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1857 के पश्चात भारत में ब्रिटिश नीतियॉ भाग - 1
1.0 प्रस्तावना
1857 के विद्रोह ने भारत में ब्रिटिश प्रशासन को एक ज़ोरदार झटका दिया और इसके पुनर्गठन को अनिवार्य बना दिया। भारत की संरचना और नीतियों में, विद्रोह के बाद के दशकों में सरकार ने महत्वपूर्ण परिवर्तन किये। भारतीय अर्थव्यवस्था और सरकार के परिवर्तन में अधिक महत्वपूर्ण भारत में उपनिवेशवाद के एक नये चरण का उद्घाटन था।
19वीं सदी के उत्तरार्ध ने औद्योगिक क्रांति के गहन प्रसार को देखा। धीरे-धीरे यूरोप, अमेरिका और जापान जैसे अन्य देशों का औद्योगीकरण होने लगा और दुनिया की अर्थव्यवस्था में ब्रिटेन के निर्माण और वित्तीय सर्वोच्चता का अंत हो गया। पूंजी निवेश के लिए कच्चे माल और बाज़ार के लिए दुनिया भर में तीव्र प्रतिस्पर्धा अब शुरू हो गई। ताजा औपनिवेशिक वर्चस्व के लिये खुले क्षेत्र दुर्लभ हो गये। अतः कॉलोनियों और अर्ध-कॉलोनियों के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़कर और कड़ी हो गयी। नए देशों से विश्व पूंजीवाद में अपनी प्रमुख स्थिति के लिए एक चुनौती से सामना होने के कारण, ब्रिटेन ने अपने मौजूदा साम्राज्य पर अपना नियंत्रण मजबूत करने के लिए और इसे आगे बढ़ाने के लिए एक ज़ोरदार प्रयास शुरू किया।
इसके अलावा, 1850 के बाद ब्रिटेन की एक बहुत बड़ी राशि भारत सरकार के रेल्वे व ऋणों में निवेशित थी, व कुछ राशि चाय बागानों, कोयला खनन, जूट मिलों, जहाजरानी, व्यापार, व बैंकिंग में निवेश की गई थी। आर्थिक और राजनीतिक खतरों से इस ब्रिटिश पूंजी को सुरक्षित रखना अब ज़रूरी हो गया था। भारत में ब्रिटिश शासन और भी अधिक मजबूती से संभालना आवश्यक था। नतीजतन शाही नियंत्रण और साम्राज्यवादी विचारधारा की एक नए सिरे से शुरूआत हुई जो इन राजप्रतिनिधियों जैसे लिटन, डफरिन, लैंसडाउन, एल्गिन और सब से अधिक कर्ज़न की प्रतिक्रियावादी नीतियों में परिलक्षित हुआ। (Lytton, Dufferin, Lansdowne, Elgin, Curzon)
2.0 प्रशासन
2.1 वैधानिक परिवर्तन
1858 में संसद के एक अधिनियम ने भारत की सत्ता ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश सरकार को हस्तांतरित कर दी। भारत पर अधिकार पहले कंपनी और बोर्ड ऑफ कंट्रोल के निदेशकों द्वारा किया जाता था, वहीं अब यह शक्ति भारत के लिए एक परिषद द्वारा समर्थित एक ‘राज्य के सचिव’ द्वारा प्रयोग की जाने वाली थी। राज्य के सचिव ब्रिटिश मंत्रिमंड़ल के सदस्य थे और इस तरह वे संसद के प्रति जिम्मेदार थे। इस प्रकार भारत में परम शक्ति ब्रिटिश संसद के साथ बनी रही।
इस अधिनियम के तहत सरकार द्वारा पहले की ही तरह गवर्नर जनरल (जिसे वायसरॉय या सरकार के निजी प्रतिनिधि का खिताब दिया गया था) के द्वारा चलाई जाती थी। समय बीतने के साथ वायसरॉय की स्थिति नीति-निर्माण एवं निष्पादन के मामले में ब्रिटिश सरकार के मुकाबले में कम होती गई। राज्य के सचिव ने प्रशासन के सूक्ष्मतम विवरण को नियंत्रित किया। इस प्रकार भारतीय मामलों पर अंतिम और विस्तृत नियंत्रण और दिशा, लंदन (भारत से हजारों मील दूर) से आया करती थी। ऐसी परिस्थितियों के अंतर्गत, भारतीय राय का प्रभाव पहले की तुलना में सरकार की नीति पर और भी कम पड़ा। दूसरी ओर, ब्रिटिश उद्योगपतियों, व्यापारियों और बैंकरों के भारत सरकार पर प्रभाव में वृद्धि हुई। भारतीय प्रशासन 1858 से पहले की तुलना में और अधिक प्रतिक्रियावादी (reactionary) बन गया व उदारवाद (liberalism) का ढ़ोंग भी अब धीरे-धीरे छोड़ दिया गया।
1858 के भारतीय परिषद अधिनियम ने गर्वनर जनरल को एक कार्यकारी परिषद प्रदान की जिसके सदस्य विभागों के प्रमुख थे व गर्वनर-जनरल के सलाहकार भी थे। परिषद अनेक मुद्दे मताधिकार से तय करती थी किंतु इन्हें गवर्नर जनरल खारिज़ भी कर सकते थे।
1861 के भारतीय परिषद अधिनियम ने गवर्नर-जनरल की भारतीय परिषद का विस्तार किया। यह अब विधि-निर्माण हेतु इंपीरियल (शाही) विधान परिषद के रूप में जानी जाती थी। गवर्नर जनरल को उसकी कार्यकारी परिषद मे छह से बारह गैर-अधिकारी सदस्यों को जोड़ने की शक्ति दी गई थी जिनमें से कम से कम आधे भारतीय या अंग्रेज़ हो सकते थे। इंपीरियल विधान परिषद के पास कोई वास्तविक शक्तियां नहीं थी और इसे प्राथमिक या कमजोर संसद के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह महज एक सलाहकार निकाय था। यह सरकार की पूर्व मंजूरी के बिना किसी भी महत्वपूर्ण उपायों (और किसी भी वित्तीय उपायों) पर चर्चा नहीं कर सकता था। इसका बजट पर भी कोई नियंत्रण नहीं था। यह प्रशासन की किसी कार्रवाई पर चर्चा नहीं कर सकता था और न ही सदस्यों को भी उनके बारे में सवाल पूछ सकता था।
दूसरे शब्दों में, विधान परिषद का कार्यपालिका पर कोई नियंत्रण नहीं था। इसके अलावा विधान परिषद द्वारा अनुमोदित कोई बिल तब तक एक अधिनियम नहीं बन सकता था जब तक उसे गवर्नर जनरल द्वारा पारित नहीं किया जाता। इस सब के शीर्ष पर, राज्य के सचिव इसके अधिनियमों को किसी भी रूप से अस्वीकार कर सकते थे। इस प्रकार, विधान परिषद का महत्वपूर्ण कार्य सरकारी उपायों को उसी हाल में और विधायी निकाय द्वारा पारित किया गया होने का स्वरूप देने के लिए गया था। सिद्धांत रूप में, गैर-सरकारी भारतीय सदस्यों को भारतीय विचारों का प्रतिनिधित्व करने के लिए परिषद से जोड़ा गया था। लेकिन विधान परिषद के भारतीय सदस्यों की संख्या में कम थी और वे भारतीय लोगों द्वारा निर्वाचित नहीं थे। वे हमेशा प्रधानों, उनके मंत्रियों, बड़े जमींदारों, बड़े व्यापारियों, या सेवानिवृत्त वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों मे से गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किये जाते थे। वे भारतीय लोगों की या बढ़ती राष्ट्रवादी राय के प्रतिनिधि नहीं थे। भारत सरकार 1858 के पहले जैसी एक विदेशी तानाशाह के रूप में बनी रही। यह कोई दुर्घटना नहीं थी अपितु एक जागरूक नीति थी। चार्ल्स वुड, भारत के राज्य सचिव ने 1861 के भारतीय परिषद विधेयक को पेश करते हुए कहा था कि ‘‘हमारा अनुभव हमें सिखाता है कि जब एक प्रभावशाली जाति दूसरों पर राज करती है, तो तानाशाही उसका सबसे न्यूनतम शोषक प्रकार है।‘‘
2.2 प्रांतीय प्रशासन
ब्रिटिश राज ने भारत को प्रशासनिक सुविधा हेतु प्रांतों में विभाजित किया था, जिनमें से तीन - बंगाल, मद्रास व बम्बई की प्रेसीडेंसी के रूप में जाने जाते थे। प्रेसीडेंसी क्राउन द्वारा नियुक्त किये गये एक गवर्नर और उसकी तीन की कार्यकारी परिषद द्वारा प्रशासित की जाती थी। प्रेसीडेंसी सरकारों के पास अन्य प्रांतीय सरकारों की तुलना में अधिक अधिकार और शक्तियां होती थी जो लेफ्टिनेंट गर्वनर व चीफ कमिश्नरों (आयुक्त) द्वारा प्रशासित होते थे।
1833 से पहले प्रांतीय सरकारों ने स्वायत्तता का आनंद लिया था पर कानून पारित करने की इनकी शक्ति छीन ली गयी थी जब और अब इनके खर्च पर सख्त केंद्रीय नियंत्रण था। लेकिन जल्द ही यह अनुभव हुआ कि भारत जैसे विशाल देश को सख्त केंद्रीयकरण के सिद्धांत पर कुशलता से प्रशासित नहीं किया जा सकता।
चरम केंद्रीयकरण की बुराई वित्त के क्षेत्र में सबसे स्पष्ट थी। देश भर में विभिन्न स्रोतों से राजस्व केंद्र पर एकत्र हुआ करते और उसके बाद प्रांतीय सरकारों के द्वारा वितरित किए जाते। केन्द्र सरकार ने प्रांतीय व्यय की छोटी से छोटी जानकारी पर सख्त नियंत्रण का प्रयोग किया लेकिन यह प्रणाली व्यवहार में काफी खर्चीली साबित हुई। केन्द्र सरकार का एक प्रांतीय सरकार पर राजस्व के कुशल संग्रह पर निगरानी रखना या उसके व्यय पर पर्याप्त नियंत्रण रखना संभव नहीं था। अधिकारियों ने इसलिए सार्वजनिक वित्त विकेंद्रीकृत करने का फैसला किया।
केंद्रीय और प्रांतीय वित्त अलग करने की दिशा में पहला कदम लॉर्ड मेयो द्वारा 1870 में लिया गया था। प्रांतीय सरकार को पुलिस, जेल, शिक्षा, चिकित्सा सेवा, और सड़क जैसी कुछ सेवाओं के प्रशासन के लिए केंद्रीय राजस्व की निश्चित रकम दी गई और उन्हे अपनी इच्छा से उनके प्रशासन के लिए कहा गया। लॉर्ड मेयो की इस विकेंद्रीकृत नीति को लॉर्ड लिटन द्वारा 1877 में भूमि राजस्व, आबकारी, सामान्य प्रशासन, और कानून एवं न्याय जैसे कुछ अन्य मदों में विस्तारित किया गया। अतिरिक्त व्यय को पूरा करने के लिए एक प्रांतीय सरकार को, आबकारी करों, और आयकर जैसे कुछ स्रोतों से उस प्रांत से प्राप्त आय का एक निश्चित हिस्सा मिलता था। इन व्यवस्थाओं में आगे परिवर्तन 1882 में हुआ। प्रांतों के लिए निर्धारित अनुदान देना समाप्त हो गया और एक प्रांत को निश्चित स्रोतों और अन्य स्रोतों से आय का एक निश्चित हिस्सा या संपूर्ण आय दिया जाने लगा। इस प्रकार, राजस्व के सभी स्रोतों को अब तीन - सामान्य, प्रांतीय और केन्द्र-प्रांतों के बीच में बंटने वाला - भागों में बांट दिया गया।
वित्तीय विकेंद्रीकरण के विभिन्न उपायों का मतलब यह नहीं था कि वास्तव में असली प्रांतीय स्वायत्तता या प्रांतीय प्रशासन में भारत की भागीदारी की शुरुआत हुई। इन प्रशासनिक पुनर्गठनों का मुख्य उद्देश्य खर्च कम रखने के लिए और आय को बढ़ाना ही था। सिद्धांत और अभ्यास दोनों रूपों में, केंद्रीय सरकार सर्वोच्च बनी रही और प्रांतीय सरकारों पर अधिक प्रभाव और विस्तृत नियंत्रण जारी रहा। यह अपरिहार्य था, और केंद्रीय व प्रांतीय सरकारें पूरी तरह से राज्य और ब्रिटिश सरकार के सचिव के अधीन थीं।
2.3 स्थानीय निकाय (Local Bodies)
वित्तीय कठिनाइयों ने नगर पालिकाओं और जिला बोर्ड़ों (मंड़लों) के माध्यम से स्थानीय सरकार को बढ़ावा देकर प्रशासन को विकेंद्रीकृत करने के लिए सरकार को मज़बूर किया। 19वीं सदी की औद्योगिक क्रांति ने धीरे-धीरे यूरोपीय अर्थव्यवस्था और समाज को बदल दिया। यूरोप में साम्राज्यवाद और आर्थिक शोषण के नए तरीकों के जन्म लेने के साथ भारत के साथ बढ़ते संपर्क ने अर्थव्यवस्था, स्वच्छता और शिक्षा के क्षेत्र में यूरोपीयों के कुछ तरीकों को भारत में प्रत्यारोपित किये जाने को आवश्यक बना दिया। इसके अलावा, बढ़ते भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन ने नागरिक जीवन में सुधार की शुरूआत की मांग की। इस प्रकार जनता ने स्वच्छता, शिक्षा, जल आपूर्ति, बेहतर सड़कें, और अन्य नागरिक सुविधाओं की ज़रूरत को तेज़ी से महसूस किया। सरकार अब इसे अनदेखा नहीं कर सकती थी, लेकिन सेना और रेलवे पर भारी खर्च के कारण वित्त में विकार पहले से मौजूद थे। मौजूदा कराधान का बोझ पहले से ही गरीबों पर बहुत भारी था। इसे और बढ़ाने पर सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा होने की संभावना थी। नए करों के माध्यम से आय में वृद्धि नहीं हो सकी। दूसरी ओर सरकार विशेष रूप से उच्च वर्गों, ब्रिटिश सिविल सेवकों, बागान मालिकों और व्यापारियों को अप्रसन्न नहीं करना चाहती थी। अधिकारियों ने महसूस किया लोगों को नए करों के भुगतान पर दुख नहीं होगा अगर उन्हें पता चले कि उनके पैसे को उनके स्वयं के कल्याण पर खर्च किया जाएगा। इसलिए स्थानीय निकायों को स्थानीय करों के माध्यम से प्राप्त वित्त को शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता और जल आपूर्ति जैसी स्थानीय सेवाओं के लिए हस्तांतरित करने का फैसला किया गया। अंग्रेजों ने स्थानीय निकायों के गठन के लिए एक और कारण से दबाव बनाया था। प्रशासन के साथ कुछ भारतीयों को जोड़ कर उनके राजनीतिक रूप से असन्तुष्ट होने को रोका जा सकता था। यह सहयोग भारत में ब्रिटिश शक्ति के एकाधिकार को खतरे में ड़ाले बिना स्थानीय निकायों के स्तर पर हो सकता था।
स्थानीय निकायों का पहली बार 1864 और 1868 के बीच गठन किया गया, लेकिन लगभग हर मामले में उनमें नामजद (nominated) सदस्य शामिल थे और वे जिला मजिस्ट्रेट की अध्यक्षता में चलते थे। इसलिए स्थानीय निकायों ने स्वयं-सरकार का स्वरूप कभी नहीं लिया व न ही बुद्धिमान भारतीयों ने इसे ऐसे स्वीकार किया। उन्होंने इसे लोगों से अतिरिक्त करों की निकासी के साधन के रूप में देखा।
एक बहुत संकोची कदम, लार्ड रिपन की सरकार द्वारा 1882 में लिया गया था। एक सरकारी संकल्प ने नीति निर्धारित की कि बड़े पैमाने पर ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों के माध्यम से स्थानीय मामलों का प्रशासन होगा, जो गैर-अधिकारी सदस्यों के माध्यम से होगा। इन गैर-अधिकारी सदस्यों का चुनाव जनता द्वारा जब अधिकारियों को आवश्यकता महसूस होगी तब किया जाएगा। प्रस्ताव ने स्थानीय निकाय के अध्यक्ष के रूप में एक गैर-सरकारी अधिकारी के चुनाव की अनुमति दी। लेकिन निर्वाचित सदस्य सभी जिला बोर्डों में और नगर पालिकाओं में अल्पमत थे, इसके अलावा चूँकि मतदान का अधिकार गंभीर रूप से प्रतिबंधित किया गया था अतः उनका चुनाव बहुत कम वोटरों द्वारा किया गया था। गैर-अधिकारी धीरे-धीरे नगर निगम समितियों के अध्यक्ष बन गये, हालांकि जिला अधिकारियों ने जिला बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में कार्य करना जारी रखा। सरकार ने स्थानीय निकायों की गतिविधियों पर सख्त नियंत्रण करने के लिए और अपने स्वयं के विवेक पर उन्हें निलंबित करने का अधिकार अपने पास रखा। परिणामस्वरूप कलकत्ता, मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी शहरों को छोड़कर, स्थानीय निकायों ने सिर्फ सरकार के विभागों की तरह कार्य किया और स्थानीय स्वयं-सरकार के ये अच्छे उदाहरण नहीं थे। राजनैतिक रूप से जागरूक भारतीयों ने रिपन के प्रस्ताव का स्वागत किया और कालांतर में वे स्थानीय स्वयं सरकार के प्रभावी अंगों में तब्दील किया जा सकते हैं इस उम्मीद में इन स्थानीय निकायों में सक्रिय रूप से काम किया।
2.4 सेना में परिवर्तन
1858 के बाद भारतीय सेना को पुनर्गठित किया गया, क्योंकि सरकार को एक और ‘विद्रोह’ की पुनरावृत्ति रोकनी थी। शासक समझ रहे थे कि उनकी बंदूकें ही उनके राज की ठोस बुनियाद थीं। कई कदम भारतीय सैनिकों की विद्रोह करने की क्षमता को कम करने के लिए उठाए गये। सबसे पहले, सेना का वर्चस्व यूरोपीय शाखा द्वारा हो, यह आश्वस्त किया गया। सेना में भारतीयों का गोरों से अनुपात बंगाल सेना में एक से दो और मद्रास और बंबई सेनाओं में दो से पाँच पर तय किया गया था। इसके अलावा, यूरोपीय सैनिकों को महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थानों व पदों पर रखा गया था। महत्वपूर्ण तोपखाने और बाद में (20वीं सदी में) टैंकों और बख्तरबंद कोर यूरोपीय हाथ में विशेष रूप से रखे गए थे। अधिकारी कोर (corps) से भारतीयों को अलग रखने की पुरानी नीति को सख्ती से बनाए रखा गया था। 1914 तक कोई भी भारतीय एक सूबेदार के पद से अधिक नहीं बढ़ सका था।
एक ब्रिटिश-विरोधी विद्रोह में पुनः भारतीय सैनिक एकजुट ना हो जायें, अतः सेना के भारतीय खंड का निर्धारण ‘संतुलन और समबल’ या ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति से किया गया था। जाति, क्षेत्र और धर्म के आधार पर भेदभाव की कोशिश सेना की भर्ती में की जाती थी। भारतीयों के ‘सामरिक’ (martial) और ‘गैर-सामरिक’ (non-martial) वर्गों में बंटे होने की एक मिथ्या बनाई गई। अवध, बिहार, मध्य भारत, और दक्षिण भारत के सैनिकों जिन्होंने पहली बार भारत की जीत में ब्रिटिश मदद की थी लेकिन बाद में 1857 के विद्रोह में भाग लिया था उन्हें ‘गैर-सामरिक’ घोषित किया गया। उन्हें अब एक बड़े पैमाने पर सेना में नहीं लिया गया। दूसरी ओर पंजाबी, गुरखा, और पठान जिन्होंने विद्रोह के दमन में सहायता प्रदान की थी उन्हें सामरिक घोषित किया गया और बड़ी संख्या में भर्ती की गई। 1875 तक ब्रिटिश भारतीय सेना के आधे सैनिक पंजाब से भर्ती किये गये थे। इसके अलावा, भारतीय रेजिमेंटों को विभिन्न जातियों और समूहों का मिश्रण बना दिया ताकि वे संतुलन बनाएं रखें। यह सैनिकों के बीच प्रोत्साहित किया गया जिससे उनमें सांप्रदायिक, जाति, आदिवासी और क्षेत्रीय वफादारी की भावना विकसित हो न कि राष्ट्रवाद की। उदाहरण के लिए जाति और सांप्रदायिक कंपनियां सभी रेजिमेंटों में शुरू किए गए। चार्ल्स वुड, भारत के लिए राज्य सचिव, ने 1861 में वायसराय कैनिंग को लिखाः
.‘‘मैं फिर से एक महान सेना नहीं देखना चाहता जिसे अपनी शक्ति में वैसा ही विश्वास हो कि वो एक साथ विद्रोह हेतु उठ खड़ी हो। अगर एक रेजिमेंट विद्रोह करे तो अगली रेजिमेंट को इतना मतभिन्न होना चाहिए कि वह इसे मारने के लिए तैयार हो’’।
इस प्रकार भारतीय सेना एक विशुद्ध रूप से भाड़े की सेना बनी रही। इसके अलावा हर प्रयास किया गया वे बाकी की जनसंख्या के जीवन और विचारों से अलग रहें। उन्हे हर-संभव तरह से राष्ट्रवादी विचारों से अलग रखा गया था। समाचार पत्र, पत्रिकाओं और राष्ट्रवादी प्रकाशनों को सैनिकों तक पहुँचने से रोका गया। बाद में यह नीति भारतीय सेना को लंबे समय तक और वर्गों में बांटने में विफल रही। ऐसे सभी प्रयासों ने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भारतीय सेना वक्त के साथ में एक बहुत महंगी सैन्य मशीन बन गयी। 1904 में भारतीय राजस्व का लगभग 52 प्रतिशत इसमें अवशोषित हुआ। इसका कारण सिर्फ एक नहीं था। भारत उस समय का सबसे बेशकीमती औपनिवेशिक कब्जा था। इसे लगातार रूस, फ्रांस और जर्मनी के साम्राज्यवाद की होड़ से बचाना था। इसलिए भारतीय सेना के आकार में एक बड़ी वृद्धि हुई। दूसरा, भारतीय सैनिकों को अकेले भारत की रक्षा के लिए नहीं बनाए रखा गया था। भारतीय सेना ब्रिटिश सत्ता का एशिया और अफ्रीका में संपत्ति के विस्तार और समेकन के लिए मुख्य साधन थी। अंततः, सेना के ब्रिटिश अनुभाग द्वारा भारत पर कब्जे रखने के रूप में यह देश भर में ब्रिटिश पकड़ की अंतिम गारंटी थी। इसकी लागत भारतीय राजस्व से निकलती थी और यह वास्तव में उन पर एक बहुत भारी बोझ था।
2.5 सार्वजनिक सेवाएं
अभी तक हमने देखा कैसे सरकार चलाने में भारतीयों का नियंत्रण नाममात्र था। कानून-व्यवस्था के नियमों को बनाने या निर्धारित करने की अनुमति भारतीयों को नहीं थी। यही नहीं, भारतीयों को नीतियाँ बनाने वाली नौकरशाही में भी कोई जगह नहीं मिली। जिन प्रशासनिक पदों में शक्ति और जिम्मेदारी होती थी उन सारे पदों पर भारतीय जन सेवा (भारतीय सिविल सर्विसेज) के सदस्य विराजमान थे। इनकी नियुक्ति लंदन में एक खुली वार्षिक परीक्षा के द्वारा होती थी। एक आम भारतीय इस वार्षिक परीक्षा में बैठ सकता था। रबिन्द्रनाथ टैगोर के भाई सत्येन्द्रनाथ टैगोर पहले भारतीय बने जब 1863 में उन्होंने इस परीक्षा में सफलता हासिल की। हर साल एक-दो भारतीय इस बड़ी परीक्षा में सफलता हासिल कर तो लेते थे परन्तु अंग्रेज़ों के मुकाबले भारतीयों की संख्या काफी कम रहती थी। व्यवहार में यह परीक्षा भारतीयों के लिए बड़ी ही मुश्किल थी। इसके कई कारण थे जैसे इस परीक्षा का लंदन में होना और परीक्षा का अंग्रेजी भाषा माध्यम। इतना ही नहीं, यह परीक्षा लैटिन और यूनानी पाठों पर आधारित थी जिसे समझने के लिए विदेश में लम्बी और महँगी पढ़ाई करनी होती थी। 1878 में इस परीक्षा में बैठने की उम्र को 23 से घटा कर 19 वर्ष कर दिया गया। जब यह 23 साल के भारतीय परीक्षार्थियों के लिए मुश्किल थी, तो 19 साल के छात्रों के लिए असंभव-सी थी। प्रशासन के अन्य विभागों में जैसे पुलिस, डाक, जनकार्य, दवाइयां, प्रौद्योगिकी और बाद में रेलवे, उच्च और अधिक आय वाले पद अंग्रेजो के लिए आरक्षित थे।
अंग्रेजी सरकार का ऐसा सामरिक व्यवहार आकस्मिक नहीं था। देश के शासकों को यह विश्वास था की अंग्रेजी बादशाहत को कायम रखने के लिए यह कदम जरुरी है। लार्ड किम्बर्ले (राज्य के सचिव) ने 1893 में यह बात कही “यह अपरिहार्य है कि भारतीय सिविल सेवा में यूरोपीय पर्याप्त संख्या में रहें”। वाइसरॉय लार्ड लैंसडॉन ने जोर दिया “इस विशाल साम्राज्य को बनाए रखने के लिए यह बहुत जरुरी है की यह यूरोपीय हाथों में रहे”।
1918 तक भारतीय दबाव में विभिन्न प्रशासनिक सेवाओं का भारतीयकरण सम्भव हो सका। किंतु देश पर नियंत्रण और अधिकार रखने वाले पदों पर अभी भी अंग्रेजों का ही दबदबा था। लोगों ने जल्द ही यह समझ लिया कि प्रशासनिक सेवाओं के भारतीयकरण के बावजूद राजनैतिक तौर पर भारतीयों को कोई अधिकार नहीं था। जो भारतीय इन पदों पर नियुक्त किये गए थे वह उनके नुमांइदे थे जो भक्तिपूर्वक अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीतियों को पूरा कर रहे थे।
2.6 भारतीय रियासतों से सम्बन्ध
1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजी सरकार ने अपनी नीति बदली। तब तक अंग्रेज़ भारत की विभिन्न रियासतों को हथियाने के हर मौके को भुनाने की कोशिश में लगे रहते। यह नीति 1857 में स्थगित कर दी गई। भारत के अधिकतर राज्यों ने न सिर्फ अंग्रेज़ी हुकूमत का साथ दिया बल्कि बाद में इस विद्रोह को दबाने में उनकी भरपूर मदद भी की। लार्ड कैनिंग जो उस समय के वाइसराय थे, उनके शब्दों में “इन्होंने तूफान में रुकावट का काम किया”। इसके मद्देनज़र अंग्रेज़ी सरकार ने इन राज्यों को न सिर्फ अपनी विरासत कायम रखने का भरोसा दिया बल्कि भविष्य में इन्हें विलय से अलग रखने का भी वादा किया। अंग्रेज़ सरकार ने यह भी सीख ली की भविष्य में यह छोटे रियासती राज्य किसी भी तरह के विद्रोह से निपटने में उनके मददगार साबित हो सकते हैं। 1860 में लार्ड कैनिंग ने लिखाः
‘‘सर जॉन मैल्कम ने बहुत पहले यह कहा था की पूरे भारत को जिला-वार बना दिया जाए, तो तय नहीं है कि हमारी हुकूमत 50 साल से ज्यादा चले, पर अगर हम कुछ भारतीय राज्यों को राजनीति से दूर रख शाही उपकरण की तरह इस्तेमाल करें तो हम इस देश में तब तक राज कर सकते हैं जब तक हम नौसेनिक शक्ति में इनसे ऊपर रहें। इस राय में दम पहले भी था और हाल के घटनाक्रम ने हमें इस विषय पर विशेष नज़र डालने के लिए मजबूर कर दिया है’’।
इस वजह से इन रियासती राज्यों को अंग्रेजी हुकूमत के नुमाइंदों की तरह जीवित रखने का फैसला किया गया। इस पर अंग्रेज इतिहासकार पी.ई. रॉबर्टस् ने लिखा “राज्यों को सुरक्षा बांध की तरह सहेज कर बनाए रखना अंग्रेज़ सरकार की पहले से बनी एक नीति है।’’
स्थायीकरण रियासतों के लिए अंग्रेजों द्वारा बनायी हुई नीति का केवल एक पहलू था। इसके अलावा अंग्रेज़ों के लिए इन राज्यों की अधीनता भी एक प्रमुख उद्देश्य था। 1857 के विद्रोह से पहले भी अंग्रेजों ने इन राज्यों के अंदरूनी मसलों में दखलअंदाजी करते रहते थे। सैद्धान्तिक तौर पर यह राज्य उनके लिए सहायक किंतु संप्रभु शक्तियां थी। बदले में इन राज्यों को अंग्रेजी हुकूमत को सर्वोपरि शक्ति के रूप में मानना पड़ा। 1876 में महारानी विक्टोरिया ने अंग्रेजी हुकूमत की बादशाहत को साबित करने के लिए अपने आप को ‘‘भारत की साम्राज्ञी’’ का खिताब दे दिया। लॉर्ड कर्ज़न ने बाद में यह साफ कर दिया कि यह राज्य अंग्रेजी सल्तनत के एजेंट मात्र हैं। भारतीय राजाओं ने भी इसमें हामी भरी ताकि उनका राज्य उनके पास रहने दिया जाये।
सर्वोच्च शक्ति होने के नाते अंग्रेज़ सरकार ने इन छोटे राज्यों के अंदरूनी मसलों में भी निगरानी करने का अधिकार बनाए रखा। दखलंदाजी न सिर्फ दैनिक काम काज में होती थी, बल्कि अंग्रेज़ सरकार राज्यों के मंत्रियों को रखने और हटाने में भी अपनी राय रखने लगी। कभी-कभी वे शासको की ताकतों को मिटा या दबा देते थे। उनका एक मकसद ये भी था कि राज्यों को आधुनिक करें जिससे कि उसे अंग्रेज़ी हुकूमत का हिस्सा बनाया जा सके। भारत में रेलवे, डाक, दूरसंचार, मुद्रा और आम आर्थिक जीवन शैली के विकास से उनके एकीक्रम और दखलअंदाजी को बढ़ावा मिल रहा था। अंग्रेज़ राजसी रियासतों में उठ रहे व्यापक लोकतांत्रिक व राष्ट्रवादी आंदोलनों से भी सचेत हो चुके थे। वे राजाओं को इन्हें कुचलने में मदद करते किंतु राजाओं की गंभीर प्रशासनिक चूकों को भी ठीक करने का प्रयास करते।
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