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कॉग्रेस, स्वदेशी और विभाजन भाग-1
1.0 प्रस्तावना
भारत में 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक जागृति पनपी और संगठित राष्ट्रीय आंदोलन फले-फूले। दिसम्बर 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन हुआ जिसके नेतृत्व में भारतीयों ने एक लम्बा व साहसी संघर्ष किया जिसके परिणामस्वरूप 15 अगस्त 1947 को भारत को लंबे एवं दमनकारी विदेशी शासन से स्वतंत्रता मिली।
1.1 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पूर्ववर्ती आंदोलन
1870 तक ये स्पष्ट हो चुका था कि भारतीय राष्ट्रवाद पर्याप्त शक्ति और गति के साथ राजनैतिक पटल पर दिखाई दे रहा था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना दिसम्बर 1885 में हुई जो कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की पहली संगठित अभिव्यक्ति थी। यद्यपि इसके कई पूर्ववर्तीय थे।
राजा राममोहन राय पहले भारतीय नेता थे जिन्होनें राजनैतिक सुधारों के लिये आन्दोलन चलाया। 1836 के बाद कई लोक संगठन, भारत के विभिन्न हिस्सों में स्थापित किये गये। ये सारे संगठन समकालीन ’सम्पन्न लोगों‘ द्वारा चलाये जाते थे किन्तु यह मुख्यतः स्थानीय या प्रांतीय स्तर के होते थे। इनका उद्देश्य प्रशासनिक सुधार, भारतीयों का प्रशासन के साथ संबंध, शिक्षा का प्रसार, भारतीयों की माँगों को ब्रिटिश संसद के सामने रखना, आदि होता था।
1858 के बाद के कालखण्ड में श्क्षित भारतीयों और ब्रिटिश भारतीय प्रशासन के बीच दूरियाँ बढ़ती चली गयीं। यह इसलिए हुआ क्योंकि 1857 के विद्रोह ने ब्रिटिश राज की नींव हिला कर रख दी थी। जैसे-जैसे शिक्षित भारतीय वर्ग ने ब्रिटिश नीतियों एवं उससे भारत पर पढ़ने वाले परिणामों को समझा, वैसे-वैसे वे ब्रिटिश नीतियों के कटुतर आलोचक बनने लगे। धीरे-धीरे इस आलोचना को राजनीतिक गतिविधियों के माध्यम से अभिव्यक्ति मिलने लगी। समकालीन राजनीतिक संगठन, राजनीतिक रूप से जागृत भारतीयों को ज्यादा संतुष्ट नहीं रख सके।
1866 में, दादाभाई नौरोजी ने, ब्रिटिश राजनेताओं को भारतीयों लोक कल्याण एवं भारत के प्रश्नों को उठाने के लिए, लन्दन में ‘ईस्ट-इण्डिया एसोसिएशन’ की स्थापना की। बाद में उन्होनें इस संगठन की शाखाओं का विस्तार भारतीय शहरों में भी किया। 1825 में जन्मे दादाभाई ने अपना सम्पूर्ण जीवन भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को समर्पित किया और शीघ्र ही वे भारत के पितामह (Grand old man) कहलाने लगे। वे भारत के पहले आर्थिक विचारक व चिन्तक थे। अपने लेखन में उन्होनें दर्शाया कि भारतीय गरीबी का प्रमुख कारण ब्रिटिश-शोषक नीतियाँ थी, जिसके कारण भारत का धन बाहर जा रहा था। दादाभाई को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में तीन कार्यकाल मिले। वस्तुतः वे पहले ऐसे प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता थे जिनका लोग हृदय से सम्मान करते थे।
कांग्रेस से पहले के सबसे महत्वपूर्ण संगठनों में इण्डियन एसोसिएशन ऑफ कलकत्ता था। बंगाल के युवा राष्ट्रवादी ब्रिटिश इण्डिया एसोसिएशन की सामन्तोन्मुखी नीतियों से चिढ़ने लगे थे। वे वृहद् लोक कल्याण के लिये बड़ा राजनीतिक आंदोलन चाहते थे। सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी, जो कि एक बुद्धिमान लेखक एवं वक्ता थे, के रूप में उन्हें एक नेतृत्व मिला।
उन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवा से अन्यायपूर्ण तरीके से अपदस्थ कर दिया गया था क्योंकि उनके वरिष्ठ अधिकारी एक स्वतंत्र सोच वाले भारतीय को सहन नहीं कर सके थे। 1857 में कलकत्ता (आज कोलकात्ता) के छात्रों को एक राष्ट्रवादी उद्बोधन देते हुए उन्होनें अपने सार्वजनिक जीवन की शुरूआत की। सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी और आनन्द मोहन बोस के नेतृत्व में बंगाल के युवा राष्ट्रवादियों ने जुलाई 1876 में इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना की। इस संगठन ने राजनीतिक मुद्दों पर भारतीयों की एकता और देश में दृढ़ राजनीतिक विचारों को तैयार करना, अपना लक्ष्य बनाया। ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने झण्डे तले लाने के लिए इन्होनें न्यूनतम सदस्यता शुल्क रखा। एसोसिएशन की कई शाखाए बंगाल के शहरों एवं गाँवों के साथ-साथ बंगाल के बाहर भी प्रारंभ हुईं।
भारत के दूसरे हिस्सों में भी युवा सक्रिय थे। 1870 के दशक में, जस्टिस रानाडे और उनके साथियों ने पूना सार्वजनिक सभा की स्थापना की। 1884 में एम. वीरराघवचारी, जी. सुब्रमण्यम अैयर, आनन्द चार्लु और साथियों ने मद्रास महाजन सभा की स्थापना की। फिरोजशाह मेहता, के.टी. तेलंग, बद्रूद्दीन तैय्यबजी आदि ने 1885 में बॉम्बे प्रेसीडेन्सी एसोसिएशन की स्थापना की।
अब समय आ गया था कि सारे राष्ट्रवादी, जो विदेशी शासन व शोषण के विरूद्ध एकीकृत राजनैतिक आन्दोलन चाहते थे, एक अखिल भारतीय राजनीतिक मंच पर एक साथ आयें। समकालीन संगठन अपना कार्य पूरी निष्ठा से करने के बावजूद कई दृष्टिकोणों से संकीर्ण थे, क्योंकि वे स्थानीय मुद्दों को उठाते थे और उनके सदस्य भी किसी विशेष शहर या प्रान्त से होते थे। यहाँ तक कि ‘इण्डियन एसोसिएशन’ भी अखिल भारतीय मंच नहीं बन सका।
2.0 इण्डियन नेशनल काँग्रेस (भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस)
कई भारतीय, राष्ट्रवादी राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिये एक अखिल भारतीय संगठन बनाने की योजना बना रहे थे। किन्तु इसका श्रेय एक सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी ए.ओ. हृयूम को जाता है, जिन्होंने इस विचार को अन्तिम रूप दिया। उन्होनें प्रमुख भारतीय नेताओं की मदद से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन दिसम्बर 1885 में बाम्बे में सम्पन्न करवाया। इसमें 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया और इसकी अध्यक्षता डबल्यू. सी. बैनर्जी ने की।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने, देश के विभिन्न हिस्सों के नेताओं के मध्य मधुर संबंध स्थापित करना, जाति, धर्म या प्रान्त के परे एक राष्ट्रीय भावना का विकास, लोगों की इच्छानुसार माँगे सरकार के सामने प्रस्तुत करना और इन सबसे महत्वपूर्ण देश में लोक-मत का निर्माण करना जैसे उद्देश्य पहले अधिवेशन में घोषित किये। यह भी कहा जाता है कि हृयूम का उद्देश्य, कांग्रेस को एक ऐसा संगठन बनाना था जो एक ‘‘सेफ्टी वाल्व’’ का कार्य करे और शिक्षित भारतीयों में पनप रहे ब्रिटिश विरोधी विचारों को उचित व सुरक्षित निकास मिले। हृयूम, असंतुष्ट राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों तथा असंतुष्ट व शोशित किसानों के किसी मिले-जुले संगठन बनने की संभावना को होने से रोकना भी चाहते थे।
यह ‘सेफ्टी वाल्व सिद्धांत’, पूर्ण सत्य का एक छोटा सा हिस्सा है जो अपर्याप्त व भ्रमित करने वाला है। किसी भी दूसरे संगठन से ज्यादा, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने राजनीतिक रूप से जागृत उन भारतीयों का प्रतिनिधित्व किया जो देश की राजनीतिक एवं आर्थिक प्रगति के लिए काम करना चाहते थे। शक्तिशाली तत्वों के सक्रिय होने के कारण भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन बढ़ रहा था। किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को इसका श्रेय नहीं दिया जा सकता है। यहाँ तक कि हृयूम के उद्देश्य भी मिले जुले थे। वास्तव में उनके उद्देश्य ‘सेफ्टी वाल्व’ की अपेक्षा ज्यादा साहसी थे। वह भारत और उसके किसानों से सच्चा प्यार करते थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नींव रखने में जिन नेताओं ने हृयूम की मदद की वे सच्चे देशभक्त तथा चरित्रवान लोग थे। उन्होने स्वेच्छा से हृयूम की मदद स्वीकारी क्योंकि वे अपने प्रयासों के प्रति, इस प्रारंम्भिक अवस्था में सरकार से कोई अनिवार्य शत्रुता भी नहीं चाहते थे और आशा करते थे कि एक सेवानिवृत्त ब्रिटिश अधिकारी की सक्रियता सरकारी शक की तीव्रता को कम करेगी। यदि हृयूम कांग्रेस को एक ‘सेफ्टी वाल्व’ की तरह उपयोग करना चाहते थे तो प्रारम्भिक कांग्रेस नेता हृयूम को एक ‘तड़ित चालक’ के रूप में देख रहे थे।
अतः 1885 में कांग्रेस की स्थापना के साथ, विदेशी शासन से मुक्ति के लिये संघर्ष छोटे किन्तु संगठित स्तर पर आरम्भ हुआ। राष्ट्रीय आंदोलन बढ़ रहा था और लोग आजादी मिलने तक चैन से नहीं बैठने वाले थे। काँग्रेस एक पार्टी ही नहीं वरन् आंदोलन की तरह चलने वाली थी। 1886 में कांग्रेस के 436 प्रतिनिधि देश के भिन्न-भिन्न स्थानीय संगठनों एवं समूहों से चुने गये। वर्ष में एक बार, प्रत्येक दिसम्बर में, देश के किसी नए शहर में नेशनल कांग्रेस की सभा होने लगी। शीघ्र ही प्रतिनिधियों की संख्या हजारों में हो गई जो सामान्यतः वकील, पत्रकार, व्यापारी, उद्योगपति, शिक्षक और सामंती लोग थे। 1890 में, कलकत्ता विश्वविद्यालय की पहली महिला स्नातक कादम्बीनी गांगुली ने कांग्रेस सत्र को संबोधित किया। यह इन अर्थों में प्रतीकात्मक था कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन भारतीय महिलाओं को उनकी शताब्दियों की पतित अवस्था से उपर लायेगा।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एकमात्र माध्यम नहीं था जहाँ से राष्ट्रवादी धारा का प्रवाह हो रहा था। प्रांतीय सभाएँ, स्थानीय संगठन और राष्ट्रवादी समाचार पत्र बढ़ते राष्ट्रीय आंदोलन के अन्य प्रमुख अंग थे। इनमें प्रमुख रूप से प्रेस बढ़ते राष्ट्रवादी विचारों एवं आंदोलन का सशक्त माध्यम था। निश्चित तौर पर, उस दौर के अधिकांश समाचार पत्र राष्ट्रवादी गतिविधियों को प्रारंभ करने के लिए स्थापित किये गये थे ना कि व्यापारिक प्रतिष्ठानों के तौर पर। दादा भाई नौरोजी, बदरूद्दीन तैय्यबजी, फिरोजशाह मेहता, पी. आनन्द चार्लु, सुरेन्द्रनाथ बेनर्जी, रोमेशचन्द्र दत्त, आनन्द मोहन बोस और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे महान नेता राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारम्भिक अध्यक्षों में से थे। इस दौर के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख नेताओं में महादेव गोविंद रानाडे, बालगंगाधर तिलक, शिशिर कुमार व मोतिलाल घोष, मदन मोहन मालवीय, जी. सुब्रमण्यम अय्यर और दिनशॉ इ. वाचा, आदि शामिल थे।
2.1 प्रारम्भिक राष्ट्रवादियों के कार्यक्रम व गतिविधियाँ
प्रारम्भिक राष्ट्रवादी सोचते थे कि देश की राजनीतिक मुक्ति के लिए प्रत्यक्ष संघर्ष अभी प्रमुख मुद्दा नहीं था। उस समय प्रमुख मुद्दे यह थे कि राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रीय भावनाओं का विकास व उनका सुदृढ़ीकरण कैसे हो, और कैसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को इससे जोड़ा जाए। इस दिशा में पहला काम यह था कि आम लोगों को लोकहित में राजनीति गतिविधियों से जोड़ना था। सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक रूप से जागृत लोगों व नेताओं की बीच राष्ट्रीय एकता स्थापित करना था। प्रारम्भिक राष्ट्रीय नेता इस तथ्य को अच्छी तरह जानते थे कि एक राष्ट्र बनने की प्रक्रिया की यह शुरूआत मात्र थी। भारत में राष्ट्रीयता की भावना का विकास सावधानीपूर्वक करना था। राजनीतिक रूप से जागृत नेताओं के लिए यह जरूरी था कि वे क्षेत्र, जाति या धर्म के परे, राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के लिए सतत् रूप से काम करें। प्रारम्भिक राष्ट्रवादियों द्वारा आर्थिक व राजनीतिक माँगे इस तरह तैयार की गई थी कि लोगों के एक समान आर्थिक व राजनीतिक कार्यक्रम तैयार हो सके।
3.0 आर्थिक उपनिवेदशवाद की विवेचना
प्रारम्भिक राष्ट्रवादियों का सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह था कि उन्होनें उपनिवेशवाद की आर्थिक आलोचना की। उन्होनें उपनिवेशिक आर्थिक शोषण के तीनों ही मुद्दां, व्यापार, उद्योग एवं वित्त को उठाया। उन्होनें ब्रिटिश शासन की उस कोशिश का जोरदार विरोध किया जिसमें अंग्रेज़ भारत को केवल कच्चे माल का निर्यातक बनाना चाहते थे। औपनिवेशिक संरचना पर आधारित लगभग हर सरकारी नीति का सशक्त विरोध किया गया। राष्ट्रीयवादी ब्रिटेन की भारत में एक औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था बनाने की तीनों कोशिशों का विरोध करने लगे - अर्थात् भारत को कच्चे माल का निर्यातक बनाना, ब्रिटिश माल का बाज़ार बनाना एवं विदेशी पूंजी निवेश का अड्डा बनाना।
प्रारम्भिक राष्ट्रवादिओं ने भारत में बढ़ती गरीबी, आर्थिक पिछड़ापन, आधुनिक उद्योगों व कृषि के असफल होने की शिकायत की और इसके लिए ब्रिटिश आर्थिक शोषण को जिम्मेदार ठहराया। दादाभाई नौरोजी ने 1881 में ही घोषित किया कि अंग्रेज शासन, ‘‘हर दिन बढ़ता हुआ, कभी न खत्म होने वाला विदेशी आक्रमण है जो कि धीरे-धीरे देश को पूर्णतः नष्ट कर देगा’’। राष्ट्रवादियों ने भारत के परम्परागत हस्त शिल्प उद्योग को नष्ट करने वाली और आधुनिक उद्योगों के विकास को रोकने वाली सरकारी आर्थिक नीतियों की आलोचना की। उनमें से अधिकांश ने भारतीय रेलवे, उद्योग व बागानों में विदेशी पूँजी निवेश का इस आधार पर विरोध किया कि यह भारतीय पूँजीवाद का अहित कर अन्ततः ब्रिटिश आर्थिक व राजनीतिक हितों को लाभ पहुचाएगा।
उनका विश्वास था कि विदेशी पूँजी निवेश न केवल वर्तमान पीढ़ी के लिये एक गंभीर राजनीतिक एवं आर्थिक खतरा है बल्कि ये आने वाली पीढ़ियों को भी प्रभावित करेगा। उनकी नजर में, भारत की गरीबी को दूर करने का प्रमुख तरीका था आधुनिक उद्योगों का तीव्र विकास। वे चाहते थे कि सरकारी मदद और कर छूटों के साथ, सरकार ही आधुनिक उद्योगों का विकास करे। उन्होने स्वदेशी के विचार को लोकप्रिय बनाया, लोगों से देशी सामान उपयोग करने का आव्हान किया और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया। उदाहरण के तौर पर 1896 में पूना व महाराष्ट्र के विभिन्न कस्बों में छात्रों ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई और स्वदेशी आंदोलन को बल दिया।
राष्ट्रवादियों की शिकायत यह थी कि भारतीय पूँजी का निर्गमन इंग्लैंड की ओर था और इसे तत्काल रोकने की जरूरत थी। उन्होंने भारतीय किसानों पर करों के बोझ को कम करने के लिए आन्दोलन किये। उनमें से कुछ ने अंग्रेजों की सामंतवादी प्रणाली की भी आलोचना की। राष्ट्रवादियों ने भूमिहीन मजदूरों की स्थिति में सुधार के लिए भी आन्दोलन किये। उन्होनें उच्च कराधान को भारत में गरीबी का प्रमुख कारण मानते हुए ‘नमक कर’ को समाप्त करने और भूमिकर को कम करने की माँग की। उन्होने भारत सरकार के उचे रक्षा खर्चों की भी आलोचना की और इसे घटाने की माँग भी की। जैसे-जैसे समय गुजरता गया वैसे वैसे ज्यादातर राष्ट्रीय नेता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आर्थिक शोषण और गरीबी और इसके आर्थिक परिणाम, विदेशी शासन के लाभों की तुलना में कही ज्यादा घातक हैं।
इस प्रकार, जीवन व सुरक्षा के संबंध लाभों पर, टिप्पणी करते हुए दादा भाई नौरोजी कहते हैं कि : ‘‘यह भ्रम है कि भारत में जीवन और सम्पत्ति सुरक्षित है, वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। एक अर्थ में ही जीवन व सम्पत्ति सुरक्षित है कि लोग आपसी हिंसा और स्थानीय राजाओं से सुरक्षित है, किन्तु अंग्रेजों की ओर से कोई सम्पत्ति की कोई सुरक्षा नहीं है, इसलिए जीवन भी सुरक्षित नहीं है। भारत की सम्पत्ति सुरक्षित नहीं है। केवल इंग्लैंड, भारत से कोसों दूर, 30,000,000 या 40,000,000 पाउण्ड धन प्रतिवर्ष खाकर पूर्णतः सुरक्षित है। इसलिए मैं घोषणा करता हूँ भारत में उसकी सम्पत्ति और जीवन सुरक्षित नहीं है। करोड़ों भारतीयों के लिए जीवन का सीधा अर्थ है - ‘‘आधा भोजन या भूखमरी या अकाल और बीमारी।’’
कानून और व्यवस्था के बारे में, दादाभाई कहते हैं : ‘‘एक भारतीय कहावत है, ‘किसी के पेट पर लात मत मारो, चाहे पीठ पर कितना भी मारो’। स्थानीय राजाओं के अधीन लोग अपनी फसलों का उपभोग करते थे, यद्यपि कभी-कभी उन्हे पीठ पर मार सहनी पड़ती थी। अंग्रेज शासन के अधीन, भारत में हिंसा नहीं है, शांति है केवल उसकी फसल व धन का अदृश्य, सूक्ष्म व शांतिपूर्ण तरीके से निर्गमन हो रहा है - वह भूख से मरता है, नष्ट होता है किन्तु शांति से, कानून एवं व्यवस्था के साथ!’’
आर्थिक मुद्दों पर राष्ट्रीय आन्दोलन का एक अखिल भारतीय दृष्टिकोण था कि भारत में अंग्रेज शासन शोषण पर आधारित था, जिसके कारण भारत में आर्थिक पिछड़ापन, गरीबी एवं अधूरा विकास हो रहा था। इन नुकसानों ने भारत में ब्रिटिश शासन के तथाकथित फायदों को खत्म कर दिया था।
4.0 प्रारम्भिक राष्ट्रवादी नेताओं की गतिविधियाँ व कार्यक्रम
1905 स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व उन नेताओं के हाथों में था जो उदारवादी या उदार राष्ट्रवादी माने जाते थे। उदारवादियों की राजनीतिक पद्धति को संवैधानिक आंदोलन कहा जा सकता है जो कानून की चार दीवारी में बन्द था। यह एक धीमा व क्रमिक राजनीतिक आन्दोलन था। उनका विश्वास था कि यदि लोक मत तैयार कर संगठित होकर याचिका, सभा, भाषणों आदि के माध्यम से अपनी बात रखी जाती है तो अंग्रेज क्रमबद्ध रूप से धीरे-धीरे उनकी माँगे मान लेगें।
इस प्रकार उनका राजनीतिक कार्य द्वि-दिशात्मक था। पहला, वे लोगों में राष्ट्रीय भावनाओं के विकास एवं राजनीतिक जागृति के लिये एक सशक्त लोकमत का निर्माण और लोगों को राजनीतिक प्रश्नों पर शिक्षित कर एकत्र करना चाहते थे। आधारभूत रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रस्ताव में भी इसी उद्देश्य को लेकर निर्देश थे। यद्यपि उनके ज्ञापन व याचिकाएँ सरकार को संबोधित करती प्रतीत होतीं थीं, किन्तु उनका वास्तविक उद्देश्य लोगों को शिक्षित करना था। उदाहरण के लिए जब 1891 में पूना सार्वजनिक सभा द्वारा सावधानी पूर्वक तैयार किये गये ज्ञापन पर सरकार ने मात्र दो पंक्ति का उत्तर दिया तो युवा नेता गोखले ने अपनी हताशा व्यक्त की, तब न्यायमूर्ति रानाडे ने कहा : ‘‘तुम्हें, हमारे देश के इतिहास में हमारे स्थान का बोध नहीं है। ये ज्ञापन सामान्यतः सरकार को संबोधित होते हैं। वास्तव में तो ये जनता को संबोधित होते हैं ताकि वे सीख सकें कि इस दिशा में कैसे सोचा जा सकता है। ऐसा कार्य कई वर्षों तक करना आवश्यक है, वह भी परिणामों की आशा के बगैर क्योंकि इस भूमि पर इस तरह की राजनीति नई है।’’
दूसरी बात यह थी कि राष्ट्रवादी नेता, ब्रिटिश सरकार और जनता को उन सुधारों के लिये समझाना चाहते थे, जिसमें राष्ट्रवादियों का भी दखल हो। उदारवादी राष्ट्रीय नेताओं का विश्वास था कि ब्रिटिश जनता व संसद भारत के प्रति न्यायशील होना चाहते थे किन्तु उन्हें भारत की सही दशा का ज्ञान नहीं था। इसलिए, भारतीय लोकमत को जागृत करने के बाद उदारवादियों ने अपना ध्यान ब्रिटिश लोकमत की ओर दिया। इस उद्देश्य से उन्होनें ब्रिटेन में सक्रिय प्रचार कार्यक्रम चलाया। प्रमुख भारतीय नेताओं के प्रतिनिधि मण्डल, भारतीय दृष्टिकोण को समझाने के लिए ब्रिटेन भेजे गये। 1889, में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ब्रिटिश समिति का गठन किया गया। 1890 में इस समिति ने एक समाचार पत्र ‘‘इण्डिया’’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया। दादाभाई नौरोजी ने अपने जीवन व आय का बड़ा हिस्सा इंग्लैण्ड में भारतीय पक्ष को समझाने में खर्च किया।
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का छात्र (अध्येता) जब उदारवादी नेताओं को ब्रिटिश शासन के प्रति वफादार देखता है तो वह भ्रमित हो सकता है। इस वफादारी का कतई यह मतलब नहीं है कि वे सच्चे देशभक्त नहीं थे या ड़रपोक लोग थे। उनका विश्वास था कि ब्रिटेन से सतत् राजनीतिक संबंध ऐतिहासिक रूप से भारत के लिए महत्वपूर्ण थे। इसलिए उन्होने अंग्रेज़ों को भारत से निकालने का नहीं बल्कि अंग्रेजों से सत्ता राष्ट्रीय स्तर पर हस्तांतरण का उद्देश्य बनाया। बाद में उनमें से कईयों ने ब्रिटिश शासन की बुराई करते हुए, राष्ट्रीय सुधारों की माँग पूरी न करने का आरोप लगाते हुए भारत के लिए स्वराज्य की माँग की एवं ब्रिटिश शासन के प्रति वफादारी को तिलांजली दे दी। उनमें से कई नेता उदारवादी थे क्योंकि उनका मानना था कि अभी विदेशी सत्ता को प्रत्यक्ष चुनौती देने का सही समय नहीं आया है।
5.0 बंगाल का विभाजन
जब 1905 में बंगाल विभाजन की घोषणा की गई तो भारत में उग्र राष्ट्रवाद की लहरें उठने लगी और स्वतंत्रता आंदोलन ने दूसरे दौर में प्रवेश किया।
20 जुलाई 1905 को लॉर्ड़ कर्ज़न ने बंगाल को दो हिस्सों में विभाजित करने का आदेश जारी किया : एक भाग में पूर्वी बंगाल और असम थे जिसकी जनसंख्या लगभग तीन करोड़ दस लाख थी, और दूसरा शेष बंगाल जिसकी जनसंख्या 5 करोड़ 40 लाख थी (इनमें 1 करोड़ 8 लाख बंगाली और शेष बिहारी और उड़िया थे)। यह कहा गया कि तत्कालीन बंगाल प्रांत प्रशासनिक दृष्टि से बहुत बड़ा है। हालांकि जिन अधिकारियों ने इस योजना को बनाया उनका राजनीतिक मंतव्य अलग था। उन्हें आशा थी कि यह कदम बंगाल में बढ़ते राष्ट्रवाद के ज्वार को थाम लेगा क्योंकि बंगाल उस समय राष्ट्रीय आंदोलन का केन्द्र था। 06 दिसम्बर 1904 को भारत के गृह सचिव रिज़ली ने एक सरकारी नोट में लिखा कि : ‘‘एकीकृत बंगाल एक शक्ति है, विभाजित बंगाल अलग-अलग रास्तों पर चलेगा। यही वह तथ्य है जो कांग्रेसी नेता महसूस करते हैं। उनकी चिन्ता सही है, हमारा मुख्य उद्देश्य विरोधियों को विभाजित कर उन्हें कमजोर करना है।’’
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और बंगाल के राष्ट्रवादियों ने बंगाल के विभाजन का तीव्र विरोध किया। बंगाल के भीतर ही समाज के विभिन्न वर्गों - जमींदार, व्यापारी, वकील, छात्र, गरीब और यहा तक कि महिलाएँ भी उनके प्रान्त विभाजन के विरोध में स्वतः स्फूर्त खड़े हो गये।
राष्ट्रीय नेताओं ने विभाजन को राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए एक चुनौती माना न कि केवल एक प्रशासनिक कदम। उनके अनुसार यह एक सोची-समझी रणनीतिक चाल थी जिसमें बंगाल को धार्मिक आधार पर विभाजित किया गया था, जिसमें मुस्लिम बहुल इलाके को पूर्वी बंगाल और हिन्दु बहुल क्षेत्र को पश्चिम बंगाल कहा गया था ताकि वहाँ राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर किया जा सके। यह बंगाली भाषा व संस्कृति के विकास में भी एक झटका होता। उन्होने दर्शाया कि प्रशासनिक क्षमता की दृष्टि से हिन्दी भाषी बिहार, उड़िया भाषी उड़िसा और बंगाल भाषी बंगाल में बाँटना बेहतर होता। इससे भी ज्यादा, प्रशासनिक कदम पूर्णतः लोक इच्छा के विरूद्ध उठाया गया। इस प्रकार विभाजन के विरूद्ध विरोध की तीव्रता की व्याख्या इस तथ्य में निहित है कि यह संवेदनशील और साहसी भारतीयों पर एक प्रहार था।
5.1 विभाजन-विरोधी आन्दोलन
विभाजन-विरोधी आन्दोलन, बंगाल के राष्ट्रीय नेतृत्व के कार्यों का परिणाम था न कि केवल एक समूह का। प्रारम्भिक दौर में इसका नेतृत्व सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी और कृष्णा कुमार मित्रा जैसे उदारवादी नेताओं ने किया; उग्र राष्ट्रवादी व क्रांतिकारी नेता बाद के दौर में इससे जुडे। वास्तव में, उदारवादी एवं उग्र राष्ट्रवादी दोनों ही प्रकार के नेताओं ने आंदोलन के दौरान एक दूसरे को सहयोग दिया।
विभाजन विरोधी आन्दोलन 7 अगस्त 1946 को प्रारम्भ हुआ। उस दिन कलकत्ता के ‘टाउन हाल’ में बड़ा धरना प्रदर्शन किया गया। इस सभा के बाद सारे प्रतिनिधि, आंदोलन को गति देने के लिये पूरे प्रान्त में फैल गये।
विभाजन 16 दिसम्बर 1905 से प्रभावी हुआ। राष्ट्रीय आन्दोलन के नेताओं ने इसे सम्पूर्ण बंगाल में राष्ट्रीय शोक के रूप में घोषित कर विरोध किया। उस दिन भूख हड़ताल भी रखी गई। कलकत्ता में भी हड़ताल हुई, लोगों ने सुबह-सुबह नंगे पैर गंगा पहुंचकर, डुबकी लगाई। इस अवसर पर गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगौर ने ‘‘अमार सोनार बांग्ला’’ नामक गीत रचा जिसे लोग जुलूस के समय गलियों में गाते थे। यह गीत बांग्लादेश के द्वारा 1971 में उसकी मुक्ति के पश्चात्, राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया गया। कलकत्ता की गलियाँ ‘वंदे मातरम्’ के घोष से गूँज उठी और यह शीघ्र ही राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रमुख गीत बन गया। रक्षाबंधन के अवसर पर हिन्दू और मुसलमानों ने एक दूसरे की कलाईयां पर राखी बाँधकर अटूट एकता का संदेश दिया और इस तरह राखी का त्यौहार एक नए अर्थों में मनाया गया।
दोपहर में जब, वरिष्ठ राष्ट्रीय नेता आनन्द मोहन बोस ने फेड़रेशन हॉल, जो बंगाल की अखण्ड़ता का प्रतीक था, की नींव रखी तो एक बड़ा प्रदर्शन हुआ। उन्होनें 50,000 से ज्यादा लोगों के समूह को संबोधित किया।
5.2 स्वदेशी और बहिष्कार
बंगाली नेताओं ने महसूस किया कि केवल प्रदर्शन, सभा, रैलियों या ज्ञापनों से शासकों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ने वाला है। इसके लिए ज्यादा प्रभावी कदम, जो जनप्रिय भावनाओं को अभिव्यक्ति दे सके, की जरूरत थी। इस समस्या का हल था : स्वदेशी और बहिष्कार। संपूर्ण बंगाल में सामूहिक सभाएँ आयोजित की गई जिसमें स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग एवं विदेशी चीजों के बहिष्कार की घोषणा, शपथपूर्वक की गई। सार्वजनिक जगहों पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई। स्वदेशी आंदोलन को बड़ी सफलता मिली। सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी के अनुसार : ‘‘अपने शीर्ष सफलता के दौर में, स्वदेशी ने हमारे पारिवारिक व सामाजिक जीवन को रंग दिया। ऐसा दहेज भी लौटा दिया जाता जिसमें विदेशी सामान हो, उसमें भी केवल देशी चीजें स्वीकार की जाती थी। पंडित ऐसी शादी करवाने से इंकार कर देते थे जहाँ विदेशी सामान का उपयोग होता था। मेहमान भी ऐसे समारोहों में नहीं जाते थे जहाँ विदेशी नमक या शक्कर का उपयोग होता था।’’
स्वदेशी आन्दोलन की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इसमें ‘‘आत्म-शक्ति’’ पर जोर दिया गया था। आत्म शक्ति का अर्थ है - राष्ट्रीय गरिमा, सम्मान और आत्म विश्वास की घोषणा। आर्थिक क्षेत्र में इससे आशय था स्वदेशी उद्योगों की स्थापना। इसी दौर में कई कपड़ा मिलें, साबुन व माचिस की फैक्ट्रीयाँ, हस्तशिल्प व बुनकर उद्योग, राष्ट्रीय बैंक और इंश्योरेन्स कम्पनियाँ खोली गई। आचार्य पी. सी. राय ने प्रसिद्ध बंगाली केमिकल नाम से स्वदेशी स्टोर्स खोले। यहाँ तक कि रवीन्द्र नाथ टैगौर ने भी स्वदेशी स्टोर्स खोलने में मदद की।
स्वदेशी आन्दोलन के कुछ महत्वपूर्ण सांस्कृतिक परिणाम निकले। राष्ट्रवादी गद्य, पद्य, व पत्रकारिता का विकास हुआ। इसी समय रवीन्द्रनाथ टैगोर, रजनीकान्त सेन, सैय्यद अबु मोहम्मद और मुकुन्द दास जैसे कवियों द्वारा राष्ट्र भक्ति के गीत लिखे गये। इसी दौर में अन्य महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्य हुआ राष्ट्रीय शिक्षा का विकास। राष्ट्रवादियों द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा संस्था खोला गया जहाँ साहित्यिक, तकनीकि या शारीरिक शिक्षा दी जा सके। राष्ट्रवादी समकालीन शिक्षा को गैर-राष्ट्रीय व अपर्याप्त मानते थे। 15 अगस्त 1906 को राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की स्थापना की गई। एक राष्ट्रीय महाविद्यालय, जिसके प्राचार्य अरबिन्दो घोष थे, की भी स्थापना कलकत्ता में की गई।
5.3 छात्रों, महिलाओं, मुस्लिमों और आम जनता की भूमिका
बंगाल के छात्रों के द्वारा स्वदेशी आन्दोलन में महत्वपूर्ण हिस्सा लिया गया। उन्होने स्वदेशी आन्दोलन में भाग लेकर उसे गति दी तथा उन दुकानों को बंद करने में नेतृत्व किया जहाँ विदेशी वस्त्र बिकते थे। सरकार ने छात्र आंदोलन को कुचलने का हर संभव प्रयास किया। उन स्कूलों व महाविद्यालयों की सूची बनाने का आदेश दिया गया जिनके छात्र स्वदेशी आंदोलन में सक्रिय थे; उनके अनुदान, मदद और विशेषाधिकार वापस ले लिये गये, उनकी मान्यता रद्द की गई, उनके छात्रों पर प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने व सरकारी नौकरी हासिल करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने वाले छात्रों के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की गई। उनमें से कई को विद्यालयों/महाविद्यालयों से निकाल दिया गया, गिरफ्तार किया गया और पुलिस द्वारा लाठियों से पीटा भी गया। हालांकि इससे छात्र आन्दोलन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
स्वदेशी आंदोलन का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि इसमें महिलाओं ने भी भागीदारी की। परम्परागत घरेलू महिलाओं ने रैलियों व धरनों में भाग लिया। तभी से महिलाओं ने राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की।
कई प्रमुख मुसलमानों जिनमें प्रसिद्ध वकील अब्दुल रसूल, प्रसिद्ध नेता लियाकत हुसैन और व्यापारी गज़नवी थे, ने स्वदेशी आंदोलन में हिस्सा लिया। मौलाना अब्दुल कलाम आजाद भी एक उग्र राष्ट्रवादी समूह से जुडे। ढाका के नवाब (जिन्हें सरकार द्वारा 14 लाख रू. का लोन दिया गया था) के नेतृत्व में कई उच्च मध्यमवर्गीय मुसलमानों ने उदासीन रहकर, इस आधार पर विभाजन का समर्थन किया कि, पूर्वी बंगाल एक मुस्लिम बहुल इलाका होगा। इस साम्प्रदायिक दृष्टिकोण में ढाका के नवाब को सरकार का समर्थन भी मिला। लार्ड कर्जन ने, ढाका में एक भाषण में घोषित किया कि विभाजन के कारणों में से एक यह भी था कि ‘‘पूर्वी बंगाल में मुसलमानों को एक रखने से उनमें एकता होगी जो कि उन्होनें नवाबों के दौर के बाद खो दी है’’।
5.4 आंदोलन का अखिल भारतीय स्वरूप
स्वदेशी और स्वराज आंदोलन भारत के अन्य प्रान्तों में भी फैल गया। बॉम्बे, मद्रास और उत्तर भारत में बंगाल की एकता और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन का समर्थन हुआ। स्वदेशी आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर फैलाने का नेतृत्व लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने किया। उन्होनें शीघ्र ही महसूस किया की इतिहास में अपने किस्म के इस नये राष्ट्रवादी आंदोलन की शुरूआत बंगाल में हो चुकी है। अब यह चुनौती और अवसर है कि इस लोकप्रिय आंदोलन को ब्रिटिश राज्य के विरूद्ध नेतृत्व देकर पूरे भारत को एक सूत्र में बाँधा जाये।
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