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कॉग्रेस, स्वदेशी और विभाजन भाग-2
6.0 उग्र राष्ट्रवाद का उदय
विभाजन विरोधी आंदोलन का नेतृत्व शीघ्र ही उग्र राष्ट्रवादी हो गया। तिलक, विपिन चन्द्र पाल और अरबिंदो घोष इसके प्रमुख नेता थे। इसके कई कारण थे।
पहला, उदारवादियों का आंदोलन असफल हो चुका था। यहा तक कि जॉन मार्ले, जो एक उदारवादी राज्य सचिव थे, ने भी उदारवादी नेताओं के सामने घोषित कर दिया था कि विभाजन सही था और अब इसे बदला नहीं जा सकता। दूसरा, दोनों बंगाल सरकार, मुख्य तौर पर पूर्वी बंगाल सरकार ने हिन्दुओं और मुसलमानों को बांटने का सक्रिय प्रयास किया। हिन्दु मुस्लिम विभाजन के बीज़ इसी दौर में बोये गये। इसने राष्ट्रवादियों को उत्तेजित किया पर इन सब में महत्वपूर्ण यह सरकार की नकारात्मक राजनीति थी जिससे लोग उग्र क्रांतिकारी राजनीति की ओर बढ़ने लगे। विशेष तौर पर पूर्वी बंगाल सरकार ने राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने की कोशिश की। छात्र आंदोलन पर प्रतिबंध का जिक्र किया ही जा चुका है। पूर्वी बंगाल में गलियों में वंदे मातरम् गाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। सामूहिक सभाएँ प्रतिबंधित कर दी गई।
प्रेस पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया व स्वदेशी आंदोलन के कार्यकर्ताओं के विरूद्ध मुकद्मे चलाकर उन्हें लम्बी अवधियों के लिए जेल भेज दिया गया। कई छात्रों को शारिरीक यातनाएं भी दी गई। 1906 से 1909 तक बंगाल के न्यायालयों में लगभग 550 राजनैतिक केस दर्ज हुए। बड़ी संख्या में राष्ट्रवादी समाचार पत्रों के विरूद्ध केस दर्ज कर प्रेस की स्वतंत्रता को कुचल दिया गया। कई शहरों में मिलेट्री पुलिस स्थापित कर लोगों को दबाया गया। पुलिस बर्बरता का सबसे कुख्यात प्रदर्शन अप्रैल 1906 को बारिसाल में हुआ जहाँ शांतिपूर्ण बंगाल प्रांतीय सभा के प्रतिनिधियों पर पुलिस ने लाठियां बरसाईं। कई युवा प्रतिनिधि बुरे तरीके से पीटे गये और सभा को जबरन समाप्त घोषित किया गया।
दिसम्बर 12, 1908 में प्रसिद्ध नेता कृष्ण कुमार मित्रा और अश्विन कुमार दत्त सहित 9 बंगाली नेताओं को देश निकाला दे दिया गया। इससे पहले 1907 में लाला लाजपतराय और अजित सिंह को भी पंजाब में दंगों का दोषी पाते हुए देश निकाला दिया गया था। सन् 1900 में तिलक को भी गिरफ्तार कर छः वर्षों के लिए कठोर कारावास दिया गया था। मद्रास में चिदम्बरम् पिल्लई और आंध्र में हरि सर्वोत्तम राव को भी जेल हुई।
जैसे ही उग्रराष्ट्रवादी परिदृश्य में आये उन्होंने स्वदेशी और बहिष्कार के साथ-साथ प्रतिरोध का भी नारा दिया। उन्होंने लोगों से कहा कि सरकारी नौकरियों, अदालतों, विद्यालयों एवं महाविद्यालयों और नगर पालिकाओं और विधान परिषदों का बहिष्कार कर सरकार से असहयोग करें। जैसा कि अरविंदो घोष ने कहा - ‘‘इन परिस्थितियों में शासन करना असंभव होगा’’। उग्र राष्ट्रवादियों ने स्वदेशी और विभाजन विरोधी आंदोलन को एक जन आंदोलन में बदलने का प्रयास किया और विदेशी शासन से स्वतंत्रता का नारा दिया। अरविंदो घोष से खुले रूप से घोषणा कि, ‘‘राजनैतिक स्वतंत्रता ही राष्ट्र के प्राण हैं’’। इस प्रकार बंगाल के विभाजन का प्रश्न पीछे छूटकर भारत की स्वतंत्रता का मुद्दा प्रमुख हो गया। उग्र राष्ट्रवादियों ने आत्मबलिदान का भी आव्हान किया जिसके बिना किसी उच्च लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता था।
यह भी उल्लेखनीय है कि उग्र राष्ट्रवादी भी जनता को सकारात्मक नेतृत्व देने में असफल हो गये। वे जनता को प्रभावी नेतृत्व या प्रभावी संगठन देने में सफल नहीं हो सके। उन्होने जनता को जागृत किया पर वे यह नहीं जानते थे कि इस उर्जा को राष्ट्रीय संघर्ष के लिए कैसे उपयोग किया जाये। प्रतिरोध और असहयोग केवल विचार ही रहे, वे भारत के आम लोगों और किसानों तक नहीं पहुंच सके। उनका आंदोलन केवल शहरी निम्न और मध्यम वर्ग तथा जमीदारों तक ही सीमित रहा। 1908 तक वे राजनैतिक रूप से सुप्त हो गये। परिणाम स्वरूप सरकार उन्हें कुचलने में बड़े हद तक सफल रही। उनका आंदोलन तिलक की गिरफ्तारी, विपिन चन्द्र पाल और अरविंदो घोष के सक्रिय राजनैतिक जीवन से निवृत्ति के साथ समाप्त हो गया।
किन्तु राष्ट्रवादी भावनाओं का ज्वार थमा नहीं था। जनता को शताब्दियों की नींद से जगाया जा चुका था। उन्होनें राजनेति में भय रहित होना सीख लिया था। उन्होनें आत्मविश्वास और आत्मबल के सहारे सामूहिक राजनैतिक कार्य में आगे बढ़ना सीखा था। जनता एक नये आंदोलन के इंतजार में थी। इससे भी ज्यादा उस अनुभव से उन्होनें कुछ महत्वपूर्ण सबक सीखे थे। गांधीजी ने लिखा कि ‘‘विभाजन के बाद लोगों ने देखा कि याचिका को शक्ति से सहारा देना होगा। भारतीय राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाने के लिए विभाजन विरोधी यह आंदोलन एक नील का पत्थर था। बाद का राष्ट्रीय आंदोलन इसके अनुभवों से बहुत लाभान्वित होने वाला था।
7.0 क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का उदय
सरकारी दमन और नेताओं द्वारा सकारात्मक नेतृत्व देने में असफल होने के कारण लोग अन्ततः उग्र व क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की ओर मुड़े। बंगाल के युवाओं को जब शांतिपूर्ण राजनीतिक प्रतिरोध के सारे रास्ते बंद मिले तो वे हिंसा की ओर मुड़ने लगे। उन्हें अब विश्वास नहीं रह गया था कि निष्क्रीय प्रतिरोध से राष्ट्रवादी उद्देश्य प्राप्त किये जा सकते हैं। उन्होने सोचा कि अंग्रेजों को देश से निकालना ही होगा। जैसा कि बारिसाल सभा के बाद 22 अपै्रल, 1906 को अपने अंक में युगान्तर ने लिखा कि : ‘‘समस्या का उपचार लोगों के पास ही हैं। भारत के 30 करोड़ लोगों को अपनी 60 करोड़ भुजाएं उठाकर इस दमन का विरोध करना ही होगा। शक्ति को ताकत के द्वारा ही रोका जा सकता है’’।
किन्तु युवा क्रांतिकारियों ने जनक्रांति लाले की कोशिश नहीं की। इसके बदले उन्होनें आयरिश आतंकवादियों या रूसी क्रांतिकारियों की नकल की, जिसमें सीधे तौर पर अलोकप्रिय अधिकारियों की हत्या करना था। इसकी शुरूआत, 1897 में तब हुई जब चापेकर भाईयों ने दो अलोकप्रिय ब्रिटिश अधिकारियों की पूना में हत्या कर दी। 1904 में बी.डी. सावरकर ने अभिनव भारत नामक गुप्त क्रांतिकारी संस्था का गठन किया। 1905 के बाद कुछ समाचार पत्रों ने भी क्रांतिकारियों का पक्ष लेना शुरू किया। उनमें से प्रमुख ‘‘संध्या’’ और ‘‘युगान्तर’’ बंगाल के तथा ‘‘काल’’ महाराष्ट्र से थे।
दिसम्बर 1907 में बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर की हत्या का प्रयास किया गया और अप्रैल 1908 में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने एक घोड़ा-गाड़ी पर बम फेंका जिसे वे मुजफ्फरपुर के एक कुख्यात जज किंग्सफोर्ड की समझ रहे थे। प्रफुल्ल चाकी ने तो स्वयं को गोली मार ली जबकि खुदीराम बोस को फांसी दे दी गई। कई क्रांतिकारियों ने इस दौर में गुप्त संगठनों की स्थापना की। इनमें से अनुशीलन समिति प्रमुख थी, जिसकी ढाका में ही 500 शाखाएँ थीं। शीघ्र क्रांतिकारी समाजवादी सारे देश में सक्रिय हो गये। उनके हौसले इतने बढ़ गये थे कि उन्होने वायसराय लॉर्ड हार्डिंग पर भी बम फेंका जब वह एक सरकारी समारोह में हाथी की सवारी कर रहे थे। इस हमलें में वे घायल हो गये।
क्रांतिकारियों ने अपनी गतिविधियों के केन्द्र विदेशों में भी बनाये। इनमें श्यामजी कृष्ण वर्मा, वी.डी. सावरकर और बर दयाल इंग्लैण्ड में जबकि मैडम कामा और अजीत सिंह यूरोप के प्रमुख नेता थे।
क्रांतिकारी राष्ट्रवाद भी धीरे-धीरे असरहीन हो गया। वास्तव में, एक राजनीतिक हथियार के रूप में इसे असफल होना ही था। यह जनता को गतिशील नहीं कर सका; वास्तव में जनता के बीच इसका कोई आधार नहीं था। किन्तु क्रांतिकारियों ने राष्ट्रवाद के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान दिया। जैसे कि एक इतिहासकार ने कहा है, ‘‘उन्होने हमें हमारे पुरूषार्थ से परिचित करवाया’’। उनकी वीरता व साहस के कारण, क्रांतिकारी देशवासियों के बीच लोकप्रिय हो गये यद्यपि राजनीतिक रूप से जागृत कई लोग उनके तरीकों से सहमत नहीं थे।
8.0 भारतीय राश्ट्रीय कांग्रेस (1905-1914)
बंगाल विभाजन के प्रतिरोध आंदोलन का भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस पर गहरा प्रभाव पड़ा। काँग्रेस के सारे गुट विभाजन के विरोध में एक साथ खडे हो गये। 1905 के अधिवेशन में, कांग्रेस अध्यक्ष गोखले ने, विभाजन और लॉर्ड कर्जन के तौर-तरीकों का जमकर विरोध किया। राष्ट्रीय कांग्रेस ने बंगाल के स्वदेशी व बहिष्कार का भी समर्थन किया।
उदारवादी व उग्र राष्ट्रवादियों के तरीकों पर जनता में बहुत वाद-विवाद और असहमति थी। उग्र राष्ट्रवादी स्वदेशी व बहिष्कार को उपनिवेशिक सरकार के साथ पूर्णतः, और सम्पूर्ण देश में उपयोग करना चाहते थे। उदारवादी इसे केवल बंगाल में, वह भी केवल विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तक सीमित रखना चाहते थे।
1906 में दोनों गुटों के बीच कांग्रेस अध्यक्ष पद को लेकर तनाव हो गया। अन्त में दादाभाई नौरोजी, जिन्हें राष्ट्रवादी भी महान देशभक्त मानते थे, को अध्यक्ष चुना गया। दादाभाई नौरोजी ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में, खुले रूप से यह घोषणा कर राष्ट्रवादियों को उत्तेजित कर दिया कि ‘‘भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का उद्देश्य ‘‘स्वराज’’ है।’’
किन्तु दोनों धड़ों के बीच का अन्तर पाटा नहीं जा सका। कई उदारवादी देशभक्त समय के साथ गति नहीं बना सके। वे यह नहीं देख पा रहे थे कि भूतकाल में उनके द्वारा अपनाये गये सफल तरीके व दृष्टिकोण अब अपर्याप्त थे। वे राष्ट्रीय आंदोलन के इस नए मंच के साथ आगे नहीं बढ़ सके। उग्र राष्ट्रवादी किसी भी कीमत पर पीछे हटने को तैयार नहीं थे। दोनों ही धड़ों के बीच स्पष्ट विभाजन कांग्रेस के 1907 के सूरत अधिवेशन में उभरकर सामने आया। कांग्रेस के विभिन्न पदों पर उदारवादी धड़ों का कब्जा हो गया और उग्र राष्ट्रवादी बाहर हो गये।
8.1 सूरत विभाजन
सूरत विभाजन आधुनिक भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। 1907 में जब उदारवादियों ने उग्र राष्ट्रवादियों के साथ कार्य करना छोड़ दिया तब यह विभाजन हुआ। विभाजन के कई कारण थे। उदारवादियों (नरम दल) का काँग्रेस पर शुरू से ही नियंत्रण था। उनके सोचने व कार्य करने का अपना तरीका था जो कि युवा पीढ़ी को स्वीकार नहीं था। युवा अधीर थे और उन्हें उदारवादियों का देश का नेतृत्व करने का तरीका पसंद नहीं था। अतः विभाजन होना ही था।
8.2 विभाजन के कारण
उदारवादियों (नरम दल) और उग्र राष्ट्रवादियों (गरम दल) के बीच विभाजन का मूल कारण, अंग्रेज शासन के प्रति वफादारी को लेकर था। उदारवादी अंग्रेजी राज के प्रति वफादारी में विश्वास रखते थे। उनका विश्वास था कि भारत में अंग्रेजी राज भारत की जनता के हित में था। दूसरी ओर कट्टरपंथी ब्रिटिश राज को श्राप मानते थे और अंग्रेज शासन के प्रति वफादारी का कोई कारण नहीं मानते थे।
वास्तव में दोनों ने ही अंतिम उद्देश्य पर ध्यान दिया और दोनों के ही अंतिम ध्येय में अंतर था। उदारवादी, समझदारी और समझौते की नीति पर विश्वास करते थे। वे ब्रिटिश संसद द्वारा समय-समय पर दी गई रियायतों से संतुष्ट थे, जबकि गरम दल के लोगों को इसकी कोई परवाह नहीं थी।
उनकी नजर में ‘‘स्वराज्य’’ ही समस्या का हल था। नरम दल के लोग केवल संवैधानिक तौर तरीकों पर विश्वास करते थे और ऐसी राह चुनते थे जिसमें कोई हिंसा न हो। वे तार्किक व भावुक आव्हानों, मामलों का स्पष्ट प्रतिनिधित्व, तथ्यों को दृढ़तापूर्वक रखना, तर्क और याचिका जैसे साधनों पर विश्वास रखते थे। उदारवादी असहयोग या निष्क्रियप्रतिरोध जैसे साधनों के लिए तैयार नहीं थे। यहाँ तक कि उन्होनें स्वदेशी के कार्यक्रमों को भी पूर्णतः स्वीकार नहीं किया। वे बहिष्कार को आक्रामक कार्य मानते थे, जिससे दुर्भावना पैदा होती थी। दूसरी ओर गरम दल के लोग विश्वास करते थे कि राष्ट्रीय समस्याओं का हल तर्क, नैतिकता, दया से नहीं बल्कि शक्तिशाली आंदोलन से हो सकता है।
नरम दल और गरम दल में दूसरा महत्वपूर्ण अंतर उनकी कार्यप्रणाली का था। उदारवादी अपनी सफलता के लिए अंग्रेजों की सहानुभूति व इच्छा पर निर्भर थे। कट्टरपंथियों ने ऐसी कार्यप्रणाली को अस्वीकार कर दिया और कहा कि भारत की जनता ही उसके भाग्य की निर्माता है न कि कोई विदेशी शक्ति। उदारवादी मानते थे कि भारत की जनता अभी स्वराज्य के योग्य नहीं थी, जबकि गरम दल के लोग मानते थे कि भारतीय ‘‘स्वराज्य’’ के योग्य हैं और इसे जनता की अयोग्यता के आधार पर नकारा नहीं जा सकता। उदारवादी मानते थे कि वे जो माँगेगे, उन्हें बिना किसी कष्ट के आसानी से मिल जायेगा। गरम दल (कट्टरपंथी) के लोगों का मानना था कि भारत की मुक्ति कष्ट और आत्म बलिदान के बिना संभव नहीं है।
इन अन्तरों के आधार पर, गरम दल व नरम दल के बीच टकराव था जो अन्ततः विभाजन की ओर ले गया। इससे इंकार नहीं है कि उदारवादी भी बंगाल विभाजन के उतने ही तीव्र विरोधी थे जितने की उग्र राष्ट्रवादी, तो भी उनकी अपनी सीमाएँ थी जिसके परे वे नहीं जा सकते थे। कांग्रेस ने 1906 में स्वदेशी, बहिष्कार व राष्ट्रीय शिक्षा का प्रस्ताव पारित किया किन्तु उसे उदारवादियों का विरोध सहना पड़ा। 1906 के कलकत्ता अधिवेशन में जो कुछ हुआ उसे उदारवादियों ने अपनी सहमति नहीं दी और 1907 के सूरत अधिवेशन में उसे बदलने की कोशिश की। उग्र राष्ट्रवादी उन्हें ऐसा करने देने की अनुमति देने को तैयार नहीं थे। ऐसी परिस्थितियों में टकराव अवश्यंभावी था।
8.3 विभाजन के परिणाम
सूरत विभाजन ने न केवल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को कमजोर कर दिया बल्कि 1916 के लखनऊ अधिवेशन तक के लिए इसके प्रभाव को भी नष्ट कर दिया। अगले आठ सालों तक, भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन अपने आप में विभाजित रहा, आधा संवैधानिक और आधा क्रांतिकारी। निश्चित रूप से यह अंग्रेजों को अच्छा ही लगा होगा।
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