यूपीएससी तैयारी - अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं - व्याख्यान - 9

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विश्व व्यापार संगठन, विशाल-एफटीए और भारत

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1.0 विश्व व्यापार संगठन के मुख्य सिद्धांत  

आइये हम उन मुख्य सिद्धांतों को दोहराएं जिनके आधार पर विश्व व्यापार संगठन की स्थापना हुई है। 

विश्व व्यापार संगठन के तत्वावधान में निर्मित वैश्विक व्यापार प्रणाली बिना किसी भेदभाव की होनी चाहिए, यह अधिक मुक्त, पूर्वकथनीय, अधिक प्रतिस्पर्धात्मक, और कम विकसित देशों के लिए अधिक लाभदायक होनी चाहिए। 

अब एक बार फिर हम विश्व व्यापार संगठन के समझौतों की मूलभूत संरचना का संदर्भ लेते हैं। सरल शब्दों में यह चित्र में दिखती है।

अब हम शीघ्रता से विश्व व्यापार संगठन के मूलभूत सिद्धांतों का अवलोकन करते हैं। ये वे स्तंभ हैं जिनपर यह संगठन खड़ा है। 

1.1 सबसे पसंदीदा देश (एमएफएन) की अवधारणा

इसका संबंध अन्य सभी के साथ समान व्यवहार करने से है। विश्व व्यापार संगठन समझौतों के तहत सामान्य तौर पर देश अपने व्यापार भागीदारों के बीच भेदभाव नहीं कर सकते। यदि आप किसी एक देश को विशेष अनुग्रह प्रदान करते हैं (जैसे उनके किसी एक उत्पाद पर अल्प सीमा शुल्क दर लगाना) तो आपको विश्व व्यापार संगठन के सभी सदस्य देशों के साथ यही व्यवहार करना होगा। इस सिद्धांत को सबसे पसंदीदा देश (एमएफएन) आचरण कहा जाता है। यह इतना महत्वपूर्ण है कि यह प्रशुल्कों और व्यापार पर सामान्य समझौते (गैट) का प्रथम अनुच्छेद है, जो वस्तु व्यापार को शासित करता है। एमएफएन सेवा व्यापार पर सामान्य समझौते (जीएटीस) (अनुच्छेद 2) और बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार संबंधी पहलुओं पर समझौते (ट्रिप्स) (अनुच्छेद 4) में भी एक प्राथमिकता है, हालांकि प्रत्येक समझौते में इस सिद्धांत को कुछ हद तक अलग प्रकार से प्रबंधित किया जाता है। ये तीनों समझौते एकसाथ मिलकर विश्व व्यापार संगठन द्वारा नियंत्रित किये जाने वाले तीन प्रमुख क्षेत्रों को समाविष्ट करते हैं। 

एमएफएन एक विरोधाभास की तरह प्रतीत होता है। यह विशेष व्यवहार का सुझाव देता है, परंतु विश्व व्यापार संगठन में वास्तव में इसका अर्थ है भेदभाव -रहित - सभी के साथ लगभग समान व्यवहार करना। यदि कोई देश अपने एक व्यापार भागीदार को दिए जा रहे लाभों में सुधार करता है तो उसे वही ‘‘सर्वश्रेष्ठ‘‘ व्यवहार अन्य सभी विश्व व्यापार संगठन सदस्य देशों के साथ भी करना होगा ताकि वे सभी ‘‘सबसे पसंदीदा‘‘ बने रहते हैं। एमएफएन सिद्धांत सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक देश अपने 164 से अधिक साथी सदस्य देशों के साथ समान रूप से व्यवहार करता है। 

1.2 राष्ट्रीय व्यवहारः स्थानीय और विदेशियों के साथ समान व्यवहार 

आयातित और स्थानीय उत्पादित वस्तुओं के साथ एक ही प्रकार का व्यवहार किया जाना चाहिए - कम से कम तब जब विदेशी वस्तुएं बाज़ार में आ चुकी हों। यही नियम विदेशी और घरेलू सेवाओं पर भी लागू किया जाना चाहिए, और विदेशी और स्थानीय व्यापार चिह्नों, कॉपीराइट और पेटेंट्स पर भी। ‘‘राष्ट्रीय व्यवहार‘‘ का सिद्धांत (दूसरों के साथ वही व्यवहार करना जैसे आप अपने नागरिकों के साथ करते हैं) भी विश्व व्यापार संगठन के सभी तीनों प्रमुख समझौतों (गैट के अनुच्छेद 3, गेट्स के अनुच्छेद 17 और ट्रिप्स के अनुच्छेद 3) में मिलता है, हालांकि एक बार फिर, इनमें से प्रत्येक में इसे कुछ हद तक अलग ढंग से नियंत्रित किया जाता है। राष्ट्रीय व्यवहार तभी लागू होता है जब कोई वस्तु, सेवा या बौद्धिक संपदा का मद बाजार में प्रवेश करता है। अतः किसी आयात पर सीमा शुल्क वसूलना राष्ट्रीय व्यवहार का उल्लंघन नहीं है फिर चाहे घरेलू उत्पादों पर समान कर नहीं वसूला जाता हो। 

1.3 अधिक मुक्त व्यापारः चर्चा और बातचीत के माध्यम से धीरे-धीरे 

व्यापार बाधाओं को कम करना व्यापार को प्रोत्साहित करने का सबसे स्पष्ट साधन है। संबंधित बाधाओं में सीमा-शुल्क (या प्रशुल्क) और ऐसे साधन जैसे आयात प्रतिबंध या कोटा जो चयनित रूप से मात्राओं को निर्बंधित करते हैं। 1980 के दशक तक, गैट समझौता वार्ताएं वस्तुओं पर गैर-प्रशुल्क बाधाओं को शामिल करने तक विस्तारित हो गई थीं, साथ ही ये सेवाओं और बौद्धिक संपदा जैसे नए क्षेत्रों तक भी विस्तारित हो गई थीं। बाजारों को खुला करना लाभदायक हो सकता है, परंतु इसके लिए समायोजन भी आवश्यक है। विश्व व्यापार संगठन के समझौते देशों को ‘‘प्रकगतिशील उदारीकरण‘‘ के माध्यम से धीरे-धीरे परिवर्तन शुरू करने की सुविधा प्रदान करते हैं। विकासशील देशों को उनके दायित्वों को पूरा करने के लिए अधिक समय दिया जाता है। 

1.4 पूर्वानुमेयताः बाध्यकारिता और पारदर्शिता के माध्यम से (Predictability)

कई बार कोई व्यापार बाधा खड़ी नहीं करने का आश्वासन भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है जितना महत्वपूर्ण किसी व्यापार बाधा को कम करना होता है, क्योंकि यह आश्वासन व्यापारों को उनके भविष्य के अवसरों का एक अधिक स्पष्ट चित्र प्रदान करता है। स्थिरता और पूर्वानुमेयता के साथ निवेश को प्रोत्साहन मिलता है, रोजगारों का निर्माण होता है और उपभोक्ता प्रतिस्पर्धा के लाभों - विकल्पों और कीमतों - का पूर्ण उपयोग कर सकते हैं। विश्व व्यापार संगठन में जब देश वस्तुओं और सेवाओं के लिए अपने बाजारों को खुला करने पर सहमत होते हैं, तो वे अपनी प्रतिबद्धताओं को ‘‘बाध्यकारी‘‘ बना देते हैं। वस्तुओं के लिए इन बाध्यताओं का अर्थ सीमा शुल्क और प्रशुल्क पर अधिकतम दर निर्धारित करना होता है। कभी-कभी देश आयातों पर उन दरों से कर अधिरोपित करते हैं जो बाध्यकारी दरों से कम होते हैं। यह स्थिति अक्सर विकासशील देशों के संदर्भ में बनती है। विकसित देशों में वास्तव में अधिरोपित दरें और बाध्यकारी दरें समान रहने की स्थिति होती है। कोई भी देश अपनी बाध्यकारिता में परिवर्तन कर सकता है, परंतु ऐसा वह अपने व्यापार भागीदारों के साथ चर्चा करने के बाद ही कर सकता है, जिसका अर्थ यह हो सकता है कि उन्हें होने वाली व्यापार हानि की क्षतिपूर्ति दी जाये।

1.5 निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा का संवर्धन (Promoting fair competition) 

विश्व व्यापार संगठन प्रणाली प्रशुल्कों, और सीमित परिस्थितियों में, अन्य प्रकार के संरक्षण की अनुमति प्रदान करती है। अधिक सटीक दृष्टि से, यह एक खुली, निष्पक्ष और विकृति रहित प्रतिस्पर्धा के प्रति समर्पित व्यवस्था है। भेदभाव रहित व्यापार पर बनाये गए नियम - एमएफएन और राष्ट्रीय व्यवहार - व्यापार की निष्पक्ष स्थितियों को सुनिश्चित करने के लिए बनाये गए हैं। उसी तरह राशिपातन (बाजार की हिस्सेदारी प्राप्त करने के लिए लागत से कम पर निर्यात) और अनुवृत्तियों पर बनाये गए नियम भी इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हैं। मुद्दे काफी जटिल हैं, और नियम यह स्थापित करने का प्रयास करते हैं कि क्या निष्पक्ष है और क्या अनुचित है, और सरकारें किस प्रकार प्रतिक्रिया कर सकती हैं, विशेष रूप से अनुचित व्यापार के कारण हुई क्षति की क्षतिपूर्ति की गणना के अनुरूप अतिरिक्त आयात शुल्क अधिरोपित करके। विश्व व्यापार संगठन के अन्य अनेक समझौतों का उद्देश्य निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा की सहायता करना हैः उदाहरणार्थ कृषि, बौद्धिक संपदा, सेवाओं में। सरकारी खरीद पर समझौता (‘‘एक बहुपक्षीय‘‘ समझौता है क्योंकि इस पर केवल कुछ ही विश्व व्यापार संगठन के सदस्य देशों द्वारा हस्ताक्षर किये गए हैं) प्रतिस्पर्धा के नियमों का विस्तार अनेक देशों की हजारों सरकारी संस्थाओं द्वारा की जाने वाली खरीद पर भी करता है इत्यादि।

2.0 कृषि - विश्व व्यापार संगठन का सर्वाधिक विवादित मुद्दा 

विश्व व्यापार संगठन का कृषि पर समझौता (AoA)  वर्ष 1994 में संपन्न हुआ और इसका लक्ष्य व्यापार बाधाओं को दूर करने और वैश्विक बाजारों में पारदर्शी पहुँच और उसके एकीकरण का था। यह समझौता काफी जटिल और विवादित है; अक्सर इसकी आलोचना यह की जाती है कि यह कमजोर देशों का शोषण करने के लिए विकसित देशों के हाथों में उपलब्ध साधन है। इसके कुछ पहलुओं के संबंध में वार्ताओं का दौर अभी भी जारी है। 

कृषि समझौता (एओए): कृषि समझौता तीन स्तंभों पर खडा है, अर्थात घरेलू सहायता, बाजार पहुँच और निर्यात अनुवृत्तियां। 

2.1 घरेलू सहायता (Domestic Support) 

इसका संबंध न्यूनतम समर्थन मूल्य या निविष्टि अनुवृत्तियों के रूप में ऐसी अनुवृत्तियों से है जो प्रत्यक्ष और उत्पाद विशिष्ट हैं। इसके तहत अनुवृत्तियों को तीन बक्सों में वर्गीकृत किया गया है - 

  • हरा बक्सा - ऐसी अनुवृत्तियां जो बाजार को न्यूनतम विकृत करती हैं या बिलकुल विकृत नहीं करतीं, इसमें उत्पादन से पृथक किये हुए उपाय शामिल हैं जैसे आय समर्थक भुगतान (आय पृथक सहायता), सुरक्षा - नेट कार्यक्रम, पर्यावरणीय कार्यक्रमों के तहत भुगतान, और कृषि अनुसंधान और विकास अनुवृत्तियां। 
  • नीला बक्सा - इसके तहत केवल ‘‘उत्पादन प्रतिबंधक अनुवृत्तियों‘‘ को अनुमति दी जाती है। इनमें एक आधार वर्ष में रकबे, उत्पादन या पशुधन की संख्या के आधार पर किये गए भुगतान शामिल हैं। 
  • तृणमणि (एम्बर) बक्सा - ऐसी अनुवृत्तियां जो बाजार को विकृत करने वाली होती हैं और इनपर अंकुश लगाना आवश्यक है। 

भारत के लिए हरे बक्से की समस्या (और अमेरिका द्वारा इसका किया गया दुरूपयोग): भारत में कृषक को विशिष्ट उत्पाद के लिए सहायता प्रदान की जाती है और चावल, गेहूं इत्यादि के लिए भिन्न-भिन्न समर्थन मूल्य हैं। दूसरी ओर, कृषकों को आय समर्थन एकसमान रूप से प्राप्त है और इसमें फसल का कोई संबंध नहीं होता। परंतु अमेरिका ने अनुवृत्तियों को उत्पादन से पृथक करके इस अवसर का पूरी तरह से शोषण किया है और आज उसकी हरे बक्से की अनुवृत्तियां उसकी कुल अनुवृत्तियों के लगभग 90 प्रतिशत हैं। अमेरिका ऐसा इसलिए कर सका क्योंकि उसे खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की आवश्यकता नहीं है, (वह एक समृद्ध देश है) उसकी कृषि अर्थव्यवस्था समृद्ध है, और कृषक बाजार के बलों के प्रति बेहतर प्रतिक्रिया प्रदान करने और अन्य फसलों की ओर मुडने में सक्षम हैं। परंतु भारत में घरेलू समर्थन किसानों को आजीविका गारंटी करता है साथ ही वह खाद्य सुरक्षा और पर्याप्तता भी सुनिश्चित करता है। भारत का न्यूनतम समर्थन मूल्य शासन ऐसी विशिष्ट फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहित करता है जिनकी मांग अधिक होती है। और यह व्यवस्था सहायता को उत्पादन के साथ पृथक करने की प्रक्रिया को अत्यंत जटिल बना देती है। अमेरिका कृषि में अनुसंधान एवं विकास के लिए भी अनुवृत्तियां प्रदान करने की स्थिति में था क्योंकि अमेरिका में अधिकांश कृषि पूंजीवादी और वाणिज्यिक है। भारत में लगभग 80 प्रतिशत कृषि आजीविका कृषि है अतः भारत और अन्य विकासशील देश इस अवसर का उपयोग कर सकते हैं।

अमेरिका और यूरोपीय संघ लगातार अपनी अनुवृत्तियों को एम्बर बक्से से हरे बक्से में परिवर्तित करते जा रहे हैं और उन्हें किसी भी चुनौती के विरुद्ध आश्रय प्राप्त है। उदाहरणार्थ यूरोपीय संघ ने अपनी एम्बर बक्से की अनुवृत्तियों में 1995 के 50 अरब यूरो से कटौती करके 2009 में इन्हें 8.7 अरब यूरो तक कम कर दिया है, जबकि उसकी हरे बक्से की अनुवृत्तियों में 1995 के 18.7 अरब यूरो से 2012 में वृद्धि होकर ये 83 अरब यूरो जितनी ऊँची स्थिति में पहुँच गईं, जो कुल कृषि राजस्व का 19 प्रतिशत है। जहाँ तक अमेरिका का संबंध है इसके हरे बक्से के भुगतान 1995 के 46 अरब डॉलर से 2010 में 120.5 अरब डॉलर तक बढे़ हैं। इसका एक काफी विशाल घटक है उसका घरेलू सहायता कार्यक्रम जो काफी ऊँचाई तक बढकर 95 अरब डॉलर तक पहुँच गया जबकि भारत का न्यूनतम समर्थन मूल्य कार्यक्रम और अन्य विकासशील देशों के कार्यक्रम कड़ी न्यूनतम सीमा के अधीन हैं। 

नीले बक्से के मुद्देः ‘‘निशाना मूल्य‘‘ सरकार द्वारा निर्धारित किये जाने की अनुमति है और यदि ‘‘बाजार मूल्य‘‘ कम हैं तो कृषकों को निशाना मूल्य और बाजार मूल्य के अंतर के समकक्ष नकद क्षतिपूर्ति प्रदान की जाएगी। यह नकद राशि कृषकों द्वारा उनके उत्पादन के विस्तार के लिए उपयोग नहीं की जाएगी। समस्या यह है कि निशाना मूल्य कितना निर्धारित हो इसकी कोई सीमा निर्धारित नहीं है और ये जानबूझकर अक्सर बाजार मूल्य से काफी अधिक निर्धारित की जाती हैं। अमेरिका वर्तमान में इस पद्धति का उपयोग नहीं कर रहा है, परंतु यूरोपीय संघ इसका उपयोग सक्रियता से कर रहा है! और वहां के कृषक संपन्न हैं। 

एम्बर बक्से के मुद्देः एम्बर बक्से में घरेलू सहायता की वह श्रेणी शामिल है जो ‘‘कुल सहायता माप‘‘ (एएमएस) नामक सूत्र पर आधारित कमी करने के लिए अधिसूचित है। एएमएस नीले बक्से, हरे बक्से और ‘‘न्यूनीकरण‘‘ में शामिल धनराशि को छोड़कर कृषि उत्पादन पर सरकार द्वारा खर्च की गई धनराशि की मात्रा है। इसके लिए सरकारों पर यह अनिवार्यता की गई है कि वे वर्ष 1986 और 1988 के बीच की उनकी कुल एएमएस की जानकारी दें, उसे बंधनकारक बनाएं (अर्थात उसके प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित करें) और एक स्वीकृत अनुसूची के अनुसार उसमें कमी करें। विकसित देशों ने 1995 से शुरू होने वाले छह वर्षों की अवधि के दौरान इन आंकड़ों में 20 प्रतिशत की कमी करने की सहमति  प्रदान की जबकि विकासशील देशों ने 10 वर्षों में इनमें 13 प्रतिशत की कमी करने पर सहमति दर्शाई। अल्पतम विकसित देशों (एलडीसी) को किसी पारकर की कटौती करने की आवश्यकता नहीं है। चूंकि अनुवृत्तियां 1986-1988 के स्तर से बंधी हुई थीं, अतः समझौते के प्रारंभ से ही इसमें असमानता थी। उस समय वे अनुवृत्तियां, जो बाद में ‘‘एम्बर बक्से‘‘ के तहत शामिल की गईं, पश्चिमी देशों में ऐतिहासिक रूप से उच्च स्तर पर थीं। भारत सहित विकासशील देशों में ये अनुवृत्तियां अत्यंत सीमित थीं। वर्तमान में, कृषि निविष्टियों की कीमतों में मुद्रास्फीति के दबाव में, और बाजार मूल्यों और न्यूनतम समर्थन मूल्यों के बीच के भारी अंतर के कारण अनुवृत्तियों में इस स्तर तक वृद्धि हुई है। वस्तुतः विकसित देशों को व्यापार को वि.त करने वाली अनुवृत्तियों की अत्यंत उच्च मात्राएँ बनाये रखने की अनुमति दी गई है। 

डी मिनिमस प्रावधान(deminimis) : इस प्रावधान के तहत विकसित देशों को उनके कुल कृषि उत्पादन के 5 प्रतिशत के स्तर के मूल्य तक की व्यापार विकृति अनुवृत्तियां या ‘‘एम्बर बक्सा‘‘ अनुवृत्तियां बनाये रखने की अनुमति दी गई है। विकासशील देशों के लिए यह आंकड़ा 10 प्रतिशत था। अभी तक भारत की अनुवृत्तियां इस सीमा से नीचे हैं, परंतु यह निरंतर रूप से बढ़ती जा रही है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य में हमेशा ऊपर की दिशा में संशोधन होता है जबकि बाजार मूल्यों की प्रवृत्ति अस्थिर होती है। हाल के समय में जब अनेक फसलों की अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में गिरावट देखने को मिल रही है, सरकार के पास न्यूनतम समर्थन मूल्य में भारी कमी करने का विकल्प नहीं बचा है। इसके सादृश्य ऐसी संभावना है कि भारत की एम्बर बक्सा अनुवृत्तियां डी मिनिमस प्रावधान द्वारा स्वीकृत 10 प्रतिशत के स्तर के पार हो जाएँगी। 

2.2 बाजार अभिगम्यता (Market Access)  

बाजार अभिगम्यता के लिए आवश्यक है कि व्यक्तिगत देश द्वारा निर्धारित सीमा शुल्क जैसे प्रशुल्कों में उत्तरोत्तर कटौती की जाए ताकि मुक्त व्यापार सुलभ हो सके। यह देशों से यह भी मांग करती है कि वे गैर-प्रशुल्क बाधाओं को दूर करें और उन्हें प्रशुल्क शुल्कों में परिवर्तित करें। पूर्व में आयातों के लिए कोटा होते थे जिनके तहत (किसी देश में) कुछ विशिष्ट वस्तुओं की विशिष्ट मात्रा का ही आयात किया जा सकता था। यह एक शास्त्रीय गैर-प्रशुल्क बाधा थी। 

भारत ने इस समझौते को स्वीकार किया और प्रशुल्कों में व्यापक कटौती की। केवल समझौते द्वारा छूट प्राप्त वस्तुओं पर ही नियंत्रण किया गया। अधिकतम प्रशुल्क विश्व व्यापार संगठन की आवश्यकता के अनुसार सीमित किया गया, जिसके तहत प्रशुल्क उच्च (प्रतिशत की दृष्टि से) स्तर पर निर्धारित किया गया जिसका कभी भी उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए। आमतौर पर वास्तविक प्रशुल्क इस उच्च सीमा से कहीं नीचे होता है। यह व्यवस्था सीमा शुल्क नीति को पारदर्शी बनाती है और प्रशुल्क मनमाने ढंग से निर्धारित नहीं किये जा सकते। अतः व्यापार लाभान्वित होता है। 

यदि भारत अपने उत्पादन में विविधता लाने में सफल होता है और खाद्य प्रसंस्करण के माध्यम से मूल्य संवर्धन करता है तो यह समझौता भारत के लिए सभी दृष्टि से अनुकूल साबित होगा। भारत से बड़ी संख्या में वस्तुएं पश्चिमी देशों को निर्यात की जाती हैं और वहां के न्यून प्रशुल्क भारतीय आपूर्तिकर्ताओं के लिए लाभदायक होंगे। ट्रंप प्रशासन ने भारत के साथ अपने झगड़े में बाज़ार पहुंच को एक प्रमुख मुद्दा बना लिया, और अंततः भारत को जीएसपी व्यवस्था के तहत मिले हुये लाभों को 2019 में समाप्त कर दिया। (जीएसपी अर्थात सामान्य तर्जिही व्यवस्था)।

2.3 निर्यात अनुवृत्ति (Export Subsidy)  

ये अनुवृत्तियां कृषि निविष्टियों पर अनुवृत्ति के रूप में हो सकती हैं, निर्यात को सस्ता बनाने के रूप में हो सकती हैं या ये निर्यात के लिए अन्य प्रोत्साहनों के रूप में भी हो सकती हैं जैसे आयात शुल्क छूट, इत्यादि। इनका परिणाम देश में उच्च अनुवृत्ति वाले (और सस्ते) उत्पादों के रशिपातन में हो सकता है। यह हमारे देश के घरेलू कृषि क्षेत्र को क्षतिग्रस्त कर सकता है। 

ये अनुवृत्तियां भी 1986-1990 के स्तर (जैसी ऊपर चर्चा की जा चुकी है) से जुडी हुई हैं, यह वह समय था जब विकसित देशों की निर्यात अनुवृत्तियां काफी उच्च स्तर पर थीं और उस समय विकासशील देशों में लगभग कोई निर्यात अनुवृत्तियां नहीं थीं। 

अमेरिका ने अपने निर्यात ऋण प्रत्याभूत कार्यक्रम (Export Credit Guarantee Programme)  के माध्यम से इस प्रावधान को कुंद कर दिया है। अमेरिकी सरकार अमेरिकी कृषि उत्पादों के क्रेताओं को रियायती ऋण देती है, जिनका भुगतान दीर्घकालीन अवधि में किया जाना है। यह सामान्यतः खाद्य सहायता कार्यक्रमों के लिए किया जाता है, जिसके तहत अल्प विकसित देशों को भारी मात्रा में खाद्य सहायता भेजी जाती है। प्रारंभ में 1960 के दशक के दौरान भारत को भी यह सहायता प्राप्त हुई थी। परंतु यह केवल रियायती दरों और ऋण विकल्प पर ही दी जाती है। प्राप्तकर्ता देशों के लिए इसका परिणाम अंततः विदेशी खाद्यान्न पर स्थाई निर्भरता के रूप में होता है और यह उनके घरेलू कृषि क्षेत्र को नष्ट कर देता है। अतः यह भी उतनी ही व्यापार को विकृत करने वाली अनुवृत्ति है, जो वर्तमान में विश्व व्यापार संगठन के एओए की परिधि के अधीन नहीं है। अतः यह भारत की कीमत पर अमेरिका को लाभ पहुंचाती है। 

अनुवृत्तियों और कृषि सहायता को स्पष्ट रूप से नियंत्रित किया जाना चाहिए, परंतु यह नियंत्रण राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुसार होना चाहिए। कुछ देशों के परस्पर विरोधी और निहित स्वार्थ विश्व व्यापार संगठन में काफी प्रभावशाली हैं। प्रत्येक देश की आवश्यकताएं भिन्न होती हैं, अतः किसी भी समझौते में लचीलापन होना चाहिए। साथ ही, भोजन का अधिकार एक वैश्विक आंदोलन है और इसे बड़ी संख्या में संयुक्त राष्ट्र सन्धिपत्रों में प्रत्याभूत किया गया है। अतः खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना प्रत्येक देश के लिए घरेलू चिंता का विषय है, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय केवल सलाह दे सकता है परंतु वह किसी अन्य संप्रभु देश को विवश नहीं कर सकता। इस प्रकार, भारत को गतिशील नीति के साथ उसके व्यय को काफी अधिक प्रभावी बनाना होगा, और ऐसे किसी भी बाहरी दबाव का विरोध करना होगा जो भारतीय लोगों के लिए नकारात्मक परिणामों की दिशा में विमार्गी हो। राष्ट्रपति  ट्रंप  के तहत अमेरिकी सोच यह रही कि भारत द्वारा कोई भी निर्यात संवर्धन अनुवृत्ति पर कटौती लगाई जाये।

2.4 विशेष सुरक्षा उपाय तंत्र (एसएसएम) 

(Special Safeguards Mechanism)

एक विशेष सुरक्षा उपाय तंत्र (एसएसएम) विकासशील देशों को आयातों में असामान्य उछाल या असाधारण रूप से सस्ते निर्यातों के प्रवेश की स्थिति में अतिरिक्त (अस्थाई) सुरक्षा उपाय शुल्क अधिरोपित करने की अनुमति देगा। 

इस प्रश्न पर अनेक बहसें हुई हैं और चर्चा करने वाले कुछ पक्षों का दावा है कि एसएसएम को बार-बार और आवश्यकता से अधिक उपयोग किया जा सकता है, जिसके कारण व्यापार विकृत होगा। इसके बदले में विकासशील देशों के जी 33 गुट ने, जो एसएसएम का प्रमुख समर्थक है, तर्क दिया है कि यदि एसएसएम को एक प्रभावी उपाय बनना है तो परिबंध प्रशुल्कों के उल्लंघन से इंकार नहीं किया जा सकता। एक ऐसे परि.श्य में एसएसएम अत्यंत महत्वपूर्ण है जिसमें पश्चिम के पास अपने उत्पादन और इसके परिणामस्वरूप निर्यातों में रियायतें देने की महत्वपूर्ण शक्तियां हैं। 

3.0 व्यापार सरलीकरण समझौते (टीएफए) में भारत को क्या चाहिए था?

1995 में विश्व व्यापार संगठन के निर्माण के बाद टीएफए पहला महत्वपूर्ण समझौता था जो संपन्न हो पाया। इनमें वैश्विक व्यापार में 1 ट्रिलियन डॉलर की वृद्धि और लाखों रोजगारों के निर्माण का आश्वासन दिया था।

  • वर्ष 2014 में विश्व व्यापार संगठन इस बात से खुश था कि ‘‘व्यापार सरलीकरण समझौता‘‘ (टीएफए) - जो विश्व भर में सीमा शुल्क चौकियों पर लालफीताशाही को समाप्त करने का संकल्प है - अंततः संपन्न हो गया था।
  • यह उसके 159 सदस्यों के बीच बाली में दिसंबर 2013 में हुई चर्चा का परिणाम था। यह दोहा चक्र, जो व्यापार बाधाओं में कटौती करने के संबंध में 13 वर्षों तक घसीटा गया था, की पहली बड़ी सफलता थी। यूपीए सरकार ने अत्यंत उदासीनता से टीएफए को सहमति प्रदान की थी, परंतु इस शर्त पर कि इसमें भारत के लिए (कृषि खाद्य संग्रहण से संबंधित मुद्दा) ‘‘शांति उपधारा‘‘ होगी। 
  • 31 जुलाई 2014 को, प्रतिपुष्टि से ठीक पहले, भारत की एनडीए सरकार ने समर्थन वापस ले लिया, जिसके कारण समझौते का पतन हो गया। व्यापार वार्ता के नवीनतम चक्र के संबंध में भारत की कुछ चिंताएं थीं जो वैध हैं। परंतु इसकी 20 वीं वर्षगांठ के ठीक पहले विश्व व्यापार संगठन पर मृत्यु का खतरा मंडरा रहा था। 
  • फिर एनडीए सरकार शांति उपधारा को अनिश्चितकाल के लिए बढ़ाने के प्रस्ताव को स्वी.त करवाने में सफल हुई; हालांकि यह दीर्घकालीन विकल्प नहीं है। उपधारा के साथ जुडी हुई शर्तों को हटाया नहीं गया है और यह खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम का नए क्षेत्रों में विस्तार प्रतिबंधित करती है। 
  • आलोचकों का कहना है कि अस्थाई छूट प्राप्त करके भारत 31 जुलाई 2014 की विश्व व्यापार संगठन द्वारा निर्धारित समय सीमा के अनुरूप होने से पीछे की दिशा में चला गया। मजबूत खडे़ रहने के बजाय भारत अपनी खाद्य सुरक्षा चिंताओं के बदले दबाव के सामने झुक गया और उसने टीएफए को स्वीकार कर लिया। नियमों के तहत एक स्थाई समाधान होने तक भारत खाद्यान्नों के अपने भंडारण को बनाये रख सकता है, परंतु वह ऐसे रियायती खाद्यान्नों का निर्यात नहीं कर सकता जो बाजार को विकृत कर सकते हैं। अतः भारत से होने वाले रियायती खाद्यान्नों के निर्यात को किसी भी अन्य सदस्य देश द्वारा चुनौती दी जा सकती है। 
  • अमेरिका, यूरोपीय संघ, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया सहित विकसित देश भारत को स्थाई छूट दिए जाने के विरुद्ध हैं। समृद्ध देश यह चाहते हैं कि भारतीय कृषकों को दिए गए न्यूनतम समर्थन मूल्य के प्रावधानों को सीमित किया जाना चाहिए। संपन्न देशों का आरोप है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को कृषि अनुवृत्ति के रूप में प्रस्तुत करके भारत 10 प्रतिशत की सीमा - जिसे डी मिनिमिस स्तर कहा गया है - का उल्लंघन कर रहा है जो 1986-88 के दौरान अधिरोपित की गई थी। परंतु उसी समय ये देश विश्व व्यापार संगठन में 2008 में प्राप्त किये गए उन मसौदा तौर-तरीकों को फिर से खोलने के लिए तैयार नहीं हैं जिनका उद्देश्य समृद्ध देशों की भारी घरेलू और निर्यात अनुवृत्तियों में कटौती करना था। 
  • एक अध्ययन के अनुसार भारत के एक किसान को प्राप्त होने वाली औसत अनुवृत्ति 1,000 रुपये प्रति माह है। दूसरी ओर, अमेरिका अपने .षकों को औसत 2.5 लाख रुपये प्रति माह की कृषि अनुवृत्ति प्रदान करता है। 
  • एक स्थाई समाधान का नई दिल्ली का आग्रह विश्व व्यापार संगठन के दिसंबर 2015 में नैरोबी में हुए 10 वें मंत्रिस्तरीय अधिवेशन में असफल हुआ, जिसमें सदस्य देश दोहा अधिदेश - जिसकी शुरुआत वर्ष 2001 में की गई थी - की पुष्टि करने में और विकास के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के कारण असफल हुए। इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अंततः नई दिल्ली टीएफए के लिए सहमत हुई है य अब लागत -प्रभाव विश्लेषण इससे बाहर रहने के पक्ष में नहीं है। 
  • नैरोबी 2015 के पश्चात के विवादित मुद्दे -
    1. अब अमेरिका ने मांग की है कि कृषि की उत्पाद विशिष्ट निविष्टि अनुवृत्तियों - जैसे उर्वरक, कीटनाशक, बीज, सिंचाई और ऋण - के लिए बजटीय परिव्ययों को उस सीमा तक सीमित किया जाये जो 2015 के नैरोबी मंत्रिस्तरीय अधिवेशन के समय विद्यमान थी। यदि भारत इस प्रकार के दायित्व को स्वीकार करता है तो यह भारतीय कृषि के लिए मृत्यु-नाद के समान होगा। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि मूलभूत रूप से ये अनुवृत्तियां उत्पादन लागत को कम रखने के उद्देश्य से दी जाती हैं ताकि उपभोक्ताओं को खाद्य वस्तुएं कम मूल्य पर मिलें। निविष्टि अनुवृत्तियों को वापस लेने का सीधा अर्थ यह होगा कि कृषि की लागत में वृद्धि होगी, अर्थात, खाद्य वस्तुओं की कीमतें आसमान छूने लगेंगी। कृषकों को दी जाने वाली निविष्टि अनुवृत्तियों को सीमित करने के सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिणाम कितने गंभीर होंगे इसका विचार भी नहीं किया जा सकता। 
    2. दूसरा विवादित मुद्दा विशेष सुरक्षा उपायों (एसएसएम) से संबंधित है जो विकासशील देशों को इसलिए प्रदान किये गए थे ताकि सस्ते आयातों के दुष्प्रभावों को न्यूनतम किया जा सके। समृद्ध देश आयात उछाल को नियंत्रित करने के लिए पहले से ही विशेष (कृषि) सुरक्षा उपायों (एसएसजी) का प्रभावी उपयोग करते रहे हैं। नॉर्वे ने 581 बार एसएसजी का अनुप्रयोग किया है; स्विट्जरलैंड ने 961 बार और अमेरिका ने 189 बार। उसी प्रकार, विकासशील देशों के लिए एक एसएसएम पर कार्य जारी है, उसका भी अमेरिका, यूरोपीय संघ, कनाडा, जापान और ऑस्ट्रेलिया द्वारा विरोध किया जा रहा है। एसएसएम का वास्तव में अर्थ है अस्थाई रूप से प्रशुल्कोंं में वृद्धि करना ताकि आयात की बाढ़ और कीमतों में होने वाली गिरावट को रोका जा सके।
    3. अतः भारत और चीन, जिनके बडे खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम हैं जो छोटे .षकों से भारी मात्रा में खाद्यान्न खरीद पर निर्भर हैं, बुरी तरह से प्रभावित होंगे। दूसरे शब्दों में, खाद्यान्नों की खरीद, जिसे विश्व व्यापार संगठन समाप्त करना चाहता है, लाखों छोटे और सीमांत किसानों की आजीविका की सुरक्षा सुनिश्चित करती है। भारत यह सोच भी नहीं सकता कि उसके 60 करोड़ किसानों की आजीविका सुरक्षा को अंतर्राष्ट्रीय बाजार की बलिवेदी पर चढाया जाये।

  • बहरहाल, भारत सरकार ने फरवरी 2016 में विश्व व्यापार संगठन के व्यापार सरलीकरण समझौते (टीएफए) का अनुमोदन कर दिया। 
  • टीएफए की रचना बंदरगाहों और सीमा शुल्क चौकियों पर प्रशासनिक बाधाओं को कम करने, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की व्यवहार लागतों को कम करने और इनके परिणामस्वरूप - विभिन्न अध्ययनों के अनुसार - वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में 1 खरब डॉलर की वृद्धि करने की दृष्टि से की गई है। इस टीएफए आश्वासन को विकसित और विकासशील देशों के बीच विश्व व्यापार संगठन के अधिकांश मुद्दों की तुलना में अधिक आमसहमति प्राप्त हुई है। 
  • समृद्ध देशों द्वारा यह तर्क दिया गया था कि टीएफए का सर्वाधिक लाभ विकासशील देशों को होगा। इतना (टीएफए जैसा) सीमित सौदा, जो प्रशुल्कों में कटौती नहीं करता, भी विकासशील देशों की जीडीपी में 523 अरब डॉलर की वृद्धि करेगा। 
  • नौकरशाही दायित्वों में कटौती के माध्यम से टीएफए का लक्ष्य विभिन्न देशों के बीच वस्तुओं की गतिशीलता में और अधिक गति लाना है। टीएफए में समस्या उस उपधारा को लेकर है जो कहती है कि कृषि अनुवृत्ति कृषि के उत्पादन मूल्य के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती। यदि इस सीमा का उल्लंघन किया गया, तो अन्य सदस्य देश इसे चुनौती दे सकते हैं और यहाँ तक कि उस देश के विरुद्ध व्यापार प्रतिबन्ध भी लगा सकते हैं। 
  • अन्य विकासशील देशों के साथ ही भारत ने इस उपधारा के विरुद्ध आपत्तियां उठाई हैं, जिसकी मांग है कि प्रशुल्कों में परिवर्तन की घोषणा और उनके प्रभावी होने के बीच पर्याप्त समयावधि होनी चाहिए। यह भारत के संविधान के विरुद्ध होगा, क्योंकि प्रशुल्कों से संबंधित सभी बजटीय घोषणाएँ 24 घंटे के अंदर ही प्रभावी हो जाती हैं। इस अधिकारी का कहना था कि ‘‘विश्व व्यापार संगठन के लिए हम अपने संविधान में परिवर्तन नहीं कर सकते‘‘, साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि इस संदर्भ में भारत ने एक वैकल्पिक प्रस्ताव प्रस्तुत किया है, जिसके अनुसार बजट से संबंधित घोषणाओं को इस उपधारा के दायरे से बाहर रखा जाए क्योंकि वे तत्काल प्रभाव से प्रभावी होना आवश्यक है। साथ ही आगे उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘इसपर अभी चर्चा जारी है, हमें लचीलापन दिया जाना आवश्यक है।‘‘
  • इसके अतिरिक्त व्यापार सरलीकरण के तहत भारत ने सीमा शुल्क सहयोग पर भी एक बंधनकारक समझौते की मांग की है, जो सीमा शुल्क प्रशासनों के बीच सूचनाओं के आदान-प्रदान को सुनिश्चित करेगा ताकि अव-बीजकन (अंडर इन्वॉयसिंग), अधिमूल्यन, कर वंचन और अवैध पूँजी प्रवाह को रोका जा सके। 
  • हालांकि, विकसित देश इसे ‘‘सर्वोत्तम प्रयास के आधार‘‘ पर ही सहमति प्रदान करना चाहते हैं। इस अधिकारी ने कहा कि ष्यह हमारे लिए महत्वपूर्ण है, और यह 20 वर्ष से अधिक समय से मेज पर रखा हुआ है। यह केवल प्रतिपरीक्षण के लिए है, क्योंकि दोनों ही अंगों पर जानकारी उपलब्ध है। हालांकि विकसित देश इसमें इतनी सारी शर्तें, गोपनीयकता कानून, प्रच्छन्नता लगा रहे हैं। अतः हम विश्वास के साथ नहीं कह सकते कि जब यह बाहर आएगा तो इसका अंतिम रूप कैसा होगा।‘‘
  • टीएफ समझौते को स्वीकार करने के लिए भारत विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को तकनीकी और वित्तीय सहायता के लिए एक बाध्यकारिता के लिए भी आग्रह कर रहा है। 
  • सबसे बड़ा मुद्दा - कृषि अनुवृत्तियां - विश्व व्यापार संगठन के नियमों के तहत विकासशील देशों में कृषकों को दी जाने वाली व्यापार विकृति अनुवृत्तियां उनकी कुल फसल मूल्य के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकतीं। परंतु कानूनन बंधनकारक खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत सरकार जनसंख्या के सर्वाधिक भेद्य हिस्से को अत्यंत सस्ता भोजन अत्यंत कम मूल्य पर (यह उपभोक्ताओं को अनुवृत्ति प्रदान करने के समान है)  प्रदान करेगी। इसके अतिरिक्त, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से भारत खाद्यान्नों के उत्पादकों को भी अनुवृत्तियां प्रदान करता है (यह कृषकों को अनुवृत्ति प्रदान करने के समान है) अतः भारत किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खाद्यान्न खरीदता है और बिजली और उर्वरकों जैसी निविष्टियों पर अनुवृत्तियां प्रदान करता है, और उपभोक्ताओं को काफी मात्रा में खाद्य न्यून मूल्य पर देता है।  
  • खाद्य सुरक्षा अधिनियम की वार्षिक लागत 4 अरब डॉलर होगी और यह 80 करोड़ लोगों को सस्ता खाद्यान्न प्रदान करेगा; और किसानों को सरकार द्वारा प्रस्तावित किया जाने वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य, जो चावल के लिए 2201-02 से दुगना हो गया है, लगातार बढ़ता जायेगा। यदि ये उपाय 10 प्रतिशत सीमा का उल्लंघन करते हैं तो भारत विश्व व्यापार संगठन की चुनौती की दृष्टि से खुला हो जायेगा। सरकार जोर देकर कहती है कि वह व्यापार समझौते की बलिवेदी पर खाद्य सुरक्षा को नहीं चढ़ने देगी। 
  • केंद्रीय मुद्दा है खाद्य सुरक्षा के लिए भारत का सार्वजनिक भंडारण कार्यक्रम। इस बात पर जोर दिया जाता है कि मूल्य समर्थन तंत्र विश्व व्यापार संगठन के कथित कृषि अनुवृत्तियों के ‘‘एम्बर बक्से‘‘ के तहत आता है - वे जिन्हें व्यापार विकृति प्रभाव के रूप में माना जाता है। ये एक न्यूनतम से अधिक प्रतिबंधित हैं, जिनकी गणना तीन दशक पुराने स्तिर संदर्भ मूल्य के आधार पर की जाती है। 
  • यह संपूर्ण व्यवस्था त्रुटिपूर्ण है। अमेरिका की भारी .षि अनुवृत्तियां, जिनका क्रियान्वयन कृषकों को सीधे भुगतान के माध्यम से किया जाता है, विश्व व्यापार संगठन के अनुमत्य हरे बक्से के तहत आती हैं। यूपीए सरकार ने विश्व व्यापार संगठन के नौवें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन के दौरान 2013 में बाली पैकेज पर एक समय-सीमित शांति उपधारा के बदले हस्ताक्षर किये थे - अनुवृत्ति के मोर्चे पर उल्लंघन की स्थिति में दंडात्मक कार्रवाई से एक पूर्णतः अपर्याप्त चार वर्षीय सर्वक्षमा। इस प्रकार उसने टीएफए का अनुमोदन कर दिया और उसे एक सौदेबाजी के साधन के रूप में उपयोग करने के अवसर को खो दिया।
  • तो अब भारत के लिए तीन समस्याएं हैं। 

  1. पहली समस्या है अनुवृत्तियों पर 10 प्रतिशत की सीमा की जिसे प्राप्त करना भारत के लिए संभव नहीं है। उसकी परेशानी को बढ़ाने वाला तथ्य यह भी है कि इस सीमा की गणना 1986-88 की कीमतों के आधार पर की जानी है जब खाद्यान्नों की कीमतें काफी कम थीं। अतः खाद्यान्नों की वर्तमान कीमतों का विचार करते हुए इस सीमा का अद्यतन किया जाना चाहिए। 
  2. दूसरी समस्या यह है कि रियायती खाद्य प्रदान करने के लिए भी भारत को अपने भंडार अंतर्राष्ट्रीय निगरानी और जांच के लिए खुले करने होंगे। अतः वह चाहे भी तो भी वह मसूर जैसे प्रोटीन समृद्ध खाद्यान्न शामिल नहीं कर पायेगा क्योंकि शांति उपधारा में ऐसी शर्तें हैं। और मसूर (या दालें) शाकाहारी भारतीयों के लिए प्रोटीन का प्रमुख स्रोत है। 
  3. तीसरी, विकासशील देशों को यह बहुत पक्षपातपूर्ण लगता है कि अमेरिका अपने कृषकों को प्रति वर्ष 20 अरब डॉलर से भी अधिक मूल्य की कृषि अनुवृत्तियां प्रदान करता है। जबकि विश्व व्यापार संगठन विकासशील देशों को प्रोटोकॉल से बाध्य कर रहा है, वहीं अमेरिका जैसे विकसित देशों द्वारा अनुवृत्तियों का मुद्दा मेज से बाहर प्रतीत होता है। (बक्सों पर की गई चर्चा का संदर्भ लें)

  • विश्व व्यापार संगठन का तर्क है यदि विकासशील देश किसानों को बाजार कीमतों से ऊंचे मूल्य देना जारी रखते हैं, तो इससे विश्व के अन्य भागों के गरीब किसानों को नुकसान होने की संभावना है। वह कहता है कि यह सौदा (टीएफए) लालफीताशाही में कटौती करके वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में 1 खरब डॉलर और 2.10 करोड़ नौकरियों का योगदान कर सकता है। साथ ही विकसित विश्व खाद्य सुरक्षा के मुद्दे को टीएफए से पृथक करना चाहता है और विकासशील देश ऐसा नहीं चाहते हैं। 
  • भारत ने बाली में टीएफए का अनुमोदन केवल इस शर्त पर किया था कि विकासशील देशों को अंतरिम राहत प्रदान की जाएगी। उसने कहा था कि वर्ष 2017 तक विकासशील देशों पर किसी प्रकार की कानूनी कार्रवाई या प्रतिबन्ध नहीं लगाये जायेंगे, जिस समय तक देशों के बीच किसी प्रकार का समाधान ढूंढ लिया जायेगा। हालांकि यह अंतरिम राहत उस समय लागू नहीं होगी यदि ऐसी अनुवृत्तियों का परिणाम व्यापार वि.ति में होता है, जिसका हम यह अर्थ लगाते हैं कि निर्यात और आयात के मूल्य इससे प्रभावित नहीं होंगे।

  • जैसा कि कहा गया था, दिसंबर 2013 में, भारत में चुनाव होने से पहले, विश्व व्यापार संगठन ने इसकी मांगों को एक ‘‘शांति उपधारा‘‘ के माध्यम से स्थान देने का प्रयास किया जिसके कारण खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम को चुनौती से चार वर्ष की छूट प्राप्त हो जाती। परंतु नई मोदी सरकार इस बकवास से संतुष्ट नहीं थी, वह इस बात से चिंतित थी कि 2017 के आते ही स्थाई छूट प्राप्त करने के लिए उसके पास सौदेबाजी की कोई शक्ति नहीं बचेगी।
  • अब भारत को खाद्यान्नों के सार्वजनिक भंडारण के मुद्दे का स्थाई समाधान चाहिए। चीन सहित जी 33 देशों ने कृषि उत्पादन के रियायतीकरण की क्षमता और सस्ते दामों पर गरीबों को उनके वितरण के भारत के रुख का समर्थन किया है। 
  • विकसित देशों का तर्क है कि भारत की युक्ति उसे कष्ट पहुंचाएगी क्योंकि वह संरक्षणवादी होने की अपनी प्रसिद्धि को दूर करने के लिए संघर्ष कर रहा है। वर्ष 2013 में विश्व बैंक ने जिन 95 देशों में पता किया था उनमें से भारत का निर्यात-से-जीडीपी अनुपात नीचे से 19 वां था। कृषि संरक्षण उच्च है। 2012 में यूरोपीय संघ, जिसे उसकी स्वयं की कृषि नीतियों के लिए सही प्रकार से अपमानित किया गया था, ने अपने जीडीपी के 0.73 प्रतिशत के बराबर का खर्च कृषि समर्थन के लिए किया था। भारत का खाद्य अनुवृत्तियों पर किया गया 1.15 खरब रुपये (18.8 अरब डॉलर) का खर्च जीडीपी के 1 प्रतिशत को छूता है - और वर्ष 2009 से यह दुगना हो गया है। और यह भी उसके पहले का है है जब किसानों को उर्वरकों, ट्रेक्टर ईंधन और ऐसे अन्य के लिए किये गए व्ययों की गणना नहीं की जाती थी (समृद्ध देशों का यह संपूर्ण तर्क बहस का विषय है)।
  • भारत की चालों के पीछे का तर्क क्या है? 1990 के मध्य में पूर्ण हुई व्यापार वार्ताओं के उरुग्वे चक्र के दौरान भारत को निराश होना पड़ा था। उस समय समृद्ध देशों को अनेक संरक्षणवादी नीतियां बनाये रखने की अनुमति इस आधार पर दी गई थी कि उन्होंने यह आश्वासन दिया था कि वे इनमें उत्तरोत्तर कमी करेंगे। भारत, जिसके बारे में माना जाता था कि उस समय वह घरेलू कृषि को रियायतें नहीं देता था, अतः उसे कृस्काकों को समर्थन से संबंधित अधिक कठोर सीमाओं के तहत रखा गया था, हालांकि उसने अपने आयात प्रशुल्क कम कर दिए थे। 
  • विश्व व्यापार संगठन को अपनी आंकडों की शब्दावली को परिवर्तित करना चाहिए। कृषि को दी जाने वाली अनुवृत्तियों के मापन के लिए उपयोग की जाने वाली वस्तुओं के संदर्भ मूल्य 1986-88 से हैं, जिसका प्रभाव भारत के संरक्षणवाद को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने में होता है। समृद्ध देश संदर्भ मूल्यों का अद्यतन करना नहीं चाहते, इसके पीछे उन्हें यह डर है कि इसके कारण  अनेक प्रकार के झगड़ों के द्वार खुल जायेंगे। यही इस मुद्दे का केंद्रबिंदु है। 
  • क्या भारत अपने दम पर कुछ कर सकता है? इसमें तीन बातें हैं -

  1. पहली, यह उरुग्वे सौदे की ऐतिहासिक विरासत का फायदा उठा सकता है। वह प्रशुल्क कटौतियों के मामले में उरुग्वे सौदे द्वारा अनिवार्य की गई कटौतियों से अधिक उत्साहित कटौतियां करता रहा है। उदाहरणार्थ वह सब्जियों पर प्रशुल्क को 30 प्रतिशत की तुलना में 100 प्रतिशत से भी अधिक करने के लिए स्वतंत्र है। इस प्रकार के प्रशुल्कों को कम रखने या उनमें आगे कटौती करने की प्रतिबद्धता एक ऐसे सौदे का भाग बन सकती है, जिसके माध्यम से विश्व व्यापार संगठन अन्य अनुवृत्तियों के प्रति 2017 के बाद भी ऑंखें बंद कर लेगा। 
  2. दूसरी, भारत के खाद्य सुरक्षा कानून का परिणाम चावल और गेंहूँ की खरीद की वृद्धि में नहीं हो। सरकार की इच्छा अक्टूबर से आगे वर्ष भर में 3 करोड़ टन चावल खरीदने की है, जो पिछली खरीद से 13 प्रतिशत अधिक है। परन्तु उसका चावल भंडारण जुलाई में 2.12 करोड़ टन से अधिक हो गया - जो सिफारिश किये गए अतिरिक्त भंडारण से दुगने से भी अधिक है। दुकानें इतनी फूल जाती हैं कि अनाज खराब होने का खतरा बढ़ जाता है और नौकरशाह विश्व बाजार में उसका रशिपातन कर देते हैंः भारत विश्व का सबसे बड़ा चावल निर्यातक है। गरीब किसानों की सहायता करने के लिए भारत इसके बजाय उत्पादक अनुवृत्तियों पर ध्यान केंद्रित कर सकता है जो उत्पादन के स्तर साथ जुडी हुई नहीं हैं, जैसे नकद हस्तांतरण। विश्व व्यापार संगठन को इस प्रकार की सहायता अधिक स्वीकार्य लगती है। 
  3. तीसरी, यह न्यूनतम समर्थन मूल्य को चरणबद्ध तरीके से हटा सकता है, जिनकी प्रवृत्ति अधिक बडे़, समृद्ध (और जो 62 प्रतिशत भारतीय किसानों को नहीं मिल रही है) किसानों के पक्ष में होती है। बचायी गई धनराशि से वह गरीबों को सस्ता अनाज बेचने पर ध्यान केंद्रित कर सकता है। कोई भी राज्य के धन का उपयोग उपभोग को रियायती बनाने के लिए करने पर आपत्ति नहीं करता, कम कम व्यापार के आधार पर तो निश्चित रूप से नहीं करता।

  • समझने योग्य तकनीकी पहलू -

  1. कृषि उत्पादों में कम मूल्य के आयातों और आयात उछालों से मुकाबला करने के लिए भारत अतिरिक्त प्रशुल्क अधिरोपित करने लिए लचीलेपन के लिए प्रयासरत है, जिन्हें प्रचलित भाषा में विशेष सुरक्षा उपाय तंत्र कहा जाता है। एसएसएम के लिए भारत की आवश्यकता व्यावहारिक कारणों से उठती है न कि ‘‘स्वतंत्रता और संप्रभुता आवश्यकताओं की किसी बुलंद धर्मशास्त्र के कारण।‘‘ एसएसएम की भारत की आवश्यकता को केवल उन उत्पादों तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए जिनमें प्रशुल्क बाध्यकारिता 10 से 40 प्रतिशत की सीमा में हैं। इसमें उच्च बाध्यकारिता वाले उत्पाद भी शामिल किये जाने चाहियें, परंतु वे उत्पाद जिनमें पिछले कुछ वर्षों के दौरान अनुप्रयुक्त प्रशुल्क बाध्यकारी दरों के निकट हैं, उदाहरणार्थ, चावल, गेहूं, जैतून का तेल और कुक्कुट पालन उत्पाद। पिछले कुछ वर्षों के दौरान समृद्ध देशों ने अपनी .षि सहायता में कटौती नहीं की है ही उन्होंने उत्पाद विशिष्ट अनुवृत्ति सीमा को स्वीकार किया है। इसके परिणामस्वरूप भारतीय किसानों के लिए  लगातार उच्च अनुवृत्ति वाले और अनुचित निर्यातों का खतरा बना हुआ है, विशेष रूप से विकसित देशों के। विकसित देशों की घरेलू अनुवृत्तियां निम्न वस्तुओं के उत्पादन की तुलना में विशेष रूप उच्च रही हैंः अमेरिका - केनोला (61 प्रतिशत), डेरी (30 प्रतिशत), चावल (82 प्रतिशत), और चीनी (66 प्रतिशत) य और यूरोपीय यूनियन - सेब (68 प्रतिशत) मक्खन (71 प्रतिशत), चावल (66 प्रतिशत), गेहूं (22 प्रतिशत), जैतून का तेल (76 प्रतिशत) और सफेद चीनी (116 प्रतिशत) देशों के इन अनुवृत्ति स्तरों के परिप्रेक्ष्य में अपने किसानों को अनुचित व्यापार से बचाने के लिए एसएसएम भारत के लिए एक महत्वपूर्ण नीतिगत उपकरण होगा यदि विकसित देश विश्व व्यापार संगठन की चर्चाओं में .षि अनुवृत्ति कटौती से बाहर रहने का फैसला लेते हैं। 
  2. भारत को उसके किसानों को सहायता प्रदान करने के लिए स्वतंत्रता चाहिए। विश्व व्यापार संगठन में भारत द्वारा उसके जिस मुख्य कृषि समर्थन कार्यक्रम का बचाव किया गया है वह है न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) योजना। चावल और गेहूं की घरेलू उपलब्धता पर से एमएसपी को हटाने के परिणामों का सावधानीपूर्वक परीक्षण करना होगा। 
  3. भारतीय सरकार किसानों को प्रत्यक्ष आय समर्थन और फसल बीमा प्रदान करने के प्रति प्रतिबद्ध है जो विश्व व्यापार संगठन के नियमों द्वारा प्रतिबंधित नहीं होंगे। विश्व व्यापार संगठन के नियमों के तहत एक ऐसी आय समर्थन योजना जो मौद्रिक सीमा से निर्बन्धित नहीं है उसे अधिक कडे निर्बंधों का अनुपूरण करना होगा। अतः समर्थन की मात्रा किसान के उत्पादन, या उत्पादन के परिमाण या उत्पाद की वर्तमान कीमत पर निर्भर नहीं होगी। किसानों की विशाल संख्या को देखते हुए, भारत में ऐसी योजना का क्रियान्वयन अत्यंत कठिन होगा। 
  4. भारत को कभी भी अपनी तथाकथित ष्अति उच्च प्रशुल्क बाध्यकारिता" में कमी का प्रस्ताव नहीं करना चाहिए और उसे अधिक उच्च स्तर का घरेलू समर्थन (अनुवृत्तियां) प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए। यह सुझाव गहरी जेबों वाले कुछ विकसित देशों की दृष्टि से उपयुक्त हो सकता है, परंतु भारत के लिए यह पूरी तरह से अनुपयुक्त है। कोई भी देश किसी अन्य देश के लिए घरेलू कृषि समर्थन को बढाने पर सहमत नहीं होगा। उच्च अनुवृत्ति सीमा को सुरक्षित करने से अत्यंत दूर रहने की स्थिति में भारत पहले से ही कृषि समर्थन प्रदान करने के लिए विद्यमान उपलब्ध विस्तार को कम करने के लिए भारी दबाव में है। इस प्रकार, उच्च अनुवृत्ति सीमाओं को सुरक्षित करना पूरी तरह से असंभव प्रतीत होता है। यदि भारत कभी भी इस मार्ग पर जाने का विचार करता है, तो उसका परिणाम न्यून प्रशुल्कों में होगा और उसे अनुवृत्ति के मोर्चे पर भी कोई लाभ नहीं होगा।  
  5. उपरोक्त तर्क विशेष रूप से दालों के लिए सही होगा। सरकार खरीद की गई दालों की मात्रा में वर्तमान मात्रा की तुलना में कम से कम 5 से 6 गुना वृद्धि कर सकती है और फिर भी वह विश्व व्यापार संगठन के .षि समझौते (एओए) द्वारा अधिदेश की गई अनुवृत्ति सीमा के भीतर रह सकता है। यदि भविष्य में उच्च खरीद मूल्य पर और अधिक खरीद की आवश्यकता होती है तो भारत विश्व व्यापार संगठन के सदस्यों द्वारा 2013 में बाली में और नवंबर 2014 में जिनेवा में स्वी.त शांति उपधारा का सहारा ले सकता है। दालों के लिए समर्थन को बढाना ष्अनुवृत्ति के लिए प्रशुल्क .ष्टिकोणष् को अपनाने के लिए विश्व व्यापार संगठन की वार्ताओं में बहाना नहीं हो सकता। 

  • भारत को आक्रामक रूप से समृद्ध देश कृषि अनुवृत्तियों मुद्दे को वापस वार्ता की मेज पर लाना चाहिए। अब सभी की उम्मीद 2020 के बारहवें मंत्रि-स्तरीय सम्मेलन से है।

4.0    समृद्ध देशों द्वारा वास्तव में कितनी अनुवृत्तियां दी जाती हैं?

विकसित देशों में कृषि अनुवृत्तियां 1996 के 350 अरब डॉलर से 2011 में बढ़कर 406 अरब डॉलर हुई थीं। हाल में अकेले यूरोपीय संघ ने 2013 के लिए 84.106 अरब यूरो कृषि अनुवृत्ति की अधिसूचना दी है। नवीनतम अमेरिकी कृषि विधेयक 2014, जो अगले दस वर्षों के लिए कृषि अनुवृत्तियों के बजटीय प्रावधान करता है, ने 956 अरब डॉलर अनुवृत्ति सहायता की भविष्यवाणी की है। अतः नैरोबी में हुई 10 वीं मंत्रिस्तरीय बैठक के बाद भी मुद्दे बने हुए हैं। 

कृषि क्षेत्र को हस्तांतरण करने की दृष्टि से सर्वाधिक विस्तृत उपाय है आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) द्वारा संकलित कुल सहायता अनुमान (टीएसई) इसमें उत्पादक सहायता, कृषि को दी जाने वाली सामान्य सेवा सहायता और खाद्य अनुवृत्तियों के माध्यम से उपभोक्ताओं को हस्तांतरण शामिल है। 


वर्ष 2014 की 327 अरब डॉलर के साथ चीन की टीएसई ने अमेरिका को पीछे छोड़ दिया है, जिसके कारण वह कृषि को सहायता करने वाला सबसे बड़ा प्रदाता बन गया है। परंतु चीन में विशाल 20.016 करोड़ कृषक परिवार थे (2006 की कृषि जनगणना) दूसरी ओर, वर्ष 2014 में अमेरिका में केवल 20.8 लाख कृषि क्षेत्र थे जबकि यूरोपीय संघ में 1.225 करोड़ कृषि क्षेत्र थे (2010)। इस प्रकार, चीन की औसत प्रति व्यक्ति टीएसई केवल 1630 डॉलर बनती है। इसके विपरीत औसत अमेरिकी किसान को 46,000 डॉलर से भी अधिक की सहायता राशि प्राप्त हुई होती। साथ ही, अमेरिका के औसत खेत का आकार 438 एकड़ है जिसकी तुलना में चीन का औसत खेत का आकार मात्र 1.6 एकड़ है (जो यूरोपीय संघ में 35.5 एकड है) इसका अर्थ यह है कि अमेरिका या यूरोपीय संघ में अनुवृत्तियां अनिवार्य रूप से समृद्ध किसानों को ही जा रही हैं। 

भारत कहाँ खड़ा है? विश्व व्यापार संघ में भारत द्वारा दर्ज किये गए आंकड़ों के अनुसार कृषि को प्रदान की गई घरेलू सहायता का मौद्रिक मूल्य वर्ष 2010-11 में 51.09 अरब डॉलर था। इसमें खाद्य सुरक्षा के लिए किये गए सार्वजनिक भण्डारण के 13.81 अरब डॉलर भी शामिल हैं, जिनके बारे में भारत का दावा है कि ये विश्व व्यापार संगठन के तहत किसी कटौती प्रतिबद्धता से मुक्त हैं। साथ ही विशाल संख्या में भू-धारण (2010-11 की कृषि जनगणना के आधार पर 13.835 करोड) और औसत 2.8 एकड़ के खेत आकार को देखते हुए भारत के लिए प्रति किसान के आधार पर कुल अनुवृत्ति की मात्रा बहुत अधिक नहीं होगी। 

सामान्य रूप से 3 समूह हैं। पहला, समृद्ध देश, जो लगातार अपनी कृषि क्षेत्र में संलग्न कम जनसंख्या को भारी मात्रा में अनुवृत्तियां प्रदान कर रहे हैं (अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान); दूसरा, वे देश जो उतने संपन्न नहीं हैं, जिन्होंने काफी हद तक अपनी विशाल कृषि जनसंख्याओं के लिए सहायता राशि में काफी वृद्धि की है (चीन और इंडोनेशिया); और तीसरा, वे जिन्होंने वास्तव में ऐसा नहीं किया है, बावजूद इसके कि उनके यहाँ मुख्य रूप से विशाल संख्या में छोटे भू-धारक कृषक हैं (भारत) दूसरे चरम पर न्यूजीलैंड, यूक्रेन और ब्राजील जैसे वे देश हैं जो मुश्किल से अनुवृत्ति प्रदान करते हैं - चाहे वे अपने कृषकों पर प्रभावी रूप से कर नहीं लगाते हैं।

भारत विश्व की 17 प्रतिशत जनसंख्या का समर्थन करता है और उसके कृषक विश्व के गरीबतम कृषकों में से एक हैं। जबकि यूरोपीय संघ, अमेरिका और कनाडा के प्रति व्यक्ति भू-धारण लगभग दुगने हुए हैं वहीं भारत में यह 0.13 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि जितना कम हुआ है। इसके अतिरिक्त, भारत की कृषि व्यापक रू से वर्षा-पोषित कृषि है। ‘‘हमें हमारे कृषकों की चिंताओं का ध्यान रखना जिनके पास संसाधनों की भारी कमी है’’। भारत में मुद्दा केवल खाद्य भंडार का नहीं है परंतु यह न्यून-आय किसानों की सहायता करने का भी है। विशेषज्ञ इंगित करते हैं कि विश्व व्यापार संगठन का 1994 का एओए 1993 के ब्लेयर हाउस समझौते से उपजा है जिसका निर्माण अमेरिका और यूरोपीय संघ द्वारा मिलकर किया गया था ताकि उनकी अभूतपूर्व कृषि अनुवृत्तियों की विश्व व्यापार संगठन के किसी भी विवाद से रक्षा की जा सके। 

इसने विश्व के दो सबसे बडे़ व्यापार गुटों को बिना किसी अर्थदंड के उनके कृषकों को विशाल मात्रा में अनुवृत्तियां प्रदान करने की अनुमति दी है। 

विश्व व्यापार संगठन के 30 सदस्यों पर उनके एम्बर बक्से में शामिल व्यापार को विकृत करने वाली घरेलू सहायता में कमी करने के प्रति प्रतिबद्धता है, और जिनकी प्रतिबद्धताएं नहीं हैं उन्हें उनके कुल एएमएस को उनके कुल उत्पादन मूल्य के 5 प्रतिशत के अंदर बनाये रखना है, अर्थात डी मिनिमिस स्तर तक। विकासशील देशों के मामले में डी मिनिमिस किसी विशिष्ट फसल के कुल उत्पादन मूल्य के 10 प्रतिशत है। भारत और अन्य विश्व व्यापार संगठन सदस्यों के लिए कोई एम्बर या नीला बक्सा नहीं है। सबसे बड़ी समस्या मिनिमिस सहायता की गणना को लेकर है। यह एक अप्रचलित और त्रुटिपूर्ण पद्धति है जो वर्ष 1986-88 के दौरान प्रचलित बाह्य संदर्भ मूल्य (ईआरपी) पर आधारित है। ये दरें अप्रासंगिक हैं क्योंकि इस दौरान के 25 वर्षों में कीमतों में 650 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। एओए की ये अंतर्निहित असमानताएं विकासशील देशों को खाद्य सुरक्षा पर उनकी विशेष आवश्यकताओं को पूर्ण करने से रोकती हैं।

5.0 गैट के मुख्य प्रावधान 

  1. किसी भी देश को विश्व व्यापार संगठन के सभी सदस्य व्यापार सहयोगियों के लिए समान शुल्क लागू करने होंगे। 
  2. राशिपातन (डंपिंग) जैसी अनुचित व्यापार प्रथाओं के प्रतिक्रियास्वरुप शुल्क अधिरोपित किये जा सकते हैं। 
  3. राशिपातन = किसी दूसरे देश में निर्यात वस्तुओं पर, घरेलू बाजार में प्रभारित किये गए मूल्य से कम मूल्य पर वस्तुओं का विक्रय, या ऐसे मूल्य पर विक्रय जो उत्पादन और परिवहन लागत से कम हो। 
  4. देशों को अपनी आयातित वस्तुओं या सेवाओं की मात्रा सीमित नहीं करनी चाहिए। 
  5. देशों द्वारा विशिष्ट उत्पादकों, क्षेत्रों या उद्योगों को प्रदान की गई निर्यात अनुवृत्तियों की घोषणा करनी चाहिए। 
  6. अनुच्छेद 16 - देशों द्वारा एक दूसरे को अनुवृत्तियों की हद की अधिसूचना प्रदान करनी चाहिए और इनके उन्मूलन के लिए चर्चा करनी चाहिए। 
  7. कुछ उत्पादों के लिए देश अस्थायी रूप से शुल्क में वृद्धि कर सकते हैं - अनुच्छेद 19, जिसे सुरक्षा उपाय प्रावधान या पलायन अनुच्छेद कहा जाता है। 

यदि आयात प्रतिस्पर्धा के कारण घरेलू उत्पादक कठिनाई में हों तो आयात करने वाले देश अपने शुल्कों में अस्थायी रूप से वृद्धि कर सकते हैं। 

6.0 गैट के तहत क्षेत्रीय व्यापार समझौते

गैट के अनुच्छेद 24 के तहत क्षेत्रीय व्यापार समझौतों की अनुमति प्रदान की गई है। गैट देशों के समूहों की दो प्रकार के क्षेत्रीय व्यापार समझौते करने की क्षमता को मान्यता प्रदान करता हैः

मुक्त व्यापार क्षेत्रः ऐसे क्षेत्र जहाँ देशों के समूह स्वैच्छिक रूप से आपसी व्यापार बाधाएं हटाने पर सहमत होते हैं। 

सीमा शुल्क संघः ये मुक्त व्यापार क्षेत्र होते हैं जिनमें विभिन्न देश आपस में, और शेश विश्व के साथ, समान शुल्क अपनाते हैं। 

7.0 आने वाला तूफान - मेगा-एफटीए बनाम विश्व व्यापार संगठन 

एशिया प्रशांत क्षेत्र के 12 देशों के बीच हुआ मुक्त व्यापार समझौता, टीपीपी (ट्रांस पैसिफिक भागीदारी) निम्न दो कारणों से संभवतः वैश्विक व्यापार और निवेश के प्रबंधन की संरचना और कार्यों में व्यापक परिवर्तन कर सकेगा।

पहला, टीपीपी के सदस्य, अधिक उल्लेखनीय रूप से अमेरिका, व्यापार और निवेश के उच्च स्तरीय उदारीकरण और आर्थिक विनियमों की व्यापक श्रृंखला पर उच्च-स्तरीय मानकों के समुच्चय के साथ ‘‘एफटीए के 21 वीं सदी के मॉडल‘‘ का समापन करने का लक्ष्य बना रहे थे, और इस प्रकार वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं (जीवीसी) के माध्यम से अपने व्यापारों को विस्तारित करने वाली फर्मों की अहम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक इष्टतम नियामक/संस्थागत रूपरेखा की स्थापना के लिए प्रयासरत हैं। दूसरा, चूंकि अनेक मेगा एफटीए वार्ताओं और चर्चाओं के दौर में हैं, और टीपीपी पर हस्ताक्षर हो चुके थे और यह प्रभावशील होने के मार्ग पर था, अतः टीटीआईपी (ट्रांस एटलांटिक व्यापार एवं निवेश भागीदारी), जापान-यूरोपीय संघ ईपीए (आर्थिक भागीदारी समझौता) और आरसीईपी (पूर्वी एशियाई क्षेत्रीय व्यापक समझौता) जैसे अन्य मेगा एफटीए की वार्ताओं में इसके संदर्भ के कारण टीपीपी संभवतः वस्तुतः वैश्विक मानक बन सकता है। अतः एक स्वाभाविक प्रश्न है कि - विश्व व्यापार संगठन का क्या होगा? 

{अमेरिका ने पीपीपी छोड़ दिया, जो बाद में 2018 में ग्यारह सदस्यी टीपी-टीपीपी बन गया} 


वैश्विक व्यापार प्रबंधन में आये भारी परिवर्तनों को पूरी तरह से समझने के लिए, जैसे दोहा विकास कार्यसूची (डीडीए) का अवरोध और मेगा एफटीए का उन्माद, हमें इस परिवर्तन को लाने वाले प्रेरक बल को समझना होगा। वैश्विक व्यापार और निवेश की बदलती हुई प्रवृत्ति ही इसका प्रेरक बल है। बदलती प्रवृत्ति क्या है? इसके दो भाग हैं।

भाग 1 - मूल्य श्रृंखलाओं का वैश्वीकरण (जीवीसी)

भाग 2 - आपूर्ति श्रृंखलाओं या अंतर्राष्ट्रीय उत्पादन संजालों का वैश्वीकरण 

7.1 जीवीसी को समझना 

जीवीसी की शुरुआत 1970 के दशक में उत्तरी अमेरिका (कनाडा, अमेरिका और मेक्सिको) के मोटर वाहन उद्योग में हुई और बाद में 1980 के दशक के अंत में और 1990 के दशक के प्रारंभ में इसका विस्तार मध्य और पूर्वी यूरोप (जर्मनी और इस क्षेत्र के पूर्व समाजवादी देश) के अनेक विनिर्माण उद्योगों में हो गया। हालांकि जीवीसी का संपूर्ण विकास 1990 के दशक के मध्य में पूर्वी एशिया में हुआ। जापानी कंपनियों ने अनेक आसियान देशों (थाईलैंड, मलेशिया और इंडोनेशिया) और ताइवान के विनिर्माण क्षेत्र (इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, मशीनें और मोटर वाहन) में आक्रामक ढंग से निवेश करके पहल की, जिनमें अमेरिका और यूरोपीय संघ उसके प्रमुख निर्यात बाजार थे। बाद में जापानी कंपनियों ने अपने उत्पादन ठिकानों का चीन, भारत, और अभी हाल ही में विएतनाम और म्यांमार में विस्तार किया। वर्तमान में जीवीसी अधिकाधिक ‘‘वैश्विक‘‘ होते जा रहे हैं, भौगोलिक दृष्टि से भी और इनमें शामिल किये गए क्षेत्रों की दृष्टि से भी, क्योंकि उनके किसी भी आकार, मूल देश और उनकी गतिविधि के क्षेत्र के बावजूद कंपनियां विश्व स्तर पर व्यापार कर रही हैं। विशेष रूप से सेवा क्षेत्र जीवीसी का एक प्रमुख घटक बन गया है, इसलिए नहीं कि वे विनिर्माण (उदाहरणार्थ परिवहन, दूरसंचार, संभार तंत्र और वित्तीय सेवाएं) के वैश्वीकरण के लिए अपरिहार्य सेवाएं प्रदान करती हैं, बल्कि इसलिए भी क्योंकि अनेक सेवाओं का वैश्विक स्तर पर व्यापार  (उदाहरणार्थ पेशेवर सेवाएं जैसे वकीली और लेखांकन, खुदरा और थोक, पर्यटन, निर्माण और नागरिक अभियांत्रिकी, जल आपूर्ति और यहाँ तक कि स्वास्थ्य सेवाएं भी) होता है। 

विश्व व्यापार संगठन के साथ समस्या - विश्व व्यापार संगठन की धीमी सहमति प्रक्रिया के परिप्रेक्ष्य में, जहाँ आमतौर पर अमेरिका यूरोपीय संघ, चीन, भारत और ब्राजील कभी भी सहमति नहीं बना पाते, जैसा कि दोहा विकास कार्यसूची (डीडीए) के गतिरोध में देखा गया है, विकसित देशों के प्रमुख उद्योग संघों ने उनकी सरकारों पर दबाव बनाना शुरू किया कि वे व्यापार नीति की प्राथमिकता को विश्व व्यापार संगठन से हटा कर मेगा एफटीए की वार्ताओं की दिशा में परिवर्तित करें। 2020 तक प्रमुख मुद्दों पर अंतर बने हुये थे। 


7.2 क्या मेगा-एफटीए ही आगे का मार्ग हैं? 

चाहे टीपीपी नियम और प्रतिबद्धताएं वस्तुतः वैश्विक मानक बन जाएँ, परंतु जीवीसी के लिए इष्टतम व्यापार और निवेश पर्यावरण प्रदान करने के लक्ष्य की दृष्टि से उनमें दो अंतर्निहित दोष हैं। 

पहला, मेगा एफटीए अपने सदस्यों को शामिल करेंगे और गैर-सदस्यों को अपवर्जित करेंगे, जिनमें से अधिकांश अल्पतम विकसित देश (एलडीसी) होंगे। जिन देशों को ‘‘मेगा एफटीपी क्लब‘‘ में शामिल किया जायेगा उनके और अपवर्जित देशों के बीच विभाजन हो जायेगा। एलडीसी में गरीबी आय की असमानता की स्थिति और अधिक गंभीर हो जाएगी, और इसका परिणाम वैश्विक असुरक्षा में भी हो सकता है।

दूसरा, ‘‘मेगा एफटीपी क्लब‘‘ की सदस्यता भी स्वचालित रूप से सुरक्षित नहीं होगी क्योंकि उनका चयन वैश्विक कंपनियों द्वारा किया जायेगा। मेगा एफटीपी के नियम और प्रतिबद्धताएं जीवीसी के लिए अनिवार्य शर्तें हैं परंतु ये पर्याप्त शर्तें नहीं हैं। वैश्विक फर्मों को आकर्षित करने के लिए देशों को मानव संसाधन, सहायक उद्योगों और औद्योगिक समूहों का विकास करना आवश्यक होगा। इन उपायों को मेगा एफटीए में शामिल नहीं किया गया है। बल्कि वे प्रत्येक देश के स्वैच्छिक और एकतरफा प्रयासों द्वारा प्रदान किये गए हैं। इसका अर्थ यह है कि मेगा एफटीए के गैर-सदस्य देशों को भी ऐसे एकतरफा नियमों, प्रतिबद्धताओं और नीतियों के माध्यम से जीवीसी में शामिल होने का अवसर मिल सकता है जो जीवीसी के लिए आवश्यक हैं। मेगा एफटीपी के सदस्य ऐसे प्रयासों को रोक नहीं पाएंगे। 

मेगा एफटीए के नियमों और प्रतिबद्धताओं का विश्व व्यापार संगठन पर प्रत्यारोपण करने से ही वे नियम और प्रतिबद्धताएं सच्चे अर्थों में वैश्विक बनेंगे और विश्व व्यापार संगठन के सदस्यों को, चाहे वे विकसित हों या विकासशील हों, धीरे-धीरे किंतु स्थिरता से जीवीसी में शामिल होने का अवसर मिलेगा। विश्व व्यापार संगठन का ऐसे नए नियमों और प्रतिबद्धताओं के साथ पुनर्जीवन होगा जो जीवीसी की आवश्यकताओं के साथ मेल खाते हों, और इसे हम विश्व व्यापार संगठन 2 कह सकते हैं। 

7.3 विश्व व्यापार संगठन 2.0 कैसे प्राप्त किया जा सकता है?

अतः आवश्यकता इस बात की है कि केवल विश्व व्यापार संगठन 2.0 ही नहीं बल्कि वैश्विक आर्थिक संस्थाओं का व्यापक पुनः अविष्कार किया जाये। ऐसे पुनः अविष्कार के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक, जी 8, जी 20, ओईसीडी और बेसल समिति जैसी विद्यमान संस्थाओं के संपूर्ण विनाश की आवश्यकता नहीं है, बल्कि ऐसी संस्थाओं के कार्यों को ठीक करके और उनके समन्वय और सहयोग को और अधिक आगे बढ़ा कर भी इसे प्राप्त किया जा सकता है। अतः संभवतः हमें ब्रेटन वुड्स 2.0 की भी आवश्यकता हो सकती है। 

7.4 ब्रेटन वुड्स 2.0 क्या है?

वैश्विक व्यापार, निवेश और वित्त को प्रबंधित करने के लिए स्थापित ब्रेटन वुड्स प्रणाली की स्थापना को सात दशक हो चुके हैं। 21 वीं सदी की वैश्विक अर्थव्यवस्था, जिसकी विशेषता जीवीसी और जीएफबी है, को उसके प्रबंध संरचना के मूलभूत सुधार की आवश्यकता है। ब्रेटन वुड्स 2 की अवधारणा तभी पूरी हो पायेगी जब विद्यमान संस्थाओं के कार्यों को ठीक किया जाए, उनके बीच के समन्वय को सु.ढ किया जाए और जीवीसी और जीएफबी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हें नए कार्य दिए जाएँ। आवश्यकता इस बात की है कि 21 वीं सदी की अर्थव्यवस्था की बदलती प्रवृत्तियों के बारे में एक अंत.र्ष्टि हो, और वैश्विक आर्थिक प्रबंधन लिए विद्यमान संस्थाओं के पुनरुज्जीवन के लिए एक अभिनव और विकासवादी दृष्टिकोण हो। 

बहुपक्षीय रूप से ऐसी उदार नीति सुधारों की स्थापना का पहला प्रयास, ओईसीडी द्वारा प्रायोजित निवेश पर बहुपक्षीय समझौता 1998 में असफल हुआ। दूसरा प्रयास था विश्व व्यापार संगठन का डीडीए जिसकी शुरुआत नवंबर 2001 में हुई। हालांकि संभवतः विश्व व्यापार संगठन की शक्ति संरचना के कारण, जो गैट से काफी भिन्न थी, बहुपक्षीय व्यापार वार्ताओं पर सहमति बनाने की दृष्टि से विश्व व्यापार संगठन के सदस्यों को यह काफी कष्टप्रद और समय लेने वाला प्रतीत हुआ। डीडीए कार्यसूची के लगभग सभी मुद्दों पर प्रमुख सदस्य, जैसे अमेरिका, यूरोपीय संघ, चीन, भारत और ब्राजील किसी सहमति पर नहीं पहुँच पाये। यहाँ तक कि वर्ष 2020 तक भी अनेक प्रमुख मुद्दों का समाधान नहीं हो पाया था। 

8.0 विश्व व्यापार संगठन और मेगा-एफटीए की तुलना 

यहाँ विश्व व्यापार संगठन और मेगा एफटीए के बीच एक तुलनात्मक वर्णन दिया गया है।

9.0 मामले अध्ययन (Case Studies)

9.1 मामला अध्ययन क्रमांक 1ः इस्पात और टायरों पर अमेरिका के शुल्क 

11 सितंबर 2009 को राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चीन में उत्पादित टायरों पर 35 प्रतिशत के आयात शुल्क की घोषणा की। इसका क्रियान्वयन यूनाइटेड स्टील वर्कर्स ऑफ अमेरिका (अमेरिकी टायर कर्मचारियों का संघ) की मजबूत पैरवी के कारण किया गया। 2000 के राष्ट्रपति निर्वाचन अभियान के दौरान जॉर्ज. ड़ब्ल्यू. बुश ने इस्पात के आयात पर शुल्क अधिरोपित करने का आश्वासन दिया था। इसके कारण बुश को इस्पात उत्पादक क्षेत्रों में मत प्राप्त करने में सहायता प्राप्त हुई थी - अर्थात् पश्चिम वर्जिनिया, पेनसिलवेनिया और ओहायो।

चुनाव के बाद, मार्च 2002 में इस्पात पर शुल्क अधिरोपित किया गया, हालांकि अगले दो वर्षों के अंदर ही इसे हटा लिया गया था। 

यूरोपीय देशों की प्रतिक्रिया 

  1. विश्व व्यापार संगठन में एक औपचारिक विवाद निवारण प्रक्रिया है, जिसके तहत जो देश मानते हैं कि विश्व व्यापार संगठन के नियमों का पालन नहीं किया जा रहा है, वे अपनी शिकायतों को उठा सकते हैं, और उनका मूल्यांकन करा सकते हैं। 
  2. यूरोपीय संघ के देशों ने मामला विश्व व्यापार संगठन में लाकर इस पर कार्रवाई की। विश्व व्यापार संगठन के निर्णय ने यूरोपीय संघ के देशों और अन्य देशों को अमेरिकी निर्यातों के विरुद्ध अपने स्वयं के शुल्क अधिरोपित करके इस कार्रवाई का प्रतिकार करने की पात्रता प्रदान की। 
  3. एक आयातक देश द्वारा शुल्कों का उपयोग आसानी से निर्यातक देशों को प्रतिक्रिया प्रदान करने, और इस प्रकार एक शुल्क युद्ध शुरू करने को प्रेरित कर सकता है। 

9.2 मामला अध्ययन क्रमांक 2ः चीन और बहुतंतु व्यवस्था (एमएफए)

गैट का एक संस्थापक सिद्धांत यह था कि आयात को प्रतिबंधित करने के लिए देशों को कोटे का उपयोग नहीं करना चाहिए। 

1974 में गैट के तत्वावधान में आयोजित बहुतंतु व्यवस्था इस सिद्धांत की एक प्रमुख अपवाद थी, और यह औद्योगिक देशों को विकासशील देशों से वस्त्रों और कपड़ों के आयात को प्रतिबंधित करने की अनुमति प्रदान करती थी।

आयात करने वाले देश एमएफए में शामिल हो सकते हैं और द्विपक्षीय कोटे की व्यवस्था कर सकते हैं (अर्थात निर्यातक देशों के साथ बातचीत करके) या एकतरफा भी कर सकते हैं (अर्थात अपने आप)।

एमएफए 1 जनवरी 2005 को समाप्त हो गया। वस्त्रों और कपड़ों का सबसे बड़ा संभावित आपूर्तिकर्ता देश चीन था। 1 जनवरी 2005 के तुरंत बाद, चीन से वस्त्रों और कपड़ों का निर्यात तेजी से बढ़ा। 

आयात की गुणवत्ता पर प्रभाव 

  1. निम्न मूल्य मदों में वस्त्रों और कपड़ों के मूल्यों में सबसे अधिक गिरावट हुई (प्रतिशत की दृष्टि से)।
  2. इस प्रकार चीन से आने वाली एक सस्ती टी-शर्ट जिसका मूल्य 1 ड़ॉलर था, उसमें 38 प्रतिशत से अधिक की गिरावट हुई (38 सेंट से अधिक), जबकि एक अधिक मूल्य का वस्त्र, जिसका निर्धारित मूल्य 10 डॉलर था, उसके मूल्य में 38 प्रतिशत से कम की गिरावट हुई। 
  3. इसका परिणाम यह हुआ कि अमेरिकी मांग चीन से आयातित निम्न मूल्यों के वस्त्रों में परिवर्तित हो गईः चीन से होने वाले निर्यात में ‘‘गुणवत्ता हृस‘‘ हुआ।

अमेरिका और यूरोप की प्रतिक्रिया 

  1. यूरोपीय संघ ने चीन के निर्यातों पर नए कोटा अधिरोपित करने की धमकी दी, और इसके प्रतिक्रियास्वरूप, 11 जून 2005 को चीन ‘‘स्वैच्छिक‘‘ निर्यात प्रतिबंध के लिए सहमत हुआ। 
  2. विश्वव्यापी मंदी के कारण इस क्षेत्र में चीन के निर्यात 2009 में इसके पूर्व के वर्षों की तुलना में काफी कम हुए। 
  3. चीन ने संकेत दिया कि इसके आगे वह यूरोप और अमेरिका को होने वाले अपने वस्त्रों और कपड़ों की निर्यात क्षमता में किसी भी प्रकार की सीमाओं को स्वीकार नहीं करेगा, और ये दोनों कोटे समाप्त हो गए। 

9.3 मामला अध्ययन क्रमांक 3ः प्रारंभिक उद्योग संरक्षण 

ऐसे दो मामले हैं जिनमें प्रारंभिक उद्योगों का संरक्षण संभावित रूप से न्यायोचित है। 

संरक्षण तब न्यायोचित है, जब आज अधिरोपित किये गए शुल्क के कारण घरेलू उत्पादन में वृद्धि होती है, और यह उद्योग में विद्यमान फर्मों को उत्पादन की नई तकनीकों को बेहतर ढ़ंग से सीख कर भविष्य में लागतें कम करने में सहायक सिद्ध होता है, या  एक अवधि में अधिरोपित किया गया शुल्क उत्पादन में वृद्धि करता है और उद्योग में विद्यमान अन्य फर्मों की भविष्य की लागतों को कम करता है, या यहां तक कि अन्य उद्योगों की फर्मों की भविष्य की लागतों को भी कम करता है। इस प्रकार की बाह्यता तब देखने को मिलती है, जब फर्में एक दूसरे की सफलता से सीख लेती हैं। 

जैसे कि ये दोनों मामले दर्शाते हैं, शुल्कों या कोटे का समर्थन करने वाला प्रारंभिक उद्योग संरक्षण का तर्क किसी न किसी प्रकार की बाजार विफलता पर निर्भर होता है। अर्धचालक उद्योग में फर्मों के लिए यह असामान्य नहीं हैं कि वे अन्य फर्मों के सफल नवोन्मेषों की नकल करें, और इस प्रकार के छलकते ज्ञान से लाभ प्राप्त करें। 

वज़नदार (भारी) मोटरसाइकिलों पर अमेरिकी शुल्क 

  1. 1983 में, प्रसिद्ध अमेरिकी मोटरसाइकिल निर्माता हार्ले-ड़ेविड़सन कठिनाई में था। गंभीर आयात प्रतिस्पर्धा का सामना करते हुए हार्ले-डे़विड़सन ने अंतर्राष्ट्रीय व्यापार आयोग (आईटीसी) के समक्ष अनुच्छेद 201 के संरक्षण के लिए आवेदन किया। 
  2. उत्पादक अधिशेष के भविष्यकालीन लाभ का मूल्यांकन करने के लिए, हम फर्म के उस समय के शेयर बाजार के मूल्य का परीक्षण कर सकते हैं जब शुल्क हटाया गया था। इस गणना के अनुसार, हार्ले-डे़विड़सन को शुल्क संरक्षण से होने वाला उत्पादक अधिशेष का भविष्यकालीन लाभ (131 मिलियन), शुल्क से होने वाले नुकसान से अधिक है। 

ब्राज़ील में कम्प्यूटर्स 

  1. ब्राज़ील और अमेरिका के मूल्यों में निरंतर अंतर का अर्थ था कि शुल्क संरक्षण के बिना ब्राज़ील कभी भी प्रतिस्पर्धी मूल्यों पर कंप्यूटर उत्पादन करने में सक्षम नहीं था - प्रारंभिक उद्योग संरक्षण सफल नहीं हुआ। 
  2. ब्राज़ील की उच्च कीमतों ने ब्राज़ील के उन उद्योगों पर लागतें अधिरोपित कर दी थीं, जो विनिर्माण में कम्प्यूटर्स पर निर्भर थे, और व्यक्तिगत उपयोगकर्ताओं पर भी अधिरोपित कर दी थीं।

चीन के मोटर वाहन उद्योग का संरक्षण 

  1. 2009 में चीन ने विश्व के सबसे बडे़ मोटर वाहन बाजार के रूप में अमेरिका को पीछे छोड़ दिया था। चीन में स्थित विदेशी फर्मों के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा, स्थानीय उत्पादकों, और आयातित विक्रय का परिणाम नए मॉड़ल्स और गिरती कीमतों में हुआ। 
  2. 1980 के दशक से शुरुआत करके, चीन ने विदेशी फर्मों और स्थानीय चीनी भागीदारों के बीच बडे़ पैमाने पर संयुक्त उपक्रमों को अनुमति प्रदान की। विभिन्न विनियमों के साथ, उच्च शुल्क दरों ने, इनमें से कम से कम कुछ संयुक्त उपक्रमों को सफल होने में सहायता प्रदान की। 
  3. उपभोक्ताओं के लिए लागतेंः कोटे घरेलू कीमतों को विशेष रूप से तब प्रभावित करते हैं जब घरेलू फर्म एकाधिकार फर्म हो। यह स्थिति शंघाई के फॉक्सवैगन संयुक्त उपक्रम पर लागू हुई, जिसे अपने वाहनों के विक्रय में स्थानीय एकाधिकार प्राप्त था। 
  4. उत्पादकों को लाभः चीन में उपयोग किये गए कोटा और शुल्कों को प्रारंभिक उद्योग संरक्षण के रूप में न्यायोचित होने के लिए आवश्यक है कि उनके परिणामस्वरुप भविष्य की लागतों में बडे़ पैमाने पर गिरावट होनी चाहिए थी, ताकि संरक्षण की आवश्यकता ही न रहे। 
  5. फॉक्सवैगन और अन्य मोटर वाहन निर्माता चीन को कालग्रस्त कारखाना उपकरण भेज कर समृद्ध होते थे, ताकि वे पुराने मॉड़ल्स का उत्पादन कर सकें जो पश्चिमी बाजार में अब प्रचलित नहीं थे। 
  6. प्रतिस्पर्धा इतनी तीव्र हो गई है कि होंडा यूरोप, जापान और अमेरिका में कुछ ही महीने पहले विक्रय के लिए आया सिविक का अपना नवीनतम संस्करण चीन में शुरू करने पर बाध्य हुआ। 
  7. अमेरिकी और यूरोपीय मोटर वाहन निर्माता चीन के अपने संयंत्रों में अपनी सर्वोत्कृष्ट प्रौद्योगिकी शुरू कर रहे हैं, और यह केवल एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करने की दृष्टि से ही नहीं किया जा रहा है। उन्हें पूरी तरह से स्थानीय निर्माताओं से भी भीषण प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। 
  8. जनरल मोटर्स के प्रत्येक चार वाहनों में से एक चीन में निर्मित हो रहा है। यहां तक कि जो वाहन डेट्रॉइट में निर्मित हो रहे हैं, उनके भी बडे़ भाग की रचना शंघाई में हो रही है। 
  9. भारत में चीनी लघु-वाणिज्यिक वाहनों के विक्रय के सौदे के बदले में जनरल मोटर्स अपने प्रमुख मेनलैंड़ संयुक्त उपक्रम, शंघाई जनरल मोटर्स का 50-50 हिस्सा देने को सहमत हो गया। 
  10. क्या पर्यवेक्षक एक दिन पीछे मुड़ कर देखेंगे और कहेंगे कि यही वह दिन था जब जनरल मोटर्स ने चीन को अपना भविष्य हस्ताक्षर करके दे दिया था?
  11. चीन के बिना शायद जनरल मोटर्स को बचाया ही नहीं जा सकता, जो एक दशक पूर्व की स्थिति से एक उल्लेखनीय उत्क्रमण रहा, जब चीन का मोटर वाहन उद्योग अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास कर रहा था, और उसे जनरल मोटर्स के निवेश की सख्त आवश्यकता थी।

9.4 मामला अध्ययन क्रमांक 4 


विवादित उपाय और उत्पाद 

  1. विवादित उपायः गैर-प्रमाणित देशों (अर्थात वे देश जो झींगा मछली पकड़ने के लिए एक विशिष्ट जाल का उपयोग नहीं करते) से झींगा और झींगा उत्पादों पर अमेरिकी आयात प्रतिबंध 
  2. विवादित उत्पादः शिकायतकर्ता देशों के झींगा और झींगा उत्पाद 

मुख्य पैनल/एबी निष्कर्षों का सारांश 

गैट अनुच्छेद ग्प् (मात्रात्मक प्रतिबंध): पैनल ने पाया कि आयातित झींगा और झींगा उत्पादों पर अनुच्छेद 609 पर आधारित अमेरिका का प्रतिबंध गैट के अनुच्छेद 11 का उल्लंघन करता है। शायद अमेरिका ने अनुच्छेद 11 का यह उल्लंघन मान्य कर लिया क्योंकि उसने इसके विरोध में कोई तर्क नहीं प्रस्तुत किये। 

गैट अनुच्छेद XI (अपवाद): अपीलीय निकाय (एबी) ने निर्णय दिया कि हालांकि अमेरिका का आयात निर्बंध समाप्त होते प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित है, अतः यह अनुच्छेद XX(g) के अपवाद की परिधि में आता है, फिर भी इसे अनुच्छेद XX के तहत न्यायोचित नहीं माना जा सकता क्योंकि यह निर्बंध अनुच्छेद XX के तहत ‘‘मनमाने और अनुचित‘‘ भेदभाव के तहत आता है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने में अपीलीय निकाय ने अन्य बातों के साथ यह तर्क दिया कि इसके अनुप्रयोग में यह उपाय इसके प्रस्तावित और वास्तविक अवपीड़क प्रभाव के कारण उन विशिष्ट नीतिगत निर्णयों के परिपेक्ष्य में अनुचित रूप से भेदभावपूर्ण है जो विश्व व्यापार संगठन के सदस्य देशों की सरकारों द्वारा लिए गए हैं। साथ ही यह उपाय ‘‘मनमाना‘‘ भेदभाव भी है क्योंकि इसके अनुप्रयोग में कठोरता, लचीलेपन का अभाव और व्यापार विनियमों के प्रशासन में पारदर्शिता और प्रक्रियात्मक निष्पक्षता का अभाव है। 

अंत में अनुच्छेद XX के संदर्भ में पैनल के ही निष्कर्षों पर पहुंचते हुए भी अपीलीय निकाय ने अनुच्छेद ग्ग् के विश्लेषण में उठाये गए कदमों के उचित अनुक्रम के संबंध में पैनल द्वारा की गई अनुच्छेद XX की न्यायिक व्याख्या को उलट दिया। कदमों के क्रम में पहले यह मूल्यांकन करना होता है कि क्या यह उपाय अंतरिम रूप से पैराग्राफ (ए)-(जे) के तहत किसी भी वर्गीकरण में न्यायोचित हो सकता है, और उसके बाद आगे इसी उपाय को अनुच्छेद ग्ग् की परिधि के तहत आंकना होता है। 

अन्य मुद्दे 

एमिकस क्यूरी संक्षिप्तः अपीलीय निकाय ने निर्णय दिया की वह किसी पक्ष के प्रस्तुतीकरण में संलग्न एमिकस क्यूरी (न्यायमित्र) संक्षिप्त को मान्य कर सकता है क्योंकि किसी भी पक्ष के प्रस्तुतीकरण में एक संक्षिप्त या अनुसामग्री संलग्न करना उस सामग्री को, कम से कम प्रथम दृष्टया, उस पक्ष के प्रस्तुतीकरण का एक अभिन्न भाग बनाता है। इसी तर्काधार के आधार पर अपीलीय निकाय ने पैनल के निर्णय को उलट दिया और निर्णय दिया कि डीएसयू के अनुच्छेद 12 और 13 के तहत पैनल को ‘‘उसके समक्ष प्रस्तुत की गई जानकारी या सलाह को या तो स्वीकार करके विचाराधीन लेने का या उसे अस्वीकृत करने का विवेकाधिकार है, फिर चाहे पैनल द्वारा अनुरोध किया गया हो या नहीं।‘‘

9.5 मामला अध्ययन क्रमांक 5

विवादित उपाय और बौद्धिक संपत्ति 

विवादित उपाय 

  1. न्यायिक शासन की अपर्याप्तता - भारत का ‘‘मेलबॉक्स नियम‘‘ - जिसके तहत औषधि और कृषि के रासायनिक उत्पादों के लिए आवेदन दायर किया जा सकता है; और 
  2. ऐसे उत्पादों को अनन्य विपणन अधिकार प्रदान करने के लिए आवश्यक तंत्र का अभाव।

विवादित बौद्धिक संपत्ति 

ट्रिप्स समझौते के अनुच्छेद 27 के तहत किये गए प्रावधान के अनुसार औषधि और कृषि रासायनिक उत्पादों के लिए पेटेंट संरक्षण। 

पैनल के मुख्य निष्कर्षों का सारांश 

ट्रिप्स अनुच्छेद 70.8ः पैनल ने निर्णय दिया कि औषधि और कृषि रासायनिक उत्पादों के लिए पेटेंट आवेदन की ‘‘प्रशासनिक पद्धतियों‘‘ पर आधारित भारत की दायर करने की प्रणाली ट्रिप्स के अनुच्छेद 70.8 के विसंगत थी। पैनल ने पाया कि इस प्रणाली में उन ‘‘साधनों‘‘ का प्रावधान नहीं किया गया है जिनके द्वारा इस प्रकार के आविष्कारों के लिए पेटेंट आवेदन अनुच्छेद 70.8 (ए) के अर्थों के तहत सुरक्षित रूप से दायर किये जा सकते हैं, क्योंकि सैद्धांतिक दृष्टि से, वर्तमान प्रशासनिक निर्देशों के तहत दायर किया गया पेटेंट आवेदन प्रचलित भारतीय कानून - 1970 का पेटेंट अधिनियम - के विरोधाभासी अनिवार्य प्रावधानों के तहत न्यायालयों द्वारा अस्वीकार किया जा सकता था। 

ट्रिप्स अनुच्छेद 70.9ः पैनल ने पाया कि भारत में औषधि और कृषि रासायनिक उत्पादों के लिए ‘‘अनन्य विपणन अधिकार‘‘ प्रदान करने के लिए किसी प्रकार का तंत्र अस्तित्व में नहीं है, अतः इसमें ट्रिप्स अनुच्छेद 70.9 का उल्लंघन हुआ है। 

9.6 मामला अध्ययन क्रमांक 6


विवादित उपाय और उत्पाद 

विवादित उपायः भारत के आयात निर्बंध जिनके बारे में भारत का दावा था कि ये गैट के अनुच्छेद XVIII के तहत उसकी भुगतान संतुलन की स्थिति के संरक्षण के लिए थेः आयात अनुज्ञप्ति व्यवस्था, सरकारी अभिकरणों के माध्यम से आयात का नलिकाकरण और आयात अनुज्ञप्तियों के लिए वास्तविक उपयोगकर्ता आवश्यकता। 

विवादित उत्पादः भारत के आयात निर्बंधों से प्रभावित होने वाले आयातित उत्पादः सामंजस्यपूर्ण प्रणाली (एचएस) के आठ अंकों के स्तर के अंतर्गत 2714 शुल्क रेखाएं (जिनमें से 710 कृषि उत्पाद थे)।

पैनल/अपीलीय निकाय के मुख्य निष्कर्षों का सारांश 

गैट अनुच्छेद XI:1 (मात्रात्मक निर्बंध): अनुच्छेद में निहित आयात निर्बंधों पर सामान्य प्रतिबंध के व्यापक दायरे के आधार पर पैनल ने पाया कि विवेकाधीन आयात अनुज्ञप्ति प्रणाली सहित भारत के उपाय ऐसे मात्रात्मक निर्बंध थे जो गैट अनुच्छेद XI1 से विसंगत थे।  

गैट अनुच्छेद XVI II: 11 (भुगतान संतुलन): पैनल ने पाया कि भारत के मौद्रिक भंड़ार पर्याप्त थे, अतः अनुच्छेद XVII : 9 के अर्थ के अंतर्गत उसके मौद्रिक भंडारों में गंभीर गिरावट का पहले से अनुमान लगाने या उन्हें रोकने के उपाय आवश्यक नहीं थे। भारत ने अनुच्छेद XVII : 9 के दूसरे वाक्य का उल्लंघन किया था, जिसमें प्रावधान है कि उपायों को उसी स्तर तक बनाये रखा जाना चाहिए था जितना अनुच्छेद XVII : 9 के तहत आवश्यक था। 

गैट अनुच्छेद XVI  II:11 के तहत तर्कसंगति (एड नोट और परंतुक): चूंकि भारत के भुगतान संतुलन के उपायों को हटाने से आयात निर्बंधों को बनाये रखने के औचित्य को सिद्ध करने वाली वे स्थितियां तुरंत निर्मित नहीं होंगी जो अनुच्छेद XVIII:9 में परिकल्पित हैं, अतः अपीलीय निकाय ने पैनल के उस निर्णय को मान्य किया कि भारत द्वारा लागू किये गए उपाय अनुच्छेद XVIII:11 के एड नोट के तहत भी न्यायोचित नहीं थे। साथ ही अपीलीय निकाय ने पैनल के उन निष्कर्षों को भी मान्य किया कि चूंकि भारत को अपनी विकास नीति को परिवर्तित करने की आवश्यकता नहीं थी, अतः उसे अनुच्छेद XVIII:11 के परंतुक के आधार पर भी अपने भुगतान संतुलन उपाय बनाये रखने की पात्रता नहीं थी। 

AA अनुच्छेद 4.2ः पैनल ने पाया कि ये उपाय अनुच्छेद 4.2 के तहत उन दायित्वों का भी उल्लंघन करते हैं, जिनके अनुसार ऐसे उपाय बनाये रखे नहीं जा सकते जिन्हें सामान्य सीमा शुल्कों में परिवर्तित किया जाना आवश्यक था, अतः वे अनुच्छेद 4.2 की पादटिप्पणी 1 के तहत भी न्यायोचित नहीं थे, क्योंकि ये उपाय ‘‘भुगतान संतुलन के प्रावधानों के तहत बनाये रखे गए उपायों‘‘ की परिधि में भी नहीं आते थे।

अन्य मुद्दे 

सिद्धि का भार (गैट अनुच्छेद XVIII): अपीलीय निकाय ने पैनल के इस निष्कर्ष को भी मान्य किया कि अनुच्छेद XVIII:11 के संबंध में सिद्धि का भार बचाव पक्ष पर होता है (एक स्वीकारात्मक बचाव के रूप में), और अनुच्छेद XVIII:11 के नोट एड के संबंध में सिद्धि का भार शिकायतकर्ता पक्ष पर होता है। 

भुगतान संतुलन उपायों की समीक्षा करने की पैनल की योग्यताः अपीलीय निकाय ने मान्य किया कि पैनल भुगतान संतुलन निर्बंधों से संबंधित सभी मामलों की समीक्षा करने में सक्षम हैं, और भारत के इस तर्क को अस्वीकार कर दिया कि संस्थागत संतुलन के सिद्धांत के लिए अनिवार्य है कि भुगतान संतुलन निर्बंधों से संबंधित मामलों को संबंधित राजनीतिक अंगों पर छोड़ दिया जाए - भुगतान संतुलन समितियों और सामान्य परिषद पर।

9.7 मामला अध्ययन क्रमांक 7

विवादित उपाय और उत्पाद 

विवादित उपायः यूरोपीय समुदायों द्वारा राशिपातन के उपांत की गणना के लिए उपयोग की जाने वाली यूरोपीय समुदायों की शून्यीकरण पद्धति सहित निर्णायक राशिपातन रोधी शुल्कों का अधिरोपण। 

विवादित उत्पादः भारत से आयात किये जाने वाले कपास सदृश बिस्तर के लिनेन। 

पैनल/अपीलीय निकाय के मुख्य निष्कर्षों का सारांश 

एडीए अनुच्छेद 2.4.2 (राशिपातन उपांत - ‘‘शून्यीकरण‘‘): अपीलीय निकाय ने पैनल के इस निष्कर्ष को ग्राह्य माना कि इस मामले में ‘‘राशिपातन के उपांत के अस्तित्व‘‘ को स्थापित करने के लिए यूरोपीय समुदायों द्वारा अनुप्रयुक्त ‘‘शून्यीकरण‘‘ की पद्धति अनुच्छेद 2.4.2 से विसंगत थी। ‘‘नकारात्मक राशिपातन उपांतों‘‘ के ‘‘शून्यीकरण‘‘ के द्वारा यूरोपीय समुदाय कुछ निर्यात लेनदेनों के मूल्यों की समग्रता पर विचार करने में विफल रहे थे। इसके परिणामस्वरूप यूरोपीय समुदाय भारित औसत सामान्य मूल्य और सभी प्रकार के कपास सदृश बिस्तर लिनेन के सभी लेनदेनों के भारित औसत मूल्यों की तुलना के आधार पर कपास सदृश बिस्तर लिनेन के ‘‘राशिपातन के उपांतों‘‘ को स्थापित नहीं कर पाये हैं। 

एडीए अनुच्छेद 2.2.2 (2) (लाभ की गणना): अपीलीय निकाय ने पैनल के इस निष्कर्ष को उलट दिया और पाया कि अनुच्छेद 2.2.2 (2) में प्रशासनिक, विक्रय और सामान्य लागतों और लाभो की गणना के लिए निर्दिष्ट पद्धतियां उस मामले में लागू नहीं की जा सकतीं जहां केवल एक अन्य उत्पादक या निर्यातक के विषय में आंकडे़ं उपलब्ध हैं। अपीलीय निकाय ने यह भी पाया कि लाभों की मात्रा की गणना करते समय व्यापार की सामान्य प्रक्रिया के तहत नहीं किये गए अन्य निर्यातकों या उत्पादकों के विक्रय को अपवर्जित नहीं किया जा सकता। अतः अपीलीय निकाय ने निष्कर्ष निकाला कि यूरोपीय समुदायों की यह कार्रवाई अनुच्छेद 2.2.2 (2) के विसंगत थी। 

एडीए अनुच्छेद 3.4 (चोट): पैनल ने पाया कि अनुच्छेद 3.4 के तहत सूचीबद्ध किये गए ‘‘सभी‘‘ चोट कारकों का विचार करने में विफल रहने के कारण यूरोपीय समुदायों ने अनुच्छेद 3.4 के विसंगत कार्रवाई की थी। पैनल ने यह भी पाया कि यूरोपीय समुदाय अनुच्छेद 3 के तहत नमूने के बाहर की कंपनियों की जानकारी पर भी विचार कर सकते थे, जहां ऐसी जानकारी ‘‘घरेलू उद्योग‘‘ से प्राप्त की गई है। हालांकि यूरोपीय समुदाय ने इस हद तक अनुच्छेद 3.4 के विसंगत कार्य किया है कि वे केवल उन उत्पादकों की जानकारी पर निर्भर रहे जो ‘‘घरेलू उद्योग‘‘ का हिस्सा नहीं थे। 

एडीए अनुच्छेद 15 (विकसित देश): पैनल ने पाया कि अनुच्छेद 15 की आवश्यकता है कि विकसित देश विकासशील देशों से होने वाले निर्यातों पर निर्णायक राशिपातन रोधी शुल्क अनुप्रयुक्त करने से पहले ‘‘रचनात्मक समाधानों‘‘ की संभावनाओं की खोज करे, जैसे संपूर्ण राशि या आश्वासित मूल्य से कम मात्रा में राशिपातन रोधी शुल्कों का अधिरोपण। पैनल इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इस प्रकार के आश्वासनों के भारत के अनुरोध का जवाब देने में असफल रह कर यूरोपीय समुदाय ने अनुच्छेद 15 के विसंगत कार्य किया था।  

अन्य मुद्दे 

ड़ीएसयू अनुच्छेद 6.2 (पैनल का अनुरोध - प्रावधान की पहचान): पैनल ने एडीए अनुच्छेद 6 से संबंधित भारत के दावे को इस आधार पर अस्वीकृत कर दिया कि भारत अपने पैनल अनुरोध में उस प्रावधान की पहचान करने में असफल रहा था, और इस प्रकार उसने प्रतिवादी पक्ष और अन्य तीसरे पक्षों को सूचना देने से इंकार कर दिया। पैनल ने भारत की इस तथ्य पर निर्भरता को अस्वीकार कर दिया कि यह प्रावधान (अनुच्छेद 6) उसके सलाह अनुरोध में शामिल किया गया था, और सलाह के दौरान इसपर वास्तव में चर्चा भी हुई थी, पैनल ने माना कि सलाह किसी विवाद के स्पष्टीकरण का एक साधन है, और अनेक बार सलाह के दौरान चर्चित विषय वास्तविक मामले में सामने भी नहीं लाये जाते। 

9.8 मामला अध्ययन क्रमांक 8

ड़ीएसबी की सिफारिशों के अनुपालन के लिए किये गए उपाय 

यूरोपीय समुदाय विनियम 1644/2001 जिसके अनुसार यूरोपीय समुदाय ने बिस्तर लिनेन पर राशिपातन उपायों की पुनर्समीक्षा की। साथ ही यूरोपीय समुदाय विनियम 696/2002 जिसके अनुसार यूरोपीय समुदाय ने चोट और आकस्मिक जुड़ाव के निष्कर्ष की पुनर्समीक्षा की। 

पैनल/अपीलीय निकाय के मुख्य निष्कर्षों का सारांश

एड़ीए अनुच्छेद 3.1 और 3.2ः इस मुद्दे पर अपीलीय निकाय ने पैनल के निष्कर्षों को उलट दिया और यह निष्कर्ष निकाला कि यूरोपीय समुदाय का सभी गैर परीक्षित उत्पादकों द्वारा किये गए आयातों का विचार इस उद्देश्य से करना कि वे सभी चोट विश्लेषण के लिए राशिपातित किये गए हैं, उस अनुमान पर आधारित है जिसके समर्थन के लिए कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। अतः अपीलीय निकाय ने यह निर्णय दिया कि यूरोपीय समुदाय ने अनुच्छेद 3.1 और अनुच्छेद 3.2 के विसंगत कार्य किया है, क्योंकि उसने ‘‘राशिपातित आयातों का परिमाण’’ ‘‘सकारात्मक साक्ष्य‘‘ और ‘‘निरपेक्ष मूल्यांकन‘‘ के आधार पर निर्धारित नहीं किया था। 

एड़ीए अनुच्छेद 3.1 और 3.4ः पैनल ने भारत के इस दावे को अस्वीकार कर दिया कि यूरोपीयन समुदाय के पास आर्थिक कारकों और आंकडों की जानकारी उपलब्ध नहीं है (अर्थात इन्वेंट्री और उपयोग क्षमता) पैनल ने निर्णय दिया कि यूरोपीय समुदाय ने इन कारकों पर आंकडें़ संग्रहित किये थे और उसने चोट निर्धारण से संबंधित तथ्यों का एक समग्र पुनर्विचार और विश्लेषण नहीं किया था, जैसा कि एक निष्पक्ष और निरपेक्ष जाँच प्राधिकरण करता। इस संबंध में अपीलीय निकाय ने भारत के इस आरोप को भी अस्वीकार कर दिया कि पैनल ने डीएसयू अनुच्छेद 11 और एडीए अनुच्छेद 17.6 (2) के विसंगत कार्य किया था। 

एड़ीए अनुच्छेद 3.5ः पैनल ने अनुच्छेद 3.5 के तहत दावे को भी अस्वीकार कर दिया, क्योंकि इस प्रावधान में यह आवश्यक नहीं था कि जाँच प्राधिकरण इस बात का प्रदर्शन करे कि केवल राशिपातित आयतों के कारण ही चोट पहुंची थी। 

एड़ीए अनुच्छेद 15ः पैनल ने पाया कि राशिपातन शुल्कों के अधिरोपण से पूर्व रचनात्मक समाधानों की संभावनाओं की खोज नहीं करके यूरोपीय समुदाय ने अनुच्छेद 15 की अनिवार्यताओं का उल्लंघन नहीं किया था क्योंकि यूरोपीय समुदाय ने भारतीय आयातों पर इन शुल्कों को निलंबित कर दिया था। 

अन्य मुद्दे 

संदर्भ की शर्तें (ड़ीएसयू अनुच्छेद 21.5): अपीलीय निकाय ने पैनल के इस निर्णय को ग्राह्य माना की उसने अनुच्छेद 3.5 के तहत ‘‘अन्य कारकों‘‘ का परीक्षण नहीं किया, क्योंकि मूल पैनल ने इसका समाधान कर दिया था (अर्थात चूंकि भारत प्रथम दृष्टया मामला बनाने में विफल रहा था, अतः दावा अस्वीकृत किया जा चुका था), और इसलिए पैनल के संदर्भों के क्षेत्राधिकार के बाहर था। अपीलीय निकाय ने निर्णय दिया कि मूल पैनल के निष्कर्ष ने, जिनपर अपील नहीं की गई थी, और जिन्हें ड़ीएसबी ने मान्य कर लिया था, पक्षों के बीच क्रियान्वयन उपायों के विशिष्ट घटक और उस विशिष्ट दावे के संदर्भ में विवाद का ‘‘अंतिम समाधान‘‘ प्रदान कर दिया था।

9.9 मामला अध्ययन क्रमांक 9

विवादित उपाय और उत्पाद 

विवादित उपायः भारत द्वारा अपने मोटर वाहन क्षेत्र पर अधिरोपित भारत की (i) स्वदेशीकरण (स्थानीय सामग्री) आवश्यकताएं; और (ii) व्यापार संतुलन आवश्यकताएं (निर्यात मूल्य = आयात मूल्य)

विवादित उत्पादः मोटर कारें और उनके पुर्ज़े

पैनल/अपीलीय निकाय के मुख्य निष्कर्षों का सारांश 

स्वदेशीकरण आवश्यकताएं 

गैट अनुच्छेद XIII: 4 (राष्ट्रीय उपचार): पैनल ने निर्णय दिया कि इन उपायों से अनुच्छेद प्प्प्रू4 का उल्लंघन होता है, क्योंकि भारत की स्वदेशीकरण की आवश्यकताओं ने भारतीय बाजार में प्रतिस्पर्धा को संशोधित कर दिया था, जो ‘‘आयातित कारों के भागों और पुर्जों के लिए हानिकारक था।‘‘

व्यापार संतुलन की आवश्यकताएं 

गैट अनुच्छेद XI:1 (आयातीकरण पर निर्बंध): यह देखते हुए कि ‘‘आयातीकरण पर या आयातीकरण से संबंधित किसी भी प्रकार की सीमाओं का अधिरोपण अनुच्छेद XI के अर्थ के तहत आयातीकरण पर निर्बंध माना जायेगा‘‘, पैनल ने पाया भारत की व्यापार संतुलन आवश्यकताएं, जो एक निर्यात प्रतिबद्धता के संबंध में आयात की मात्रा को सीमित करती थीं, वे अनुच्छेद XI:1 के अर्थ के तहत आयातीकरण पर निर्बंधों का कार्य करती थीं, अतः वे अनुच्छेद XI:1 का उल्लंघन करती थीं। पैनल ने यह भी पाया भारत दृष्टया यह मामला बनाने में असफल हुआ है कि यह आवश्यकता अनुच्छेद XVIII:B के भुगतान संतुलन प्रावधानों के तहत न्यायोचित थी। 

गैट अनुच्छेद III:4 : जहां तक व्यापार संतुलन दायित्वों के पहलू का प्रश्न है, जो भारतीय बाजार में आयातित पुर्जों के क्रेताओं पर कारों या पुर्जों के निर्यात का एक अतिरिक्त दायित्व अधिरोपित करते हैं, अपनेल ने पाया कि यह उपाय आयातित उत्पादों के क्रय के लिए एक ‘‘निवर्तक‘‘ के रूप में कार्य करता है, और इस प्रकार आयातित उत्पादों को एक कम पसंदीदा वस्तु बनाता है, और घरेलू उत्पादों को अधिक पसंद करने के लिए प्रोत्साहित करता है, जो अनुच्छेद III:4 से विसंगत है। 

अन्य मुद्दे 

उपायों का विकासः भारत के इस दावे पर कि चूंकि दो आवश्यकताओं को जन्म देने वाला आयात शासन समाप्त हो चुका था, अतः पैनल को ड़ीएसबी को यह सिफारिश नहीं करनी चाहिए कि भारत अपने उपायों को सुसंगत बनाये, पैनल का कहना था जहां एक उपाय को इस उद्देश्य से समाप्त कर दिया था, ताकि पैनल के उल्लंघन के निष्कर्षों को निरंतर प्रासंगिकता प्रदान की जा सके, यह एक पैनल के समझने के लिए पर्याप्त है कि वह कोई सिफारिश ही ना करे। फिर भी पैनल को इस मामले में स्थिति भिन्न प्रतीत हुई, क्योंकि पैनल की स्थापना के बाद समाप्त किये गए आयात शासन का उपायों के निरंतर अनुप्रयोग पर प्रभाव नहीं पड़ता। अतः पैनल ने यह सिफारिश की कि डीएसबी भारत से अनुरोध करे कि वह अपने उपायों को विश्व व्यापार संगठन के दायित्वों के सुसंगत बनाये। 

गैट अनुच्छेद III और XI (उपाय): जहां तक अनुच्छेद III  और XI के तहत (और इस प्रकार उनके बीच के संबंध) उपायों की व्याप्ति का प्रश्न है, तो पैनल ने यह टिप्पणी की कि यह अपवर्जित नहीं किया जा सकता कि इन दो प्रावधानों के बीच संभावित अधिव्यापन हो सकता है, और इस प्रकार कोई एक उपाय दोनों प्रावधानों के तहत आ सकता है।

9.10 मामला अध्ययन क्रमांक 10

विवादित उपाय और उत्पाद 

विवादित उपायः मेक्सिको के कर उपाय जिनके तहत वे शीतपेय जो गैर-गन्ना मिठास का उपयोग करते थे उनपर दो मामलों में 20 प्रतिशत कर अधिरोपित किया जाता थाः (i) उनके हस्तांतरण और आयातीकरण पर; और (ii) शीतपेयों के हस्तांतरण और बहीखाता आवश्यकताओं के प्रदान की जाने वाली विशेष सेवाओं पर। 

विवादित उत्पादः गैर-गन्ना मिठास उत्पाद, जैसे उच्च फ्रुक्टोस कॉर्न सिरप (‘‘एचएफसीएस‘‘) और चुकंदर शर्करा और ऐसी मिठासों द्वारा मीठे किये गए शीतपेय। 

पैनल/अपीलीय निकाय के मुख्य निष्कर्षों का सारांश 

गैट अनुच्छेद प्प्प्रू2, पहला वाक्य (आतंरिक कर): एचएफसीएस मिठासों वाले शीतपेयों के संबंध में पैनल ने पाया कि किये गए उपाय अनुच्छेद III:2 के पहले वाक्य से विसंगत थे, क्योंकि इन पेयों पर आतंरिक कर अधिरोपित किये गए थे (अर्थात 20 प्रतिशत हस्तांतरण सेवा कर) जो समान घरेलू उत्पादों पर लगाये गए करों से अधिक थे - अर्थात जो शीतपेय गन्ने से मीठे बनाये गए हों (वे उन करों की परिधि से बाहर रखे गए थे)।

गैट अनुच्छेद III:2, दूसरा वाक्य (आतंरिक कर): एचएफसीएस जैसे गैर गन्ना मिठास के संदर्भ में पैनल ने पाया कि कर उपाय अनुच्छेद III:2 के दूसरे वाक्य से विसंगत थे क्योंकि ‘‘सीधे प्रतिस्थापित हो सकने वाले आयातों (एचएफसीएस) पर और घरेलू उत्पादों (गन्ना) पर लगाया गया असमान कर (20 प्रतिशत हस्तांतरण और सेवा कर), इस प्रकार से अधिरोपित किया गया था जिससे घरेलू उत्पादन को संरक्षण प्राप्त होता था।‘‘

गैट अनुच्छेद III:4 (आतंरिक विनियम): पैनल ने यह निष्कर्ष दिया कि मेक्सिको ने एचएफसीएस जैसे गैर-गन्ना मिठास को कम पसंदीदा उपचार प्रदान करके अनुच्छेद III:4 से विसंगत व्यवहार किया था (कर उपाय और बहीखाता आवश्यकताओं के माध्यम से), जबकि उसने समान घरेलू उत्पादों के साथ (गन्ने) अलग प्रकार का व्यवहार किया था। 

अपवाद अनुच्छेद 

गैट अनुच्छेद XX(d): अपीलीय निकाय ने पैनल के इस निष्कर्ष को ग्राह्य माना कि मेक्सिको के उपाय जो उसने नाफ्टा के साथ उसके दायित्वों के तहत अमेरिका द्वारा पालन करने के लिए अनिवार्य बनाये थे, वे अनुच्छेद XX(d) के तहत ‘‘कानून या विनियमों का पालन सुनिश्चित करने‘‘ के प्रावधानों से सुसंगत नहीं थे। अपीलीय निकाय ने कहा कि अनुच्छेद XX(d) के तहत ‘‘कानून या विनियम‘‘ का संदर्भ उन नियमों से है जो विश्व व्यापार संगठन के अनुच्छेद XX(d) को लागू करने वाले सदस्य की घरेलू न्यायिक व्यवस्था का एक भाग होते हैं (जिनमें वे कानूनी विधान भी शामिल हैं जो अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों के क्रियान्वयन के उद्देश्य से बनाये गए हैं), और ये अन्य विश्व व्यापार संगठन सदस्य के दायित्वों को शामिल नहीं करते। साथ ही अपीलीय निकाय ने यह भी निर्णय दिया कि एक उपाय को ‘‘पालन सुनिश्चित करने के उद्देश्य से‘‘ माना जा सकता है चाहे फिर वह उपाय अपना वांछित परिणाम पूरी तरह से प्राप्त करने में सफल हो अथवा नहीं हो, और दबाव का उपयोग आवश्यक रूप से एक उपाय का ‘‘पालन सुनिश्चित करने‘‘ का घटक नहीं है। 

अन्य मुद्दे 

पैनल का क्षेत्राधिकारः अपीलीय निकाय ने पैनल के उस निर्णय का भी बचाव किया कि ड़ीएसयू के तहत जब कोई मामला व्यवस्थित रूप से उसके समक्ष प्रस्तुत किया गया है, तो उसे अपने क्षेत्राधिकार का उपयोग करने से इंकार करने का विवेकाधिकार नहीं है।













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PT's IAS Academy: यूपीएससी तैयारी - अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं - व्याख्यान - 9
यूपीएससी तैयारी - अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं - व्याख्यान - 9
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