जर्मनी की बाकी सारी व्यवस्थाओं की योजना बनायेंगे। उन्होंने आदेश दिया कि करोड़ों की संख्या में जो जर्मन नागरिक जर्मन के बाहर हैं उन्हें पुनः जर्मनी में बसाया जायेगा तथा जर्मनी का पूर्णतः निशस्त्रीकरण कर नाज़ीवाद को समाप्त किया जायेगा। 

संयुक्त राज्य अमेरीका और जर्मनी के बीच शत्रुता और विराम की घोषणा अमेरीकी राष्ट्रपति ट्रूमन मेन के द्वारा 13 दिसंबर 1946 को की गई। 

पेरिस शांति सम्मेलन 10 मई 1947 को समाप्त हुआ जिसमें युद्ध के समय के मित्र देशों के साथ धुरी शक्तियों इटली, रोमानिया, हंगेरी, बुलगारिया और फिनलैण्ड ने हस्ताक्षर किये।

संघीय जर्मन गणतंत्र की स्थापना 23 मई 1949 को की गई और तभी इसके आधारभूत नियम भी लागू किये गये। इसकी पहली सरकार का गठन 20 सितम्बर 1949 को हुआ जबकि लोकतांत्रिक जर्मन गणराज्य की स्थापना 7 अक्टूबर को हुई । 


जर्मनी के साथ युद्ध समाप्ति की घोषणाः 22 नवंबर 1949 को पीटर्सबर्ग समझौते में पश्चिमी जर्मनी सरकार ने कहा कि वह युद्ध स्थिति समाप्त करना चाहती है किंतु उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया गया। अमेरीका जर्मनी के साथ कानूनी कारणों से युद्ध की स्थिति बनाये रखना चाहता था और यद्यपि इसे लेकर उसका रूख नर्म हो गया था तो भी इसे निलंबित नहीं किया गया था क्योंकि ‘‘अमेरिका पश्चिमी जर्मनी में अपने सैनिकों को बनाये रखने का एक कानूनी अधिकार बनाये रखना चाहता था‘‘। फ्रांस, इंग्लैण्ड और अमेरीका के विदेश मंत्रियों की एक सभा में, जो 12 सितम्बर से 19 दिसम्बर 1950 तक न्यूयार्क में हुई, यह कहा गया कि शीत युद्ध में पश्चिमी जर्मनी की स्थिति को मजबूत करने के लिए अन्य कदमों के साथ पश्चिमी देश जर्मनी के साथ युद्ध समाप्ति करने की वैधानिक घोषणा करते हैं। 1951 में कई पश्चिमी देशों ने जर्मनी के साथ युद्ध समाप्ती की घोषणा कर दी। आस्ट्रेलिया ने 9 जुलाई, कनाड़ा, इटली, न्यूजीलैण्ड और निदरलैण्ड ने 26 जुलाई, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैण्ड ने 9 जुलाई, और अमेरीका ने 19 अक्टूबर को युद्ध समाप्ति की घोषणा की। जर्मनी और सोवियत संघ के बीच युद्ध की स्थिति की समाप्ति की घोषणा 1955 के शुरूआत में हो सकी। 

संघीय जर्मन गणतंत्र को ‘‘एक सम्प्रभु राज्य के अधिकार‘‘ 5 मई 1955 को बॉन-पेरिस घोषणा के तहत दिये गये। संधि ने पश्चिमी जर्मनी के सैन्य अधिग्रहण को समाप्त कर दिया किंतु तीनों ही शक्तियों को पश्चिमी बर्लिन में कुछ विशेष अधिकार मिल रहे। 

जर्मनी के साथ अंतिम संधि की शर्तेंः इस शांति संधि की शर्तों के अनुसार, चारों शक्तियों के पास जर्मनी के जो भी अधिकार थे, उनका पूर्ण त्याग कर दिया गया, जिसमें बर्लिन भी शामिल था। इसके परिणामस्वरूप जर्मनी पूर्ण सम्प्रभु राज्य 15 मार्च 1991 को बन सका। संधि की शर्तों के अनुसार मित्र देशों को 1994 के अंत तक बर्लिन में अपनी सेनायें रखने का अधिकार था। संधि के अनुसार इन सेनाओं को इस तिथि तक ही हटाया जाना था। यू.एन. के चार्टर की धारा 53 और 107 के अनुसार जर्मनी संयुक्त राज्य के संरक्षण में रहा जिसे युद्ध के अंत के बाद संशोधित नहीं किया गया था। 

5.0 जापान का आत्मसमर्पण

1945 की गर्मियों तक जापान की हार सुनिश्चित हो चुकी थी। जापानी नौ सेना और वायु सेना नष्ट हो चुकी थी। मित्र देशों की नौसेनिक घेराबंदी और जापानी शहरों पर ती्रव बमबारी के कारण जापान शहर और इसकी अर्थव्यवस्था बर्बाद हो चुके थे। जून के अंत तक ओकीनावा द्वीप पर कब्जा कर लिया था। यह ऐसा द्वीप था जहां से मित्र देशों की सेनायें जापान की मुख्य भूमि पर आक्रमण कर सकती थीं। अमेरीकी जनरल डगलस मैकआर्थर आक्रमण का प्रभारी था, जिसे ‘‘ऑपरेशन ओलम्पिक‘‘ नाम दिया गया था और यह नवंबर 1945 के लिए तक निर्धारित था। 

जापान का आक्रमण अभी तक का सबसे बड़ा नौसेनिक आक्रमण होने वाला था किंतु 16 जुलाई को संयुक्त राज्य अमेरीका ने न्यूमैक्सिको के मरूस्थल में पहला परमाणु परीक्षण किया। 10 दिनों बाद ही मित्र देशों ने पोस्टडैम घोषणा में सभी जापानी सशस्त्र बलों के बिना किसी शर्त समर्पण की मांग की, जिसके असफल होने पर सभी जापानी सैन्य बलों और सम्पूर्ण जापान के विनाश को अवश्यम्भावी बताया गया। 28 जुलाई को जापानी प्रधानमंत्री केन्तारों सुजुकी ने प्रेस को बताया कि उनकी सरकार मित्र देशों की चेतावनी की ओर कोई ध्यान नहीं दे रही है। इस बीच अमेरीकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमन ने विनाश के आदेश दे दिये और 6 अगस्त को अमेरीकी बमवर्षक विमान बी-29 (इनोला गे) ने जापानी शहर हिरोषिमा पर परमाणु बम गिरा दिया जिसमें एक अनुमान के अनुसार 80 हजार लोग मारे गये तथा हजारों लोग घायल हो गये।


हिरोशिमा आक्रमण के पश्चात जापान की सर्वोच्च युद्ध परिषद के एक गुट ने पौस्टडैम घोषणा को स्वीकार करने की बात कही किंतु बहुमत ने बिना किसी शर्त समर्पण को नकार दिया। 8 अगस्त को जापान की बुरी परिस्थितियों में एक मोड़ आया जब सोवियत संघ ने भी जापान के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया। अगले ही दिन सोवियत सेनाओं ने मंचूरिया पर आक्रमण कर जापानियों को पीछे हटने पर मजबूर किया और इसी बीच एक और परमाणु बम जापान के तटीय शहर नागासाकी पर गिरा दिया गया।

15 अगस्त को सुबह-सुबह एक सैन्य समूह ने, मेजर केंजी हातानाका के नेतृत्व में बगावत कर दी। विद्रोहियों ने शाही महल पर नियंत्रण कर लिया और प्रधानमंत्री सुजुकी का निवास भी जला दिया। किंतु विद्रोह शीघ्र कुचला गया। उसी दिन दोपहर में हिराहितो ने राष्ट्रीय रेडियो पर घोषणा की कि, जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया है। उनकी अपरिचित सी राजसी भाषा में ‘हमने एक महान शांति का मार्ग खोज लिया है‘। अमेरीका ने शीघ्र्र ही जापान का आत्मसमर्पण स्वीकार कर लिया।

2 सितम्बर रविवार के दिन, 250 से ज्यादा मित्र देशों के युद्धक जहाजों ने टोकियो की खाड़ी में लंगर डाला। अमेरीका, ब्रिटेन, सोवियत संघ और चीन के झंडे मिसोरी पोत पर लहराने लगे। सुबह 9 बजे जापान के विदेश मंत्री मामोरू शीगेमित्सु ने जापानी सरकार की ओर से हस्ताक्षर किये। जापानी सैन्य बलों की ओर से जनरल योशीजीरो ने हस्ताक्षर किये। उनके सहयोगी रोते रहे।

संयुक्त राष्ट्र की ओर से सर्वोच्च कमाण्डर मैकआर्थर ने हस्ताक्षर करते हुए घोषणा की, ‘मैं आशा करता हूँ और वास्तव में यह सम्पूर्ण मानव प्रजाति की आशा है कि इस अवसर से पिछली बर्बादियों और खून की नदियों में से, एक बेहतर भविष्य का निर्माण हो सकेगा‘। अमेरीका, चीन, ब्रिटेन, रूस, आस्ट्रेलिया, कनाड़ा, फ्रांस, निदरलैण्ड और न्यूजीलैण्ड की ओर से भी हस्ताक्षर किये गये। अमेरिका की ओर से एडमिरल निमिट्ज़ ने दस्तखत किये। इस तरह यह 20 मिनट का समारोह समाप्त हुआ और इस बीच सूर्य भी बादलों के झुरमुट से बाहर आ गया।

मानवीय इतिहास का सबसे विनाशकारी युद्ध समाप्त हो गया था!



 



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PT's IAS Academy: यूपीएससी तैयारी - विश्व इतिहास की मुख्य घटनाएं - व्याख्यान - 11
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