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1857 के पश्चात भारत में ब्रिटिश नीतियॉ भाग - 2
3.0 प्रशासनिक नीति
1857 के विद्रोह के बाद, अंग्रेजी सरकार का भारतियों के प्रति रवैया और नीतियां दोनों ही बदतर हो गए। 1857 तक जहाँ उनके कदम रुक-रुक कर ही सही पर भारत के आधुनिकीकरण की तरफ उठे, इस विद्रोह के बाद वो कदम प्रतिक्रियावादी बन गए थे। इतिहासकार पर्सिविअल स्पीयर के शब्दों में “भारत सरकार का विकास के साथ हनीमून समाप्त हो गया था”।
अब तक यह स्पष्ट है की प्रशासनिक व्यवस्था के दो मुख्य अंग सेना और सिविल सेवा को भारतीयों से दूर कर, उनकी अपने ही देश को चलने में हिस्सेदारी से वंचित कर दिया गया था। विद्रोह से पहले तक कम से कम बोल-चाल में अंग्रेज़ां ने यह अफवाह फैला रखी थी की वह भारतीयों को शासन करने के प्रशिक्षण के बाद राजनितिक फैसले करने के योग्य बना कर देश उनके हाथो में दे देंगे परन्तु अब यह विचार प्रस्तुत किया जा रहा था की भारतीय निहित सामाजिक और सांस्कृतिक दोष के कारण देश चलाने के योग्य नहीं हैं और अंग्रेज सरकार को ही भारत में अनिश्चित काल तक भारत देश में शासन करना होगा। यह प्रतिक्रियावादी निति विभिन्न क्षेत्रों में नजर आने लगी थी।
3.1 बाँट कर राज करने की नीति
अंग्रेज़ां ने भारत के राज्यों में एकता के अभाव का फायदा उठा कर और इन में फूट डाल कर कब्ज़ा किया था। 1870 के बाद उनकी यह नीति और विस्तृत हो गयी। उन्होंने राजाओं को लोगों के खिलाफ, प्रान्त को प्रान्त के खिलाफ, जाति को जाति के खिलाफ और समूह को समूह के खिलाफ और सबसे डरावनी बात, हिन्दू को मुस्लिम के खिलाफ भड़का दिया।
1857 में हिन्दू-मुस्लिम एकता देख कर अंग्रेज़ काफी परेशान हो गए थे। उन्होंने बढ़ते राष्ट्रवादी आंदोलनों को रोकने के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता को विखंड़ित करने की ठान ली थी। विद्रोह के बाद उन्होंने बड़े पैमाने पर मुस्लिमों की ज़मीन कब्जे में ली और हिदुओं को अपना चहेता घोषित कर दिया। 1870 के बाद उन्होंने इस नीति में बदलाव किया और उच्च और मध्यम वर्ग के मुस्लिमों को राष्ट्रवादी आन्दोलन के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया।
सरकारी नौकरियों के लोभ के जरिये अंग्रेजों ने धार्मिक मसलों पर पढ़े-लिखे भारतीयों में अलगाव बनाने की नीति अपनाई। औद्योगीकरण और करोबार के अभाव में पढ़े-लिखे भारतीयों के पास सरकारी नौकरी के सिवा और कोई रोजगार का अवसर नहीं था और इस तरह वह अंग्रेजों पर आश्रित हो चुके थे। भारतीयों के लिए चंद पद थे जिसको पाने के लिए प्रतियोगिता के भाव को अंग्रेजों ने नफरत, भेद भाव फैलाने में उपयोग किया। उन्होंने सरकारी नियुक्तियां करने में साम्प्रदायिका दर्शाते हुए हिंदुओं व मुस्लिमों को बांटने का पूरा कार्य किया।
3.2 शिक्षित भारतीयों से भेद-भाव
1857 और उससे पहले अंग्रेजों ने भारत में उच्च पढ़ाई के लिए कलकत्ता, मद्रास और बॉम्बे में विश्वविद्यालय बनवाए। काफी अंग्रेज़ अधिकारियों ने इस बात की सराहना की कि शिक्षित भारतीयों ने 1857 की आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया था। परन्तु जैसे ही पढ़े-लिखे भारतीयों की तादाद बढ़ी, यह भारतीय अंग्रेजों के साम्राज्यवादी नीतियों के भेद समझने और जानने लगे, जिसके बाद उन्होंने शासन में भारतीय हिस्सेदारी की मांग उठानी शुरू कर दी। पढ़े-लिखे भारतीयों के प्रति अंग्रेज़ों के तेवर और तीखे तब हो गए जब 1885 में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना की गई। इसके उपरांत अंग्रेजी सरकार ने उच्च शिक्षा को रोकना शुरू कर दिया और पढ़े-लिखे भारतीयों को ‘विद्रोही बाबू’ बुलाने लगे।
इस प्रकार अंग्रेज़ उन पढ़े-लिखे और पश्चिमी सभ्यता की समझ रखने वाले भारतीय समूह के बिलकुल खिलाफ हो गए। इन भारतियों के विकास की सोच अंग्रेजों के साम्राज्यवादी व्यवस्था के लिए एक खतरा थी। अपने इस कदम से अंग्रेज़ों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि भारत के विकास की कोई भी संभावना अब अंग्रेज़ों की कार्यशैली से तो उपजने वाली नहीं थी।
3.3 ज़मींदारों के प्रति रवैया
जहाँ अंग्रेज़ शिक्षित भारतीयों से अपनी दूरी बरकरार रखे हुए थे, वहीं अंग्रेज़ देश के ज़मींदारों और राजाओं की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे थे। हम यह पहले समझ चुके हैं किस तरह अंग्रेज़ों ने छोटे राज्यों और राजाओं को राष्ट्रवादी ताकतों के खिलाफ बांध बना कर स्वहित में इस्तेमाल किया था। ज़मींदार भी राजाओं की ही तर्ज़ पर इस्तेमाल किये जा रहे थे। जैसे अवध के तालुकदारों और ज़मींदारों को उनकी ज़मीनें वापस कर दी गईं, व ज़मींदारों को ही उस प्रान्त का मुखिया समझा जाने लगा। उनके हितों और फायदे की रक्षा की जाने लगी। इन ज़मींदारों को उनकी ज़मीनों और किसानों के साथ आजादी से रहने दिया गया और इसी कारणवश यह ज़मींदारों का समूह राष्ट्रवादी ताकतों के खिलाफ होने लगा। वाइसराय लार्ड लिटन ने 1876 में यह खुलेआम स्पष्ट कर दिया कि “अंग्रेज़ी हुकूमत की पहचान उन लोगों की आशाओं, आकांक्षाओं और सहानुभूति से है जो कि अभिजात्य वर्ग से हैं। इसलिए भारत का ज़मींदार वर्ग यह समझ चुका था की उनकी पहचान और कर्तव्य यही है की वह अंग्रेज़ी हुकूमत की तरफदारी करें, इस प्रकार वह भी अंग्रेजों के समर्थक हो गए।
3.4 सामाजिक सुधार के प्रति रवैया
रूढ़िवादी वर्गों के साथ गठबंधन की नीति के रूप में, ब्रिटिश सरकार ने समाज सुधारकों को सहायता पहुँचाने की नीति को त्याग दिया। उनका मानना था कि सन् 1857 के विद्रोह का प्रमुख कारण ब्रिटिश सरकार द्वारा चलाई गई समाज सुधार की नीतियां - जैसे सती प्रथा पर रोक एवं विधवाओं का पुर्नविवाह थी। अतः उन्होंने धीरे-धीरे समाज सुधारकों को समर्थन देना बंद किया एवं रूढ़िवादी सोच का साथ दिया।
जैसे जवाहरलाल नेहरू ने ‘‘भारत एक खोज़’’ में व्यक्त किया ’’चूँकि ब्रिटिश साम्राज्य का यह स्वभाविक समर्थन भारत में प्रतिक्रियावादियों की तरफ था, अतः वह भारत में प्रचलित अनेक कुप्रथाएँ एवं आचरण का पालक एवं समर्थक था, जिसकी वे वैसे तो निंदा करते थे’’। वास्तव में ब्रिटिश सरकार एक दुविधा की अवस्था में थी। यदि ब्रिटिश समाज सुधार के पक्ष में जाते और उस हेतु अनेक कानून-कायदे जारी करते, तो रूढ़िवादी भारतीय उनके विरूद्ध जाते और कहते कि विदेशी सरकार को भारतीयों के आंतरिक, सामाजिक प्रकरणों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। दूसरी तरफ यदि वे इस प्रकार के कानून-कायदे जारी नहीं करते तो सामाजिक रूप से प्रगतिशील भारतीय इस तथ्य की निंदा करते कि सरकार समाजिक बुराईयों को बढ़ावा दे रही है। लेकिन यह उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश सरकार सामाजिक प्रश्नों में कदापि निष्पक्ष नहीं थी। यथास्थिति का साथ देकर वो अप्रत्यक्ष रूप से प्रचलित सामाजिक बुराईयों का संरक्षण करती थी। हालांकि राजनैतिक उद्देश्यों के लिये जातीयता एवं सांप्रदायिकता को बढ़ावा देकर ब्रिटिश सामाजिक प्रतिक्रिया को सक्रिय तरीके से प्रोत्साहन देते थे।
3.5 सामाजिक सेवा में चरम पिछड़ापन
19वीं सदी के दौरान जहाँ यूरोप में शिक्षा, स्वच्छता, जन-स्वास्थ्य, जल वितरण एवं ग्रामीण सड़कों जैसी सामाजिक सेवाओं ने तेजी से प्रगति दिखाई, भारत में ये अत्यंत पिछडे़पन की अवस्था में थे। तत्कालीन भारतीय सरकार ने प्राप्त आय का अधिकांश हिस्सा सेना, युद्ध एवं प्रशासनिक सेवाओं पर खर्च किया और सामाजिक सेवा को धन से वंचित किया। उदाहरणार्थ 1886 में रूपये 47 करोड़ कुल राजस्व में से भारतीय सरकार ने लगभग रूपये 19.41 करोड़ सेना, में और रूपये 17 करोड़ नागरिक प्रशासन में खर्च किया परन्तु रूपये 2 करोड़ से कम शिक्षा, दवाई एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च किया एवं केवल 65 लाख रूपये सिंचाई पर खर्च किये। जो कुछ गिने-चुने कदम सेवाएं जैसे स्वच्छता, जल आपूर्ति, सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसी सेवाएं प्रदान करने हेतु उठाये गये थे, वे शहरी क्षेत्रों तक सीमित थे और वे भी सिविल लाईन या ब्रिटिश या शहर के आधुनिक भाग पर केंद्रित थे। वे मुख्यतः यूरोपीय निवासी एवं गिने-चुने उच्च स्तर भारतीयों के लिये - जो शहरों के यूरोपीय भाग मे निवास करते थे - उनके लिए लागू थे।
3.6 श्रम विधान (Labour legislation)
19वीं सदी में आधुनिक कारखानों और बागानों में श्रमिकों की हालत दयनीय थी। उन्हें नित्य 12-16 घंटे तक काम करना पड़ता था एवं कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं था। महिलाएं एवं बच्चे भी लंबे समय तक काम करते थे जैसे पुरूष करते थे। उनका मासिक पारिश्रमिक अत्यंत कम था (प्रतिमाह रू. 4 से 20 के बीच)। कारखाने में अत्यधिक श्रमिक कार्यरत थे, कारखानों में प्रकाश एवं हवा की उचित व्यवस्था नहीं थी और स्थितियां स्वास्थ्य के प्रतिकूल थीं। मशीन पर काम करना जोखिम भरा था एवं दुर्घटनाएं होना आम बात थी।
भारतीय सरकार, जो पूंजीवादी की ओर झुकी थी, ने (अपर्याप्त) कदम उठाये ताकि आधुनिक कारखाने जिनके मालिक भारतीय थे, उनमें कार्य करने की दयनीय स्थिति में सुधार आये। इनमें मानवीय आधार आंशिक ही था। ब्रिटेन के निर्माताओं ने निरंतर दबाव डाला ताकि फैक्ट्री कानून जारी हो सकें। उन्हें भय था कि सस्ती मजदूरी के जरिये भारतीय निर्माता भारतीय बाजार में उनसे कहीं ज्यादा विक्रय करेंगे। वर्ष 1881 में प्रथम भारतीय फैक्ट्री एक्ट जारी किया गया।
यह कानून मुख्यतः बाल श्रम की समस्या से संबंधित था। यह विधान किया गया कि 7 से 12 वर्ष की आयु के बच्चे 9 घंटे प्रतिदिन से ज्यादा काम नहीं करेंगे। बच्चों को माह में चार दिनों का अवकाश दिया जावेगा। इस कानून में इस तथ्य पर भी ध्यान दिया गया कि हानि पहुँचाने वाले यंत्र को बराबर सुरक्षित क्षेत्र में रखा जावे। वर्ष 1891 में द्वितीय भारतीय फैक्ट्री अधिनियम जारी किया गया। इससे सभी कर्मचारियों को साप्ताहिक अवकाश प्रदान किया गया। महिलाओं का कार्य समय 11 घंटे प्रतिदिन रखा गया जबकि बच्चों का दैनिक कार्य समय घटाया गया। पुरूषों के लिये कार्य के समय में कोई संशोधन नहीं था।
ब्रिटिश आधिपत्य में चाय व कॉफी के बागानों पर ये कानून लागू नहीं थे। अपितु सरकार ने विदेशी बागान मालिकों को हर प्रकार की सहायता दी जिससे कर्मचारियों का बहुत कठोर तरीके से शोषण हो सके। अधिकतर चाय बागान असम में स्थित थे जहाँ आबादी बहुत कम थी एवं मौसम स्वास्थ्य के प्रतिकूल था। अतः बागान में कार्य करने हेतु श्रमिक बाहर से आते थे परन्तु बागानों के मालिक बाहर से आये श्रमिकों को अधिक वेतन के द्वारा आकर्षित नहीं करते थे। बल्कि कपट एवं जोर-ज़बर्दस्ती से वे इन्हें नियुक्त करते थे एवं एक तरह से बागानों में गुलाम बनाते थे। भारतीय सरकार ने इन मालिकों को पूर्ण सहायता दी एवं वर्ष 1863, 1865, 1870, 1873 एवं 1882 में कठोर कानून जारी किये। एक बार किसी श्रमिक ने काम करने का अनुबंध किया, उसके पश्चात वो काम करने से मना नहीं कर सकता था। मजदूरों द्वारा अनुबंध का उल्लघंन एक आपराधिक जुर्म था तथा मालिक को ऐसे मजदूर को हिरासत में लेने का अधिकार था।
बढ़ते हुए ट्रेड यूनियन अभियान के दबाव में आकर बेहतर मजदूर कानून 20वीं शताब्दी में जारी किये गये। फिर भी भारतीय मजदूर वर्ग की स्थिति अत्यंत दयनीय रही। एक औसत कर्मचारी ब्रिटिश साम्राज्य में निर्धारित स्तर के नीचे जीवनयापन करता था। भारतीय मजदूरों की स्थिति का वर्णन करते हुए प्रो. जुर्गन कुग्ज़ीनस्की (जाने माने जर्मन आर्थिक इतिहासकार) ने 1938 में वर्णन किया किः ‘‘कम खाना खाकर, जानवरों की तरह कैद रहकर, बिना रोशनी व हवा व पानी के, भारतीय औद्यौगिक मजदूर विश्व की पूँजीवादी व्यवस्था का सबसे शोशित वर्ग है।’’
3.7 प्रेस पर प्रतिबंध
ब्रिटिश सरकार भारत में प्रिटिंग प्रेस लाई एवं इस तरह आधुनिक प्रेस का विकास प्रारंभ किया। शिक्षित भारतीयों ने प्रेस की महत्ता को भांपा जिससे प्रेस सार्वजनिक विचार एवं सरकारी नीतियों की आलोचना से संबंधित जनचेतना में अहम् भूमिका निभा सकती थी। राम मोहन राय, विद्यासागर, दादाभाई नौरोज़ी, जस्टिस रानाड़े, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, लोकमान्य तिलक, जी. सुब्रहमण्यम् अय्यर, सी. करूणाकर मेनन, मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल एवं अन्य भारतीय नेताओं ने एक अहम् भूमिका निभाई जब उन्होंने समाचार पत्र प्रकाशित किये और उन्हें सशक्त राजनैतिक बल का रूप दिया। प्रेस धीरे धीरे राष्ट्रवादी आंदोलन का प्रमुख अस्त्र बन गया।
भारतीय प्रेस से प्रतिबंध 1835 में चार्ल्स मेटकाल्फ् ने हटाए थे। इस कदम का शिक्षित भारतीयों ने स्वागत कर, ब्रिटिश राज का समर्थन किया था। किन्तु राष्ट्रवादियों ने धीरे-धीरे प्रेस का इस्तेमाल जनचेतना जागृति हेतु किया। अतः ब्रिटिश अधिकारियों ने क्रोधित होकर 1878 में ‘‘स्थानीय भाषाई प्रेस कानून’’ लागू किया। इस बंदिश का घोर विरोध हुआ और 1882 में इस कानून को खारिज कर दिया गया। अगले 25 वर्षां तक प्रेस को काफी स्वतंत्रता मिली किन्तु 1905 में उग्र स्वदेशी व बहिष्कार आंदोलन के कारण पुनः दमनकारी प्रेस कानून 1908 व 1910 में लाए गये।
3.8 नस्लीय घृणा (Racial antagonism)
भारत में ब्रिटिश भारतवासियों से सदा दूरी रखते थे क्योंकि उनका मानना था कि सामाजिक दूरी से वे भारत पर नियंत्रण एवं शासन बनाए रख सकते हैं। नस्ल के आधार पर वे अपने आप को श्रेष्ठ समझते थे। 1857 की बगावत (प्रथम स्वाधीनता युद्ध) एवं दोनों तरफ से किये गये अत्याचार के कारण ब्रिटिश एवं भारतीय नागरिकों के बीच में फासला बढ़ चुका था। ब्रिटिश सरेआम नस्लीय सर्वोच्चता का तत्व आचरण में लाते थे और नस्लीय आधार पर अहंकार दिखाते थे। रेल्वे डिब्बों, रेल्वे स्टेशन में प्रतीक्षालयों, पार्कों, होटलों, स्वीमिंग पूल इत्यादि में ‘‘केवल यूरोपीयों के लिए आरक्षित’’ उनके नस्लवाद का प्रमाण था। भारतीय अपमानित महसूस करते थे। जवाहर लाल नेहरू के शब्दों मेंः
‘‘हम भारत में ब्रिटिश सम्राज्य के आरंभ से ही नस्लवाद के सभी रूप को जान गये हैं। इस शासन की संपूर्ण विचारधारा, ‘हेरनवॉक एवं मास्टर रेस‘ से तुलनीय था और शासन का ढ़ांचा इसी विचारधारा पर आधारित है। ये बिना हिचकिचाए शासकों द्वारा घोशित था। शब्द से ज्यादा प्रभावशाली शासकों का आचरण था। पीढ़ी दर पीढ़ी, वर्श दर वर्श भारत राश्ट्र एवं भारतीय नागरिक अपमान एवं शोशण के शिकार थे। अंग्रेज एक शाही समूह थे, हमे यह बताया गया, जिन्हें हम पर शासन करने के लिये ईश्वरी हक प्राप्त था। यदि हम विद्रोह करते जो हमें याद दिलाया जाता था कि ‘शाही समूह के बाघ के गुण’ क्या हैं!’’
3.9 विदेश नीति
ब्रिटिश शासन के अंतर्गत, भारत ने अपने पड़ोसी देशों से नये आधार पर संबंधों का विकास किया। यह दो कारकों का परिणाम था। संचार के आधुनिक साधनों के विकास और देश के राजनैतिक व प्रशासनिक समेकलन ने भारत सरकार को भारत की प्राकृतिक भौगोलिक सीमाओं तक पहुँचने के लिये प्रेरित किया। यह रक्षा व आंतरिक एकता, दोनों के लिये आवश्यक था। यह निश्चित रूप से सीमा संघर्ष का प्रतिनिधित्व करता था। दुर्भाग्यवश कभी-कभी भारत सरकार प्राकृतिक और पारंपरिक सीमाओं के परे चली गई। अन्य नया पहलू भारत सरकार का विदेशी चरित्र था। एक स्वतंत्र देश की विदेश नीति, गुलाम देश की विदेश नीति से भिन्न होती है। स्वतंत्र राष्ट्र के मामले में यह देश के लोगों की ज़रूरतों व हितों पर आधारित होती हैं, अन्यथा यह शासक देश के हितों के लिये काम करती है। भारत के मामले में, विदेशी नीति ब्रिटिश सरकार से प्रभावित थी। एशिया और अफ्रिका में ब्रिटिश सरकार के दो मुख्य उद्देश्य थेः उनके भारतीय साम्राज्य का संरक्षण एवं अफ्रीका और एशिया में ब्रिटिश वाणिज्य एवं आर्थिक व्यवसाय का विस्तार। इन दो उद्देश्यों हेतु ब्रिटिश साम्राज्य एवं आक्रमण भारत के सीमाओं के बाहर भी हुआ था। हालांकि इन्हीं उद्देश्यों के कारण ब्रिटिश सरकार का युद्ध अन्य यूरोप के साम्राज्य राष्ट्र के साथ हुआ जो अपने प्रांतीय एवं वाणिज्य विस्तार अफ्रीका एवं एशिया में स्थित स्थानों पर चाहते थे।
भारतीय साम्राज्य की रक्षा, ब्रिटिश आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देना एवं अन्य यूरोपीय ताकतों को भारत की सीमा से दूर रखना - इन लक्ष्यों ने ब्रिटिश भारत सरकार को भारत के पड़ोसी राष्ट्रों पर हमला करने के लिये मजबूर किया। अर्थात् ब्रिटिश साम्राज्य के समय, भारत के अपने पड़ोसी देश से संबंध ब्रिटिश साम्राज्यवादी की आवश्यकताओं पर निर्भर थे।
परन्तु, यद्यपि भारतीय विदेशी नीति ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अनुसार थी, उसकी कीमत भारत को ही चुकानी पडी़। ब्रिटिश उद्देश्यों को पूर्ण करने हेतु भारत को उसके पड़ोसी देशों के साथ युद्ध करने पडे़; भारतीयों सैनिकों ने अपना खून अर्पित किया। भारतीय करदाता को इसकी कीमत चुकाना पड़ी।
नेपाल के साथ युद्ध, 1814ः अपने भारतीय साम्राज्य का भारत की प्राकृतिक भौगोलिक सीमा से बाहर विस्तार करने की ब्रिटिश आकांक्षा के कारण सर्वप्रथम उत्तर में स्थित नेपाल साम्राज्य से युद्ध छिड़ा। अक्टूबर 1814 में दोनों राष्ट्रों की सीमा पुलिस दल की झड़पों से भारी युद्ध उत्पन्न हुआ। ब्रिटिश नेपाल से अपेक्षाकृत मानव संसाधन, पैसे एवं सामग्री में सशक्त थे। अंत में नेपाल सरकार को ब्रिटिश शर्त के अनुसार शांति की संधि बनाना पड़ी। नेपाल ने ब्रिटिश ‘‘रेसिडेंट’’ को स्वीकार किया। गढ़वाल एवं कुमाऊँ जिलों को ब्रिटिश सरकार को सौंपा एवं तराई क्षेत्र में हक समर्पित किया। वे सिक्किम क्षेत्र से भी हटे। ब्रिटिश सरकार के लिये यह समझौता बहुत ही फायदेमंद रहा। भारतीय साम्राज्य की सीमा हिमालय तक पहुँच गई। मध्य-एशिया के साथ व्यवसाय संबंधी सुविधाओं से ब्रिटिश सरकार लाभान्वित हुआ। इसके अलावा ब्रिटिश सरकार को महत्वपूर्ण हिल स्टेशन्स जैसे शिमला, मसूरी और नैनीताल के लिये स्थल प्राप्त हुये। इसके अलावा गोरखा सैनिकों ने ब्रिटिश भारतीय सेना में अधिक संख्या में प्रवेश कर उसे मजबूत बनाया।
बर्मा के साथ युद्धः 19 वीं शताब्दी के दौरान लगातार तीन युद्धों के द्वारा बर्मा का स्वाधीन साम्राज्य ब्रिटिश सरकार के अधीन आ गया। बर्मा और ब्रिटिश भारत के बीच युद्ध सीमान्त संघर्ष द्वारा शुरू हुआ। साम्राज्य बढ़ाने के उद्देश्य से इस युद्ध को प्रोत्साहन मिला। अनेक वन संसाधनों पर ब्रिटिश व्यापारियों की नजर थी। बर्मा में वे अपने व्यवसाय एवं निर्यात को बढ़ाना चाहते थे। ब्रिटिश सरकार फ्रांसीसी वाणिज्यिक एवं राजनीतिक प्रभाव का प्रसार बर्मा एवं दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य भागों में होना रोकना चाहती थी।
18वीं शताब्दी के समापन में बर्मा और ब्रिटिश भारत की एक समान सीमा का निर्माण हुआ, जब दोनों बढ़ती हुई ताकत थे। शताब्दियों के आंतरिक युद्ध के बाद बर्मा सन् 1752-1760 के बीच राजा अॅलान्गपाया द्वारा एकीकृत हुआ। उनके उत्तराधिकारी बॉडवपाया जो एवा नदी (एरावदी के तट पर) स्थित शासन करते थे, सियाम पर लगातार आक्रमण किये, चीन आक्रमणों को विफल किया और सीमान्त प्रांतों जैसे अराकान (1785) एवं मणिपुर (1813) पर आक्रमण कर उन्हें जीता व बर्मा की सीमा को ब्रिटिश भारत के पास लाया। पश्चिमी सीमा विस्तार करते हुए वह असम व ब्रम्हपुत्र घाटी के समीप तक आया। अंततः 1822 में बर्मा ने असम पर आक्रमण किया। अराकान और असम में बर्मा की आबादी के कारण बंगाल और बर्मा के बीच अनिर्मित सीमाओं पर लगातार क्लेश बना रहा।
1824 में ब्रिटिश शासन ने बर्मा पर आक्रमण किया। प्रारंभिक बाधा के बाद ब्रिटिश सैनिकों ने बर्मा के सैनिकों को असम, कच्छर, मणिपुर व अराकान से भगाया। मई 1824 में ब्रिटिश सेना ने समुद्र द्वारा रंगून पर कब्जा किया और एवा स्थित राजधानी के 72 कि.मी. करीब आ गये। येंडबो के समझौते, जो फरवरी 1826 में किया गया, के जरिय़े शांति स्थापित हुई। बर्मा की सरकार ने (1) 1 करोड़ रूपये युद्ध मुआवजा के रूप में दिया, (2) अराकान और टेनासेरिम जैसे तटवर्ती प्रांत को समर्पित किया, (3) असम, कच्छर और जामतिया क्षेत्र में दावा छोड़ दिया, (4) मणिपुर को एक स्वाधीन प्रांत माना, (5) ब्रिटेन के साथ एक वाणिज्यिक समझौता किया, तथा (6) एवा में ब्रिटिश ‘‘रेसिडेंट’’ का होना और कलकत्ता में एक बर्मा का प्रतिनिधित्व होना स्वीकार किया। इस समझौते के द्वारा ब्रिटिश सरकार ने बर्मा शासन को उनके तटवर्तीय प्रांतों से अलग किया और आने वाले समय में विस्तार हेतु बर्मा में एक ठोस आधार बनाया।
द्वितीय बर्मा युद्ध (जो 1852 में हुआ) ब्रिटेन के वाणिज्यिक लालच का परिणाम था। ब्रिटेन के लकड़ी के व्यापारी उत्तरी बर्मा में स्थित लकड़ी संसाधन पर रूचि दिखाने लगे। ब्रिटेन के लिये बर्मा की भारी आबादी एक विशाल बाजार के रूप में दिखने लगी, जहाँ ब्रिटिश कपासी सामग्री और अन्य वस्तुओं का विक्रय हो सके। ब्रिटेन जो कि बर्मा के दो तटवर्तीय प्रांतों में शासन कर रहा था, अब शेष प्रांतों के साथ वाणिज्यिक संबंध बनाना चाहता था। वह बर्मा के साथ युद्ध या शांति के द्वारा अपना कब्ज़ा मजबूत करना चाहता था ताकि उनके व्यवसायिक प्रतिस्पर्धी - जैसे फ्रांस और अमेरिका - वहां स्थापित न हो सकें। अप्रैल 1852 में एक पूर्ण ब्रिटिश सेना की नियुक्ति बर्मा में हुई। इस बार 1824-1826 की अपेक्षाकृत युद्ध कम समय के लिये रहा और ब्रिटेन की विजय और असरदार रही। ब्रिटिश सरकार ने पेगु, जो कि बर्मा का बचा हुआ तटवर्ती प्रांत था, कब्जे में लिया। परन्तु 3 साल तक इस शासन का विरोध रहा। तत्पश्चात् दक्षिणी बर्मा को ब्रिटिश शासन के अधीन लाया गया। ब्रिटेन ने बर्मा के समस्त तटवर्ती इलाकों एवं समुद्र व्यवसायों पर कब्ज़ा किया। इस युद्ध का तमाम आर्थिक भार भारत द्वारा वहन किया गया। पेगु के आक्रमण पश्चात् बर्मा और ब्रिटेन के बीच संबंध बहुत सालों तक शांतिपूर्ण रहे। ब्रिटिश सरकार उत्तरी बर्मा को और खोलने हेतु प्रयासरत रही। विशेषकर ब्रिटिश व्यापारी व उद्योगपति बर्मा द्वारा चीन के साथ व्यवसायिक संबंध बनाये रखने के प्रति आकर्षित रहे। 1885 में राजा थीबॉ ने फ्रांस के साथ वाणिज्यिक समझौता किया। बर्मा में बढ़ते हुए फ्रांसीसी प्रभाव से ब्रिटिश बहुत नाराज़ थे। ब्रिटिश व्यापारियों को यह भय था कि उनके फ्रेंच व अमेरिकन विपक्षी, धनी बर्मी मार्केट पर कब्जा करेगें। ब्रिटेन के वाणिज्यिक कक्ष एवं ब्रिटिश व्यापारी जो रंगून में स्थित थे, उन्होंने ब्रिटिश सरकार को उत्तरी बर्मा पर कब्जा करने के लिये दबाव डाला। 13 नवम्बर 1885 को ब्रिटिश सरकार ने बर्मा पर आक्रमण किया। 28 नवम्बर 1885 को राजा थीबॉ ने आत्म समर्पण किया और तत्पश्चात् उनके राजक्षेत्र भारतीय साम्राज्य में शामिल कर लिए गये।
परन्तु जिस सहजता से बर्मा पर कब्जा हुआ, वह चिर-स्थायी नहीं रहा। बर्मा की सेना के देशभक्त सैनिकों एवं अधिकारियों ने आत्म-समर्पण से इन्कार किया और घने जंगलों में चले गये। वहां से वे गुप्त तरीकों से आक्रमण करने लगे। उत्तरी बर्मा के नागरिक भी बगावत में खड़े हो गये। ब्रिटिश सरकार को 5 साल के लिये 40 हजार सैनिकों को भेजना पड़ा जिससे यह बगावत दबाई जा सके। इस युद्ध के संपूर्ण खर्चे भी भारत को वहन करना पड़े।
प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् बर्मा में एक आधुनिक वृहद राष्ट्रीय आंदोलन उठ खड़ा हुआ। ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार किया गया। बड़े पैमाने पर एक अभियान का आयोजन हुआ और गृह शासन की मांग रखी गई। बर्मा के देशभक्त भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के साथ जुड़ गये।
1935 में ब्रिटिश सरकार ने बर्मा के स्वतंत्रता संग्राम को कमजोर करने हेतु बर्मा को भारत से अलग किया। बर्मा के नागरिकों एवं नेताओं ने इस कदम का विरोध किया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यू आँग सान के नेतृत्व में बर्मा का राष्ट्रीय आंदोलन चरम सीमा तक पहुँच चुका था। अंत में बर्मा को 4 जनवरी 1948 को आजादी प्राप्त हुई।
अफगानिस्तान के साथ संबंधः अफगानिस्तान के साथ संबंध मजबूत करने के पूर्व ब्रिटिश भारतीय सरकार ने अफगानिस्तान के साथ दो युद्ध लडे़। ब्रिटेन के दृष्टिकोण में अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति महत्वपूर्ण थी। भारत की सीमा के बाहर अफगानिस्तान एक ऐसा क्षेत्र था जहां रूस की ओर से खतरे पर रोक लगाई जा सकती थी एवं मध्य एशिया में ब्रिटेन के वाणिज्यिक उद्देश्य को सशक्त बनाया जा सकता था। यदि कुछ भी नहीं तो कम से कम दो विरोधी ताकतों के बीच अफगानिस्तान एक सहज केन्द्र के रूप में कार्य कर सकता था। ब्रिटेन चाहता था कि अफगानिस्तान में रूस का प्रभाव कमजोर होकर समाप्त हो पर अफगानिस्तान को वह एक ताकतवर राष्ट्र के रूप में नहीं देखना चाहता था। अंग्रेज़ चाहते थे कि अफगानिस्तान एक कमजोर और विभाजित राष्ट्र हो जिस पर वे आसानी से नियंत्रण कर सकें।
ब्रिटिश सरकार दोस्त मोहम्मद, जो कि अफगानिस्तान का एक स्वाभिमान शासक था, को हटाना चाहती थी और उसके स्थान पर एक अधीनस्थ शासक को रखना चाहती थी। उन्होनें शाह शुजा को चुना जिन्हें 1809 में अफगान सीमा से हटाया गया था और जो अब लुधियाना में ब्रिटिश पेंशनर के रूप में निवास कर रहा था। अतः बिना कारण ब्रिटिश सरकार ने अफगानिस्तान के आंतरिक मामले में दखल देने का निर्णय लिया और अफगानिस्तान पर कब्जा किया - फरवरी 1839 में। अफगान के मूल कबीलाईयों को रिश्वत द्वारा ब्रिटिश सरकार ने खरीद लिया था। 7 अगस्त 1839 को काबुल ब्रिटिश सरकार के अधीन आया और शाह शुजा को तत्काल अफगान शासन में विराजित किया गया। लेकिन अफगानिस्तान के नागरिकों ने शाह शुजा को स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे विदेशी सहायता के साथ अफगानिस्तान के राजा बने। बहुत से अफगान गुट विरोध में खड़े हो गये। 2 नवम्बर 1841 को एक बगावत हुई और अफगान सैनिकों ने ब्रिटिश ताकत का विरोध किया।
11 दिसम्बर 1841 को ब्रिटिश सरकार ने अफगान प्रधानों के साथ एक समझौता किया जिसके तहत् उन्होंने दोस्त मोहम्मद को पुनः अफगानिस्तान का शासक बनाया। जब ब्रिटिश सैनिक वापस लौट रहे थे, उन पर आक्रमण हुआ। 16 हज़ार सैनिकों में से केवल 1 ही व्यक्ति सीमा पर जीवित पहुँचा। कुछ शेष, बंदियों के रूप में जीवित रहे। अंततः अफगानिस्तान पर युद्ध विफलता में परिणीत हुआ। ब्रिटिश भारतीय सरकार ने अब एक नई व्यूह रचना बनाई। 16 सितम्बर 1842 को काबुल पर ब्रिटिश सरकार द्वारा पुनः कब्जा हुआ। ब्रिटिश सरकार ने इस बार पिछली गलती नहीं दोहराई। उन्होंने दोस्त मोहम्मद के साथ समझौता किया जिसके तहत् ब्रिटिश काबुल से विरक्त हुये और उन्हें (दोस्त मोहम्मद को) अफगानिस्तान का स्वाधीन शासक माना गया।
प्रथम अफगान युद्ध भारत के लिये 1.5 करोड़ रूपये से अधिक मंहगा पड़ा और सेना के लगभग 20 हज़ार सैनिक हताहत हुए।
ब्रिटिश सरकार ने अब अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई। 1868 में जब रूस फिर मध्य एशिया की तरफ बढ़ा (जब वह क्रीमियाई युद्ध में पराजित हुआ), ब्रिटिश सरकार ने अफगानिस्तान को एक मजबूत मध्य केन्द्र (बफर) बनाने की नीति अपनाई। काबुल के अमीर को सहायता एवं राहत प्रदान की गई और उनके विरोधियों को नियंत्रित करने एवं विदेशी विपक्षों से स्वाधीनता हेतु सहायता दी गई। इस प्रकार ब्रिटिश के न हस्तक्षेप करने की नीति एवं समय समय पर सहायता देने से अमीर को रूस के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने से रोका गया।
1870 के पश्चात् संपूर्ण विश्व में साम्राज्यवाद का पुर्नजागरण हुआ। रूस और ब्रिटेन के बीच झगड़े की बढ़ोतरी हुई। ब्रिटेन ने अफगानिस्तान को प्रत्यक्ष राजनैतिक नियंत्रण में लाने का निर्णय लिया जिससे कि मध्य एशिया में ब्रिटेन का विस्तार संभव हो। अफगानिस्तान के शासक शेर अली पर ब्रिटिश नीति लागू करने हेतु 1878 में युद्ध छेड़ा गया जिसे द्वितीय अफगान युद्ध के नाम से जाना जाता है। 1879 में शांति स्थापित हुई जब याकूब खान (शेर अली के पुत्र) का ने गंदामक समझौता किया जिसके तहत ब्रिटिश सरकार को वो सब हासिल हुआ जो वे चाहते थे। उन्होंने कुछ सीमावर्ती जिलों को प्राप्त किया, काबुल में एक ‘रेसिडेंट’ रखने का हक प्राप्त किया एवं अफगानिस्तान की विदेशी नीति पर नियंत्रण संभव हो सका।
परन्तु ब्रिटेन सरकार की यह कामयाबी ज्यादा समय तक नहीं रही। अफगान नागरिकों के राष्ट्रीय गौरव पर आँच आई और अपने स्वाधीनता की रक्षा हेतु वे आक्रमण पर उतरे। 3 सितम्बर 1879 को मेज़र कैवगनारी (ब्रिटिश रेसिडेंट) एवं उसके सशस्त्र सहायकों पर बागी अफगान सैनिकों द्वारा आक्रमण हुआ। इसमें उसकी मृत्यु हुई। अफगानिस्तान पर पुनः आक्रमण व कब्जा हुआ पर इस बार अफगानी अपना हुनर दिखा चुके थे। ब्रिटेन सरकार ने अपनी नीति को परिवर्तित किया और एक प्रबल और मैत्रीपूर्ण अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई। अब्दुर रहमान (दोस्त मोहम्मद के पौते) को अफगानिस्तान के नये शासक के रूप में माना गया। बदले में अब्दुर रहमान ने तय किया कि ब्रिटिश हुकुमत के अलावा किसी अन्य हुकुमत के साथ राजनैतिक संबंध नहीं रखेगें। अतः अफगानिस्तान के अमीर अपनी विदेशी नीति पर नियंत्रण खो बैठे और उस हद तक परावलंबी शासक बने। साथ-साथ उन्होंने अपने राष्ट्र के आंतरिक मामलों पर संपूर्ण नियंत्रण प्राप्त किया।
प्रथम विश्व युद्ध एवं 1917 की रूसी क्रांति ने ब्रिटेन व अफगानिस्तान के बीच संबंधों में नई परेशानी खड़ी कर दी। अफगानों ने अब ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्वाधीनता की मांग की। हबीबुल्लाह, जो अब्दुर रहमान के पश्चात् 1901 से अफगानिस्तान का अमीर था, 20 फरवरी 1919 को मारा गया और उनके पुत्र अमानुल्लाह (अफगानिस्तान का नया अमीर) ने ब्रिटिश इंड़िया पर युद्ध घोषित किया। 1921 में समझौते के द्वारा शांति स्थापित हुई जिससे अफगानिस्तान ने विदेशा मामलों में संपूर्ण स्वाधीनता प्राप्त की।
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